Book Title: Jain Granth Prashasti Sangraha
Author(s): Parmanand Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर-ग्रन्थ-माला पुष्प १४ जैन-ग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह ( अपभ्रश जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह ) द्वितीय भाग सम्पादक ५० परमानन्द जैन शास्त्री प्रकाशक वीर-सेवा मन्दिर-सोसाइटी २१ दरियागंज, दिल्ली प्रथम संस्करण ज्येष्ठ शुक्ला १४ वी० नि० सं० २४८६ जून सन् १९६३, वि० सं० २०२० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक वीर-सेवा मन्दिर-सोसाइटी २१ दरियागंज, दिल्ली मूल्य १२ रुपया प्रथम संस्करण कापी ५०० मुद्रक रूप-वाणी प्रिंटिंग हाउस, २३, दरियागंज, दिल्ली-६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vir-Sewa Mandir Granthmala Granth N. 14 Jain Granth Prashasti Sangrah PART II Edited by Pt. Parmanand Jain Shastri Published by Vir Sewa Mandir Society 21 DARYAGANJ, DELHI Jetha, Shukla 14, Vira N. Samvat 2489, Vikram Samvat 2020 June 1963 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sher SEWA MANDIR SOCIETY aryaganj, Delhi PRICE Rs. 12 FIRST EDITION Copies 500 Printers ROOPVANI PRINTING HOUSE 23. Daryaganj, Delhi. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रस्तुत प्रशस्ति संग्रह पाठकों के समक्ष उपस्थित है। इससे पाठकों को वीर-सेवा-मन्दिर के अनुसंधान कार्य का प्राभाम मिल सकेगा। इस ग्रन्थ में अनुसन्धान से सम्बन्ध रखने वाली सभी सामग्री को प्राकलन करने का प्रयास किया गया है। यद्यपि इस ग्रन्थ के प्रकाशन में अधिक बिलम्ब हो गया है, और उसका कारण प्रेम प्रादि की अव्यवस्था है । ग्रन्थ के नय्यार करने में भी काफी समय और श्रम करना पड़ा है, और यह अनुसन्धत्सुओं के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध होगा; क्योंकि इसमें अपभ्रंश भाषा के साहित्य की कृतियों और ग्रन्थकर्ताओं के परिचय तथा ममयादि पर प्रकाश डालने का भरमक प्रयत्न किया गया है । ग्रन्थ की प्रस्तावना पं0 परमानन्द शास्त्री ने बड़े परिश्रम से लिखी और वह प्रमेय बहुल है तथा उपयोगी परिशिष्टों से अलंकृत है। ___ सबसे महत्व की बात यह है कि इस ग्रन्थ का प्राक्कथन डाक्टर श्री वासुदेव जी शरण अग्रवाल हिन्दु विश्व विद्यालय बनारस ने लिखा है, और प्रिफेस (PREFACE) दिल्ली विश्वविद्यालय के रीडर डा० श्री दशरथ शर्मा, डी० लिट् ने अंग्रेजी भाषा में लिखा है । इसमे ग्रन्थ की महत्ता और भी अधिक बढ़ गई है । मैं संस्था की ओर मे उन दोनों ही मान्य विद्वानों का बहुत ही आभारी हूँ। प्राशा है विद्वान, विश्वविद्यालयों, लायबेरियों और कालेजों का पुस्तकालयाध्यक्ष इस ग्रन्थ को मंगाकर उगसे अधिकाधिक लाभ उठाने का प्रयत्न करेंगे। जयभगवान जैन, एडवोकेट मंत्री-वीर-सेवा-मंदिर सोसाइटी २१ दरियागंज, दिल्ली Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वीर-सेवा-मन्दिर एक ऐतिहासिक संस्थान है, जो एक जैन रिसर्च इन्स्टिट्यूट के रूप में प्रसिद्ध है। उम उद्देश्यों में पुरातन-प्रवन्धी का अन्वेषण, पुस्तकालय का संकलन, पुरातन जैनाचार्यों, राजाओं, विद्वानों और भट्टान्को गादि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करना भी शामिल है। वीर-सेवा मन्दिर मोमाइटी अपने इस उद्देश्य की पूति के अनुरूप ही कार्य कर रही हैं। उसके मामने 'जैन भाहित्य का इतिहाम, भगवान नेमिनाथ के ममय मे लेकर अब तक ऐतिहासिक प्रमाधनों का संकलन, संयोजन और महत्व की मामग्री के प्रकाशन की ओर रहा है। परन्तु ममाज का पूर्ण महयोग न मिलने से वह जमा चाहिये था वैसा कार्य मम्पन्न करने में नमर्थ न हो सका । पर जितना भी कार्य कर सका वह सब उमकी प्रगति का संसूचक है, उसने अपने प्रतिष्ठित और ख्याति प्राप्त अनेकान्त पत्र द्वारा ऐतिहामिक माहित्यिक एवं पुरातत्व समबन्धी अनुगन्धानात्मक सामग्री को प्रकाशित किया है और कर रहा है प्रावश्यकता जैन माहित्य और संस्कृति का इतिहास लिखने के लिये जिस तरह शिलालेख, ताम्रपत्र, पुरातात्विक अवशेष और भुउत्खनन से प्राप्त विविध सभ्यतानी के अलंकरणों से बड़ी सहायता मिलती है। अतएव अनुसंधान कर्ताओं को विविध भाषाओं के साहित्य से साहाय्य मिलता है । अतएव ऐतिहासिक अनुसन्धत्सुत्रों के लिये भारतीय माहित्य के परिशीलन, मनन, और अनुमधान करने की महती आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक समझा गया कि अपभ्र का जन साहित्य, जो दिल्ली, ग्वालियर, जयपुर, व्यावर, बम्बई, कारंजा, झालरापाटन और नागौर आदि के विवध जैन ग्रन्थागारों में सुरक्षित है उनके ग्रन्थों के आदि द्वन्त भाग का संग्रह कर ऐतिहासिक प्रशस्तियों को प्रकाशित किया जाय। और उनकृतियों के परिचयादि के साथ ग्रन्थकर्ता विद्वानों के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हए उनके ममय की भी चर्चा की जाय । जिमग हिन्दी के आदिकाल पर प्रकाश पड़ मके, और हिन्दी के उद्गम एवं विकास को भी अच्छा संकेत मिल सके। साथ ही, विविध उप जातियों द्वाग ममय ममय पर निर्माण कराये गये और प्रति लिपि कराने वालों का इतिवृत्त भी अंकित हो सके । और उस ममय की धार्मिक जागृति तथा सामाजिक रीति-रिवाजों का भी परिज्ञान हो सके । इन्हीं सब कार्यों को ध्यान में रखते हए अपभ्रंश प्रभारियों के संकलन का विचार स्थिर किया गया । वीर मेवा मन्दिर की इस योजना को कार्य में परिणत करने के लिये मैं मई मन् १९४४ में सरसावा से जयपुर गया, और वहाँ के प्रतिष्ठत विद्वान् पं० चैनसुखदास जी और महावीर तीर्थक्षेत्र कमेटी के मंत्री रामचन्द्र जी खिन्दका आदि महानुभावों के महयोग मे आमेर का भट्टारकीय भंडार जयपुर लाया गया, और सेठ वधीचन्द जी के कमरे में रक्खा गया। मैने बड़े पन्श्रिम से उन गट्ठडा को खोला और ग्रंथों को निकाल कर उनके ग्रादि अन्त भाग का मंकलन शुरु कर दिया; परन्तु बीच में ही मरमावा लौटना पड़ा, जिससे पूग भंडार न देखा जा सका, जिनना देखा और नोट कर मका उसका परिचय अनेकान्त वर्ष ६ किरण ११-१२ के पृष्ठ २७२ में 'जयपुर में एक महीना' नाम के लेख में प्रकाशित कर दिया। और बाद में संस्कृत ग्रन्थों की प्रशस्तियों का संग्रह भी प्रकाशित हो हो गया । अपभ्रश प्रशस्तियों के संकलित मैटर की प्रेस कापी नय्यार की गई, और अन्य अपभ्रंश ग्रन्थों को मंगवा कर उनकी भी प्रेस कापी करली गई, प्रयशन का विचार किया गया किन्तु अार्थिक कठिनाई ने उमे कार्य रूप में परिणत न होने दिया। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन् १९५६ में अपभ्रंश प्रशस्तियों को अनेकान्त की प्रत्येक किरण में एक फार्म रूप से प्रकाशित करने का निश्चय डा० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुर की मम्मति से किया गया, और १४ व वर्ष के अनेकान्त में प्रशस्ति संग्रह के १० फामं छपगए, उसके बाद माथिक कठिनाई आदि के कारण पत्र का प्रकाशन स्थगित हो गया, और मेरा भी संस्था से सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से प्रशस्तियों का प्रकाशन अधूरा ही रह गया । किन्तु सन् ६० में उसे प्रकाशित करने का पुन: निश्चय हुमा, प्रौर बाबू जयभगवान जी एडवोकेट, मंत्री वीर-सेवा-मंदिर सोसाइटी ने मुझ से प्रशस्तियों का मैटर देने तथा प्रस्तावना लिखने की प्रेरणा की। मैने मैटर देने और प्रस्तावना लिखना स्वीकृत कर लिया, मैटर दे दिया गया, परन्तु संस्था में योग्य विद्वान के अभाव में प्रशस्तियों का प्रकाशन दशरा-मशरा हुआ, कुछ मैटर भी प्रेस वाला से गुम गया और एक प्रशस्ति के अन्त का भाग भी प्रकाशित नहीं हुम्रा, फिर भी दूसरी प्रशस्ति प्रकाशित हो गई, श्रावक-श्राविकाओं के नाम वाले परिशिष्ट का पूरा चार पेज का अन्तिम मैटर भी खो गया। मैंने उसे पुनः तय्यार करके दूसरे प्रेम में छपवाया, उममें भी टाइप को विभिन्नता रही । प्रस्तावना का मैटर भी प्रेम में दे दिया गया, परन्तु प्रेस में कार्याधिक्य के कारण ५-६ महीने यों ही पड़ा, रहा, बाद में प्रेरणा पाकर १०-१२ दिन में ८ फार्म छाप दिये गए और फिर कम्पोज रुक गया, इस तरह बड़ी कठिनता से छपाई का कार्य पूरा हो पाया है । यही सब उसके प्रकाशन में विलम्ब का कारण है। प्राभार प्रदर्शन मुझे यह लिखते हुए बड़ी प्रसन्नता होती है कि श्रीमान् डा. वासुदेव शरण जी अग्रवाल हिन्दी विश्वविद्यालय बनारस ने प्राक्कथन लिखने की मेरी प्रार्थना को स्वीकार किया और मित्रवर पं० दरबारीलाल जी कोठिया न्यायानार्य एम० ए० को प्राक्कथन लिखवा कर अनुगृहीत किया, और वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गया मैं इसके लिये डाक्टर साहब का और कोठिया जी का बहुत ही प्राभारी हूँ। साथ ही दिल्ली विश्वविद्यालय के नीडर श्रीमान् डा ० ददारथ शर्मा डी लिट् का भी मैं विशेष प्राभारी हैं, जिन्होंने मेरी प्रार्थना को मान्य करते हुए अंग्रेजी भाषा में प्रफेस लिख देने की कृपा की। इनके अतिरिक्त वा. जयभगवान जो एडवोकेट पानीपत, बा० छोटेलाल जी सरावगी कलकत्ता, श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार दिल्ली, पं० दीपचन्द जी पाण्डया ककडी, डा० कस्तूरचन्द जी कासलीवाल जयपुर, और डा० प्रेमसागर जी का प्राभारी हूँ, जिन्होंने उचित मलाह-मशवरा दिया। शास्त्र समुद्र अत्यन्त विशाल और गभीर है याप मैने पूरी सावधानी वतीं है फिर भी मेरे जैसे अल्पयज्ञ का स्खलित हो जाना संभव है । आशा है विद्वज्जन प्रस्तावना का अध्ययन कर मुझे उस सम्बंध में विशेष जानकारी देकर अनुगृहीत करेंगे। परमानन्द जी शास्त्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REVIEW It was with great interest that I went through the "Jaina-granthaprasasti-sangraha" edited by Pandit Paramanand Jain Shastri. The work includes 122 prasastis from Apabhiamsa work by Jain authors. The prasastis are a mine of historical information. They are important source material because most of them are from unpublished works. The author has taken pains to collect all availadle information about the poets and their patrons. An exhaustive introduction of over 140 pages and il appendices make the work useful even 10 a general student of history, who cannot read Praorits, particularly Apabhramsa. I congratulate Pandt ParmaNand Shastri on his excellent performance. L. G. PARAB Librarian-Central Archacological Library New Delhi, the 23rd July, 1963. Janpath, New Delhi-11. प्रस्तावना का शुद्धि-पत्र पंक्ति अशुद्ध ३१ १३ (प्रागे) शुद्ध और युद्धकाण्ड पृष्ठ ८१ १६ पंक्ति अशुद्ध २२ कुहाकवि कुकवि मणिपुर जोयणिपुर ८ अपनी अपनी रानी ३६ मिमिणाह चरिउ मिणाह चरिउ ३०टि० सरदादर सरदार ३४ इहीं इन्ही ३ प्रोव और १० पद्मवती पद्मावती ४ मणिकचन्द माणिकचन्द प्राति प्राप्ति सुभद्रा (के आगे) धारिणी १०५२ में या उसके १०५२ से ११०० एक दो वर्ष पूर्व ही के मध्य रत्नवरण गजवंश उड़ा बड़ा जायम या जैसवाल लंबकंचुक उभयश्री उदयश्री २ ६२ १२८ १२८ १३४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन श्री परमानन्द जी जैन द्वारा लिखित इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का मैं स्वागत करता हूँ। इसमें ११४ अपभ्रंश स्तलिखित ग्रन्थों की प्रशस्तियों और पुष्पिकाओं का खोजपूर्ण संग्रह किया गया है। अपभ्रंश साहित्य हिन्दी के लिए मृत की धूंट के समान है । इसका कारण स्पष्ट है। भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा प्राचीन हिन्दी का एक महत्वपूर्ण रोड़ प्रस्तुत करता है। जब प्राकृत भाषा के प्रति उत्कर्ष के बाद जनता का सम्पर्क जनपदीय संस्कृति से हुआ और से साहित्यिक मान्यता प्राप्त हुई, तब अपभ्रंश भाषा साहित्यिक रचना के योग्य करली गई। सप्तम शती के प्राचार्य ण्डी ने अपने युग की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा था कि आभीर आदि अनेक जातियाँ, जो राज्याधिष्ठित होकर परत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी थीं, उनकी जो उच्चारण क्षमता थी उनसे अपभ्रंश भाषा का न्म हुआ और उसे काव्य स्वरूपों में मान्यता प्राप्त हुई। याद होता है कि दण्डी से भी ३०० वर्ष पूर्व भाषा सम्बन्धी ह तथ्य भारतीय वाङ्गमय का अंग बन गया था; क्योंकि पश्चिमी भारत में आभीरों के व्यवस्थित राज्य का प्रमाण गगुप्तयुग के लगभग मिलता है। विक्रमोर्वशीय में जो अपभ्रंश भाषा के मजे हुए ललित छन्द पाए जाते हैं उन्हें कुछ द्वान् कालिदास की रचना मानते है और कुछ नहीं मानते हैं । विक्रमोर्वशीय के नवीनतम संशोधित संस्करण के म्पादक श्री वेलणकरने उन्हें महाकवि कालिदास की रचना मानकर अपने संस्करण में स्थान दिया है। हमारी धारणा हैं । इस विषय में अपने किसी पूर्वाग्रह को स्थान न देकर जो पारस्परिक अनुश्रुति है, उसे ही मान लेना ठीक है। महावि कालिदास ने संस्कृत और प्राकृत में जहां इतनी प्रभूत रचना की, वहीं उन्होंने विशेष रचना के अनुसार अपभ्रंश भी कुछ छन्द लिखे हों तो इसमें कोई पाश्चर्य नहीं, कहने का तात्पर्य यह कि अपभ्रंश की जो परम्परा इस प्रकार रम्भ हुई, उसे इस प्रकार बल मिलता गया और ८वीं शती के लगभग तो वह साहित्यिक रचना का भी एक प्रमुख 'ध्यम ही बन गई । सिद्धों की पद रचना अपभ्रंश में ही हुई । आगे चलकर नाथों ने भी इसी परम्परा को अपनाया। र जैन प्राचार्यों ने अपभ्रंश भाषा के माध्यम को अधिक उदार मन से ग्रहण किया। क्योंकि लोक में विचरण करने के रण वे जन सम्पर्क के अधिक निकट थे । ११वीं शती में लिखे गए 'कण्ठाभरण' नामक अपने ग्रन्थ में भोजदेव ने अपश के कुछ और विकसित रूप का उल्लेख करते हुए उसे अपभ्रंश कहा है । आगे चलकर उसी का रूप अवहट्ट भाषा हो IT, जिसका उल्लेख १५वीं शती के प्रारम्भ में विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता में किया है । वस्तुतः विद्यापति की कीति ॥ और कीर्तिपताका ऐसे ग्रन्थ हैं जिनमें एक अोर अवहट्टभाषा और दूसरी ओर मैथिली इन दोनों का प्रयोग मिलाना किया गया है। विद्यापति से पहले ही लगभग ३०० वर्षों तक यही क्रम देखने में आया है । अर्थात् एक ओर अपस अवहट्ट के माध्यम से ग्रन्थ रचना होती थी और दूसरी ओर प्राचीन राजस्थानी, प्राचीन व्रज, प्राचीन अवधी और वीन मैथिली भाषाओं में स्वच्छन्द ग्रन्थ रचना हो रही थी। उनका अन्वेषण हिन्दी के आदिकालीन इतिहास का ज्वल प्रध्याय है। अपभ्रंश एवं अवहट्ट भाषा ने जो अद्भुत विस्तार प्राप्त किया उसकी कुछ कल्पना जैन भंडारों में सुरक्षित हेत्य से होती है । अपभ्रंश भाषा के कुछ ही ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाश में पाये हैं। और भी सैकड़ों ग्रन्थ अभी भंडारों में सुरक्षित हैं । एवं हिन्दी के विद्वानों द्वारा प्रकाश में आने की बाट देख रहे हैं । अपभ्रंश साहित्य ने हिन्दी । केवल भाषा रूप साहित्य को समृद्ध बनाया, अपितु उनके काव्यरूपों तथा कथानकों को भी पुष्पित और पल्लवित Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया । इन तीनों तत्त्वों का सम्यक् अध्यापन अभी तक नहीं हुमा है। जो हिन्दी के सर्वांगपूर्ण इतिहास के लिए प्रावश्यक है। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा का उत्तम कोष बनाने की बहुत मावश्यकता है; क्योंकि प्राचीन हिन्दी के सहस्रों शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ अपभ्रंश भाषा में सुरक्षित है। इसी के साथ-साथ अपभ्रंशकालीन समस्त साहित्य का एक विशद इतिहास लिखे जाने की प्रावश्यकता अभी बनी हुई है। जब हम अपभ्रंश के साहित्य की चर्चा करते हैं, तो हमारा मन उन अनेक ग्रन्थों की ओर जाता है जो ग्रन्थ भंडारों में बड़ी सावधानी से अभी तक सुरक्षित रक्खे गये हैं। उन ग्रन्थों का लेखन काल विक्रम की दूसरी सहस्राब्दि है। जैन लेखक अपने ग्रन्थों की प्रशस्ति अर्थात् प्रारम्भिक भाग में और पुष्पिका प्रर्थात अंत के भाग में देवता नमस्कार आदि के अतिरिक्त आचार्य, गच्छ, शिष्य परम्परा, सम सामयिक शासक, अपने आश्रयदाता, उसके परिवार, इष्टपूर्ति, धार्मिक कार्य, तिथि, सम्वत्, स्थान एवं लेखक-पाठक के सम्बन्ध में बहुत-सी महत्वपूर्ण जानकारी लिख देते थे। वह सब इतिहास और वाड़ मय के लिए महत्वपूर्ण है । जैन भंडारों से प्रोत-प्रोत संस्कृत ग्रन्थों की भी इस संबंध में ऐसी ही स्थिति है । जैन संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों के दो संग्रह पहले प्रकाशित हो चुके हैं। अब अपभ्रंश हस्तलिखित ग्रंथों से उसी प्रकार का यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है। इसकी सामग्री भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जैसा कि पाठक देखेंगे कि इसमें लगभग १४० पष्ठों में प्रस्तावना के रूप में विद्वान सम्पादक ने अनेक ऐतिहा का संग्रह किया है और लगभग १५० पृष्ठों में ११४ हस्तलिखित ग्रन्थों से काव्यबद्ध अपभ्रंश प्रशस्तियों का संग्रह दिया है । अन्त में प्रशस्तियों में आये हुए आचार्य नाम, श्रावक नाम, संघ-गण-गच्छ नाम, एवं ग्रंथ नामों का उपयोगी संग्रह किया है। इनमें विशेषतः श्रावक-श्राविकाओं के नाम अध्ययन के योग्य हैं, क्योंकि वे अपभ्रंश और अवहट्ट भाषा रूपों के परिचायक हैं। यदि अपभ्रंश और प्राकृत ग्रन्थों एवं संस्कृत ग्रन्थों को प्रशस्तियों में पाये हुए समस्त स्त्री-पुरुषों के नाम रूपों पर अलग एक शोधनिबन्ध ही लिखा जाय तो वह अत्यन्त उपयोगी होगा। श्री परमानन्द जी ने तिल-तिल सामग्री जोड़कर ऐतिहासिक तथ्यों का मानों एक सुमेरु ही बनाया है। मुझे उनका यह परिश्रम देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। वासुदेवशरण श.प्रवाल प्राचार्य, भारती महाविद्यालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी २० जनवरी १९६३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Preface I have enjoyed going through the Jaina-grantha-prasasti-sangraha, Vol. II, edited by Pandit Paramanand Jain Shastri. Even the bare text of the 122 prasastis presented here would have been highly welcome to orientalists, students of Indian languages, literature, history and culture. With the learned and comprehensive introduction appended to them by the Editor, their value has become much greater, for he throws therein considerable light on important questions like (a) the General Value of the Prasastis, (b) Apabhramsa, its meaning and development as a medium of literary expression, (c) Early Indian languages dialects and their interrelations. (d) Extant Apabhramsa literature and its varieties, and (e) Apabhramsa writers and their books described in the Collection. The information in the last section is only about Digambara Jaina writers. But a list of all the available Apabhramsa works, Jaina as well as non-Jaina, which the Editor has given, should give the reader a fairly comprehensive idea of the subject and encourage him to pursue his studies in the direction he chooses. ons, a medium General Value of the the introduction language Present then its val Indian bhramsiderablethen has a list Under all the heads, just enumerated, the Editor has put in a good deal of new and very often new information, as a result of more than twenty years of his painstaking research in Jaina Bhandars. But I personally have been interested most in the last two sections. Dealing with Apabhramsa literature under the categories, (1) Mahakavya, which consists of 8 sandhis or more, each comprising generally 15 to 30 kadarakas, (2) Khandakavya, which being concerned with some special aspect of life, is naturally of a moderate size, (3) Sandhikavya which consists only of one canto, (4) Katha or story, (5) Muktaka-kavya or independent verses in the form of dohas generally, (6) Rupa Ka-kavya or plays, (7) Raso and (8) Charchari, he has criticised incisively but convincingly some theories of earlier writers and given a well-balanced view of the nature and objectives of Jaina poetry. He has also taken a rapid survey of early books on Apabhramsa metrics and grammar and added a few remarks about the nature of Apabhramsa used in Sanskrit plays. The final section of the Introduction, pp. 41-136, begins with the account of Svayambhu's two works, Paumachariu and Ritthanemichariu (nos. 1 and 2 of the Sangraha), one dealing with the life of Rama and the other with that of the Jaina tirthamkara, Aristanemi, Both the works had to be completed by Svayambhu's son, Tribhuvanasvayambhu and can stand comparison with the best kavyas in Sanskrit or in any other language for their graphic description of scenes of nature as well as battles, successful depiction of various poetic sentiments and aesthetically controlled use of figures of speech. Originally a Brahmana, Svayambhu had become a Jaina, and most of his literary work was done at Manyakheta where he was patronised by Dhananjaya and Dhavalaiyya. Tribhuvanasvayambhu mentions Vandaiyya as his patrons. These three patron were, probably, related to one another. In the 104th sandhi of the Ritthanemichariu is a very valuable list of 70 carlier poets. Jaina as well as non-Jaina.? Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The 3rd and 17th prasastis, respectively, are of Nayanandin's Sudamsanachariu and Sayala-vihi-vihana-kavya, of which the former is a beautiful khandakvya written at Dhara in V. 1100 (1043 A.D.) in the reign of Bhoja Paramara, and the latter a religio-philosophic work in verse, which in its prasasti mentions about 33 earlier poets. Padmakirti's Parsavapurana (prasasti No. 4) is again a khandakavya written in V. 999 (942 A.D.). Later than it by nearly 45 years (V. 1044) is the Dharmapariksa of Harisena who belonged to Chittor but wrote the work at Achalapura where he had gone to transact some state business. Far more poetic than these is Vira's Jambusvamichariu (prasasti No. 6) which like, No. 3, was written in Malwa in the reign of Bhoja. Vira's father, Devadatta, also must have been a good poet. He restored the Varangacharita and Ambadevi-rasa, both of them unfortunately unavailable now, The chariu deserves being published for its beautiful poetry and vigorous description and also for popularising further the story of the last kevalin, Jambusvamin. Jhunjhuna, the place where the work was copied out in V. 1516, should in my opinion be identified with Jhunjhanu in Shekhawati, Rajasthan. The prasastis No. 7 and 8 are, respectively, of Srichandra's Kathakosa and Ratnakarandasravakachara, of which the former deals with kathas relating to various Jaina vratas and the latter is a good explanatory commentary on Svami Samantabhadra's Ratnakaranda. The Sravakachara was completed in V. 1123 during the reign of the Chaulukya ruler, Karna. This being so, I am not sure whether the Editor is right in assigning the composition of Srichandra's other work, the Kathakosa to a period before 1052, i.e., not less than 71 years before the composition of his other work. It may be well to remember also that according to the prasasti of the Kosa, Srichandra was not a contemporary of Mularaja's courtier, Sajjana, but of his son, Krsna, who at the time of writing the work, was old enough to have three sons (who are described as proficient in the knowledge of dharma and karma) and also four daughters. Thus it would probably be best to assign its composition to the end of the 11th Century. The Sukumaracharita of Sridhara (prasasti No. 9) deals with the well-known story of Sukumara muni. As the work was composed in V. 1208 in the reign of Govinda-chandra, I feel like identifying the ruler with Govindachandra Gahadavala of Kannauj who ruled from V. 1171 to V. 1212. The 10th prasasti is of Dhavala's Harivamsa-purana. It is a well-written karya, the utility of which to historians of Apabhramsa literature is increased by its list of earlier poets. The Editor puts him after V. 999 on the basis of the poets he mentions. Prasastis 11-13 are of works written by Amarakirti. His Chhakammovaesa was written at Godhra during the reign of Kanha-narendra, a son of Vandiggadeva, in V. 1247. Another of his works, the Neminahachariu was written in V. 1244. It is known from various sources that Godhra was a strong principality of Mahitata, which defied more than once the might of the Chaulukyas of Anabillapattana." The 13th and 18th prasastis, respectively, are of Laksmana's Jinadattacharita and Anuvayarayanapaiva. Of these the former, a beautiful kavya setting forth the ideal of real love in the form of Jinadatta's story, was written in V. 1275 (1218 A.D.), at Bilarampur in the present Etah district to which the poet and his relatives had filed after the sack of Tribhuvanagiri (Tahangarh) by the Muslims in 1196 A.D. (V. 1253). The Anuvayarayanapaiva deals with Samyagdarsana and the twelve vratas of a Jaina householder. It was written in V. 1313 (1256 A.D.), at Raybaddiya which was then ruled by the Chauhan king. Ahavamalla." The poet was patronised by Ahavamalla's minister, Kanha, of the Lambakanchuka or Lemchu family. (ii) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Sulochana-charita of Devasena-gani (prasasti No. 14) was composed in the city of king Mammala, probably in V. 1132, and is practically an Apabhramsa rendering of Kundakunda's work of this name. Of the earlier poets he mentions Valmiki, Vyasa, Kalidasa, Bana, Mayura, Haliya, Govinda, Chaturmukha, Svayambhu, Puspadanta and Bhupala. The Pajunnacharia was begun by Siddha and completed by Simha. Siddha mentions Brahmanavataka, its ruler Ballala, son of Ranadhoritya, and Ballala's servant, the Guhilaputra Bhullana. Brahmanavataka is known to have been in Nirmada-mandala. This Ballala could have been, as surmised by the Editor, Ballala of Malwa ; whose servant the Guhilaputra Bhullana might then be regarded as the man put in charge of the Brahmanavataka area. The 16th prasasti is of the Parsvanathacharita of Devachandra which was composed at Gundijjangara (the location of which is uncertain). The work might have been written in the 10th or 12th century A.D., our dating depending in this case on the identification of Devachandra's guru, Vasavachandra. The author of the Bahubalicharita (prasasti No. 19) was Dhanapala. He wrote it in V. 1454 at the instance of Vasadhara, a minister of the Chauhan ruler Ramachandra, of Chandwar. The poet himself belonged to Palanpur and was a disciple of Prabhachandra who is said to have pleased Mahmudshahi at Yoginipura. This Mahmud should in my opinion be identified with Muhammad bin Tughlaq, as Prabha Chandra ascended the gaddi at Delhi before V. 1416 (1359). The Chandraprabhacharita of Yasahkirti was written at Unmattagrama in Gurjaradesa. This Yasahkirti appears to be different from Bhattaraka Yasahkirti, four prasastis of whose works (Nos, 21-24) have been included in the Sangraha. The Pandavapurana was written in V. 1497 at the instance of Hemaraja who is described as a mantrin of Suratana Mumarakha" (Mubarak Shah). But as Saiyyad Mubarak Shah was no longer on the throne in 1440 A.D. or V. 1497, Are we to suppose that by that time Hemaraja had retired from ministership? written in V: 15.90 € of this name Andwar” Yasahkirti's Harivamsapurana was written in V. 1500 (1443 A.D.) at Indaura in the reign of lalal Khan who should be identificd with the Mewati chief of this name who gave plenty of trouble to Saiyyad Mubarak Shah and was besieged by the latter at "Andwar" (Tarikh-i. Mubarakshahi, p. 211). Elsewhere we find Indore mention as a pargana of Tijara (Mewat).11a Nos, 23 and 24 are Trata-kathas. Yasahkirti, as pointed out by the Editor, was one of the most influential religious figures of his time. Prasasti No. 25 is of Sridhara's Parsvanathacharita written in V. 1189 at the instance of Nattula Sahu of Dhilli which was then being ruled by Anangapala Tomara. Another of his work was the Vardhamanacharita, the prasasti of which has been given in an appendix to the Sangraha. Both these prasastis contain valuable material about the economic and political conditions of that period. 12 Prasasti No. 26 is of Halla's Srenikacharita which was written before V. 1471. Halla wrote also the Mallinaha-kavya (prasasti No. 104). He was patronised by Amarasimba. a minister of the Chauhan chief Bhojaraja of Karahal, a place about 13 miles from Etah. The Bhavisattakaha (prasasti No. 27) was written by Sridhara who was probably different from Sridhara, the author of the Parsvanathacharita. He wrote his work in V. 1230 (1173 A D.). Prasastis 28-29 and 100 are of works by Tejapala. They were written at Sripatha (not Sriprabha) of the Bhadanaka-desa, which was then ruled by Daud Shah Auhadi. I have found this reference extremely important, because it has helped me in locating definitely Bhadanaka Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ h, thanks to Muslim historians and Prakrit phonology, turned into Bhayanaya and then Bhayanaa and Bayana.13 The poet's Varangacharita was written in V. 1507 and the purana in 1515 V. The 30th prasasti is of the Sukumalacharia of Purnabhadra who flourished before 1632 ! Much more poetic than it is the Neminahachariu of Laksmana (prasasti No. 31) which t have been writren before V. 1510. Prasastis No. 32 and 33 are of two works by Maniraja. Of these the Amarasenacharita was written at Rohtak in V. 1576 (1519 A.D.). The ind work, the Nagakumaracharita, was written in V. 1579. Nagakumarachariharita was written No: 32 and 33a na (prasasti No Prasastis Nos. 35-49, 99 and 106 are of works by Raidhu, one of the best Apabhramsa ts of this later period. He belonged to the Pomavai-Poravada-kula and passed much of his e at Gwalior which was during his days ruled first by Dungarsimha of the Tomara dynasty I then by bis son, Kirtisimha. Prasastis No. 50-64 are of kathas by Gunabhadra. He lived at Gwalior in the sixteenth tury of the Vikrama era. Prasasti No. 65 is of an anonymous Anantavratakatha, and the 66th of the Aradhanasara a poet named Vira. The 67th prasasti is of an anonymous Harisenachariu. The 68th prasasti is of Haradeva's allegorical poem, the Mayana parajaya in which laraja is represented as defeating Kamadeva and marrying Mukti-kanya. The poet flourished fore V. 1551. The Siddhachakra-kaha and Jinarattivihana (Nos. 69 and 105) are by Narasena. Hc ight have been a poet of the fourteenth century. The Anatihamiyakaha (No. 70) was written by Harichanda and is directed against tribhojana (taking food at night). It might have been written in the 15th century. The prasastis 71-73 are of works by Vinayachandra. The Chu: adirasa is a short but quisite piece written at Tribuvanagadha in the Ajayanarendra-vihara. The Nirjharapanchami. isa is another katha in the form of a rasa. The third work is the Kalyanaka-rasa. Dr. Prem agar has put Vinayachandra in V. 1576. Actually, however, as the Editor of our Sangraha oints out, he cannot be put later than the 14th century. The 75th prasasti is of Lakhu's Chandana-chhatthikaha, and the prasastis No. 76-77 of works by Balachandra who probably lived in the thirteenth century. Prasastis No. 78-80 are of various kathas. No. 81 is the Anupeharasa by Jalhiga and No. 82 of Anuvekkha-rasa by Yogadeva. Nos. 83-84 are also similar works. Prasastis 85-86 and 107 are of works by Srutakirti, who lived in the middle of the sixteenth century. Of these the Harivamsa purana was written in V. 1552. Its copy from Jorhat in Damoh District mentions its governor, the Great Khan Bhoj Khan, under whom the affairs at Jorhat were managed by Soni Shri Isura. The Paramestiprakasa-sara was writteu in V. 1553 during the reign of Nasiruddin of Malwa and the Yogasara in V. 1552. Mahindu wrote the Santinaha-chariu (No. 87) in V. 1587 during the reign of Babar. Nos. 88, 108 and 109 are prasastis of the works of another prolific Apabhramsa writer, Bhagavatidasa of Buria (Ambala District). His Miyankalekha-chariu was written at Hissar in V. 1709. His Apabhramsa brings us fairly near Hindi, though he was a good scholar of Sanskrit, Prakrit as Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ well as Apabhramsa. His works were written at Buria, Dilli, Agra, Hissar, Kapisthala, Siharadi and Sankasa and he lived on at least up to V. 1712. The 89th prasasti is of Vijayasimha's Ajita-purana written in V. 1505 and the prasastis 90-98 of 9 works by Brahma Sadharana who mentions himself as a disciple of Narendrakirti. The 101st prasasti is of Damodara's Siripalachariu. The writer was a disciple of Bhattaraka Jinachandra. Oswal's Pasachariu (No. 102) was written in V. 1479 (1422 A.D.) in the reign of Chahamana Bhoja of Karahala at the instance of Lonasimba whose family had been responsible for much of the good literary work done at Karahala even earlier. The prasasti is thus of great importance for literary and political history. Thakur's Santinaha-chariu (No. 103) was written in V. 1652 when Akbar ruled at Delhi and Mansingh at Amer. The work gives a good genealogy of the Sarasvati-gachchha. The poet was a disciple of Visalakirti. Appendix 1 has 6 prasastis of works already printed, and Appendix 2 of 3 important lipi-prasastis. Of these latter the first prasasti, which is dated in V. 1521, throws important light on the political as well as cultural set-up of Gwalior. The second prasasti is of V. 1530. and the third of V. 1607. The three prasastis in Appendix 3 are of Rohinivihana-katha of Devanandi, Vaddhamanachariu of Sridhara, and Neminahachariu of Damodara. All the three are important additions to the works of these authors already noted in the Sangraha. One need hardly emphasise the importance of this collection of prasastis which opens a new door of research in the little-known political, social, cultural, religious and linguistic questions of a period of nearly eight hundred years. The publication of these works is the prime duty not only of the Jaina community but also of non-Jaina institutions of learning. The Editor has discharged well his duty by bringing these priceless treasures to their notice; let others now perform theirs by spending like their ancestors a part of their money in popularising works and teachings which are their priceless heritage. Pandit Parmanand Shastri's work has been done with the greatest care and deserves the appreciation of every lover of oriental learning. We have seen also other prasasti-sangrahas but this one surpasses them, not of course in the amount of material it puts together, for a few bigger catalogues have been published, but in the way all this material has been systematised. He has thrown new light on the lives of some of the Apabhramsa poets represented here, mentioned also the earlier poets whose writings inspired them and shown a much better understanding of the Jaina theory of poetics than many other writers on the subject whose views have been largely influenced by the writings of western scholars. And even when one does not fully agree with him, one has to respect his views on account of the reasoned way in which they have been presented. When future writers compile either the history of Apabhramsa or early Rajasthani and Hindi literatures, Shri Parmanand Jain Shastri's work will be found not only useful but indispensable. 'Navin-vasant' E-4/1, Krishnanagar, Delhi-31 (A) ૬ Dasharatha Sharma Reader, History Department University of Delhi Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Footnotes 1. See for instance his criticism of the view of Dr. Shambhunath Singh, pp. 22 ff. 2. See page 46 of the Introduction. 3. See pages 50-1 of the Introduction. I do not, however, find the name of Magha in the original prasasti. 4. See page 65 of the Introduction. 5. Prabandhakosa, p. 107. 101 Rajputs are said to have died fighting against him. He was subdued by Vastupala. The same story is found in the Puratanaprabandhasangraha which speaks also of the subduing of Godhra by Kumarapala. 6. On the identification of Tribhuvanagiri with Tahangarh sec our paper in the Bharatiya Vidya, (Hindi edition), Vol. II, pp. 62-66. 7. For an assessment of the historical material in the Anuratna-pradipa sce our paper the Jainasiddhantabhaskara, VII, part 1, p. 11. 8. Can it be Mammalapuram founded by Mahamalla Pallava ? 9. The line containing the information is prosodically defective. 10. In Ajayapala Chaulukya's reign, Brahmanavataka of Narmadamandala was governed by Vaijaladeva Chahamana. 11. There is one Gundoch in former Jodhpur State. The Editor thinks that it was somewhere in the south. lla. See my paper "Revenue in 1680 A.D.", Journal of Ganganatha Jha Research Instituie, Vol. IV. p. 72. 12. Partly utilised by us in our Early Chauhan Dynasties in the chapter on Arnoraja. 13. For my earlier view on the subject which has been adopted by some historians scc IC, Vol. X and Early Chauhan Dynasties, pp. 91-92. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रशस्तियों को उपयोगिता भारतीय इतिहास के अनुसंधान में जिस तरह शिलालेख, प्रशस्तियां, दानपत्र, स्तूप, मूर्तिलेख, ताम्रपत्र और सिक्के आदि उपयोगी होते हैं। उसी तरह पुरातन ग्रन्थों के उल्लेख, ग्रन्थकर्ता विद्वानों के ग्रन्थों के आदि अन्त में दी हुई प्रशस्तियां और लिपि प्रशस्तियां भी उपयोगी होती हैं। इनमें दिए हुए ऐतिहासिक उल्लेखों से अनेक तथ्य प्रकाश में आते हैं। इनकी महत्ता भारतीय अन्वेषक विद्वानों से छिपी हुई नहीं है। ये सब चीजें भारत की प्राचीन आर्यसंस्कृति की समुज्ज्वलधारा की प्रतीक हैं और ये इतिहास की उलझी हई समस्याओं एवं गुत्थियों को सुलझाने में अमोघ अस्त्र का काम देती हैं। इनमें पूर्वजों की गुण-गरिमा का सजीव चित्रण एवं इतिवृत्त गुंफित मिलता है। ये महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रशस्तियाँ भारतीय साहित्यादि के अन्वेषण में ग्रन्थकर्ता विद्वानों, प्राचार्यों और भटारकों द्वारा लिखी गई होने से विद्वानों के समयादि का निर्णय करने में अथवा वस्तुतत्त्व की जांच करने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं और कहीं-कहीं प्रशस्तियों में अंकित इतिवृत्त उलझी हुई समस्याओं का केवल समाधान ही नहीं करते; प्रत्युत वास्तविक स्थिति को प्रकट करने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थकारों ने ग्रन्थ निर्माण कराने में प्रेरक अनेक अग्रवाल खंडेलवालादि कटूम्बों का परिचय दिया है, और उनके तीर्थयात्रा और मन्दिर निर्माण, मूर्ति निर्माण एवं बिम्ब प्रतिष्ठा, राजमंत्री. कोषाध्यक्ष, राजश्रेष्ठी आदि पदों का भी उल्लेख किया है, जिनसे उस कालके जैनियों की धार्मिक परिणति और उदारता आदि के साथ तात्कालिक सामाजिक राजनैतिक वातावरण का भी पता लग जाता है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसी से अन्वेषकों और इतिहासज्ञों के लिये इस प्रकार की ग्रन्थ प्रशस्तियाँ अत्यन्त मूल्यवान् सिद्ध हुई हैं। शिलालेखों और ताम्रपत्रादि से इनकी महत्ता किसी प्रकार कम नहीं है। प्रस्तुत प्रशस्ति संग्रह में अप्रकाशित ग्रंथों की १०६ प्रशस्तियाँ दी गई हैं परिशिष्ट नम्बर एक में छ: प्रशस्तियां मुद्रित ग्रन्थों की दी हुई हैं, और परिशिष्ट नं० दो में तीन लिपि प्रशस्तियां दी गई हैं, तथा परिशिष्ट नं. ३ में चार अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्ति दी हैं। इस तरह प्रशस्तियों की कुल संख्या एक सौ बाईस हो गई हैं। ये प्रशस्तियाँ जहां साहित्य और इतिहास की मौलिकता को प्रकट करती हैं-उसकी कड़ी जोड़ती हैं। वहाँ वे तात्कालिक सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाज पर भी अच्छा प्रकाश डालती हैं अतएव उपलब्ध अपभ्रंशसाहित्य का यह प्रशस्तियों का संग्रह विशेष लाभप्रद होगा। इनके अध्ययन एवं संकलन से इतिहास का मतिमान रूप प्रकट होता है, इतना ही नहीं; किन्तु ये जैन संस्कृति की उत्तम प्रतीक हैं। इन में उल्लिखित अन्थकर्ता, विद्वानों, प्राचार्यों, भट्टारकों, राजाओं, राजमंत्रियों, श्रावक-श्राविकाओं और उनकी गुरु परम्परा तथा संघ, गण-गच्छादिका वह परिचय भी प्राप्त हो जाता है। जिन पर से अनेक वंशों जातियों, गोत्रों और गुरुपरम्पराओं, उनके स्थान, समय, कार्यक्षेत्र तथा लोगों की ज्ञान लिप्सा के साथ-साथ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह तात्कालिक परिस्थितियों, राजाओं, महामात्यों, सेनापतियों और नगरसेट आदि के इतिवृत सहज ही संकलित किये जा सकते हैं । २ इस प्रशस्ति संग्रह में अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों की प्रशस्तियों का ही संग्रह किया गया है। ये सव प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों पर से समुद्धृत की गई हैं। यह सब संग्रह दिल्ली, जयपुर, आमेर अजमेर, व्यावर आदि स्थानों के जैन ग्रन्थ भंडारों के ग्रन्थों पर से किया गया है, जिससे अपभ्रंश भाषा के उपलब्ध साहित्य पर से उसके उत्थान और पतन का क्रमवार इतिहास लिखा जा सके। ये प्रशस्तियां अपभ्रंश भाषा के इतिहास संकलित करने में जहाँ मूल्यवान् सिद्ध होंगी वहाँ अध्येता अन्वेषकों के लिये भी उपयोगी रहेंगी । इस प्रशस्ति संग्रह के अंत में कुछ परिशिष्ट भी दिये गये हैं, जिनमें प्रथम परिशिष्ट में कुछ मुद्रित ग्रन्थों की ऐतिहासिक प्रशस्तियों का भी संकलन दिया है। उसका एक मात्र कारण रिसर्च स्कालरों या अन्वेषकों के लिए उपयुक्त सामग्री का संचित करना है । अन्य परिशिष्टों में भौगोलिक ग्राम-नगरादि के नामों, संघों, गणों, गच्छों, अन्वय, या वंशों, जातियों, गोत्रों राजमंत्रियों, राजाओं, विद्वानों, प्राचार्यों भट्टारकों श्रावक-श्राविकाओं और ग्रंथों की सूची प्रकारादि क्रम से दी गई है। जिससे अन्वेषक विद्वानों को बिना किसी विशेष परिश्रम के उनका परिचय मिल सके और उन्हें ऐतिहासिक स्थलों आदि का भी परिचय सुलभ हो सके। इस संग्रह में वर्तमान में उपलब्ध अपभ्रंश के दिगम्बर साहित्य-विषयक प्रशस्तियाँ ही दी गई हैं । किन्तु प्रस्तावना में अपभ्रंश साहित्य की एक ऐसी सूची दे दी गई है, जिसमें प्रायः उपलब्ध अनुपलब्ध ग्रंथों को भी संकलित किया गया है। इससे विद्वानों को अपभ्रंश के साहित्य की पर्याप्त जानकारी हो सकेगी । इस तरह यह प्रशस्ति संग्रह अपने विशाल रूप में साहित्यिक अनुसंधाताओं के लिए विशेष उपयोगी रहेगा । प्रस्तुत प्रस्तावना को तीन भागों में विभक्त किया गया है जिनमें पहला भाग अपभ्रंश भाषा के इतिहास का है, जिसमें शताब्दी क्रम से अपभ्रंश के ऐतिहासक निर्देश दिये गये है, जिनसे अपभ्रंश के इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है और यह स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश का वर्तमान साहित्य ध्वीं से १७वीं शताब्दी तक का उपलब्ध है । ५वीं से ८वीं शताब्दी तक उसका प्रारम्भिक काल और हवीं से १३वीं तक मध्यान्ह काल और १४ वीं से १७ वीं शताब्दी तक उसका अपरान्ह काल समझना चाहिये । मध्यान्ह काल ही उसके विकास का समय है । 1 दूसरे विभाग में उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया गया है । जिसमें भारतीय भाषाओं के विकास के साथ अपभ्रंश के विकास एवं साहित्य की चर्चा की गई है और वर्तमान में उपलब्ध अपभ्रंश साहित्य की एक सूची भी दी गई है। तीसरे विभाग में प्रशस्ति संग्रह में मुद्रित प्रशस्तियों के ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का परिचय कराया गया है । भारतीय साहित्यिक भाषाओं में प्राकृत संस्कृतादि की तरह अपभ्रंश भी सदियों तक साहित्यिक भाषा रही है और जनता के कण्ठ को विभूषित करती रही है। अपभ्रंश प्राकृत भाषा का ही एक रूप है । जिसे 'अवहट्ट, अवहंस, अपभट्ट, अपभृष्ट या अपभ्रंश के नाम से उल्लेखित किया जाता है। देश विशेष के कारण उनकी बोलियों और प्रांतीय भाषाओं के उच्चारण में अन्तर पड़ जाता है, और वही अन्तर धीरे धीरे भाषाओं के प्रादान-प्रदान में व्यवहृत होने लगता है। गया है । प्राकृत भाषा देश भेद के कारण अनेक रूपों में पाली और प्राकृत भाषा में प्रचुर साहित्य रचा विभक्त है, फिर भी उसके मुख्य दो रूप दृष्टिगत Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना होते हैं। महाराष्ट्री और शौरसैनी । इन दोनों भाषाओं में विपुल साहित्य रचा हुआ उपलब्ध होता है। यद्यपि अपभ्रंश भाषा का कोई प्रामाणिक इतिहास अभी तक नहीं लिखा गया । अतएव उसका पूरा इतिवृत्त लिखना तो यहाँ सम्भव नहीं प्रतीत होता; किन्तु उनके सम्बन्ध में यहाँ कुछ विचार जरूर किया जायगा। ___ अपभ्रंश भाषा का जो भी पुरातन साहित्य वर्तमान में उपलब्ध होता है यद्यपि राज्यविप्लवादि के कारण बहुमूल्य पुरातन साहित्य विनष्ट हो चुका है, फिर भी जो किसी तरह अवशिष्ट रह गया है, वह अपनी महत्ता का स्पष्ट द्योतक है । उसका उद्गम कब और कहां पर हुआ, और कैसे वह साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति पा सका, उसमें क्या कुछ विशेषतायें थीं, कैसे वह आम लोगों के लिए बोलचाल की भाषा में परिगत होता हुआ साहित्यिक भाषा बनने का श्रेय प्राप्त कर सका, गह सब अभी विचारणीय है। भापा विज्ञान की दृष्टि से भी अपभ्रंश भाषा के साहित्य का अध्ययन बड़ा महत्व रखता है । भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य का अध्ययन तब तक सुसम्पन्न नहीं कहा जा सकता, जब तक अपभ्रंश भाषा के साहित्य का विधिवत् पारायण न कर लिया जाय । इतना ही नहीं; किन्तु विविध प्रादेशिक भाषाओं एवं राष्ट्रभाषा हिन्दी के वर्तमान स्वरूप को समझने के लिए अपभ्रंश भाषा का मौलिक अध्ययन करने की जरूरत है। साथ ही तुलनात्मक दृष्टि से यह जानना भी अत्यन्त आवश्यक है कि प्रादेशिक भाषाओं और हिन्दी भाषा के विकास में अपभ्रंश भाषा ने क्या कुछ योगदान दिया है। अपभ्रश भाषा ने केवल हिन्दी के विकास में ही सहयोग नहीं दिया किन्तु उसे प्रभावित और प्रतिष्ठित भी किया है। अतः भाषा विज्ञान की दृष्टि से अपभ्रश का साहित्य प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अध्ययनीय है।। अपभ्रंश भाषा का कोई प्रामाणिक इतिहास न लिखा जाने से उसके साहित्य के पठन-पाठन का प्रचार नहीं हो सका है, उसमें साहित्य का अभी तक अप्रकाशित रहना भी एक कारण है। अपभ्रंश भाषा के साहित्य की जब हम विपुलता देखते हैं और उसकी रचनाओं का ध्यान से समीक्षण करते हैं तब हमें उसकी विशेषता और महत्ता का यथेष्ट परिज्ञान होता है। वर्तमान में अपभ्रंश भाषा का समुपलब्ध साहित्य ८वीं शताब्दी से लेकर १७वीं शताब्दी तक का रचा हा अवलोकन करने में आया है। यद्यपि हवीं से १६वीं शताब्दी तक के साहित्य में जो प्रौढ़ता देखी जाती है, वह आगे के साहित्य में नहीं पाई जाती; क्योंकि उसमें देशी भाषा के तत्सम शब्दों का बहुलता से समावेश पाया जाता है, अतः उसमें उत्तरोत्तर हिन्दी भाषा के विकास का औचित्य उपलब्ध होता है। __ अपभ्रंश भाषा का सबसे पुरातन उल्लेख हमें पतञ्जलि के महाभाष्य' में मिलता है। उसमें उन्होंने लिखा है :-"अपशब्दों का उपदेश बहुत विस्तृत या व्यापक है; क्योंकि एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश हैं। जैसे एक ही गौ शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि बहुत से अपभ्रंश होते हैं।" दूसरा उल्लेख 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ के कर्ता भर्तृहरि ने संग्रहकार 'व्याडि' नामक प्राचार्य के मत का उल्लेख करते हुए किया है : ''शब्दसंस्कारहीनो यो गौरिति प्रयुयुक्षते । ___ तमपभ्रशमिच्छन्ति विशिष्टार्थनिवेशिनम् ॥" वार्तिक-शब्द प्रकृतिरपभ्रंशः इति संग्रहकारो नाप्रकृतिरपभ्रंशः स्वतन्त्रः कश्चिद्विद्यते । सर्वस्यैव हि साधुरेवापभ्रंशस्य प्रकृतिः । प्रसिद्ध स्तु रूढतामापद्यमानास्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रंशा लभन्ते । तत्र १. "गरीयानपशब्दोपदेशः । एककस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः । तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी, गौणी, गोता, गोपोतलिका इत्येवमादयो ऽपभ्रंशाः ॥" -पतंजलि महाभाष्य १, १, १। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रमादिभिर्वा गाव्यादयस्तत्प्रकृतोपभ्रंशाः प्रयुज्यन्ते।" -वाक्यपदीयम् प्रथम कांड का० १४० इन उल्लेखों से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि तत्सम अपभ्रंश किसी भाषा विशेष का नाग नहीं था किन्तु संस्कृत के विकृत रूप ही अपभ्रंश कहलाते थे । अपभ्रंश का तीसरा उल्लेख हमें भरत मुनि के 'नाट्यशास्त्र में मिलता है। जिसमें भाषाओं की व्यवस्था का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि-'हिमवत, सिन्धुसौवीर तथा अन्य देशों के आश्रित लोगों में नित्य ही उकार बहुला भाषा का प्रयोग करना चाहिए। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के ३२ वें अध्याय में जो वाक्य उपलब्ध होते हैं वे अपभ्रंश के प्रारम्भ की सूचना देते हैं । 'मोरुल्लउ-नच्चन्तउ। महागमे संभत्तउ । मेहउ हर्नु गोइ जोण्हउ । णिच्च रिगप्पहे एहु चंदहु ।' आदि समुद्धत वावय अपभ्रश के प्रारम्भिक रूप हो सकते हैं। इनमें कुछ विशेषतायें अपभ्रंश भाषा की देखी जाती हैं। इससे ध्वनित होता है कि नाट्यकार के समय हिमालय से सिन्धु तक के देशों में जो बोली प्रचलित थी उसमें उकार का प्रयोग विशेष रूप से होता था। समस्त प्राकृत भाषाओं में अपभ्रंश हो एक ऐसी भाषा है जिसमें कर्ता और कर्म कारक की विभक्ति में 'उ' होने से उकार का बाहुल्य पाया जाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि अपभ्रंश भाषा का आदि क्षेत्र हिमालय से सिन्धु तक का भारत का वह पश्चिमोत्तर प्रदेश ही है। परन्तु भरत मुनि के समय वहां अपभ्रश एक प्रकार की बोली ही थी, जिसे विभापा कहा गया है, उसने तब तक साहित्यिक रूप धारण नहीं कर पाया था, और न वह अपभ्रश विशेष से प्रसिद्धि को ही पा सकी थी, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस भापा ने परवर्ती काल में बड़ी उन्नति की है और उसने इतना अधिक विकास पाया कि विक्रम की ६वीं ७वी शताब्दी से कुछ समय पूर्व उसमें गद्य-पद्य में रचना होने लगी थी। कवि भामह ने अपने काव्यालंकार में संस्कृत प्राकृत की रचनाओं के साथ अपभ्रंश की गद्य-पद्य मय रचना का भी उल्लेख किया है। महाकवि दण्डी ने इस सम्बन्ध में कुछ मौलिक सूचनायें भी की हैं। और वे इस प्रकार हैं (१) दण्डी के समय तक ग्रन्थकार संस्कृत के सिवाय अन्य समस्त भाषाओं को अपभ्रश कहते थे, जिसकी परम्परा का उल्लेख पतंजलि ने अपने महाभाष्य में किया है। हिमवसिन्धुसौवीरान् ये जना: देशान् समुपाश्रिताः । उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ॥ -नाट्यशास्त्र १७-६२ "शब्दाथों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति विधा ।" -काव्यालंकार १-३६ "तदेतद्वाङ मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥ संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः । तद्भवास्तत्समो देशी नित्यनेकः प्राकृतक्रमः ।। आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥" -काव्यादर्श १, ३२, ३३, ३६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जिन भाषाओं ने उस समय तक अपभ्रंश के नाम से काव्य-क्षेत्र में प्रवेश प्राप्त कर लिया था, वे सब भाषायें आभीरादि जातियों की बोलियां थीं। नाठ्यकार भरत मुनि ने आभीरों की बोली को 'शाबरी' बतलाया है। ____इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आभीरों की शक्ति का लोक में जैसे-जैसे विकास होता गया वैसेवैसे ही उनकी संस्कृति में भी चेतना का जागरण होता गया और फलतः उनकी काव्य-कला अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई। सौराष्ट्र देश से प्राप्त होने वाले बलभी के राजा धरसेन द्वितीय के सन् ५५६ (वि० सं० ६१६) के उत्कीर्ण ताम्रपट में राजा धरसेन के पिता गृह्यसेन को संस्कृत प्राकृत और अपभ्रश रूप भाषात्रय में प्रबन्ध रचना करने में निपुण बतलाया गया है। बुल्हर ने इस ताम्रपट-लेख को जाली बतलाया है और वे उसे वाद का मानते हैं। हो सकता है कि यहलेख बाद में उत्कीर्ण किया गया हो, किन्तु घटनाक्रम तो उसी काल का है। भले ही इस लेख के काल में सौ, पचास वर्ष का फर्क हो सकता है, पर उसकी बारीकी से जाँच करना अभी आवश्यक है। भाषा शास्त्र के विद्वान अपभ्रश साहित्य का प्रारम्भ ५०० या ६०० ईस्वी से मानते हैं किंतु अपभ्रंश भाषा के सम्बन्ध में वैयाकरणों ने जो लक्षण निर्दिष्ट किये हैं, उनके कुछ उदाहरण हमें अशोक के शिलालेखों में दृष्टिगत होते हैं। उनमें संयुक्त र और उकारान्त पदों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है । इसी तरह 'धम्मपद' में भी अनेक शब्दों के अपभ्रंग रूप दृष्टिगत होते हैं। ललितविस्तर और महायान सम्प्रदाय के अन्य वौद्ध ग्रंथों की संस्कृत में भी अपभ्रंश रूप उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान तारानाथ ने यह स्पष्ट उल्लेखित किया है कि.-'वौद्धों के सम्मितीय समुदाय के त्रिपिटक के संस्करण पाली संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रश में भी लिखे गये हैं।' इससे यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि नाट्यकार भरत के समय और उसके बाद अपभ्रंश बीज रूप से विद्यमान थी और उसका अर्थ शब्द का विकृत या बिगड़ा हुआ रूप उस काल में देशवासियों के व्यवहार में प्रयुक्त होता था। इस तरह अपभ्रश का उत्तरोत्तर विकास होता गया और विक्रम की ८वीं शताब्दी में तो अपभ्रंश का काव्यरूप बहुत प्रसिद्ध और लोकरंजक हो चुका था । विक्रम की हवीं शताब्दी के विद्वान उद्योतन सूरि ने अपनी कुदलयमाला में संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश की तुलना करते हुए संस्कृत की अपेक्षा अपभ्रंश की महत्ता का उल्लेख किया है। जिससे अपभ्रंश की उस समय की लोकप्रियता का सहज ही परिज्ञान हो जाता है। उन्होंने लिखा है कि-'संस्कृत अपने बड़े-बड़े समासों, निपातों, उपसर्गों, विभक्तियों और लिङ्गों की दुर्गमता के कारण दुर्जन हृदय के समान विषम है। प्राकृत समस्तकला-कलापों की मालारूप जल कल्लोलों से संकुल लोक वृत्तान्त रूपी महोदधि, महापुरुषों के मुख से निकली हुई अमृतधारा तथा एक एक क्रम से वर्ण और पदों के संघटन से नाना प्रकार की रचनाओं के योग्य होते हुए भी सज्जन वचन के समान सुख-संगम है और अपभ्रंश वह काव्य-शैली है जिसमें दोनों भाषाओं (संस्कृत ५. आभीरोक्तिः शावरी स्यात् ...... नाट्यशास्त्र १८-४४ । ६. संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रय प्रतिबद्ध प्रबन्ध रचना निपुणान्तःकरणः । -इण्डियन् एण्टीक्वेरी भा० १० पृ० २८० ७. देखो, त्रिपिटिक के सम्मितीय संस्करण । ८. देखो वलयमाला। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह प्राकृत ) के शुद्ध प्रशुद्ध रूप पदों का मिश्रित रूप पाया जाता है, जो नव वर्षाकालीन मेघों के प्रपात से पूर द्वारा प्लावित गिरि नदी के वेग समान सम और विषम होता हुआ भी प्रणय कोप से युक्त कामिनी के वार्तालाप की तरह मनोहर है। इसी तरह स्वयंभू ने भी अपभ्रंश काव्य-रचना की तुलना एक नदी से की है, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों के तटों का स्पर्श करती हुई घनपद-संघटना की चट्टानों से टकराकर बहती है। उद्योतनसूरि की 'कुवलय माला' में जहां अपभ्रंश का चर्चरीरास' समाविष्ट है। वहां लोकभाषा सूचक अपभ्रंश गद्य के नमूने भी उपलब्ध हैं । यद्यपि वे प्राकृत के प्रभाव से परिलक्षित हैं, फिर भी मायादित्य और ग्राम-महत्तों का परस्पर कथनोपकथन अपभ्रंश भाषा में दिया हुआ है और अवशिष्ट कथन प्राकृत में अङ्कित है। इससे स्पष्ट है कि उस समय अपभ्रंश का प्रयोग लूले-लंगड़े, रोगी और दरिद्री भी करते थे, और वह साहित्यिक विकास में अग्रसर हो रही थी। इसी ग्रंथ के एक दूसरे उद्धरण में कथानायक राजकुमार का शूरसेन देश के केन्द्रस्थल मथुरा के एक अनाथ मण्डप में पहुंचने पर वहां के दीन-हीन, कोढ़ी और लंगड़े आदि रोगी गंवार लोगों से जो बातचीत या संवाद हुआ है वह बड़ा ही सजीव है। यहां यह अवश्य विचारणीय है कि उन लोगों से शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग न कराकर अपभ्रंश का प्रयोग कराना खास विशेषता रखता है। वहाँ उसमें शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट है और उन शब्दों की ध्वनि में उदार प्रवृत्ति और देशी शब्दों का बाहुल्य आदि अपभ्रंश का स्पष्ट इंगित कराता है। नवमी शताब्दी के विद्वान कवि रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में काव्य का गद्य-पद्य में विभाजन के अनन्तर भाषा के आधार पर उसे छह भागों में विभक्त किया है, और देश भेद से अपभ्रश के बहत भेद होने की सूचना भी की है। इससे स्पष्ट है कि कवि रुद्रट अन्य साहित्यिक प्राकृतों के समान ही अपभ्रंश को गौरव प्रदान करते हैं। रुद्रट के इस कथन पर विक्रम की बारहवीं शताब्दी के विद्वान नमि साधु ने (२०६६ ई०) अपनी टीका में अपभ्रंश को प्राकृत में अन्तर्भुक्त करते हुए लिखा है कि अन्य लेखकों ने उस अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं, उपनागर, आभीर और ग्राम्य" । इसी का निराकरण करने के लिए रुद्रट ने भूरिभेद बतलाते हुए उसके अनेक भेदों की सूचना की है; क्योंकि देश की विशेषता के कारण भाषा में भी विशेषता पाई जाती है । साथ ही प्राकृत को ही अपभ्रंश माना है। १. ता कि अवहंसं होहइ ? हूँ तं पि णो जेण सक्का-पाय उभयसुद्धासुद्ध पयसमतरंगरंगंतवाग्गिरं णव पाउस जलयपवाह पूर पव्वालिय गिरिणइ सरिसंसम विसमं पणयकुविर्यापयाणइणी समुल्लावसरिस मणोहरं ।' -कुवलयमाला २. सक्कय-पायय-पुलिणाल किय देसी भासा उभय तडुज्जल । कवि दुक्कर-घण सह-सिलायल । स्वयम्भू-पउम चरिउ । ३. देलो, कुवलय माला कहा पृ० ५५ । ४. 'भापाभेदनिमित्तः पोढा भेदोऽस्य संभवति । प्राकृतसंस्कृतमागपिशाचभापाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः। -काव्यालंकार २, ११-१२ । ५. "प्राकृतमेवापभ्रंशः, स चान्यरूपनागराभीरनाम्यावभेदेन त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्तं भूरिभेद इति । कुतो देशविशेषात् । तस्य च लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम् ॥" -काव्यालङ्कारटीका २-१२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कवि राजशेखर ने (८८० से १२० ई०) अपनी काव्यमीमांसा में अनेक स्थलों पर अपभ्रंश का निर्देश किया है। साथ ही अपने से पूर्ववर्ती कवियों की तरह स्वयं भी संस्कृत प्राकृतादि भापाओं के समान अपभ्रंश को भी पृथक् साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है तथा काव्य-पुरुष के गरीर का कथन करते हुए संस्कृत को मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्रंश को जघन-मध्यभाग, पैशाची को पैर, और मिश्र को उरस्थल बतलाया है' और तदनुसार राजा की काव्य-सभा में संस्कृतकवि उत्तर, प्राकृतकवि पूर्व, अपभ्रंशकवि पश्चिम, और पैशाची कवि दक्षिणा में बैठे ऐसी व्यवस्था का उल्लेख किया है। कवि ने दूसरे स्थल पर सौराष्ट्र और त्रवण देश को अपभ्रंश भाषा भाषी प्रकट किया है। संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के क्षेत्र का निर्देश करते हुए मरु (मारवाड) टवक (ठक्क) पंजाब का एक भाग भादानक-पंजाब के झेलम जिले के भद्रावती देशों में अपभ्रश के प्रयोग होने का संकेत भी किया है। महाकवि पुष्पदन्त ( वि० सं० १०१६ ) ने अपने 'महापुराण' में संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ अपभ्रंश का भा समुल्लेख किया है। उस काल में संस्कृत प्राकृतादि के साथ अपभ्रश का भी ज्ञान राजकुमारियों को कराया जाता था। अमरचन्द ने तो अपभ्रंश की गणना षड्भाषाओं में की है संस्कृतं प्राकृतं चैव शौरसेनी च मागधी। पैशाचिकी चापभ्रंशं षड् भाषाः परिकीर्तिताः ॥ - काव्य कल्पलता वृत्ति पृ०८ अपभ्रंश भाषा के उल्लिखित ये भिन्न भिन्न निर्देश उसके विकास में निम्न बातें फलित करते हैं और उसकी ऐतिहासिक कड़ी जोड़ने में सक्षम हैं प्रारम्भ में अपभ्रश का अर्थ बिगड़ा हुअा रूप था। उस समय भारत में 'विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग होने लगा था और नाट्यकार के समय अपभ्रंश वीजरूप से विद्यमान थी और उसका प्रयोग आभीर एवं शबर आदि वनवासी जातियों में प्रयुक्त किया जाता था, पर उस समय तक उसका कोई साहित्यिक रूप पल्लवित नहीं हुया था। किन्तु छठी शताब्दी में 'अपभ्रश का प्रयोग वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रन्थों में भी उल्लिखित होने लगा और वह साहित्यिक भाषा का सूचक भी माना जाने लगा इतना ही नहीं, किन्तु उसका स्वतन्त्र रूप भी विकसित होने लगा था और जो दण्डी तथा भामह जैसे आलंकारिक साहित्यकों की स्वीकृति भी पा चुका था, इस तरह वह ८ वीं शताब्दी में सर्वसाधारण के बोल-चाल की भाषा मानी जाने लगी और उसका विस्तार सौराष्ट्र से लेकर मगध तक हो गया था। हां देशभेद के कारण उसमें कुछ भिन्नता अवश्य आ गई थी, किन्तु काव्यादि रचना में प्राभीरादि की अपभ्रंश का ही प्रयोग होता था। ११ वीं से लेकर १३ वीं शताब्दी तक के कवियों-मम्मट, वाग्भट्ट, हेमचन्द्र, ____१. “अहो श्लाघनीयोऽसि । शब्दार्थो ते शरीरं, संस्कृतं मुखं, प्राकृतं बाहुः, जघनमपभ्रंशः, पैशाचं पादौ उरो मिश्रम् ।" काव्यमीमांसा अ०३। २. मध्येसभं राजासनम् । तस्य चोत्तरतः संस्कृतकवयो निविशेरन् ।...पूर्वेण प्राकृताः कवयः ।...पश्चिमेनाप कवयः...दक्षिणतो भूतभाषाकवयः ।" -काव्यमीमांसा प्र० १० ३. सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कभादानकाश्च । काव्यमीमांसा, अ० १० ४. सौराष्ट्र त्रवणाद्या ये पठन्त्यर्पित सौष्ठवम् । -काव्यमीमांसा अ०७ ५. सक्कउ प्रायउ पुण अवहंसउ, वित्तउ उप्पाइउ सपसंसउ । -महापुराण ५-१८-६ ६. आभीरी भाषापभ्रंशस्था कथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते । - काव्यालंकारटीका पृष्ठ १५ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह रामचन्द्र, गुणचन्द्र और अमरचन्द्र आदि ने अपभ्रंश को संस्कृत प्राकृतादि के समान ही साहित्यिक भाषा माना । ८वीं से ११ वीं शताब्दी में साहित्यकों ने महाकाव्यों और खण्डकाव्यों को गुंफित किया । उसे रस और अलंकारों से केवल पुष्ट ही नहीं किया; किन्तु पल्लवित, पुष्पित भी किया तथा उसके माधुर्य की सरस सरिता में जन साधारगण को निमज्जन उन्मज्जन करने की सुविधा भी प्रदान की। ___इस विवेचन पर से अपभ्रश के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। साथ ही आगे होने वाले साहित्यिक परिचय से उसके विकास और ह्रास का भी पता चल जाता है। प्रत्येक भाषा अपने प्रारम्भिक काल के वाद विकास पाती है। अपभ्रंश ने भी इसी तरह विकास पाया, और बाद में वह पतन को प्राप्त हुई। भारतीय साहित्यिक भाषायें यात्म-अनात्म भावनाओं की अभिव्यक्ति साहित्य है। साहित्य के सृष्टिकर्ता विद्वानों ने अपनी चिरसाधना और अन्तर्मानस की अनुभूति द्वारा सुख, दुःख, जीवन, मरण, आशा, निराशा, भय निर्भयता, हास्य, गोक और विलाप तथा प्राकृतिक रहस्यों से विस्मित करने वाले दृश्यों एवं सौन्दर्य को अनुपम छटा को वाणी द्वारा प्रकट किया है उसे साहित्य कहते हैं। साहित्य की महत्ता उसमें चचित वस्तु तत्त्व से होती है। इसी से साहित्य सार्वकालिक और सार्वदेशिकता से ओत-प्रोत रहता है. वह किसी सम्प्रदाय, देश या व्यक्ति विशेष का समर्थक नहीं होता; किन्तु उसमें सार्वभौमता होती है। वह किसी एक अङ्ग का सम्पोषक नहीं होता। उसमें देश, काल, ऋतु, क्षेत्र, पर्वत और तद्देशीय युवति-जनों के वेष-भूषा के साथ धर्म के सिद्धान्तों का भी यथा स्थान संक्षिप्त या विशद रूप में निर्देश किया गया है। साहित्य की सृष्टि अनेक भाषाओं में की गई है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और गुजराती, मराठी ग्रादि। संस्कृत संस्कार की गई भाषा का नाम संस्कृत है। वैदिक कालोन संस्कृत प्राचीन है और अवैदिक कालोन अर्वाचीन। पाणिनीय ने संस्कृत को व्याकरण से परिष्कृत कर उसके रूप को स्थिर किया। पश्चात् व्याकरण के विकास के साथ-साथ संस्कृत के प्रयोग और नियम भी सुस्थिर होते गये। व्याकरण के प्रयोग से शिक्षित समुदाय की भाषा शुद्ध और परिमार्जित होती गई। किन्तु व्याकरण विहीन जन साधारण की भाषा अपरिमाजित और स्खलित हो रह गई । संस्कृतभाषा में प्रबन्ध काव्य चरित, पुराण, कथा, सिद्धान्त, व्याकरण, दर्शन, वैद्यक ज्योतिष कोप, छन्द, नाटक, चम्पू और अलंकार आदि विषयों पर विविध एवं विशाल अन्य लिखे गये। जैन जैनेतर अन्थकारों ने संस्कृत के भण्डार को खूब ही समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। उसमें विपुल साहित्य की सृष्टि ही उसकी महत्ता की संद्योतक है। संस्कृत का साहित्य प्रौढ़ और उच्चकोटि का है । परन्तु संस्कृत भाषा साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण जन साधारण की भाषा नहीं कहला सकी। वह शिक्षित और शिष्ट लोगों की ही भाषा बनी रही। परन्तु प्राकृत और अपभ्रंश जन साधारण की भाषा बनी, और साहित्यिक महत्ता को भी प्राप्त हुई। संस्कृत की अपेक्षा ये दोनों भाषाएं सरल और सुकोमल हैं । जन साधारण उनके अर्थ को शीघ्र ही अवगत कर लेता है। यहां प्राकृतादि भाषाओं का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराते हुए अपभ्रश के विकास-सम्बन्ध में विचार किया जायगा। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्राकृत भाषा जो प्रकृति से सिद्ध हो अर्थात् स्वभाव से निष्पन्न हो, उसे प्राकृत कहते हैं। जो लोग प्राकृत भाषा को संस्कृत से निष्पन्न बतलाते हैं । उनका वह कथन संगत नहीं जान पड़ता; क्योंकि प्राकृत जन साधारण का भापा थी, अथवा जिस कथ्य भापा को जनसाधारण अपने व्यवहार में लाते हों, वही प्रकृति निष्पन्न भाषा है। प्राकृत भाषा की महत्ता जनसाधारण से छिपी हुई नहीं है। उसका सरल और मधुर साहित्य आज भी लोगों के हृदयों में अपने गौरव को अंकित किये हुए है। भगवान महावीर ने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया था वह आधी मगध देश की भाषा थी और आधी भाषा शूरसेन देश की । पर उसमें अन्य भापात्रों के हृदयस्थ करने की क्षमता थी। बुद्ध ने भी तात्कालिक देश भाषा को अपनाया था, बाद में वही भापा पालि के नाम से प्रसिद्ध हुई। प्राकृत की महत्ता उसके हृदयंगम करने से सहज ही ज्ञात हो जाती है । प्राकृत बड़ी सरल और सहज बोधगम्य भाषा है जबकि संस्कृत दुरूह और कठिन है । इसी कारण वह जनसाधारण की भापा नहीं बन सकी है। यद्यपि प्राकृत को गिराने का बहुत कुछ प्रयत्न किया गया: परन्तु फिर भी उसका अस्तित्व बना ही रहा। काव्यालंकार के टीकाकार नमि साधु ने लिखा है कि "सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृति, स्तत्र भवं, सैव वा प्राकृतं । 'आरिसं वयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागही वाणी' इत्यादि वचनात् वा प्राक पूर्व कृतं प्राक्कृतं-बाल-महिलादिसुवोधं सकल-भापा-निवन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैक स्वरूपं तदेव च देहाविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितं सत् संस्कृताधुत्तर विभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि ।” (काव्यालंकारटीका २,१२) इसमें बतलाया गया है कि लोगों के व्याकरण आदि के संस्कार से रहित स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं उसे ही प्राकृत कहा है। आर्ष वचन में (हादशांग में) ग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी थी, इससे प्रकट हैं कि जो बालक तथा महिलाओं आदि के लिए सहजबोधगम्य है, वही भाषा सकल भाषाओं की मूल कही गई है और वह मेघ वर्षा के जल की तरह पहले एक रूप होने पर भी देश भेद से और संस्कार करने से वह अनेक भेदों में परिणत हो जाती है। अतएव शास्त्रकारों ने पहले प्राकृत को कहा है। बाद में (व्याकरणादि द्वारा संस्कारित हुई भाषा) संस्कृत आदि को कहा है। इस प्राकृत भाषा का भी क्रमशः परिष्कार हुआ और उसने अपने को साहित्यिक वेश-भूषा से अलंकृत किया। शिलालेखों की भाषा और व्याकरण सम्बन्धी प्राकृत साहित्य का अध्ययन करने से इस बात का सहज ही आभास हो जाता है। बौद्धों के हीयमान सम्प्रदाय के मान्य त्रिपिटकों की पालि और जैनागमों की अर्धमागधी प्राकृत बोलियों के ही साहित्यिक रूप हैं । प्राकृत भाषा के साहित्य को संस्कृत की तरह समृद्ध एवं संगठित बनाने के लिए वैयाकरणों ने व्याकरण के अनेक नियम भी बनाये । परन्तु प्राकृत की बोलियां अपने भिन्न-भिन्न अनेक रूपों में प्रचलित रहीं और उसमें संस्कृत के समान एक रूपता न आ सकी। क्योंकि एक भाषा के लक्षण दूसरी भाषा के लक्षणों से जुदा थे। इसी कारण त्रिविक्रम और प्राचार्य हेमचन्द्र आदि व्याकरणकर्ताओं ने नियमों में प्रायः''क्वचित्' में 'बहुल' आदि शब्दों का प्रयोग किया है। जिनसे स्पष्ट जान पड़ता है कि ये नियम किसी भाषा के लिए शाश्वत रूप में लागू नहीं हो सकते । यद्यपि व्याकरणों से भाषा में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ है । फिर भी देशभेद और विभिन्न बोलियों के कारण प्राकृत १. प्रकृतेः संस्कृतादागतम् प्राकृतम्-वाग्भट्टालंकारटीका २,५ अथवा प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत् प्रागतं वा प्राकृतम् । -हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भाषा अनेक रूपों में विभक्त हो गई। प्राकृत के अर्धमागधी, मागधी, शौरसनी महाराष्ट्री और पैशाची भेद आज भी मिलते हैं । श्वेताम्बर जैनागमों की भाषा 'अर्धमागधी प्राकृत' और दिगम्बर जैनों के प्राचीन पागम साहित्य की भाषा 'शौरसेनी प्राकृत' कही जाती है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र (१७-४८) में मागधी अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका और दाक्षिणात्या नाम की सात प्रकार की प्राकृत भाषाएँ बतलाई हैं। प्राकृत भाषा में विशाल साहित्य रचा गया है। वर्तमान में उपलब्ध साहित्य से उसकी समृद्धि का यथेष्ट ज्ञान हो जाता है। यहां प्राकृत भाषा के उक्त भेदों पर कुछ विचार किया जाता है। जैन प्राकृत और साहित्यिक प्राकृतों का उल्लेख मध्य काल के वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रन्थों में मिलता ही है। उनमें शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी पैशाची, और अपभ्रश के नाम पाये जाते हैं। शौरसेनी भाषा शूरसेन देश में स्थित मथुरा नगर के आस-पास की भाषा गौरसेनी कहलाती है। इसका प्रयोग संस्कृत के नाटकों में स्त्री-पात्रों और मध्यकोटि के पुरुषपात्रों में पाया जाता है। दो स्वरों के मध्य में संस्कृत के त, थ, का क्रमशः द और ध हो जाना इसकी विशेषता है। इस भाषा में र का ल क्वचित् ही होता है । तीनों सकारों के स्थान में 'स' ही होता है । कर्ता कारक पुल्लिग के एक वचन में 'यो' होता है । 'थ' के स्थान में क्वचित् 'ध' भी होता है और पूर्वकालिक कृदन्त के रूप में संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'ता'-ट्य, या 'दूगा' होता है । जैसे सुत-सुदो, कथम्-कधं, कृत्वा-करित्ता, कग्नि, कग्गिा होता है। इस भाषा के ग्रन्थ दिगम्बर जैन साहित्य में पाये जाते हैं। प्राचार्यप्रवर कुन्दकुन्द का प्रवचनसार, पंचास्ति काय इसी भाषा के ग्रन्थ हैं, परन्तु पंचास्तिकाय में अर्धमागधी का प्रभाव भी परिलक्षित है। शिवकोटि की भगवती आराधना इस भापा का मौलिक ग्रन्थ है, वट्टकेरका मूलाचार भी इसी भाषा की देन है । इस में जैन साहित्य की बहुलता होने से इसे जैन शौरसेनी भी कहा जाता है। महाराष्ट्री ___ यह काव्य की पद्यात्मक भाषा है । काव्य-ग्रन्थों में इसी का प्रयोग किया जाता था। गाथा सप्तसती, सेतुबन्ध, गउडवहो और रावणवध जैसे उच्चकोटि के काव्य-ग्रन्थ इसी में रचे गए हैं। पहले महाराष्ट्री महाराष्ट्र देश की भाषा मानी जाती थी, किन्तु अब वह शौरसेनी के विकास का उत्तर रूप है। ऐसा डाकार मोहन घोष का कहना है । दो स्वरों के मध्य के अल्पप्रागण स्पर्श-वर्ण का लोप और महाप्राण का 'ह' रूप में परिणत हो जाना इसकी विशेषता है। महाराष्ट्री के विशेष लक्षण जो इसे शौरसेनी से विभक्त करते हैं इस प्रकार हैं-यहाँ मध्यवर्ती 'त' का लोप होकर केवल स्वर रह जाता है, किन्तु 'द' में परिवर्तित नहीं होता। उसी तरह यहाँ 'थ' ध में परिवर्तित न होकर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है और क्रिया का रूप पूर्वकालिक 'ऊग' लगाकर बनाया जाता है, इनके सिवाय जैन महाराष्ट्री में कहीं-कहीं 'र' का 'ल' तथा प्रथमान्त 'ए' हो जाता है। जैसे जानाति-जागाइ, कथं-कहं, और भूत्वा होऊरण आदि। इस भाषा में भी जैन साहित्य ही विशेष उपलब्ध होता है। विमलसूरिका 'पउम चरिउ' इसी भाषा का पद्य-बद्ध काव्य है । पर इसमें 'य' श्रुतिका अत्यधिक प्रयोग पाया जाता है। श्वेताम्बर जैन (१) 'मागहद्ध विसयभासाणिबद्धं अद्वमागहं अट्ठारस देसी भासा भासणिययं वा अद्धमागहं ।'--निशीथचणि (२) मागवभाषा लक्षणं किंचित् किचिञ्च प्राकृत भापा लक्षणं यस्यामस्ति सा अर्धमाग याः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना साहित्य की इसमें अधिकता है । प्रागम ग्रन्थों पर लिखी हुई चूणिकाएँ, कथा और चरित साहित्य, जैसे समराइच्चकहा, सुरसुन्दरीचरिश्र, पासणाहचरिअं और प्रागमिक ग्रन्थ हैं । हाल की सत्तसई और जयवल्लभ का वज्जालग्ग महाराष्ट्री प्राकृत के श्रेष्ठ मुक्तक काव्य हैं। संघदास गणी की वसुदेवहिण्डी गद्य काव्य है। इनका समय विक्रम की छठवीं शताब्दी माना जाता है। इनके अध्ययन से यह अवश्य जाना जाता है कि इनसे पूर्व भी कोई साहित्य अवश्य रहा है । मागधी यह मगध देश की भाषा कही जाती है । नाटकों में निम्न वर्ग के पात्रों द्वारा इसका प्रयोग करना पाया जाता है। अन्य प्राकृत भापायों में 'य' के स्थान में जहां 'ज' का प्रयोग होता है वहां इसमें 'य' ही रहता है । हां 'र' के स्थान पर 'ल' का प्रयोग अवश्य पाया जाता है जैसे राजा-लामा । हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अनुसार इस भाषा में वर्ग के तीसरे, चौथे अक्षरों के स्थान में वर्ग के पहले और दूसरे अक्षर हो जाते हैं । जैसे गिरि-किरि धूली-थूली ग्रादि । इसी तरह अन्य वर्गों में भी विशेषता है। इस भाषा का प्राकृत साहित्य उपलब्ध नहीं है किन्तु व्याकरण ग्रन्थों और नाटकों में इसका प्रयोग अवश्य हुअा मिलता है। अर्धमागधी शौरसेनी और मागधी भापाओं प्रदेशों के मध्य के कुछ भाग में दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप अवश्य पाया जाता है, इसी को अर्धमागधी कहते हैं । ७वीं शताब्दी के प्राचार्य जिनदास गणी, (६३५) महत्तर ने अपनी निशीथ चूर्णी में प्राधे मगध देश की भाषा को अर्धमागधी बतलाया है। जो अष्टादश देशी भाषाओं से युक्त थी।' टीकाकार अभयदेव ने इसमें कुछ लक्षण मागधी और प्राकृत के बतलाये हैं। जैनियों के प्रागम साहित्य में और अन्य धार्मिक साहित्य में इसका प्रयोग खुलकर पाया जाता है। मागधी के समान इसमें भी अकारान्त संज्ञा के मुख्य रूप से इसका प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं र के स्थान पर ल का भी प्रयोग पाया जाता है; और कर्ता कारक एक वचन में प्रो का ए हो जाता है किन्तु इसमें 'श' का प्रयोग न होकर 'स' का ही प्रयोग पाया जाता है। भगवान महावीर ने अपना धर्मोपदेश इसी भाषा में दिया था।' परन्तु महावीर के निर्वाण से ८० वर्ष के बाद बलभी में संकलित कर लिपिबद्ध होने वाले श्वेताम्बरीय सूत्रग्रन्थों की भाषा में अवश्य परिवर्तन पाया जाता है। इस परिवर्तन के साथ-साथ ईस्वी सन् ३१० से पूर्व मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्य काल में मगध देश में पड़ने वाले द्वादशवर्षीय दुभिक्ष का प्रभाव भी उस पर पड़े बिना नहीं रह सका। दूसरे साधु संघ का विविध देशों में भ्रमण तथा उन-उन देशी भाषाओं के प्रादान प्रदान से भी उसमें परिवर्तन होना संभव है, आगम साहित्य का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो उसमें वह परिवर्तन अवश्य ज्ञात हो जायगा। इसी को लक्ष्य में रखकर प्राचार्य हरिभद्र ने जैनागमों की भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत नाम से उल्लिखित किया है । डा. जैकोबी ने जैन वर्तमान सूत्रों की भाषा को अर्धमागधी न बतलाकर जैन महाराष्ट्री बतलाया है । इसी को आर्ष और ऋषिभाषिता भी (२) 'भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ' । -समवायांग सूत्र पत्र ६० (३) दश वैकालिक वृत्ति पृ० २०३। (४) Kalpa Sutra : Sacred Book of the East Vol. XII. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जंन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कहा जाता रहा है । अतः अर्धमागधी आर्ष और ऋषिभाषिता ये तीनों एक ही भाषा के पर्यायवाची नाम हैं । पैशाची यह एक बहुत प्राचीन प्राकृत बोली है। इस भाषा का साहित्य नहीं के बराबर है, गुणाढ्य की 'वृहत्कथा' इस भाषा में रची गई थी, परन्तु दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ । पर उसके आधार से रचित ग्रन्थ अवश्य उपलब्ध है। दो स्वरों के मध्य में वर्गों का तीसरा चौथा वर्ण पहला और दूसरा वर्ण हो जाता है। जैसे वारिद - वारितो आादि । चीनी तुकिस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में पैशाची की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं । वररुचि के प्राकृतप्रकाश में ( पृ० १० ) पैशाची को शौरसेनी की प्राधार भूत भाषा स्वीकृत की है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व में कांची देश, पाण्ड्य, पांचाल, गौड, मगध, ब्राचड, दाक्षिणात्य शौरसेन, कैकय, शावर और द्राविड़ देशों को पिशाच देश बतलाया है । अपभ्रंश भाषा और उसका विकास वैदिक कालीन विभाषाग्रों- बोलियों का धीरे-धीरे विकास होता गया, और वे आर्यों की भाषा के उत्तर-पश्चिम प्रदेश से धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैलती गईं। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध के जन्म समय तक यह भाषा विदेह ( उत्तर बिहार ) और मगध ( दक्षिणी बिहार ) तक फैल गई थी। इस ग्रार्य भाषा का रूप उत्तर भारत, वज़ीरिस्तान, मध्यप्रदेश और पूर्वी भारत में उस समय पर्याप्त परिवर्तन हो गया था। इसी से उन प्रदेशों की भाषा को उदीच्या, प्राच्या और मध्यदेशीया के नाम से उल्लेखित किया गया है । उदीच्या-पेशावर और उत्तरीय पंजाब की भाषा कहलाती थी, इसमें अधिक परिवर्तन तो नहीं हुग्रा; किन्तु प्राच्या का प्रयोग करने वाले वैदिक मर्यादाओं का पालन नहीं करते थे, और वे वेदों को नहीं मानते थे, और न ब्राह्मणों के सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों का ग्राचरण ही करते थे; क्योंकि वे व्रात्य थे, अर्हन्तों के उपासक थे और चैत्यों के पूजक थे। किन्तु मध्यदेशीया भाषा उदीच्या और प्राच्या के मध्य मार्ग का अनुसरण करती थी । उदीच्या और प्राच्या में व्यंजन समीकरण के अतिरिक्त 'र' और 'ल' के प्रयोग में भी भिन्नता थी । उदीच्या में जहाँ 'र' के प्रयोग की प्रचुरता थी वहाँ प्राच्या में 'र' के स्थान पर (५) सक्कता पागता चैव दृहा भणितीय ग्रहिया । सरमंडलम्मि गिज्जेते पसत्या इनिभासिता । सक्कया पायया चैव भणिईश्री होंति दोण्णि वा । सरमंडलम्मि गिज्जेते पसत्था इसिभासिघ्रा । — अनुयोगद्वार पत्र १३१ १. देखो, इण्डो प्रार्थन एण्ड हिन्दी पृ. ५६ अथर्ववेद के १५ वें काण्ड में एक व्रात्य मूक्त है, व्रात्य व्रती का पर्यायवाची है । अथर्वदेद के काण्ड ४ सू० ११ मंत्र ११ में व्रत का पर्यायवाची 'व्रत्य' शब्द श्राया है। जिसका अर्थ व्रत धारण करने वाला होता है । उक्त वेद के ८ थे काण्ड में व्रात्य को मागध विज्ञान भी बतलाया है। जिससे स्पष्ट है कि व्रात्य लोग मगध देश के रहने वाले थे । अतएव इनकी संस्कृति 'मगध' कहलाती थी । सामवेदी ताण्ड ब्राह्मण में एक 'व्रात्य स्तोम' है, जिसमें व्रात्यों का उल्लेख है । उसमें लिखा है कि 'व्रात्य लोग वैदिक यज्ञादि से घृणा करते थे, तथा अहिंसा को अपना मुख्य धर्म मानते थे । ' ( ताण्ड ब्राह्मण १७-१-५) "अर्हन्तों के अनुयायी व्रात्य कहलाते थे, जिन का उल्लेख अथर्ववेद में है । लिच्छविलोग प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध व्रात्य जाति के थे ।" ( भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३४९ ) स्थानांग ७ पत्र २९४ । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'ल' की और मध्य देशीया में 'र' 'ल' दोनों का प्रयोग होता था। बाद में इस में भी परिर्वतन और विशेषताएं होती गईं। पूर्वकाल में यद्यपि यात्रा करने के साधन सुलभ नहीं थे। किन्तु व्यापारीजन पूर्व-पश्चिमी-देशों में अपने व्यापार के निमित्त जिस-तिस प्रकार पाया जाया करते थे। उससे उन देशों से भाषा सम्बन्धी व्यवहार का आदान-प्रदान वराबर होता रहता था। इसी से अनेक शब्दों का प्रयोग दूसरे देशों की भाषाओं में भी व्यवहृत होने लगा था। डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने सन् १५०० ई० पूर्व से लेकर सन् ६०० ईस्वी पूर्व तक प्रथम प्राकृतों अथवा विभाषाओं के अनेक परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप बुद्ध और महावीर के समय भारत में भापा के निम्न रूपों का संकेत किया है। उदीच्या, मध्यदेशीया और प्राच्या रूपमें तीन विभाषाएँ विकाम पा गईं थीं। वैदिक सूक्तों की प्राचीन भाषा छान्दस थी जिमका व्यवहार ब्राह्मण वर्ग में चल रहा था। तीसरी वह जो छान्दस भाषा के नूतन संस्करण और उदीच्या के प्राचीन रूप से विकसित हुई थी, जिसमें प्राच्या और मध्यदेशीया के तत्त्वों का संमिश्रण था। इसी भाषा में संभवतः वैदिक ग्रन्थों के भाष्यादिक भी उस समय लिखे गए थे। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने अपनी-अपनी देशना और उपदेश का माध्यम उस समय की बोलचाल की जन साधारगा की भाषा को बनाया । इस कारण तत्कालीन प्रान्तीय भाषाओं के विकास में क्रान्ति आ गई और परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रांतीय भाषाओं के साहित्यिक विकास का सूत्र-पात प्रारम्भ हो गया। ___ उस काल में संस्कृत का विकास लिक्षितोंमें अपनी चरम सीमा को पहुंच चुका था, परन्तु उसमें साम्प्रदायिक संकीरगं मनोवृत्ति के कारण उसका पूर्णविकास जैसा चाहिए था वैसा न हो सका । यद्यपि वह भारत से बाहर भी गई और वह वहां भी फैली, पर उसे सार्वभौमता का पद प्राप्त नहीं हो सका। ईसा की छठी शताब्दी से ईसा की १० वीं शताब्दी तक की प्रचलित विभाषाओं को प्रियर्सन ने दूसरो श्रेणी की प्राकृत (Secondary Prakrits) बतलाया हैं । किन्तु डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने उस काल की भाषा को मध्यकालीन आर्य भाषा (Middlc Indo Aryan Speech) कहा है और उसे तीन भागों में विभक्त किया है। इस काल को मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल कहा जा सकता है। (१) मध्य कालीन प्रार्यभाषा को प्रारम्भिक अवस्था (४०० ई० पूर्व से लेकर १०० ईस्वी तक) प्रारम्भिक प्राकृत भाषाओं का काल माना जाता है। (२) भारतीय आर्य भाषा की मध्यकालीन अवस्था (१०० ई० से ५०० ई० तक) साहित्यिक प्राकृतों का काल माना जाता है । किन्तु वर्तमान में प्राकृत भाषा का साहित्य ५०० ईस्वी के बाद का रचा हुअा भी उपलब्ध होता हैं। कौतूहल की 'लीलावती' निस्सन्देह उत्तर काल की रचना है और 'गोउडवहो' का रचना काल भी ७ वी ८ वीं शताब्दी माना जाता है । इसके अतिरिक्त हरिभद्र, कुमारस्वामी, देवसेन, पद्मनन्दि, नेमिचन्द्र, पद्मसिंह (१०८६) और हेमचन्द्र आदि अनेक जैनाचायों ने प्राकृत भाषा में (६६०) अनेक ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं। जिससे उक्त सीमा का निर्धारण विचारणीय है। २. देखो, लिग्विस्टिक सर्वे अाफ़ इण्डिया पृ० १२१ (१९२७ ई० पू०) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की उत्तर कालीन अवस्था का समय ५०० ई० से १००० ई० तक भाषा विज्ञानी प्रकट करते हैं और उसे अपभ्रंश का नाम दिया गया है। किन्तु यह भी चिन्तनीय है; क्योंकि वर्तमान में अपभ्रंश भाषा का साहित्य ८ वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक का रचा हुआ उप-लब्ध होता है । अतएव अपभ्रंश का रचना काल ५०० ई० से १३०० ई० तक मानना ही चाहिये । कारण कि उत्तरवर्ती साहित्य में हिन्दी का विकसित रूप भी देखने में आता है और १३ वीं शताब्दी तक की रचनाओं में उतनी प्रौढ़ता तो नहीं है । किन्तु रचना शैथिल्य भी नहीं पाया जाता आठवीं शताब्दी से १३ वीं, १४ वीं तक अपभ्रंश के साहित्य की प्रचुरता रही है। १४ प्रान्तीय भाषाओं का विकास द्वितीयश्रेणी की प्राकृत भाषाओं से भिन्न-भिन्न प्रादेशिक अपभ्रंश भाषात्रों की उत्पत्ति मानी जाती है और वर्तमान प्रान्तीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश से हुआ है । शौरसेनी अपभ्रंश से व्रज भाषा, खड़ी बोली राजस्थानी, पंजाबी और गुजराती भाषाओं का सम्बन्ध है । किन्तु इनमें से शौरसेनी के 'नागर अपभ्रंश' से राजस्थानी और गुजराती का सम्बन्ध विशेषरूपसे स्वीकृत किया जाता है । 'मागध 'अपभ्रंश' से भोजपुरी, उड़िया, बंगाली, आसामी, मैथिली और मगही का विकास हुआ माना जाता है । सिन्धी भाषा का विकास वाचड़ अपभ्रंश से हुआ कहा जाता है महाराष्ट्री से मराठी के विकास का सम्बन्ध अब विद्वान नहीं मानते । इन प्रान्तीय भाषाओं के विकास के पूर्वकाल में ये सब भाषाएं अपनी अपनी भिन्न-भिन्न अपभ्रंशों से प्रभावित हुई दिखलाई देती हैं और उत्तरकालीन अपभ्रंश का साहित्य भी प्रान्तीय भाषाओं से प्रभावित हुआ जान पड़ता है। उसमें प्रचुरता से तत्सम देशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग दिखाई पड़ता है। आज जिसे हम पुरानी हिन्दी कह कर पुकारते हैं वही वर्तमान हिन्दी का पूर्व रूप है । इससे यह स्पष्ट है कि वे पुरातन रचनाएं हिन्दी की जनक हैं । अथवा हिन्दी के विकास में उन का योग दान महत्वपूर्ण है । देशी भाषा की महत्ता अपभ्रंश देशी भाषा कहलाती थी । संस्कृत भाषा को शुद्ध मानने वाले वैयाकररण भी देशी भाषा को भ्रष्ट-भ्रष्ट या बिगड़ी हुई भाषा कहते थे। स्वयंभू, पुष्पदन्त, पद्मकीर्ति, लक्ष्मण, लाखू, वाग्भट्ट, पादलिप्त आदि कवियों ने भी अपभ्रंश को देशी भाषा बतलाया है ।" और विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता में देशी वचनों को मिष्ट प्रकट किया है १ (क) देशी भासा उभय तडुज्जल, कवि दुक्कर घण सद्द सिलायल (ख) देस देसि भाषा लिवि ठाणई, कइ वायालंकार विहाणई । वायरण देसि सदस्य गाड, छंदालंकार विलास पोढ । स-समय पर समय वियार सहिय, अवसद्द वाय दूरेण रहिय ॥ (ग) (घ) - स्वयंभू पउम चरिउ । -- पुष्पदन्त महापुराण ५, ६-१० - पद्मकीर्तिपासणाह चरिउ ण समाणमि छंदु ण बंधभेउ ण उ हीणाहिउ मत्ता समेउ । ण उ सक्कन पाउन देसभास, णउ सदु वण्णु जाणमि समास ॥ लक्ष्मण णेमिणाहचरिउ पीठिका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सक्कय वागी बहुअ [न] भावइ, पाइन रस को मम्म न पावइ । देसिल बयना सब जन मिट्ठा, तं ते सन जंपिउ अवहट्टा ।। अर्थात संस्कृत वागणी बहुतों को अच्छी नहीं लगती, प्राकृत रस का मर्म नहीं प्राप्त करती। देशी वचन सबसे मीठे होते हैं। इसीलिए मैं अपभ्रंश में कथा कहता हूं। पादलिप्त ने अपनी तरंगवती कथा देशी भाषा में बनाई थी' । ग्रन्थ कारों ने अपभ्रंश भाषा में जो ग्रंथ बनाये, उन्होंने उन ग्रंथों की भाषा देशी वतलाई है। वही देशी भाषा अपभ्रंश है। वैयाकरण जिस भाषा को अपभ्रंश प्रकट करते हैं उसमें ग्रंथ रचना करने वाले ग्रंथकार उसे देशी भाषा कहते हैं। ___वास्तव में अपभ्रंश या देशी भाषा में स्वभावत: माधुर्य तो है ही, पद लालित्य की भी कमी नहीं, पद सरल सग्स तथा सुबोध हैं इसी से उस काल में देशी भाषा जनसाधारण के गौरव को प्राप्त कर सकी। पर संस्कृत में वैसी क्षमता नहीं, क्योंकि वह साम्प्रदायिकता से ऊंचे नहीं उठ सकी । यद्यपि जैन और बौद्धों का विशाल साहित्य भी संस्कृत में रचा गया; परन्तु उसकी विशेष महत्ता ब्राह्मण साहित्य में ही रही, वह साम्प्रदायिक संकीर्ण दृष्टिकोण से निकलकर जन साधारण का गौरव प्राप्त नहीं कर सकी।। पर अपभ्रंश दृष्टिकोण के चक्रव्यूह से अलग रहती हुई अपनी निंदा और बुराई को सुनती हुई भी जनसाधारण के कण्ठ को विभूषित करती रही, राज्य सभाओं में भी आदर पा सकी और विद्वानों के कण्ठ का भूषण बनी रही। इसी से उसका लोकव्यापी महत्व रहा है । जब वह अपने मध्यान्ह काल में बहमूल्य प्रबन्धकाव्यों में गुम्फित हो रही थी, तब उसकी तेजस्विता, वाक्य विन्यास और पद गाम्भीर्य अर्थ के प्रतिपादक थे, उनमें महानता और सरसता आदि सद्गुण स्वभावतः अङ्कित हो रहे थे। धर्म भाषा और साहित्य के विकास में राज्याश्रय का मिलना अपना खास महत्व रखता है। इनके विकास और समृद्ध होने में राज्याश्रय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बिना राज्याश्रय के उक्त भाषा अथवा धर्म पनप नहीं सके। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन धर्मों और भाषाओं को उचित राज्याश्रय मिला वे लोक में समन्नत और विकास पाते गये। लोक में वे आगे बढ़ने में समर्थ हो सके। अपभ्रंश भाषा के विकास में भी राज्याश्रय की आवश्यकता हुई। राज्याश्रय अपभ्रंश भाषा का उपलब्ध साहित्य विभिन्न देशों और विभिन्न समयों में रचा गया है। अपभ्रश के विकास में अनेक राजवंशों और देशों के राजाओं का सहयोग मिला है । इसी से वह अपना विकास । कर सकी । मान्यखेट (बरार), गुजरात, मालवा, मारवाड़, राजस्थान, बंगाल, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में अपभ्रंश साहित्य रचा गया। (ङ) देस भास लक्खण ण तक्कयो, मुणमि णेव पायमहि गुरुक्कयो। पय समित्ति किरिया विसेसया, संधि छंदु वायरण भासया । -लाखू जिनदत्तचरित संधि १ पालित्तएण रइया बित्थरो तहव देसिवयणेहि । णामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य॥ -पादलिप्त, तरंवगती २. देखो डा० कोवी कृत सणक्कुमारचरिउ की भूमिका, पृ० नं० १८ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनप्रंप प्रशस्ति संग्रह ___यद्यपि स्वयंभू से पूर्ववर्ती अनेक कवि हो गये हैं किन्तु उनका साहित्य अभी उपलब्ध ही नहीं है। कविवर चउमुह (चतुर्मुख) का भी साहित्य उपलब्ध नहीं है । अतएव वर्तमान में स्वयंभू को ही आद्य कवि माना जाने लगा है। मान्यखेट के सभी राष्ट्रकूट राजागण जैन नहीं थे, किन्तु वैष्णव धर्मानुयायी भी थे, हां, अमोघवर्ष अवश्य जैन हो गया था। उनके राज्य में जैनधर्म को कोई प्रांच नहीं आई थी; क्योंकि उन राजाओं के राजमन्त्री प्रायः जैनधर्मावलम्बी थे। अमोघवर्ष जिनसेनाचार्य का शिष्य था, जैनधर्म पर उसकी बड़ी प्रास्था थी, इतना ही नहीं, वह विवेकपूर्वक अपने राज्य का परित्याग कर तपस्वी बन गया था। उनके राज्यों में जैन मुनियों और विद्वानों को आश्रय मिला हुआ था, इसा से वे ग्रंथ रचनादि कार्य में प्रवृत्त हो सके । राष्ट्रकूट राजा ध्रुव (वि० सं० ८३७-८५१) के अमात्य रयडा धनंजयने महाकवि स्वयंभू को आश्रय दिया था, और उनके पुत्र धवलासिय ने त्रिभुवनस्वयंभू को। पउमचरिउ 'और रिट्टणेमिचरिउकी रचना उन्हीं के अनुरोध से हुई थी। इसी तरह कृष्ण तृतीय (वि० सं० ६९६-१०२५) के मंत्री भरत और उनके पुत्र नन्न ने महाकवि पुष्पदन्त को आश्रय दिया था। मंत्री भरत की प्रेरणा से ही महापुराण की रचना हुई थी। उस समय बरार जैन वैश्यों का केन्द्र था, और बरार गुजरात मालवा आदि प्रदेशों का वाणिज्य भी प्रायः उन्हीं के हाथ में था । यद्यपि जैन लोग भारत के प्रायः सभा देशो में व्यापार के निमित्त आया जाया करते थे। (व्यापार और तीर्थयात्रा का जैनियों में खूब प्रचार रहा) है। उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा देशी भाषा को अधिक प्रश्रय दिया था और उन्हीं के सहयोग से अपभ्रंश राष्ट्रीय भाषा के रूप में पल्लवित हो सकी थी। दशवीं शताब्दी के बाद जब राष्ट्रकूटों का पतन हो गया, तब गुजरात केन्द्र बन गया। ११ वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकी राजाओं ने भी अपभ्रंश साहित्य के विकास में पर्याप्त सहायता की और ग्यारहवीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकी राजानों ने भी अपभ्रंश साहित्य के विकास में पर्याप्त सहायता प्रदान की। वहाँ जैनधर्म का विकास भी हुआ और राजा कुमारपाल ने तो स्वयं प्राचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जैनधर्म स्वीकृत किया था। उनके राज्य में ही हेमचन्द्र ने 'अपभ्रंश व्याकरण, और देशीनाममाला की रचना की। सोलंकी राजा कर्णदेव के समय में सं० ११२३ में कवि श्रीचन्द ने रयणकरण्डसाबयायार' और कथाकोश की रचना की थी। चालुक्य वंशी राजा वद्दिगदेव के पुत्र कृष्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में गोध्रा में अमरकीर्ति ने नेमिणाह चरिउ (१२४४) और षट कमेपिदेश की रचना सं० (१२४७) में की थी। मालवा में राजा भोज (जयसिंह) के राज्य में नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदंसण चरिउ और सयलविहिविहाणकव्व की रचना की। साथ ही परमारवंशी राजा देवपाल के समय में कवि दामोदर ने 'मिणाहचरिउ' की रचना सं० १२८७ में की। बंगाल में पालवंश के राज्यकाल में अपभ्रंश को उचित सम्मान मिला। बंगाल दीर्घकाल तक बौद्धों का केन्द्र रहा। पालवंश के राजा स्वयं बौद्धधर्मानुयायी थे। अतएव बौद्धतांत्रिकों के अपभ्रंश साहित्य के निर्माण में उनका पूरा सहयोग रहा। पालों के बाद बंगाल में सेनवंश का राज्य रहा, उनसे अपभ्रंश को कोई सहयोग नहीं मिला; क्योंकि वे ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। दिल्ली के तोमरवंशीय राजा अनंगपाल तृतीय के राज्यकाल में भी अपभ्रंश ग्रंथों की रचना हुई। अनंगपाल के मंत्री नट्टलसाहुकी प्रेरणा से सं० ११८६ में कवि श्रीधरने 'पासणाहचरिउ' की रचना Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना की थी। मुसलमानी शासनकाल में-मुगल बादशाह बाबर के समय दिल्ली में कवि महिंदु या महाचन्द ने सं० १५८७ में 'संतिणाहचरिउ' की और मुबारिक शाह के राज्यकाल में उनके मंत्री साह हेमराज के अनुरोध से भ० यशःकीर्ति ने सं० १४६७ में पांडवपुराण को तथा सं० १५०० में हरिवंश पुराण की रचना की। ग्वालियर के तोमर वंशी राजाओं के राज्य काल में भी जैनधर्म और जैन साहित्य के निर्माण में अच्छा प्रोत्साहन मिला। राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह (पिता-पुत्र) दोनों ही जैनधर्म पर पूर्ण आस्था रखते थे। ग्वालियर के किले में जैनमूर्तियों के निर्माण में इन्होंने पर्याप्त धन खर्च किया था। इनके शासन काल (वि. सं० १४८१ से १५३६ तक) में कवि रइधू ने लगभग २५ अपभ्रंश ग्रंथों की रचना की थी ।उस काल में वहाँ जैनधर्म का खूब प्रसार रहा। चन्द्रवाड आदि के चौहानवंशी नरेशों के राज्य काल में, यद्यपि ये नरेश जैनधर्म के अनुयायी नहीं थे, किन्तु; उनका जैनधर्म के प्रति कोई अनादर भाव न था, प्रत्युत जैनधर्म के प्रति उनका सदा सद्भाव बना रहा, कारण कि उनके मन्त्रीगण और राजश्रेष्ठी जैनधर्म के अनुयायी थे। उनका जैन साहित्य की रचना और मन्दिरों के निर्माण में पूरा सहयोग रहा है। इसी समय कवि लक्ष्मण ने 'अणुवयरयणपईव' और धनपाल ने 'बाहुबलीचरिउ' की रचना की। इटावा के समीप करहल के चौहानवंशी राजा भोजराज के समय उनके मन्त्री गोलालारीय साहू अमरसिंह की प्रेरणा से कवि असवाल ने सं० १४७६ में 'पार्श्वनाथ चरित' की रचना की थी। इस तरह राज्याश्रय को पाकर अपभ्रश साहित्य का विकास हुआ। आगे चलकर इस भाषा की धारा देशभाषा का आश्रय लेकर हिन्दी के रूप में विकास पाती रही, और नाथ-सिद्धों की वाणियों में, कबीर आदि सन्तों के पदसाखी आदि में और जैन कवियों की रचनाओं में उज्जीवित होती रही। इस तरह इस अपभ्रंश भाषा का विकास बराबर होता रहा, पश्चात् वही हिन्दी के रूप में प्रतिष्ठित होगई। हिन्दी भाषा के कवियों ने अपभ्रंश की सरणी का अनुसरण करते हुए अपनी कृतियों को उपयोगी बनाने का प्रयत्न भी किया है। इसीलिए आज अनेक विद्वान् इस अपभ्रंश भाषा के साहित्य को पुरानी हिन्दी या हिन्दी का साहित्य मानने लगे हैं। यद्यपि अब अपभ्रंश भाषा में साहित्य रचना नहीं हो रही है, परन्तु अपभ्रंश के अध्ययन के विना हिन्दी का विकास भी पूर्णता को नहीं पा सकता । अतः अाज अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट अध्ययन की पूर्ण आवश्यकता है । __ अपभ्रंश भाषा का उपलब्ध साहित्य और उसका वर्गीकरण अपभ्रंश भाषा के उपलब्ध साहित्य पर जब हम विचार करते हैं तब हमें इसकी विशेषताओं का परिज्ञान सहज ही हो जाता है । इस साहित्य में कथन की क्रमबद्धता, छन्दविस्तार, घटना-बाहुल्य, सत्पात्रों का चुनाव, आदि गुरण इसकी महत्ता के द्योतक हैं। रसात्मकता, भाषा में ओज और माधुर्य गुण इस के प्राकर्षणके कारण रहे हैं। इसी से यह जन साधारण द्वारा अपनायी गई जान पड़ती हैं। अपभ्रंश साहित्य का मनन करने से हिन्दी भाषा के विकास का अच्छा इतिवृत्त संकलित किया जा सकता है। यह साहित्य प्रबन्ध या महाकाव्य, खण्डकाव्य, रूपककाव्य, मुक्तककाव्य, सन्धिकाव्य, कथाकाव्य और रासाकाव्य आदि के रूप में मिलता है। वर्तमान भे न अपभ्रंश का कोई स्वतन्त्र गद्य ग्रंथ उपलब्ध है और न कोई नाटक ही। पर संस्कृत के नाटकों में अपभ्रंश भाषा के गद्य पद्य दोनों के दर्शन अवश्य होते हैं। कुवलयमाला में भी अपभ्रंश गद्य मिलता है । अपभ्रंश भाषा के दो शिलालेख भी उपलब्ध हैं।' १. देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका भा०६, अङ्क ४, पृष्ठ ५ में रायबहादुर हीरालाल का इन्कृप्सन । यह लेख विक्रम की १२वीं शताब्दी का बतलाया जाता है । दूसरा लेख बम्बई म्यूजियम में सुरक्षित है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह प्रबन्धकाव्य विश्व साहित्य में संभवतः सबसे प्रथम भारतवर्ष में ही काव्य-ग्रन्थ लिखे गये। इस देश में प्रबन्ध काव्य लिखने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। इससे पहले पुराणादि ग्रन्थ ही लिखे जाते थे। ये पुराण प्रबन्ध-काव्यात्मक रचना हैं। प्रबन्धकाव्यों में इतिवृत्त, वस्तु-व्यापार वर्णन, भावाभिव्यंजना और संवाद ये चार अवयव होते हैं । कथा में पूर्वापर क्रमबद्धता आवश्यक है इसके विना कोई काव्य प्रबन्धकाव्य नहीं कहला सकता । अपभ्रंश भाषा में प्रबन्ध काव्य बहुसंख्या में लिखे गए उपलब्ध हैं, उनमें पूर्वापर क्रमबद्धता के साथ कथा के मार्मिक स्थलों की परख होना जरूरी हैं, इससे प्रबन्धकाव्य की रचना में सफलता मिलती है । जैन अपभ्रश प्रबन्ध काव्यों में वस्तुव्यापार वर्णन तो सुन्दर है ही; किन्तु संवाद इतने प्रभावक और आकर्षक होते हैं कि उनसे इन प्रबन्ध काव्यों के निर्माताओं की सहृदयता का सहज ही आभास मिल जाता है । इन प्रबन्धकाव्यों का विषय प्रायः राम और कृष्ण की कथा ही रहा है। संस्कृत प्रबन्धकाव्यों में नायक के चरित-चित्रण के अतिरिक्त उषाकाल, सूर्योदय, चन्द्रोदय, संध्या, रजनी, नदी, पर्वत, समुद्र, ऋतु, युद्ध और यात्रा आदि दृश्यों का वर्णन सालंकार किया गया है' । ऐसा करते हुए भी कवियों ने उनमें अनेक चमत्कारों को भी दिखलाया है। ये सब कथन अल्प या बहुत मात्रा में सभी भाषाओं के प्रवन्धकाव्यों में उपलब्ध होते हैं। हाँ, प्राकृत प्रवन्धकाव्यों में कुछ नई प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं । उनमें अनेक स्थलों पर ग्राम्य जीवन के सुन्दर चित्र अंकित मिलते हैं। अपभ्रंश प्रबन्ध काव्यों में ऐसे अनेक वर्णन मिलते हैं जो जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं। संस्कृत भाषा में हमें दो प्रकार के काव्य मिलते हैं। उनमें कुछ काव्य ऐसे हैं जिनमें कथा का विस्तार, घटनाबाहुल्य और उसके साथ ही साथ प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन प्रचुरता से किया गया है और कुछ ऐसे भी हैं जिनमें कथा बहुत ही संक्षिप्त है, किन्तु प्राकृतिक वर्णनों के विस्तार में प्रचुर काव्यत्व दृष्टि गोचर होता है। प्राकृत में भी इन दोनों शैलियों के दर्शन होते हैं । यदि सेतु-बन्ध में रामकथा का विस्तार है, तो गउडवहो में गौड राजा के वध का कथन अति संक्षिप्त (३-४ पद्यों) में ही दिया गया है और अन्य काव्योचित वर्णनों का पर्याप्त रूप में स्थल-स्थल पर समावेश है। अपभ्रंश के महाकाव्यों में भी हमें वर्ण्य विषय का पर्याप्त विस्तार मिलता है। कथा-पात्रों के अलौकिक चमत्कारों, भवान्तरों की कथाओं और पौराणिक आख्यानों के कारण कथा का विस्तार अधिक वढ़ गया है, जिससे कथा-सूत्र के समझने में कठिनाई हो जाती है। अनेक कथाओं और अवान्तर उप कथाओं में उलझे हुए अनेक स्थलों में यद्यपि सुन्दरता के दर्शन होते हैं, फिर भी उन में कवित्व प्रचुर परिमारण में प्रकट नहीं हो सका है और कविता में विषय की अपेक्षा कवित्व का विस्तार कम ही हुआ है। १. सन्ध्यासूर्येन्दुरजनीप्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातमध्याह्नमृगयाशैलर्तृवास गराः ।। संभोगविप्रलम्भौ च मुनि स्वर्गपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः ॥ वर्णनीया यथायोग्यं सांगोपांगा प्रमी इह । साहित्यदर्पण ६ परि० से ३२२-३२४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना महाकाव्य साहित्यकारों ने 'सर्गबन्धो महाकाव्यं'-'इस लक्षणानुसार महाकाव्य का विभाजन अनेक सर्गों में किया है । कथा का सर्गबद्ध होना आवश्यक है, सर्गों की संख्या का भी वहां निर्देश किया गया है। संस्कृत महाकाव्यों में कथा अनेक आश्वासों (सर्गों) में विभक्त मिलती हैं; किन्तु प्राकृत में कुछ काव्य ऐसे भी मिलते हैं, जिनमें पद्य-कथा को आश्वासों में विभक्त नहीं किया गया। 'गउडवहो' में विभिन्न विषयों और घटनाओं को कुलकों और महाकुलकों में बांधा गया है। 'लीलावइकहा' आदि कुछ काध्य सर्गों या आश्वासों मैं विभक्त नहीं हैं। इस तरह प्राकृत महाकाव्यों में आश्वासों और स!का लोप होगया। प्राकृत काव्यों की इस स्वच्छन्द प्रवृत्ति का प्रभाव संस्कृत महाकाव्यों पर भी पड़ा है। अपभ्रश महाकाव्य में कथा वस्तु अनेक सन्धियों में विभक्त होती है और प्रत्येक सन्धि अनेक कडवकों के मेल से बनती है. संधियों की संख्या का वहाँ कोई नियम नहीं है। धवल कवि के 'हरिवंश' में १२२ संधियां हैं और पुष्पदन्त के महापुगण में १०२ सन्धियां दी हुई हैं। अपभ्रंशभाषा के महाकाव्यों में यद्यपि वर्णनीय विषय को संस्कृत महाकाव्यों के अनुसार ही दिया है, किन्तु वे काव्योचित मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन करने में असमर्थ रहे हैं । इन महाकाव्यों में अपभ्रंश की कुछ परम्परागत रूढियों का भी पालन होता रहा है । अपभ्रंश के प्रायः सभी महाकाव्य सन्धियों में विभक्त हैं। किन्तु स्वयंभू के दोनों महाकाव्य काण्डों में विभक्त होकर भी संधियों में रखे गए हैं। यह पद्धति बहुत पुरानी हैं। संस्कृत भाषा के काव्यों और ग्रन्थों में इसका प्रचलन था, प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने तत्त्वार्थराजवातिक ग्रन्थ को अध्यायों में विभक्त करके भी उन्हें आह्निकों में विभाजित किया है। महाभारत में यह क्रम अध्यायों में पर्वो या सर्गों के रूप में मिलता है, और रामायण में काव्यों को सर्गों में विभाजित कर दिया गया है । एक एक अध्याय में अनेक प्राह्निक मिलते हैं। ____कविराज विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में भ्रमवश यह लिख दिया कि-अपभ्रंश महाकाव्यों में सर्गों की जगह कुडवक या कडवक होते हैं । पर ऐसा नहीं है। अपभ्रंश महाकाव्यों में संधि या सर्ग अनेक कडवकों के समूह से बनती है । कडवकों का प्रयोग वहाँ पद के रूप में हुआ है । १५ से ३० कडवकों या इससे अधिक की एक संधि होती है। इसी कारण सन्धियों का आकार छोटा या बड़ा देखने को मिलता है । अपभ्रंश काव्यों में प्रत्येक कडवक के प्रारम्भ में और अन्त में एक पत्ता रहता है। इस नियम का निर्वाह कुछ काव्यों में पूर्ण रूप से मिलता है और कुछ में कम । अपभ्रंश काव्यों की कडवक-योजना का प्रभाव हिन्दी भाषा के प्रबन्ध काव्यों पर पड़ा है। रामचरित मानस और पद्मावत आदि में कुछ चौपाइयाँ रखकर दोहा या कहीं कहीं हरिगीतिका छन्द रक्खा गया है। कवि लक्ष्मण का 'णेमिणाहचरिउ' रड्ढा छन्द में रचा गया है और सुदंसणचरिउ पद्धडिया छन्द के अतिरिक्त विविध छन्दों से विभूषित है। अब्दुलरहमान के सन्देशरासक में कडवकबद्धता नहीं है । पुष्पदन्त के काव्यों में नाना छन्दों का प्रयोग हुआ है। पर वे सब कडवकबद्ध ही हैं। संस्कृत के कुछ महाकाव्यों में मंगलाचरण और वस्तुनिर्देश के बिना भी काव्यारंभ देखा जाता है, यह परम्परा परवर्ती काव्यों में नही है। अपभ्रंश भाषा के प्रायः सभी काव्य मंगलाचरण और वस्तु निर्देश आदि की परम्परा को लिये हुए हैं, इसी का हिन्दी के काव्यों में अनुसरण किया गया है। १. सर्गबन्धो महाकाव्यं-साहित्यदर्पण ६ परि० ३१५ । २. अपभ्रंशनिबद्धेऽस्मिन्सर्गाः कुडवकाभिधाः । तथापभ्रंश योग्यानि छन्दांसि विविधान्यपि ।। -साहित्यदर्पण ६-३२७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि भामह ने काव्यालंकार में कथा का जो लक्षण निर्दिष्ट किया है तदनुसार कथा दो व्यक्तियों की बातचीत से प्रारम्भ होती है। किन्तु आख्यायिका में नायक अपनी कथा स्वयं कहता है। जैन अपभ्रंश काव्यों में प्रायः सभी कथानक राजा श्रेणिक के प्रश्न और गौतम गणधर के उत्तररूप में प्रारम्भ होते हैं। कथा का नायक संस्कृत महाकाव्यों में कथा का नायक धीरोदात्त गुणवाला आदर्श व्यक्ति देवता या सद्वंश क्षत्रिय माना गया है, किन्तु जैन कवियों द्वारा निर्मित अपभ्रंश-काव्यों में कुछ में क्षत्रियवंशोद्भव तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र आदि पुराण-पुरुषों को माना गया है और कुछ में आदर्श व्यक्ति राजथं ष्ठी, वणिक या राजपुत्र को माना गया है, क्योंकि जैन कवियों को रचना का उद्देश्य प्रात्मविकास बतलाना रहा है, इसी से नायक क्षत्रिय न होते हुए भी आदर्श गुरणों वाला कुलीन व्यक्ति स्वीकृत किया गया है। उसकी धर्मपरायणता और लोकोपकारिता आदि का चित्रण नैतिक चरित्र के विकास को लिए हए है । नायक के जीवन की अच्छी-बुरी परिगति का कथन करते हुए तपश्चर्या, व्रताराधना, और सत्कर्मों द्वारा जीवन के अन्तिम लक्ष्य-पूर्ण स्वातंत्र्य की प्राप्ति का निर्देश करना ही कवि का उद्देश्य है और नायक के उदात्तचरित को यथार्थता के मापदण्ड से नापा गया है; ऐसा होने पर उसमें हीनता की कल्पना करना उचित नहीं जान पड़ता। केवल रूढ़ि वश क्षत्रिय को नायक बना कर महा-काव्यों के औचित्य का पालन नहीं हो सकता। यह तो संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचायक है। जीवन का आदर्श चारित्र-गुरण पर ही निर्भर होता है। महाकाव्यों में वर्ण्य विषय (१) महाकाव्य में कथा का अंकों, स! या अधिकारों आदि में विभाजित होना । (1) नायक का तीर्थकर, चक्रवर्ती या अन्य महापुरुष होना । (३) शृंगार, वीर और शान्तादिरस की प्रधानता रहना। (४) कथा वस्तु का ऐतिहासिक या लोक प्रसिद्ध होना। (५) धर्मादि पुरुषार्थचतुष्टय में से किसी एक पुरुषार्थ की प्रमुखता का होना । (६) काव्य का नामकरण किसी प्रधान घटना, काव्यगतवृत्त, कवि का नाम, अथवा नायक के नाम के आधार पर होना। (७) सर्ग, संधि या अधिकार के अन्त में छन्द का बदल जाना और किसी एक ही अध्याय में विविध छन्दों का पाया जाना । (८) सर्गों या अध्यायों की संख्या का ८ से अधिक होना। (६) काव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण, आशीर्वचन, सज्जन दुर्जन-वर्णन और प्रतिपाद्य कथा की पृष्ठभूमि का निर्देश । १. ... ..