Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 845
________________ ७९० उत्तराध्ययनसूत्रे लब्ध्वा संवृत्तः संवरयुक्तः सन् आस्रवं निरुध्येत्यर्थः, रजः बद्धं बध्यमानं च कर्म रूपं रेणु, निर्धनोति = नितरां धुनोति - अपनयति, तदपनयनाच्च मोक्षं प्राप्नोतीत्यर्थः॥ ११॥ मानुषत्वादेः पारत्रिकफलं कथितम् । इदानी मैहिकफलं बोधयितुमाह धर्म का श्रवण कर उसमें श्रद्धा करता है - श्रद्धाशाली होता है - वह (तवस्सी - तपस्वी ) निदान आदि शल्य से रहित प्रशस्त तप का आराधक और (संवुडो - संवृतः) आस्रव का निरोध करने वाला जीव ( वीरियं लढुं ) संयम में वीर्योल्लास को धारण कर ( रयं निदुणे - रजः निर्धुनोति ) बद्ध अथवा बध्यमान कर्मरूप धूलिका अपनी आत्मासे बिलकुल अलग कर देता है, अर्थात् - कर्मरजरहित होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । भावार्थ-तप से दो काम होते हैं-१ संवर और २ निर्जरा। ये दो ही तत्व मुक्ति के कारण हैं । जो आत्मा मनुष्यदेह को पाकर धर्म में रुचिशाली होता है वह तपस्वी बनकर निदान आदि शल्यरहित तप से आस्रव का निरोध कर संयम में वीर्योल्लास की अधिकता से बद्ध अथवा बध्यमान कर्मों का नाश करने वाला हो जाता है ॥। ११ ॥ मनुष्यत्व आदि का पारत्रिक फल कह दिया है । इस समय ऐहिक फल बतलाने के लिये यह गाथा कही जाती है—' सोही ' इत्यादि । श्रध्धा पुरे छे, - श्रध्धावान जने छे, ते तवस्सी - तपस्वी निहान आदि शस्यथी रडित प्रशस्त तपना आराध अने संवुडो-संवृतः स्त्रवने। निरोध वा वाणे व वीरियं लभ्धुं वीर्यं लब्ध्वा संयभमां वीर्योदयासने धार मेरी यं निधुणे - रजः निर्धुनोति युद्ध ( संधाई शुठेसां ) अथवा मध्यमान (नवां બંધાતાં) કમરૂપ ધૂળને પેાતાના આત્માથી બિલકુલ અલગ કરી દે છે. અર્થાત કાઁરજ રહિત થઇને મેાક્ષને પ્રાપ્ત કરી લે છે. ભાવાર્થ--તપથી એ કાર્ય થાય છે. એક સવર અને ખીજું નિજ રા એ બે તત્વ જ મેાક્ષનું કારણ છે. જે આત્મા મનુષ્યદેહને પાીને ધર્મીમાં રૂચીવાળે અને છે, તે તપસ્વી ની નિદ્યાન આદિ શયરહિત તપથી આસવના નિરાધ કરી સંયમમાં પ્રવૃત્ત ખનતાં મધ અથવા મધ્યમાન કર્મોના नाश पुरी शडे छे. ॥ ११ ॥ મનુષ્યત્વ આદિનાં પરલેાક સંબંધિ ફળ વિશે કહેવામાં આવ્યુ છે. આ સમયે ઐહિક ( આ લેાકનાં) ફળ ખતાવવા માટે આ ગાથા કહેવામાં આવે छे. सोही - त्याहि. ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧

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