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(४) माहार निद्रा, भय मैथुनं च
सामान्य मेतत्पशुभिनराणाम् । धर्मोऽहि तेषामधिकां विशेषः
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।। खाना-पीना और खेलना, मौज करना, आराम करना और स्वैर विहार करना, इसमें मानव जैसे मानव की बड़ाई नहीं है कारण कि जानवर भी इसी कर्म को आचरते हैं और मौज करते हैं । अर्थात् मूलतः पशु जैसा मनुष्य पशु से मात्र धर्म के कारण से ही अलग पड़ता है । यदि धर्म न हो तो पशु और मनुष्य में कुछ भी फर्क नहीं है । - यह धर्म क्या है ? यह इस प्रस्तुत ग्रन्थ, "अध्यात्मकल्पद्रुम" में बताया गया है । धर्म का रूप क्या है, इसका स्वरूप क्या है, मनुष्य किस प्रकार से इसका प्राचार कर सकता है और जीव इस भयंकर पृथ्वी पर संतोषी और सुखी कैसे हो सकता है? इसका इस ग्रंथ में विशदता से वर्णन किया गया है। हम आस्वादन कर इसका स्वाद पाठकों को चखावें इसकी अपेक्षा पाठक स्वयं इसका आस्वादन करें यही पथ्य एवं उत्तम है। ___ यह ग्रन्थ वास्तव में वर्तमान युग के सतप्त प्राणी के लिए शांति देने वाली और विवेक जागृत करने वाली शीतल प्याऊ है। सरस्वस्ती के साक्षात अवतारसम श्री मुनि सुन्दर सूरिजी की यह कृति है । श्री मुनि सुन्दरसूरिजी सुप्रसिद्ध 'संतिकरं स्तवन' के कर्ता के रूप में ख्याति प्राप्त है। यह कृति भी मंत्राक्षर जैसी प्रभावशाली है।