Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे छाया-मनोगतं वाक्यगतं, ज्ञात्वा आर्चायस्य तु।
तत् परिगृह्य वाचा, कर्मणा उपपादयेत् ॥४३॥ टीका-'मणोगयं ' इत्यादि___ आचार्यस्य मनोगतं-मनसि वर्तमानं, तथा वाक्यगतं वचसि स्थितं तु शब्दात् कायगतमपि कार्य पूर्व ज्ञात्वा, पश्चात् तत्-कार्य वाचा परिगृह्य अङ्गीकृत्य, 'अहमेतत् कार्य करोमि' इत्युक्त्वा शिष्यः कर्मणा कायिक्या क्रियया, उपपादयेत्= संपन्नं कुर्यात् । यत् कार्य गुरोमनसि विद्यमानं, 'कार्यमिदं क्रियताम्' इत्यादिना वचसा वाऽभिहितं, गुरुणा क्रियमाणं वा यत् कार्य तद् गुरुहस्तादुपादाय त्वरितमेव सुशिष्येण संपादनीयमिति भावः ॥४३॥
'मणोगयं' इत्यादि.
अन्वयार्थ-(आयरियस्स मणोगयं वक्तगयं-आचार्यस्य मनोगतं वाक्यगत) आचार्य महाराज के मनोगत एवं वाक्यगत “ तु" शब्द से कायगत कार्य को (जाणित्ता-ज्ञात्वा) पहिले जानकर पश्चात् (तं-तत्) उस कार्य को (वायाए-वाचा) वाणी से (परिगिज्झ-परिगृह्य) अगीकार कर के शिष्य (कम्मुणा-कर्मणा) कायसंबंधी क्रिया द्वारा (उववायएउपपादयेत् ) उस कार्य को कर देवे। जो कार्य गुरु के मन में स्थित हो-गुरु ने जिस कार्य को करने का विचार किया हो 'इदं कार्यम् क्रियताम् ' यह काम करो' इस प्रकार जिस कार्य को करने के लिये उन्होंने कहा हो, अथवा गुरु महाराज जिस कार्य को स्वयं अपने हाथ से कर रहे हों तो विनयी शिष्य का कर्तव्य है कि वह उस कार्य को शीघ्र ही स्वयं संपादित करे । और गुरु महाराज करते हों तो उनके हाथ से लेकर स्वयं करने लग जाय ॥४३॥
मणोगय-त्यादि
मन्क्याथ-आयरियस्स मनोगय वकगय-आचार्यस्य मनोगतं वाक्यगतं આચાર્ય મહારાજના મને ગત્ અને વાકયગત “તુ” શબ્દથી કાયગત કાયને जाणित्ता-ज्ञात्वा पसां सीन पछीथी तं-तत् ते यन वायाए-वाचा पीथी परिसिज्ज-परिगृहय म४ि.२ ४शने शिष्य कमुणा-कर्मणा य संधी जिया द्वारा उबवाय-उपपादयेत् से यश.२ आय शुरुना मनमा સ્થિત હોય, ગુરુએ જે કાર્ય કરવાનો વિચાર કર્યો હોય. “ આ કામ કરો.?
આ પ્રકાર જે કાર્ય કરવા માટે પોતે પિતાના હાથથી કરી રહ્યા હોય તો વિનયી શિયનું કર્તવ્ય છે કે એ તે કાર્યને તુરત જ પિતે ઉપાડી લે અને ગુરુ भडारा ४२ता डायत तमना डाथमाथी सनपात २१। सभी नय.॥ ४३ ।।
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