तत्रैको नायक. सुरः । सदंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः । साहित्य दर्पण ६ परि० ३१६ । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (१०) वर्णन में विविधता-ग्राम नगर, प्रभात, सन्ध्या, प्रदोष, सूर्य, चन्द्र, अन्धकार आदि कृतिक दृश्यों, संयोग-वियोग, विवाह वेष-भूषा, लोक जीवन की परिस्थितियाँ, सुख-दुख, युद्ध, वर्णन और 'माजिक व्यवस्था का सुन्दर सजीव चित्रण । (११) ग्रन्थ में यथाप्रसंग लोकोक्तियों और सुन्दर सुभापितों का प्रयोग । (१२) काव्य में विविध अलंकारों का सन्निवेश, जैसे शब्दालंकारों में यमक, श्लेष और अनुप्रास । र्थालंकारों में उपमा, व्यतिरेक, विरोधाभास और अनन्वय आदि का होना। तिपय महाकाव्यों के नाम-पउमचरिउ, महापुराण, हरिवंशपुराण और पाण्डवपुराण आदि । ___ खण्डकाव्य 'खण्डकाव्यं भवेत् काव्यस्यैकदेशानुमारि' इस लक्षण के अनुसार खण्डकाव्य में जीवन के किसी क पहलू की झाँकी रहती है। खण्डकाव्यों में वर्णनीय विषय, कथानक, कवि की बहुज्ञता, पात्र, रस, द्धवर्णन, भावाभिव्यंजना, प्रकृति-वर्णन, सामाजिक व्यवस्था और भाषा में सौन्दर्य लाने के लिये कवि थल-स्थल पर उपमा और श्लेषादि अलंकारों का प्रयोग करता है। खण्डकाव्य की विशेषता यहाँ मैं नागकुमार चरित के आधार से खण्ड-काव्य-गत कुछ विशेषताओं का उल्लेख कर देना पावश्यक समझता हूँ। उस काल में संगीत कला का शिक्षण राजकुमार और राजकुमारियों के लिये प्रावत्यक माना जाता था। राजकुमारियाँ इसी के आधार पर वर का चुनाव करती थीं। काश्मीर की राजकुमारी 1 नागकुमार से उसी समय प्रणय-सम्बन्ध किया था जब उसने आलापिनी (वीणा) को बजाने में अपनी निपणता का परिचय दिया था (नागकुमार चरित ५-७-११) नागकुमार ने स्वयं वीणा बजाई और उसकी तीन रानियों ने जिन मन्दिर में नृत्य किया था (नागकुमार चरित ५-११-१२) मेघपुर की राजकुमारी ने भी मृदंग बजाने की चतुराई दिखलाने पर ही विवाह किया था (८-७-७) जब जयन्धर का पृथ्वी देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध हुआ तब पुरनारियों ने नृत्य किया था (१-१८-२)। उस समय मनोरंजनों के साधनों में क्रीडोद्यान या जलक्रीडा प्रमुख थे। राजकुमार अपने अन्त:पुर के साथ इन स्थानों पर जाकर आमोद-प्रमोद किया करते थे । कवि के समय समाज में संभवतः द्यूतक्रीड़ा की प्रथा थी, इसके लिये वहाँ अनेक द्यूत-गृह बने हुए थे। धनोपार्जन के लिये भी लोग द्यूतक्रीडा का आश्रय लेते थे जैसा कि नागकुमार ने किया था। __ जैन कवियों ने पुरातन कथानकों का काव्यों में चयन कर अपने रचना कौशल से प्रबन्ध-पटुता और सहृदयता आदि गुणों का समन्वय किया है। जिससे ये काव्य-ग्रन्थ पाठकों की सुपुप्त भावनाओं को प्रेरणा देने या उद्भावन करने में सहज ही समर्थ हो जाते हैं। जैन कवियों ने अपभ्रंश भाषा में अनेक खण्डकाव्य बनाये हैं । जसहरचरिउ, नागकुमारचरिउ, जंबूस्वामिचरिउ, सुदंसणचरिउ, सुकुमालचरिउ, करकंडुचरिउ, सुलोयणाचरिउ, ऐमिणाहचरिउ, वाहुबलिचरिउ, सुकोशलचरिउ, धण्णकुमारचरिउ, मेहेसरचरिउ और पासणाहचरिउ आदि। इन काव्यों के अतिरिक्त अनेक रूपक खण्ड-काव्य भी बनाये हैं, जैसे मयणजुज्झ, मयण-पराजय आदि । इसी तरह जैन कवियों ने हिन्दी भाषा में भी रूपक खण्डकाव्य लिखे हैं, जैसे भगवतीदास का चेतन चरित, पंचइन्द्रिय-संवाद आदि । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह अपभ्रंश काव्यों में रोमांचकता कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश काव्यों में रोमांचकता को रूढिपरक बतलाकर उनके औचित्य को निरर्थक सिद्ध किया है । डा० शम्भूनाथसिंह ने अपने 'हिन्दी महाकाव्यों का स्वरूप विकास' नाम के ग्रन्थ में रोमांचक शैली के महाकाव्यों के कुछ नाम गिनाये हैं और उन्होंने उन पर विचार करते हुए उनकी कुछ परम्परागत रूढियों को दिखाने का प्रयत्न किया है : (१) भविसयत्तकहा-धनपाल । (२) सुदंसणचरिउ-नयनन्दि सं० ११०० । (३) विलासवइकहा-साधारण कवि ११२३ । (४) करकंडुचरिउ-कनकामर । (५) पज्जुण्णकहा-सिद्ध तथा सिंह। (६) जिरणदत्तचरिउ-कविलक्ष्मण वि० सं० १२७५ । (७) गायकुमारचरिउ-माणिक्कराज सं० १५७५ । (८) सिद्धचक्कमाहप्प (श्रीपाल कथा)-रइधू । डा० साहब की मान्यता है कि (१) वस्तुतः ये कथाएँ लोक-कथाओं और लोक-गाथानों के आधार पर लिखी गई हैं। जिनमें कवियों ने कुछ धार्मिक बातें जोड़कर कथात्मक काव्य या चरित काव्य बनाने का प्रयत्न किया है। (२) इन काव्यों में युद्ध और प्रेम का वर्णन पौराणिक शैली के काव्यों की अपेक्षा अधिक है, और विकसनशील महाकाव्यों में रोमांचक तत्त्व अधिक होते हैं। जैनों ने धार्मिक आवरण में रोमांचक काव्य लिखे हैं। (४) इन काव्यों में अतिशयोक्ति पूर्ण बातें अधिक हैं। इनमें साहसपूर्ण कार्य, वीहड़ यात्राएँ, उजाड़नगर, भयंकर वन में अकेले जाना, मत्त गज से युद्ध, उग्र अश्व को वश में करना, यक्ष, गन्धर्व और विद्याधरादि से युद्ध, समुद्रयात्रा और जहाज टूटने आदि का वर्णन मिलता है। इससे कथा में रोमांचकता का गुण बढ़ जाता है और पाठक की जिज्ञासा की तृप्ति होती है। यह कथा-पाख्यायिका का गुण है, जिसे इन काव्यों में अपना लिया गया है । इस विषय में मेरा विचार इस प्रकार है : डा० साहब की उक्त मान्यतानुसार इन जैन काव्यों को रोमांचक मान भी लिया जाय, तो भी इनसे रागवृद्धि और अनैतिकता को कोई सहारा नहीं मिलता; क्योंकि जैन कवियों का लक्ष्य 'विशुद्धि' रहा है। इन अपभ्रंश काव्यों में शृंगारादि सभी रसों का वर्णन है। किन्तु ग्रन्थकारों ने शृंगार को वैराग्य में और वीर रस को शान्तरस में परिवर्तित किया है, और नायक के विशुद्ध चरित को दर्शाने का उपक्रम किया है। अन्य रोमांचक काव्यों में जैसी रागवर्द्धक कथाओं, लोक-गीतों, यात्रा और वन-गमनादि की घटनाओं को अतिरंजित रूप में उल्लिखित किया गया है, साथ ही शृंगारादि रसों का वर्णन भी रागोत्पादक हुअा है, जो मानव जीवन के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने में सहायक सिद्ध नहीं होता, वैसा वर्णन इन जैन अपभ्रंश काव्यों में नहीं मिलता। अतः उन्हें अन्य रोमांचक काव्यों की कोटि में नहीं रक्खा जा सकता । यहाँ सूदंसणचरिउ की मौलिकता और विशेषता पर विचार करना अप्रासंगिक न होगा। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सरणचरिउ नयनन्दि के 'सुदंमणचरिउ' में सतर्कता खूब बरती गई है। उसमें 'भविसयत्त कहा' और 'जिनदत्त रिउ' जैसी लौकिक तथा आश्चर्यजनक घटनाओं को स्थान नहीं दिया गया। ग्रंथ में एक व्यंतर का धाड़ी हन राजा से युद्ध करने और राजा को सुदर्शन की शरण में पहुंचाने का उल्लेख अवश्य है, जो सुदर्शन के ल और पुण्य का परिचायक है । इतने मात्र से उस पर वैसी रोमांचकता नहीं लादी जा सकती। वह खंड व्य होकर भी महाकाव्य की कोटिका ग्रन्थ है । ग्रन्थ में णमोकार मंत्र के फल का वर्णन किया है। उसमें 5 का एक मात्र ध्येय प्रात्म-विकास करना, और अभयारानी आदि की कुत्सित वृत्तियों से अपने को संरत कर तथा ब्रह्मचर्यव्रत में निष्ठ रहकर पूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्त करना रहा है । सुदर्शन के स्वभाव में अपनी विशेषता है, वह धीर, उदात्त और प्रशान्त नायक है, वह अपनी तज्ञा पर अडोल रहता है, उसे संसार का कोई भी प्रलोभन पथभ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सका । कंचन र कामिनी के राग से विरले ही अपने को अलग रख पाते हैं, बड़े-बड़े तपस्वी भी भ्रष्ट हो जाते हैं। कवि ने इसका मौलिक विवेचन किया है। उससे उक्त काव्य की प्रात्मा चमक उठी है। इस कारण उसे भविसयत्त कहा के समान रोमांचक काव्य नहीं कहा जा सकता। सुदर्शन ने अपने चरित की वशुद्धता से मानवता के कलंक को धो दिया है। अतएव मैं ही इसे विशुद्ध काव्य नहीं कहता; नयनन्दि स्वयं भी उसे निर्दोष काव्य माना है जैसा कि उनके निम्न पद्य से स्पष्ट है : रामो सीय-विभोय-सोय-विहुरं संपत्तु रामायणे। जादं पंडव-धायरठ सददं गोत्तं-कलीभारहे । डेडा कोलियचोररज्जुणिरदा आहासिदा सुद्दये । यो एक्कं पि सुदंसरणस्स चरिदे दोसं समुद्भासिदं ॥ उन्होंने काव्य का आदर्श व्यक्त करते हुए लिखा है कि रामायण में राम और सीता के वियोग और शोक जन्य व्याकुलता के दर्शन होते हैं, और महाभारत में पांडवों और धार्तराष्ट्रों (कौरवों) के परस्पर लह और मारकाट के दृश्य अंकित मिलते हैं तथा लोक-शास्त्र में भी कौलिक, चौर-व्याध आदि की हानियां सुनने में आती हैं किन्तु इस सुदर्शनचरित में ऐसा एक भी दोष नहीं कहा गया है। इस ग्रंथ की कथन शैली, वाक्य-विन्यास, सुन्दर सुभाषित और विविध छन्दों में वस्तु वर्णन, ठक के हृदय को आकर्षित करते ही है। डा. हरिवंश कोछड़ ने भी अपभ्रंश साहित्य में युद्ध प्रसंगादि की घटनाओं को अनावश्यक मना है। इस सब कथन पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन अपभ्रंश काव्यों के सम्बन्ध में विभिन्न सिकों द्वारा अब तक जो भी लिखा गया है वह सब एकांगी है। जैन विद्वानों का कर्तव्य है कि वे निष्पक्ष मे इस पर विचार करें और रोमांचक काव्यों की परिभाषा का विश्लेषण कर उसके औचित्यअनौर प्रकाश डालें और अपभ्रंश साहित्य की महत्ता को लोक में प्रतिष्ठित करें। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ मैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह सन्धि-काव्य एक ही सन्धि में विभक्त होने वाले काव्यों को एक सन्धि काव्य कहा जाता है। अपभ्रंश के खण्ड सन्धि काव्यों की परम्परा केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पाई जाती है। किन्तु ये सब परवर्ती काल की रचनायें हैं। इनमें भी जीवन चरित की परम्परा उपलब्ध होती है । उपलब्ध सन्धिकाव्य सं० १२८७ से १४५० तक के रचे हुए हैं ; संभव है इसके बाद भी कुछ रचे गए हों, पर वे अपभ्रंश भाषा के न होकर हिन्दी या राजस्थानी भाषा में ही लिखे गए जान पड़ते हैं। ये सन्धिकाव्य पाटन आदि के जैन शास्त्रभण्डारों से उपलब्ध हुए हैं । उदाहरणार्थ जिनप्रभसूरि ने अनाथ सन्धि सं० १२९७ में, जीवानुसंधी ३१८ पद्यों में और मयण-रेहा-सन्धि १२९७ में बनाई है। वरदत्त ने वज्रस्वामिसन्धि, रत्नप्रभ ने अन्तरंगसन्धि, तथा सं० १२९८ में जिनप्रभ सूरि के शिष्य ने नर्मदासुंदरीसंधि की रचना की है।' ___ अपभ्रंश के सन्धि-काव्यों के सम्बन्ध में विशेष जानने के लिए राजस्थानी पत्रिका में प्रकाशित श्री अगरचन्द नाहटा का 'अपभ्रंश भाषा के सन्धि-काव्य और उनकी परम्परा' नाम का लेख पढ़े। कथा साहित्य भारतीय वाङमय में कथा, पुराण और चरित ग्रन्थों का उल्लेखनीय बाहुल्य है। प्रायः सभी सम्प्रदायों के विद्वानों ने विविध भाषाओं में पुराणों, चरितों और काव्य, चम्पू आदि विविध ग्रंथों का निर्माण किया है । जहां जनेतर विद्वानों ने अपभ्रंश को गौण कर संस्कृत आदि अन्य भाषाओं में कथा-साहित्य की सष्टि की हैं, वहां जैन विद्वानों ने प्राकृत और संस्कृत के साथ अपभ्रंश भाषा में भी कथा, चरित और पुराण ग्रन्थ निबद्ध किये हैं। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत की विविध प्रान्तीय भाषाओं में-मराठी, गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी आदि में भी पुष्कल कथा-साहित्य रचा है । कथायें कई प्रकार की होती हैं; परन्तु उनके दो भेद मुख्य हैं-लौकिक और धार्मिक (प्राध्यात्मिक) । इन दोनों में सभी कथाओं का समावेश हो जाता है, धार्मिक कथाओं में तो आध्यात्मिकता की पुट रहती है और लौकिक कथाओं में पशु-पक्षियों, राजनीति, लोकनीति, हाव-भाव, शृंगार आदि रागोत्पादक र लौकिक मनोरंजक पाख्यानों का सम्मिश्रण रहता है। इनमें आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत धार्मिक कथाओं का घनिष्ठ सम्बन्ध आन्तरिक जीवन-घटनाओं के साथ रहता है, इनमें व्रतों का सदनष्ठान करने वाले भव्य श्रावकों की धार्मिक मर्यादा के साथ नैतिक जीवनचर्या का भी अच्छा चित्रण पाया जाता है। साथ ही उनके भारी संकट उपस्थित होने पर धीरता से विजय प्राप्त करने, अपने पुरुषार्थ को सुदृढ़ रूप में कायम रखने तथा धार्मिक श्रद्धा में अडोल (निश्चल) रहने का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। कितनी ही कथाओं में जीवनोपयोगी आवश्यक तत्त्व का संकलन यथेष्ट रूप में पाया जाता है, जो प्रत्येक व्यक्ति को जीवन सफल बनाने के लिए आवश्यक होता है। असल में सत्-पुरुषों का उच्चतर जीवन दूसरों के लिए आदर्शरूप होता है, उस पर चलने से जीवन में विकास और नैतिक चरित्र में वृद्धि होती है, एवं स्वयं का जीवन आदर्श बनता है। इससे पाठक सहज ही में कथाओं की उपयोगिता और महत्ता का अनुभव कर सकते हैं। १. देखो, पाटन भंडार सूची, जो गायकवाड प्रोरियन्टल सीरीज बड़ौदा से प्रकाशित हुई है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २५ प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रन्थ लिखे गये हैं । उनमें वसुदेवहिण्डी गद्य और कुवलयमालाकथा तो -पद्य रूप में प्रसिद्ध ही हैं। कुवलयमाला में कहीं-कहीं अपभ्रंशभाषा के गद्य के भी दर्शन होते हैं पर बहुत कम । हाँ अपभ्रंशभाषा का पद्यात्मक कथासाहित्य प्रचुरता से उपलब्ध होता है; परन्तु कोई गद्यात्मक न्त्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुआ । ग्रन्थों के निर्मारण का उद्देश्य जैनाचार्यों अथवा जैन विद्वानों द्वारा कथा ग्रंथों के बनाए जाने का उद्देश्य केवल यह प्रतीत है कि जनता संयम से वचे श्रौर व्रतादि के अनुष्ठान द्वारा शरीर और आत्मा की शुद्धि की ओर अग्र हो । कथाओं में दुर्व्यसनों और अन्याय, अत्याचारों के बुरे परिणामों को दिखाने का अभिप्राय केवल से अपनी रक्षा करना, और जीवन को उच्च बनाना है । व्रताचरण - जन्य पुण्य फल को दिखाने का जिन यह है कि जनता अपना जीवन अधिक से अधिक संवत और पवित्र बनावे। त्रसघात, प्रमादकारक, नष्ट, अनुपसेव्य, तथा अल्पफल बहु-विघातरूप प्रभक्ष्य वस्तुयों के व्यवहार से अपने को निरन्तर दूर रखे । करने से ही मानव अपने जीवन को सफल बना सकता है। जैन विद्वानों का यह दृष्टिकोण कितना च और लोकोपयोगी है । अपभ्रंश के जैन कथा ग्रन्थों मे अनेक कवियों ने व्रतों का अनुष्ठान अथवा ग्राचरण करने वाले य श्रावकों के जीवन-परिचय के साथ व्रत का स्वरूप, विधान और फल प्राप्ति का रोचक वर्गान या है, साथ ही व्रत का पूरा अनुष्ठान करने के पश्चात् व्रत के उद्यापन करने की विधि, तथा उद्यापन की मर्थ्य न होने पर दुगुना व्रत करने की ग्रावश्यकता और उसके महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है। उद्यापन ते समय उस भव्य श्रावक की कर्तव्यनिष्ठा, धार्मिक श्रद्धा, साधर्म-वत्सलता, निर्दोष व्रताचरण की क्षमता र उदारता का अच्छा चित्ररण किया गया है और उससे जैनियों की उन समयों में होने वाली प्रवृयों, लोकसेवा, आहार, औषध, ज्ञान और अभय रूप चार दानों की प्रवृत्ति, तपस्वी-संयमी जनों की वृत्त्य तथा दीन दुखियों की समय समय पर की जाने वाली सहायता का उल्लेख पाया जाता हैं। इस ह यह कथा-साहित्य और पौराणिक चरितग्रन्थ ऐतिहासिक व्यक्तियों के पुरातन आख्यानों, व्रताचरणों थवा ऊँच-नीच व्यवहारों की एक कसौटी है । यद्यपि उनमें वस्तुस्थिति को आलंकारिक रूप से बहुत बढ़ा चढ़ाकर भी लिखा गया है; तो भी उनमें केवल कवि की कल्पना ही नहीं; कितनी ही ऐतिहासिक ख्यायिकायें ( सच्ची घटनायें ) भी मौजूद हैं जो समय समय पर वास्तविक रूप से घटित हुई हैं । अतः ऐतिहासिक तथ्यों को यों ही नहीं भुलाया जा सकता। जो ऐतिहासिक विद्वान इन कथाग्रन्थों और रों को कोरी गप्प या असत्य कल्पनाओं का गढ़ कहते हैं वे वस्तुस्थिति का मूल्य प्राँकने में असमर्थ ते हैं । अतः उनकी यह मान्यता समुचित नहीं कही जा सकती । प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रन्थ लिखे गये हैं । वसुदेव हिण्डी प्राकृत गद्य कथा - ग्रन्थ हैं । कुवलयला गद्य-पद्य कथा - ग्रन्थ हैं । समराइच्चकहा हरिभद्र की सुन्दर कृति है । कथारयरणकोष में अनेक थाएँ दी हुई हैं। इस तरह प्राकृत का कथा-साहित्य भी विपुल सामग्री को लिए हुए है, जिनमें अनेक कथाएँ 'किक हैं तथा लोकगीतों से निर्मित हुई हैं । अपभ्रंश भाषा में कथा - साहित्य कब शुरू हुआ, यह निश्चित नही हैं किन्तु विक्रम की ८वींवीं शताब्दी में रचे हुए अपभ्रंश कथा - साहित्य के उल्लेख जरूर उपलब्ध होते हैं, यद्यपि उस समय Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह का रचा हुमा कथा-साहित्य अभी उपलब्ध नहीं हुआ। महाकवि चउमुह (चतुर्मुख) और स्वयंभू की रची हुई पंचमी-कथाएँ थीं अवश्य और अन्य कथाग्रन्थ भी रचे गए होंगे। परन्तु वे अप्राप्य हो रहे हैं। अपभ्रंश में दो तरह की कथाएँ उपलब्ध होती हैं-बड़ी और छोटी; पर वे सब पद्य में हैं, गद्य में कोई कथा मेरे देखने में नहीं आई। वे उसमें न रची गई हों, ऐसा तो ज्ञात नहीं होता किन्तु वे रचनाएँ विरल होने से संभवतः विनष्ट हो गई हैं। प्रस्तुत प्रशस्तिसंग्रह में ४० के लगभग अपभ्रंश कथाग्रन्थों की प्रशस्तियां दी गई हैं। उनमें कई कथाग्रन्थों के कर्ता अभी अज्ञात हैं। शास्त्रभण्डारों में अन्वेषण करने पर इस तरह की अन्य कवियों द्वारा रचित कथाएँ और भी मिलेंगी, ऐसी संभावना है। क्योंकि अभीतक समस्त जैन ग्रन्थालय देखे नहीं गए हैं। उनके देखे जाने पर अपभ्रश के कथा-साहित्य पर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा। अपभ्रश की अनेक कथाओं के आधार पर संस्कृत में और हिन्दी में रचा हुआ विपुल कथा-साहित्य उपलब्ध होता है। दोहा साहित्य या मुक्तककाव्य जैसे संस्कृत साहित्य में ही 'अनुष्टुप् छंद' प्रसिद्ध रहा है वैसे ही अपभ्रंश में दोहा छंद है। इस छंद को अपभ्रश की देन कहा जा सकता है। दोहा छंद का लक्षगा प्राकृत पिङ्गल में इस प्रकार है तेरह मत्ता पढम पन पुणु एयारह देह । पुणु तेरह एपारहई दोहा-लक्खणु एह ॥७८।। जिसके प्रथम चरण में तेरह मात्रा, फिर दूसरे चरण में ग्यारह मात्रा, अनन्तर ३-४ चरणों में क्रमशः तेरह मात्रा और ग्यारह मात्रा हों वह दोहा छंद कहलाता है । जब इसी छंद को लय में गाया जाता है, तब चरणों की अंतिम मात्रा पर जोर दिया जाता है, इस अपेक्षा से हेमचन्द्राचार्य ने दोहे में चौदह और बारह मात्राओं का भी उल्लेख किया है सो ठीक है । दोहे को दोधक-दोहक भी कहते हैं । क्वचित् दोहे का नाम 'दुविहा' भी पाया जाता है । 'दुविहा' का संस्कृत रूपांतर 'द्विधा है' । दोहा छंद की प्रत्येक पंक्ति दो भागों में (१३-११ मात्रा रूप में) विभक्त होने से यह छंद मात्रिक अर्धसम जाति का है और इसके लिए 'दुविहा यह रूढ़ अन्वर्थ संज्ञा है । दोहा छंद सरल होने के साथ-साथ व्याकरण के नियमों से भी कम बंधा है, यही कारण है कि दोहा-साहित्य का अपभ्रंश में बाहुल्य है । हेमचंद्र आदि लक्षण-शास्त्रियों ने जो अपने व्याकरण ग्रंथों में अपभ्रंश के उदाहरणों के लिए प्रायः दोहा उद्धत किये हैं यह भी बाहुल्य का परिचायक है । आगे चलकर इस दोहा छंद को उत्तर भारत की प्रायः सभी भाषाओं में अपनाया गया है। दोहा छंद के माध्यम से गुजराती, व्रज, राजस्थानी भाषाओं में ढाल-रासो आदि की रचना खूब ई और होती रहती है। राजस्थानी में लौकिक गीत, ख्यालों के बोल, नोटंकी चोबोलों के बोल, कहावतें और चारणों का साहित्य प्रायः इसी भाषा छंद में कुछ मात्राएँ जोड़कर प्रचुर मात्रा में पाया जाता और सुना जाता है इससे यह छंद सर्वाधिक लोकप्रिय और सरल रहा है। मुक्तक काव्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश के सुलोचनाचरिउ, वाहबलिचरिउ, संदेशरासक, कीतिलता आदि खंडकाव्यों में यशःकीर्ति भट्टारक के पाण्डवपुराण और अन्यान्य पबन्ध काव्यों में भी दोहा छंद का प्रयोग प्रचुरता से उपलब्ध है। हिन्दी भाषा देखो विरहांक का वृत्त जाति समुच्चय 'दो पाया भण्णइ दुविहउ' । -H. D. वेलणकर ने 'विरहांक' का समय ईसा की ६ वीं शताब्दी बतलाया है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ प्रस्तावना के प्रसिद्ध कविगण तुलसी, कबीर, रहीम, बनारसीदास, भूधरदास, भगवतीदास, बुधजन, वृन्द, महाचन्द्र, बिहारी आदि ने दोहा छंद में अनेक भावपूर्ण रचनाएँ और सुभाषित प्रस्तुत किए हैं। ___हमें कालिदास के विक्रमोर्वशीय नाटक में, जिसका काल विक्रम की ५ वीं शताब्दी कहा जाता है अपभ्रंश भाषा के अनेक दोहे उपलब्ध मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि दोहा साहित्य उस समय रचा जाने लगा था' बौद्ध सिद्ध सरहप्पा और कण्हपा आदि के दोहाकोश में जिसका रचना काल ईसा की १० वीं शती से पूर्व है अनेक दोहे गम्भीर अर्थ के प्रतिपादक हैं। दोहाकोश के दोहों की रचना कितनी उत्तम हुई है यह देखिए जाव रण आप जाणिज्जइ ताव ण सिस्स करेइ । अंधा अंधकडाव तिम विणि वि कूव पडेइ ॥ -इसमें बतलाया है कि 'जब तक आप अपने को नहीं जानते तबतक शिष्य मत बनाइये', यदि अंधो दूसरे अंधे को निकालने का प्रयत्न करे तो दोनों ही कुंये में पड़ेंगे। जहि मण पवरण ण संचरइ रवि ससि रणाहि पवेस । तहिं बढ़, चित्त विसामकरु सरहें कहिउ उवएस ॥४॥ सरह उपदेश करते हैं कि-'जहाँ पर मन और पवन भी संचार नहीं करते, रवि और शशि का भी प्रवेश नहीं है, हे मूढ़ चित्त, तू वहीं पर विश्राम कर । दोहों में दो प्रकार की रचनाएँ उपलब्ध होती हैं-एक भावात्मक शृंगार, वीर और करुण आदि रसों से प्राप्लावित मुक्तक पद्य और दूसरा संतों की आध्यात्मिक वागी रूप मुक्तक पद्य । प्रथम प्रकार के दोहा हेमचन्द्र के व्याकरण आदि में उपलब्ध हैं, शृंगार विरह आदि के दोहा जहाँ रागोत्पादक हैं वहाँ नैतिक पतन में भी निमित्त हैं । यहाँ यह जानना जरूरी है कि जैनेतर कवियों का लक्ष्य जहाँ रागोत्पादक रहा है, वहाँ जैन कवियों का उद्देश्य नैतिकता को प्रोत्साहन देने के साथ मानव जीवन को उन्नत बनाने का रहा है अतः दूसरे प्रकार के दोहा मुक्तक काव्यों के रूप में जोइन्दु के परमात्मप्रकाश और योगसार ग्रंथ, रामसिंह का दोहापाहड़, सुप्रभाचार्य का वैराग्यसार, लक्ष्मीचंद्र का दोहानुप्रेक्षा और सावयधम्मदोहा, जल्हिग, धांगा, महाचन्द्र, शालिभद्र का दूहामातृका,पद्मसिंह मुनि की ७१ दोहात्मक रचनाएँ अध्यात्मरस से परिपूर्ण हैं । 'जोइन्दु' ने परमात्म-प्रकाश ग्रंथ के दोहों में अत्यन्त सरस अध्यात्म रस की पावन सरिता के प्रवाह को प्रवाहित किया है, इसी तरह रामसिंह ने दोहापाहुड में और लक्ष्मीचन्द्र आदि आध्यात्मिक जैन सन्तों ने अध्यात्म रस की धारा को वहाया है। रूपक-काव्य कुमारपाल-प्रतिबोध अपभ्रंश भाषा में भी संस्कृत भाषा के समान रूपक-काव्यों की परम्परा पाई जाती है। परन्तु अपभ्रंश भाषा में तेरहवीं शताब्दी से पूर्व की कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई। सोमप्रभाचार्य का १. मई जाणियाँ मिप्रलोमणी णिसिमरु कोइ हरेइ । जाव णु णव तडि सामलो धाराहरु वरिसेइ ॥ ('जब तक नई बिजली से युक्त श्यामल मेघ बरसने लगा, तब तक मैंने यही समझा था कि मेरी मगलोचनी प्रिया को शायद कोई निशाचर हरण किये जा रहा है।") Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह 'कुमारपाल-प्रतिबोध' प्राकृत-प्रधान रचना है और जिसका रचनाकाल संवत् १२४१ है। परन्तु उसमें कुछ अंश अपभ्रंश भाषा के भी उपलब्ध होते हैं। उसका एक अंश 'जीव मनःकरण संलाप कथा' नाम का भी है। जो उक्त ग्रंथ में पृ० ४२२ से ४३७ तक पाया जाता है। यह एक धार्मिक कथा-बद्ध रूपक खण्ड-काव्य है। इसमें जीव, मन और इन्द्रियों के संलाप की कथा दी गई है। इतना ही नहीं इसमें एक रूपक के अन्तर्गत दसरे रूपक को भी जोड़ दिया गया है। ऐसा होने पर भी उक्त अंश की रोचकता में कोई अन्तर नहीं पड़ा । इस रूपक-काव्य में मन और इन्द्रियों के वार्तालाप में जगह-जगह कुछ सुभाषित भी दिए हुए है, जिनसे उक्त काव्य-ग्रंथ की सरसता और भी अधिक बढ़ गई है। जं पुणु तुहु जंपेसि जड़ तं असरिसु पडिहाइ। मरण निल्लक्खरण कि सहइ, नेवरु उट्टह पाइ ।। अर्थात् हे मूर्ख ! तुम तो कहते हो कि वह तुम्हारे योग्य नहीं प्रतीत होता, हे निर्लक्षण मन । क्या ऊँट के पैर में नुपूर शोभा देते हैं। काया नगरी में लावण्य रूप लक्ष्मी का निवास है । उस नगरी के चारों ओर आयुकर्म का भारी प्राकार है, उसमें सुख-दुःख क्षुधा-तृषा हर्ष-शोकादि रूप अनेक प्रकार की नदियाँ एवं मार्ग हैं । उस काया नगरी में जीवात्मा नामक राजा अपनी बुद्धि नाम की पत्नी के साथ राज्य करता है। उसका प्रधान मंत्री मन है और स्पर्शनादि पाँचों इंन्द्रियां प्रधान राजपुरुष हैं। एक दिन सभा में परस्पर उनमें विवाद उत्पन्न हो गया, तब मन ने जीवों के दुःखों का मूल कारण अज्ञान को बतलाया; किन्तु राजा ने उसी मन को दुःखों का मूल कारण बतलाते हुए उसकी तीव्र भर्त्सना की। विवाद बढ़ता ही चला गया। उन पांचों प्रधान राज पुरुषों की निरंकुशता और अहं मन्यता की भो आलोचना हुई। प्रधान मंत्री मन ने इन्द्रियों को दोषी बतलाते हुए कहा कि जब एक-एक इन्द्रिय की निरंकुशता से व्यक्ति का विनाश हो जाता हैं तब जिसकी पाँचों ही इन्द्रियाँ निरंकुश हों, फिर उसकी क्षेम-कुशल कैसे हो सकती है। जिन्हें जन्म कुलादि का विचार किये बिना ही भृत्य वना लिया जाता है तो वे दुःख ही देते हैं। उनके कुलादि का विचार होने पर इन्द्रियों ने कहा-हे प्रभु ! चित्त-वृत्ति नामकी अटवी में महामोह नामका एक राजा है, उसकी महामूढ़ा नामक पत्नी के दो पुत्र है, उनमें एक का नाम रागकेशरी है, जो राजस-चित्तपुर का स्वामी है और दूसरा द्वेष-गजेंद्र नामका है, जो तामस-चित्तपुर का अधिपति है, उसका मिथ्यादर्शन नामका प्रधान मंत्री है, क्रोध लोभ, मत्सर, काम मद आदि उसके सुभट हैं। एक बार उसके प्रधान मंत्री मिथ्यादर्शन ने आकर कहा कि हे राजन् ! बड़ा आश्चर्य है कि आपके प्रजाजनों को चारित्र-धर्म नामक राजा का सन्तोष नामक चर, विवेकगिरि पर स्थित जैनपुर में ले जाता है । तब मोह राजा ने सहायता के लिए इन्द्रियों को नियुक्त किया । इस तरह कवि ने एक रूपक के अन्तर्गत दूसरे रूपक का कथन जोड़ते हुए उसे और भी अधिक सरस बनाने की चेष्टा की है। ___ इस प्रकार मन द्वारा इन्द्रियों को दोषी बतलाने पर इन्द्रियों ने भी अपने दोष का परिहार करते हुए मन को दोषी बतलाया और कहा कि जीव में जो राग द्वेष प्रकट होते हैं वह सब मोह का ही माहात्म्य १. इय विषय पल्लको, इहु एक्केक्कुंइंदिउ जगहइ जगु सयलु । जसु पंचवि एयई कयबहुखेयई, खिल्लहि पहु तसु कउ कुसलु ।। २६।। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २९ है। क्योंकि मन के निरोध करने पर हमारा (इन्द्रियों का) व्यापार रुक जाता है। इस तरह ग्रंथ में क्रम से कभी इन्द्रियों को, कभी कर्मों को और कभी कामवासना को दुःख का कारण बतलाया गया है। जब वाद-विवाद बढ़ कर अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया, तब आत्मा अपनी स्वानुभूति से उन्हें शान्त रहने का आदेश देता है अन्त में मानव जीवन की दुर्लभता का प्रतिपादन करते हुए तथा जीव दया और व्रतों के अनुष्ठान का उपदेश देते हुए कथानक समाप्त किया गया है। मयणपराजय 'मयण-पराजय' अपभ्रंश भाषा का एक छोटा सा रूपक काव्य है, जो दो संधियों में समाप्त हुआ है। इसके कर्ता कवि हरदेव हैं। हरदेव ने अपने को चंगदेव का तृतीय पुत्र, और अपने दो ज्येष्ठ भाइयों के नाम किंकर और कण्ह (कृष्ण) बतलाये हैं। इसके अतिरिक्त अन्य में कवि ने अपना कोई परिचय नहीं दिया है । ग्रन्थ में पद्धडिया छन्द के अतिरिक्त रड्ढा छन्द का भी प्रयोग किया गया है, जो इस ग्रन्थ की अपनी विशेषता है। इसमें कामदेव राजा, अपने मोह मंत्री, अहंकार और प्रज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भवनगर में राज्य करता है। चारित्रपुर के राजा जिनरान उसके शत्रु हैं; क्योंकि वे मुक्ति रूपो कन्या से अपना पाणिग्रहण करना चाहते हैं। कामदेव ने राग-द्वेप नामके दूतों द्वारा जिनराज के पास यह सन्देशा भेजा कि आप या ता मुक्ति कन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ द और अपने दर्शन-ज्ञान चारित्र रूप सुभटों को मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाय । जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अन्त में कामदेव को पराजित कर अपना मनोरथ पूर्ण किया। ग्रंथ की दूसरी सन्धि का ७ वां कडवक द्रष्टव्य है जिसमें कामदेव से युद्ध करने वाले सुभटों के वचन अंकित हैं। वज्जघाउ को सिरिण पडिच्छइ, असिधारापहेण को गच्छइ । को जमकरणु जंतु यासंघइ, को भुवदंडइ सायरु लंघइ। को जममहिससिंग उप्पाडइ, विप्फुरंतु को दिणमरिग तोडइ । को पंचाणणु सुत्तउ खवलइ, कालकुट टु को कवलहि कवलइ । पासीविसमुहि को करु छोहइ, धगधगंत को हुववहि सोवइ । लोहपिडु को तत्तु धवक्कइ, को जिणसंमुहु संगरि थक्कुइ । रिणय घरमज्झि करहि बहुधिट्टिम, महिलहं अग्गइ तोरी वढिम । ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, किन्तु आमेर भंडार की यह प्रति वि० सं० १५७६ की लिखी हुई है, जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ उससे पूर्व की रचना है, कितने पूर्व की यह अभी विचारणीय है। पर भाषा साहित्यादि की दृष्टि से प्रस्तुत रचना १४ वीं-१५ वीं शताब्दी की जान पड़ती हैं। तीसरी कृति 'मनकरहा रास' है, जिसके कर्ता कवि पाहल हैं। रचना सुन्दर और शिक्षाप्रद है, इसमें ८ कडवक दिये हुए हैं, जिन में पांचों इन्द्रियों की निरंकुशता से होने वाले दुर्गति के दुःखों का उद्भावन करते हुए मन और इन्द्रियों को वश में करने और तपश्चरण-द्वारा कर्मों की क्षपणा करने का सुन्दर उपदेश दिया गया है । ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। यह रचना भी सं० १५७६ के गुटके परसे संगृ१. जं तसु फुरेइ रागो दोसो वा तं मणस्स माहप्पं । विरमइ मणम्मि रुद्ध जम्हा अम्हाण वावारो॥४७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह हीत की गई है जिससे स्पष्ट है कि ग्रंथ इससे पूर्व रचा गया होगा' । इसकी भाषा देखने से प्रतीत होता है कि इसका निर्माण वि० की १४-१५ वीं शताब्दी में हुआ होगा। चौथी कृति 'मदन-जुद्ध' है। जिसके कर्ता कवि बूचिराज या 'बल्ह' हैं। ग्रन्थ में इक्ष्वाकुकुलमंडन नाभिपुत्र ऋषभदेव के गुणों का कीर्तन करते हुए, उन्होंने कामदेव को कैसे जीता, इसका विस्तार से कथन किया गया है। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल वि० सं० १५८९ आश्विन शुक्ला एकम शनिवार दिया हुआ है। संस्कृत और अपभ्रंश के रूपक-काव्यों के समान हिन्दी भाषा में भी अनेक रूपक-काव्य लिखे गये हैं। जिनमें से एक का परिचय अनेकान्त में दिया गया है। और शेष का परिचय अभी अप्रकाशित है। जैसे पंचेन्द्रिय सम्वाद' सूवा बत्तीसी आदि । रासा साहित्य रासक स्वर-ताल नृत्य और लय के साथ गाई जाने वाली एक कला है । रास वह है जिसमें संगीत की रसानुभूति हो, अथवा जिसकी मधुर सुरीली तान और गंभीर नृत्य कला दर्शक के मन को आनन्दविभोर कर दें। इस कला में गान और नृत्यकला को ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्राचीन काल में स्त्रियां लास्यनृत्य' करती थीं, पर उसमें देश-भेद के कारण विविधता दृष्टिगोचर होती थी। उससे जनता का मनोरंजन और उसके प्रति आकर्षण भी होता था। यह संगीत कला का ही एक भेद ज्ञात होता है। रास-परम्परा का पुरातन उल्लेख भरत के नाट्य शास्त्र में पाया जाता है। अतः इसे केवल अपभ्रंश युग की देन कहना उचित नहीं है जब अपभ्रंश में साहित्यिक रचनाएं नहीं होती थीं तब भी नृत्य और गान के रूप में रास प्रचलित थे। भरत ने नाट्यशास्त्र में रासक को एक उपरूपक माना है और उसके तालरासक, दण्डरासक और मण्डलरासक ये तीन भेद बतलाये हैं। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी काव्यानुशासन में रासक को गेय काव्य माना है। हेमचन्द्र ने 'अनेकार्थ-संग्रहकोष में रास का अर्थ-'क्रीडासु गोदुहाम् भाषा शृङ्खलि के' दिया है । जिसका अर्थ 'ग्वालों को क्रीड़ा' तथा भाषा में शृङ्खलाबद्ध रचना होता है। १. देखो, हिन्दी जन साहित्य का इतिहास, अप्रकाशित रचना। २. राइ विक्रम तणों संवत् नव्वासीय पनरहसइ सरद रुति पासु बखाणु । तिथि पडिवा सुकल पख, सनीचरवार करणक्खत्त जाणु ॥ मदनजुझ प्रशस्ति ३. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास (अप्रकाशित) और रूपक-काव्य-परम्परा अनेकान्त वर्ष १४ ४. (क) 'तालरासकनाम स्यात् तत् त्रिधा रासकं स्मृतम् । ......दंडरासकं तु तथा मंडलरासकम् ॥ (ख) अभिनवगुप्त ने 'अभिनव भारती' में रासक को गेयरूपक का एक भेदमाना है। गेयरूपक में ताल और ___ लयका विशेष स्थान होता है और इसमें अधिक से अधिक ६४ युगल भाग ले सकते हैं। अनेकनर्तकी योज्यं चित्रताललयान्चितम् । माचतुः षष्टि युगलाद्रासकं मसृणोद्धतम् ।। ५. (क) गेयंडोम्बिकाभाणप्रस्थानशिड्गभाणिकाप्रेरणरामाक्रीडहल्लीसकरासकगोष्ठी श्रीगदितरागकाव्यादि । काव्यानुशा०८-४.१० ३२७ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३१ हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने नाट्यदर्पण में रासक का लक्षरण हेमचन्द्र के लक्षणसे भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है किन्तु उसके नृत्यगीत वाले पहलू को पूर्ण से रूप माना है' । वाग्भट्ट ने भी हेमचन्द्र का अनुसरण करते हुए उसे गेय रूप में स्वीकार किया है । हां विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण में रासक के लक्षण पर विचार करते हुए पात्र, वृत्ति आदि की पूर्ण रूप में व्याख्या करने का प्रयत्न किया है । महाकवि स्वयंभू ने अपने छन्द ग्रन्थ में 'रास' का लक्षण बतलाते हुए उसे जन-मन अभिराम बतलाया है, । घत्ता, छड्डरिगया, पद्धडिया तथा ऐसे ही अन्य सुन्दर छन्दों से युक्त रासाबन्ध काव्य जन-मनभिराम होता है । इसके बाद ही कवि ने २१ मात्रावाले रासा छन्द का लक्षण भी दिया है । स्वयंभू के इस छन्दलक्षरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उस काल में रासाबन्ध छन्द प्रचलित था । उस रासक या रासा छन्द के लक्षण पर विचार करने से अब्दुलरहमान का 'सन्देश रासक, अपभ्रंश भाषा का सुन्दर काव्य-ग्रन्थ कहा जा सकता है" । अन्य अनेक रास यद्यपि इस कोटि के नहीं हैं परन्तु वे जीवन परिचयात्मक रास भी अपनी महत्ता कम नहीं रखते । afa शारङ्गधर के द्वारा संगीत में दी हुई रास-सम्बन्धी कथा भी इस के मूलरूप पर बहुत कुछ प्रकाश डालती है। इस कथा में बतलाया गया है कि शिव नेताण्डव नृत्य किया और पार्वती ने लास्यं नृत्य | पार्वती ने उसे वारणासुर की पुत्री उषा को सिखलाया, जो कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को विवाही गई थी । उषा ने द्वारावती की गोपियों को और गोपियों ने सौराष्ट्र देश की नव-युवतियों को सिखलाया, और वहां से वह समस्त भूमंडल में विस्तृत हुआ । व्रज की रासलौला तो लोकप्रसिद्ध है ही । यह प्राचीन परम्परा अपभ्रंश भाषा के विकास काल में उच्च स्तर पर थी। विक्रम की १० वीं से १३ वीं शताब्दी तक इसमें अनेक रास रचे गये हैं और बाद में राजस्थानी हिन्दी और गुजराती मिश्रित अनेक रास रचनाएं देखने में आती हैं। विक्रम की १५ वी शताब्दी में भ० सकल कीर्ति के लघुभ्राता एवं शिष्य अकेले ब्रह्म जिनदास के रचे हुए ४४ रासे मिलते हैं । १. षोडश द्वादशाष्टी वा यस्मिन् त्यन्ति नायिकाः । पिंडीबन्धादि विन्यासे रासकं तदुदाहृतम् ॥ पिंडनात् तु भवेत् पिंडी गुम्फनाच्छृखला भवेत् । भेदनाद् भेद्यको जातो लता जालापनोदतः ॥ कामिनीभिर्वो भर्तुश्चेष्टितं यन्तनृत्यते । रामाइ वसन्तमासाद्य स शेषो नाट्यरासकः || नाट्य दर्पण ओरियण्टन इन्स्ट्रीट्यूट बड़ौदा १९२६ भा० पृ० २१४ २. डोम्बिका भाणप्रस्थानभाणिकाप्रेरण शिङ्गंक रामाक्रीडहल्ली सकश्रीगदितरासक गोष्ठी प्रभृतीनि यानि । काव्यानुशासन २, पृ० १८ ३. साहित्यदर्पण पृ० १०४ - १०५ । ४. घत्ता छडरिग्राहि पद्धडिग्राहि सुग्रण्णरूहि । रासाबंधो कब्वे जण-मण- अहिरामन होइ ।। ८-४६ ५. एकवीसमत्ता णिहणउ उद्दाम गिरु, चडदसाइ विस्सामहो भगरण वि रइउ थिरु रासाबंधु समिद्धु एउ अहिराम अरू ।। ८-५० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पंच प्रशस्ति संग्रह रास परम्परा का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष, या देवी देवता की आराधना, और साधु या किसी सेठ की जीवन-गाथा को अंकित करने में, अथवा किसी विरहिणी नारी के सन्देश को उसके विरही पति तक पहुँचाने के लिए अथवा आत्म-सम्बोधन के लिए रासा साहित्य की सृष्टि की गई है। अपभ्रंश का प्राचीन 'चर्चरी' रास उपलब्ध रास-रचनाओं में उद्योतनसूरि का चर्चरी रास सबसे पुराना है। यह कुवलयमालाकहा के प्रारम्भ में निबद्ध है। इसकी रचना सम्राट् वत्सराज के समय जालौर (जाबालिपुर) के आदिनाथ के मन्दिर में बैठ कर शक संवत् ७०० (वि० सं० ८३५) में की गई थी। इसमें बतलाया गया है कि-मनुष्य सचेत होकर काम करे, अन्यथा मृत्यु के घेर लेने पर कुछ भी नहीं हो सकेगा। इस रास में चार ध्रुवकों की परिपाटी है, जिनमें एक ध्रुवक-जहाँ कामोन्मादक रस का जनक है वहाँ दूसरा विषय वासना से परान्मुख करने वाला है, तीसरा ध्रुवक अशुचि मल-मूत्रादि से संयुक्त घृणित अस्थिपंजर को दिखाकर ज्ञान और विवेक की ओर ले जाता है तो चौथा ध्रुवक वैराग्य की ओर आकृष्ट करता है। इस से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैन कवियों की रास-रचना का मूल उद्देश्य राग से हटाकर जनसाधारण को ज्ञान-वैराग्य की ओर आकर्षित कर हित के मार्ग में संलग्न करना रहा है। उद्योतनसूरि की इस कृति में अनेक रसों का संमिश्रण है। इसमें भगवान् महावीर के गणधर सुधर्म स्वामी की एक जीवन घटना को अंकित किया गया है-'वे एक दिन अकेले ही एक ऐसे वन में गए जहाँ ५०० भयंकर डाकुओं का समूह रहता था। वहां उन्होंने 'चर्चरीरास' युक्त, एक गान गाया और ऐसा नृत्य किया कि डाकू दल ने सदा के लिए डाकेजनी छोड़कर आत्म-बोध प्राप्त किया। इससे इस रास की महत्ता ज्ञात होती है। उपमिति भव-प्रपंचा कथा के अन्तर्गत 'रिपुदारणरास' नाम का एक रास है। जिसकी रचना कवि सिद्धर्षि ने वि० सं० ६६२ में की थी। यह कृति संस्कृत भाषा के ५ ध्रुवक पदों में रची गई है । उसका नाम सार्थक है और वह गान, नृत्य, लय आदि से समन्वित है। इसमें वृहद् देश के सार्वभौम राजा तपन द्वारा सिद्धार्थपुर के मिथ्यावादी और अहंकारी उद्दण्ड राजा रिपुदारण को तांत्रिक योगी से दण्ड दिलाने या उसे वश में कर उसके विनाश करने का उल्लेख किया गया है। रिपुदारण की १ देखो, कुवलयमाला कथा पृ० ४ २ संबुज्भह कि ण बुज्झह एत्तिए वि मा किंचि मुज्झह । कीरउ जं करियव्वयं पुण ढुक्कइ तं करियव्वयं ।। ___ कुवलयमाला पृ० ४ ३ .'जहा तेण केवलिणा अरणं पविसिऊण पंच-चोर-सयाई रास-णच्चणच्छलेण महामोहग्गहगहियाई प्रक्खिविऊण इमाए चच्चरीए संबोहियाई।' xxx एवं च जहा काम-णिवेप्रो तहा कोह-लोहमाण-मायादीणं कुतित्थयाणं च । समकालं चिय सव्व-भाव-वियाणएण गुरुणा सव्वष्णुणा तहा तहा गायंतेण ताई चोराणं पंच वि सयाई संभरिय-पूव-जम्म-बत्तंताइं पडिवण्ण-सम-लिंगाइं तहा कयं जहा संजमं पडिवण्णाई ति।। -कुवलयमाला पृ० ४-५ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उद्दण्डता का उल्लेख उक्त रास के–'यो हि गर्वमविवेक भरेण करिष्यते' वाक्य से ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त संस्कृत भाषा में अन्य कोई प्राचीन रास देखने में नहीं आया। रासक-रचनाओं में कई रचनाएँ उपदेशक भावना के साथ सम्बोधक भावना से प्रोत-प्रोत हैं। इन रास-रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुरातन काल में जो रास या रासक रचनाएँ रची जाती थीं, वे सारगर्भित होती थीं। किन्तु बाद में ज्यों-ज्यों उनका विस्तार होता गया त्यों-त्यों उन रचनाओं की सारपरकता भी कम होती गई। रास या रासक रचनाएँ जैन सम्प्रदाय के अतिरिक्त हिन्दू सम्प्रदाय में भी पाई जाती हैं। परन्तु जैनियों में इसका रिवाज बहुत पुराना है। वीर कवि के विक्रम संवत् १०७६ में रचित 'जम्बूसामिचरिउ' नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि उनके पिता कविवर देवदत्त ने अपभ्रंश भाषा में 'अम्बादेवी चर्चरी रास' नामक ग्रन्थ बनाया था। जिसका रचनाकाल संवत् १०५० के लगभग है। यह रास ताल, स्वर, लय और नृत्य के साथ गाया जाता था। यह रचना अभी अनुपलब्ध है। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रासो की रचनाएँ अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी और गुजराती भाषाओं में चारसौ-पांचसौ होंगी, उनमें दिगम्बर रासा-ग्रन्थों की संख्या २०० के लगभग है। दिगम्बर सम्प्रदाय का रासा साहित्य अभी अप्रकाशित है। उसके प्रकाश में आने पर अनेक ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ सकेगा। जनेतर कवियों ने भी रास ग्रन्थ बनाये हैं। उनमें 'पृथ्वीराज रासो', 'वीसलदेव रासो', 'खुमान रासो' और 'सन्देश रासो' आदि के नाम प्रसिद्ध हैं । इनमें सबसे पुराना पृथ्वीराज रासो बतलाया जाता है, परन्तु उसका वर्तमानरूप बहुत-कुछ अस्त-व्यस्त है, तो भी वह अपभ्रंश भाषा के बहुत नज़दीक है। हां, उसकी कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ जरूर खटकने वाली हैं। उनका उपलब्ध इतिहास के साथ ठीक मेल नहीं बैठता । अतः वह आज भी चर्चा का विषय बना हुआ है । मुसलमान कवि 'अब्दुलरहमान' का सन्देश रासक उल्लेखनीय है। यह रचना सिंघी सीरीज वम्बई से प्रकाशित हो चुकी है। हिन्दी ग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बई से डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी और त्रिपाठी के सम्पादन में इसका हिन्दी अनुवाद सहित एक नया संस्करण अभी प्रकाशित हुआ है । उसमें उसकी कई ज्ञातव्य वातों पर प्रकाश डाला गया है। रासक रचनामों के प्रकार रास या रासो रचनाएँ तीन प्रकार की दृष्टिगोचर होती हैं। पहली राग परक अर्थात् शृङ्गार तथा विरहसूचक, दूसरी अध्यात्मरस से युक्त या उपदेशपरक और तीसरी जीवन-चरित सम्बन्धी। इनमें अब्दुलरहमान की कृति संदेश रास प्रथम प्रकार की रचना है। इसमें एक विरहिणी नायिका का विरह-सूचकसन्देश विरही पति के पास पहुंचाने का वर्णन किया गया है । जैसा कि उस ग्रन्थ के निम्न दोहों से स्पष्ट है। जसु पवसंत रण पवसिया मुइअ विग्रोह ण जासु । लज्जिज्जइ संदेशडउ, दिती पहिय पियासु ॥३७॥ हे पथिक ! जिसके प्रवास करते हुए प्रवास नहीं किया और न जिसके वियोग से मरी ही, उस प्रिय को सन्देश देती हुई लज्जित हो रही हूं। १. देखो, उपमितिभवप्रपंच कथा प्रस्ताव ४ श्लोक ४३७ से ४४२ । २. चच्चरि बंधि विरइउ सरस गाइज्जइ संतिउ तारजस । णच्चिज्जइ जिण पय सेवहि, किउ रास उ अंबादेवयहिं ॥ -जम्बूस्वामिचरित १-४ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह आगे नायिका उस पथिक से कहती है कि-'सन्देश बहुत विस्तृत है परन्तु मुझ नहींकहा से जाता। जो कनगुरिया की मुंदरी (अंगूठी) थी वह बांह में समा जाती है'। इससे उसके विरह-सम्बन्धी परितापका अन्दाज लगाया जा सकता है। ___ दूसरी रचनाएँ अध्यात्मरस संयुक्त हैं, जिनमें राग से विराग उत्पन्न करने का प्रयत्न किया जाता है। उनमें आत्म-सम्बोधजनक उपदेश की प्रधानता है। जैसा कि कुवलयमाला के उक्त 'चर्चरी रास' में अङ्कित है । देवभक्ति रूप रचनाएँ भी जहां देव में अनुरागवर्धक हैं वहा देह-भोगों से विराग की भी संसूचक हैं। इसी से उनकी गणना अलग नहीं की है। आध्यात्मिक रचनामों में कवि विनयचन्द्र का चूनडीरास, निर्भरपंचमीकहा रास तथा पण्डित योगदेव का 'सुव्रतानुप्रेक्षारास' और जल्हिगका अनुप्रेक्षा रास आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। कवि लक्ष्मीचन्द का दोहा अनुपेक्खारास भी महत्वपूर्ण कृति है, जो संवेगनिर्वेद भाव की संसूचक है। इन रचनाओं में संसार और शरीर के स्वरूप का निर्देश करते हए वैराग्य की अनुपम छटा को जागृत किया गया है, और कर्मास्रव तथा कर्मबन्ध से छुड़ाने का यत्न किया गया है। साथ ही वारह भावनाओं द्वारा वस्तुतत्त्व का विवेक कराते हा प्रात्मा को वैराग्य की ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया है। तीसरी प्रकार की रासक रवनाओं में किसी व्यक्ति विशेष राजा, देवी, देवता या सामान्य पुरुष का जीवन-परिचय अंकित किया हुआ मिलता है। ऐसे अनेक रास लिखे गये हैं, जैसे जंबूसामिरास, वाहुबलीरास, सुकमालमामिरास, पृथ्वीराज रासो और अम्बादेवीरास आदि। ये सब रास ग्रन्थ एक प्रकार के चरित रास हैं। एक व्यक्ति विशेष के जीवन की मुख्यता से लिखे गए हैं। परन्तु उनमें से जैन चरित रासो में जीवन-घटनाओं के परिचय के साथ सांसारिक देह-भोगों से विरक्ति दिखलाते हुए प्रात्म-साधना की ओर ले जाने का स्पष्ट प्रयास किया गया है। छन्द ग्रन्थ अपभ्रंश के प्रवन्ध काव्यों, मुक्तक-काव्यों और चरितात्मक, स्तुत्यात्मक तथा रास आदि ग्रन्थों में अनेक छन्दों का प्रयोग मिलता है। संस्कृत में वर्णवृत्तों का और अपभ्रंश में मात्रिक छन्दों का प्रयोग अधिक हुआ है। पर वहाँ वर्ण-वृत्तों का सर्वथा अभाव भी नहीं है। अपभ्रंश कवियों ने संस्कृत के उन्हीं छन्दों को ग्रहण किया है, जिसमें उन्हें विशेष प्रकार की गति मिली है और इसीसे उन्होंने संस्कृत वर्णवृत्तों में अपनी कुछ इच्छानुसार सुधार या परिवर्तन और परिवर्धन कर उन्हें गान तथा लय के अनुकूल बना लिया है। छन्दों में अन्त्यानुप्रास की परम्परा अपभ्रंश कवियों की देन है। इससे पद्य की ज्ञेयरूपता अधिक वृद्धि को प्राप्त हुई । अपभ्रंश के कवियों ने अन्त्यानुप्रासका प्रयोग प्रत्येक चरण के अन्त में तो किया ही है; किन्तु उसका प्रयोग कहीं-कहीं मध्य में भी हुआ है । तुकान्त या तुक का प्रयोग लय को उत्पन्न करना या उसे गति प्रदान करना है। अथवा ऐसी शब्द योजना का नाम ही तुक है। प्राकृत कवियों ने प्रायः मातृक-छन्दों का ही प्रयोग किया है उनमें तुक का प्रयोग नहीं पाया जाता। हिन्दी के तुलसीदास आदि कवियों की रचनाओं में चौपाई या दोहा छन्द ही आता है किन्तु अपभ्रंश कवियों की कड़वक शैली में सभी वर्ण और मात्रिक-छन्दों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इतना ही नहीं किन्तु संस्कृत के वर्ण वृत्तों से उन्होंने एक ही छन्द में नवीनता उत्पन्न कर अनेक नूतन छन्दों की सृष्टि भी की है। संस्कृत के १. संदेसडउ सवित्थरउ, पर मइ कहण न जाइ । जो कालंगुलि मूंदडउ, सो बाहडी समाइ ॥ संदेश रासक Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मालिनी छन्द में प्रत्येक पंक्ति में ८ और ७ अक्षरों के बाद यति के क्रम से १५ अक्षर होते हैं। उसे अपभ्रंश भाषा के कवि ने प्रत्येक पंक्ति को दो भागों में विभाजित कर यति के स्थान पर तथा पंक्ति की समाप्ति पर अन्त्यानुप्रास का प्रयोग कर छन्द को नवीन रूप में ढाल दिया है यथा "विविह रस विसाले, गेय कोऊ हाले। ललिय वयण माले, अत्थ संदोह साले। भुवरण-विदिद णामे, सव्व-दोसो वसामे । इह खलु कह कोसे, सुन्दरे दिण्रण तोसे ।।" खलयरण सिर मूलं सज्जणागणंद मूले । पसरइ अविगेलं मागहाणं सुरोल । सिरि गविय जिरिंगदो, देह वायं वगिदो। वसु हय जुड़ जुत्तो, मालिणी छंदु वुत्तो।। सुदं०३-४ । दो छन्दों को मिलाकर अनेक नये छन्द भी बनाये गए हैं, जैसे छप्पय कुंडलिया, चान्द्रायन और वस्तु आदि । अपभ्रंश भाषा के काव्यों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं पज्झटिका, पादाकुलिक, अलिल्लाह, रड्ढा, प्लवंगम, भुजंग प्रयात, कामिनी, तोटक, दोधक, सग्गिणी, पत्ता, दोहा, मन्दाक्रान्ता, मालिनी, वंसस्थ, प्रारणाल, तोमर, दवई, मदनावतार, चन्द्रलेखा. कुवलयमालिनी, मोत्तियदाम, उपजाइ विलासिनी, शालिभंजिका, इन्द्रवज्रा, वसन्ततिलका, प्रियंवद, अनंतकोकिला, रथोद्धता, मंदारदाम, श्रावली, नागकन्या, पृथिवी, विद्युन्माला, अशोकमालिनी और निसेणी आदि। इससे यह सहज ही ज्ञात होता है कि अपभ्रंश कवि छन्दों की विशेषताओं से परिचित थे, इसी से वे अपने ग्रन्थों में विविध छन्दों का प्रयोग कर सके। कवि नयनन्दी ने अपने 'सकल विधि-विधान काव्य' में ६२ मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया है। इससे प्रमाणित होता है कि नयनन्दी छन्द-शास्त्र के महान वेत्ता थे। कवि श्रीचन्द ने 'रयणकरण्ड सावयायार' की १२वीं संधि के तीसरे कडवक में कुछ अपभ्रंश छन्दों का नामोल्लेख किया है। गिरयाल, प्रावली, चर्चरीरास, रासक, ध्रुवक, खंडय, उपखंडय, पत्ता, वरतु, अवस्तु, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, हेला, गाहा, उपगाहा, आदि छन्दों के नाम दिये हैं। इसी तरह कवि लक्ष्मण ने अपने 'जिनदत्तचरिउ' की चार संधियों में वर्णवृत्त और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है उनके नाम निम्न प्रकार हैं विलासिणी, मदनावतार, चित्तगया, मोत्तियदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, प्रारणाल, वस्तु, खंडय, जंभेटिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमाणिया, पोमिणी, चच्चर, पंचचामर, णराच, निभंगिरिणया, रमणीलता, चित्तिया, भमरपय, मोणय, अमरपुर, सुन्दरी और लहुमत्तिय अादि । अपभ्रंश में अनेक छन्द ग्रंथ भी लिखे गये होंगे। परन्तु वे अाज उपलब्ध नहीं हैं । केवल स्वयंभू का छन्द ग्रंथ प्राप्त है वह अपभ्रंश की महत्वपूर्ण देन है । परन्तु वह जनरलों में प्रकाशित होने के कारण लोगों के पठन-पाठन में बहुत कम आ सका है, अतएव बहुत से लोग उसकी महत्ता से अनभिज्ञ ही हैं। इस ग्रंथ की १. छंदणिरयाल प्रावलियहि, चच्चरि रासय रासहि ललियहि । वत्थु अवत्यू जाइ विसेसहि, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहिं । दोहय उवदोहय अवभंसहि, दुवई हेला गाहु व गाहहिं । धुवय खंड उवखंडय घत्तहिं, सम-विसमड समेहि विचिहि ।। रयणकरंडसावयायार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह एक अपूर्ण प्रति रामनगर में सं० १५२७ की लिखी हुई प्रो० एच० डी. वेलंकर महोदय को प्राप्त हुई थी और उन्होंने उसे सम्पादित कर प्रकाशित कराया' । इस छन्द ग्रंथ के पहले तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्ण वृत्तों का और अन्त के ५ अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का कथन किया गया है । और छन्दों के अनेक उदाहरण भी पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं से तथास्वोपज्ञ ग्रन्थों से भी दिये गये हैं। इस ग्रंथ का प्रारम्भिक अंश नहीं है, और न परिचयात्मक अन्तिम प्रशस्ति ही है। हां, ग्रंथ के अंतिम अध्याय में गाहा, अडिल्ला, पद्धडिया आदि छन्दों के जिनदेव की स्तुतिपरक स्वोपज्ञ उद्धरण भी दिए हुए हैं। छन्द ग्रंथ के सातवें अध्याय का जो २७वां पद्य पत्ता छन्द के उदाहरण में दिया गया है वह 'पउमचरिउ' की पांचवीं संधि का पहला पद्य है । ६-४२ का 'वम्महतिलम' का जो उद्धरण है वह राम कथा की ६५वीं सन्धि का प्रथमपद्य है। इसी तरह ६-७४ में 'रणावली' का जो उदाहरण दिया है वह पउमचरिउ की ७७वीं संधि के १३वें कडवक का अन्तिम पद्य है। और छटे अध्याय का ७१वां पद्य पउमचरिउ की ७७वीं संधि का प्रारम्भिक पद्य है। इनसे स्पष्ट है कि कवि ने अपने ग्रंथ के भी उद्धरण दिए हैं । और अन्य कवियों के ग्रंथों पर से उद्धरण देकर कवि ने अपने छन्द नैपुण्य को सूचित किया है । ___ कविवर जयकीति ने छन्दोनुशासन में स्वयंभूदेव के मत का उल्लेख करते हुए नन्दिनी छन्द "तौ नौ तथा पद्मनिधिर्जतौ जरौ । स्वयम्भूदेवेश मते तु नन्दिनी।" वाक्य के साथ दिया है जिससे जयकीति के सामने स्वयंभू का छन्द ग्रंथ रहा है। जयकीर्ति कन्नड़ प्रान्त के निवासी दिगम्बर विद्वान् थे। इनका समय विक्रम की दशवीं शताब्दी या उससे पूर्व होना चाहिए; क्योंकि दशवीं शती के कवि असग ने इनका उल्लेख किया है। इनके छन्दोऽनुशासन की प्रति सं० ११९२ को लिखो हुई जैसलमेर के भंडार में मिली है। इस से यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि स्वयंभू का उक्त छन्द ग्रंथ ७वीं शताब्दी की रचना है। स्वयंभू १. देखो, रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे जनरल सन् १९३५ पृ० १८-५८ । और बोम्बे यूनिवर्सिटी जनरल जिल्द ५ नं० ३ नवम्बर १९३६ ।" २. "तुम्ह पन कमल मूले अम्हं जिण दुःख भावत विपाई। दुरु ढुरुल्लियाई जिणवर जं जाणसु तं करेज्जासु ॥३८ जिणणामें छिदे बि मोहजालु, उप्पज्जइ देवल समिसालु। जिण णामें कम्मइं णिहलेवि, मोक्खग्गे पइसिम सुह-लहेवि ॥"४४ ३. “अक्खइ गउतमसामि, तिहुप्रण लद्ध पसंसहो । सुण सेणिय उप्पत्ति, रक्खस-बाणर-वंसहो ।" ४. "हणुवंतरणे परिवेढिज्जई णिसियरेहि । णं गयणयले बाल दिवायरु जलहरेंहि ।। ५. "सुरवर डामरु रावणु दङ्घ जासु जग कंपइ। अण्णुकहिं महु चुक्कइ एवगाइ सिहिजंपइ ॥" ६. "भाइ विप्रोएं जिह जिह करइ बिहीसणु सोउ । तिह तिह दुक्खेण सहरि बाल वाणर लोउ ।। ७. इस ग्रंथ का विशेष परिचय जैन साहित्य और इतिहास में पृष्ठ २०५ से २०७ तक देखें । ८. संवत् ११९२ प्राषाढ़ सुदि १० शनौ लिखितम् । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३७ का यह छन्द ग्रंथ हिन्दी अनुवाद के साथ सम्पादित होकर प्रकट होना चाहिए, जिससे छन्द शास्त्र के रसिक जन लाभ उठा सकें। अपभ्रंश व्याकरण अपभ्रंश भाषा के जो व्याकरण दृष्टिगोचर हो रहे हैं वे अधिक प्राचीन नहीं हैं। प्राचीन समय में अपभ्रंश भाषा में व्याकरण अवश्य लिखे गए होंगे, किन्तु वे वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। स्वयंभूदेव के पउमचरिउ के ५ वें पद्य में यह बतलाया है कि-अपभ्रंश वाला मदोन्मत्त हाथी तब तक ही स्वच्छन्दता से विचरण करता है जब तक कि उस पर स्वयंभू-व्याकरणरूप अंकुश नहीं पड़ता' । त्रिभुवनस्वयंभू के इस उल्लेख से कि स्वयंभूदेव ने अपभ्रंश का व्याकरण भी बनाया था, परन्तु खेद है कि वह इस समय उपलब्ध नहीं होता । उसीके छठे पद्य में स्वयंभू को पंचानन (सिंह) की उपमा दी गई है। जिसकी सच्छन्दरूप विकट दाढ़ें, जो छन्द और अलंकाररूप नखों से दुष्प्रेक्ष्य है और व्याकरणरूप जिसकी केसर (अयाल) है। इससे भी उनके व्याकरण ग्रन्थ होने की सूचना मिलती है, साथ ही यह भी प्रमाणित होता है कि स्वयंभू ने छंद और अलंकार के ग्रन्थ भी बनाये थे। जिनमें छन्द ग्रन्थ तो उपलब्ध भी है । शेष नहीं। अपभ्रंश के प्रचलित व्याकरणों में हेमचन्द्र का व्याकरण सबसे अच्छा है। इस व्याकरण का अध्ययन करने से यह विदित है कि उसमें कई भाषाओं का मिश्रण है। प्राकृत और शौरसैनी इन दो भाषाओं का मिश्रण तो ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ही स्वीकार किया है जैसाकि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है:"प्रायो ग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्षते तस्यापि क्वचित् प्राकृत शौरसैनी वच्च कार्यं भवति ।" हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में अपभ्रंश के स्वपरिवर्तन में काफी स्वतंत्रता दी है किन्तु परमात्मप्रकाश के कर्ता जोइन्दु ने यह स्वतंत्रता नहीं दी है । व्यंजनों के परिवर्तन में (४-३६६ सूत्र में) असंयुक्त 'क-ख, त-थ, प-फ, के स्थान में क्रम से 'ग-घ, द-ध, ब-भ' होते हैं । किन्तु उसका निर्वाह उनके द्वारा उद्धृत उदाहरणों में नहीं हो सका है फिर भी यह व्याकरण अपनी विशेषता रखता ही है। नाटकों में अपभ्रंश का प्रयोग विक्रम की द्वितीय शताब्दी के विद्वान अश्वघोष के 'सारिपुत्र प्रकरण नाटक में 'मक्कट हो' रूप उल्लिखित मिलता है जो 'मर्कटस्य' का अपभ्रंश रूप माना जा सकता है । चतुर्थ शताब्दो के भास के 'पंचरात्र, नाटक में ग्वालों के संवाद में मागधी का प्रयोग होने से उसे भी मागधी अपभ्रंश कहा जा सकता है। जैसे षद्दमंडलु षुय्यो...