Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका. अ० १ गा० ३६ वाग्यतना निरवद्यपक्षो व्याख्यायते-यथा-'सुकृतमिति' सुष्टु कृतमनेन वैयावृत्यमभयदानं सुपात्रदानादिकं वेति, 'सुपक्वमिति' सुष्टु पक्वमस्य ब्रह्मचर्यादिकमिति, 'सुच्छिन्नं' सुष्टु छिन्नमनेन स्नेहबन्धनमिति, 'सुहृतं' सुष्ठु हृतं स्वायत्तीकृतं ज्ञानादिरत्नत्रयमिति, 'सुनिष्ठितम् ' सुष्टु नष्टमस्याप्रमत्तसाधोः कर्मजालम्, सुमृतः सुष्टु मृतोयं पण्डितमरणेन इति । मुलष्टा-मुष्ठु मनोज्ञा क्रियाऽस्य साधोः, यद्वा-सुलष्टा-दीक्षायोग्या कन्येति वदेत् ॥ ३६ ॥ कोई दोष नहीं लगता, इस प्रकार यह सावद्य पक्ष का वर्णन हुवा है। अब निरवद्य पक्षका अर्थ कहते हैं-निरवद्य पक्ष में जब साधु 'सुकृतं' 'इस ने वैयावृत्य; अभयदान एवं सुपात्र दान आदि सत्कर्म जो किये हैं वे बहुत अच्छे किये हैं' इस प्रकार बोल ने में कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार आगे सब जगह समझलेना चाहिये,-जैसे 'सुष्टु पकमस्य ब्रह्मचर्यादिकं' इस के ब्रह्मचर्य आदि सद्गुण अच्छी तरह से परिपक्व हो चुके हैं, इति ' सुष्टु छिन्नं अनेन स्नेहबन्धनम् ' इति, इस ने स्नेह का बंधन अच्छी तरह से काट दिया है, 'सुष्टु हृतं स्वायत्तीकृतं अनेन ज्ञानादिरत्नत्रयं' इति, इस ने ज्ञानादिक रत्नत्रय को अच्छी तरह से स्वाधीन कर लिया है, 'सष्ठु नष्टमस्याऽप्रमत्तसाधोः कर्मजालम् । इति, इस अप्रमत्त साधु का कर्मजाल अच्छी तरह से नष्ट हो चुका है। 'मुष्ठु मृतोऽयं पण्डितमरणेन' इति, पंडित मरण से इसकी मृत्यु हुई यह बहुत ही सुंदर बात हुई, 'सुष्टु मनोज्ञा अस्य साधोः क्रिया' इति, લાગતું નથી. આ પ્રકારે આ સાવદ્ય પક્ષનું વર્ણન થયું હવે નિરવઘ પક્ષનું વર્ણન કરવામાં આવે છે –
निरवध पक्षमा न्यारे साधु "सुकृतं" मारे वैयावृत्य, महान, मने સુપાત્રદાન આદિ જે સત્કર્મ કર્યા છે તે ઘણાં સારાં કર્યા છે ” આ પ્રકારે બોલવામાં કઈ દેષ નથી. આ પ્રકારે આગળ દરેક જગ્યાએ સમજી લેવું नसे. रेम-"सुष्टु पक्वमस्य ब्रह्मचर्यादिकं " सेना प्रायः माह सहशुष्प सारी री परि५४५ थयेस छ, छति, “ सुष्टु छिन्नं अनेन स्नेहबन्धनम् "ति, मेणे ने म धन सारी रात थी नामे छे “स्वायत्तीकृतं अनेन ज्ञानादिरत्नत्रयं" धति, मेरी जाना त्नत्रयने सारी रीत स्वाधीन ४री सीधे छे. 'सुष्ठुनष्टमस्याप्रमत्त साधोः कर्मजालम् " 20 मप्रमत्त साधुनी मन सारी शत नष्ट थाई युडेद छ, “ सुष्ठु मृतोऽयं पण्डितमरणेन"ति, पंडित भरथी मेनु मृत्यु थयु ये घणु ४ सा थ', “ सुष्ठु मनोज्ञा अस्य साधोः क्रिया" इति याउ० ३१
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર : ૧