Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनस्त्रे
अपदं - निर्विभक्तिकशब्दोच्चारणरूपम् । यथा - मुनिर्विहरतीति वक्तव्ये मुनि विहरतीति कथनम् ॥ १८ ॥ स्वभावहीनं
यत्र वस्तुस्वभावोऽन्यथा स्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत् । यथा ' शीतो वह्निः ' ' रूपवदाकाशम् ' इत्यादि ॥ १९ ॥
व्यवहितं - यत्र प्रकृतमुक्त्वाऽप्रकृतं विस्तरतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तद् । यथा - हेतुकथामधिकृत्य सुप्तिङ्न्तपदलक्षणप्रपञ्चमर्थशास्त्रं वा अभिधाय पुनर्हेतुवचनम् । यथा वा-दयां प्रस्तुत्य शीलस्य विस्तरवर्णनं विधाय पुनर्दयावर्णनम् ॥ २० ॥ अधिक जो युक्तियुक्त नहीं है-उस को मानना जैसे- जीवराशि अजीवराशि ये दो ही राशियां हैं। पर ऐसा कहना कि "नो जीव नो अजीव " इस प्रकार तीसरा राशि का वर्णन करना अनभिहित दोष है ॥ १७ ॥ विभक्ति रहित शब्द वाला सूत्र अपद दोष वाला माना जाता है जैसे " मुनिविहरति " यहां हुआ है । क्यों कि सुबन्त एवं तिङन्त की पद मंज्ञा होती है । निर्विभक्तिक शब्द पद संज्ञक नहीं होता । अतः इस प्रकार का शब्द वाला सूत्र इस दोष से विशिष्ठ माना जाता है । मुनिर्विहरति " यह शुद्ध है ॥ १८ ॥ जिस सूत्र द्वारा वस्तु का यथावस्ति स्वरूप निरूपित न होकर अन्यथारूप में निरूपित किया जाता है वहां स्वभावहीन दोष होता है। जैसे-अग्नि को शीत एवं आकाश को रूपी कहना ॥ १९ ॥ जहाँ प्रकृत अर्थ को छोड़कर अप्रकृत का विस्तार से वर्णन करके पुनः प्रकृत अर्थ का वर्णन किया जाता है वहां व्यवहित नाम का दोष होता है- जैसे- हेतु के लक्षण के कथन अवसर
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યુક્ત નથી તેને માનવી જેમ-જીવરાશી અજીવરાશી એ એ રાશી છે, પણ सेभ हे } नो जीव-नो अजीव या अहारे भील राशीनुं वर्जुन ४२ અનભિહિત દોષ છે. (૧૭) વિભક્તિરહિત શબ્દવાળા સૂત્ર અપ દોષવાળા भनाय छे म " मुनिविहरति " अहिं थयेल हो प्रेम, सुमन्त भने तिङन्तनी પદ્મ સંજ્ઞા થાય છે. નિવિભક્તિક શબ્દ પદ્મ સજ્ઞક થતા નથી એટલે આ अहारना शहवाजा सूत्र या होषथी विशिष्ट मानवामां आवे छे. “मुनिर्विहरति ” આ શુદ્ધ છે. (૧૮) જે સૂત્રથી વસ્તુનું યથાવસ્થિત સ્વરૂપ નિરૂપિત ન થતાં ખીજા રૂપમાં નિરૂપિત કરવામા આવે છે ત્યાં સ્વભાવહિન દોષ હાય છે. જેમ અગ્નિને શીત અને આકાશને રૂપી કહેવું. (૧૯) જ્યાં પ્રકૃત અને છોડીને અપ્રકૃતનું વિસ્તારથી વર્ણન કરીને પુનઃ પ્રકૃત અનુ વર્ણન કરવામાં આવે છે ત્યાં વ્યવહિત નામના દોષ લાગે છે–જેમ હેતુ લક્ષણુના કથન અવસરમાં
ઉત્તરાધ્યયન સૂત્ર ઃ ૧