शतमण्डलः सूर्यः । ____ डाक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी ने 'ओ' विभक्ति का अपभ्रंश की विभक्ति में परिवर्तित होने का समय ईसा की तृतीय शताब्दी अनुमानित किया है। १. तावच्चि सच्छंदो भमइ अवभंस-मच्च (त्त) मायंगो। जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुसो तच्छिरे पडइ ॥५॥ २. सच्छंद-वियउ-दाढो, छंदो (दा) लंकार-गहर-दुप्पिच्छो । वायरण-केसरऽड्ढो सयंभु-पंचाणणो जयउ ।६। ३. देखो, हेमचंद्र का प्राकृतव्याकरण ४१३२६ सूत्र । ४. इण्डो आर्यन एण्ड हिन्दी पृष्ठ ६E Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मुद्रा राक्षस के (लगभग चतुर्थ शताब्दी) दूसरे अंक में माथुर ने जिस बोली का प्रयोग किया वह मागधी होते हुए भी उकार बहुला होने के कारण मागधी अपभ्रंश कहा जा सकता है । यद्यपि टीकाकारों ने उसे 'टक्की' बतलाया है, किन्तु उसका शुद्ध रूप 'ठक्की' जान पड़ता है। कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक (ई० स० चतुर्थ शताब्दी) के चतर्थ अंक में सोलह पद्य अपभ्रंश भाषा के दिये हए हैं जिनमें के एक दो पद्य विभिन्न छन्दों के निम्न प्रकार है: मइँ जाणियई मिअलोग्रणी णिसिअरु कोइ हरेइ । जाव णु रणव तडि सामलो धाराहरु वरिसेइ । अर्थात् 'जब तक नई बिजली से युक्त श्यामलमेघ वरसने लगा, तब तक मैंने यही समझा था कि मेरी मृगलोचनी (प्रिया) को शायद कोई निशाचर हरण किये जा रहा है। ___'रे-रे हंसा कि गोविज्जइ, गइ अणुसारें मई लक्खिज्जइ । कई पई सिक्खिउ ए गइ-लालस, सापई दिठ्ठी जहण-मरालस ॥' अपभ्रंश के इन पद्यों से यह स्पष्ट जाना जाता है कि ईसा की चतुर्थ शताब्दी के समय अपभ्रंश में विभिन्न छन्दों में पद्य रचना होने लगी थी। यह बात और भी ध्यान में रखने लायक है कि प्राकृत भाषा में प्रायः तुकान्त छन्दों का प्रयोग नहीं मिलता, जबकि अपभ्रंश भाषा में इसकी बहुलता है, ध्वनि और पदगठन भी इसी ओर संकेत करते हैं। देशी भाषायें ही अपने शुद्ध अशुद्ध पदों के साथ अपभ्रंश में परिणित हुई हैं। उनका शुद्ध प्रतिष्ठित रूप प्राकृत कहलाता था और अपभृष्ट रूप अपभ्रंश । देशी भाषा के शब्दों का प्रयोग भी अपभ्रंश में मिल जाता है-वह विरूप नहीं जान पड़ता, इसीसे कविजनों ने देशी भाषा को अपभ्रंश बतलाया है । अपभ्रंश-साहित्य-सूची अंबदेव सूरि समरारास (रचना सं० १६७१) (मुद्रित) अब्दुल रहमान संदेश रासक (मुद्रित) अभयगरिण सुभद्राचरित (र० सं० १३६१) अभयदेवसूरि जयतिहुअणस्तोत्र (र० च० १११९) (मुद्रित) अमरकोतिगरणी नेमिनाथचरिउ (र०च० १२४४) षट्कर्मोपदेश (र०च० १२४७) पुरंदरविहाण कहा, महावीरचरिउ जसहरचरिउ, झारणपईव (अनुपलब्ध) प्रासवाल पासनाहचरिउ (र० च० १४७६) उद्योतनमूरि कुवलयमाला (वि० सं० ८३५) (मुद्रित) कण्हपा प्रादि चौरासी बौद्ध सिद्धों को दोहा कोष मादि रचनाएं प्रकाशित कनककोति नन्दीश्वर जयमाला कनकामर करकंडुचरिउ (मुद्रित) गुरगभद्र भट्टारक (वि० की १५वीं १६वीं शताब्दी) अरणंतवयकहा, सवणवारसिविहारणकहा, पक्खवइ कहा, णहपंचमी कहा, चंदायणकहा, चंदणट्ठी कहा, णरय उतारी दुद्धारसकहा, रिणदुहसप्तमी कहा, मउडसत्तमी कहा, पुप्फंजलिवय कहा, १. डा० कीयकृत संस्कृत ड्रामा पृ० ८६,१४१,१६६, पंजाब का वह प्रदेश 'ठक्क' ही कहलाता है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३९ चउमुंह (चतुर्मुख) जयदेव जल्हिग जिनदत्तसूरि जिनदत्तसूरि जिनपद्मसूरि जिनप्रभसूरि जिनप्रभसूरि जिनप्रभसूर जिनप्रभसूरि जिनभद्र जिनवरदेव तेजपाल त्रिभुवनस्वयंभू दामोदर दामोदर देवचन्द देवदत रयणत्तयविहाण कहा, दहलक्खरणवय कहा, लद्धविहाण कहा, सोलहकारण वयविहि, सुयंधदहमीकहा । (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित) हो रही है पउमचरिउ, रिट्टणेमिचरिउ, पंचमी कहा (अनुपलब्ध) भावनासंधि (र० सं० १६०६) अनुप्रेक्षारास उपदेस रसायन (सं० ११३२-१२१०) चर्चरी (रास) स्थूलभद्रफाग (सं० १२५७ के आस-पास) मुद्रित अनाथसंधि, अंतरंगरास, अंतरंगविवाह । आत्मसम्बोधनकुलक मोहराजविजय वज्रस्वामिचरिउ (सं० १३१६) सुभाषितकुलक बुद्धिरसायरण संभवनाथचरिउ, वरांगचरिउ (र० सं० १५०७), पार्श्वपुराण पउमचरिउ, रिट्ठणेमिचरिउ पंचमीकहा (विक्रम हवीं शताब्दी का अन्त) मिरणाहचरिउ (र० सं० १२८७) सिरिपालचरिउ, गेमिणाहचरिउ, चंदप्पहचरिउ पासरणाहचरिउ (लिपि० सं० १४६४) वरांगचरिउ, शान्तिनाथपुराण, अंबादेवीरास (अनुपलब्ध) रचनाकाल सं० १०५० के लगभग रोहिणीवयकथा उपदेशकुलिक सुलोयणाचरिउ गयसुकमालरास (सं० १३००) के लगभग भविसदत्तपंचमीकहा (वि० की १०वीं शताब्दी) बाहुबलीचरिउ (र० सं० १४५४) जंबूस्वामि रास (र० सं० १२६६) हरिवंस पुराण (संभवतः विक्रमी ११वीं शताब्दी पउमसिरिचरिउ (मुद्रित) सुदंसणचरिउ, सयलविहिविहाणकव्व (र० सं० ११०० के आस-पास) सिद्धचक्कविहि, जिणरत्तिविहाण कहा (लिपि० सं० १५१२ से पूर्ववर्ती) रविवउकहा, अनन्तवयकहा पासणाहचरिउ (वि० सं०ERE) महापुराण, (वि० सं० १०१६-१०२२) नागकुमारचरिउ, जसहरचरिउ मुद्रित देवनन्दि देवसूरि देवसेन देल्हड धनपाल धनपाल धर्मसूरि धवलकवि घाहिल नयनन्दी नरसेन नेमचन्द पचकोति पुष्पवंत Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पूर्णभद्रमुनि प्रज्ञातिलक बालचन्द्रमुनि बूचिराज (वल्ह) भगवतीदास महरसिंह महाचन्द महेश्वरसूरि माणिकचन्द यश-कोति यशःकोति योगीन्द्रदेव रइधू जनपथ प्रशस्ति संग्रह सुकमालचरिउ कलीरास (सं० १३६२) निरय-दुह-सत्तमीकहा मयणजुज्झ (वि० सं० १५८६) मृगांककलेखाचरिउ, (१७००), मउडसत्तमीकहा, सुयंध दसमी कहा। त्रिंशत् जिनचउवीसी शान्तिनाथपुराण (र० सं० १५८७) संयममंजरी अमरसेनचरिउ (सं० १५७७) णागकुमारचरिउ (सं० १५७६) चंदप्पहचरिउ (संभवतः १२वीं १३वीं शताब्दी) पाण्डवपुराण (र० सं० १४६७) हरिवंसपुराण (र० सं० १५००) जिनरत्तिविहारण कहा रविवउकहा (आदित्यवय कहा) परमप्पयासु, जोयसार पउमचरिउ (बलहद्दचरिउ) हरवंसपुराण, आदिपुराण, (अनुपलब्ध) पासपुराण, सम्मत्तगुणनिधान, मेहेसरचरिउ, जीवंधरचरिउ, जसहरचरिउ, पुण्णासवकहाकोस, धनकुमारचरिउ, सुकोसलचरिउ, सम्मइ जिनचरिउ, सिद्धचक्क वयविहि, वृत्तसार, सिद्धान्तार्थसार आत्मसम्बोहकव्व, अरणथमीकहा, सम्मत्तकउमदी, (करकंडुचरिउ, सुदंसरणचरिउ, अनुपलब्ध) दशलक्षण जयमाला, पोडसकारण जयमाला, सोहंथुदि, मुद्रित अनेकांत वर्ष १३ कि० ४) सम्यक्त्व भावना तेरापंथीमंदिर जयपुर गु० नं० २५७१) नेमिनाथफाग (सं० १३७१) दोहापाहुड़ (वि० १० वीं शताब्दी) अंतरंगसंधि (सं. १३६२) जिणदत्तचरिउ, (सं० १२७५) अणुवयरयणपईव (सं० १३१३) नेमिनाथचरिउ (प्रासाइयपुरी) दोहाणुप्रेक्षारास (अनेकान्त वर्ष १२ किरण ६ पृ० २०२) अजितनाथपुराण (१५०५) रेवंतगिरिरास (वि० सं० १२८८) मुद्रित कीतिलता मुद्रित चूनडीरास, निर्भरपंचमीकहारास कल्याणकरास लिपि० सं० १४४५ दुद्धारसकहा नेमिनाथचउपई (सं० १२५७) सोखवइविहारणकहा, सुयंधदसमी कहा जंबूस्वामीचरिउ (र० सं० १०७६) णाणसारकीपाथडी राजशेखरसूरि रामसेनमुनि रत्नप्रभसूरि लक्ष्मण (लाखू) लक्ष्मण लक्ष्मीचन्द विजयसिंह विजयसेनसूरि विद्यापति विनयचन्द विनयचन्द्रसूरि विमलकोति वीरकवि वीरकवि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विबुधश्रीधर शालिभद्रसूरि शालिभद्रसूरि शुभकोति श्रीचन्द श्रीधर श्रीधर श्रुतकोति सहरणपाल सागरदत्तसूरि साधारण ब्रह्म पासपुराण (र०सं० ११८६), वड्ढमाणचरिउ (र०सं० ११६०), चंदप्पहचरिउ (अनुपलब्ध) पंचपंडवचरितरास (सं० १४१०) भरतबाहुवलीरास (सं० १२४१) मुद्रित शान्तिनाथचरिउ कहाकोस्, रयगाकरंडसावयायार (र० सं० ११२०) सुकमालचरिउ (र० सं० १२०८) भविसदत्त पंचमीकहा (र० सं० १२३०) हरिवंस पुराण (सं०१५५२) परमेष्ठीप्रकाशसार, धर्मपरीक्षा, जोगसार (१५५२) सम्यक्त्व कौमुदी जबूस्वामीचरित्र (सं० १०६०)। कोकिला पंचमीकहा, मुकुट सत्तमी, दुधारसी कथा, आदित्यवारकथा, तीन चउवीसीकथा पुष्पांजलिवयकहा, निर्दुहसत्तमी कथा निज्झरपंचमी कहा, अनुप्रेक्षा (सं० १५०८ से पूर्व) पज्जुण्णचरिउ, खंडित " पूर्ण (उद्धारित, संभवतः १२वीं १३वीं शताब्दी) सुप्पयदोहा (वैराग्यसार) कुमारपाल प्रतिबोध (सं० १२४१) मुद्रित पउमचरिउ, हरिवंसपुराण, पंचमीकहा, स्वयंभू व्याकरण (अनुपलब्ध) अगाथमीकहा वड्ढमारणकव्व, मल्लिनाथकव्व मदन पराजय संभवतः वि० की १५वीं शताब्दी सनत्कुमारचरिउ (सं० १२१६) णेमिकुमारचरिउ मुद्रित धम्मपरिक्खा (सं० १०४४) हेमशब्दानुशासन देशीनाममाला मुद्रित सिद्धकवि सिंहकवि सुप्रभाचार्य सोमप्रभसूरि स्वयंभ हरइंद (अग्रवाल) हरइंद (हल्ल या जयमित्र) हरिदेव हरिभद्र हरिभद्र हरिषेण हेमचन्द ग्रन्थ और ग्रन्थकार पहली और दूसरी प्रशस्तियां क्रमशः 'पउमचरिउ और रिटणेमिचरिउ' की हैं। उनके कर्ता कवि स्वयंभू व त्रिभुवन स्वयंभू हैं । स्वयंभू की रामकथा पउमचरिउ या रामायण बहुत ही सुन्दर कृति है । इसमें ६० सन्धियां हैं, जो पांच काण्डों में विभक्त हैं। विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्याकाण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, और उत्तर काण्ड में १३ सन्धियां हैं। जिनमें स्वयंभूदेव रचित ८३ सन्धियां हैं, शेष उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभू द्वारा रची गई हैं। ग्रन्थ में प्रारम्भिक पीठिका के अनन्तर जम्बूद्वीप की स्थिति, कुलकरों की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋषभदेव की उत्पत्ति तथा जीवन-परिचय; लंका में देवताओं और विद्याधरों के वंश का वर्णन, अयोध्या में राजा दशरथ और राम-लक्ष्मण आदि की उत्पत्ति, बाल्यावस्था, जनक पुत्री सीता से Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह विवाह, राम-लक्ष्मण-सीता का वनवास, संबूकमरण, सीताहरण, रावण से राम-लक्ष्मण का युद्ध, सुग्रीव आदि से राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना, और उपचार प्रादि । विभीषण का राम से मिलना, रावणमरण, लंका-विजय, विभीषण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता-मिलाप, अयोध्या को प्रस्थान, भरतदीक्षा व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा, दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रवुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके केवल्य प्राप्ति, और निर्वाण लाभ, आदि का सविस्तार कथन दिया हुआ है। इस ग्रन्थ में रामकथा का वही रूप दिया हुआ है, जो विमलसूरि के पउमचरिउ में और रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है । ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों की चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में आवश्यक होता है । इस दृष्टि से पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी ग्रन्थ में कोई दुरुहता नहीं हैं, वह सरल और काव्य-सौन्दर्य की अनुपम छटा को लिए हुए है। समूचा वर्णन काव्यात्मक-सौन्दर्य और सरसता से प्रोत-प्रोत है, पढ़ने के साथ ही मन रमने लगता है। कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर आगे बढ़ती है और वहां वह सरलता और स्वाभाविकता का निर्वाह करती है। किन्तु जहां कवि प्रकृति का चिनगा करने लगता है । वहां एक से एक अलंकृत संविधान का आश्रय कर ऊँची उड़ानें भरता है । गोदावरी की उपमा दृष्टव्य है-गोदावरी नदी वसुधारूपी नायिका की बंकित फेनावली के वलय से अलंकृत दाहिनी वांह ही हो। जिसे उसने वक्षस्थल पर मुक्ताहार धारण करने वाले पति के गले में डाल रक्खा है।' कवि को कुछ पंक्तियां वसुधा की रोम-राजि सदृश जान पड़ती हैं । २ युद्ध में लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अयोध्या के अन्तः पुर में स्त्रियों का विलाप कितना करुण है 'दुःखातुर होकर सभी रोने लगे, मानों सर्वत्र शोक ही भर दिया हो । मृत्यजन हाथ उठा उठाकर रोने लगे, मानों कमलवन हिम पवन से विक्षिप्त हो उठा हो। राम की माता सामान्य नारी के समान रोने लगी, सुन्दरी उमिला हतप्रभ रोने लगी, सुमित्रा व्याकुल हो उठी, रोती हुई सुमित्रा ने सभी जनों को रुला दिया-कवि कहता है कि कारुण्यपूर्ण काव्य-कथा से किसके प्रांसू नहीं आ जाते' । भरत और राम का १. "फेणावनि बंकियवलयालंकिय, णं महि बहु अहें तणिया। __ जण णिहि भत्तार हो मोत्तिय-हार हो, बांह पसारिय दाहिणिया ॥ २. “कत्थवि णाणा विह रुक्खराइ, णं महिकुल बहु अहिं रोम-राई॥" -पउमचरिउ ३. "दुक्खाउरु रोवइ सयलु लोउ, णं चप्पवि चप्पिवि भरिउ सोउ । रोवइ भिच्च-यणु समुद्हत्य, णं कमल-संडु हिम-पवण घत्थु । रोबइ प्रवरा इव राम जणणि, केवकय दाइय तरु सूल खणणि । रोवइ सुप्पह विच्छाय जाय, रोवइ सुमित्त सोमित्ति-माय । हा पुत्त पुत्त ! केत्तहि गनोसि, किह सत्तिएँ वच्छ थलें होसि । हा पुत्तु ! मरंतुम जो होसि, दइवेण केण विच्छो इप्रोसि । धत्ता-रोवंतिएं लक्खण-मायरिएँ समल लोउ रोमा वियउ ! कारुण्णइ कव्व कहाएं जिह, कोव ण अंसु मुसावियउ ।।" १३ -पउमचरिउ ६६, १३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विलाप किसे अश्रु विगलित नहीं करता ' । इसी तरह रावण की मृत्यु होने पर विभीषण और मन्दोदरी के विलाप का वर्णन केवल पाठकों के नेत्रों को ही सिक्त नहीं करता; प्रत्युत रावण-मन्दोदरी और विभीपण के उदात्त भावों का स्मरण कराता है। इसी तरह अंजना सुन्दरी के वियोग में पवनंजय का विलापचित्रण भी संसार को विचलित किये बिना नहीं रहता। ___ग्रन्थ में ऋतुओं का कथन तो नैसर्गिक है ही, किन्तु प्रकृति के सौंदर्य का विवेचन भी अपूर्व हुआ है। नारी-चित्रण में राष्ट्र कूट नारी का चिनगा बड़ा ही मृन्दर है। कवि ने राम और सीता के रूप में पुरुष और नारी का रमरणीय और स्वाभाविक चित्रण किया है। पुरुष और नारी के सम्बन्धों का जैसा उदात्त और याथातथ्य चित्रण सीता की अग्नि परीक्षा के समय हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ग्रंथ में सीता के अमित धैर्य, साहम और उदान गुणों का वर्णन नारी की महत्ता का द्योतक है, उसके सतीत्व की आभा ने नारी के कलंक को धो दिया है। ग्रन्थ का कथा भाग कितना चित्ताकर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। सहस्रार्जुन की जल क्रीड़ा का वर्णन अद्वितीय है। । युद्ध के वर्णन करने में भी कवि ने अपनी कुशलता का परिचय दिया है जिसे पढ़ते ही सैनिकों के प्रयाण की पग-ध्वनि कानों में गूंजने लगती है और शब्द योजना तो उनके उत्साह की संवर्द्धक है ही। ग्रंथ में वोर, शृङ्गार, करुण और शांत रसों का मुख्य रूप से कथन है । वीर रस के साथ शृङ्गार रस की अभिव्यक्ति अपभ्रंश काव्यों में ही दृष्टिगोचर होती है। अलंकारों में उपमा और श्लेप का प्रयोग किया गया है। दूसरी प्रशस्ति 'रिट्ठोमिचरिउ' (हरिवंश पुराण) की है। जिसमें १५२ सन्धियां और १६३७ कड़वक हैं । इनमें ७७ संधियां स्वयंभू द्वारा रची गई हैं। शेष १३ संधियां स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू की वनाई हुई हैं; किन्तु अंतिम कुछ संधियां खंडित हो जाने के कारण भट्टारक यशः कीतिने अपने गुरु गुणकीति के सहाय से गोपाचल के समीप स्थित कुमार नगर के परिणयार चैत्यालय में उनका समुद्धार किया था और परिणामस्वरूप उन्होंने उक्त स्थानों में अपना नाम भी अंकित कर दिया। ग्रंथ में चार काण्ड हैं यादव, कुरु, युद्ध और उत्तर कांड । प्रथम कांड में १३ संधियाँ है। जिनमें कृष्ण जन्म, बाल-लीला विवाह-कथा, प्रद्युम्न आदि की कथाएं और भगवान् नेमिनाथ के जन्म की कथा दी हुई है। ये समुद्र विजय के पुत्र और कृष्ण के चचेरे भाई थे। दूसरे कांड में १६ संधियां हैं, जिनमें कौरव-पांडवों के जन्म, वाल्यकाल, शिक्षा आदि का कथन, १. देखो पउमचरिउ संधि ६७।३.४ । संधि ६६, १०-१२ । २. देखो पउमचरिउ ७६, ४-११, ७६-२-३ ३. देखो संधि १४, ६।। ४. केवि जस लुद्ध, सण्णद्ध कोह । केवि सुमित्त-पुत्त, सुकलत्त-चत्त-मोह । केवि णीसरंतिवीर । भूधरव तुंग धीर । सायरव्व अप्पमाण, कुंजरव्व दिण्णणाण । केसरिव्व उद्धकेस, चत्त सव्व-जीवियास । केवि सामि-भत्ति-वंत, मच्छिराग्गि-पज्जलंत । केवि आहवे अभंग, कॅ कुमं पसाहि अंग । -पउमचरिउ ५७-२ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ दीक्षा, अनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह परस्पर का वैमनस्य, युधिष्ठिर का जुआ खेलना और पराजित होना, द्रोपदी का चीर हरण, तथा पांडवों के बारह वर्ष के वनवास आदि का विस्तृत वर्णन है।। तृतीय कांड में ६० संधियां हैं कौरव-पांडवों के युद्ध वर्णन में पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय आदि का सुन्दर चित्रण किया गया है और उत्तर कांड की २० संधियों में कृष्ण की रानियों के भवांतर, गजकुमारका निर्वाण, द्वीपायन मुनि द्वारा द्वारिका-दाह, कृष्ण-निधन, बलभद्र-शोक, हलधर कमार का राज्य लाभ. पांडवों का गह-वास. मोह-परित्याग. दीक्षा, तपश्चरण और उपसर्ग इन. तथा उनके भवांतर प्रादि का कथन. भगवान नेमिनाथ के निर्वाण के बाद ७७वीं संधि के पश्चात दिया हुआ है। रिट्टेणेमिचरिउ की संधि पुष्पिकानों में स्वयंभू को धवलइया का आश्रित, और त्रिभुवन स्वयंभू को बन्दइया का आश्रित बतलाया है। मत्स देश के राजा विराट का साला कीचक जिस समय सबके सामने द्रोपदी का अपमान करता हैं । कवि कल्पना द्वारा उसे मूर्तिमान बना देता है। यम दूत की तरह कीचक ने द्रोपदी का केश-पाश पकड़कर खींचा और उसे लात मारी। यह देख कर राजा युधिष्ठिर मूर्छित हो गए। भीम रोष के मारे वृक्ष की ओर देखने लगे किस तरह मारें। किन्तु युधिष्ठिर ने पैर के अंगूठे से उन्हें मना कर दिया। उधर पुर की नारियां व्याकुल हो कहने लगी कि इस दग्ध शरीर को धिक्कार है इसने ऐसा जघन्य कार्य क्यों किया ? कुलीन नारियों का तो अब मरना ही हो गया, जहां राजा ही दुराचार करता हो वहां सामान्य जन क्या करेंगे ? . सो तेण विलक्खी हूवएण, अणुलग्गें जिह जम दूयएण । विहुरे हि धरेवि चलणेहि हय, पेक्खंतहं रायहं मुच्छ गय । मणि रोस पवट्टिय वल्लभ हो, किर देइ दिट्ठ तरु पल्लव हो । मरु मारमि मच्छु स-मेहुराउं, पट्टवमि कयंत हो पाहुणउं । तो तव-सुएण प्रारुट्टएण, विरिणवारिउ चलणंगुट्ठएण । पोसारिउ विनोयरु सण्णियउ, पुर-बर गरिउ आदण्णियउ । धि धि दढ सरीरें काई किउ, कुल-जायह-जायहं मरणथिउ । जहि पहु दुच्चारिउ समायरइ, नहिं जण तम्मण्णु काई करइ । -संधि २८-७ इसी संधि के १५वें कडवक में द्रोपदी के अपमान से क्रुद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध (कुश्ती) का वर्णन भी सजीव हुआ है रण में कुशल भीम और कीचक दोनों एक दूसरे से भिड़ गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बल वाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने-अपने ओंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे। नेत्र गुंजा (चिरमटी धुंधची) के समान लाल हो गये थे। दोनों के वक्षस्थल आकाश के समान विशाल और दोनों के भुजदंड परिघि के समान प्रचंड थे। ३ "तो भिडिवि परोधप रण कुसल, विण्णि वि णयणाय सहस्स-बल । विण्णि वि गिरि तुंग-सिंग सिहर, विण्णि वि जल हरख गहिर गिर । वि णिवि दट्टोट्ट रुतु वयण, विण्णिवि गुंजाहल सम-णयण । विण्णिवि णयल णिरु-वच्छ थल, विण्णिवि परिहोवम-भुज-जुयल । -रिट्ठणेमिचरिउ २८-१५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस तरह कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानव का यह शरीर कितना घिनावना और शिराओं-स्नायुओं से बंधा हुआ अस्थियों का एक ढांचा या पोट्ठल मात्र है। जो माया और मद रूपी कचरे से सड़ रहा है, मल पुंज है, कृमि-कीटों से भरा हुआ है, पवित्र गंध वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मांस और रुधिर से पूर्ण चर्मवृक्ष से घिरा हुआ है-चमड़े की चादर से ढका हुआ है, दुर्गन्धकारक है, प्रांतों की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है, कलुषता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नहीं है । चमड़ी उतार देने पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल विन्दु तथा सुर धनु के समान अस्थिर और विनश्वर है। ऐसे घृणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा ? यह विचार ही ज्ञानी के लिए वैराग्यवर्द्धक है।' कवि परिचय स्वयंभू कुल से ब्राह्मण थे परन्तु जैनधर्म पर आस्था हो जाने के कारण उनकी उस पर पूरी निष्ठा एवं भक्ति थी। कवि के पिता का नाम मारुतदेव और माता का नाम पद्मिनी था।' स्वयं कवि ने अपने छन्द ग्रंथों में मारुतदेव का उल्लेख किया है। बहुत सम्भव है कि वे कवि के पिता ही हों। पुत्र द्वारा पिता की कृति का उल्लिखित होना आश्चर्य की बात नहीं है। कवि की तीन पत्नियां थीं। ग्रादित्य देवी जिसने अयोध्या कांड लिपि किया था। दूसरी पामिअव्वा, (अमृताम्बा) जिसने पउमचरिउ के विद्याधरकांड की २० संधियाँ लिखवाई थीं और तीसरी सुअव्वा, जिसके पवित्र गर्भ से 'त्रिभुवन स्वयंभू' जैसा प्रतिभा सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो अपने पिता समान ही विद्वान् और कवि था। इसके सिवाय अन्य पुत्रादिक का कोई उल्लेख नहीं मिलता। कविवर का शरीर दुबला-पतला और उन्नत था। उनकी नाक चपटी और दांत विरल थे। कवि स्वयंभू कोशल देश के निवासी थे। जिन्हें उत्तरीय भारत के आक्रमण के समय राष्ट्रकूट राजा ध्र व का मंत्री रयडा धनंजय मान्यखेट ले गया था। राजा ध्रुव का राज्य काल वि० सं० ८३७ से ८५१ तक रहा है। पउमचरिउ में स्वयंभू देव ने अपने को धनंजय के आश्रित बतलाया है और रिट्ठणेमिचरिउ में धवलइया के आश्रित । और त्रिभुवन स्वयंभू ने अपने को वंदइया के आथित । धनंजय, धवलइया और वंदइया ये तीनों ही पिता पुत्र आदि के रूप में सम्बद्ध जान पड़ते हैं। उनका कवि के ग्रंथ निर्माण में सहायक रहना श्रुत भक्ति का परिचायक है। समय-विचार कवि ने ग्रन्थ में अपना कोई समय नहीं दिया है। परंतु पद्मचरित के कर्ता रविषेण का स्मरण जरूर १. देखो, रिट्ठणेमिचरिउ ५४-११ । २. पउमिणि जणणि गम्भ संभूरा, मारुयएव-रूप-अणुराएं । -पउमचरिउ प्रशस्ति ३. आइच्च एवि पडिमोवमायें प्राइच्चम्बियाए । बीउ अउज्झा-कंड सयंभू घरिणीय लेहवियं ॥ संधि ४२ ४. सव्वे वि सुमा पंजर सुअव्व पडिसक्खराइं सिक्खंति । कइरा अस्स सुनो सुनव्व-सुइ-गब्भ संभूप्रो॥ ५. अइ तणुएण पईहर गत्तै छिटवरणासे पविरल दंतें । -पउम० प्रशस्ति ६. हिन्दी काव्य-धारा पृ० २३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह किया है। प्राचार्य रविपेरग ने पद्मचरित को वीर निर्वाण सं० १२०३ वि० सं० ७३३ में बनाकर समाप्त किया है । अतः स्वयंभू वि० सं० ७३३ के बाद किसी समय हुए हैं। श्रद्धेय प्रेमी जी ने लिखा है किस्वयंभू ने 'रिट्ठणेमिचरिउ' में हरिवंश पुराण के कर्ता पुन्नाट संधीय जिनसेन का उलेख नहीं, किया हो सकता है कि उक्त उल्लेख किसी कारण से छूट गया हो, या उन्हें लिखना स्वयं याद न रहा हो। रिट्ठणेमिचरिउ का ध्यान से समीक्षण करने पर या अन्य सामग्री से अनुसंधान करने पर यह स्पष्ट जरूर हो जाएगा कि ग्रन्थ कर्ता ने उसकी रचना में उसका उपयोग किया या नहीं। भ० यशः कीर्तिके उद्धार काल से पूर्वकी कोई प्रति १५वीं शताब्दी की लिखी हुई कहीं मिल जाय तो उक्त समस्या का हल शीघ्र हो सकता है। स्वयंभू के पुत्र चिभुवन स्वयंभू ने 'रिट्टणेमिचरिउ' की १०४वीं संधि में प्राकृत संस्कृत और अपभ्रंश के जो ७० के लगभग पूर्ववर्ती कवियों के नाम गिनाये हैं। उनमें जिनसेनाचार्य और गुणभद्राचार्य का भी नामोल्लेख किया है। उनका उल्लेख निम्न प्रकार है देविल, पंचाल, गयन्द, ईश्वर, गोल, कंठाभरण, मोहाकलस (मोहकलश) लोलुय (लोलुक) वन्धुदत्त, हरिदत्त, दोल्ल, वारण पिंगल, कलमियंक, कुलचन्द्र, मदनोदर, गौड, श्री संघात, महाकवितुंग, चारुदत्त, कद्दड, (रुद्रट) रंज्ज, कविल अहिमान, गुणानुराग, दुग्गह, ईसान, इंद्रक, वस्त्रादन, पारायण, महट्ट, सीहाय, कीर्तिरण, पल्लवकित्ति, गुगिद्ध, गणेश, भासड, पिशुन, गोबिन्द, वेयाल, (वेताल) विसयड, गाग, पण्डगत्त, सुग्रीव, पतंजलि, वरसेन, मल्लिपेण, मधुकर, चतुरानन (चउमुख) सँघसेन, बंकुय, वर्द्ध मान, सिद्धसेन, जीव या जीवदेव, दयावरिंद, मेघाल, विलालिय पुण्डरीक, वसुदेव, भीउय कुण्डरीक, दृढ़मति, गृहत्थि, भावक्ष, यक्ष, द्रोण पणभद्र, श्रीदत्त, धर्मसेन, जिनसेन, दिनकर, गाग, धर्म, गुरणभद्र, कुशल, स्वयंभूदेव, शीलभद्र, वीरवंदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, गागदेव और भवनंदि ।' १. पह दइ सन्नभाव कइ दविल पंचाल गइंधया । ईसर णील कंठाभरण मोहाकलस इंधया । लोलुय बंधुयत्त हरियत्त दोल्ल वाणाय पिंगला । वडहड कल मयंक मयणोउर गयउड विक्क दुज्जला ।। सिरि संघाय तुंग महकइ परसेय चारु दत्तया । बाडा संगु अक्खवहि बंधण रुद्दडरज्ज इंदया । वत्थायण वि यह हरि कुटि गुण सुदुवि मड्ढया । णारायण महट्ट सीहप्प कित्ति रणं दियट्ठया ॥ कविल गुणाणुराय दुग्गह दीसाणहिमाण अंचया । जिरणयत्त (त्ता) कलंक करविस पल्लव कित्तडि गुणिद्धया । मण मोहावरुद्ध धम्मीयगर गणेश भासडा ।। पिसुण सुयउ मणेह गोविंदकइ वेयांलविसयडा । णवि णागह पंडणत सुग्गीव पडंजलिय वरसेणया । करि कण्णय कण्णा संदीस मणोहर मल्लिसेगया। महुयर मूलहट्ट चउराणण महकइसंघसेणया ॥ वेकुय वद्धमाण संघायरियाहिय सिद्धसेणया । जीददयावरिंद मेधाल विलालिय पंडरीया । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना dte इन कवियों में जैन जैनेतर प्राकृत-संस्कृत और अपभ्रंश भाषा के कवि शामिल हैं। जैसे गोविंद, मल्लिषेण, चतुरानन, संघसेन, वर्द्धमान, सिद्धसेन, श्रीदत्त, धर्मसेन, जिनसेन, जिनदत्त, गुणभद्र, स्वयंभूदेव, सर्वनन्दि, नागदेव और भवनन्दि आदि जैन कवि प्रतीत होते हैं। संभव है, इनमें और भी चार-पाँच नाम हों। क्योंकि उनका ग्रंथ परिचादि के बिना ठीक परिज्ञान नहीं होता। इससे यह भी स्पष्ट है कि उनसे पूर्व अनेक कवि अपभ्रंश के भी हो गए थे। इनमें उल्लिखित गुणभद्राचार्य राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय के शिक्षक थे। गुणभद्र का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। हो सकता है कि स्वयंभू गृणभद्र के समय नहीं रहे हों; किन्तु त्रिभुवन स्वयंभू तो मौजूद थे। इसीसे उन्होंने उनका नामोल्लेख किया है । जिनसेन ने अपना हरिवंशपुराग शक सं० ७०५ वि० सं०८४० में बनाकर समाप्त किया है। स्वयंभू ने अपना ग्रन्थ जब बनाया उस समय गुणभद्र नहीं होंगे। किन्तु हरिवंशपुराग के कर्ता के समय तक वे अवश्य रहे होंगे। अतः रिटणेमिचरिउ के रचयिता स्वयंभूदेव के समय की पूर्वावधि वि० सं० ८०० और उत्तरावधि वि० सं० ६०० मानने में कोई बाधा नहीं जान पड़ती। इस कारण स्वयंभू विक्रम की हवीं शताब्दी के विद्वान होने चाहियें। यदि रयडाधनंजय वाली बात स्वीकृत की जाय, तो राष्ट्रकूट राजा ध्रुव का राज्यकाल वि० सं० ८३७ से ८५१ तक रहा है। इससे भी स्वयंभूदेव का समय विक्रम की हवीं शताब्दी का मध्यकाल मुनिश्चित होता है । इससे वे पुन्नाटसंघीय जिनसेन के प्रायः समकालीन जान पड़ते हैं। ___ कन्नड़ कवि जयकीति ने 'छन्दो नुशासन' नामक ग्रंथ बनाया है जिसकी हस्तलिखित प्राति सं० ११९२ को जैसलमेर के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है । यह ग्रन्थ एच० डी० वेलंकर द्वारा सम्पादित हो चुका है। इस ग्रन्थ में कवि ने स्वयंभू छन्द के 'नन्दिनी' छन्द का उल्लेख किया है। कवि जयकीति का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी का पूर्वार्ध या नौवीं शताब्दी का उपान्त्य समय होना चाहिए। क्योंकि दशवीं शताब्दी के कवि असग ने जयकीति का उल्लेख किया है। इस कथन से भी स्वयंभू का समय हवीं शताब्दी होना चाहिये। तीसरी और सत्रहवीं प्रशस्तियाँ क्रम से 'सुदंसगचरिउ' और 'गयल विहिविहाणकव्व' नामक ग्रंथों की हैं जिनके कतां कवि नयनन्दी हैं। सुदर्शनचरित अपभ्रंश भाषा का एक खण्ड काव्य है, जो महाकाव्यों की श्रेणी में रखने योग्य है। जहाँ उसका चरित भाग रोचक और प्राकर्पक है वहां वह सालंकारकाव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है कवि ने उसे सरस और निर्दोप बनाने का पूरा प्रयत्न किया है। ग्रंथकार ने स्वयं लिखा है कि रामायण में राम और सीता का वियोग तथा शोकजन्य व्याकुलता के दर्शन होते हैं, और महाभारत में पाण्डव तथा धृतराष्ट्रादि कौरवों के परस्पर कलह एवं मारकाट के दृश्य अंकित वसुबसुएव खेणाए सरभोज्य कुंडरीरया । दिड़मइ गहत्थि पहुडोवकरुणभावक्ख जवखया । दोणय पणभद्दमि सिरिदत्त धम्म-जिणसेण दक्खया । दियर णाय-धम्म गुणभद्दहि व मुणि सयल वंदया । कुसल रायंभूदेव जइसील हद्द गुरु वीरवंदया। सुंदर सव्वणंदि साहुव बहुव णिदया ।। सिरिकलिकालहद्द सिंह इय णागदेव भवणंदिया । -हरिवंशपुराण १०४वीं संधि, पृ०,३०१ नारयणा प्रति Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मिलते हैं। तथा लोकशास्त्र में भी कौलिक, चोर, व्याधे आदि की कहानियां सुनने में आती हैं; किन्तु इस सुदर्शनचरित में ऐसा एक भी दोष नहीं है । जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है : रामो सीय-विप्रोय-सोय-विहुरं संपत्तु रामायणे, जादं पाण्डव-धायरल सददं गोत्तं कली-भारहे । डेडा-कोलिय-चोर-रज्जु-गिरदा आहासिदा सुद्दये, यो एक्कं पि सुदंसणस्स चरिदे दोसं समुब्भासिदं । कवि ने काव्य के आदर्श को व्यक्त करते हुए लिखा है कि रस और अलंकार से युक्त कवि की कविता में जो रस मिलता है वह न तरुणिजनों के विद्र म समान रक्त अधरों में, न पाम्रफल में, न ईख में, न अमृत में, न हाला (मदिरा) में, न चन्दन में और न चन्द्रमा में ही मिलता है'। प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन के निष्कलंक चरित की गरिमा ने उसे और भी पावन एवं पठनीय बना दिया है। ग्रन्थ में १२ सन्धियां हैं जिनमें सुदर्शन के जीवन परिचय को अंकित किया गया है। परन्तु इस कहाकाव्य में कवि की कथन शैली, रस और अलंकारों की पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्य रस तथा प्रसंगवश कला का अभिव्यंजन, नायिका के भेद, ऋतुत्रों का वर्णन और उनके वेष-भूषा आदि का चित्रण, विविध छन्दों की भरमार, लोकोपयोगी सुभाषित और यथास्थान धर्मोपदेशादि का विवेचन इस काव्य-ग्रन्थ की अपनी विशेषता के निर्देशक हैं और कवि की आन्तरिक भद्रता के द्योतक हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में पंचनमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शन के चरित्र का चित्रण किया गया है। चरितनायक यद्यपि वणिक श्रेष्ठी हैं, तो भी उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा मेरुवत् निश्चल है उसका रूप लावण्य इतना चित्ताकर्षक था कि उसके बाहर निकलते ही युवतिजनों का समूह उसे देखने के लिए उत्कंठित होकर मकानों की छतों, द्वारों तथा झरोखों में इकट्ठा हो जाता या; वह कामदेव का कमनीय रूप जो था। साथ ही वह गुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञा के सम्यक्पालन में अत्यन्त दृढ़ था। धर्माचरण करने में तत्पर था, सबसे मिष्टभाषी और मानव जीवन की महत्ता से परिचित था और था विषयविकारों से विहीन । ग्रंथ का कथा भाग बड़ा ही सुन्दर और आकर्षक है और वह इस प्रकार है अंग देश के चम्पापुर नगर में, जहां राजा धाड़ीवाहन राज्य करता था, वहां वैभव सम्पन्न ऋषभदास सेठ का एक गोपालक (ग्वाला) था जो गंगा में गायों को पार करते समय पानी के वेग से डूब कर मर गया था और मरते समय पंच नमस्कार मंत्र की आराधना के फलस्वरूप उसी सेठ के यहां पुत्र हुआ था । उसका नाम सुदर्शन रवखा गया । सुदर्शन को उसके पिता ने सब प्रकार से सुशिक्षित एवं चतुर १. णो संजादं तरुणिग्रहरे विद्दुमारत्तसोहे । णो साहारे भमिय भमरे णेव पुंडिच्छु डंडे ।। णो पीयूसे हले खिहिणे चन्दणे णेव चन्दे । सालंकारे सुकइ भणिदे जं रसं होदि कव्वे ॥ २. करे कंकणु कि प्रारिसे दोसए ? हाथ कंगन को पारसी क्या ? एके हत्थें ताल कि वज्जइ । ताली क्या एक हाथ से बजती है ? किं मारवि पंचमुगाइज्जइ । ताड़न से क्या पांचवां स्वर गाया जाता है। -सुदंक्षणचरिउ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बना दिया और उसका विवाह सागरदत्त सेठ की पुत्री मनोरमा से कर दिया। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने कार्य का विधिवत् संचालन करने लगा । सुदर्शन के रूप को चारों ओर चर्चा थी, उसके रूपवान शरीर को देखकर उस नगर के राजा धाड़ीवाहन की रानी अभया उस पर आसक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करने की अभिलाषा से अपनी चतुर पंडिता दासी को सेठ सुदर्शन के यहां भेजती है पंडिता दासी रानी की प्रतिज्ञा सुनकर रानो को पातिव्रत धर्म का अच्छा उपदेश करती है और सुदर्शन की चरित्र-निष्ठा की अोर भी संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारों से निश्चल रहती है और पण्डिता को उक्त कार्य की पूर्ति के लिए खासतौर से प्रेरित करती है। पंडिता सुदर्शन के पास कई बार जाती है और निराश होकर लौट आती है, पर एक बार वह दासी किसी कपट-कला द्वारा सुदर्शन को राजमहल में पहुंचा देती है। सुदर्शन के राजमहल में पहुँच जाने पर भी अभया अपने कार्य में असफल रह जाती है-उसकी मनोकामना पूरी नहीं हो पाती । इससे उसके चित्त में असह्य वेदना होती है और वह उससे अपने अपमान का बदला लेने पर उतारू हो जाती है, वह अपनी कुटिलता का माया-जाल फैलाकर अपना सुकोमल शरीर अपने ही नखों से रुधिर-प्लावित कर डालती है और चिल्लाने लगती है कि दोड़ो लोगो मुझे बचायो, सुदर्शन ने मेरे सतीत्व का अपहरण किया है, राजकर्मचारी सुदर्शन को पकड़ लेते हैं और राजा अज्ञानतावश क्रोधित हो रानी के कहे अनुसार सुदर्शन को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे देता है, पर सुदर्शन अपने शीलव्रत की निष्ठा से विजयी होता है-एक देव प्रकट होकर उसकी रक्षा करता है। राजा धाडोवाहन का उस व्यन्तर से युद्ध होता है और राजा पराजित होकर तथा सुदर्शन की शरण में पहुँचता है। राजा घटना के रहस्य का ठीक हाल जानकर अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करता है और सुदर्शन को राज्य देकर विरक्त होना चाहता है, परन्तु सुदर्शन संसार-भोगों से स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा लेकर तपश्चर्या द्वारा कर्मसमूह का विनाशकर मुक्त हो जाता है। सुदर्शन का तपस्वी जीवन बड़ा ही सुन्दर रहा है उसे कवि व्यक्त करने में सफल हुआ है । अभयारानी और पंडिता दासी भी आत्मघात कर मर जाती हैं और वे अपने कर्मानुसार कुगति में जाती हैं। इस तरह इस ग्रंथ में पंच नमस्कार मंत्र के फल की महत्ता अङ्कित की गई है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना अवन्ति देश स्थित धारा नगरी के जिनवर विहार में राजा मोज के राज्यकाल में सं० ११०० में की है। ग्रंथकर्ता ने ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए जो परम्परा दी है वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व की वस्तु है। कुन्दकुन्दाचार्य के वंश में पद्मनंदी, विष्णुनन्दी, विश्वनन्दी, वृषभनन्दी, रामनन्दी, त्रैलोक्यनन्दी, माणिक्यनन्दी का नामोल्लेख किया है, इन्हीं माणिक्यनन्दी के प्रथम विद्या शिष्य नयनन्दी हैं। दूसरी कृति 'सयल-विही-विहाण' नाम का महाकाव्य है, जो ५८ संधियों में समाप्त हुआ है। परंतु खेद है कि वह अपूर्ण उपलब्ध हुआ है; क्योंकि उसमें १६ संधियां नहीं हैं, वे ग्रन्थ से कैसे त्रुटित हई इसके जानने का भी कोई साधन नहीं है । प्रारंभ की दो तीन सन्धियों में ग्रंथ के अवतरण प्रादि पर प्रकाश डालते हुए १२ वीं से १५ वीं संधि तक मिथ्यात्व के काल मिथ्यात्व और लोक-मिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यात्वों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए क्रियावादि और प्रक्रियावादि भेदों का विवेचन किया है। परन्तु खेद है कि १५वीं सन्धि के पश्चात् ३२ वीं सन्धि तक १६ सन्धियाँ आमेर भण्डार प्रति में नहीं हैं। हो सकता है कि वे लिपिकर्ता को न मिली हों। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि ने इस ग्रंथ में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है उनमें से कुछ छन्दों के नाम मय पत्र नम्बर के निम्न प्रकार हैं १. विलासनी, (३२) २. भुजंगप्रिया, (२९) ३. मंजरी, (३०) ४. वंशस्थल, (४४) ५. चन्द्रलेखा (५२) ६. सिंधुरगति, (५८) ७. दोधक, (७४) ८. मौक्तिकमाला, (७७) ६. सगिणी, (८३) १०. पादाकुला, (६) ११. मदनलीला, (६८) १२. द्विपदी, (६८) १३. विद्युन्माला, (९९) १४. रासाकुलक, (१०२) १५. कुवलयमालिनी, (१०२) १६. तुरंगगति मदन, (१०३) १७. समानिका, (११८) १८. रथोद्धता,(११९) १६. प्रमाणिका, (१७५) २०. नाग कन्या, (१७६) २१, संगीतगंधर्व, (२००) २२. शृंगार, (२००) २३. बालभुजंग ललित, (२०१) २४. अजनिका, (२५०) आदि इनके अतिरिक्त दोहा, घत्ता, गाहा, दुपदी, पद्धडिया, चौपाई, मदनावतार भुजंगप्रयात आदि अनेक छन्दों का एक से अधिक बार प्रयोग हुआ है । अतएव छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी ग्रन्थ अध्ययन, मनन और प्रकाशन के योग्य है । ग्रन्थकी भाषा प्रौढ़ और कविके अपभ्रंश भाषाके साधिकारको सूचित करती है। कवि ने ग्रन्थ के सन्धि-वाक्य भी पद्य में निबद्ध किये हैं। यथा-- मुणिवर णयणंदी सण्णिबद्धे पसिद्धे, सयल विहिविहाणे एत्थ कव्वे सुभब्वे । समवसरणसंसि सेणिए संपवेसो, भरिणउ जण मणुज्जो एस संधी तिइज्जो ॥३॥ ग्रंथ की ३२ वीं सन्धि में मद्य-मांस-मधु के दोष उदंबरादि पंचफलों के त्याग का विधान और फल बतलाया है । ३३ वीं सन्धि में पंच अणुव्रतों को विशेषताओं का उल्लेख है और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के आख्यान भी यथा स्थान दिए गए हैं शेष सन्धियों में भी इसी तरह का कथन किया गया है। ५६ वीं संधि के अन्त में सल्लेखना (समाधिमरण) का स्पष्ट उल्लेख है और विधि में प्राचार्य समन्त भद्र के कथन-क्रम को अपनाया गया है । इस तरह ग्रन्थ में गृहस्थोपयोगी व्रतों का सुन्दर विधान किया गया है। ग्रन्थ की दूसरी संधि में अंबाइय और कंचीपुर का उल्लेख किया है। अनन्तर वल्लभराज का भी उल्लेख किया है, जिसने दुर्लभ जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था और जहां पर रामनन्दी, जयकीर्ति और महाकीति प्रधान थे। आगे कवि ने रामनन्दी को प्राचार्य प्रकट किया है । और रामनन्दी के शिष्य बालचन्द्र ने नयनन्दी से कहा कि सकलविधिविधान काव्य अविशेषित है । कवि ने उसे कुछ दिनों के बाद बनाना प्रारम्भ किया था; क्योंकि किसी कारण विशेष से कवि का चित्त उद्विग्न था, चित्त की अस्थिरता में ऐसे महाकाव्य का निर्माण कैसे सम्भव हो सकता है ? उद्विग्नता दूर होनेपर ही प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया गया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त मूल्यवान् है, कवि ने ग्रन्थ बनाने में प्रेरक मुनि हरिसिंह का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन जैनेत्तर और कुछ सम सामयिक विद्वानों का भी नामोल्लेख किया है-वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, बाण, मयूर जिनसेन वादरायण, श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त पिंगल, वीरसेन, सिंहनन्दी, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, १. अंबाइय कंचीपुर विरत्त, जहि भमइ भव्य भत्तिहि पसत्त । जहिं बल्लभराएं बल्लहेण, कराविउ कित्तण दुल्लहेण । जिणि पडिमा लंकिउ गच्छमाणु, णं केण वियंभिउ सुरविमाणु । जहिं रामगंदि गुणमणि-णिहाणु, जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु। -सयलविहिविहाण काव्य सन्धि २ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना रुद्र गोविन्द, दण्डी, भामह, माघ, भरत, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र प्रभाचन्द्र, ओर श्रीकुमार जिन्हें सरस्वतीकुमार भी कहते थे। इन कवियों में जिनसेन, जयराम, वीरसेन, सिंहनन्दी, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, गोविंद, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमार ये १५ कवि जैन हैं । वे जिनसेन से पुष्पदन्त तक सभी कवि ग्रंथ कर्ता से पूर्ववर्ती हैं और शेष सम सामयिक । इनमें जयराम वही प्रतीत होते हैं जो प्राकृत धर्मपरीक्षा के कर्ता थे और जिनका उल्लेख बुधहरिषेण ने सं० १०४४ में रचीजाने वाली धर्म परीक्षा में किया । श्रीचन्द्र प्रभाचंद्र श्रीकुमार और हरिसिंह मूनि सम समयवर्ती हैं। इस तरह कवि ने ग्रंथ में बहुमूल्य सामग्री संकलित की है, कथनशैली चित्ताकर्षक है । संसार की असारता और मनुष्य की उन्नति अवनति का हृदयग्राही वर्णन किया है और बतलाया है कि जब एक ही दिन में सूर्य जैसे पराक्रमी को भी उदय, उपरिगमन और पतन इन तीन अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है, तब अन्य का क्या कहना । यौवन, धनादि सब अस्थिर हैं। यथा-उययं चडणं पडणं तिणि वि ठागाइं इक्क दिणहमि । __ सूरस्स य एसगई अण्णस्स य केत्तियं थाम । कवि नयनन्दी अपने समय के उच्चकोटि के कवि थे, और अपभ्रंश के छन्दों के मर्मज्ञ के । ग्रंप की महत्ता का अन्दाज उसके अध्ययन से लगता है। कवि ने ग्रंथ-प्रशस्ति में लिखा है कि वराड या वराट देश में प्रसिद्ध कोति, लक्ष्मी और सरस्वती से मनोहर वाट ग्राम के महान महल शिखर में जिणिंद विराजमान हैं जिनकी कांति से चन्द्र-सूर्य भी लज्जित हो गए हैं । जहां पर जिनागम का उत्सव सम्पन्न होता था और वहीं पर वीरसेन जिनसेन ने धवला और जयधवला टीकाओं का निर्माण किया था, वहां ही पुंडरीक कवि धनंजय हुए थे। कवि-परिचय प्रस्तुत कवि नयनन्दी कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा के विद्वान थे। त्रैलोक्यनन्दि के प्रशिष्य और माणिक्यनंदि के प्रथम विद्या शिष्य थे, माणिक्यनंदि दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। उन्हीं से नयनंदि ने अध्ययन किया था। इनके दीक्षा गुरु कौन थे और वह कहां के निवासी थे, इनका जीवन-परिचय क्या है ? इसे कवि ने ही नहीं दिया है। परंतु कवि काव्य-शास्त्र में निष्णात थे, साथ ही संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट विद्वान् थे। छन्द शास्त्र के भी परिज्ञानी थे। कवि ने धारा नगरी में ही अध्ययन किया था और वहीं रहते हुए परमारवंशी राजा जयसिंह के राज्य में वि० सं० ११०० में सुदर्शन चरित की १. वर वराडदेसे पसिद्धए, कित्ति लच्छि सरसइ-मणोहरे । वाडगामि महि महिल सेहरे, जहिं जिणिद-हर पह-पराजिया। चंद-सूर णेह जंत लज्जिया, तहिं जिणागमुच्छव अलेवहि । वीरसेण-जिणसेण देवहि, णामधवल जयववल सय । महाबंध तिणि सिद्धंत सिव-पहा, विरइऊण भवियहं सुहाविया । सिद्ध-रमणि-हाराच दाविया पुंडरीउ जहिं कवि धणंजर । -सकल विधि विधान प्रशस्ति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जन पंच प्रशस्ति संग्रह रचना की थी। उसके बाद किसी समय सकलविधिविधान की रचना की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ ५८ संधियों का था किन्तु उसके मध्य की १६ सन्धियाँ अनुपलब्ध हैं। कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। इन्होंने विविध देशों में भ्रमण कर जैनधर्म का भी प्रचार किया था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख सुदंसण चरिउ में किया है, जिसे उस ग्रंथ का परिचय देते समय दे दिया है। ___चौथी प्रशस्ति 'पार्श्व पुराण'की है, जिसके कर्ता कवि पद्मकीति हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में १८ संधियांहैं। संधियों में कडवकों की संख्या निश्चित नहीं है, उदाहरणार्थ चौथी-पांचवीं संधि में वारह-बारह कडवक हैं । तो चउदहवीं संधि में ३० कडवक दिये हैं। जिनमें जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय अङ्कित किया गया है । वे अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान (महावीर) से ढाई सौ वर्ष पूर्व हुए हैं। और ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनकी ऐतिहासिकता को ऐतिहासिक विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। ग्रन्थ में अन्य सब कथन परम्परा के अनुकूल ही किया गया है। हां. कवित्व की दृष्टि से छठी, दशवीं और ग्यारहवीं संधियां उल्लेखनीय हैं। छठी संधि में ग्रीष्म काल और उसमें होने वाली जलक्रीड़ा, वर्षा काल और हेमन्त आदि का सुन्दर वर्णन दिया हुआ है । दसवीं संधि में सूर्यास्त, रजनी और चन्द्रोदय आदि का कथन दृष्टव्य है । ग्यारहवीं संधि में युद्धादि का वर्णन भी चित्तार्षक हुआ है। भाषा में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी यत्र-तत्र हुमा देखने में आता है और जो स्वाभाविक है। मात्रिक छन्दों के अतिरिक्त भुजंगप्रयात, स्रग्विणी आदि वणिक छन्द भी प्रयुक्त हुये हैं। ११वीं संधि के प्रत्येक कडवक के प्रारम्भ में पहले एक दुवई और फिर उसके बाद दोहय या दोहे का प्रयोग भी किया गया है। एक व्यक्ति विशेष के परिचय की मुख्यता इसे खण्ड-काव्य कहा जाता है। पर उसमें महाकाव्यत्व की क्षमता भी दृष्टिगत होती है। __कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० EEE में कार्तिक की अमावस्या के दिन बनाकर समस्त किया है। ग्रंथकर्ता ने अपनी गुरु परम्परा निम्न रूप से व्यक्त की है। भूमण्डल में प्रसिद्ध माथुरगच्छ के विद्वान चन्द्रसेन नाम के ऋषि हुए। उनके शिष्य, महायती कामजयी माधवसेन हुए। उनके शिष्य जिनसेन हुए, और उनके शिष्य उक्त पद्मकीर्ति या पद्यसेन हैं। जिन्होंने इस ग्रन्थ को 'भमिया पुहमी' जिनालय में बैठकर बनाया था । ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । ग्रन्थ की श्लोक संख्या २३२३ बतलाई गई है। ___५वीं प्रशस्ति 'धर्म परीक्षा' की है जिसके कर्ता कवि हरिषेण हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संधियां और २३८ कडवक हैं । जिसे कवि ने बुध सिद्धसेन के प्रसाद से बनाया था। ग्रन्थ में मनोवेग और पवनवेग का रोचक सम्वाद दिया हुआ है । ग्रंथ का कथानक मनोरंजक है, और वह पौराणिक कथानकों के अविश्वसनीय असम्बद्ध चरित्र चित्रण से भरा हुआ है और उन पाख्यानों को प्रसंग्रत बतलाते हुए जैनधर्म के प्रति आस्था उत्पन्न की गई है; किन्तु उनमें स्मृत-पुराण-ग्रन्थों के मूल वाक्यों का कोई उल्लेख नहीं है । ग्रन्थ की १. चडि वि महारहि भउ सहिउ, वहरिपमाण ममंदु । पहि मुह चल्लिउ परवलहो सण्णन्झ वि गरेंदु ॥११-१ २. गवसय गउ बा णुइये कत्तियमासे प्रमावसी दिवसे। लिहियं पासपुराणं कहणा इह पउम णामेण ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ भाषा अपभ्रंश हैं। कवि ने संसार को प्रसारता का सुन्दर वर्णन किया है' और बतलाया है कि संसार प्रसार है, कोई कभी दुख नहीं चाहता, सभी सुख चाहते हैं। संसार में धन धान्यादि कोई भी वस्तु इस जीवन के साथ नहीं जाती, कुटुम्बीजन स्मशान भूमि तक अवश्य जाते हैं, किन्तु धर्म अधर्म जीव के साथ परलोक में भी जाते हैं, दुःख सुख भी साथ जाते हैं। ऐसा विचारकर मानसिक संताप को दूर कर, जिससे शुभ गति मिले ऐसा, प्रयत्न करना चाहिए। ग्रन्थ की प्राद्य प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्वर्ती ३ कवियों-चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्त का नामोल्लेख किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ काष्ठासंघ के प्राचार्य अमितगति की धर्मपरीक्षा से, जो वि० सं० १०७० में संस्कृत में रची गई है, उससे यह ग्रन्थ २६ वर्ष पूर्व बना है। डा० एन० उपाध्याय ने इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला है। कवि परिचय कविवर हरिषेण मेवाड़ देश में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे। इनका वंश धक्कड़ या या धर्कट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था। इस वंश में अनेक कवि हुए हैं। इनके पिता का नाम गोवर्द्धन और माता का नाम गुणवती था, यह किसी कारणवश चित्रकूट को छोड़कर (अचलपुर) में रहने लगे थे । और वहां उन्होंने अपने से पूर्व बनी हुई जयराम की प्राकृत गाथा बद्ध धर्म परीक्षा को देख कर वि० सं० १०४४ में पद्धडिया छन्द में धर्मपरीक्षा नाम का ग्रन्थ बनाया था। छठवीं प्रशस्ति 'जंबू स्वामी चरित' की है। जिसके कर्ता कवि वीर हैं । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'शृङ्गार वीर महाकाव्य' है । कवि ने इस नाम को ग्रन्थ की प्रत्येक संधि पुष्पिकानों में व्यक्त किया है और ग्रंथ को महाकाव्य भी सूचित किया है । ग्रन्थ में ११ संधियां अथवा अध्याय हैं। जिनमें 'जंबूस्वामी के चरित का चित्रण किया है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में विहित रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथा पात्र भी उत्तम हैं, जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ की उपयोगगिता की अभिवृद्धि हुई है । शृंगार रस, वीर रस और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं कहीं शृंगारमूलक वीर रस है । ग्रंथ में अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है एक चमत्कारिक, दूतरा स्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है। १. भणिउ ताम संसार प्रसारए, कोवि ण कासु वि दुह-गरु पारए । मुय मणुएं सह प्रत्यु ण गच्छइ, समणु मसाणु जार मणु मच्छड् । धम्माहम्मु णवरु मणुलग्गड, गच्छा जीवहु सुह-दुह-संगउ । इय जाणे वि ताय दाणुल्लउ, चितिउ नह सुपत्ते पर भल्लउ । इट्ठकेउ णिय-मणि झाइज्जह । सुह-गइ-गमणु जेण पाविज्जह । २. देखो हरिषेण की धम्मपरिक्खा, एनल्स माफ भंडारकर मोरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना ___ भा० २३ पृ. ५७२.६०८ ३. विक्कम णिय परिवत्तिय कालए, गणए वरिस सहस चउतालए । इस उप्पण्णु भवियजण सुहयरु भरहिय धम्मासय सायर ॥ -धर्मपरीक्षा पूना वाली प्रति । ४. इस जंबूसामिपरिए सिंगारवीरे महाकव्वे महाकह देवयत्त सुय 'वीर' विरइये सामि उप्पत्ती कुमार-विजय नाम चउत्थी संधी समतों। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह 'भारह-रण-भूमिव स-रहभीस', हरिप्रज्जुरण' उलसिहंडिदीस । गुरु' अासस्थाम कलिंगचार, गयगज्जिर' ससर महीससार ॥ लंकायरी व स-रावणीय", चंदणपहि' चार कलहावरणीय ।' सपलास" सकंचण अक्खघट्ट, स विहीसण' कइकुल फल रसट्ट ॥ इन पद्यों में विध्याटवी का वर्णन करते हुए श्लेष प्रयोग से दो अर्थ ध्वनित होते हैं-स रह-रथ सहित और एक भयानक-जीव हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, नहुल और नकुल जीव, शिखंडि और मयूर आदि। स्वाभाविक विवेचन के लिए पांचवीं संधि से शृंगार मूलक वीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है-केरलनरेश सगांक की पुत्री विलासवती को रत्नशेखर विद्याधर से संरक्षित करने के लिए जंबू कुमार अकेले ही युद्ध करने जाते हैं। युद्ध वर्णन में कवि ने वीर के स्थायीभाव 'उत्साह' का अच्छा चित्रण किया है। पीछे मगध के शासक श्रेणिक या बिम्बसार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुँच जाती है, किन्तु जम्बू कुमार अपनी निर्भय प्रकृति और असाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियां भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्नियां भी युद्ध में जाने के लिए उन्हें प्रेरित करती हैं । युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में यों पढ़िए। 'अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु । दलियदप्प दप्पिय मइमोहणु, कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जोहणु। तुझ रण दोसु वइव किउ धावइ, अरणउ करंतु महावइ पावइ। जिह जिह दंड करंविउ जंपइ, तिह तिह खेयरु रोसहि कंपइ । घट्ट कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगड पासेय पसित्तउ । दट्ठाहरु गुंजज्जलुलोयणु, पुरुदुरंतरणासउड भयावणु। पेक्खेवि पहु सरोसु सण्णामहि, वुत्तु वोहरू मंतिहिं तामहि । अहो अहा हूयहूय सासस गिर, जंपइ चावि उद्दण्ड गम्भिउ किर। अण्णहो जीहएह कहो वग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अग्गए । १. रथसमन्विता भीसा भयानका, विध्याटवीपक्षे सरभैरष्टापदंर्भयानका । २. वासुदेवादयः दृश्याः, विध्याटव्यां हरिः सिंहः, अर्जुनो वृक्षविशेषः वकुलः प्रसिद्धः शिखंडी मयूरः । ३. भारतरण-भूमो गुरुः द्रोणाचार्यः तत्पुत्रः अश्वत्थामा, कलिंगा कलिंग देशाधिपतिः राजा एतेषां चारा श्रेष्टाः विघ्याटव्यां गुरुः महान्, प्रस्वत्यः पिप्पलः मामः पादः कलिंगवल्यचार: वृक्ष विशेषाः । ४. भारतरणभूमौ गजगजित ससरबाण समन्विताः महीसाः राजानः तः साराः भवंति, विंध्याटव्यां तु गज गजितः ससरा सरोवरसमन्विता: महीससारा महिषा सारा यस्यां । ५. रावण सहिता पक्षे रयणवृक्ष सहिता। . ६. लकानगरी चन्द्रनखा चारेण चेष्टा विशेषेण कलहकारिणी पक्षे चन्दनवृक्षविशेषः मनोज्ञलघुहस्तिभिर्युक्ता। ७. पलासः राक्षसः युक्ता सकांचन प्रक्षयकुमारो रावणपुत्र तेन युक्ता, पक्षे पलासवृक्ष सकांचन मदनवृक्ष भक्ष विभीतिक वृक्षा ते तक्का यत्र ।। ८. लंकानगरी विभीषणेन कपीनां बानराणां कुलः समन्विता, फलानि रसाढ्यानि यत्र-नानाभयानकाना बान राणां संघातैः फलरसढ्या च । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भरणइ कुमारू एहु रइ लुद्धउ, वसरण महावि तुम्महि छुद्धउ । रोसन्ते रिउहि यच्छु वि गण सुरगइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ ।' प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा बहुत प्रांजल, सुबोध,सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है और इसमें पुष्पदन्तादि महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रौढ़ता और अर्थगौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं। इसे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वागण से जम्बूस्वामी के निर्वाण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्रायः एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बूस्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोनर जीवन की पावन झांकी ही चरित्र-निष्ठा का एक महान आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। इनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चोरकर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सो योद्धानों के साथ महान् तपस्वियों में अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यतरादि कृत महान् उपसर्गों को संघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान् आदर्श उपस्थित करता है। उस समय मगध देश का शासक राजा |णिक था, जिसे विम्बसार भी कहते हैं। उसकी राजधानी 'रायगिह' (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमान में लोग राजगिर के नामसे पुकारते हैं। ग्रन्थकर्ता ने मगधदेश और राजगृह का वर्णन करते हुए, और वहां के राजा श्रेशिाक का परिचय देते हुए, उसके प्रतापादि का जो संक्षिप्त वर्णन किया है, उसके तीन पद्य यहां दिये जाते हैं.---- 'चंड भुजदंड खंडिय पयंडमंडलियमंडली वि सड्ढें । धारा खंडण भीयव्व जयसिरी वसइ जम्म खग्गंके ।।