Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ० २ गा० ११ देशमशकपरीषहजयः
केन प्रकारेण भावशत्रु जयेदित्याहमूलम् ने संतसे न वारेजों, मणंपि न पओसए।
उवेहे ने हेणे पाणे, भुंजन्ते मंसंसोणियं ॥११॥ छाया-न संत्रसेत् न वारयेत् , मनोऽपि न प्रदूषयेत् ।
उपेक्षेत न हन्यात् प्राणान् , भुञ्जानान् मांस शोणितम् ॥११॥ टोका--' न संतसे' इत्यादि।
महामुनिर्देशमशकैरुपद्रुतः सन् न संत्रसेत् नोद्विजेत्-दंशमशकादिभिर्दश्यमानोऽपि न ततः स्थानादपगच्छेदित्यर्थः । न वारयेत् , हस्तवस्त्रादिना नापसारयेत्मनोऽपि न प्रदूषयेत्-न कलुषितं कुर्यात् अपि-शब्दाद्वचनादिकमपि न प्रदुष्टं ___ इसका भाव यह है-जैसे पराक्रमी हस्ती बाणों के आघात से व्यथित होने पर भी रण में शत्रु को परास्त कर देता है, उसी तरह साधु भी दंशमशक आदि द्वारा पीडित होने पर भी कषायरूपी शत्रु को परास्त करे ॥ १० ॥
भावशत्रु को किस तरह परास्त करना चाहिये इसको इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है-न संतसे इत्यादि ____ अन्वयार्थ-महामुनि दंशमशक आदि से पीडित होने पर भी (न संतसे-न संत्रसेत् ) कभी भी चित्त में उद्विग्न न होवे-देशमशक आदि से पीडित होने पर भी मुनि एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जावे (न वारेज्जा-न वारयेत् ) दंसमशक को अपने शरीर पर बैठ जाने पर हस्तअथवा वस्त्र आदि से नहीं हटावे । (मणं पि न पओसए
આને ભાવ એ છે કે-જેમ પરાક્રમી હાથી બાણેના આઘાતથી પીડિત હોવા છતાં પણ રણમાં શત્રુને પરાજીત કરે છે, તેવી જ રીતે સાધુ પણ દંશમશક આદિ દ્વારા પીડિત હોવા છતાં પણ કષાયરૂપી શત્રુનો પરાજય કરે ૧૦
ભાવશત્રુને કેવી રીતે જીતવા જઈ એ, એ હકીક્ત આ ગાથા દ્વારા प्रगट ३२वामां आवे छे. नसंतसे-त्या.
भन्वयार्थ-iस भने भ२७२थी पीडित मन छti न संतसे-न संत्रसेत् મહામુનિ ચિત્તમાં ઉદ્વેગ ન લાવે,-ડાંસ મચ્છરના કરડવાથી મુનિએ એક સ્થાનથી भी स्थान न ४, न वारेज्जा-न वारयेत् स भ२०२ने पोताना शरी२ ५२ मे नन साथ मने पर माहिथी तेन टावे नही, मणंपि न पओसए
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