१।। रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइ न संगरे सामी। इय जस्स पयावद्योसणाए विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ जस्स रक्खिय गोमडलस्स पुरुसुत्तमस्स पद्धाए। के केसवा न जाया समरे गय पहरगा रिउगो ॥३॥ अर्थात् जिनके प्रचंड भुजदंड के द्वारा प्रचंड मांडलिक राजाओं का समूह खंडित हो गया है, (जिसने अपनी भुजाओं के बल से मांडलिक राजाओं को जीत लिया है) और धारा-खंडन के भय से ही मानो जयश्री जिसके खङ्गाङ्क में बसती है। राजा श्रेणिक संग्राम में युद्ध से संत्रस्त कायर पुरुषों का मुख नहीं देखते, रे, रे कायर पुरुषो ! भाग जामो'-इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन से ही शत्रु दूर भाग जाते हैं। गोमन्डल (गायों का समूह) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णु के द्वारा रक्षित रहता है । उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी पुरुषों में उत्तम राजा श्रेणिक के द्वारा रक्षित रहता है, राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु-सुभट हैं, जो मत्यु को प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्णु) के आगे आयुध रहित होकर आत्म समर्पण नहीं किया।' १. दिगम्बर जैन परम्परा में जम्बूस्वामी के पश्चात् विष्णु, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु थे पांच श्रुत केवली माने जाते हैं, किन्तु श्वेताम्बरी परम्परा में प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, आर्यसंभूतिविजय, पौर भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियों का नामोल्लेख पाया जाता है । इनमें भद्रबाहु को छोड़कर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह ग्रन्थका कथा भाग बहुत ही सुन्दर, सरस और मनोरंजक है और कवि ने उसे काव्योचित सभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का यत्न किया है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है ५६ कथासार जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नामका देश है उसमें श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में बैठे हुए थे कि वनमाली ने चलकर विपुलाचल पर्वत पर महावीर स्वामी के समवसरण आने की सूचना दी । श्रेणिक सुनकर हर्पित हुआ और उसने सेना प्रादि वैभव के साथ भगवान का दर्शन करने के लिए प्रयारण किया । श्रेणिक ने समवसरण में पहुंचने से पूर्व ही अपने समस्त वैभव को छोड़ कर पैदल समवसरण में प्रवेश किया और वर्द्धमान भगवान को प्रणाम कर धर्मोपदेश सुना । इसी समय एक तेजस्वी देव आकाश मार्ग से प्राता हुआ दिखाई दिया। राजा श्रेणिक द्वारा इस देव के विषय में पूछे जाने पर गौतम स्वामी ने बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी चार देवांगनाओं के साथ यहाँ वन्दना करने के लिए श्राया है । यह आज से ७ वें दिन स्वर्ग से चयकर मध्यलोक में उत्पन्न होकर उसी मनुष्य भव से मोक्ष प्राप्त करेगा । राजा श्रेणिक ने इस देव के विषय में विशेष जानने की अभिलाषा व्यक्त की, तब गौतम स्वामी ने कहा कि - 'इस देश में वर्द्धमान नाम का एक नगर है । उसमें वेदघोष करने वाले, यज्ञ में पशुवलि देनेवाले, सोमपान करने वाले, परस्पर कटु वचनों का व्यवहार करने वाले, अनेक ब्राह्मरण रहते थे। उनमें अत्यन्त गुणज्ञ एक ब्राह्मणदम्पत्ति श्रुतकण्ठाव रहता था । उसकी पत्नी का नाम सोमशर्मा था। उनसे दो पुत्र हुए थे । भवदत्त और भवदेव । जब दोनों की आयु क्रमशः १८ और १२ वर्ष हुई, तब आर्यवसु पूर्वोपार्जित पापकर्म के फलस्वरूप कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अग्नि में जल मरा । सोमशर्मा भी अपने प्रिय विरह से दुःखित होकर चिता में प्रवेश कर परलोकवासिनी हो गई । कुछ दिन बीतने के पश्चात् उस नगर में 'सुधर्म' मुनिका श्रागमन हुआ। मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, भवदत्त ने धर्म का स्वरूप शान्त भाव से सुना, भवदत्त का मन संसार में अनुरक्त नहीं होता था, अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि बनने की अपनी अभिलाषा व्यक्त की। और वह दिगम्बर नुनि हो गया । और द्वादशवर्ष पर्यन्त तपश्चरण करने के पश्चात् भवदत्त एक बार संघ के साथ अपने ग्राम के समीप पहुंचा। और अपने कनिष्ठ भ्राता भवदेव को संघ में दीक्षित करने के लिए उक्त वर्धमानग्राम में श्राया । उस समय भवदेव का दुर्मर्षण और नागदेवी की पुत्री नागवसु से विवाह हो रहा था। भाई के श्रागमन का समाचार पाकर भवदेव उससे मिलने आया, और स्नेहपूर्ण मिलन के पश्चात् उसे भोजन के लिये घर में ले जाना चाहता था परन्तु भवदत्त भवदेव को अपने संघ में ले गया और वहां मुनिवर से साधु दीक्षा देने को कहा । भवदेव असमंजस में पड़ गया, क्योंकि उसे विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय - सुखों का आकर्षण जो था, किन्तु भाई की उस सदिच्छा का अपमान करने का उसे साहस न हुआ । और उपायान्तर न देख प्रवज्या (दीक्षा) लेकर भाई के मनोरथ को पूर्ण किया, और मुनि होने के पश्चात् १२ वर्ष तक संघ के साथ देशविदेशों में भ्रमण करता रहा । एक दिन अपने ग्राम के पास से निकला । उसे विषय चाह ने प्राकर्षित किया और वह अपनी स्त्री का स्मरण करता हुआ एक जिनालय में पहुंचा, वहां उसने एक प्रजिका को देखा, उससे उन्होंने अपनी स्त्री के विषय में कुशल वार्ता पूंछी । श्रर्जिका ने मुनि के चित्त को चलायमान देखकर उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह आपकी पत्नी मैं ही हूँ । आपके दीक्षा समाचार मिलने पर मैं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७ भी दीक्षित हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयम का अनुष्ठान करने लगा। अन्त में दोनों भाई मरकर सनत्कुमार नामक स्वर्ग में देव हुए और सात सागर की प्रायु तक वहाँ वास किया । भवदत्त स्वर्ग से चयकर पुण्डरीकिनी नगरी में वज्रदन्त राजा के घर सागरचन्द नाम का और भवदेव वीतशोका नगरी के राजा महापद्म चक्रवर्ती की वनमाला रानी के शिवकुमार नाम का पुत्र हुआ। शिवकुमार का १०५ कन्याओं से विवाह हुआ, करोड़ों उनके अंगरक्षक थे, जो उन्हें बाहर नहीं जाने देते थे। पुण्डरीकिनी नगरी में चारण मुनियों से अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर सागरचन्द्र ने देह-भोगों से विरक्त हो मुनिदीक्षा ले ली। त्रयोदश प्रकार के चारित्र का अनुष्ठान करते हुए वे भाई को सम्बोधित करने वीतशोका नगरी में पधारे। शिवकुमार ने अपने महलों के ऊपर से मुनियों को देखा, उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो पाया, उसके मन में देह-भोगों से विरक्तता का भाव उत्पन्न हुआ, उससे राजप्रासाद में कोलाहल मच गया। और उसने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मांगी। पिता ने बहुत समझाया और कहा कि घर में ही तप और व्रतों का अनुष्ठान हो सकता है, दीक्षा लेने की आवश्यकता नहीं, पिता के अनुरोधवश कुमार ने तरुणीजनों के मध्य में रहते हुए भी विरक्त भाव से नव प्रकार से ब्रह्मचर्यव्रत का अनुष्ठान किया । और दूसरों से भिक्षा लेकर तप का आचरण किया। और आयु के अन्त में वह विन्द्युन्माली नाम का देव हुआ । वहां दस सागर की आयु तक चार देवांगनाओं के साथ सुख भोगता रहा। अब वही विद्यन्माली यहां आया था जो सातवें दिन मनुष्य रूप से अवतरित होगा। राजा श्रेणिक ने विद्युन्मालो की उन चार देवागनाओं के विषय में पूछा। तब गौतम स्वामी ने बताया कि चंपा नगरी में सूरसेन नामक सेठ की चार स्त्रियां थीं जिनके नाम थे जयभद्रा, सुभद्रा और यशोमती । वह सेठ पूर्वसंचित पाप के उदय से कुष्ट रोग से पीड़ित होकर मर गया, उसकी चारों स्त्रियाँ अर्जिकाएँ हो गईं और तप के प्रभाव से वे स्वर्ग में विद्यन्माली की चार देवियां हुईं। पश्चात् राजा श्रेणिक ने विद्युच्चर के विषय में जानने की इच्छा व्यक्त की। तब गौतम स्वामी ने कहा कि मगध देश में हस्तिनापुर नामक नगर के राजा विसन्धर और श्रीसेना रानी का पुत्र विद्यचर नाम का था। वह सब विद्याओं और कलाओं में पारंगत था एक चोर विद्या ही ऐसी रह गई थी जिसे उसने न सीखा था। राजा ने विद्युच्चर को बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना नहीं छोड़ा। वह अपने पिता के घर में ही पहंच कर चोरी कर लेता था और राजा को सुषुप्त करके उसके कटिहार आदि प्राभूषण उतार लेता था। और विद्याबल से चोरी किया करता था। अब वह अपने राज्य को छोड़कर राजगृह नगर में आ गया, और वहां कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। गौतम गणधर ने बतलाया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह नगर में अर्हद्दास नाम श्रेष्ठिका पुत्र होगा जो उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेगा। यह कथन हो ही रहा था कि इतने में एक यक्ष वहां प्राकर नृत्य करने लगा। राजा श्रेणिक ने उस यक्ष के नृत्य करने का कारण पूछा। तब गौतम स्वामी ने बतलाया कि यह यक्ष अहहास सेठ का लघु भ्राता था। यह सप्तव्यसन में रत था। एक दिन जुए में सब द्रव्य हार गया और उस द्रव्य को न दे सकने के कारण दूसरे जुमारियों ने उसे मार-मारकर अधमरा कर दिया। सेठ प्रहहास ने उसे अन्त समय नमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभाव से वह मर कर यक्ष हुमा । यक्ष सुनकर हर्ष से नृत्य कर रहा है कि उसके भाई सेठ प्रहहास के अन्तिम केवली का जन्म होगा । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनय प्रशस्ति संग्रह प्रन्प-निर्माण में प्रेरक इस ग्रन्थ की रचना में किनकी प्रेरणा को पाकर कवि प्रवृत्त हुआ है, उसका परिचय ग्रन्थकार ने निम्न रूप से दिया है : ___ मालव देश में धक्कड़ या धर्कट' वंश के तिलक महासूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी रहते थे। यह ग्रन्थकार के पिता महाकवि देवदत्त के परम मित्र थे। इन्होंने ही वीर कवि से जंबू स्वामीचरित के निर्माण करने की प्रेरणा की थी और तक्खडु श्रेठी के कनिष्ठ भ्राता भरत ने उसे अधिक संक्षिप्त और अधिक रूप से न कहकर सामान्य कथा वस्तु को ही कहने का आग्रह अथवा अनुरोध किया था और तक्खडु श्रेठी ने भरत के कथन का सर्थन किया था और इस तरह ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्थ बनाने का उद्यम किया। प्रन्यकार इस ग्रन्थ के कर्ता महाकवि वीर हैं, जो विनयशील विद्वान और कवि थे। इनकी चार स्त्रियाँ थीं। जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी तथा नेमचन्द्र नाम का एक पुत्र भी था। महाकवि वीर विद्वान और कवि होने के साथ-साथ गुणग्राही न्याय-प्रिय और समुदार व्यक्ति थे। उनकी गुणग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ की चतुर्थ सन्धि के प्रारम्भ में पाये जाने वाले निम्न पद्य से मिलता है : प्रगुणा ण मुणंति गुणं गुणिणो न सहति परगुणे दहुँ । वल्लहगुणा वि गुरिणणो विरला कइ वीर-सारिच्छा ।। अर्थात्-"प्रगुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणों को नहीं जानता और गुणीजन दूसरे के गुणों को भी नहीं देखते-उन्हें सहन भी नहीं कर सकते, परन्तु वीर-कवि के सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे गुणों को समादर की दृष्टि से देखते हैं।" कवि ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि-"सुकवित्त करणमणवावडेण" १-३ । इसमें कवि ने अपने को काव्य बनाने के अयोग्य बतलाया है। फिर भी कवि ने अपनी सामर्थ्यानुसार काव्य को सरस और सालंकार बनाने का यत्न किया है और कवि उसमें सफल हुआ है। कवि का वंश और माता-पिता कविवर वीर के पिता गुडखेड देश के निवासी थे और इनका वंश अथवा गोत्र 'लालबागड' था। १. यह वंश १०वी, ११वीं पोर १२वीं शताब्दियों में खूब प्रसिद्ध रहा। इस वंश में दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही संप्रदायों की मान्यता वाले लोग थे। दिगम्बर सम्प्रदाय के कई दिगम्बर विद्वान् ग्रन्थकार इस वंश में हुए हैं जैसे भविष्यदत्त पंचमीकथा के कर्ता कवि धनपाल, पोर धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४४ में बनाकर समाप्त की थी। प्रतः यह धर्कट या धक्कड़ वंश इससे भी प्राचीन जान पड़ता है । देलवाडा के वि० सं० १२८७ के तेजपाल वाले शिलालेख में भी धर्कट या धक्कड़ जाति का उल्लेख है। २. जाया जस्स मणिट्ठा जिणवह पुणो बीया। लीलावइत्ति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी॥८॥ पढमकलत्तं गरुहो संताण कयत्त विडवि पा रोहो । विणयगुणमणिणिहाणो तणमो तह णेमिचन्दोत्ति ॥६॥ -जंबूस्वामीचरित प्रशस्ति Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह वंश काष्ठासंघ की एक शाखा है'। इस वंश में अनेक दिगम्बराचार्य और भट्टारक हुए हैं, जैसे जयसेन, गुणाकारसेन, और महासेन तथा सं० १९४५ के दूबकुण्ड वाले शिलालेख में उल्लिखित देवसेन आदि । इससे इस वंश की प्रतिष्ठा का अनुमान किया जा सकता है। इनके पिता का नाम देवदत्त था । यह 'महाकवि' विशेषरण से भूषित थे और सम्यक्त्वादि गुणों से अलंकृत थे । और उन्हें सरस्वति देवी का वर प्राप्त था । उन्होंने पद्धड़िया छन्द में 'वरांग- चरित' का उद्धार किया था । और कविगुरणों को अनुरंजित करने वाली वीर कथा, तथा 'अम्बादेवीचर्चरीरास' नाम की रचना बनाई थी, जो ताल और लय के साथ गाई जाती थी, और जिन चरणों के समीप नृत्य किया जाता था। जैसा कि कवि के निम्न वाक्यों से प्रकट है "सिरिलाडवग्गुतहिविमलजसु कइदेवयत्तु निव्वुल्यक सु बहुभावहं जे वरंगचरिउ, पद्धडिया बंधे उद्धरिउ । कविगुरण-रस-रंजिय विउससह, वित्त्थारिउ सुद्दयवीरकहा तरिय बंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तारूजसु नञ्चिज्जइ जिरणपयसेवर्याह किउ रासउ अम्बादेवर्याह । सम्मत्त महाभरधुरघरहो, तहो सरसइदेवि लद्धवरहो || " जस्स कइ-देवयत्तो जरगयो सच्चरियलद्धमाहप्पो । सुहसीलसुद्धवंसो जरणरणी सिरि संतुझा भरिया ॥ ६ ॥ जस्सय पसण्णवयरणा लहुरगो सुमइ ससहोयरा तिणि । सीहल्ल लक्खरका जसइ गामेत्ति विक्खाया ॥ ७ ॥ ५८ कविवर देवदत्त की ये सब कृतियां इस समय अनुपलब्ध हैं, यदि किसी शास्त्र भण्डार में इनके अस्तित्व का पता चल जाय, तो उससे कई ऐतिहासिक गुत्थियों के सुलझने की श्राशा है कविवर देवदत्त की ये सब कृतियाँ सम्भवतः १०५० या इसके आस-पास रची गई होंगी, क्योंकि उनके पुत्र वीर कवि सं० १०७६ के ग्रन्थ में उनका उल्लेख कर रहे हैं । अतः इनकी खोज का प्रयत्न होना चाहिए, सम्भव है प्रयत्न करने पर किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हो जायं । वीर कवि की माता का नाम 'सन्तु' अथवा 'सन्तुव' था, जो शीलगुरण से अलंकृत थी । इनके तीन लघु सहोदर और थे जो बड़े ही बुद्धिमान् थे और जिनके नाम 'सीहल्ल' लक्खणंक, और जसई थे, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है : :1 १. काष्ठासंघ भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षितौ ॥ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुराबागडाभिषः । लाड बागड इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले । चूंकि कविवर वीर का बहुतसा समय राज्यकार्य, धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में व्यतीत होता था, इसलिए इन्हें इस जम्बूस्वामी चरित नामक ग्रन्थ के निर्माण करने में पूरा एक वर्ष का समय लग गया - पट्टावली भ० सुरेन्द्रकीर्ति २. देखो, महासेन प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग वीरसेवा मन्दिर से प्रकाशित । ३. बहुरायकज्जधम्मत्थकाम गोट्ठी विहत्तसमयस्य । वीरस्स चरियकरणे इक्को संवच्छरो लग्गो ॥ जंबू ० च० प्र० Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पंच प्रशस्ति संग्रह था। कवि 'वीर' केवल कवि ही नहीं थे, बल्कि भक्तिरस के भी प्रेमी थे इन्होंने मेघवन' में पत्थर का एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्ट में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी की थी। कवि ने प्रशस्ति में मन्दिर-निर्माण और प्रतिमा-प्रतिष्ठा के संवतादि का कोई उल्लेख नहीं किया। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि ज़म्बू-स्वामि-चरित ग्रंथ की रचना से पूर्व ही उक्त दोनों कार्य सम्पन्न हो चुके थे। पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख ग्रन्थ में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का उल्लेख किया है, शान्ति कवि' होते हुए भी वादीन्द्र थे और जयकवि' जिनका पूरा नाम जयदेव मालूम होता है, जिनको वाणी अदृष्ट अपूर्व अर्थ में स्फुरित होती है। यह जयकवि वही मालूम होते हैं, जिनका उल्लेख जयकीर्ति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। इनके सिवाय, स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त और देवदत्त का भी उल्लेख किया है। ग्रन्थ का रचनाकाल भगवान महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम काल की उत्पत्ति होती है और विक्रमकाल के १०७६ वर्ष व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दशमी के दिन इस जम्बूस्वामी चरित्र का आचार्य परम्परा से सुने हुए बहुलार्थक प्रशस्त पदों में संकलित कर उद्धार किया गया है जैसा कि ग्रन्थप्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है: १ प्रयत्न करने पर भी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हो सका। २ सो जयउ कई वीरो वीरजिणंदस्स कारियं जेण । पाहाणमयं भवणं विहरूद्देसेण मेहवणे ॥१०॥ इत्येवदिणे मेहवणपट्टणे वड्ढमाण जिणपडिमा । तेणा वि महाकइणा वीरेण पट्ठिया पवरा ॥४॥ जम्बूस्वामी-चरित प्र० ३ संति कई वाई बिहु वण्णुस्करिसेसु फुरियविण्णाणो। रस-सिद्धि संचयत्थो विरलो वाई कई एक्को ॥४॥ ४ विजयन्तु जए कइणो जाएंवाणं अठ्ठ पुव्वत्थे । उज्जोइय धरणियलो साहह वट्टिव्व णिम्बवडई ॥४॥ जम्बूस्वामी-चरित प्रशस्ति ५ माण्डव्य-पिंगल-जनाश्रय-सेतवाख्य, श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान छन्दोनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम ॥ -जैसलमेर-भण्डार ग्रन्थसूची ६ संते सयंभू एए वे एक्को कइत्ति विग्नि पुणु भणिया। जायम्मि पुप्फते तिणि तहा देवयत्तम्मि ॥ -देखो, जंबूस्वामिचरित, संघि ५ का मादिभाग। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वरिसारण सयचउक्के सत्तरिजुते जिणेंदवीरस्स | रिव्वारा उववण्णा विक्कमकालस्स उप्पत्ती ॥१॥ विक्कमरिणवकालाओ छाहत्तर दससएसु वरिसारणं । माहम्मि सुद्धपक्खे दसमी दिवसम्मि संतम्मि ||२॥ सुरियं प्रायरिय परंपराए वीरेण वीरणिद्दिट्ठ | बहुलत्थ पसत्यपयं पवरमिणं चरियमुद्धरियं ||३|| ६१ इस प्रकार यह ग्रन्थ जीवन-परिचय के साथ-साथ अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तियों के उल्लेखों और उनके सामान्य परिचयों से परिपूर्ण है। इसमें भगवान महावीर और उनके समकालीन व्यक्तियों का परिचय उपलब्ध होता है, जो इतिहासज्ञों और अन्वेषण - कर्ताओं के लिए बड़ा ही उपयोगी होगा । ग्रन्थ का लिपि समय यह ग्रन्थ- प्रति भट्टारक महेन्द्र कीर्ति अम्बेर या आमेर ( जयपुर ) के शास्त्रभंडार की है, जो पहले किसी समय जयपुर राज्य की राजधानी थी। इस प्रति की लेखक प्रशस्ति के तीन ही पद्य उपलब्ध हैं; क्योंकि ७६वें पत्र से श्रागे का ७७ वां पत्र उपलब्ध नहीं है; उन पद्यों में से प्रथम व द्वितीय पद्य में प्रतिलिपि स्थान का नाम-निर्देश करते हुए 'झुंझुना' के उत्तुंग जिन-मंदिरों का भी उल्लेख किया है और तृतीय पद्य में उसका लिपि समय विक्रम संवत् १५१६ मगसिर शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रति पांच सौ वर्ष के लगभग पुरानी जान पड़ती है। इस ग्रन्थ प्रति पर एक छोटा सा टिप्परग भी उपलब्ध है जिसमें उसका मध्यभाग कुछ छूटा हुआ है' । सातवीं और आठवीं प्रशस्तियां 'कथाकोष और रयणकरण्डसावयायार ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) की हैं, जिनके रचयिता कवि श्रीचन्द्र हैं । इन्होंने अपने को 'मुनि' 'पंडित' श्रौर 'कवि' विशेषरणों के साथ उल्लेखित किया है । इनकी दोनों कृतियों के नाम ऊपर दिये गये हैं । उनमें प्रथम कृति कथा कोष है, जिसमें विविध व्रतों के अनुष्ठान द्वारा फल प्राप्त करने वालों की कथाओं का रोचक ढंग से संकलन किया गया है । ग्रंथ के प्रारम्भ में मंगल और प्रतिज्ञा वाक्य के अनंतर ग्रंथकार कहते हैं कि मैंने इस ग्रंथ में वही कहा है। जिसे गणधरने राजा श्रेणिक या बिम्बसार से कहा था, अथवा शिवकोटि मुनीन्द्र ने भगवती आराधना में जिस तरह उदाहरणस्वरूप अनेक कथानों के संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किए हैं। उसी तरह गुरुक्रम से और सरस्वती के प्रसाद से मैं भी अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ । मूलाराधना में स्वर्ग और अपवर्ग के सुख साधन का - अथवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थं चतुष्टयका - गाथानों में जो अर्थ प्ररूपित किया गया है, उसी अर्थ को मैं कथाओं द्वारा व्यक्त करूंगा; क्योंकि सम्वन्ध विहीन कथन गुरगवानों को रस प्रदान नहीं १ मन्ये वयं पुण्यपुरी बभाति सा झुंझणेति प्रकटी बभूव । प्रोत्तुंगतन्मंडन - चैत्यगेहाः सोपानवद्दृश्यति नाकलोके ॥ १॥ पुरस्सराराम जलप्रकूपा हम्र्म्याणि तत्रास्ति रतीव रम्याः । दृश्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददातिदानस्य विशालशाला ॥२॥ श्री विक्रमार्केन गते शताब्दे षडेक पंचैक सुमार्ग्रशीर्षे । त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धाः श्री जंबूस्वामीति च पुस्तकोऽयं ॥ ३॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जनपंच प्रशस्ति संग्रह करता, प्रतएव गाथाओं का प्रकट अर्थ कहता हूं तुम सुनो' । ग्रन्थकार ने देह-भोगों की प्रसारता को व्यक्त करते हुए ऐन्द्रिक सुखों को सुखाभास बतलाया है। साथ ही धन, यौवन और शारीरिक सौंदर्य वगैरह को अनित्य बतलाकर मन को विषय-वासना के आकर्षण से हटने का सुन्दर एवं शिक्षाप्रद उपदेश दिया है और जिन्होंने उनको जीतकर प्रात्म-साधना की है उनकी कथा वस्तु ही प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय है। अहिलपुर में प्रसिद्ध प्राग्वाट कूल में समूत्पन्न सज्जनोत्तम सज्जन नाम का एक श्रावक था, जो धर्मात्मा था और मूलराजनृपेन्द्रकी गोष्ठी में बैठता था। अपने समय में वह धर्म का एक आधार था, उसका कृष्ण नाम का एक पुत्र था, जो धर्म कर्म में निरत, जन शिरोमणी और दानादिद्वारा चतुर्विध संघ का संपोषक था। उसकी 'राणू' नामक साध्वी पत्नी से तीन पुत्र और चार पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। इसी कृष्ण श्रावक की प्रेरणा से कवि ने उक्त कथाकोष बनाया था। प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में बनाया गया था। __ कवि श्रीचन्द्र ने अपना यह कथा ग्रन्थ मूलराज नरेश के राज्य काल में समाप्त किताथा । इतिहास से ज्ञात होता है कि मूलराज सोलंकी ने सं०६८८ में चावडा वंशीय अपने मामा सामंतसिंह (भूयड़) को मार कर राज्य छीन लिया और स्वयं गृजरात की राजधानी पाटन (अपहिलवाड़े) की गद्दी पर बैठ गया, इसने वि० संवत् १०१७ से १०५२ तक राज्य किया है। मध्य में इसने धरणीवराह पर भी चढाई की थी, तब उसने राष्ट्रकूट राजा धवल की शरण ली, ऐसा धवल के वि० सं० १०५३ के शिलालेख से स्पष्ट है। मूलराज सोलंकी राजा भीमदेव का पुत्र था, उसके तीन पुत्र थे, मूलराज क्षेमराज और कर्ण। इनमें मूलराज का देहान्त अपने पिता भीमदेव के जीवन काल में ही हो गया था और अन्तिम समय में क्षेमराज को राज्य देना चाहा; परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया, तब उसने लघु पुत्र कर्ण को राज्य देकर सरस्वती नदी १. गणहरहो पयासिउ जिणवइणा, सेणियहो पासि जिह गणवइणा ॥ सिवकोडि मुणिदि जेमजए, कह कोसु कहिउ पंचम समए । तिह गुरु क.मेण प्रहमविकहमि, नियबुद्धि विसेसु नेव रहमि । महु देवि सरासइ सम्मुहिया, संभवउ समत्यु लोय महिया । प्रामण्णहो मूलाराहणहें, सग्गापवग्गासुसाहणहें । गाहं सरियाउ सुसोहणउ, बहु कहउ प्रत्थि रंजिय जणउ । धम्मत्थकाम मोक्खासयउ, गाहासु जासु संठियउ तउ । ताणत्यं भणिऊणपुरउ, पुणु कहमि कहाउ कयायरउ । धत्ता-संबंध विहूणु सव्वुवि जाणरसु न देइ गुणवन्त हैं। तेणिय गाहाउ पयडिवि ताउ कहम कहाउ सुरणंत हैं। २. यं मूलादुद मूल यद गुरु बलः श्रीमूलराजोनपो, दन्धिो धरणी बराहन्टपति यद द्वि (द दि) प: पादपम् । मायातं भुवि कांदि शीकमभिको यस्तं शरण्यो दधी, दंष्ट्रायामिवरूढ़ महिमा को लो मही मण्डलम् ॥ -एपि माफिया इंडिका जि० १ पृ० २१ ३. देखो, राजपूताने का इतिहास दूसरा संस्करण भा० १, पृ० २४१ ४. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द दूसरा सं० पृ० १९२ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना के तट पर स्थित मंडूकेश्वर में तपश्चरण करने लगा। अतः श्रीचन्द्र ने अपना यह कथाकोष वि० सं० १०५२ में या उसके एक दो वर्ष पूर्व ही बनाया होगा। जिससे ग्रंथ का विषय स्पष्ट हो गया है। पाठवीं प्रशस्ति 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार की है' जो स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डक नामक उपासकाध्ययन रूप गंभीर कृति का व्याख्यान मात्र है। कवि ने इस प्राधार ग्रंथ को २१ संधियों में विभाजित किया है। जिसकी प्रानुमानिक श्लोक संख्या चार हजार चार सौ अट्ठाईस बतलाई गई है । कथन को पुष्ट करने के लिए अनेक उदाहरण और कथानों को प्रस्तुत किया गया है। प्रशस्ति में हरिनन्दि मुनीन्द्र, समन्तभद्र, अकलंक, कुलभूषण पाद पूज्य (पूज्यपाद) विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य, वरषेण, महामति वीरसेन, जिनसेन, विहंगसेन, गुणभद्र, सोमराज, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदंत श्रीहर्ष, और कालिदास नाम के पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया गया है। ____ इस श्रावकाचार को कवि ने संवत् ११२३ में कर्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में श्रीबालपुर में पूर्ण किया था । यह कर्ण देव वही कर्णदेव ज्ञात होते हैं जो राजा भीमदेव के लघु पुत्र थे और जिनका राज्य काल 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के कर्ता मेरूतुंग के अनुसार सं० ११२० से ११५० तक उन्नीसवर्ष आठ महीना और इक्कीस दिन माना जाता है । इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त कवि की अन्य रचनाएँ अन्वेषणीय हैं। कवि परिचय कवि श्रीचन्द्र कुंदकुंदान्वय देशीगण के प्राचाय सहस्रकीति के प्रशिष्य थे और सहस्रकीति के (देवचंद, वासवमुनि, उदयकीति, शुभचंद्र और वीरचंद्र इन) पांच शिष्यों में से यह वीरचंद्र अंतिम शिष्य थे। इन पांचों का समय भी प्रायः सहस्रकीर्ति के सम सामयिक होना चाहिए। सहस्रकीति के गुरु का नाम श्रुतिकीति और श्रुतिकीर्ति के शिष्य श्रीकीर्ति थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी के मध्य भाग से लेकर बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। ___८वीं प्रशरित 'रयणकरण्डसावयायार' (रत्नकरण्डश्रावकाचार) की है जिसका परिचय सातवीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। हवीं प्रशस्ति 'सुकमाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि विबुध श्रीधर हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में छह संधियाँ और २२४ कड़वक हैं, जिनमें सुकमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। कवि ने सुकमाल के पूर्वजन्म का वृत्तान्त देते हुए लिखा है कि वे पहले जन्म में कौशाम्बी के राजा के राजमंत्री पुत्र थे और उनका नाम वायुभूति था, उन्होंने रोष में आकर अपनी भाभी के मुख में लात मारी थी, जिससे कुपित हो उसने निदान किया था कि मैं तेरी इस टांग को खाऊंगी। अनन्तर अनेक पर्यायें धारण कर जैनधर्म के प्रभाव से उज्जैनी में सेठ-पुत्र हुए थे, वे बाल्यावस्था से ही अत्यन्त सुकुमार थे, अतएव उनका नाम सुकमाल रक्खा गया। पिता पुत्र का मुख देखते ही दीक्षित हो गया और आत्म-साधना में लग गया। माता ने बड़े यत्न से पुत्र का लालन-पालन किया और उसे सुन्दर महलों में रख कर सांसारिक भोगोपभोगों में अनुरक्त किया। उसकी ३२ सुन्दर स्त्रियां थीं, जब उसकी प्रायु अल्प रह गई, तब उसके मामा ने, जो साधु थे, महल के पीछे जिन मंदिर में चातुर्मास किया और अन्त में स्तोत्र पाठ को सुनते ही सुकमाल का मन देहभोगादि से विरक्त हो गया और वह एक रस्सी के सहारे महल से नीचे उतरा और जिन मंदिर में जाकर मुनिराज को नमस्कार कर प्रार्थना की कि भगवन् प्रात्म-कल्याण का मार्ग बताइये । उन्होंने कहा कि तेरी आयु तीन दिन की शेष रह गई है। अतः शीघ्र ही प्रात्म-साधना में तत्पर हो। सुकमाल ने जिनदीक्षा लेकर और प्रायोपगमन संन्यास लेकर कठोर तपश्चरण किया। वे शरीर से जितने सुकोमल थे, उपसर्ग Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह परीषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे । वन में समाधिस्थ थे, एक श्यालनी ने अपने बच्चे सहित श्राकर उसके दाहिने पैर को खाना शुरू किया श्रौर बच्चेने बायें पैर को उन्होंने उस अमित कष्ट को शांतिसे बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए सहन किया और सर्वार्थसिद्धि में देव हुए। ग्रंथ का चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है । कवि ने यह ग्रंथ बलडइ ( ग्रहमदाबाद ) गुजरात नगर के राजा गोविन्दचन्द्र के काल में साहूजी सुपुत्र पुरवाड कुलभूषण कुमार की प्रेरणा से बनाया है। राजा गोबिन्दचन्द्र कौन थे और उन्होंने कितने वर्ष राज्य किया है, यह अभी अज्ञात है। हां, कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के शुरू में संस्कृत पद्यों में कुमार की मंगल कामना की है और बतलाया है कि वे जिनेन्द्रभक्त थे, संसार के देह-भोगों से विरक्त थे, उन्हें दान देने का ही एक व्यसन था और विद्वानों में प्रीति थी, इस तरह वह जितेन्द्रियकुमार जयवन्त रहें ' और प्रस्तुत ग्रन्थ कवि ने उक्त कुमार के ही नामांकित किया है । कवि ने ग्रन्थ में नारी के स्वरूप-चित्ररण में परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है । कथन-शैली रोचक और प्रवाह युक्त है । कवि श्रीधर ने ग्रन्थ प्रशस्ति में अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, जिससे उनकी गुरु परम्परा का उल्लेख किया जा सके । किन्तु कवि ने लिखा है कि बलडइ ग्राम के जिनमंदिर में पोमसेण (पद्मसेन) नाम के मुनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे । श्रीधर ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १२०८ (सन् १९५१) में मगरि कृष्णा तृतीया के दिन समाप्त किया है । १० वीं प्रशस्ति 'हरिवंस पुराण' की है, जिसके कर्ता कवि धवल हैं । इस ग्रन्थ में जैनियों के २२ वें तीर्थंकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा श्रंकित की गई है, साथ ही महाभारत के पात्र कौरव और पाण्डव एवं श्रीकृष्ण प्रादि महापुरुषों का भी जीवन चरित्र १२२ संधियों में दिया हुआ है । जिससे महाभारत काल का ऐतिहासिक परिचय सहज ही मिल जाता है। ग्रंथ की रचना प्रधानतः अपभ्रंश भाषा के 'पटिका' और अलिल्लाह' छन्द में हुई है । तथापि उसमें पद्धड़िया, सोरठा, घत्ता, जाति, नाशिनी, विलासिनी और सोमराजी आदि छन्दों का भी स्पष्ट प्रयोग हुआ है । काव्य की दृष्टि से ग्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं । रसों में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यंजक अनेक स्थल दिए हुए हैं। श्रीकृष्ण और कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है । 'महा चंड चित्ता भडा छिण्ण गत्ता, धनुबारणहत्था सकुंता समत्था । पहारंति सूराण भज्जंति धीरा, सरोसा सतोसा सहासा सचासा ॥ - संधि ६०, ४ प्रचण्ड चित्तवाले योद्धाओं के गात्र टूक-टूक हो रहे हैं, और धनुषबारण हाथ में लिए हुए भाल चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु क्रोध, सन्तोष, हास्य और प्राशा से युक्त धीर वीर योद्ध विचलित नहीं हो रहे हैं। युद्ध की भीषणता से युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो मारो की ध्वनि से प्रकाश गूंज रहा है-रय वाला रथवाले की भोर, अश्व वाला अश्व वाले की नोर, और गज गज की ओर दौड़ रहा, धानुष्क वाला धानुष्क वाले की भोर झपट रहा है, वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं १. भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रवाद युगले धर्म मतिः सर्वदा । वैराग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे ॥ सद्दाने व्यसने गुरौ विनयिता प्रोतिर्बुधाः विद्यते, स श्रीमान् जयताजितेन्द्रियरिपुः श्रीमत्कुमाराभिधः । - सुकमा लचरिउ ३–१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना घोड़े हिनहिना रहे हैं और हाथी चिंघाड़ रहे हैं । इस तरह युद्ध का सारा वर्णन ही सजीव है। संसार की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है। 'सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाता है, अत्यधिक धन से क्या किया जाय । राज्य भी धनादि से हीन, और वचे खुचे जनसमूह अत्यधिक दीनतापूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते हैं। सुखी बान्धव पुत्र. कलत्र, मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघ वर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते हैं । जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने-अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, प्रथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते हैं, फिर अपने प्रभीष्ट स्थान को चले जाते हैं। इसी तरह इष्ट प्रियजनों का समागम थोड़े समय के लिए होता है । कभी धन प्राता और कभी दारिद्र य, स्वप्न समान भोग आते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं, जिस यौबन के साथ ज़रा (बुढ़ापे) का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है ? ७ (-संधि ६१-७) ग्रन्थकार का जहां लौकिक वर्णन सजीव है, वहां वीर रस का शान्त रस में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है ग्रंथ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है । इसकी प्रतियां कारंजा जयपुर और दिल्ली के पंचायती मंदिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है। ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है। कवि चक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विशेष के कर्ता, देवनंदी (जैनेन्द्र व्याकरण कर्ता) वज्रसूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महासेन का सुलोचना ग्रन्थ, रविषेण का पद्मचरित, जिनसेन का हरिवंश पुराण, जटिल मुनि का वरांगचरित, दिनकरसेन का अनंगचरित, पद्मसेन का पार्श्वनाथ चरित अंबसेन की अमृताराधना, धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरित ग्रन्थों के रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का णवकार मंत्र, सिद्धसेन का भविक विनोद, रामनंदि के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित)-धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीरचरित, गोविन्दकवि (श्वे०) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्र का जीवउद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढु महाकवि का पउमचरिउ, आदि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। इनमें पद्मसेन (पद्मकीर्ति) और असग कवि दोनों का उल्लेख ग्रन्थ कर्ता के समय को बताने में किञ्चित् सहकारी होते हैं असग कवि का समय सं० ६१० है और पद्मसेन का समय वि० सं० ६६६ है जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय सं० ६EE से पश्चात् वर्ती है । पद्मकीर्ति की एकमात्र कृति पार्श्वनाथ पुराण उपलब्ध है। इन दोनों की रचनाओं का उल्लेख होने से प्रस्तुत धवल कवि का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का पूर्वकाल या मध्यकाल हो सकता है । यद्यपि प्रसग कवि का महावीर १................."हणु हण मारु मारु पभणंतिहि । दलिय धरत्ति रेणुणहि धायउ, लहु पिस लुद्धउलूद्धउ पायउ । रहवउ रहहु गयहु गउ धाविउ, घाणुक्कहु धाणुक्कु परायउ । तुरउ तुरंग कुखग्ग विहत्यउ, असिवक्खरह लग्गुभय चत्तउ । वजहिं गहिर तूर हयहिंमहि, गुलुगुलंत गयवर बहु दोसहि ॥ -संधि ८६-१० २. देखो, हरिवंश पुराण प्रशस्ति । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ जैन पंथ प्रशस्ति संग्रह परीषहों के जीतने में वे उतने ही कठोर थे। वन में समाधिस्थ थे, एक श्यालनी ने अपने बच्चे सहित प्राकर उसके दाहिने पैर को खाना शुरू किया और बच्चेने बायें पैर को उन्होंने उस प्रमित कष्ट को शांतिसे बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए सहन किया और सर्वार्थसिद्धि में देव हुए। ग्रंथ का चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है । कवि ने यह ग्रंथ बलडइ ( अहमदाबाद) गुजरात नगर के राजा गोविन्दचन्द्र के काल में साहूजी के सुपुत्र पुरवाड कुलभूषण कुमार की प्रेरणा से बनाया है । राजा गोबिन्दचन्द्र कौन थे और उन्होंने कितने वर्ष राज्य किया है, यह अभी अज्ञात है। हां, कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के शुरू में संस्कृत पद्यों में कुमार की मंगल कामना की है और बतलाया है कि वे जिनेन्द्रभक्त थे, संसार के देह-भोगों से विरक्त थे, उन्हें दान देने का ही एक व्यसन था और विद्वानों में प्रीति थी, इस तरह वह जितेन्द्रियकुमार जयवन्त रहें और प्रस्तुत ग्रन्थ कवि ने उक्त कुमार के ही नामांकित किया है । कवि ने ग्रन्थ में नारी के स्वरूप-चित्रण में परम्परागत उपमानों का ही प्रयोग किया है। कथन-शैली रोचक और प्रवाह युक्त है । कवि श्रीधर ने ग्रन्थ प्रशस्ति में अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, जिससे उनकी गुरु परम्परा का उल्लेख किया जा सके । किन्तु कवि ने लिखा है कि बलडइ ग्राम के जिनमंदिर में पोमसे (पद्मसेन) नाम के मुनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे । श्रीधर ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १२०८ (सन् १९५१) में मगरि कृष्णा तृतीया के दिन समाप्त किया है । १० वीं प्रशस्ति 'हरिवंस पुराण' की है, जिसके कर्ता कवि धवल हैं। इस ग्रन्थ में जैनियों के २२ वें तीर्थंकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा अंकित की गई है, साथ ही महाभारत के पात्र कौरव और पाण्डव एवं श्रीकृष्ण आदि महापुरुषों का भी जीवन चरित्र १२२ संघियों में दिया हुआ है । जिससे महाभारत काल का ऐतिहासिक परिचय सहज ही मिल जाता है। ग्रंथ की रचना प्रधानतः अपभ्रंश भाषा के 'पटिका' और अलिल्लाह' छन्द में हुई है । तथापि उसमें पद्घड़िया, सोरठा, घत्ता, जाति, नाशिनी, विलासिनी और सोमराजी आदि छन्दों का भी स्पष्ट प्रयोग हुआ है । काव्य की दृष्टि से ग्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं । रसों में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यंजक अनेक स्थल दिए हुए हैं। श्रीकृष्ण और कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है । 'महा चंड चित्ता भडा छिण्ण गत्ता, धनुबारणहत्या सकुंता समत्था । पहारंति सूराण भज्जति धीरा, सरोसा सतोसा सहासा समासा ॥ - संधि १०, ४ प्रचण्ड चित्तवाले योद्धाओं के गात्र टूक-टूक हो रहे हैं, और धनुषबारण हाथ में लिए हुए भाला चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु क्रोध, सन्तोष, हास्य और श्राशा से युक्त धीर वीर योद्धा विचलित नहीं हो रहे हैं । युद्ध की भीषणता से युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो मारो की ध्वनि से आकाश गूंज रहा है— रथ वाला रथवाले की प्रोर, प्रश्व वाला प्रश्व वाले की भोर, श्रौर गजगज की ओर दौड़ रहा, धानुष्क वाला धानुष्क वाले की घोर झपट रहा है, वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं। १. भक्तिर्यस्य जिनेन्द्रपाद युगले धर्म मतिः सर्वदा । वैराग्यं भव-भोगबन्धविषये वांछा जिनेशागमे ॥ सद्दाने व्यसने गुरौ विनयिता प्रीतिर्बुधाः विद्यते, स श्रीमान् जयताज्जितेन्द्रियरिपुः श्रीमत्कुमाराभिषः ।। - सुकमा लचरिउ ३–१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना घोड़े हिनहिना रहे हैं और हाथी चिंघाड़ रहे हैं। । इस तरह युद्ध का सारा वर्णन ही सजीव है। संसार की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है। 'सबल राज्य तत्क्षण नष्ट हो जाता है, अत्यधिक धन से क्या किया जाय । राज्य भी धनादि से हीन, और वचे खुचे जनसमूह अत्यधिक दीनतापूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते हैं। सुखी बान्धव पुत्र, कलत्र, मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघ वर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते हैं । जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने-अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, अथवा जिस प्रकार बहुत से पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते हैं, फिर अपने मभीष्ट स्थान को चले जाते हैं । इसी तरह इष्ट प्रियजनों का समागम थोड़े समय के लिए होता है । कभी धन प्राता और कभी दारिद्रय, स्वप्न समान भोग आते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं, जिस यौबन के साथ ज़रा (बुढ़ापे) का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है ? ७ (-संधि ६१-७) ग्रन्थकार का जहां लौकिक वर्णन सजीव है, वहां वीर रस का शान्त रस में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है ग्रंथ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है । इसकी प्रतियां कारंजा जयपुर और दिल्ली के पंचायती मंदिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है। ग्रंथ की प्राद्य प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है। कवि चक्रवर्ती धीरसेन सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ विशेष के कर्ता, देवनंदी (जैनेन्द्र व्याकरण कर्ता) वज्रसूरि प्रमाण ग्रन्थ के कर्ता, महासेन का सुलोचना ग्रन्थ, रविषेण का पद्मचरित, जिनसेन का हरिवंश पुराण, जटिल मुनि का वरांगचरित, दिनकरसेन का अनंगचरित, पद्मसेन का पार्श्वनाथ चरित अंबसेन की अमताराधना, धनदत्त का चन्द्रप्रभचरित, अनेक चरित ग्रन्थों के रचयिता विष्णुसेन, सिंहनन्दि की अनुप्रेक्षा, नरदेव का रणवकार मंत्र, सिद्धसेन का भविक विनोद, रामनंदि के अनेक कथानक, जिनरक्षित (जिनपालित)-धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक, असग का वीरचरित, गोविन्दकवि(श्वे०) का सनत्कुमारचरित, शालिभद्र का जीवउद्योत, चतुर्मुख, द्रोण, सेढु महाकवि का पउमचरिउ, आदि विद्वानों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। इनमें पद्मसेन (पद्मकीर्ति) और असग कवि दोनों का उल्लेख ग्रन्थ कर्ता के समय को बताने में किञ्चित् सहकारी होते हैं असग कवि का समय सं० ९१० है और पद्मसेन का समय वि० सं० ६६६ है जिससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय सं० ६६E से पश्चात् वर्ती है। पद्यकीर्ति की एकमात्र कृति पार्श्वनाथ पुराण उपलब्ध है। इन दोनों की रचनाओं का उल्लेख होने से प्रस्तुत धवल कवि का समय विक्रम की ११ वीं शताब्दी का पूर्वकाल या मध्यकाल हो सकता है । यद्यपि प्रसग कवि का महावीर १.................."हणु हणु मारु मारु पभणंतिहि । दलिय धरत्ति रेणुणहि घायउ, लहु पिस लुदउलूदउ पायउ ॥ रहवउ रहहु गयहु गउ धाविउ, धाणुक्कहु घाणुक्कु परायउ । तुरउ तुरंग कुखग्ग विहत्थउ, प्रसिवक्खरहु लग्गुभय चत्तउ । बजहिं गहिर तूर हयहिंमहि, गुलुगुलंत गयवर बहु दीसहि ॥ -संधि ८६-१९ २. देखो, हरिवंश पुराण प्रशस्ति । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन ग्रंप प्रशस्ति संग्रह चरित मूलरूप में प्रकाशित नहीं हुमा, और न पनसेन का पार्श्वपुराण ही प्रकाशित हो सका है। प्रतः ये दोनों रचनाएं अपने मूलरूप में प्रकाशित होनी चाहिए। ११वी, १२वीं और १३वीं प्रशस्तियां क्रमशः 'छम्मोवएस', 'पुरंदर विहारणकहा' और 'रोमिपाहचरिउ' की हैं। जिनके कर्ता कवि अमरकीति हैं। प्रस्तुत षट्कर्मोपदेश में १४ संधियां और २१५ कडवक हैं, जो २०५० श्लोक प्रमाण संख्या को लिए हुए हैं । कवि ने इस ग्रंथ में गृहस्थों के षट्कर्मों का-देव पूजा गुरु-सेवा, स्वाध्याय (शास्त्राभ्यास) संयम (इन्द्रियदमन) और षट्-काय (जीव रक्षा) इच्छा निरोध रूप तप, तथा दानरूप षट्-कर्मों का-कथन दिया हुआ है । और उसे विविध कथानों के सरस विवेचन द्वारा वस्तु तत्त्व को स्पष्ट किया गया है। दूसरी से नौवीं संधि तक देव-पूजा का सुन्दर विवेचन दिया गया है, और उसे नूतन कथा रूप दृष्टांतों के द्वारा सुगम तथा ग्राह्य बना दिया गया है । दशवीं संधि में जिन पूजा पुरंदर विधि कथा दी गई है और उसकी विधि बतलाकर उद्यापन विधि को भी अङ्कित किया है। शेष ११ वीं से से लेकर १४वीं संधि तक शेष कर्मों का विवेचन दिया हुआ है। ग्रंथ में कवि ने इससे पूर्ववर्ती अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है। गेमिणाहचरिउ, महावीरचरिउ, जसहरचरिउ, धर्मचरित टिप्पण, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेश चूड़ामणि, और झारणपईव (ध्यान प्रदीप)। कवि ने इस ग्रंथ की रचना गोध्रा' में चालुक्य वंशी राजा वंदिग्गदेव के पुत्र कण्ह या कृष्ण नरेन्द्र के राज्य में संवत् १२४७ के भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन समाप्त की थी। दूसरी प्रशस्ति 'पुरंदरविधान कथा' की है, जो षट्कर्मोपदेश का ही एक अंश है । इस कथा को भी कवि ने अम्बाप्रसाद के निमित्त से बनाया है। प्रस्तुत कथा में पुरंदरव्रत का विधान बतलाया गया है। यह व्रत किसी भी महीने के शुक्ल पक्ष में किया जा सकता है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अष्टमी तक प्रोषधोपवास करना चाहिए । इस व्रत का फल मनोरथ प्राप्ति, दारिद्रय विनाश, धन प्राप्ति और व्यसनादि का परित्याग है। तीसरी कृति 'नेमिनाथ चरित' है ग्रन्थ में २५ सन्धियां हैं जिनकी श्लोक संख्या छह हजार पाठ सौ पच्चारणवे है। इसमें जैनियों के २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का, जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे, जीवन परिचय दिया गया है। इस ग्रंथ को कवि ने संवत् १२४४ में भाद्रपद शुक्लाचतुर्दशी को समाप्त किया था। यह प्रति सं० १५१२ की लिखी हुई है और सोनागिर भट्टारकीय शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। ___ भट्टारक अमरकीर्ति काष्ठासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संध के विद्वान मुनि चन्द्रकीति के शिष्य एवं अनुज थे। इनकी माता का नाम 'चचिणी' और पिता का नाम 'गुणपाल' था । इनकी गुरु परम्परा में अमितगति द्वितीय हुए, जिनका रचना काल सं० १०५० से १०७० है, उनके शिष्य शान्तिषेण हये, शांतिषण के अमरसेन, अमरसेन के श्रीषेण और श्रीषेण के चन्द्रकीति, जिनका समय सं० १२१९ के लगभग है और अमरकीति का संवत् १२४४ से १२४७ । ग्रंथकर्ता ने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में 'महीयडु' देश के गोध्रा नगर में चालुक्य वंशीय कण्ह या कृष्ण का राज्य बतलाया है । उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वंश का राज्य था, जिसकी राजधानी अनहिलवाड़ा थी; परन्तु इतिहास में वंदिगदेव और उनके पुत्र कृष्ण नरेन्द्र का कोई उल्लेख मेरे १. गोध्रा गुजरात का एक छोटा-सा नगर है, जो बड़ौदा से गिरनार जी जाते समय रास्ते में मिलता है। यहां पहले दिगम्बर मन्दिर था अब नहीं है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६७ देखने में नहीं श्राया । उस समय श्रनहिलवाड़ा के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था इनके बाद बघेल वंश की शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठित किया है। इनका राज्य सं० १२३६ से १२३९ तक बतलाया जाता है। संवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय बहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से पूर्व ही चालुक्य वंश की एक शाखा महीकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित होगी, जिसकी राजधानी गोधा थी । इस सम्बन्ध में और भी अन्वेषरण करने की आवश्यकता है जिससे यह पता चल सके कि इस वंश की प्रतिष्ठा गोधा मैं कब हुई' । ये तीनों ही ग्रन्थ अप्रकाशित हैं, उन्हें प्रकाश में लाने का प्रयत्न होना चाहिए। और कवि के अन्य ग्रन्थों की खोज करना जरूरी है । १२वीं प्रशस्ति 'पुरंदरविहारण कहा की है, जिसका परिचय ११ वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है । १३वीं और १८वीं प्रशस्तियाँ 'जिनदत्तचरित' और 'अणुवयरयरणपईव' की हैं। जिनके कर्त्ता कवि लाखू या लक्ष्मण हैं । प्रस्तुत जिनदत्तचरित्र में छह संधियां हैं और जो चार हजार श्लोकों में निबद्ध हैं । जिसमें जीवदेव और जीवंयशा श्रेष्ठी के सुपुत्र जिनदत्त का चरित प्रति है । कवि की यह रचना एक सुन्दर काव्य है । इसमें प्रादर्श प्रेम को व्यक्त किया गया है । कवि काव्य शास्त्र में निष्णात विद्वान् था । ग्रंथ का यमकालंकार युक्त श्रादि मंगल पद्य कवि के पाण्डित्य का सूचक है । सप्पय-सर- कलहंस हो, हियकलहंस हो, कलहंस हो सेयं सवहा । भमि भुवरण कलहंस हो, गविवि जिरण हो जिरायत्त कहा ।। अर्थात् - 'मोक्ष रूपी सरोवर के मनोज्ञ हंस, कलह के अंश को हरने वाले, करिशावक ( हाथी के बच्चे) के समान उन्नत स्कंध और भुवन में मनोज्ञ हंस, श्रादित्य के समान जिनदेव की वंदना कर जिनदत्त की कथा कहता हूँ ।' ग्रंथ कर्त्ता ने इस ग्रंथ में विविध छन्दों का उपयोग किया है। ग्रंथ की पहली चार संघियों में कवि ने मात्रिक और वर्णवृत्त दोनों प्रकार के निम्न छन्दों का प्रयोग किया है - विलासिरणी, मदनावतार, चित्तंगया, मोत्तियदाम, पिंगल, विचित्तमणोहरा, श्रारणाल, वस्तु, खंडय, जंभेट्टिया, भुजंगप्पयाउ, सोमराजी, सग्गिणी, पमारिया, पोमणी, चच्चर, पंचचामर, गराच, तिभं गिरिणया, रमणीलता, समाणिया, चित्तया भमरपय, मोरणय, और ललिता श्रादि । इन छन्दों के अवलोकन से यह स्पष्ट पता चलता है कि अपभ्रंश कवि छन्द विशेषज्ञ होते थे । प्रस्तुत चरित्र में मगध राज्यान्तर्गत वसन्तपुर नगर के राजा शशिशेखर और उसकी रानी मयना सुन्दरीके कथनके अनन्तर उस नगरके श्रेष्ठी जीवदेव और जीवंयशाके पुत्र जिनदत्त का चरित्र अङ्कित किया गया है । वह क्रमश: बाल्यावस्था से युवावस्था को प्राप्त कर अपने रूप-सौंदर्य से युवति-जनों के मन को मुग्ध करता है - और अङ्ग देश में स्थित चम्पानगर के सेठ की सुन्दर कन्या विमलमती से उसका विवाह हो जाता है । विवाह के पश्चात् दोनों वसन्तपुर ग्राकर सुख से रहते हैं । 14 जिनदत्त जुआरियों के चंगुल में फंसकर ग्यारह करोड़ रुपया हार गया । इससे उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने अपनी धर्मपत्नी की हीरा -माणिक श्रादि जवाहरातों से प्रति कंचुली को नौ करोड़ रुपये में जुआरियों को बेच दिया। जिनदत्त ने धन कमाने का बहाना बनाकर माता-पिता से चम्पापुर जाने । और कुछ दिन बाद धर्मपत्नी को अकेली छोड़ जिनदत्त दशपुर ( मन्दसौर) या गया । 8. History of Gujrat in Bombay Gageteer Vol I श्राज्ञा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह वहां उसकी सागरदत्त से भेंट हुई। सागरदत्त उसी समय व्यापार के लिये विदेश जाने वाला था, अवसर देख जिनदत्त भी उसके साथ हो गया और वह सिंहल द्वीप पहुंच गया। वहां के राजा की पुत्री श्रीमती का विवाह भी उसके साथ हो गया। जिनदत्त ने उसे जैनधर्म का उपदेश दिया। जिनदत्त प्रचुर धनादि सम्पत्ति को साथ लेकर स्वदेश लौटता है, परन्तु सागरदत्त ईर्षा के कारण उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता है और स्वयं उसकी पत्नी से राग करना चाहता है । परन्तु वह अपने शील में सुदृढ़ रहती है । वे चम्पा - नगरी पहुंचते हैं श्रौर श्रीमती चम्पा के 'जिन चैत्य' में पहुंचती है। इधर जिनदत्त भी भाग्यवश बच जाता है और मरिणद्वीप में पहुंचकर वहां के राजा अशोक की राजकुमारी शृङ्गारमती से विवाह करता है । कुछ दिन बाद सपरिवार चम्पा श्रा जाता है। वहां उसे श्रीमती और विमलमती दोनों मिल जाती हैं । वहां से वह सपरिवार वसंतपुर पहुंचकर माता-पिता से मिलता है । वे उसे देखकर बहुत हर्षित होते हैं। इस तरह जिनदत्त अपना काल सुखपूर्वक बिताता है। अंत में मुनि होकर तपश्चरण द्वारा कर्म, बंधन का विनाशकर पूर्ण स्वाधीन हो जाता है । कवि ने इसमें काव्योचित अनुप्रास, अलंकार और प्राकृतिक सौंदर्य का समावेश किया है । किन्तु भौगोलिक वर्णन की विशेषता भोर शब्द योजना सुंदर तथा श्रुति-सुखद है' | कवि ने अपने से पूर्वर्ती अनेक जैन- जैनेतर कवियों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है - अकलंक, चतुर्मुख, कालिदास, श्रीहर्ष, व्यास, द्रोण, बारण, ईशान, पुष्पदंत, स्वयंभू प्रौर वाल्मीकि । ' एक दिन अवसर पाकर श्रीधर ने लक्ष्मरण से कहा कि हे कविवर तुम जिनदत्तचरित्र की रचना करो, तब कवि ने श्रीधर श्रेष्ठी की प्रेरणा एवं अनुरोध से जिनदत्तचरित्र की रचना की हैं। और उसे वि० सं० १२७५ के पूसवदी षष्ठी रविवार के दिन बनाकर समाप्त किया था । दूसरी कृति 'अणुवयरयरणपईव' है, जिसमें ८ संधियां और २०६ पद्धडिया छन्द हैं, जिनकी श्लोक संख्या ३४०० के लगभग है। ग्रंथ में सम्यग्दर्शन के विस्तृत विवेचन के साथ श्रावक के द्वादश व्रतों का कथन किया गया है। श्रावकधर्म की सरल विधि और उसके परिपालन का परिणाम भी बतलाया गया है । ग्रंथ की रचना सरस है । कवि ने इस ग्रंथ को 8 महीने में बनाकर समाप्त किया है । . कवि ने प्रस्तुत ग्रंथ की रचना रायवद्दिय नगर में निवास करते हुए की थी, वहां उस समय चौहान वंश के राजा ग्राहवमल्ल राज्य करते थे । उनकी पट्टरानी का नाम ईसरदे था, ग्राहवमल्ल ने तात्कालिक मुसलमान शासकों से लोहा लिया था और उसमें विजय प्राप्त की थी। किसी हम्मीर वीर ने उनकी सहायता भी की थी । कवि के श्राश्रयदाता कण्ह का वंश 'लम्बकंचुक या लमेचू' था । इस वंश में 'हल्ला' नामक श्रावक नगर श्रेष्ठी हुए, जो लोकप्रिय और राजप्रिय थे । उनके पुत्र अमृत या श्रमयपाल थे जो राजा अभय पाल के प्रधान मंत्री थे । उन्होंने एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसकी शिखर पर सुवर्ण कलश १. णिक्कलंकु प्रकलंकु चउम्मुहो, कालिदासु सिरिहरिसु कयसुहो । वत्र विलासु कइवासु प्रसरिसो, दोणु वाणु ईसाणु सहरिसो । पुप्फयंत सुसयंभु भल्लउ, वालमीउ समदं सुरमिल्लउ । - जिणदत्तचरित, १-६ २. राजा ग्राहवमल्ल की वंश पम्परा चन्द्रवाड नगर से बतलाई गई है। चौहान वंशी राजा भरतपाल उनके पुत्र भ्रभयपाल । उनके जाहड, उनके श्री बल्लाल के माहवमल्ल हुए। इनके समय में राजधानी 'रायaft' या रायभा हो गई थी। चन्द्रवाड और रायवद्दिय दोनों ही नगर यमुनातट पर बसे हुये थे । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ક્ર चढ़ाया था । उनके पुत्र साहू सोढु थे, जो जाहड नरेन्द्र और उनके पश्चात् श्रीवल्लाल के मंत्री बने। इनके दो पुत्र थे । रत्नपाल और कण्हड । इनकी माता का नाम, मल्हादे' था । रत्नपाल स्वतन्त्र भौर निरर्गल प्रकृति के थे । किन्तु उनका पुत्र शिवदेव कला और विद्या में कुशल था। जो अपने पिता की मृत्यु के बाद नगर सेठ के पद पर आरूढ़ हुआ था । और राजा श्राहवमल्ल ने अपने हाथ से उसका तिलक किया था । कण्हड (कृष्णादित्य) उक्त राजा ग्राहवमल्ल के प्रधान मंत्री थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम 'सुलक्षणा' था, वह बड़ी उदार धर्मात्मा पतिभक्ता और रूपवती थी। इनके दो पुत्र हुए। हरिदेव श्रौर द्विजराज । इन्हीं प्रस्तुत कह की प्रार्थना से कवि ने इस ग्रंथ को वि० सं० संवत् १३१३ कार्तिक कृष्णा ७ सप्तमी गुरुवार के दिन पुष्यनक्षत्र और साहिज्ज योग में समाप्त किया था । कवि ने प्रशस्ति में कृष्णादित्य के परिवार का अच्छा परिचय दिया है। कवि-परिचय कवि लक्ष्मण जायव जादव या जायस कुल में उत्पन्न हुआ था। इनके प्रपिता का नाम कोतवाल था, जिनके यश से दिकचक्र व्याप्त था । उनके सात पुत्र थे, अल्हरण, गाहल, साहुल, सोहण, मइल्ल, रतन और मदन । ये सातों ही पुत्र कामदेव के समान सुन्दर रूप वाले और महामति थे । इनमें से कवि के पिता साहुल श्रेष्ठी थे । ये सातों भाई और कवि लक्ष्मण अपने परिवार के साथ पहले त्रिभुवनगिरि या तहनगढ़ के निवासी थे। उस समय त्रिभुवनगिरि जन-धन से समृद्ध तथा वैभव से युक्त था; परन्तु कुछ समय वाद त्रिभुवनगिरि की समृद्धि विनष्ट हो गई थी - उसे म्लेच्छाधिप मुहम्मदगोरी ने बल पूर्वक घेरा डालकर नष्ट-भ्रष्ट कर आत्मसात् कर लिया था । श्रतः कविवर लक्ष्मण त्रिभुवनगिरि से भागकर यत्र-तत्र भ्रमण करते हुए 'बिलरामपुर' में श्राये । यह नगर आज भी अपने इसी नाम से एटा जिले में वसा हुआ है । उस १. यादव, जायन या जायस अथवा यदुकुल एक क्षत्रिय कुल है। यदुकुल ही यादव कहलाता था, बिगड़ कर वही जायव या जायस बन गया है। यह प्रसिद्ध क्षत्रिय वंश है, इसी कुल में श्रीकृष्ण और नेमिनाथ तीर्थकर का जन्म भी हुआ था। इस कुल में जैनधर्म के धारक अनेक श्रेष्ठी श्रौर विद्वान, राजा, मंत्री प्रादि हुए हैं। वर्तमान में यह क्षत्रिय वंश वैश्य कुल में परिवर्तित हो गया है । २. यह स्थान वयाना से १४ मील और करोली से उत्तर-पूर्व २४ मील की दूरी पर अवस्थित है । इसे तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि के नाम से उल्लेखित किया जाता था; क्योंकि इसे त्रिभुवनपाल नाम के राजा ने बसाया था। जो सूरसेन वंश का था, यह त्रिभुवनगढ़ ही अपभ्रष्ट होकर बाद में 'तहनगढ़' कहा जाने लगा । त्रिभुवनपाल के पिता का नाम 'तहनपाल' था, जिसका समय १०४३ ईस्वी था और उसके पुत्र त्रिभुवनपाल या तहनपाल का समय सन् १०७५ हो सकता है। जिस तरह पिता ने विजयगढ़ ( वयाना) या श्रीपथ वसाया था उसी प्रकार पुत्र ने तहनगढ़ या त्रिभुवनगिरि वसाया था । मुहम्मद गौरी ने इस पर सन् ११६६ (वि० सं० १२५३) में अधिकार किया था। मुसलमानी तवारीख 'जुलमासीर में हसन निजामी ने लिखा है कि हिजरी सन् ५७२ (वि०सं० १२५२ ) में मुहम्मदगौरी ने तहनगढ़ पर प्राक्रमण कर अधिकार कर लिया था । उस समय वहां कुमारपाल नाम का राजा राज्य करता था । कुमारपाल सं० १२१० या १२११ के प्रास-पास गद्दी पर बैठा था । जब गौरी ने इसे अधिकृत किया तब वहाँ के निवासी हिन्दु सभ्य परिवार नगर छोड़कर यत्र-तत्र भाग गए। उनके साथ जैनी लोग भी भाग गए। उस समय यह नगर प्रत्यधिक सम्पन्न था, और वहाँ पर मूर्तिपूजा का बड़ा जोर था । अतः यहाँ बड़ा अन्याय एवं प्रात्याचार किया गया। गौरी ने यहां का शासक वहरुद्दीन तुमरीन या Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह 1 समय बिलरामपुर में सेठ विल्हरण के पौत्र और जिनघर के पुत्र श्रीधर निवास करते थे। इन्होंने कवि को मकान आदि की सुविधा प्रदान की । यह कविवर के परम मित्र बन गए। साहू विल्हरण का वंश प्रा या पुरवा था, और श्रीधर उस वंशरूपी कमलों को विकसित करनेवालें सूर्य थे । और इस तरह क वर उनके प्रेम और सहयोग से वहां सुखपूर्वक रहने लगे। वहां कुछ समय बिताने के पश्चात् वे चौहानवं राजा अभयपाल की राजधानी 'रायवद्दिय' रपरी या रायभा में प्राकर रहे और वहां अभ पाल के प्रधान मंत्री कृष्णादित्य की प्रेरणा से सं० १३१३ में 'अणुवय रयरणपईब की रचना की । क अपने इतने लम्बे जीवन में अन्य कितनी रचनाएं रचीं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अन्वेषण करने कवि की अन्य रचनाओं का भी पता चल सकेगा । ७० तुरारिक को नियुक्त किया था। नगर व्यापारियों से रिक्त हो गया था । अतएव जगह-जगह से बड़ेव्यापारियां को बुलाया गया था। खुरासान से भी लोग वसने को प्राये थे । प्रस्तुत ग्रंथकर्ता और उन परिवार भागकर बिलरामपुर जिला एटा में प्राये । वहां के निवासी सेठ विल्हण के पौत्र भौर जिन के पुत्र श्रीधर सेठ ने इन्हें ठहरने के लिए मकान दिया। कवि ने जिनदत्तचरित्र में त्रिभुवनगिरि विनष्ट होने का उल्लेख सं० १२७५ में किया है किन्तु त्रिभुवनगिरि के विनाश का समय 1196 A. (वि० सं० १२५३ है । इससे स्पष्ट है कि कवि सं० १२५३ में वहां से भागे थे । - देखो, प्राकिलाजिकल सर्वे रिपोर्ट भा० २० श्वेताम्बरीय खरतरगच्छ की प्रधान गुर्वावली में भी त्रिभुवनगिरि का उल्लेख है और जिनदत्तसूरि द्व कुमारपाल राजा को सम्बोधित करने तथा वहां के शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया घटना को सं० १२०३ से पूर्व की बतलाया है। साथ ही सं० १२०३ में अजमेर में फाल्गुन सुदी ६ दिन दीक्षित जिनचन्दसूरि सं० १२१४ में त्रिभुवनगिरि पधारे और वहां उनके द्वारा शान्तिनाथ मन्दिर सुवर्णदण्ड, कलश और ध्वजारोपणादि कार्यों का उल्लेख किया है, गणिनी हेमदेवी को प्रवत्तिनी प्रदान करने का भी निर्देश है। ( ततस्त्रिभुवनगिरी, प्रतिबोधितस्तत्र कुमारपालो नाम राजा । कुतर प्रचुरतर यतिजन विहारः । प्रतिष्ठितो भगवान् शान्तिनाथ देवः । ततः सः ( जिनदत्तसूरि सं० १२ अजयमेरी फाल्गुन सुदी ६ जिनचन्द्रसूरि दीक्षा) । - ( खतरगच्छ युग प्रधान गुर्वावली पृ० १६ - २ सं० १२१४ श्री जिनचन्द्रसूरिभिस्त्रिभुवनगिरी श्री शान्तिनाथ शिखरे सज्जनमनोमन्दिर प्रमोदारोपणा सौवर्णदण्ड कलश ध्वजारोपणं महता विस्तरेण कृत्वा हेमदेवी गणिन्या प्रवर्तिनी पदं दत्वा... । — खरतर गच्छयुगप्रधान गुर्वावली पृ० २० ये सब उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से चिन्त्यनीय हैं। क्योंकि गुर्वावली के अनुसार कुमारपाल का राजा होना सं० १२०३ से पूर्ववर्ती है । अतः उसके सम्बोधन की घटना सं० १२०३ से पहले की है। पूर्वार्ध में उसकी समृद्धि पुनः इसके पश्चात् भी त्रिभुवनगिरि सम्पन्न हो गया जान पड़ता है। संम्भव है वहाँ पुनः उस वंश का शा हो गया हो । विक्रम की १३ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में या १४ वीं के गई थी और वहाँ अनेक जैनमुनि और विद्वान निवास करने लगे थे। माथुरसंघ के विद्वान उदयमुनि प्रशिष्य और भ० बालचन्द्र मुनि के शिष्य विनयचन्द्र ने कुमारपाल के भतीजे प्रजयपाल नरेश के विहा बैठकर चुनड़ी रास बनाया था और उसकी स्वोपज्ञ टीका भी रची थी। उन्होंने उसी नगर की तल में बैठकर 'निर्भर पंचमी कथारास' का भी निर्माण किया था। इससे स्पष्ट है कि मुसलमान शासकं समय में भी जैन विद्वान अपने साहित्य की श्री वृद्धि करते रहे हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १४ वीं प्रशस्ति 'सुलोयणाचरिउ' की है, जिसके कर्ता गणिदेवसेन हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की २८ धियों में भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार की धर्मपत्नी सुलोचना का, जो हस्तिनापुर के राजा अकपन और सुप्रमा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है । सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी, इसके स्वयंवर में अनेक देशों के बड़े-बड़े राजागण आए थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए । उनका हृदय विक्षब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे । स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना । परिणाम स्वरूप चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति क्रुद्ध हो उठा, और उसने इसमें अपना अपमान समझा। अपने अपमान का बदला लेने के लिए अर्ककीर्ति और जय में युद्ध होता है और अन्त में जय की विजय होती है। उस युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है भडो को वि खग्गेण खग्गं खलंतो, रणे सम्मुहे सम्मुहो पाहणंतो। भडो को वि वारणेण वाणो दलंतो, समुद्धाइ उदुद्धरो णं कयंतो। भडो को वि कोंतेण कोंतं सरंतो, करे गाढ चक्को अरी सं पहुंतो। भडो को वि खंडेहिं खंडी कयंगो, लड़त्तं ण मुक्को सगा जो अहंगो। भडो को वि संगाम भूमि घुलंतो, विवण्णोह गिद्धवली पोयअंतो। भडो को वि धाएण रिणव्वट्टि सीसो, असिवावरेई अरीसाण भीसो॥ भडो को वि रत्तप्पवाहे तरंतो, तप्पएरणं तडि सिग्घ पत्तो। भडो को वि मुक्का उहे वन्न इत्ता, रहे दिण्णयाउ विवरणोह इत्ता ॥ भडो को वि इत्थी विसाणेहि भिण्णो, भडो कोवि कंठोट छिण्णो णिसण्णो ।। घत्ता-तहिं अवसरि णिय सेण्णु पेच्छिबि सर जज्जरियउ । धावइ भुयतोलंतु जउ बकु मच्छर भरियउ॥ ६-१२ युद्ध के समय सुलोचना ने जो कुछ विचार किया था, उसे ग्रंथकार ने गूंथने का प्रयत्न किया है। सुलोचना को जिन मन्दिर में बैठे हुए जब यह मालूम हुआ कि महंतादिक पुत्र, बल और तेज सम्पन्न पांच सो सैनिक शत्र पक्ष ने मार डाले हैं, जो तेरी रक्षा के लिए नियुक्त किये गये थे। तब वह अपनी आत्म-निंदा करती हई विचार करती है कि यह संग्राम मेरे कारण ही हुआ है जो बहुत से सैनिकों का विनाशक है। प्रतः मुझे ऐसे जीवन से कोई प्रयोजन नहीं। यदि युद्ध में मेघेश्वर (जयकुमार) की जय हो और मैं उन्हें जीवित देख लंगी तभी शरीर के निमित्त आहार करूंगी। इससे स्पष्ट है कि उस समय सुलोचना ने अपने पति की जीवन-कामना के लिए आहार का भी परित्याग कर दिया था। इससे उसके पातिव्रत्य का उच्चादर्श सामने आता है । यथा इमं जंपिऊणं पउत्तं जयेणं, तुमं एह कण्णा मनोहार वण्णा । सुरक्खेह गुणं पुरेणेह ऊणं, तउ जोइ लक्खा प्रणेया असंखा । सुसत्था वरिण्णा महं दिक्ख दिण्णा, रहा चारु चिंधा गया जो मयंधा। महंताय पुत्ता बला-तेय जुत्ता, सया पंच संखा हया वैरि-पक्खा । पुरीए णिहाणं वरं तुंग गेहं, फुरतीह पीलं मणीलं करालं । पिया तत्थ रम्मो वरे चित्त कम्मे, परंभीय चिंता सुउ हुल्लवत्ता। रिणयं सोययंती इणं चिंतवंती, अहं पाव-यम्मा अलज्जा अधम्मा। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह महं कज्ज एवं रणं अज्ज जायं,.... बहूणं गराणं विणासं करेणं, महं जीविएणं ण कज्ज प्रणेणं । जया हंसताउ स-मेहेसराई, सहे मंगवाई इमो सोमराई । घत्ता-ए सयलवि संगामि, जीवियमाण कुमार हो । पेच्छमि होइ पवित्ति, तो सरीर पाहार हो। इस तरह ग्रंथ का विषय और भाषा सुन्दर है। प्रस्तुत ग्रंथ एक प्रामाणिक कृति है; क्योंकि इसे कवि ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के सूलोचनाचरित (प्राकृत गाथा बद्ध) का पद्धड़िया आदि छन्दों में अनुवाद मात्र किया है। ग्रंथ गत चरित भाग बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि जयकुमार और सुलोचना का चरित स्वयं ही पावन रहा है। कवि ने इस काव्य-ग्रन्थ का निर्माण राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन किया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती बाल्मीकि व्यास, श्रीहर्ष, कालिदास, बाण, मयूर, हलिय, गोविन्द, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदंत और भूपाल नामक कवियों का उल्लेख किया है । ग्रन्थ कर्ता ने ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है। वे निबडिदेव के प्रशिष्य और विमलसेन गणधर के शिष्य थे। इस ग्रन्थ की रचना मम्मलपुरी में हुई है। राक्षस सम्वतसर साठ सम्बतों में ४६ वां है । ज्योतिष की गणनानुसार एक राक्षस सम्वतसर १०७५ A. D. वि० सं० ११३२ २६ जुलाई को श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। दूसरा सन् १९३५ (वि० सं० १३७२) में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी और बुधवार पड़ता है। इन दोनो समयों में २४० वर्ष का अन्तर है । इनमें पहला समय (वि० सं० ११३२) ही इस ग्रन्थ की रचना का सूचक ज्ञात होता है, ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। १५वीं प्रशस्ति 'पजुष्णचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि सिद्ध और सिंह हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ एक अप्रकाशित खण्ड काव्य है । जिसमें १५ सन्धियां हैं और जिनकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार से कम नहीं है। इसमें यदुवंशी श्रीकृष्ण के सुपुत्र प्रद्युम्नकुमार का जीवन-परिचय गुंफित किया गया है, जो जैनियों में प्रसिद्ध २४ कामदेवों में से २१वें थे और जिन्हें उत्पन्न होते ही पूर्व जन्म का वैरी एक राक्षस उठाकर ले जाता है और उसे एक शिला के नीचे रख देता है। पश्चात् कालसंवर नाम का एक विद्याधर उसे ले जाता है और उसे अपनी पत्नी को सौंप देता है। वहां उसका लालन-पालन होता है तथा वहां वह अनेक प्रकार की कलाओं की शिक्षा पाता है । उसके अनेक भाई भी कलाविज्ञ बनते हैं, परन्तु उन्हें इसकी चतुरता रुचकर नहीं होती, उनका मन भी इससे नहीं मिलता, वे उसे अपने से दूर करने अथवा मारने या वियुक्त करने का प्रयत्न करते हैं । पर पुण्यात्मा जीव सदा सुखी और सम्पन्न रहते हैं। अतएव वह कुमार भी उनसे सदा विजयी रहा। बारह वर्ष के बाद कुमार अनेक विद्याओं और कलाओं से संयुक्त होकर वैभव सहित अपने माता-पिता से मिलता है। उस समय पुत्र-मिलन का दृश्य बड़ा ही करुणजनक और दृष्टव्य है। वह वैवाहिक बन्धन में बद्ध होकर सांसारिक सुख भी भोगता है और भगवान नेमिनाथ द्वारा यह जानकर कि १२ वर्ष में द्वारावती का विनाश होगा, तब भोगों से विरक्त हो दिगम्बर साधु हो जाता है और तपश्चरण कर पूर्ण स्वातन्त्र्य प्राप्त करता है। इसी से कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थ चतुष्टय से भूषित बतलाया है । ग्रन्थ की भाषा में स्वाभाविक माधुर्य और पद लालित्य है ही। रस अलंकार और अनेक छन्द भी उसकी सरसता में सहायक हैं । ग्रंथ-प्रशस्ति का अध्ययन करने से यह स्पष्ट प्रतिभाषित होता है कि इस ग्रंथ के दो रचयिता विद्वान् जान पड़ते हैं। उनमें ग्रंय की प्रथम रचना करने वाले विद्वान् का नाम सिद्ध कवि है। जो पंपाइय Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७३ और देवरण का पुत्र था । उसका यह ग्रन्थ किसी तरह खंडित हो गया था और उसी अवस्था में कवि सिंह को प्राप्त हुआ और सिंह कवि ने उसका समुद्धार किया था । कवि सिद्ध ने यह ग्रंथ कब रचा, यह प्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता । समुद्धारक सिंह कवि ने भी उसका समय नहीं दिया, परन्तु वह अन्य प्रमारणों से निश्चित हो जाता है । कवि सिंह ने ग्रन्थ को विविध छन्दों में गूंथ कर उसे और भी सरस तथा मनोहर बना दिया है । कवि स्वयं प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और देशी इन चार भाषाओं में निपुरण था और उसका कुल गूजर था । यह एक प्रतिष्ठित कुल है जिसमें अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हो चुके हैं । कवि के पिता का नाम 'बुध रल्हरण' था' । और वह प्राकृत संस्कृत रूप भाषाद्वय में निपुण थे— कवि के पिता विद्वान् थे, भोर संभवतः उन्होंने भी कोई ग्रन्थ बनाये हों, पर वे अभी उपलब्ध नहीं हैं। माता का नाम जिनमती था, जो शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी । कवि के तीन भाई और भी थे, जिनका नाम शुभंकर, गुरणप्रवर और साधारण या । ये तीनों भाई धर्मात्मा और सुन्दर शरीर वाले थे । कवि सिंह ने इस ग्रन्थ को अन्य किसी की सहायता के बिना ही बनाया था, उसने अपने को भवभेदन में समर्थ, शमी तथा कवित्व के गर्व सहित प्रकट किया है । कविता करने में जिसकी कोई समानता न कर सके ऐसा असाधारण काव्य - प्रतिभावाला विद्वान् व्यक्त किया है। साथ ही वस्तु के सार-प्रसार के विचार करने में सुन्दर बुद्धिवाला, समीचीन, विद्वानों में अग्रणी, सर्व विद्वानों की विद्वता का सम्पादक, सत्कवि था, उसी ने आनन्दप्रद इस काव्य-ग्रन्थ का निर्माण किया है। १. "पुण पंपाइय देवण गंदणु, भवियण जणयणणयणानंदणु । बुहयण जणपय पंकय छप्पर, भणइ 'सिद्ध' पणमिय परमप्पउ || " X X X २. कइ सिद्ध हो विरयंत हो विगासु, संपत्तउ कम्मवसेण तासु ।' 'पर क परवव्वं विहडंतं जेहि उद्धरियं । - पज्जुण्णचरिउ प्रशस्ति ३. जातः श्री निजधर्मकर्मनिरतः शास्त्रार्थं सर्वप्रियो, भाषाभिः प्रवणश्चतुभिरभवच्छ्री सिंहनामा कविः । पुत्रो रल्हण पंडितस्य मतिमान् श्री गुर्जरागोमिह दृष्टि - ज्ञान - चरित्र भूषिततनुवंशे विशालेऽवनी ॥ पञ्जुण्णचरिउ की १३वीं संधि के प्रारंभ का पद्य । ४. 'साहाय्यं समवाप्य नात्र सुकवेः प्रद्युम्नकाव्यस्य यः' कर्ताऽभूद् भवभेदनैकचतुरः श्री सिंहनामा शमी साम्यं तस्य कवित्व सहितः को नामजातोऽवनो श्रीमज्जैन मतप्रणीत सुपथे सार्थः प्रवृत्तेः क्षमः || ” 'सारासारविचारचारुधिषणः सद्धीमतामप्रणी जतः सत्कविरत्रसर्वविदुषां वैदुष्य संपादकः । येनेदं चरितं प्रगल्भमनसा शांतः प्रमोदास्पदं, प्रद्युम्नस्य कृतं कृतीवतां जीयात् स सिंहः क्षितौ ।' - चौदहवीं संधि के अन्त में - वीं संधि के अन्त में Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह साथ ही कवि ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को छंद अलङ्कार और व्याकरण शास: से अनभिज्ञ, तर्कशास्त्र को नहीं सुनने वाला और साहित्य का नाम भी जिसके कर्णगोचर नहीं हुअा, इतन तक व्यक्त किया है और लिखा है कि ऐसा कवि सिंह सरस्वती देवी के प्रसाद को प्राप्त कर सत्कवियों। अग्रणी मान्य तथा मनस्वी प्रिय हुआ है। गुरु परम्परा कविवर सिंह के गुरु मुनि पुङ्गव भट्टारक अमृतचन्द्र थे, जो तप, तेजरूपी दिवाकर, और व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर (समुद्र) थे। तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने परमत को झंकोलित कर दिय या-डगमगा दिया था जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे, जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के प्रागे काम देव दूर से ही वंकित (खंडित) होने की आशंका से मानो छिप गया था-वह उनके समीप नहीं पा सकत' था-इससे उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्रस्तुत भट्टारक अमृतचंद्र उन प्राचार्य अमृतचंद्र से भिन्न हैं, जो प्राचार्य कुंदकुन्द के समयसारादि प्राभृतत्रय के टीकाकार और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय आदि ग्रंथों के रचयिता थे। वे लोक में 'ठक्कुर' उपनाम से प्रसिद्ध थे । इनकी समस्त रचनाओं का जैन समाज में बड़ा समादर है। यह विक्रम की दशवीं शताब्दी के विद्वान थे। उनकी गुरु परम्परा यद्यपि प्रज्ञात है। परन्तु पट्टावली में उनका समय सं० ६६२ दिया हुआ है, वह प्रायः ठीक जान पड़ता है। किन्तु उक्त भट्टारक अमृतचंद्र के गुरु माधवचंद्र थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कषायों के विजेता थे और जो उस समय 'मलधारी देव' के नाम से प्रसिद्ध थे, और यम तथा नियम से सम्बद्ध थे। 'मलधारी' एक उपाधि थी जो उस समय के किसी-किसी साधु सम्प्रदाय में प्रचलित थी। इस उपाधि के धारक अनेक विद्वान् प्राचार्य हो गए हैं । वस्तुतः यह उपाधि उन मुनि पुंगवों को प्राप्त होती थी, जो दुर्धर परिषहों, विविध घोर उपसर्गों और शीत-उष्ण तथा वर्षा की वाधा सहते हुए भी कभी कष्ट का अनुभव नहीं करते थे। और पसीने से तर-बतर शरीर होने पर धूलि के कणों के संसर्ग से मलिन शरीर को साफ न करने तथा पानी से धोने या नहाने जैसी घोर बाधा को भी हंसते हुए सह लेते थे। ऐसे ऋषि पुंगव ही उक्त उपाधि से अलंकृत किए जाते थे। ५. 'छन्दोऽलंकृति-लक्षणं न पठितं नानावि तर्कागमो, जातं हंत न कर्ण गोचरचरं साहित्यनामाऽपि च । सिंहः सत्कविरग्रणीः समभवत् प्राप्य प्रसादं परं, वाग्देव्याः सुकवित्वजातयशसा मान्यो मनस्विप्रियः ॥' ६. तासु सीसु तव-तेय-दिवायरु, वय-तव-णियम-सील-रयणाया। तक्क-लहरि-झकोलिय-परमउ, वर वायरण पवर पसरिय पउ । जासु भुवण दूरंतर वकिवि, दिढ़ पच्छण्णु मयणु प्रासंकिवि । अभयचंद नामेण भडारउ, सो विहरंतु पत्तु बुह सारउ ॥ -पज्जुण्णचरिउ प्रशस्ति ७. देखो, 'अमृतचंद्र का समय' शीर्षक मेरा लेख, अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना समय यद्यपि ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, फिर भी अन्य प्रमाणों के आधार पर ग्रन्थ का रचना समय बतलाने का प्रयत्न किया जाता है। ग्रंथ प्रशस्ति में 'बम्हणवाड' नगर का वर्णन करते हुए लिखा है कि उस समय वहां रणधोरी या रणधीर का पुत्र बल्लाल था जो अर्णोराजका क्षय करने के लिए कालस्वरूप था और जिसका मांडलिक भृत्य अथवा सामन्त गुहिलवंशीय क्षत्रीय भुल्लण उस समय बम्हरणवाडका शासक था' । परन्तु इस उल्लेख पर से उक्त राजाओं का राज्यकाल ज्ञात नहीं होता । अतः उसे अन्य साधनों से जानने का प्रयत्न किया जाता है। मंत्री तेजपाल के प्राबू के लूणवसति गत सं० १२८७ के लेख में मालवा के राजा बल्लाल को यशोधवल के द्वारा मारे जाने का उल्लेख है । यह यशोधवल विक्रमसिंह का भतीजा था और उसके कैद हो जाने के बाद गही पर बैठा था। यह कमारपाल का मांडलिक सामन्त अथवा भृत्य था, मेरे इस कथन की पुष्टि अचलेश्वर मंदिर के शिलालेख गत निम्न पद्य से भी होती है "तस्मान्मही...."विदितान्यकलत्रपात्र, स्पर्शो यशोधवल इत्यवलम्बते स्म । यो गुर्जरक्षितिपतिप्रतिपक्षमाजौ, बल्लालमालभत मालवमेदिनींद्रम् ॥" यशोधवल का वि० सं० १२०२ (११४५ A.D.) का एक शिलालेख अजरी गांव से मिला है जिसमें 'प्रमारवंशोद्भवमहामण्डलेश्वरश्रीयशोधवलराज्ये' वाक्य द्वारा यशोधवल को परमारवंश का मण्डलेश्वर सूचित किया है । यशोधवल रामदेव का पुत्र था, इसकी रानी का नाम सौभाग्यदेवी था। इसके दो पुत्र थे, जिनमें एक का नाम धारावर्ष और दूसरे का नाम प्रह्लाददेव था। इनमें यशोधवल के बाद राज्य का उत्तराधिकारी धारावर्ष था । वह बहुत ही वीर और प्रतापी था, इसकी प्रशंसा वस्तुपाल-तेजपाल प्रशस्ति के ३६वें पद्य में पाई जाती है ? धारावर्ष का सं० १२२० का एक लेख 'कायद्रा' गांव के बाहर, काशी, विश्वेश्वर के मंदिर से प्राप्त हुआ है । यद्यपि इसकी मृत्यु का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिला, फिर भी उसकी मृत्यु उक्त सं० १२२० के समय तक या उसके अन्तर्गत जानना चाहिये। जब कुमारपाल गुजरात की गद्दी पर बैठा, तब मालवा का राजा बल्लाल, चन्द्रावती का परमाल विक्रमसिंह और सपादलक्ष (सांभर) का चौहान अर्णोराज ये तीनों राजा परस्पर में मिल गये और इन्होंने कुमारपाल के विरुद्ध जबरदस्त प्रतिक्रिया की; परन्तु उनका यह सब प्रयत्न निष्फल हुआ। कुमारपाल ने १. सरि-सर-णंदण-वण-संछण्णउ, मठ-विहार-जिण-भवणरवण्णउ । बम्हणवाडउ णामें पट्टणु, परिणरणाह-सेणदलवट्टणु । जो भुंजइ मरिणखयकालहो, रणधोरियहो सुग्रहो बल्लालहो । जानु भिच्चु दुज्जण-मणसल्लणु, खत्तिउ गुहिल उत्तु जहिं भुल्लणु ॥ -प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति । २. यश्चौलुक्यकुमारपालनपतिः प्रत्यर्थितामागतं । मस्वा सत्वरमेव मालवपति बल्लालमालब्धवान् ।। ३. शत्रु श्रेणीगलविदलनोन्निद्रनिस्त्रिशधारो, धारावर्षः समजनि सुतस्तस्य विश्वप्रशस्यः । क्रोधाकान्तप्रधनवसुधा निश्चले यत्र जाता, श्चोतन्नेत्रोत्पलजलकण: कोंकणाधीशपल्यः॥३६॥ ४. देखो, भारत के प्राचीन राजवंण भा०१पृ० ७६-७७ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जंनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह विक्रमसिंह का राज्य उसके भतीजे यशोधवल को दे दिया, जिसने बल्लाल को मारा था, और इस तरह मालवा को गुजरात में मिलाने का प्रयत्न किया गया' । के बल्लाल की मृत्यु का उल्लेख अनेक प्रशस्तियों में मिलता है। बड़नगर से प्राप्त कुमारपाल प्रशस्ति १५ श्लोकों में बल्लाल की हार और कुमारपाल की विजय का उल्लेख किया गया है और लिखा है कि कुमारपाल ने बल्लाल का मस्तक महल के द्वार पर लटका दिया था। चूंकि कुमारपाल का राज्यकाल वि सं० १९६६ से वि० सं० १२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्ति का काल सन् १९५१ ( वि० सं० १२०८) है अतः बल्लाल की मृत्यु १९५१ A. D. ( वि० सं० १२०७ ) से पूर्व हुई है" । ऊपर के इस कथन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि कुमारपाल, यशोधवल, बल्लाल और प्रर्णोराज ये सब राजा समकालीन हैं । अतः ग्रंथ प्रशस्ति गत कथन को दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रस्तुत प्रद्युम्नचरित की रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी । अतः इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये । प्रद्युम्नचरित की अधिकांश प्रतियों में अन्तिम प्रशस्ति ही दी हुई नहीं है और जिन प्रतियों में प्राप्त थी उनमें वह त्रुटित एवं खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई थी; किंतु यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है। कि भ० महेन्द्रकीर्ति आमेर के शास्त्रभण्डार की कई प्रतियों में यह प्रशस्ति पूर्णरूप से उपलब्ध है । उक्त भण्डार में इस ग्रंथ की छह प्रतियाँ पाई जाती हैं। जो विविध समयों में लिखी गई हैं। उनमें से सं० १५७७ की प्रति पर से उक्त ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति इस संग्रह में दी गई है । १६वीं प्रशस्ति 'पासनाह चरिउ' की है। जिसके कर्ता कवि देवचन्द्र हैं । इस ग्रन्थ की अभी तक एक ही खंडित प्रति प्राप्त है, जिसमें ७, ७६ और ८१ वां ये तीन पत्र नहीं हैं । ग्रन्थ में ११ संधियाँ हैं जिनमें २०२ कडवकों में कवि ने पार्श्वनाथ के चरित को बड़ी खूबी के साथ चित्रित किया है। साथ में पूर्व भवांतरों का कथन भी अंकित किया है । कवि ने दोधक छन्द में भगवान पार्श्वनाथ की ध्यान - मुद्रा को निम्न वाक्यों में चित्रित किया है. उससे पाठक ग्रन्थ की भाषा शैली से भी परिचित हो सकेंगे । खंति " तत्थ सिलायले थककु जिरिंगदो, संतु महंतु तिलोय हो वंदो । पंच- महव्वय-उद्दय कंधो, निम्ममु चत्त चउब्विह बंधो । जीव दयावरु संग विमुक्को, गं दहलक्खणु धम्मु गुरुक्को । जम्मजरा मरणुज्भिय दप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो । मोह - तमंध - पयाव - पयंगो, लया रुहणे गिरि तुंगो | संजम -सील - विहूसिय देहो, कम्म- कसाय हुश्रासरण पुप्फंघरणु वर तोमर धंसो, मोक्ख- महासरि - कीलरण हंसी । इन्दिय - सप्पहं विसहर मंतो, अप्पसरूव- समाहि-सरतो । केवलनारण- पयासरण - कंखू, घारण पुरम्मि निवेसिय चक्खू । रिगज्जिय सासु पलंबिय वाहो, णिच्चल देह विसज्जिय-वाहो । कंचरणसेलु जहां थिर चित्तो, दोधक छंद इमो बुह वुत्तो ।” हो । १. Epigraphica Indica V. L VIII P. 200. २. देखो, सन् १९५१ की लिखित बड़नगर प्रशस्ति । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए हैं । वे सन्त महन्त त्रिलोकवर्ती जीवों के द्वारा वन्दनीय हैं, पंच महाव्रतों के धारक हैं, निर्ममत्व हैं, और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग रूप चार प्रकार के बन्ध से रहित हैं, दयालु और संग (परिग्रह) से मुक्त हैं। दशलक्षणधर्म के धारक हैं। जन्म, जरा और मरण के दर्द से रहित हैं । तप के द्वादश भेदों के अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य समान हैं । क्षमा रूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है, जो कर्म रूप कषाय हुताशन के लिए मेध हैं । कामदेव के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्ष रूप महासरोवर मे क्रीड़ा करने वाले हंस हैं । इन्द्रिय रूपी विषधर सो को रोकने के लिए मंत्र हैं । आत्म-समाधि में चलने वाले हैं । केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं, नासाग्र दृष्टि हैं, श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु लम्वायमान हैं और व्याधियों से रहित जिनका निश्चल शरीर है । जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त है ।'' यह पार्श्वनाथ की उस ध्यान-समाधि का परिचायक है जो कर्मावरण की नाशक है। कवि ने अपना यह खण्ड काव्य गुंदिज्ज नगर के पार्श्वनाथ मंदिर में बनाकर समाप्त किया है। गुंदिज्ज नगर दक्षिण में ही कहीं अवस्थित होगा। कवि देवचन्द मूलसंघ देशी गच्छ के विद्वान वासवचन्द के शिष्य थे। ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख है-श्रीकीति, देवकीर्ति, मौनीदेव, माधवचन्द्र, अभयनन्दी, वासवचन्द्र और देवचन्द्र । ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, जिससे यह बतलाना कठिन है कि ग्रंथ कब बना है। क्योंकि तद्विषयक सामग्री सामने नहीं है। ग्रंथ की यह प्रति सं० १४६८ के दुर्मति नाम संवत्सर के पूस महीने के कृष्ण पक्ष में अलाउद्दीन के राज्य काल में भट्टारक नरेन्द्रकोति के पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीति के समय में देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पण्डित गांगदेव के पुत्र पासराज के द्वारा लिखाई गई है। अब तक मुझे वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानों का पता चला है, जिनमें एक का उल्लेख खजुराहा के सं० १०११ वैशाखसुदी ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मंदिर के शिलालेख में दिया हुआ है जो वहां के राजा धंग के राज्यकाल में खोदा गया था। दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवण बेल्गोल के शिल्ललेख नं० ५५ में पाया जाता है जो शक सं० १०२२ (वि० सं० ११५७) का है। उस लेख के २५ वें पद्य में वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वादविद्या के विद्वान थे, कर्कश तर्क करने में उनकी बुद्धि चलती थी। उन्होंने चालुक्य राजा की राजधानी में बालसरस्वति की उपाधि प्राप्त की थी। इनमें द्वितीय वासवचन्द्र देवचन्द्र के गुरु हो सकते हैं। यदि यही वासवचन्द्र देवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२ वीं शताब्दी हो सकता है। १७वीं प्रशस्ति 'सयलविहिविहाणकव्व' की है, जिसके कर्ता कविनयनन्दी है, जिनका परिचय तीसरी प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १८वीं प्रशस्ति 'अणुवय-रयण-पईब' की है जिसका परिवय १३ वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। 1. See Epigraphica Indica VOLT Page 136. २. वासवचन्द्र मुनीन्द्रो रुन्द्र स्याद्वादतर्क-कर्कश-धिषणः । चालुक्य कटकमध्ये बालसरस्वति रिति प्रसिद्धिः प्राप्तः ॥ -श्रवण बेल्लोल शिलालेख २५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैनपंथ प्रशस्ति संग्रह १९वीं प्रशस्ति 'बाहुबलीचरित' की है, जिसके कर्ता कवि धनपाल हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह संधियां हैं । कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जन का स्मरण करता हुमा कहता है कि 'नीम को यदि दूध से सिंचन किया जाय तो भी वह अपनी कटुकता का परित्याग नहीं करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोड़ती। उसी तरह सज्जन-दर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं डते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है।' ग्रन्थ में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव थे, चरित्र दिया हुआ है । बाहुबली का शरीर जहां उन्नत और सुन्दर था वहां वह बल पौरुष से भी सम्पन्न था। वे इन्द्रिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमानपूर्वक जीना जानते थे, परंतु पराधीन जीवन को मृत्यु से कम नहीं मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट् से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन अपमान से विक्षुब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होंने अपने भाई पर चक्र चलाया; किन्तु देवोपुनीत अस्त्र 'वंश-घात' नहीं करते । इससे चक बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया-वह उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कंधे पर से नीचे उतारा और विजयी होने पर भी उन्हें संसार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभव हुआ। वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाहने अंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहंकार की चेष्टा का दण्ड ही तो अपमान है । तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई-भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इन्सान को हैबान बना देती है। अब मैं इस राज्य का त्याग कर आत्मसाधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ और सबके देखते-देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्रा द्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना की, पूर्ण ज्ञानी वन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हुए। ग्रंथ में अनेक स्थल काव्यमय और अलंकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों और उनकी रचनाओं का भी उल्लेख किया है। कवि ने इस ग्रन्थ का नाम 'कामचरिउ' कामदेवचरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया है । ग्रन्थ में यद्यपि छंदों की बहुलता नहीं है। फिर भी ११वीं संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हुआ है । ग्रन्थ रचना उस समय की है जब हिंदी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि० सं० १४५४ में वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को स्वाति नक्षत्र में स्थित सिद्धि योग में सोमवार के दिन, जबकि चंद्रमा तुलारासी पर स्थित था, पूर्ण किया है। प्रन्थ निर्माण में प्रेरक. प्रस्तुत ग्रंथ चंद्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जायस या जैसवाल वंश के भूषण थे, साहूवासाधर की प्रेरणा से की है और उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया है । वासाधर के पिता १. णिबु को वि जइ खीरहिं सिंचा, तो विण सो कुडुवत्तणु मुंचइ । उच्छु को वि जह सत्ये खंडइ, तो वि ण सो महरत्तणु छंडइ । दुज्जण सुप्रण सहावें तप्पर, सूरुतवइ ससहरु सीयरकरु ॥ -बाहुवलिचरिउ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना का नाम सोमदेव था, जो संभरी नरेंद्र कर्णदेव के मंत्री थे। कवि ने साह वासाधर को सम्यक्त्वी, जिन चरणों के भक्त जिनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहु-लोकमित्र, मिथ्यात्व रहित और विशुद्ध चित्त वाला बतलाया है। साथ ही आवश्यक दैनिक षट्कर्मों में प्रवीण, राजनीति में चतुर और अष्टमूल गुणों के पालन में तत्पर प्रकट किया है। इनकी पत्नी का नाम उभयश्री था, जो पतिव्रता और शीलव्रत का पालन करने वाली तथा चतुर्विध संघ के लिए कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे, जसपाल, जयपाल, रतपाल, चंद्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, वाहड़ और रूपदेव। ये सभी पुत्र अपने पिता के समान ही सुयोग्य चतुर और धर्मात्मा थे। इन आठ पुत्रों के साथ साहु वासाधर अपने धर्म का साधन करते थे। ___ इस यंत्र में कवि ने अपने से पूर्व होने वाले कुछ खास विद्वानों का और उनकी कुछ प्रसिद्ध कृतियों के नामोल्लेख के साथ उल्लेख किया है। जैसे कवि चक्रवर्ती धीरसेन, जैनेन्द्र व्याकरणकर्ता देवनंदी (पूज्यपाद) श्री वज्रसूरि और उनके द्वारा रचित षदर्शन प्रमाण ग्रंथ, महासेन सुलोचनाचरित, रविषेरण-पद्मचरित, जिनसेन हरिवंशपुराण, मुनिजटिल वरांगचरित, दिनकरसेन कंदर्पचरित, पद्मसेन-पार्श्वनाथचरित, अमताराधना गरिण अम्बसेन, चंद्रप्रभचरित, धनदत्तचरित, कवि विष्णुसेन, मुनिसिंहनंदि-अनुप्रेक्षा, वकार मंत्र-नरदेव, कवि असग-वीरचरित, सिद्धसेन, कवि गोविंद, जयधवल, शालिभद्र, चतुर्मुख, द्रोण, स्वयंभू, पुष्पदंत, और सेढु कवि का उल्लेख किया गया है। कवि परिचय कवि धनपाल गुजरात देश के मध्य में 'पल्हणपुर'' या पालनपुर के निवासी थे। वहाँ वीसलदेव राज्य करते थे, जो पृथ्वी के मण्डन और सकल उपमानों से युक्त थे। उसी नगर में निर्दोष पुरवाड वंश में, जिसमें अगणित पूर्व पुरुष हो चुके हैं, ‘भोंवइ' नाम के एक राजश्रेष्ठी थे, जो जिन भक्त और दया गुण १. पालनपुर (पल्हणपुर) Palanpur आबू राज्य के परमारवंशी धारावर्ष सं० १२२० (११६३ ई.) से १२७६ ई० सन् १२१६ तक पाबू का राजा धारावर्ष था, जिसके कई लेख मिल चुके हैं। उसके कनिष्ठ भ्राता यशोधवल के पुत्र प्रल्हादन देव (पालनसी) ने अपने नाम पर बसाया था। यह बड़ा वीर योद्धा था और विद्वान भी था। इसी से इसे कवियों ने पालणपुर या पल्हणपुर लिखा है। यह गुजरात देश की राजधानी थी। यहां अनेक राजामों ने शासन किया है। प्राब के शिलालेखों में परमार वंश की उत्पत्ति और माहात्म्य का वर्णन है और प्रह्लादनदेव की प्रशंसा का भी उल्लेख है। जिस समय कुमारपाल शत्रुजयादि तीर्थों की यात्रा को गया, तब प्रह्लादन देव भी साथ में था। पुरातन-प्रबंध संग्रह पृ० ४३) प्रह्लादन देव की प्रशंसा प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर ने कीतिकौमुदी में मोर तेजपाल मंत्री द्वारा बनवाए हुए लूणवसही की प्रशस्ति में की है। यह प्रशस्ति वि० सं० १२८७ में प्राबू पर देलवासा गांव के नेमिनाथ मंदिर में लगाई गई थी। मेवाड़ के गुहिल वंशी राजा सामंतसिंह और गुजरात के सोलंकी राजा अजयपाल की लड़ाई में, जिसमें वह घायल हो गया था प्रह्लादन ने बड़ी वीरता से लड़कर गुजरात की रक्षा की थी। प्रस्तुत पालनपुर में दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के लोग रहते थे। धनपाल के पितामह तो वहां के राज्य श्रेष्ठी थे । श्वेताम्बर समाज का तो यह प्रमुख केन्द्र ही था। यहां उनके अनेक ग्रंथ लिपि.किये गए । जिनदत्त सूरि भी वहां रहे हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पंच प्रशस्ति संग्रह से युक्त थे। यह कवि धनपाल के पितामह थे, इनके पुत्र 'सुहडप्रभ' श्रेष्ठी थे, जो धनपाल के पिता थे। कवि की माता का नाम 'सुहडा देवी' था इनके दो भाई और भी थे, जिनका नाम संतोष और हरिराज था। इनके गुरु प्रभाचंद्र थे, जो अपने बहुत से शिष्यों के साथ देशाटन करते हुए उसी पल्हणपुर में आये थे, धनपाल ने उन्हें प्रणाम किया, और मुनि ने आशीर्वाद दिया कि तुम मेरे प्रसाद से विचक्षण होगे। मस्तक पर हाथ रखकर बोले कि मैं तुम्हें मंत्र देता हूँ। तुम मेरे मुख से निकले हुए अक्षरों को याद करो। आचार्य प्रभाचंद्र के वचन सुनकर धनपाल का मन प्रानन्दित हुआ, और उसने विनय से उनके चरणों की वन्दना की, और पालस्य रहित होकर गुरु के प्रागे शास्त्राभ्यास किया, और सुकवित्व भी पा लिया। पश्चात् प्रभाचंद्र गणी खंभात धारनगर और देवगिरि (दौलताबाद) होते हुए योगिनी पुर आये। देहली निवासियों ने उस समय एक महोत्सव किया और भट्टारक रत्नकीति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया। भट्टारक प्रभाचंद्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरंजित किया था और विद्या द्वारा वादियों का मनोरथ भग्न किया था' । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचंद्र का भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समर्थन भगवती आराधना की पंजिका टीका की उस लेखक प्रशस्ति से भी होता है जिसे संवत् १४१६ में इन्हीं प्रभाचंद्र के शिष्य ब्रह्मनाथूराम ने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुगलग के शासनकाल में लिखवाया था, उसमें भ० रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट उल्लेख है। फीरोजशाह तुगलक ने सं० १४०८ से १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ०प्रभाचंद्र सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुये थे और सकल उपमाओं से युक्त थे।। कविवर धनपाल गुरु आज्ञा से सौरिपुर तीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिनकी वन्दना करने के लिये गए थे। मार्ग में इन्होंने चन्द्रवाड' नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण और उतुंग जिनालयों से विभूषित था, वहां साहु वासाधर का बनवाया हुआ जिनालय भी देखा और वहां के श्री अरहनाथ जिनकी वन्दना कर अपनी गर्दा तथा निंदा की और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहां के राज्य मंत्री रह कर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है। २०वीं प्रशस्ति (चंदप्पहचरिउ) नाम के ग्रन्थ की है, जिनके कर्ता कवि यशःकीर्ति हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्यारह संधियाँ हैं जिनमें जैनियों के आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । ग्रन्थ का चरित भाग उड़ा ही सुन्दर और प्रांजल है। इसका अध्ययन करने से जैन तीर्थंकर की आत्म-साधना की रूपरेखा का जहां परिज्ञान होता है वहां प्रात्म-साधना के सुन्दर उपाय की भी जानकारी हो जाती है। १. तहिं भवहिं सुमहोच्छव विहियउ, सिरि रयणकित्ति पटें णिहिउ। महमंदसाहि मणुरंजियउ, विज्जहिं वाइय मणु भंजियउ । -बाहुबलि चरिउ प्रशस्ति २. संवत् १४१६ वर्षे चैत्र सुदि पञ्चम्यां सोमवासरे सकलराज शिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिंजरीकृत चरण कमल पादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकलसाम्राज्यधुरीविभ्राणस्य समये श्री दिल्यां श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री रलकीति देव पट्टोदयाद्रितरुणतरणित्वमुर्वीकुर्वाणंरणः (गः) भट्टारक श्री प्रभाचन्द्रदेव शिष्याणां ब्रह्मनाथूराम । इत्याराधना पंजिकायां ग्रंथ प्रात्म पठनार्थ लिखापितम् । -प्रारा. पंजि. प्रश०व्यावर भवन प्र० ३. देखो, चन्द्रवाट का इतिहास नाम का मेरा लेख, मनेकान्त वर्ष ८। : Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८१ कवि ने अपना सभी कथन काव्य-शैली से किया है, किन्तु साध्य - चरित भाग को सरल शब्दों में रखने का प्रयत्न किया गया है। इसमें विविध छन्दों की भरमार नहीं है । कवि ने इस ग्रन्थ को 'हुंबड' कुलभूषण कुमरसिंह के सुपुत्र सिद्धपाल के अनुरोध से बनाया था, वे उन्मत्त ग्राम के निवासी थे । अतएव ग्रन्थ सिद्धपाल के ही नामांकित किया गया है। समय विचार ग्रन्थकर्ता ने ग्रन्य में रचनाकाल नहीं दिया; किन्तु श्राद्य प्रशस्ति में निम्न विद्वानों का उल्लेख मात्र किया है। साथ ही, प्राचार्य समन्तभद्र के मुनि जीवन के समय घटने वाली और आठवें तीर्थंकर के स्तोत्र की सामर्थ्य से चन्द्रप्रभ की मूर्ति के प्रकट होने की घटना का उल्लेख करते हुए अकलंक, पूज्यपाद, जिनसेन और सिद्धसेन नाम के अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख किया है। जिससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथ भट्टारक गुणकीर्ति के शिष्य यश कीर्ति की कृति नहीं है । ग्रन्थका भाषा साहित्य भी पाण्डवपुराण के कर्ता यश: कीर्ति से गम्भीर प्रौढ़ और प्रभावक है । कुछ विद्वान इसे उक्त यशः कीर्ति को और पाण्डवपुराण के कर्ता यशः कीर्ति, दोनों को एक बतलाते हैं, परन्तु वे इसका कोई प्रमाण नहीं देते हैं । साथ ही, दोनों ग्रन्थों की सन्धि - पुष्पिकात्रों में भी भारी अन्तर है। भट्टारक यशः कीर्ति अपने प्रत्येक ग्रन्थ की सन्धि- पुष्पिका में 'सिरि गुणकीर्ति सिस्स मुरिण जसकित्ति विरइए' वाक्य के साथ उल्लेख़ित करते हैं, जिससे स्पष्ट है कि उक्त कृति भ० गुणकीर्ति के शिष्य यशः कीर्ति की रची हुई है। किंतु चन्द्रप्रभ चरित्र के कर्ता ने अपने ग्रन्थ की किसी भी संधि में गुरणकीति के शिष्य यशः कीर्ति का कोई उल्लेख नहीं किया है। जिससे प्रस्तुत यशःकीर्ति पाण्डवपुराणादि के कर्ता भ० यशः कीर्ति से भिन्न हो जाते हैं । जैसा कि ग्रन्थ के निम्न संधि वाक्य से प्रकट है : "इय सिरि चंदप्पहचरिए महाकव्वे महाकइ जसकित्ति विरइए महाभव्व सिद्धपाल सवरणभूसणे चंदप्पहसामिरिणव्वारण गमरण वण्णरोगाम एया रहमो- संधी परिच्छेउ समत्तो ।” गुणकीर्ति के शिष्य यशः कीर्ति ने कहीं भी अपने को महाकवि सूचित नहीं किया है; किन्तु चन्द्रप्रभु चरित के कर्त्ता ने अपने को 'कहाकवि' भी प्रकट किया है। अतः ऊपर के इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता इनसे भिन्न और पूर्ववर्ती हैं। इनका समय सम्भवतः ११वीं - १२वीं शताब्दी ज्ञात होता है । ग्रंथ अभी अप्रकाशित है और उसे प्रकाश में लाने की आवश्यकता है । 1 २१वीं, २२वीं, २३वीं और २४वीं प्रशस्तियाँ क्रम से 'पाण्डवपुराण' हरिवंश पुराण, निरात्रिकहा, और रविवउकथा की हैं। जिनके कर्त्ता भ० यशः कीर्ति हैं । पाण्डवपुराण में ३४ संधियां हैं जिनमें भगवान् नेमिनाथ की जीवन-गाथा के साथ युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, और कौरवों के परिचय से युक्त कौरवों से होने वाले युद्ध में विजय, नेमिनाथ, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की तपश्चर्या तथा निर्वारण प्राप्ति, नकुल, सहदेव का सर्वार्थसिद्धि प्राप्त करना और वलदेव का पूवें स्वर्ग में जाने का उल्लेख किया है । कवि यशः कीर्ति विहार करते हुए नवगांव नाम के नगर में आए, जो दिल्ली के निकट था, वहां उन्होंने इसकी रचना वि० सं० १४६७ में समाप्त की है। ग्रंथ में नारी का वर्णन परम्परागत उपमानों से अलंकृत है, किन्तु शारीरिक सौंदर्य का अच्छा वर्णन किया गया है—' जाहे गियंतिहे रइवि उक्खिज्जइ' - जिसे देखकर रति भी खीज उठती है। इतना ही नहीं किन्तु उसके सौंदर्य से इन्द्राणी भी खिन्न हो जाती है - 'लायों वासवपिय जूरइ' कवि ने जहां शरीर के Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह बाह्य सौंदर्य का कथन किया है वहां उसके अन्तर प्रभाव की भी सूचना की है । छन्दों में पद्धडिया के अतिरिक्त आरणाल, दुवई, खंडय, हेला, जंभोट्टिया, रचिता, मलयविलासिया, पावली, चतुष्पदी, सुन्दरी, वंशस्थ, गाहा, दोहा और वस्तु छन्द का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं भाषा में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। कवि ने यह ग्रन्थ शाह हेमराज के अनरोध से बनाया है जो दिल्ली के बादशाह मुबारिक शाह के मंत्री थे । इन्होंने दिल्ली में एक चैत्यालय भी बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १४६७ से पूर्व हो चुकी थी; क्योंकि सं० १४६७ में निर्मित ग्रंथ में उसका उल्लेख किया है। ग्रंथ की संधियों के संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक हेमराज की मंगल कामना की गई है और यह ग्रन्य उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में हेमराज के परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । __ २२वीं प्रशस्ति 'हरिवंशपुराण' की है जिसमें १३ संधियां और २६७ कडवक हैं जो चार हजार श्लोकों के प्रमाण को लिए हुए हैं। इनमें कवि ने भगवान् नेमिनाथ और उनके समय में होने वाले कौरव पाण्डव युद्ध और विजय का संक्षिप्त परिचय दिया गया है अर्थात् महाभारत कालीन जैन मान्यता सम्मत पौराणिक आख्यान दिया हुआ है । ग्रन्थ में काव्यमय अनेक स्थल अलंकृत शैली से वरिणत हैं। उसमें नारी के बाह्य रूप का ही चित्रण नहीं किया गया, किन्तु उसके हृदय-स्पर्शी प्रभाव को भी अङ्कित किया है । कवि ने ग्रंथ को यद्यपि पद्धडिया छन्द में रचने की घोषणा की है, किन्तु प्रारणाल, दुवई, खंडय, जंभोटिया, वस्तुबंध और हेला आदि छन्दों का भी प्रयोग यत्र-तत्र किया गया है । ऐतिहासिक कथनों की प्रधानता है, परंतु सभी वर्णन सामान्य कोटि के हैं उनमें तीव्रता की अभिव्यक्ति नहीं है। यह ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गर्गगोत्री साहु दिवढा के अनुरोध से बनाया गया था, साहु दिवड्डा परमेष्ठी आराधक, इन्द्रिय-विषयविरक्त, सप्तव्यसनरहित, अष्टमूलगुरागधारक तत्त्वार्थश्रद्धानी, अष्ट अंग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा पागधक, और बारहव्रतों का अनुष्ठापक था, उसके दान-मान की कवि यश.कीर्ति ने खूब प्रशंसा की है। उसी के अनुरोधवश यह ग्रन्थ वि० सं० १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन 'इंदउरि' इन्द्रपुर या इन्द्रपुरी (दिल्ली) में जलालखां के राज्य में समाप्त हुया है। ___ २३वीं प्रशस्ति 'जिनरात्रिकथा' की है, जिसमें शिवरात्रि कथा की तरह भगवान महावीर ने जिस रात्रि में अवशिष्ट अघाति कर्म का विनाश कर पावापुर से मुक्ति पद प्राप्त किया था उसी का वर्णन प्रस्तुत कथा में किया गया है । उस दिन और रात्रि में व्रत करना, तथा तदनुसार प्राचार का पालन करते हुए प्रात्म-साधना द्वारा प्रात्म-शोधन करना कवि की रचना का प्रमुख उद्देश्य है। २४वीं प्रशस्ति रविव्रत कथा की है, जिसमें रविवार के व्रत से लाभ और हानि का वर्णन करते हए, रविव्रत के अनुष्ठापक और उसकी निन्दा करने वाले दोनों व्यक्तियों की अच्छी बुरी परिणतियों से निष्पन्न फल का निर्देश करते हुए व्रत की सार्थकता, और उसकी विधि आदि का सुन्दर विवेचन किया गया है। १. झं झणण झणण झल्लरि वि सह,टं टं करंत करि वीर बंट ! कंसाल ताल सद्दइ करंति, मिहुणइं इव विडिवि पुण मितंति । डम डम डम डमरू सद्दियाई, बहु ढोल निसाणई वज्जियाई । २. जेण करावउ जिण-चेयालउ, पुण्णहेउ चिर-रय-पक्खालिउ । धय-तोरण-कलसेहिं प्रलंकिउ, जसु गुरुत्ति हरिजणु वि संकिउ । ३. दाणेण जासु कित्ती पर उवयारसु संपया जस्स । णिय पुत्त कलत्त सहिउ णंदउ दिवढाख्य इह भुवणे ॥ -हरिवंश पुराण प्रथम संधि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना * कवि परिचय भट्टारक यशः कीर्ति काष्ठासङ्घ माथुरगच्छ और पुष्करगरण के भट्टारक गुणकीर्ति ( तपश्चरण से जिनका शरीर क्षीण हो गया था) के लघु भ्राता और पट्टधर थे । यह उस समय के सुयोग्य विद्वान् और कवि थे, तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अच्छे विद्वान् थे । इन्होंने सं० १४८६ में बिबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश भाषा का 'सुकमालचरित' ये दोनों ग्रन्थ लिखवाये थे । इन्होंने मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई थी। ग्वालिर के भ० मंदिर में इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां विराजमान हैं । यह ग्वालियर के शासक तोमर वंशीय राजा डूंगरसिंह के समय में हुए हैं जिसने सं० १४८१ से सं० १५१० तक राज्य किया है । यह जैनधर्म का श्रद्धालु था । इसने उस समय सैकड़ों मूर्तियां ग्वालियर के किले में उत्कीर्ण कराई थी, जिनकी खुदाई का कार्य ३३ वर्ष पर्यन्त चला था । इनके महाकवि रइधू जैसे शिष्य थे । रइधू ने अपने 'सम्मइ जिनचरिउ' नामक ग्रन्थ- प्रशस्ति में यश कीर्ति का निम्न शब्दों में गुरण - गान किया है "ताहिकमागयतव तवियंगो, रिणचुब्भासिय-पवयरण संगो । भव्व-कमल-संबोह-पयंगो, वंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो । तस्स पसाएँ कव्वु पयामि, चिरभवि विहिउ असुर रिगण्णा समि ।।" भट्टारक यशः कीर्ति को महाकवि स्वयंभू देव का 'हरिवंश पुराण' (रिट्ठेणे मिचरिउ ) जीर्णशीर्ण दशा में प्राप्त हुआ था और जो खंडित भी हो गया था, जिसका उन्होंने ग्वालियर के कुमार नगर के जैन मंदिर में व्याख्यान करने लिए उद्धार किया था और इसमें अपना नाम भी अङ्कित कर दिया था यह कवि रइधू के तो गुरु थे ही, इनकी और इनके शिष्यों की प्रेरणा से कवि रइधू ने अनेक ग्रंथों की रचना है । इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी है । १. तो सीसु सिद्ध गुण कित्तिणासु, तव तावें जासु सरीस खामु । तो बंधत्रु जस मुणि सीसु जाउ, आयरिउ पणासिय दोमु-राउ । - हरिवंशपुराण प्रश० २. "सं० १४८६ वर्षे प्रश्वणिवदि १३ सोमदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरेन्द्रसिंह देव विजयराज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्रीभावसेन देवास्तत्पट्टे श्रीसहस्रको तिदेवास्तत्पट्टे श्री गुणकीर्तिदेवास्तच्छष्येण श्रीयशः कीर्तिदेवेन निजज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं सुकमालचरितं लिखापितं कायस्थ याजन पुत्र थलू लेखनीयं । " "सं० १४८६ वर्षे प्राषाढ़ वदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसी (सि) ह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधे माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री सहस्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे श्राचार्य गुणकीर्ति देवास्तिच्छिष्य श्रीयशः कीर्तिदेवास्तेन निज ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थं इदंभविष्यदत्त पंचमीकथा लिखापितम् ।" ३. तं जसत्तिणिहि उद्धरथिउ, णिए वि सत्तु हरिवंसच्छरिउ । - गुरु सिरि-गुण - कित्ति पसाएँ, किउ परिपुण्णु मणहो प्रणुराएँ । सरह सदं (?) सेठि प्राएसें, कुमरि णयरि प्राविउ सविसेसें । गोरमी विसालए, पणियारहे जिणवर चेयालए । सावयजणहो पुरउ वक्खाणिउ, दिदुमिच्छत्तु मोहु प्रवमाणिउ । - हरिवंश पुराण प्रशस्ति नरायणा प्रति Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मैन पंप प्रशस्ति संग्रह २५वीं प्रशस्ति 'पासणाहचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ एक खण्ड काव्य है । ग्रन्थ में १२ सन्धियाँ हैं जिनकी श्लोक संख्या ढाई हजार से ऊपर है । ग्रन्थ में जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। कथानक वही है जो अन्य प्राकृतसंस्कृत के ग्रंथों में उपलब्ध होता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने दिल्ली नगर का अच्छा परिचय दिया है। उस समय दिल्ली जोयणिपुर, योगिनीपुर के नाम से विख्यात थी, जन-धन से सम्पन्न, उत्तुंग साल (कोट) गोपुर, विशालपरिखा, रणमंडपों, सुन्दर मन्दिरों, समद गज-घटाओं, गतिशील तुरंगों, ध्वजारों से अलंकृत थी, तथा स्त्रियों की नूपुर ध्वनि को सुन्दर नाचते हुए मयूरों और विशालहट्ट मार्गों से विभूषित थी। और वह हरियाना देश में थी। कवि ने ग्रंथ की समाप्ति-सूचक सन्धि-पुष्पिका गद्य में न देकर स्वयंभू और नयनन्दी कवि के समान पद्य में दी है। __श्रीधर ने इस ग्रन्थ की रचना दिल्ली में उस समय की, जब वहां तोमरवंशी क्षत्रिय अनंगपाल तृतीय का राज्य शासन चल रहा था । यह अनंगपाल अपने दो पूर्वजों से भिन्न था। बड़ा प्रतापी एवं वीर था। इसने हम्मीर वीर की सहायता की थी। ये हम्मीर वीर अन्य कोई नहीं, ग्वालियर के परिहार वंश की द्वितीय शाखा के हम्मीरदेव जान पड़ते हैं, जिन्होंने सं० १२१२ से १२२४ तक ग्वालियर में राज्य किया है। पर अनंगपाल से इनका क्या सम्बन्ध था, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । उस समय दिल्ली वैभव सम्पन्न थी, उसमें विविध जाति और धर्म वाले लोग बसते थे। ग्रंथ रचना में प्रेरक साहु नट्टल के पिता का नाम 'पाल्हण' था। इनका वंश अग्रवाल था, और वह सदा धर्म-कर्म में सावधान रहते थे। इनकी माता का नाम 'मेमडिय' था, जो शीलरूपी सत् आभूषणों से अलंकृत थी, और बांधवजनों को सुख प्रदान करती थी। साहू नट्टल के दो ज्येष्ठ भाई और भी थे, राघव और सोढल । इनमें राघव बडा ही सन्दर एवं रूपवान था। उसे देखकर कामिनियों का चित्त द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानों को आनन्ददायक, गुरु भक्त तया अरहंतदेव की स्तुति करने वाला था, जिसका शरीर विनय रूपी आभूषणों से अलंकृत था, तथा बड़ा बुद्धिमान और धीर-वीर था। नट्टलसाहु इन सबमें लघु पुण्यात्मा सुन्दर और जनवल्लभ था। कूलरूपी कमलों का आकार और पापरूपी पांश (रज) का नाशक. तीर्थकर का प्रतिष्ठापक, बन्दीजनों को दान देने वाला, परदोषों के प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूषित, और चतुर्विध संघ को दान देने में सदा तत्पर रहता था। उस समय दिल्ली के जैनियों में वह प्रमुख था, व्यसनादि-रहित हो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करता था। साहु नट्टल केवल धर्मात्मा ही नहीं थे, किन्तु उच्चकोटि के कुशल व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग-बंग, कलिङ्ग, कर्नाटक, नेपाल, भोट, पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क, (पंजाब), केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ और हरियाना आदि देशों और नगरों में चल रहा था। यह व्यापारी ही नहीं थे; किन्तु राजनीति के चतुर पंडित भी थे। कुटुम्बीजन तो नगर सेठ थे, और आप स्वयं तोमरवंशी अनंगपाल (तृतीय) के आमात्य थे। आपने १. इस सिरि पासचरितं, रइये बुहसिरिहरेण गुण भरियं । अणुमण्णियं मणोज्जं, णट्टल नामेण भव्वेण ॥१॥ विजयंत विमाणामो वामादेवीइ णंदणो जामो । कणयप्पह चविऊणं पढमो संधी परिसमत्तो ॥२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कवि श्रीधर से, जो हरियाना देश से यमुना नदी को पार कर उस समय दिल्ली में आये थे, ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा की थी, तब कवि ने इस सरस खण्ड-काव्य की रचना वि० सं० ११८६ अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त की थी। नट्टलसाहु ने उस समय दिल्ली में आदिनाथ का' एक प्रसिद्ध जिन मन्दिर भी बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर था । जैसा कि ग्रंथ के निम्न वाक्यों से प्रकट है : "कारावेवि णाहेयहो णिकेउ, पविइण्णु पंचवण्णं सुकेउ । पइं पुणु पइट्ट पविरइयजेम, पासहो चरित्तु जइ पुणवि तेम ॥" आदिनाथ के इस मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख उक्त ग्रंथ की पांचवीं सन्धि के बाद दिये हुए निम्न पद्य से प्रकट है : येनाराध्य विशुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं, सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः । जैनं चैत्यमकारि सुन्दर तरं जैनी प्रतिष्ठां तथा, स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ।। इस तरह कवि ने साहु नट्टल की मंगल कामना की है। कवि परिचय प्रस्तुत कवि श्रीधर हरियाना देश के निवासी थे, और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। आपके पिता का नाम 'गोल्ह' था और माता का नाम 'बील्हादेवी' था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और जीवनादि घटना का कोई उल्लेख नहीं किया। ग्रंथ की प्राद्य प्रशस्ति में अपनी एक अन्य रचना 'चंदप्पहचरिउ' (चन्द्रप्रभचरित) का उल्लेख किया है, परन्तु वह अभी तक अनुपलब्ध है। कवि की अन्य क्या-क्या कृतियाँ हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । परंतु कवि की तीसरी रचना 'वर्धमानचरित' है। जो संवत् ११६० में रचा गया था, जिसकी अपूर्ण प्रशस्ति परिशिष्ट नं० ३ में दी गई है। देखिये परिचय परिशिष्ट नं. ३ । कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। कवि की उक्त कृति अभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाने का प्रयत्न होना चाहिये। २६वीं और १०४वीं प्रशस्ति 'सेरिणयचरिउ 'या 'वडूढमाणकव्व' और 'मल्लिगाह कव्व' नामक ग्रन्थों की है, जिनके कर्ता कविहल्ल या हरिइंद अथवा हरिचन्द हैं। प्रथम ग्रन्थ में ११ संधियां हैं, जिनमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान भगवान का जीवनपरिचय अङ्कित किया गया है । साथ ही, उनके समय में होने वाले मगध के शिशुनाग वंशी सम्राट् बिम्बसार या श्रेणिक की जीवन गाथा भी दी हुई है । यह राजा बड़ा प्रतापी था और राजनीति में कुशल था। इसके सेनापति श्रेष्ठि पुत्र जंबूकुमार ने केरल के राजा मृगांक पर विजय कर उसकी पुत्री विलासवती से श्रेणिक का विवाह सम्बन्ध कराया था। इसकी पट्टमहिषी चेलना वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की सपुत्री थी। जो जिनधर्म पालिका और पतिव्रता थी। उक्त राजा श्रेणिक पहले बुद्ध धर्म का अनुयायी था किन्तु वह चेलना के सहयोग से दिगम्बर जैनधर्म का भक्त और महावीर का प्रमुख श्रोता हो गया था। ग्रन्थ की भाषा १. पहले मेरे लेख में इसे पार्श्वनाथ का मन्दिर लिखा गया था, पर वह पार्श्वनाथ का मन्दिर नहीं था किन्तु आदिनाथ का मन्दिर था, जिसे ऋषदेव का मन्दिर भी कहते थे। उस समय वहां जैनियों के और मन्दिर भी बने हुए थे। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैनग्रंथ अशक्ति संग्रह विक्रम की १५वीं शताब्दी की ज्ञात होती है। और उसका रचना स्थल राजस्थान है । यह ग्रन्थ देवराय के पुत्र संघाधिप होलिवम्म के अनुरोध से रचा गया है । ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया । १०४ व प्रशस्ति 'मल्लिरगाह काव्य' की है। इसमें जैनियों के १६वें तीर्थंकर मल्लिनाथका जीवनचरित दिया हुआ है । आमेर शास्त्र भण्डार की यह प्रति अपूर्ण है। आदि के तीन पत्र उपलब्ध नहीं है । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने पुहमि (पृथ्वी नामक ) राजा के राज्य में स्थित साहू आल्हा के अनुरोध से की है | आल्हा साहू के ४ पुत्र थे, जिनके नाम बाह्यसाहू, तुम्बर रतरगऊ और गल्हग थे । इन्होंने ही उस मल्लिनाथ चरित को लिखवाकर प्रसिद्ध किया था । गुरु परम्परा और समय कवि ने इस ग्रंथ में भी रचनाकाल नहीं दिया, परंतु कवि ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उससे ग्रन्थ के रचनाकाल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ग्रंथकर्ता के गुरु पद्मनन्दि भट्टारक थे, जो मूलसंघ बलात्कार गरण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान् और भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर थे । यह उस समय के अत्यंत प्रभावक और प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे । आपकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं । पद्मनन्दि श्रावकाचार, भावना पद्धति, वर्धमान चरित और अनेक स्तवन । आपके अनेक शिष्य थे, उनमें कितने ही शिष्यों ने ग्रन्थ रचना की है । इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १५वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है । पार्श्वनाथ चरित के कर्ता कवि अग्रवाल (सं० १४७६) ने अपने ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में सं० १४७१ की एक घटना का डल्लेख करते हुए लिखा है कि- करहल के चौहानवंशी राजा भोजराज ( भोयरा ) थे । उनकी पत्नी का नाम गाइक्कदेवी था । उससे संसारचंद या पृथ्वीराज नाम का एक पुत्र था । उसके राज्य में सं० १४७१ की माघ कृष्णा चतुर्दशी शनिवार के दिन रत्नमयी जिनबिम्ब की स्थापना की गई थी। उस समय यदुवंशी अमरसिंह भोजराज के मंत्री थे। उनके पिता का नाम ब्रह्मदेव और माता का नाम पद्मलक्षरणा था, जो इनकी तृतीय पत्नी थीं। इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह और लक्ष्मण सिंह थे । अमरसिंह की पत्नी का नाम कमलश्री था, जो पातिवृत्य और शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी । उससे तीन पुत्र हुए थे। पंदन, सोरिंग ( सोना साहु ) और लोगिव ( लोणा साहु ) । इनमें लोगिव या लोणासाहू जिन यात्रादि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनिमय करते थे, अनेक विधान और उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने कवि 'हल्ल' की प्रशंसा की थी, जिन्होंने 'मल्लि - नाथ' का चरित्र बनाया था। उस समय भ० पद्मनंदि के शिष्य भ० प्रभाचन्द्र पट्टधर थे' । ऊपर के इस कथन पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि हल्ल ( जयमित्रहल ) ने अपना मल्लिनाथ काव्य सं० १४७१ से कुछ समय पूर्व बनाया है । संभवत: वह सं० १४६० के आस-पास की रचना है । इससे कवि १५वीं शताब्दी के मध्य के विद्वान् जान पड़ते हैं । २७वीं प्रशस्ति 'भविसयत्त कहा' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में छह संधियाँ र १४३ कवक दिये हुए हैं, जिनमें ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुत पंचमी) व्रत का फल और महात्म्य वर्णन करते हुए व्रत संपालक भविष्यदत्त के जीवन-परिचय को अङ्कित किया है और वह पूर्व परंपरा के अनुसार १. करहल इटावा से १३ मील की दूरी पर बसा हुआ है। यहां पर चौहान वंशी राजाओं का राज्य रहा है, जो चन्द्रवाड के चौहानों के वंशज थे। यहां चार शिखरबन्द मन्दिर हैं, जैनी लोग रहते हैं। यहां शास्त्र भंडार भी अच्छा है । २. देखो, कवि असवाल के 'पासणहचरिउ' की प्रशस्ति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८७ ही दिया गया है। यह ग्रन्थ कवि ने चन्द्रवाड नगर के निवासी माथुरवंशी साहु नारायण की धर्मपत्नी रुप्पिणी (रूपणो) देवी के अनुरोध से बनाया था, अतएव कवि ने उसे उसी के नामांकित किया है और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारंभ में कवि ने संस्कृत पद्यों में रूप्पिणी की मंगल कामना की है। जो इन्द्रवज्रा और शार्दूल विक्रीडित आदि छंदों में निबद्ध हैं जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है 'या देव-धर्म-गुरुपाद पयोज-भक्ता, सर्वज्ञदेव सुखदायि-मतानु-रक्ता। संसारकारि कुकथा कथने विरक्ता, सा रूप्पिणी बधजन न कथं प्रशस्या ॥ संधि २-१ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० संवत् १२३० (सन् ११७३ ई.) में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है। ग्रन्थ कर्ता कवि श्रीधर ने अपना कोई परिचय देने की की। श्रीधर नाम के अनेक कवि हो गये हैं', उनमें प्रस्तुत श्रीधर कौन हैं यह विचारणीय हैं। यदि वे अपने कूलादि का परिचय प्रस्तुत कर देते तो इस समस्या का सहज ही समाधान हो जाता। पर कवि ने ऐसा कछ भी नहीं किया। अतएव कवि का निवास स्थान, जोवन-परिचय और गुरु परम्परा अभी अज्ञात ही हैं। कवि ने चूकि अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १२३० में बनाकर समाप्त किया है, अतः वे विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान् थे। २८वीं, २६वीं और 100वीं ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ क्रमशः 'संभवगाह-चरिउ' वरांग-चरिउ, और पासणाह-चरिउ की हैं। जिनके कर्जा कवि तेजपाल हैं। संभवगाह चरिउ में छह सन्धियाँ और १७० कडवक हैं। जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ की जीवन-गाथा दी हुई है । रचना संक्षिप्त और बाह्याडम्बर से रहित है। यह भी एक खण्ड काव्य है। ग्रन्थ-निर्माण में प्रेरक उक्त ग्रंथ की रचना भादानक देश के श्री प्रभ नगर में दाऊदशाह के राज्यकाल में हुई है। श्री प्रभ नगर के अग्रवाल वंशीय मित्तल गोत्रीय साहु लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थील्हा जिनकी माता का नाम महादेवी था, प्रथम धर्मपत्नी का नाम कोल्हाही, और दूसरी पत्नी का नाम प्रासाही था, जिससे त्रिभुवन पाल और रणमल नामके पुत्र उत्पन्न हुए थे। साहु थील्हा के पांच भाई और भी थे, जिनके नाम खिउसी, होलू, दिवसी, मल्लिदास और कून्थदास हैं । ये सभी भाई धर्मनिष्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे। लखमदेव के पितामह साहु होलू ने जिनबिम्ब प्रतिष्टा कराई थी, उन्हीं के वंशज थील्हा के अनूरोध से कवि तेजपाल ने उक्त संभवनाथ चरित्रकी रचना की थी। इस ग्रन्थ की रचना संभवतः संवत् १५०० के आस-पास करी हुई है। २६वीं प्रशस्ति 'वरंगचरिउ' की है जिसमें कुलचार सन्धियाँ हैं। उनमैं राजा वरांग का जीवनपरिचय दिया गया है। राजा वरांग बाईसवें तीर्थकर यदुवंशी नेमिनाथ के शासन काल में हया है। वरांग राजा का चरित बड़ा ही सुन्दर रहा है । रचना साधारण और संक्षिप्त है, और हिन्दी भाषा के विकास को लिए हुए है। कवि तेजपाल ने इस ग्रंथ की रचना विक्रम सं० १५०७ वैसाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त की थी। और उसे उन्होंने विपुलकीर्ति मुनि के प्रसाद से पूर्ण किया था। १००वीं प्रशस्ति 'पासपुराण'की है। यह भी एक खण्ड काव्य है, जो पद्धड़िया छन्दमें रचा गया है। जिसे कवि ने यदुवंशी साह शिवदास के पुत्र घूघलि साहु की अनुमति से रचा था। ये मुनि पद्मनंदि के शिष्य १. देखो, भने कान्त वर्ष ८, किरण १२ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह शिवनंदि भट्टारक को पाम्नायके थे। जिनधर्मरत, श्रावकधर्म प्रतिपालक, दयावंत और चतुर्विधि संघके संपोषक थे। मुनि पद्मनंदि ने शिवनंदी को दीक्षा दी थी। दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजन साहु था, जो संसार से विरक्त और निरंतर बारह भावनाओं का चिन्तन करते थे। उन्होंने दीक्षित होने के बाद कठोर तपश्चरण किया, मासोपवास किये, और निरन्तर धर्मध्यान में लीन रहते थे। प्रशस्ति में साह सुरजन के परिवार का भी परिचय दिया हुआ है । कवि तेजपाल ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १५१५ में कार्तिक कृष्णापंचमी के दिन समाप्त किया था। कवि-परिचय कवि मूलसंध के भट्टारक रत्नकीति, भुवनकीति, धर्मकीर्ति और विशालकोति की आम्नाय का था। वासवपुर नामक गांव में वरसाबडह वंश में जाल्हउ नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम सूजउ साहू था, वे दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहते थे। उनके चार पुत्र थे, रणमल, बल्लाल, ईसरू और पोल्हणु ये चारों ही भाई खंडेलवाल कुल के भूषण थे। प्रस्तुत रणमल साहु के पुत्र ताल्हुय साहु हुए । उनका पुत्र कवि तेजपाल था, जिसने उक्त तीनों खण्ड काव्य-ग्रन्थों की रचनाएं की हैं । ये तीन ही ग्रंथ अप्रकाशित हैं, उन्हें प्रकाश में लाना चाहिए। ३०वीं प्रशस्ति 'सुकमाल चरिउ' की है। जिसके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में छह परिच्छेद या सन्धियाँ हैं जिनमें अवन्ती नगरी के सुकमाल श्रेष्ठी का जीवन-परिचय अंकित है। जिससे मालूम होता है कि उनका शरीर कितना सुकोमल था; परन्तु वे परिषहों और निस्पृह थे। उनकी उपसर्ग जन्य पीड़ा का ध्यान आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परन्तु परीषह जयी उस साधु की सहिष्णुता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा शरीर के खाये जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीषह जयी योगी के चरणों में मस्तक अनायास झुक ही जाता है । कवि ने इस ग्रंथ की रचना कब की यह ग्रंथ-प्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता। कवि-परिचय कवि ने अपनी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार बतलाई है । वे गुजरात देश के नागर मण्डल नामक नगर के निवासी थे। वहाँ वीरसूरि नाम के एक महामुनि थे। उनके शिष्य मुनिभद्र, मुनिभद्र के शिष्य कुमुमभद्र कुसुमभद्र के शिष्य गुणभद्र, और गुणभद्र के शिष्य पूर्णभद्र । परन्तु प्रशस्ति में कर्ता ने अपने संध गण गच्छादिक का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं किया, जिससे उनकी गुरु परम्परा और समय पर प्रकाश डाला जाता । आमेर शास्त्र भंडार की प्रति में लिपि प्रशस्ति नहीं है। किन्तु दिल्ली के पंचायती मंदिर की यह प्रति सं० १६३२ की लिखी हुई है। जिसकी पत्र संख्या ४३ है । इससे ग्रंथ रचना बहुत पहले हुई है । कितने पूर्व हुई यह अभी विचारणीय है। नेमिणाह चरिउ के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम पूर्णभद्र लिखा है, वह ग्रन्थ सं० १२८७ में रचा गया है । यदि ये पूर्णभद्र गुणभद्र के ही शिष्य हों; तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत ग्रंथ का रचना काल विक्रम की १३वीं शताब्दी का मध्यभाग हो सकता है । और यदि वे पूर्णभद्र, गुणभद्र के शिष्य नहीं हैं तब, उनका समय अन्वेषणीय है। __ ३१वीं प्रशस्ति ‘णेमिणाह चरिउ' की है, जिसका परिचय ग्यारहवीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 5& ३२ वीं प्रशस्ति 'मिरगाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि लक्ष्मरण है । ग्रन्थ में ४ संधियां या परिच्छेद और ८३ कडवक हैं जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या १३५० के लगभग है । ग्रन्थ में चरित श्रीर धार्मिक उपदेश की प्रधानता होते हुए वह अनेक सुन्दर स्थलों से अलंकृत हैं । ग्रन्थ की प्रथम सन्धि में जिन और सरस्वती के स्तवन के साथ मानव जन्म की दुर्लभता का निर्देश करते हुए सज्जन- दुर्जन का स्मरण किया है और फिर कवि ने अपनी अल्पज्ञता को प्रदर्शित किया है। मगध देश और राजगृह नगर के कथन के पश्चात् राजा श्रेणिक अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए गणधर से नेमिनाथ का चरित वर्णन करने के लिए कहता है । वराडक देश में स्थित वारावती या द्वारावती नगरी में जनार्दन नाम का राजा राज्य करता था, वहीं शौरीपुर नरेश समुदविजय अपनी शिवदेवी के साथ रहते थे । जरासन्ध के भय से यादव गण शौरीपुर छोड़कर द्वारिका में रहने लगे। वहीं उनके तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था । यह कृष्ण के चचेरे भाई थे । बालक का जन्मादि संस्कार इन्द्रादि देवों ने किया था। दूसरी संधि में नेमिनाथ की युवावस्था, वसंत वर्णन और जलक्रीड़ा आदि के प्रसंगों का कथन दिया हुआ है । कृष्ण को नेमिनाथ के पराक्रम से ईर्षा होने लगती है और वह उन्हें विरक्त करना चाहते हैं। भूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से नेमिनाथ का विवाह निश्चित होता है। बारात सज-धज कर भूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राजपुत्रों साथ रथ में बैठे हुए आस-पास की प्राकृतिक सुषमा का निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा बहुत से पशु एक बाड़े में बन्द हैं वे वहां से निकलना चाहते हैं किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है । नेमिनाथ ने सारथी से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं । नेमिनाथ को सारथि यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि बरात में आने वाले राजाओं के प्रातिथ्य के लिए इन पशुओं का वध किया जायगा, इससे उनके दयालु हृदय को बड़ी ठेस लगी, वे बोले- यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिवकार है मेरे उस विवाह को, अब मैं विवाह नहीं करूंगा । पशुत्रों को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकट और कंकरण को फेंक वन की ओर चल दिए। इस समाचार बरात में कोहराम मच गया । उधर भूनागढ़ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी को यह ज्ञात हुआ, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ । वे पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ़ गए और सहसा म्रवन में वस्त्रालंकार आदि परिधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रार श्रात्मध्यान में लीन हो गए। तीसरी संधिमें वियोग का वर्णन है । राजमती ने भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना की । अन्तिम संधि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वारण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है। इस तरह ग्रंथ का चरित विभाग बड़ा ही सुन्दर तथा संक्षिप्त है और कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है । कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर अंकन करते हुए कहा है - जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है उसे भोजन के प्रति अरुचि है । जिसमें भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नहीं । जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे प्रति लोभ है । जिसमें काम का प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं, जिसके पास स्त्री है उसका काम शान्त है । जैसा कि ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों से प्रकट है जसु गेहि अणु तसु रुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु ससुरा होइ । जसु दारण छाहु तसु दविणु गत्थि, जसु दविणु तासु उइ लोहु श्रत्थि । जसु मय राउतसि गत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छवरण काम । - रोमिमिरगाह चरिउ ३-२ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन पंच प्रशस्ति संग्रह ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों को उद्धृत किया है वे निम्म प्रकार हैं कि जीयई धम्म विवज्जिएण-धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है। किं सुडई संगरि कायरेण-युद्ध में कायर सुभटों से क्या ? किं वयण असच्चा भासणेण, झूठ बचन बोलने से क्या प्रयोजन है ? किं पुत्तइं गोत्त विरणासरणेण, कुल का नाश करने वाले पुत्र से क्या ? कि फुल्लई गंध विवज्जिएण, गन्ध रहित फूल से क्या ? ग्रन्थ में कड़वकों के प्रारम्भ में हेला, दुवई, वस्तु वंध आदि छंदों का प्रयोग किया है। किन्तु ग्रंश में छन्दों की बहुलता नहीं हैं। कवि ने इस ग्रंथ को १० महीने में समाप्त किया है। ग्रंथ की सबसे पुरानी प्रति सं० १५१० के लिखी हुई प्राप्त हुई है । इससे इसका रचना काल सं० १५१० के बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववर्ती यह अन्वेषणीय है । सम्भवतः यह कृति १२ वीं या १३ वीं शताब्दी की होनी चाहिए। कवि परिचय लक्ष्मणदेव का वंश पुरवाड़ था और पिता का नाम था रयणदेव या रत्नदेब । इनकी जन्म मालव देशान्तर्गत गोनन्द नामक नगर में थी। यह नगर उस समय जैनधर्म और विद्या का केन्द्र था वह अनेक उत्तुंग जिन मन्दिर तथा मेरु जिनालय भी था। कवि अत्यन्त धार्मिक, धन सम्पन्न और रूपवान थ वहां पहले कवि ने किसी व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी, जो विद्वानों के कण्ठ का पाभरण रूप था परन्तु कौन सा व्याकरण ग्रन्थ था, और उसका क्या नाम था, यह प्रयत्न करने पर भी ज्ञात नहीं हो सका हो सकता है कि वह अपभ्रंश का व्याकरण हो या संस्कृतका हो । गोनन्द नगरके अस्तित्वका भी मुझे पत नहीं चला। पर इतना जरूर मालूम होता है कि यह नगरी मालव देश में थी, और उज्जैन तथा भेलसा मध्यवर्ती किसी स्थान पर होनी चाहिए । संभव है वर्तमान में उसके नाम पर कोई अन्य नगर बस गया हो कवि वहां रहकर जिन-वाणी के रस का पान किया करते थे । इनके भाई का नाम 'अम्बदेव' था, जो र्का थे, उन्होंने भी किसी ग्रन्थ की रचना की थी, पर वह भी अनुपलब्ध है । मालव प्रांत के किसी शास्त्र-भंडा में इसकी तलाश होनी चाहिए। ____३३ वी ३४ वीं प्रशस्तियां क्रमशः अमरसेनचरित और नागकुमार चरित की हैं, जिनके कर कवि माणिक्यराज हैं। प्रथम ग्रन्थ अमरसेनचरित में ७ परिच्छेद या सन्धियां हैं जिनमें अमरसेन की जीवन गाथा में हुई है राजा अमरसेन ने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया था । वह धर्मनिष्ठ और संयमी था, वह दे भोगों से उदास हो आत्म-साधना के लिए उद्यत हुआ, उसने वस्त्राभूषण का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ली, और शरीर से भी निष्पह हो अत्यन्त भीषण तपश्चरण किया। प्रात्म-शोधन की दृष्टि से अनेक यात नाओं को साम्यभाव से सहा । उनकी कठोर साधना का स्मरण आते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । यह १६६ शताब्दी का अच्छा खण्ड-काव्य है । आमेर शास्त्र भंडार की इस प्रति का प्रथम पत्र त्रुटित है। इसके अपभ्रंश भाषा होते हुए भी हिन्दी भाषा के विकास के अत्यधिक नजदीक है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कवि ने इस ग्रन्थ की रचना रोहतक नगर' में की है, जहाँ के पार्श्वनाथ मंदिर में दो विद्वान निवास करते थे । उनका नाम गरवउ और जसमलु था, जो गुणों के निधान थे। उनका लघुबान्धव शांतिदास था, जो ग्रन्थ के अर्थ का जानकार था। इस चरित ग्रन्थ का निर्माण कराने वाले चौधरी देवराज थे। जिनका कुल अग्रवाल और गोत्र था सिंघल या सिंगल । और वे चौधरी पद से अलंकृत थे। उनके पिता का नाम साह महणा था। यह ग्रन्थ देवराज चौधरी की प्रेरणा से बनाया गया है, अतएव उन्हीं के नामांकित किया गया है । प्रशस्ति में देवराज के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। __ कवि ने इस ग्रंथ को रचना विक्रम संवत् १५७६ की चैत्र शुक्ला पंचमी शनिवार के दिन कृतिका नक्षत्र के शुभयोग में की है। और आमेर भंडार की यह प्रति सं० १५७७ कार्तिक वदी चतुर्थी को लिपि की हुई है, जो सुनपत में लिखी गई थी। ३४ वीं ग्रन्थ प्रशस्ति-नागकुमारचरित की है, जिसमें दो सन्धियां हैं, जिनकी श्लोक संख्या ३३०० के लगभग है जिनमें नागकुमार का पावन चरित अंकित किया गया हैं। चरित वही है जिसे पुष्पदन्तादि कवियों ने लिखा है, उसमें कोई खास वैशिष्ठ्य नहीं पाया जाता । ग्रन्थ की भाषा सरल और हिन्दी के विकास को लिये हुए है। इस खण्ड काव्य के भी प्रारंभ के दो पत्र नहीं हैं, जिससे प्रति खंडित हो गई है और उससे आद्य प्रशस्ति का कुछ ऐतिहासिक भाग भी त्रुटित हो गया है। कवि ने यह ग्रंथ साहू जयसी के पुत्र साहू टोडरमल की प्रेरणा से बनाया है। साहू टोडरमल का वंश इक्ष्वाकु था और कुल जायसवाल' । वह दान-पूजा आदि धार्मिक कार्यों में संलग्न रहता था और प्रकृतितः दयालु था। अतएव वह १. रोहतक पंजाब का एक नगर है। वर्तमान में भी उसका वही नाम है। वहां प्राज भी जैनियों की अच्छी संख्या है। २. जायस या यादव वंश का इतिवृत्त अति प्राचीन है। परन्तु उसके सम्बन्ध में कोई अन्वेषण नहीं हुआ। इस जाति का निकास जैसा से कहा जाता है । भले ही लोग जैसा से जैसवालों की कल्पना करें; किन्तु ग्रंथ प्रशस्तियों में इन्हें यादव वंशी लिखा मिलता है । जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये लोग यदुवंशियों की सन्तान थे। उसी यदु या यादव शब्द का अपभ्रंश रूप जादव या जायस बन गया जान पड़ता है । यदु वंश एक क्षत्रिय वंश है, यदुवंशियों का विशाल राज्य रहा है । शौरीपुर से लेकर मथुरा और उसके आस-पास के प्रदेश उनके द्वारा शामित रहे हैं । यादव वंशी जरासंध के भय से शौरीपुर को छोड़ कर वारावती (द्वारावनी या द्वारिका) में बस गए थे । जैनियों के २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और उनके चचेरे भाई श्रीकृष्ण का जन्म उसी यादव कुल में हुआ था। जायस वंश में अनेक प्रतिष्ठित और राज्य मान्य व्यक्ति हो गये हैं, जो तोमर और चौहान वंशी राजानों के राजमंत्री रहे हैं। ग्वालियर के तोमर वंशी राजा वीरसिंह के प्रधान मंत्री जायस वंशी सेठ कुशराज थे। जो राजनीति के साथ धर्मनिष्ठ और राज्य के संवर्द्धन संरक्षण की कला में कुशल थे। इन्होंने पद्मनाभ नामक कायस्थ विद्वान से, जो जैनधर्म का श्रद्धालु था, 'यशोधरचरित्र' ग्रन्थ का निर्माण कराया था। चन्द्रबाड और रपरी के चौहानवंशी राजापों के राज्य मंत्री भी जायसवाल श्रावक रहे हैं। वर्तमान में यद्यपि उनका प्रभाव क्षीण हो गया है। फिर भी मंदिर, मूर्तियों और जैनग्रन्थों के निर्माण में उनका बहुत कुछ योग रहा है । दूबकुण्ड (ग्वालियर) के भग्न मन्दिर के शिलालेख से ज्ञात होता है कि विक्रम संवत् ११४५ में कच्छप वंशी महाराज विक्रमसिंह के राज्यकाल में मुनि विजयकीर्ति के उपदेश से जमवाल वंशी पाहड़, कुकेक, सूर्पट, देवधर और महीचन्द्र प्रादि चतुर श्रावकों ने ७५० फीट लम्बे और ४०० वर्गफीट चौड़े अंडाकार क्षेत्र में इस विशाल Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रंथ की कुछ संधियों में कतिपय संस्कृत पद्य भी पाये जाते हैं, जिनमें साह टोडर का खुला यशोगान किया गया हैं। उसे कर्ण के समान दानी. विद्वज्जनों का संपोषक, रूपलावण्य से युक्त और विवेकी बतलाया है। कवि ने इस ग्रंथ की चौथी संधि के आदि में साहू टोडरमल का जयघोष करते हुए लिखा है कि वह राज्य सभा में मान्य था, अखण्य प्रतापी स्वजनों का विकासी और भ्रात-पुत्रों से अलंकृत था, जैसा कि निम्न पद्य से प्रकट है ''नृपति सदसिमान्यो योह्यखण्डप्रतापः, स्वजनजनविकासी सप्ततत्त्वावभासी। विमलगुण-निकेतो भ्रातृ पुत्रो समेतः, स जयति शिवकामः साधुटोडरुत्ति नामा ॥" कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया, तब उसने उसे अपने शीश पर रखकर कवि माणिवयराज का खूब आदर सत्कार किया, उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त कंकण, कुंडल और मुद्रिका प्रादि प्राभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था। किन्तु आज गुणीजनों का निरादर करने वाले तो बहुत हैं किंतु गुण-ग्राहक बहुत ही कम हैं। क्योंकि स्वार्थतत्परता और अहंकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ अथवा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति अनादर की भावना जागृत हो जाती है। 'गुण न हिरानो किन्तु गुण-गाहक हिरानो की नीति के अनुसार खेद है कि आज टोडरमल जैसे गुण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है-वे थोड़े हैं । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५७६ फाल्गुन शुक्ला हवीं के दिन पूर्ण की है। कवि-परिचय कवि माणिक्य राज जैसवाल कुलरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए 'तरणि' (सूर्य) थे। इनके पिता का नाम बुधसूरा था और माता का नाम 'दीवा' था। कवि ने अमरसेन चरित में अपनी गुरु परम्परा निम्न प्रकार दी है-क्षेमकीति, हेमकीति, कुमारसेन, हेमचन्द्र और पद्मनन्दी । ये सब भट्टारक मूलसंघ के अनुयायी थे। कवि के गुरु पद्मनंदी थे। वे बड़े तपस्वी शील की खानि, निर्ग्रन्थ, दयालु और अमृतवाणी थे । इस ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में पद्मनन्दि के एक शिष्य का और उल्लेख किया गया है । जिनका नाम देवनन्दी था, और जो श्रावक की एकादश प्रतिमाओं के संपालक, राग-द्वेश के विनाशक, शुभध्यान में अनुरक्त और उपशम भावी था। कवि ने अपने गुरु का अभिवंदन किया है। ३५वीं प्रशस्ति से लेकर ४६वीं प्रशस्ति तक १५ प्रशस्तियाँ, और ६६वीं और १०६वीं प्रशस्तियां क्रमशः निम्न ग्रन्थों की हैं, जिनके कर्ता कवि रइधू हैं। सम्मइजिनचरिउ, सुकोशलचरिउ पासणाहचरिउ, मन्दिर का निर्माण कराया था। और उसके पूजन, संरक्षण एवं जीर्णोद्धार प्रादि के लिए उक्त कच्छप वंशी विक्रमसिंह ने भूमिदान दिया था। (See Epigraphica India Vol 11 p. 237-240) किन्तु बाद में मराठा सरदादर अमरसिंह ने धर्मान्ध होकर इस जैन संस्कृति के स्तम्भरूप मन्दिर को भग्न कर दिया था। वि० सं० ११६० में जैसवाल वंशी साह नेमचन्द्र ने कवि श्रीधर अग्रवाल से 'वर्षमान चरित' नाम का ग्रन्थ बनवाया था। कवि लक्ष्मण जैसवाल ने जिनदत्त चरित्र की रचना सं० १२७५ में और अणुवइ रयण पईव की रचना सं० १३१३ में की थी। प्राज भी इस जाति में सम्पन्न और विद्वान व्यक्ति पाये जाते हैं । इहीं सब कार्यों से इस जाति की महत्ता का भान होता है। २. "जइसवाल कुल सम्पन्नः दान-पूय-परायणः । जगसी नन्दनः श्रीमान् टोउरमल्ल चिरं जियः॥" Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पउमचरिउ,मेहेसरचरिउ, सम्मत्तगुणनिहाण, रिट्ठणेमिचरिउ, धरणकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, अणथमी कहा, अप्पसम्बोहकन्व, सिद्धतत्थसार, वित्तसार, पुण्णासवकहा, जीवंधरचरिउ, सिरिपालचरिउ और सम्यत्तकउमदी। __ इनमें पहला ग्रन्थ 'सम्मइ जिनचरिउ' है । जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का जीवन-परिचय दिया हुआ है । यद्यपि उसमें कवि असग के महावीर चरित से कोई वैशिष्ट्य नहीं दिखाई देता; किन्तु फिर भी अपभ्रंश भाषा का यह चरित ग्रन्थ पद्धडिया आदि छन्दों में रचा गया है। ग्रन्थ १० संधियों और २४६ कडवकों में पूरा हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ हिसार निवासी अग्रवाल कुलावतंश' गोयल गोत्रीय साहु सहजपाल के पुत्र और संघाधिप साहु सहदेव के लघु भ्राता साहु तोसउ की प्रेरणा से बनाया ५. 'अप्रवाल' यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है। जिसका विकास अग्रोहा या अग्रोदक जनपद से हुआ है । यह स्थान हिसार जिले में है। अग्रोहा एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था। यहां एक टीला ६० फुट ऊँचा था, जिसकी खुदाई सन् १९३६ या ४० में हुई थी। उससे प्राचीन नगर के अवशेष, और प्राचीन सिक्कों आदि का ढेर प्राप्त हुआ था। २६ फुट से नीचे प्राचीन पाहत मुद्रा का नमूना, चार यूनानी सिक्के और ५१ बे के सिक्के भी मिले हैं। तांबे के सिक्कों में सामने की ओर वषभ' और पीछे की ओर सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति है । सिक्कों के पीछे ब्राह्मी अक्षरों में-'अगोद के अगच जनपदस' शिलालेख भी अंकित है, जिसका अर्थ 'अनोदक में अगच जनपद का सिक्का' होता है । अग्रोहे का नाम प्रमोदक भी रहा है । उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की अोर संकेत करती हैं। (देखो, एपिग्राफिका इंडिका जि० २१० २४४ । इंडियन एण्टीक्वेरी भाग १५ के प० ३४३ पर अग्रोतक वैश्यों का वर्णन दिया है। कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते हैं। अग्रवाल शब्द के अनेक अर्थ हैं। किन्तु यहां उन अर्थों की विवक्षा नहीं है, यहाँ अग्रदेश के रहने वाले अर्थ ही विवक्षित है। अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते हैं। जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल जिन्दल, सिंहल आदि नाम हैं । अग्रवालों में दो धर्मों के मनाने वाले पाये जाते है । जन अग्रवाल और वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश से उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गए थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव; परन्तु दोनों में रोटी-बेटी व्यवहार होता है, रीति-रिवाजों में कुछ समानता होते हुये भी उनमें अपने-अपने धर्मपरक प्रवृत्ति पाई जाती है, हाँ सभी अहिंसा धर्म के मानने वाले हैं । उपजातियों का इतिवृत्त १०वीं शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियां पूर्ववर्ती रही हों। अग्रवालों की जैन परम्परा के उल्लेख १२वीं शताब्दी तक के मेरे देखने में पाए हैं । यह जाति खूब सम्पन्न रही है। ये लोग धर्मज, प्राचारनिष्ठ, दयालु और जन-धन से सम्पन्न तथा राज्यमान्य रहे हैं । तोमर वंशी राजा अनंगपाल तृतीय के राजश्रेष्ठी पौर प्रामात्य अग्रवाल कुलावतंश साह नट्टल ने दिल्ली में प्रादिनाथ का एक विशाल सुन्दरतम मंदिर बनवाया था, जिसका उल्लेख कवि श्रीधर अग्रवाल द्वारा रचे गये 'पार्श्वपुराण में, जो संवत् ११८६ में दिल्ली में उक्त नट्टल साहू के द्वारा बनवाया गया था और जिसकी सं० १५७७ की लिखित प्रति भामेर भंडार में सुरक्षित है । पौर अनेक मन्दिरों का निर्माण, तथा ग्रन्थों का निर्माण, और उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुनों, भट्टारकों प्रादि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते हैं। इससे इस जाति की सम्पन्नता, धर्मनिष्ठा और परोपकारवृत्ति का परिचय मिलता है। हाँ, इनमें शासक वृत्ति अधिक पाई जाती है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जन पंथ प्रशस्ति संग्रह गया था। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में साहू तोसउके वंश का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। जिसमें उनके परिवार द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का परिचय दिया गया है। प्रशस्ति में तात्कालिक-ऐतिहासिक उल्लेख भी अंकित किए गए हैं। ___ कवि ने साहु तोसउ का उल्लेख करते हुए, उन्हें जिनेन्द्र-चरणों का भक्त पंचेन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, पाप से शंकित-भयभीत और सदा तत्त्वचिंतन में निरत बतलाया है। और लिखा है कि उसकी लक्ष्मी दुखी जनों के भरण-पोषण में काम आती थी। वाणी श्रुत का अवधारण करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त होता था। वह शुभमती था, तथा सम्भाषण में उसके कोई दोष न होता था। चित्त तत्त्वों के विचार में रहता था और दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से संतुष्ठ रहते थे। ऐसा वह तोसउ साहु लोक में आनंद को प्राप्त हो, जैसा कि दूसरी और तीसरी संधि के प्रारम्भ के निम्न पद्यों से स्पष्ट है जो णिच्चं जिण-पाय-कंज भसलो जो रिणच्च दाणे रदो। जो पंचेंदिय-भोय-भाव-विरदो जो चिंतए संहिदो। जो संसार-महोहि-पातन-भिदो जो पावदो संकिदो। एसो गंदउ तोसडो गुणजुदो सतत्थ वेई चिरं ॥२॥ लच्छी जस्स दुही जणाण भरणे वाणी सुयं धारणे। सीसं सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभासणे। चित्तं तत्त्व-वियारणे करजुयं पूया-विहि सं ददं । सोऽयं तोसउ साहु एत्थ धवलो सं रणदो भूयले ॥३॥ प्रशस्ति में हिसार निवासी अग्रवाल कुलावतंश खेल्हा नामक ब्रह्मचारी द्वारा निर्मित चन्द्रप्रभ भगवान की विशाल मूर्ति का उल्लेख किया गया है, जिसे उन्होंने उक्त दुर्ग में निर्माण कराया था। ब्रह्मचारी खेल्हा श्री सम्पन्न थे, वस्तुस्वरूप को समझते थे और देह-भोगों से विरक्त थे। सम्मइ जिन चरिउ के निर्माण में ब्रह्मचारी खेल्हा का खास सहयोग रहा है, यह साहू तोसउ के पुत्र थे। इन्होंने कवि से उक्त ग्रन्थ रचने की स्वयं प्रेरणा नहीं की, किन्तु भट्टारक यशःकीति से अनुरोध करवाया था, सम्भवतः उन्हें यह सन्देह था कि कवि मेरे निवेदन पर ग्रन्थ न बनावें, इसी से उन्होंने कवि को यशःकीति से प्रेरित करवाया था। कवि भट्टारक यशःकीति के आदेश को कभी नहीं टाल सकते थे। अस्तु ब्रह्मचारी खेल्हा की भावना सफल हुई और कवि ने ग्रंथ निर्माण करना स्वीकृत कर लिया। इससे ब्रह्मचारी खेल्हा को हर्ष होना स्वाभाविक है । खेल्हा ने उस समय अपनी त्यागवृत्ति का क्षेत्र बढ़ा लिया था और ग्यारह प्रतिमा धारी उत्कृष्ट श्राबक के रूप में आत्म-साधना करने लगे थे। हिसार के अग्रवाल वंशी साहु नरपति के पुत्र साहु वील्हा, जो जैनधर्मी और पाप रहित तथा दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुग़लक द्वारा सम्मानित थे। ____संधाधिप सहजपाल ने, जो सहदेव का पुत्र था, जिनेन्द्र मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई थी। साहू सहज पाल के पुत्र ने गिरनार की यात्रा का संघ भी चलाया था, और उसका सब व्यय भार स्वयं वहन किया था। ये सब ऐतिहासिक उल्लेख महत्वपूर्ण हैं । और अग्रवालों के लिए गौरवपूर्ण हैं। ___ कविने ग्रन्थ में काष्ठासंघ की भट्टारक परम्परा का उल्लेख किया है देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भावसेन, सहस्रकीर्ति, गुणकीर्ति (सं० १४६८ से १४८६), यश: कीर्ति १४८६ - १५१०, मलय कीर्ति ( १५१० से १५२५) भ० गुरणभद्र (१५२५ से १५४० ) । कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न साहित्यकारों का भी उल्लेख किया है, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त और वीर कवि । इनमें समय की दृष्टि वीर कवि सब से बाद के (सं० १०७६ के) हैं । Ex साथ ही, इस ग्रन्थ में इससे पूर्व रची जाने वाली अपनी निम्न रचनाओं का उल्लेख किया है । पासणाहचरिउ, मेहेसरचरिउ, सिद्धचवकमाहप्प, बलहद्दचरिउ, सुदंसरणचरिउ, धरण कुमारचरिउ । परन्तु प्रशस्ति में ग्रंथ का रचना काल नहीं दिया है । ३६वीं प्रशस्ति 'सुकौशल चरिउ' की है। जिसमें ४ संधियां और ७४ कडवक हैं। पहली दो संघियों में कथन क्रमादि की व्यवस्था व्यक्त करते हुए तीसरी संधि में चरित्र का चित्रण किया है, और चौथी संधि में चरित्र का वर्णन करते हुए काव्यमय वर्णन उच्चकोटि का किया है । किन्तु शैली विषय वर्णनात्मक ही है । कवि ने इस खण्ड-काव्य में सुकौशल की जीवन-गाथा को अङ्कित किया है । कथानक इस प्रकार है इक्ष्वाकुवंश में कीर्तिधर नाम के एक प्रसिद्ध राजा थे । उन्हें उल्कापात के देखने से वैराग्य हो गया था, अतएव वे साधु जीवन व्यतीत करना चाहते थे; परन्तु मन्त्रियों के अनुरोध से पुत्रोत्पत्ति के समय तक गृही जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया। कई वर्षों तक उनके कोई सन्तान न हुई। उनकी रानी सहदेवी एक दिन जिन मन्दिर गई, वहां जिन दर्शनादि क्रिया सम्पन्न कर उसने एक मुनि से पूछा कि मेरे पुत्र कब होगा ? तब साधु ने कहा कि तुम्हारे एक पुत्र अवश्य होगा, परन्तु उसे देखकर राजा दीक्षा ले लेगा और पुत्र भी दिगम्बर साधु को देखकर साधु बन जायगा । कुछ समय पश्चात् रानी के पुत्र हुआ। रानी ने पुत्रोत्पत्ति को गुप्त रखने का बहुत प्रयत्न किया; किन्तु राजा को उसका पता चल गया और राजाने तत्काल ही राज्य का भार पुत्र को सौंप कर जिन दीक्षा ले ली। राजा ने पुत्र के शुभ लक्षणों को देखकर उसका नाम सुकौशल रखखा । रानी को पति वियोग का दुःख असह्य था, साथही पुत्रके भी साधु हो जाने का भय उसे आतंकित किए हुए था । युवावस्था में कुमार का विवाह ३२ राज कन्याओं से कर दिया गया और वह भोग-विलासमय जीवन बिताने लगा, उसे महल से बाहर जाने का कोई अधिकार न था । माता इस बात का सदा ध्यान रखती थी कि पुत्र कहीं किसी मुनि को न देख ले । अतएव उसने नगर में मुनियों का आना निषिद्ध कर दिया था । एक दिन कुमार के पिता मुनि कीर्तिधवल नगर में प्राये, किन्तु उनके साथ अच्छा व्यवहार न किया गया । जव राजकुमार को यह बात ज्ञात हुई, तो उसने राज्य का परित्याग कर उनके समीप ही साधु दीक्षा लेकर तप का अनुष्ठान करने लगा । माता सहदेबी पुत्र वियोग से अत्यंत दुखी हुई और परिणामों से मरकर व्याघ्री हुई । एक दिन उसने अत्यंत भूखी होने के कारण पर्वत पर ध्यानस्थ मुनि सुकौशल को ही खा लिया । सुकौशल ने समताभाव से कर्म- कालिमा नष्ट कर स्वात्म लाभ किया। इधर मुनि कतिधवल ने उस व्याघ्री को उपदेश दिया, जिसे सुनकर उसे जातिस्मरण हो गया, और अन्त में उसने संन्यास पूर्वक शरीर छोड़ा और स्वर्ग प्राप्त किया, कीर्ति धवल भी अक्षयपद को प्राप्त हुए । कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १४६६ में माघ कृष्णा १० मीं के दिन ग्वालियर में राजा डूंगरसिंह राज्य में समाप्त किया है । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन पंच-प्रशस्ति संग्रह ३७वीं प्रशस्ति 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ' की है, जिसकी रचना उक्त कवि रइधू ने की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडवक हैं, जिनमें जैनियों के तेवीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय दिया हया है। पार्श्वनाथ के जीवन-परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं। परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नहीं होती। इस ग्रन्थ की रचना मणिपुर (दिल्ली) के निवासी साहू खेऊ या खेमचन्द की प्रेरणा से की गई है, इनका वंश अग्रवाल और गोत्र ऍडिल था। खेमचंद के पिता का नाम पजण साहु, और माता का नाम बील्हादेवी था । और धर्मपत्नी का नाम धनदेवी था, उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे। सहसराज, पहराज, रघुपति कौर होलिवम्म । इनमें सहसराज ने गिरनार की यात्रा का संघ चलाया था, साहू खेमचंद सप्त व्यसन रहित और देव-शास्त्र गुरु के भक्त थे। प्रशस्ति में इनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रंथ की पाद्यन्त प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था, और वे अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ अहिंसा, परोपकार और दयालुता का जीवन में आचरण करना श्रेष्ठ मानते थे। ___ ग्रंथ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइधू को द्वीपांतरों से आये हुए विविध वस्त्रों और पाभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर संतुष्ट किया था। ३८वीं प्रशस्ति 'बलहद्दचरिउ' (पउमचरिउ) की है, जिसके कर्ता उक्त कवि रइधू हैं। ग्रंथ में ११ संधियाँ और २४० कडवक हैं। जिनमें बलभद्र, (रामचन्द्र), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी श्लोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है। ग्रंथ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वीं शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रंथ की शैली सीधी और सरल है, उसमें शव्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसंगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा प्रभाव भी नहीं है। राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है। इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रंथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं। यह ग्रंथ भी अग्रवालवंशी साहु बाटू के सुपुत्र हरसी साहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह से बनाया गया है। साहु हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रंथों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर, तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म-ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद-विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। प्रात्म-विकास करना उनका लक्ष्य था। ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुटुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है । ग्रंथ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है। ३६ वीं प्रशस्ति 'मेहेसरचरित' की है, प्रस्तुत ग्रंथ में १३ संधियां और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है । जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही पावन रहा है । ग्रंथ की द्वितीय-तृतीय संधियों में प्रादि ब्रह्मा-ऋषभदेवका गृह त्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, बाहुबलि का तपश्चरण और कैवल्य प्राप्ति प्रादि का कथन दिया हुआ है। छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर, सेनापति मेघेश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्तीके पुत्र प्रकीतिके साथ युद्ध करना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वर्णन दिया है। और ७वीं सन्धि में सुलोचना और मेघेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । और ८वीं से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्वभव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर क। तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का सुन्दर कथन दिया हुआ है। ग्रंथ काव्य-कला की दृष्टि से उच्चकोटि का है । ग्रंथ में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, घत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है। रसों में शृंगार, वीर, बीभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रंथ सरस और पठनीय बन गया है। कवि ने ग्रंथ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृनियों का उल्लेख किया हैं। कवि चक्रवर्ती धीरसेन, देवनन्दी अपर नाम पूज्यपाद (ईस्वी सन् ४७५ से ५२५ ई०) जैनेन्द्र व्याकरण, वज्रसेन और उनका षड्दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय का ग्रंथ । रविषेण (वि० सं० ७३४) तथा उनका पद्मचरित, पुन्नाटसंघी जिनसेन (वि० सं० ८४०) और उनका हरिवंश, महाकवि स्वयंभू, चनर्मख तथा पुष्पदन्त, देवसेन का मेहेसरचरिउ (जयकुमार-सुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित। ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कुलावतंश साह खेऊ या खेमसिंह के परिवार का विरतृत परिचय दिया हया है। और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोकों में आश्रयदाता उक्त साहू की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्न पद्य दृष्टव्य है । तीर्थेशो वृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो, आदीशो हरिणंचितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभुः । नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशि: कैवल्यभाभासुरः, क्षेमाख्यस्य गुणान्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः ॥ इस पद्य में ऋषभदेव के विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहाँ वे ऋषभदेव और शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये। ४० वीं प्रशस्ति 'सम्मत्तगुणनिधान' की हैं। ग्रंथ में ४ संधियां और १०८ कडवक दिये हुए हैं। जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या तेरहसौ पचहत्तर के करीब है। जिनमें सम्यक्त्व का स्वरूप, उनका माहात्म्य तथा सम्यक्त्व के आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषों की रोचक कथाएँ बहुत ही सुन्दरता से दी गई हैं। जो पाठकों को अत्यन्त सूचिकर और सरस मालूम होती हैं। प्रस्तुत ग्रंथ गोपाचल (ग्वालियर) निवासी साहु खेमसिंह के सुपुत्र साहु कमलसिंह के अनुरोध से बनाया गया है, और उन्हीं के नामांकित भी किया गया है। इस ग्रंथ की प्रथम संधि के १७वें कडवक से स्पष्ट है कि साहु खेमसिंह के पुत्र कमलसिंह ने भगवान आदिनाथ की एक विशालमूर्ति का निर्माण कराया था, जो ग्यारह हाथ ऊँची थी, और जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्वरूपी गिरीन्द्र के लिये वज्र समान, भव्यों के लिए शुभ गति प्रदान करने वाली, तथा दुःख, रोग, शोक की नाशक थी। अर्थात् जिसके दर्शन, चिन्तन से भव्यों की भव-बाधा सहज ही दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति की प्रतिष्ठा कर उसने महान् पुण्य का संचय किया था और चतुर्विध संघ की विनय भी की थी। ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ-गत कथाओं का आधार प्राचार्य Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू का छठा आश्वास रहा जान पड़ता है। ग्रंथ का रचनाकाल वि० संवत् १४६२ है। ४१ वीं प्रशस्ति 'रिटुणेमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' की है। प्रस्तुत ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कडवक हैं तथा १९०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋषभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव और उनका पूर्वभव कथानक, बन्धु-बान्धवों से मिलाप, कंस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्युम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग, नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीड़ा यौवन, विवाहमैं वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्ति आदिका कथन दिया है। ग्रंथ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ की जीवन-घटनाओं का परिचय दिया हुआ है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे । और थे कृष्ण के चचेरे भाई । उन्होंने पशुओं के बंधन खुलवाए । और संसार की असारता को देख, वैरागी हो तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का सुन्दरतम मार्ग बतलाया। उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रैवतगिरि है जो प्राज भी नेमिनाथ के अतीत जीवन को झाँकी को प्रस्तुत करता है। तीर्थंकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है । इस ग्रंथ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था, जो पाठ की अशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका। ग्रंथ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साहु लोणा की प्रेरणा से हुई है। ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्तियों में साहु लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है । ___ कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रंथों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जैन रामायण-पद्मचरित) कमलकीर्ति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में हुआ था। साथ ही कवि ने अपने रिटणेमिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिए हुए हैं। महापुराण, भरत-सेनापति चरित (मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ ( यशोधरचरित ) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामोल्लेख किया है। ग्रंथ में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रंथ कब बना? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रंथ विक्रम की १५ वीं शताब्दो के अन्तिम चरण या १६ वीं के प्रथम चरण में रचा गया है। ४२ वीं प्रशस्ति 'धरणकुमार चरिउ' की है जिसमें चार सन्धियां और ७४ कडवक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है । जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना आरौन जिला ग्वालियर निवासी जैसवाल वंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है । अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रंथ की आद्य प्रशस्ति में साहु भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। ____ इस ग्रंथ की रचना कब हुई ? यह ग्रंथप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है। किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रंथ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रंथों के नामों में 'णेमिजिणिद चरिउ' (हरिवंश पुराण) का भी उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि यह ग्रंथ उसके बाद बनाया गया है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४३ वीं प्रशस्ति 'जसहर चरिउ' की है जिसके कर्ता भी उक्त कवि रइधू हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में ४ सन्धियाँ और १०४ कड़वक हैं। जिनकी श्लोक संख्या९०० के लगभग है । ग्रंथ में योधेय देशके राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुआ है। ग्रंथ का कथानक सुन्दर और हृदय-ग्राही है और वह जीव दया की पोषक वार्तामों से ओत-प्रोत है। यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें प्राचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है। परंतु अपभ्रंश भाषा की यह दूसरी रचना है । प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है। यद्यपि भ० अमरकोति ने भी 'जसहर चरिउ' नाम का ग्रंथ लिखा था; परंतु वह अभी तक अनपलब्ध है। इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साहु कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज की प्रेरणा से हुई है । अतएव ग्रंथ उन्हीं के नाम किया गया है । उक्त साहु परिवार ने गिरनार जी की तीर्थयात्रा का संघ चलाया या । ग्रंथ की आद्यन्त प्रशस्ति में साहु कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। कवि ने यह ग्रंथ लाहड़पुर के जोधा साहु के विहार में बैठकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवित्तं'–पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है। ४४ वीं प्रशस्ति 'अरणथमी कहा' की है। इस कथा में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो घड़ी दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें; क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय-कमल संकुचित हो जाता है, अतः रात्रि भोजनके त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है: "जि रोय-दलद्दिय दीण अरणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । दुहग्गु जि परियणु वग्णु प्रणेहु, सु-रयरिणहि भोयणु फलु जि मुणहु । घड़ी दुइ वासरु यक्कइ जाम, सुभोयण सावय भुजहि ताम । दिवायरु तेज जि मंदउ होइ, सकुच्चइ चित्तहु कमलु जिव सोइ।" कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धी असंयम से रक्षा करना है, जिससे प्रात्मा धार्मिक मर्यादामों का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे। ४५ वीं प्रशस्ति 'अप्प-संबोह-कव्व' की है। यह एक छोटा सा काव्य-ग्रंथ है जिसे कवि ने प्रात्मसम्बोधनार्थ बनाया है। आत्म-हित को दृष्टि में लक्ष्य रखते हुए हिंसादि पंच पापों और सप्त व्यसनादि से आत्म-रक्षा करने का उपाय बतलाया गया है-हिंसादि पापों का त्याग कर आत्म-कर्तव्य की ओर दृष्टि रखने का प्रयत्न किया गया है, जिससे मानव इस लोक तथा परलोक में सुख-शान्ति प्राप्त कर सके । ग्रंथ बहुत सुन्दर है, पर अभी तक अप्रकाशित है। ४६ वीं प्रशस्ति 'सिद्धांतार्थसार' की है, इस ग्रंथ का विषय भी सैद्धांतिक है और अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है । इसमें सम्यग्दर्शन, जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय-निरोध आदि आवश्यक क्रियाओं का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, अष्टकर्म, द्वादशांगश्रुत, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुप्रेक्षा दशलक्षणधर्म, और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस ग्रंथ की रचना वणिकवर श्रेष्ठी खेमसी साहु या साह खेमचंद्र के निमित्त की गई है । परंतु खेद है कि उपलब्ध ग्रंथ का अंतिम भाग खंडित है । लेखक ने कुछ जगह छोड़कर लिपि पुष्पिका की प्रतिलिपि कर दी है। ग्रंथ के शुरू में कवि ने लिखा है Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कि यदि मैं उक्त सभी विषयों के कथन में स्खलित हो जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना चाहिए । यह ग्रंथ भी तोमर वंशी राजा कीर्तिसिंह के राज्य में रचा गया है। ४७ वीं प्रशस्ति 'वृत्तसार' नामक ग्रंथ की है। जिसके कर्ता कवि रइधू हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में छह सर्ग या ग्रंक (अध्याय) हैं। ग्रंथ का अन्तिम पत्र त्रुटित है जिसमें ग्रंथकार की प्रशस्ति उल्लिखित होगी। यह ग्रंथ अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है, जिनकी संख्या ७५० है । बीच बीच में संस्कृत के गद्य-पद्यमय वाक्य भी ग्रन्थांतरों से प्रमाण स्वरूपमें उद्धृत किये गये हैं। प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का सुन्दर विवेचन है, और दूसरे अधिकार में मिथ्यात्वादि छह गुणस्थानों का स्वरूप निर्दिष्ट किया है । तीसरे अधिकार में शेप गुण-स्थानों का और कर्मस्वरूप का वर्णन है। चौथे अधिकार में बारह भावनाओं का कथन दिया हुआ है । पाँचवें अक में दशलक्षण धर्म का निर्देश है और छठवें अध्याय में ध्यान की विधि और स्वरूपादि का सुन्दर विवेचन दिया हुआ है। इस तरह इस ग्रन्थ में जैनधर्म के तात्त्विक स्वरूप का सुन्दर विवेचन किया गया है । ग्रन्थ सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाश में आने वाला है। ४८ वीं प्रशस्ति 'पुण्णासव कहा कोश' की है। जिसमें १३ संधियां दी हुई हैं जिनमें पुण्य का आस्रव करने वाली सुन्दर कथाओं का संकलन किया गया है । प्रथम सन्धि में सम्यक्त्व के दोषों का वर्णन है, जिन्हें सम्यक्त्वी को टालने की प्रेरणा की गई है । दूसरी संधि में सम्यक्त्व के निश्शंकितादि अष्ट गुणों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उनमें प्रसिद्ध होने वाले अंजन चोर का चित्ताकर्षक कथानक दिया हुआ है तीसरी संधि में निकांक्षित और निर्विचिकित्सा इन दो अंगों में प्रसिद्ध होने वाले अनन्तमती और उदितोदय राजा की कथा दी गई है । चौथी संधि में अमूढ़दृष्टि और स्थितिकरण अंग में रेवती रानी और श्रेणिक राजा के पुत्र वारिषेण का कथानक दिया हुआ है। पांचवीं सन्धि में उपगूहन अंग का कथन करते हुए उसमें प्रसिद्ध जिनभक्त सेठ की कथा दी हुई है । सातवीं सन्धि में प्रभावना अंग का कथन दिया हुआ है । पाठवीं संधि में पूजा का फल, नवमी संधि में पंचनमस्कार मंत्र का फल, दशवीं संधि में आगमभक्ति का फल और ग्यारहवीं संधि में सती सीता के शील का कथन दिया हुआ है । बारहवीं सन्धि में उपवास का फल और १३ वों संधि में पात्रदान के फल का वर्णन किया है । इस तरह अन्य को ये सब कथायें बड़ी हो रोचक और शिक्षाप्रद हैं। इस ग्रन्थ का निर्माण अग्रवाल कुलावतंस साहु नेमिदास की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुआ है और यह ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रन्थ की आद्यन्त प्रशस्तियों में नेमिदास और उनके कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया हुआ है । और बतलाया है कि साहु नेमिदास जोइणिपुर (दिल्ली) के निवासी थे और साहु तोसउ के चार पुत्रों में से प्रथम थे। नेमिदास श्रावक व्रतों के प्रतिपालक, शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान, दया और परोपकार आदि सत्कार्यों में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त समुदार था और लोक में उनकी धार्मिकता और सुजनता का सहज ही आभास हो जाता है, और उनके द्वारा अगणित मूर्तियों के निर्माण कराये जाने, मन्दिर बनवाने और प्रतिष्ठादि महोत्सव सम्पन्न करने का भी उल्लेख किया गया है । साह नेमिदास चन्द्रवाड के राजा प्रतापरुद्र से सम्मानित थे। वे सम्भवतः उस समय दिल्ली से चन्द्रवाड चले गए थे, और वहां ही निवास करने लगे थे, और उनके अन्य कुटुम्बी जन उस समय दिल्ली में ही रह रहे थे, राजा प्रतापरुद्र चौहान वंशी राजा रामचंद्र के पुत्र थे, जिनका राज्य विक्रम सं० १४६८ में वहां विद्यमान १. णिय पयावरुद्द सम्माणिउ -पुण्यास्रव प्रशस्ति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०१ था। ग्रन्थ में उसका रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, परन्तु उसकी रचना पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिमचरण में हुई जान पड़ती है । क्योंकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलों से चन्द्रवाड़ को श्री सम्पन्नता को भारी क्षति पहुंची थी। कवि ने ग्रंथ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में ग्रंथ रचना में प्रेरक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुये मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नपद्यों से प्रकट है प्रतापरुद्रनृपराजविश्रुतस्त्रिकालदेवार्चनवंचिता शुभा । जैनोक्तशास्त्रामृतपानशुद्धधी: चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः ।। ३ सत्कवि गुणानुरागी श्रेयांन्निव पात्रदानविधिदक्षः । तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्दतु नित्येव नेमिदासाख्यः ।।४।। ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना आवश्यक है। ४६ वीं प्रशस्ति 'जीवंधर चरिउ' की है। जिसमें तेरह संधियां दी हुई हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है। और उनका फल प्राप्त करने वाले जीवंधर तीर्थंकर की रोचक कथा दी गई है । प्रस्तुत जीवंधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गंधर्वराउ (राज) नगर के राजा सीमंधर और उनको पट्ट महिषी महादेवी के पुत्र थे। इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि षोडश कारण भावनाओं का भक्तिभाव से चिंतन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थकर हुए । ग्रंथका कथा भाग बड़ा ही सुंदर है । परंतु ग्रंथ प्रति अत्यंत अशुद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है, जान पड़ता है प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासी नहीं था, प्रतिलिपि करवा कर पुनः जांच भी नहीं की गई। इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहु कुन्थ दास हैं, जो सम्भवतः ग्वालियर के निवासी थे । कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहु को 'श्रवण भूषण' प्रकट किया है । साथही उन्हें आचार्य चरण सेवी, सप्त व्यसन रहित, त्यागी धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरंतर अवधारण करनेवाला और शुभ मती बतलाते हुए उन्हें साहु हेमराज और मोल्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है और कवि ने उनके चिरंजीव होने की कामना भी की है। जैसा कि द्वितीय संधि के प्रथम पद्य से ज्ञात होता है।। २. चन्द्रवाड के सम्बन्ध में लेखक का स्वतन्त्र लेख देखिए । सं० १४६८ में राजा रामचन्द्र के राज्य में चन्द्र वाड में अमरकीति के षट्कर्मोपदेश की प्रतिलिपि की गई थी, जो अब नागौर के भट्टारकीय शास्त्र भंडार में सुरक्षित है । यथाअथ संवत्सरे १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण पंचदश्यां शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाट नगरे महाराजाधिराज श्रीराम चन्द देवराज्ये । तत्र श्री कुदकुदाचार्यान्वये श्री मूलसंघ गूजरगोष्ठि तिहुयनगिरिया साह श्री जगसीहा भार्याः सोमा तयोः पुत्राः (चत्वाराः) प्रथम उदसीह (द्वितीय) अजसहि तृतीय पहराज चतुर्थ खाहादेव । ज्येष्ठ पुत्र उदैसीह भार्या रतो, तस्य त्रयोः पुत्राः, ज्येष्ठ पुत्र देल्हा द्वितीय राम तृतीय भीखम ज्येष्ठ पुत्र देल्हा भार्या हिरो (तयोः) पुत्राः द्वयो. ज्येष्ठ पुत्र हालू द्वितीय पुत्र अर्जुन ज्ञानावरणी कर्म क्षयार्थ इदं षट्कर्मोपदेश लिखापितं । भग्नपृष्ठि कटिग्रीवा सच्च दृष्टि रधो मुखं । कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत ॥ -नागौर भंडार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जन पंथ प्रशस्ति संग्रह 'जो भत्तो सूरिपाए विसणसगसया जि विरत्ता स एयो। जो चाई पुत्त दाणे ससिपह धवली कित्ति वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सत्थ-अत्थे विसय सुहमई हेमरायस्स ताओ। सो मोल्ही अंग जायो ‘भवदु इह धुवं कुथुयासो चिरायो।' ६६वीं प्रशस्ति 'सिरिपालचरिउ' या सिद्धचक्र विधि' की है। जिसके कर्ता कवि रइधू हैं । इस ग्रन्थ में दश संधियां दी हुई हैं, और जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या दो हजार दो सौ बतलाई है। जिसमें चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथियों का सिद्धचक्रव्रत (अष्टाह्निका व्रत) के प्रभाव से कुष्ठ रोग दूर हो जाने आदि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्धचकृव्रत का माहात्म्य ख्यापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है। ग्रन्थ का कथाभाग बड़ा ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है । भाषा सरल तथा सबोध है। यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय और सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रप लिखे गए हैं। परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रंथ है। प्रथम ग्रंथ पंडित नरसेन का है। ____ प्रस्तुत ग्रंथ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहु बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहु के अनुरोध से बनाया है और उन्हीं के नामांकित किया है। प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अंकित है। कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रंथ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७ वीं संधि के निम्न पद्य से प्रकट है। यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठंत्यादरात् मोहं मुञ्चति गच्छति स्व समयं धत्ते निरीहं पदं । पापं लुम्पति पाति जीवनिवहं ध्यानं समालम्बते । सोऽयं नंदतु साधुरेव हरषी पुष्णाति धर्म सदा। -सिद्धचक्र विधि (श्रीपालचरित संधि ७) १०६वीं प्रशस्ति 'सम्यक्त्व कौमुदी' की हैं। इसमें सम्यक्त्व की उत्पादक कथाओं का बड़ा ही रोचक वर्णन दिया हुआ है, इसे कवि ने ग्वालियर के राजा डूंगरसिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह के राज्य काल में रचा है, इसकी आदि अन्त प्रशस्ति से मालूम होता है कि यह ग्रंथ गोपाचल वासी गोला लारीय जाति के भूषण सेउसाहु की प्रेरणा से बनाया है। इसकी ७१ पत्रात्मक एक प्रति नागौर के भट्टारकीय ज्ञानभण्डार में मौजूद है उक्त अपूर्ण प्रशस्ति उसी प्रति पर से दी गई है । उस ग्रन्थ की पूरी प्रशस्ति वहां के पंचों तथा भट्टारक जी ने सन् ४४ में नोट नहीं करने दी थी, इसीलिए वह अपूर्ण प्रशस्ति ही यहां दी गई है। कवि की अन्य कृतियाँ इन ग्रंथों के अतिरिक्त कवि की 'दश लक्षण जयमाला और 'षोडशकारण जयमाला' ये दोनों पूजा ग्रंथ भी मुद्रित हो चुके हैं। इनके सिवाय महापुराण, सुदसंगचरिउ, करकण्डुचरिउ ये तीनों ग्रंथ अभी अनुपलब्ध हैं । इनका अन्वेषणकार्य चालू हैं। 'सोऽहं थुदि' नाम की एक छोटी-सी रचना भी अनेकांत में प्रकाशित हो चुकी है। कवि रइधू ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का अपनी रचनाओं में ससम्मान उल्लेख किया है । जिन १. विशेष परिचय के लिए देखिए, अनेकान्त वर्ष ६ किरण ६ में प्रकाशित महाकवि रइधू नाम का लेख । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना के नाम इस प्रकार हैं-१. देवनंदी (पूज्यपाद) २. रविषेण ३. चउमुह ४. द्रोण ५. स्वयंभूदेव ६. कविवर ७. वज्रसेन ८. जिनसेन ६. देवसेन १०. महाकवि पुष्पदन्त । कवि वंश-परिचय कविवर रइधू संघाधिप देवराय के पौत्र और हरिसिंघ के पुत्र थे, जो विद्वानों को आनन्ददायक थे। और माता का नाम 'विजयसिरि' (विजयश्री) था, जो रूपलावण्यादि गुणों से अलंकृत होते हुए भी शील संयमादि सद्गुणों से विभूषित थी। कविवर की जाति पद्मावती पुरवाल थी और कविवर उक्त पद्मा. वती कुलरूपी कमलों को विकसित करने वाले दिवाकर (सूर्य) थे जैसाकि 'सम्मइजिन चरिउ' ग्रंथ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है पोमावइ कुल कमल-दिवायरु, हरिसिंघ बुहयण कुल, पाणंदणु। जस्स धरिज रइधू बुह जायउ, देव-सत्थ-गुरु-पय-अणुरायउ ॥ कविवर ने अपने कुल का परिचय 'पोमावइकुल' और पोमावइ 'पुरवाडवंस' जैसे वाक्यों द्वारा कराया है। जिससे वे पद्मावती पुरवाल नाम के कुल में समुत्पन्न हुए थे। जैनसमाज में चौरासी उपजातियों के अस्तित्व का उल्लेख मिलता है उनमें कितनी ही जातियों का अस्तित्व आज नहीं मिलता; किंतु इन चौरासी जातियों में ऐसी कितनी ही उपजातियां अथवा वंश है जो पहले कभी बहुत कुछ समृद्ध और सम्पन्न रहे हैं; किंतु आज वे उतने समृद्ध एवं वैभवशाली नहीं दीखते, और कितने ही वंश एवं जातियां प्राचीन समय में गौरवशाली रहे हैं किंतु आज उक्त संख्या में उनका उल्लेख भी शामिल नहीं है। जैसे धर्कट १ आदि। ___ इन चौरासी जातियों में पद्मावती पुरवाल भी एक उपजाति है, जो आगरा, मैनपुरी, एटा, ग्वालियर आदि स्थानों में आबाद है, इनकी जन-संख्या भी कई हजार पाई जाती है । वर्तमान में यह जाति बहुत कुछ पिछड़ी हुई है तो भी इसमें कई प्रतिष्ठित विद्वान हैं । वे आज भी समाज सेवा के कार्य में लगे हुए हैं । यद्यपि इस जाति के विद्वान् अपना उदय ब्राह्मणों से बतलाते हैं और अपने को देवनन्दी (पूज्यपाद) का सन्तानीय भी प्रकट करते हैं, परन्तु इतिहास से उनकी यह कल्पना केवल कल्पित ही जान पड़ती है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि उपजातियों का इतिवृत्त अभी अंधकार में हैं जो कुछ प्रकाश में आ पाया है उसके आधार से उसका अस्तित्व विक्रम की दशमी शताब्दी से पूर्व का ज्ञात नहीं होता, हो सकता है कि वे उससे भी पूर्ववर्ती रहीं हों, परन्तु बिना किसी प्रामाणिक अनुसंधान के इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। पट्टावली वाला दूसरा कारण भी प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि पट्टावली में प्राचार्य पूज्य पाद (देवनन्दी) को पद्मावती-पुरवाल लिखा है, परन्तु प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाणों से उनका पद्मावतीपुरवाल होना प्रमाणित नहीं होता, कारण कि देवनन्दी ब्राह्मण कुल में समुत्पन्न हुए थे। १. यह जाति जैन समाज में गौरव-शालिनी रही है। इसमें अनेक प्रतिष्ठित श्रीसम्पन्न श्रावक और विद्वान् हुए हैं जिनकी कृतियां आज भी अपने अस्तित्व से भूतल को समलंकृत कर रही हैं। भविष्यदत्त कथा के कर्ता बुध धनपाल और धर्मपरीक्षा के कर्ता बुध हरिषेण ने भी अपने जन्म से 'धट वंश को पावन किया है। हरिषेण ने अपनी धर्मपरीक्षा वि० सं० १०४८ में बनाकर समाप्त की है। धर्कट वंश के अनुयायी दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रहे हैं । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह जाति और गोत्रों का अधिकांश विकास अथवा निर्माण गांव, नगर और देश आदि के नामों पर से हुआ है । उदाहरण के लिए सांभर के आस-पास के बघेरा स्थान से बघेरवाल, पाली से पल्लीवाल खण्डेला से खण्डेलवाल, अग्रोहा से अग्रवाल, जायस अथवा जैसासे जैसवाल और प्रसासे प्रोसवाल जाति का निकास हुआ है। तथा चंदेरी के निवासी होने से चन्दैरिया, चन्द्रवाड से चांदुवाड या चांदवाड और पद्मावती नगरी से पद्मावतिया आदि गोत्रों एवं मूरका उदय हुआ है । इसी तरह अन्य कितनी ही जातियों के सम्बंध में प्राचीन लेखों, ताम्रपत्रों, सिक्कों, ग्रन्थ- प्रशस्तियों और ग्रंथों आदि पर से उनके इतिवृत्त का पता लगाया जा सकता है । ૦૪ उक्त कविवर के ग्रंथों में उल्लिखित 'पोमावई' शब्द स्वयं पद्मावती नाम की नगरी का वाचक है । यह नगरी पूर्व समय में खूब समृद्ध थी, उसकी इस समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के वि० सं० १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है, जिसमें यह बतलाया गया है कि यह नगरी ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी भवनों एवं मकानातों से सुशोभित थी, जिसके राजमार्गों में बड़े-बड़े तेज तुरङ्ग दौड़ते थे और जिसकी चमकती हुई स्वच्छ एवं शुभ्र दीवारें श्राकाश से बातें करती थीं। जैसाकि उक्त लेख के निम्न पद्यों से प्रकट है सोधुत्तुंग पतङ्गलङ्घनपथ प्रोत्तुंगमालाकुला शुभ्रा कषपाण्डुरोच्च शिखरप्राकारचित्रा (व) रा प्रालेयाचल शृङ्गसन्नि (नि) भशुभप्रासादसद्मावती भव्या पूर्वमभूदपूर्व रचना या नाम पद्मावती ॥ [द्ध] त, त्वं गत्तुंगतुरंगमोदगमक्षु (खु) रक्षोदाद्रजः प्रो यस्यां जीर्न (पं) कठोर बभु (स्र) मकरो कुर्मोदराभं नमः । मत्तानेककरालकुम्भि करटप्रोत्कृष्टवृष्ट्या [द भु] वं । तं कर्दम मुद्रिया क्षितितलं ता ब्रू (ब्रू ) त कि संस्तुमः ॥ -Epigraphica Indica V. I. P. 149 इस समुल्लेख पर से पाठक सहज ही में पद्मावती नगरी की विशालता का अनुमान कर सकते हैं। इस नगरी को नागराजाओं की राजधानी बनने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था और पद्मावती कांतिपुरी तथा मथुरा में नौ नागराजाओं के राज्य करने का उल्लेख भी मिलता है ' ।। पद्मावती नगरी के नागराजाओं के सिक्के भी मालवे में कई जगह मिले हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में रचित 'सरस्वती कंठाभरण' में भी पद्मावती का वर्णन है और मालती माधव में भी पद्मावती का कथन पाया जाता है जिसे लेखवृद्धि के भय से छोड़ा जाता है, परंतु खेद है कि आज यह नगरी वहां अपने उस रूप में नहीं है किन्तु ग्वालियर राज्य में उसके स्थान पर 'पवाया' नामक एक छोटा सा गांव बसा हुआ है, जो कि देहली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन पर 'देवरा' नाम के स्टेशन से कुछ ही दूर पर स्थित है। यह पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का कारण है । इस दृष्टि से वर्तमान 'पवाया' ग्राम पद्मावती पुरवालों के लिए विशेष महत्व की वस्तु है । भले ही वहां पर आज पद्मावती पुरवालों का निवास न हो, किन्तु उसके आस पास तो प्राज भी वहां पद्मावतीपुर वालों का निवास पाया जाता है। ऊपर के इन सब उल्लेखों पर से ग्राम नगरादिक नामों पर उपजातियों की कल्पना को पुष्टि मिलती है । १. नवनागा पद्मावत्यां कांतीपुर्यां मथुरायां विष्णु पु० अंश ४० २४ ॥ २. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द पृ० २३० । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०५ श्रद्धेय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने 'परवारजाति के इतिहास पर प्रकाश' नाम के अपने लेख में परवारों के साथ पद्मावती पुरवालों का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न किया था' और पं० बखतराम के 'बुद्धिविलास' के अनुसार सातवां भेद भी प्रकट किया है। हो सकता है कि इस जाति का कोई सम्बन्ध परवारों के साथ भी रहा हो, किन्तु पद्मावती पुरवालों का निकास परवारों के सत्तम मूर पद्मावतिया से हुआ हो, यह कल्पना ठीक नहीं जान पड़ती और न किन्हीं प्राचीन प्रमाणों से उसका समर्थन ही होता है और न सभी 'पुरवाडवंश' परवार ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि पद्मावती पुरवालों का निकास पद्मावती नगरी के नाम पर हुआ है परवारों के सत्तममूर से नहीं । आज भी जो लोग कलकत्ता और देहली आदि से दूसरे शहरों में चले जाते हैं उन्हें कलकतिया या कलकत्ते वाला देहलवी या दिल्ली वाला कहा जाता है, ठीक उसी तरह परवारों के सत्तममूर 'पद्मावतिया' की स्थिति है । ____ गांव के नाम पर से गोत्र कल्पना कैसे की जाती थी इसका एक उदाहरण पं० बनारसीदासजी के अर्धकथानक से ज्ञात होता है और वह इस प्रकार है-मध्यप्रदेश के रोहतकपुर के निकट 'विहोलो' नाम का एक गांव था उसमें राजवंशी राजपूत रहते थे; वे गुरु प्रसाद से जैनी हो गये और उन्होंने अपना पापमय क्रिया-काण्ड छोड़ दिया। उन्होंने णमोकार मन्त्र की माला पहनी उनका कुल श्रीमाल कहलाया और गोत्र बिहोलिया रक्खा गया। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है याही भरत सुखेत में, मध्यदेश शुभ ठांउ । वसे नगर रोहतगपुर, निकट बिहोली-गांउ ॥ ८ गांउ बिहोली में बसै, राजवंश रजपूत । ते गुरुमुख जैनी भए, त्यागि करम अघ-भूत ।। ६ पहिरी माला मंत्र की पायो कुल थीमाल । थाप्यो गोत्र बहोलिया, बीहोली रखपाल ।। १० ॥ इसी तरह से उपजातियों और उनके गोत्रादि का निर्माण हुआ है। कविवर ग्इधू भट्टारकीय पं० थे, और तात्कालिक भट्टारकों को वे अपना गुरु मानते थे और भट्टारकों के साथ उनका इधर-उधर प्रवास भी हुआ हैं और उन्होंने कुछ स्थानों में कुछ समय ठहरकर कई ग्रंथों की रचना भी की है, ऐसा उनकी ग्रंथ-प्रशस्तियों पर से जाना जाता है । वे प्रतिष्ठा वार्य भी थे और उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा भी कराई थी। उनके द्वारा प्रतिष्ठित एक मूर्ति का मूर्तिलेख आज भी प्राप्त है और जिससे यह मालूम होता है कि उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा सं० १४६७ में ग्वालियर के शासक राजा डूंगरसिंह के राज्य में कराई थी, वह मूर्ति आदिनाथ की है।' कविवर विवाहित थे या अविवाहित, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया और न कवि ने कहीं अपने को बालब्रह्मचारी ही प्रकट किया है इससे तो वे विवाहित मालूम होते हैं और जान १. देखो, अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ २. सात खांप परवार कहावं, तिनके तुमको नाम सुनावें । __ अठसक्खा पुनि हैं चौसक्खा, ते सक्खा पुनि हैं दोसक्खा । सोरठिया अरु गांगज जानो, पद्मावतिया सत्तम मानो। -बुद्धिविलास ३. देखो, ग्वालियर गजिटियर जि. १, तथा अनेकान्त वर्ष १० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह पड़ता है कि वे गृहस्थ-पंडित थे और उस समय वे प्रतिष्ठित विद्वान् गिने जाते थे। ग्रन्थ-प्रणयन में जो भेंटस्वरूप धन या वस्त्राभूषण प्राप्त होते थे, वही उनकी आजीविका का प्रधान आधार था। बलभद्रचरित्र (पद्मपुराण) की अन्तिम प्रशस्ति के १७वें कडवक के निम्न वाक्यों से मालूम होता है कि उक्त कविवर के दो भाई और भी थे, जिनका नाम बाहोल और माहणसिंह था। जैसा कि उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है सिरिपोमावइपुरवालवंसु, णंदउ हरिसिंघु संघवी जासुसंसु घत्ता-बाहोल माहणसिंह चिरु गंदउ, इह रइधूकवि तीयउ वि धरा । मोलिक्य समाणउ कलगुण जाणउ णंदउ महियलि सो वि परा ।। यहां पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता है कि मेघेश्वर चरित (आदिपुराण) की संवत् १८५१ की लिखी हुई एक प्रति नजीबाबाद जिला बिजनौर के शास्त्र-भण्डार में है जो बहुत ही अशुद्ध रूप से लिखी गई है जिसके कर्ता ने अपने को प्राचार्य सिंहसेन लिखा है और उन्होंने अपने को संघवीय हरिसिंह का पुत्र भी बतलाया है। सिंहसेन के आदिपुराण के उस उल्लेख पर से ही पं० नाथूरामजी प्रेमी ने दशलक्षण जयमाला की प्रस्तावना में कवि रइधू का परिचय कराते हुए फुटनोट में श्री पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार की रइधू को सिंहसेन का बड़ा भाई मानने की कल्पना को असंगत ठहराते हुए रइध् और सिंहसेन को एक ही व्यक्ति होने की कल्पना की है। परन्तु प्रेमीजी की भी यह कल्पना संगत नहीं है और न रइधू सिंहसेन का बड़ा भाई ही है किन्तु रइधू और सिंहसेन दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति हैं, सिंहसेन ने अपने को 'आइरिय' प्रकट किया है जबकि रइधू ने अपने को पण्डित और कवि हो सूचित किया है। उस आदिपुराण की प्रति को देखने और दुसरी प्रतियों के साथ मिलान करने से यह सुनिश्चित जान पड़ता है कि उसके कर्ता कवि रइधू ही हैं, सारे ग्रन्थ के केवल आदि अन्त प्रशस्ति में ही कुछ परिवर्तन है । शेष ग्रन्थ का कथा भाग ज्यों का त्यों है उसमें कोई अन्तर नहीं, ऐसी स्थिति में उक्त आदिपुराण के कर्ता रइबू कवि ही प्रतीत होते हैं, सिंहसेन नहीं। हां, यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्य का कोई दूसरा ही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ 'सिंहसेनायरिय' का नहीं किन्तु रइधू कविकृत ही है। सम्मइजिनचरिउ की प्रशस्ति में रइधू ने सिंहसेन नाम के एक मुनि का और भी उल्लेख किया है और उन्हें गुरु भी बतलाया और उन्हीं के वचन से सम्मइजिनचरिउ की रचना की गई है। घत्ता "तं णिसुणि वि गुरुणा गच्छहु गुरुणाइं सिंहसेण मुणे। पुरुसंठिउ पंडिउ सील अखंडिउ भरिणउ तेण तं तम्मि खरिण ।।५।। गुरु परम्परा कविवर ने अपने ग्रंथों में अपने गुरु का कोई परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही किया है। हां, उनके ग्रन्थों में तात्कालिक कुछ भट्टारकों के नाम अवश्य पाये जाते हैं जिनका उन्होंने आदर के साथ उल्लेख किया है। पद्मपुराण की प्राद्य प्रशस्ति के चतुर्थ कडवक की निम्न पंक्तियो में, उक्त ग्रन्थ के निर्माण में प्रेरक साहु हरसी द्वारा जो वाक्य कवि रइधू के प्रति कहे गए हैं उनमें रइधू को 'श्रीपाल ब्रह्म प्राचार्य के शिष्य रूप से सम्बोधित किया गया है। साथ ही साह सोढल के निमित्त नेमिपुराण' के रचे जाने और अपने लिए रामचरित के कहने की प्रेरणा भी की गई है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि रइधू के गुरु ब्रह्म श्रीपाल थे वे वाक्य इस प्रकार हैं : Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भोsधू पंडिउ गुण गिहारणु, पोमावर वर वंसहं पहाणु । सिरिपाल ब्रह्म प्रायरिय सीस, महु वयगु सुरगहि भो बुह गिरीस ॥ सोढल रिगमित्त महु पुराण, विरयउ जहं कइजरण विहिय-माणु । तं रामचरितु वि महु भणेहिं, लक्खरण समेउ इय मरिण मुणेहि || प्रस्तुत ब्रह्म श्रीपाल कवि रइधू के गुरु जान पड़ते हैं, जो भट्टारक यश: कीर्ति के शिष्य थे । 'सम्मइजिनचरिउ' की अन्तिम प्रशस्ति में मुनि यशः कीर्ति के तीन शिष्यों का उल्लेख किया गया है, खेमचन्द, हरिषेण और ब्रह्म पाल्ह (ब्रह्म श्रीपाल ) । उनमें उल्लिखित मुनि ब्रह्मपाल ही ब्रह्म श्रीपाल जान पड़ते हैं । अब तक सभी विद्वानों की यह मान्यता थी कि कविवर रइधू भट्टारक यशः कीर्ति के शिष्य थे किन्तु इस समुल्लेख पर से वे यश कीर्ति के शिष्य न होकर प्रशिष्य जान पड़ते हैं । कविवर ने अपने ग्रन्थों में भट्टारक यशः कीर्ति का खुला यशोगान किया है और मेघेश्वर चरित की प्रशस्ति में तो उन्होंने भट्टारक यशः कीर्ति के प्रसाद से विचक्षरण होने का भी उल्लेख किया है । सम्मत्त गुरण - रिगहाण ग्रन्थ में मुनि यशः कीर्ति को, तपस्वी, भव्यरूपी कमलों को संबोधन करने वाला सूर्य, और प्रवचन का व्याख्याता भी बतलाया है और उन्हीं के प्रसाद से अपने को काव्य करने वाला और पापमल का नाशक बतलाया है । जैसा कि उसके निम्न पद्यों से स्पष्ट है : --- तह पुणु सुतव तावतवियंगो, भव्व-कमल-संबोह-पयंगो | fuच्चो भासिय पवयरण संगो, वंदिवि सिरि जसकित्ति असंगो । तासु पसाए कव्वु पयामि, प्रासि विहिउ कलि-मलु गिण्णा समि । इसके सिवाय यशोधर चरित्र में भट्टारक कमलर्कीति का भी गुरु नाम से स्मरण किया है । निवास स्थान प्रौर समकालीन राजा १०७ कविवर रइधू कहां के निवासी थे और वह स्थान कहां है । और उन्होंने ग्रंथ - रचना का यह महत्वपूर्ण कार्य किन राजाओं के राज्यकाल में किया है यह बात अवश्य विचारणीय है । यद्यपि कवि ने अपनी जन्मभूमि आदि का कोई परिचय नहीं दिया, जिससे उस सम्बन्ध में विचार किया जाता, फिर भी उनके निवास स्थान आदि के सम्बन्ध में जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकी है उसे पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है। -- उक्त कवि के ग्रन्थों से पता चलता है कि वे ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्द्धमान जिनालय में रहते थे और कवित्तरूपी रसायन निधि से रसाल थे। ग्वालियर १५वीं शताब्दी में खूब समृद्ध था, उस समय वहां पर देहली के तोमर वंश का शासन चल रहा था । तोमर वंश बड़ा ही प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंश रहा है और उसके शासनकाल में जैनधर्म को पनपने का बहुत कुछ श्राश्रय मिला है। जैन साहित्य में ग्वालियर का महत्वपूर्ण स्थान रहा है । उस समय तो वह एक विद्या का केन्द्र ही बना हुआ था, वहां की मूर्तिकला और पुरातत्व की कलात्मक सामग्री आज भी दर्शकों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। उसके समवलोकन से ग्वालियर की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है । कविवर ने स्वयं सम्यक्त्व - गुण-निधान १. मुणि जसकित्ति हु सिस्स गुणायरु, खेमचंदु हरिसेणु तवायरु । मुणितं पाल्ह बंभुए गंहु, तिणि वि पावहु भारु णिकंदहु । - सम्मइ जिनचरिउ प्रशस्ति Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह नामक ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में ग्वालियर का वर्णन करते हुए वहां के तत्कालीन श्रावकों की चर्या का जो उल्लेख दिया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है : तहु रज्जि महायण बहुधणट्ठ, गुरु-देव-सत्थ विरणयं वियट्ठ । जहिं वियक्खरण मणुव सव्व, धम्माणुरत्त-वर गलिय-गव्व ॥ जहिं सत्त-वसण-चुय सावयाई, रिणवसहिं पालिय दो-दह-वयाई । सम्मइंसण-मणि-भूसियंग, रिगच्चोभासिय पवयण सुयंग ॥ दारापेखरण-विहि णिच्चलीण, जिण महिम महुच्छव णिरु पवीण । चेयणगुण अप्पारुह पवित्त, जिण सुत्त रसायण सवण तित्त । पंचम दुस्समु अइ-विसमु-कालु, गिद्दलि वि तुरिउ पविहिउ रसालु । धम्मज्झाणे जे कालु लिति, गवयारमंतु अह-णिसु गुणंति ।। संसार-महण्णव-वडण-भीय, रिगस्संक पमुह गुण वण्णणीय।। जहिं रणारीयण दिढ सीलजुत्त, दाणे पोसिय गिरु तिविह पत्त ।। तिय मिसेण लच्छि अवयरिय एत्थु, गयरूव ण दीसइ का वि तेत्थ । वर अंवर कणयाहरण एहि, मंडिय तणु सोहहिं मणि जडेहिं ॥ जिरण-णह्वण-पूय-उच्छाह चित्त, भव-तणु-भोयहिं णिच्च जि विरत्त । गुरु-देव पाप-पंकयाहि लीण, सम्मइंसरणपालण पवीण ॥ पर पूरिस स-बंधव सरिस जांहि, अह-रिगसु पडिवणिय रिणय मरणाहिं । किं वण्णमि तहि हउं पुरिस णारि, जहिं डिंभ वि सग वसणावहारि ।। पव्वहिं पवहिं पोसहु कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिरण गुण थुणंति । साहम्मि य वत्थु णिरु वहंति, पर अवगुण झपहि गुण कहति ॥ परिसु सावहिं विहियमाणु, णेमीसुरजिरण-हरि वड्ढमाणु । शिवसइ जा रइधू कवि गुणालु, सुक्ति-रसायण-रिणहिं रसालु ॥५॥ इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समय के ग्वालियर की स्थिति का सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और अपने कर्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने तथा अनुकरण करने की वस्तु है। ग्वालियर में उस समय तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह का राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और जैनधर्म में आस्था रखने वाला शासक था। उसने अपने जीवन काल में अनेक जैन मूर्तियों का निर्माण कराया, वह इस पुनीत कार्य को अपनी जीवित अवस्था में पूर्ण नहीं करा सका था, जिसे उसके प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह ने पूरा किया था। राजा डूंगरसिंह के पिता का नाम गणेश या गणपतिसिंह था। जो वीरमदेव का पुत्र था । डूंगरसिंह राजनीति में दक्ष, शत्रुओं के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल, तथा असि रूप अग्नि से मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था, जिसका यश सब दिशाओं में व्याप्त था, राज्य-पट्ट से अलंकृत विपुल, भाल और बल से सम्पन्न था। डूंगरसिंह की पट्टरानी का नाम चंदादे था जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्रका नाम कीर्तिपाल या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । डूंगरसिंह ने नरवर के किले पर Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १०६ घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्रु लोग इसके प्रताप एवं पराक्रम से भयभीत रहते थे। जैनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किन्तु उस पर वह अपनी पूरी प्रास्था भी रखता था, फलस्वरूप उसने जैन मूर्तियों की खुदवाई में सहस्रों रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसकी आस्था का अनुमान किया जा सकता है। ___ डूंगरसिंह सन् १४२४ (वि० सं० १४८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था। राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्वत् १४६७ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्वत् १४८६ की दो लेखक प्रशस्तियां-पं० विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भाषा के सुकमालचरित्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय' भविष्य दत्त पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारंजा के ज्ञान भण्डार की प्रति से प्राप्त हुई है। डूंगरसिंह ने वि० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया है। उसके बाद राज्य सत्ता उसके पुत्र कीर्तिसिंह के हाथ में आई थी। कविवर र इधू ने राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में तो अनेक ग्रन्थ रचे ही हैं किन्तु उनके पुत्र कीर्तिसिंह के राज्य काल में भी सम्यक्त्व कौमुदी की रचना की है। ग्रंथकर्ता ने उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में कीर्तिसिंह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था और दुर्वार शत्रुनों के संग्राम से अतृप्त था और अपने पिता डूंगरसिंह के समान ही राज्यभार को धारण करने में समर्थ और बंदी-जनों ने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था और जिसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी, उस समय यह कलिचक्रवर्ती था जैसा कि उक्त ग्रंथ प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुव्वारवैरिसंगर अतित्तु । डूंगरणिवरज्जधरा समत्थु, वंदीयण समप्पिय भूरि-अत्थु ।। चउराय विज्जपालण अतंदु, रिणम्मल जसवल्ली भुवरणकंदु। कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महिवइपहाणु ॥ -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार कीतिसिंह वीर और पराक्रमी था उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था। वह दयालु एवं सहृदय था जैनधर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई और भी था जो लड़ाई में मारा गया था। कीर्तिसिंह ने अपने राज्य को यहां तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम-कक्षका हो गया था। और दिल्ली का बादशाह भी कीर्तिसिंह की कृपा का अभिलाषी बना रहना चाहता था। सन् १४६५ १. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीर्तिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीराज महमूदशाह के सेनापति फतहखां हार्वी के हाथ से मारा गया था। परन्तु कविवर रहधू के ग्रंथों में कोर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीराज का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। -देखो टाड राजस्थान १०२५० स्वर्गीय महामना गोरीशंकर हीराचन्द जी मोझा कृत गवालियर के तंवर वाली टिप्पणी। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह (वि० सं० १५२२) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुसैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी, तब से कीर्तिसिंह ने देहली के बादशाह बहलोल लोदी का' पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था। सन् १४७८ में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरणमें गया था तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुँचाया भी था। इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ (वि० सं० १५२५) और सन् १४७३ (वि० सं० १५३०) के मिले हैं। कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ (वि० सं० १५३६) में हुई थी। अतः इसका राज्य काल संवत् १५१० के बाद से सं० १५३६ तक पाया जाता है। इन दोनों के राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ। रचनाकाल कवि रइधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहां उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। रइधू के सम्मत्तगुणनिधान और सुकोसलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान नाम का ग्रंथ वि० सं० १४६२ की भाद्रप्रद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उससे चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४९६ में माघ कृष्णा दशमी को अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है'। सम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नहीं है, हां सुकोशलचरिउ में पार्श्वनाथ पुराण, हरिवंश पुराण और बलभद्रचरिउ इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी संवत १४९६ से पूर्व रचे गये हैं और हरिवंश पुराण में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधरचरित, वृत्तसार, जीवंधरचरित और पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रंथ भी हरिवंश की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे। सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित रत्नाकर (महापुराण) बलभद्रचरित (पउमचरिउ) सिद्धचक्र विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त संवत् से पूर्व रचे जा चुके थे। १. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उसका राज्य काल सन् १४५१ (वि० सं० १५०८) से लेकर सन् १४८६ (वि० सं० १५४६) तक ३८ वर्ष पाया जाता है । २. देखो, प्रोझा जी द्वारा सम्मादित टाड राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४ ३. "चउदहसय वाणव उत्तरालि, वरिसइगय विकामरायकालि । वक्खेयत्तु जि जिणवय-समक्खि, भद्दव मासम्मि स-सेय पक्खि । पुण्णमिदिणि कुजवारे समोई, मुहयारें सुहणामें जणेई । तिहु मास रयहि पुण्णहूउ, सम्मत्तगुणाहिणिहाणधूउ ॥" ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि, वट्टतइ इंदु सम विसम कालि । चउदहसय संवच्छ रइ अण्ण छण्णउ महिपुणु जाय पुण्ण । माह दुजि किण्हदहमी दिणम्मि, प्रणुराहुरिक्ख पयडिय सम्मि ॥" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १११ इसके अतिरिक्त करकण्डुचरिउ, सम्यक्त्व कौमुदी, श्रात्मसम्बोधकाव्य, अरणथमीकथा, पुण्गासब कथा, सिद्धांतार्थसार, दशलक्षण जयमाला और षोडशकाररण जयमाला । इन आठ ग्रन्थों में से पुण्यास्रवकथा कोष को छोड़कर शेष ग्रन्थ कहां और कब रचे गए, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता । रघू ने प्रायः अधिकांश ग्रन्थों की रचना ग्वालियर में रहकर तोमर वंश के शासक डूंगरसिंह और कीर्तिराज के समय में की है । जिनका राज्यकाल संवत् १४८१ से सं० १५३६ तक रहा है । अतएव कवि का रचनाकाल सं० १४८१ से १५३६ के मध्यवर्ती समय माना जा सकता है । मैं पहले यह बतला आया हूं कि कविवर रइधू प्रतिष्ठाचार्य थे । उन्होंने कई प्रतिष्ठाएँ कराई थीं। उनके द्वारा प्रतिष्ठित संवत् १४६७ की आदिनाथ की मूर्ति का लेख भी दिया था । यह प्रतिष्ठा उन्होंने गोपाचल दुर्ग में कराई थी, इसके सिवाय, सं० १५१० और १५२५ की प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेख भी उपलब्ध हैं, जिनकी प्रतिष्ठा वहां इनके द्वारा सम्पन्न हुई है " सवत् १५२५ में सम्पन्न होने वाली प्रतिष्ठाएँ रइधू ने ग्वालियर के शासक कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्य में कराई है। जिनका राज्य संवत् १५३६ तक रहा है। कुरावली (मैनपुरी) के मूर्तिलेखों में भी, जिनका संकलन बाबू कामताप्रसादजी ने किया था । उसमें भी सं० १५०६ जेठ सुदि शुक्रवार के दिन चंद्रवाड में चौहान वंशी राजा रामचंद्र के पुत्र प्रतापसिंह के राज्यकाल में अग्रवाल वंशी साहू गजाधर और भोलाने भगवान शांतिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी । अन्वेषण करने पर अन्य मूर्ति लेख भी प्राप्त हो सकते हैं। इन मूर्तिलेखों से कवि रद्दधू के जीवनकाल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । वे सं० १५२५ तक तो जीवित रहे ही हैं, किंतु बाद में और कितने वर्ष तक जीवित रहे, यह निश्चय करना अभी कठिन है, अन्य साधन-सामग्री मिलने पर उस पर और भी विचार किया जायगा । इस तरह कवि विक्रम की १५वीं शताब्दी के उत्तरार्धं और १६वीं शताब्दी के पूर्वार्ध विद्वान् थे । ५०वीं प्रशस्ति से लेकर क्रम से चौसठवीं प्रशस्ति तक १५ प्रशस्तियाँ व्रत-सम्बन्धी कथा-ग्रंथों की हैं । जिनके कर्ता भट्टारक गुरणभद्र हैं। उन कथा-ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं १ सवरण वारसिकहा, २ पक्खवइकहा, ३ प्रयास पंचमीकहा, ४ चंदायरणवयकहा, ५ चंदरण छुट्टी कहा, ६ दुग्धारसकहा, ७ रिणदुहसत्तमीकहा, ८ मउडसत्तमीकहा, ६ पुप्फंजलिकहा, १० रयरणत्तयकहा, ११ दहलवखरणवयकहा, १२ अरणतवयकहा, १३ लद्धिविहारणकहा, १४ सोलहकाररणवयकहा, और १५ सुगंधदहमीकहा । १. देखो, अनेकान्त वर्ष १०, किरण १०, तथा ग्वालियर गजिटियर जि० १ २. देखो, मेरी नोट कापी सं० १५२५ में प्रतिष्ठित मूर्तिलेख, ग्वालियर .. ३. सं० १५०६ जेठ सुदि शुक्रे श्रीचन्द्रपाट दुर्गे पुरे चौहान वंशे राजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव युवराज श्री प्रतापचन्द्रदेव राज्य वर्तमाने श्री काष्ठा संघे मथुरान्वये पुष्कर गणे श्राचार्य श्री हेमकी तिदेव तत्पट्टे भ० श्री कमलकीर्तिदेव | पं० प्राचार्य रंधू नामधेय तदम्नाये प्राग्रोतकान्वये वासिल गोत्रे साहु त्योंवर भार्या द्वौ पुत्रौ द्वौ सा० महराज नामानौ त्योंध० भार्या श्रीपा तयोः पुत्राश्वत्वारः संघा विपति गजाधर मोल्हण जलकू रातू नामान: संघाधिपतिगजे भार्या द्वे राय श्री गांगो नाम्ने संघाधिपति मोल्हण भा० सोमश्री पुत्र तोहक, संघाधिपति जलकू भार्या महाश्री तयोः पुत्री कुलचन्द्र मेघचन्द्र संघपति तू भा० प्रभया श्री साधु त्योंधर पुत्र महाराज भार्या मदनश्री पुत्री द्वौ माणिक ... भार्या शिवदे ...... संघपति जयपाल भार्या मुगापते संधाधिपति गजाधर संघा० भोला प्रमुख शान्तिनाथ बिम्बं प्रतिष्ठापितं प्रणमितं च । देखो, प्राचीन जैन लेख संग्रह, सम्पादक बा० कामताप्रसाद । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह इन व्रतकथाओं में, व्रतका स्वरूप, उनके आचरण की विधि, और फलका प्रतिपादन करते हए व्रतकी महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। प्रात्म-शोधन के लिए व्रतों की नितांत आवश्यकता है। क्योंकि आत्म-शुद्धि के बिना हित-साधन सम्भव नहीं है। इन कथाओं में से पक्खवइ कथा और अनन्तव्रत कथा ये दो कथायें तो ग्वालियर निवासी संघपति साहू उद्धरण के जिनमन्दिर में निवास करते हुए साह सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रची गई हैं और अणंतवयकहा, पुप्फंजलिवयकहा और दहलक्खरणवयकहा ये तीनों कथाएं ग्वालियर निवासी जैसवालवंशी चौधरी लक्ष्मणसिंह के पुत्र पण्डित भीमसेन के अनुरोध से बनाई गई हैं । सातवीं णिदुहसप्तमीकथा गोपाचलवासी साहू बीधा के पुत्र सहजपाल के अनुरोध से लिखी गई है। शेष ६ कथाएँ किनकी प्रेरणा से रची गई हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सम्भव है वे धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हों। भट्टारक गुणभद्र काष्ठासंघ माथुरान्वय के भट्टारक मलयकीर्ति के शिष्य और भट्टारक यशःकीर्ति के प्रशिष्य थे और मलयकीति के बाद उनके पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। उनकी ये १५ कथाएं पंचायती मंदिर खजूर मस्जिद दिल्ली के शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक में संगृहीत हैं। इनकी अन्य क्या रचनाएँ हैं यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। यह भी प्रतिष्ठाचार्य थे और अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा इनके द्वारा सम्पन्न हुई है। __ गुणभद्र नाम के अनेक विद्वान् हो गए हैं । उनसे प्रस्तुत भट्टारक गुणभद्र भिन्न हैं। इन्होंने अपने विहार द्वारा जिनधर्म का उपदेश देकर जनताको धर्म में स्थिर किया है और जैनधर्म के प्रचार या प्रसार में सहयोग दिया है। इनके उपदेश से अनेक ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। यद्यपि इन्होंने अपनी रचनाओं में किसी राजा का उल्लेख नहीं किया। किन्तु अन्य सूत्रों से यह स्पष्ट जाना जाता है कि इनकी यह रचनाएँ ग्वालियर के तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्यकाल में बनाई गई हैं। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दी के मध्य काल तक जान पड़ता है। कांरजा के सेनगढ़ भंडार की समयसार की लिपि प्रशस्ति वि० संवत् १५१० वैशाख शुक्ला तीज की लिखी हुई है, जो गोपाचल में डूंगरसिंह के राज्यकाल में भट्टारक गुणभद्र की आम्नाय के अग्रवाल वंशी गर्ग गोत्रीय साहु जिनदास ने लिखवाई थी' । इससे भी गुणभद्र का समय १६वीं शताब्दी जान पड़ता है। ५१वीं, ५२वीं, ५३वीं, ५४वीं, ५५वीं, ५६वीं, ५७वीं, ५८वीं, ५९वीं, ६०वीं, ६१वीं, ६२वीं, ६३वीं, और ६४वीं प्रशस्तियों का परिचय ५०वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। ६५वीं प्रशस्ति 'अनंतव्रतकथा' की है, जिसमें कर्ता का नाम अभी अज्ञात है। प्रस्तुत रचनो पंचायती मन्दिर दिल्ली के शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक पर से दी गई हैं। रचनाकाल भी अज्ञात है। फिर भी यह रचना १५वीं शताब्दी की जान पड़ती है। ६६वीं प्रशस्ति 'पाराहरणासार' की है जिसके कर्ता कवि वीर हैं। प्रस्तुत रचना में सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान और सम्यकचारित्र और सम्यक्तपरूप चार आराधनाओं का स्वरूप संक्षेप में दिया गया है। वीर कवि कब हए और उनका समय तथा गुरु परम्परा क्या है ? यह रचना पर से कुछ ज्ञात नहीं होता। यह रचना अामेर शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक पर से संगृहीत की गई है । वीर नाम के एक कवि वि० सं० १०७६ में हुए हैं जिन्होंने उक्त संवत् में जंबू स्वामिचरित्र की रचना की थी। ये दोनों एक ही हैं या भिन्न हैं । यह अभी विचारणीय है। १. देखो अनेकान्त वर्ष १४ किरण १० पृ० २९६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११३ ६७वीं प्रशस्ति 'हरिसेरणचरिउ' की है, जिसके कर्ता अज्ञात हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय दिया हुआ है । चरित सुन्दर और शिक्षाप्रद है। यह चक्रवर्ती बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के समय में हुए हैं । यह बड़े वीर धर्मात्मा और अपनी माता के आज्ञाकारी पुत्र थे । चक्रवर्ती की माता जैनधर्म की श्रद्धालु और धर्मात्मा थी, उसकी भावना जैन रथोत्सव निकलवाने की थी, परन्तु कारणवश वह अपनी भावना को पूरा करनेमें समर्थ नहीं हो रही थी। हरिषेण चक्रवर्ती ने अनेक जिनमन्दिर बनवाए, प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न कीं और महोत्सवपूर्वक रथोत्सव निकलवाकर अपनी माता की चिरसाधना को सम्पन्न किया । इनके एक पुत्र ने कैलाश पर्वत पर तप धारण किया और कर्म - सन्तति का उच्छेदकर अविनाशीपद प्राप्त किया था । उससे चक्रवर्ती को भारी सन्ताप हुआ, किन्तु ज्ञान और विवेक से उसका शमन किया और अन्त में स्वयं चक्रवर्ती ने राज्य-वैभव को प्रसार जान दीक्षा लेकर आत्म-साधना की और अविनाशी स्वात्मfor को प्राप्त किया । ग्रन्थ की रचना कब और कहाँ हुई ? यह कुछ ज्ञात नहीं होता, सम्भव है रचना १५वीं शताब्दी या उससे पूर्ववर्ती हो । I ६८ वीं प्रशस्ति 'मयण पराजय' की है जिसके कर्ता कवि हरदेव हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के दो परिच्छेदों में से प्रथम में ३७ और दूसरे में ८१ कुल ११८ कडवक हैं। जिनमें मदन को जीतने का सुन्दर सरस वर्णन किया गया है । यह एक छोटा-सा रूपक खण्ड काव्य है । इसमें पद्धडिया, गाथा और दुवई छन्द के सिवाय वस्तु ( रड्ढा) छन्द का भी प्रयोग किया गया है। किन्तु इन छन्दों में कवि को वस्तु या रड्ढा छन्द ही प्रिय रहा है ' छन्द के साथ ग्रन्थ में यथा स्थान अलंकारों का भी संक्षिप्त वर्णन पाया जाना इस काव्य ग्रंथ की अपनी विशेषता है। ग्रंथ में अनेक सूक्तियां दी हुई हैं जिनसे ग्रंथ सरस हो गया है। उदाहरणार्थं यहाँ तीन सूक्तियों को उद्धृत किया जाता है १ १. असिधारा परण को गच्छइ - तलवार की धार पर कौन चलना चाहता है २. को भुयदंडहिं सायरु लंघहि - भुजदंड से सागर कौन तरना चाहेगा ३. को पंचारणरणु सुत्तउ खवलइ - सोते हुए सिंह की कौन जगाएगा । ग्रन्थ का कथानक परम्परागत ही है, कवि ने उसे सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है, रचना का ध्यान से समीक्षण करने पर शुभचन्दाचार्य के ज्ञानार्णव का उस पर प्रभाव परिलक्षित हुआ जान पड़ता है । जो तुलना करने से स्पष्ट हो सकता है । इस रूपक - काव्य में कामदेव राजा, मोहमंत्री, अहंकार और अज्ञान आदि सेनापतियों के साथ भावनगर में राज्य करता है । चारित्रपुर के राजा जिनराज उसके शत्रु हैं; क्योंकि वे मुक्तिरूपी लक्ष्मी से अपना विवाह करना चाहते हैं । कामदेव ने राग-द्वेष नाम के दूत द्वारा जिनराज के पास यह संदेश भेजा कि आप या तो मुक्ति - कन्या से विवाह करने का अपना विचार छोड़ दें, और अपने ज्ञान, दर्शनचरित्ररूप सुभटों को मुझे सोंप दें, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाएँ। जिनराज ने कामदेव से युद्ध करना स्वीकार किया और अंत में कामदेव को पराजित कर अपना विचार पूर्ण किया । १. प्राकृत- पिंगल में रड्ढा छन्द का लक्षण इस तरह दिया है। जिसमें प्रथम चरण में १५ मात्राएँ, द्वतीय चरण में १२ तृतीय चरण में १५, चतुर्थ चरण में ११, और पांचवें चरण में १५ मात्रा हों, इस तरह १५ × १२ × १५ × ११ X १५, कुल ६८ मात्राओं के पश्चात् अन्त में एक दोहा होना चाहिए, तब प्रसिद्ध रड्ढा छन्द होता है । जिसे वस्तु छन्द भी कहा जाता है । (देखो, प्रा० पिं० १ - १३३ ) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जंन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि-परिचय यद्यपि कवि ने अपना कोई विशेष परिचय ग्रन्थ में नहीं दिया, फिर भी प्रथम संधि के दूसरे - तीसरे कवक से ज्ञात होता है कि कवि का नाम हरि या हरिदेव था । इनके पिता का नाम चङ्गदेव श्रौर माता का नाम चित्रा (देवी) था । इनके दो ज्येष्ठ और दो कनिष्ठ भाई भी थे । उनमें जेठे भाइयों का नाम किंकर और कृष्ण था । इनमें किंकर गुणवान और कृष्ण स्वभावतः निपुण था, कनिष्ठ भाइयों के नाम क्रमशः द्विजवर और राघव थे, ये दोनों ही धर्मात्मा थे । संस्कृत 'मदन पराजय' इसी रूपक - ग्रन्थ का संबद्धित अनुवादित रूप है । और जिसके कर्ता कवि नागदेव उन्हीं के वंगज तथा ५वीं पीढ़ी में हुए थे । उन्होंने ग्रंथ प्रशस्ति में जो परिचय दिया है उससे कवि के वंश का परिचय निम्न प्रकार मिलता है- पृथ्वी पर शुद्ध सोमकुलरूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य तथा याचकों के लिए कल्पवृक्ष रूप चङ्गदेव हुए । उनके पुत्र हरि या हरदेव, जो असत्कवि रूपी हस्तियों के लिए सिंह थे । उनके पुत्र वैद्यराज नागदेव, नागदेव के 'हेम' और 'राम' नाम के दो पुत्र थे। जो दोनों ही वैद्य-विद्या में निपुण थे। राम के पुत्र 'प्रियंकर' हुए, जो दानी थे। प्रियंकर के पुत्र 'मल्लुगि' थे, जो चिकित्सा महोदधि के परिगामी विद्वान् और जिनेन्द्र के चरण कमलों के मत्त भ्रमर थे । उनका पुत्र मैं अल्पज्ञानी नागदेव हूँ। जो काव्य, अलंकार, और शब्द कोष के ज्ञान से विहीन हूँ । हरिदेव ने जिस कथा को प्राकृत बन्ध में रचा था उसे मैं धर्मवृद्धि के लिए संस्कृत में रचता हूँ' । कवि ने ग्रन्थ में कोई रचना काल नहीं दिया । ग्रन्थ की यह प्रति सं० १५७६ की लिखी हुई ग्रामर भंडार में सुरक्षित है। उससे यह ग्रन्थ पूर्व बना है । इस ग्रन्थ की दूसरी प्रति सं० १५५१ मगशिर सुदि अष्टमी गुरुवार की लिखी हुई जयपुर के तेरापंथी बड़े मंदिर के शास्त्र भंडार में मौजूद है, जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उक्त ग्रन्थ सं० १५५१ से पूर्ववर्ती है । ग्रन्थ के भाषा साहित्यादि पर से वह १४वीं शताब्दी के उपान्त समय की और १५वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की कृति जान पड़ती है । ६वीं और १०५वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः 'सिद्धचक्क कहा' और 'जिरणरत्तिविहारण कहा की हैं, जिन के कर्ता कवि नरसेन हैं । सिद्धचक्र कथा में चंपा नगरी के राजा श्रीपाल और उनकी धर्मपत्नी मैनासुन्दरी का चरित्र-चित्रण किया गया है । अशुभोदय वस राजा श्रीपाल और उनके सात सौ साथियों को भयंकर कुष्ठ रोग हो जाता है । रोग की वृद्धि हो जाने पर उनका नगर में रहना असह्य हो गया, उनके शरीर की दुर्गन्ध से जनता का वहाँ रहना भी दूभर हो गया, तब जनता के अनुरोध से उन्होंने अपना राज्य अपने चाचा अरिदमन को २. य. शुद्धः सोमकुलपद्मविकासनार्को, जातोर्थिनां सुरतरुर्भुवि चङ्गदेवः । तन्नन्दनो हरिस्सत्कविनागसिंहः, तस्मात् भिषग्जनपतिर्भुवि नागदेवः ॥२॥ तन्नावुभौ सुभिषजाविह हेम-राम, रामत्प्रिङ्करइति प्रियदोऽथिनां यः । तञ्जश्चिकित्सितमहाम्बुधि पारमाप्तः श्रीमल्लुगि जिनपदाम्बुज मत्तभृङ्गः ॥३॥ तज्जोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः । छन्दोऽलङ्कारकाव्यानि नाभिधानानि वेदम्यहम् ||४ ॥ कथा प्राकृतबन्धेन हरिदेवेन या कृता । वक्ष्ये संस्कृत बंधेन भव्यानां धर्मवृद्धये ॥५॥ -मदन पराजय Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११५ दे दिया और कहा कि जब मेरा रोग ठीक हो जाएगा, मैं अपना राज्य वापिस ले लूंगा । श्रीपाल अपने साथियों के साथ नगर छोड़कर चले गए, और अनेक कष्ट भोगते हुए उज्जैन नगर के बाहर जंगल में ठहर गए। वहां का राजा अपने को ही सब कुछ मानता था, कर्मों के फल पर उसका विश्वास नहीं था । उसकी पुत्री मैना सुन्दरी ने जैन साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था, और कर्म सिद्धान्त का उसे अच्छा परिज्ञान हो गया था, उसकी जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा और भक्ति थी साथ ही साध्वी और शीलवती थी । राजा ने उससे अपना पति चुनने के लिए कहा, परन्तु उसने कहा कि यह कार्य शीलवती पुत्रियों के योग्य नहीं है । इस सम्बन्ध में श्राप ही स्वयं निर्णय करें । राजा ने उसके उत्तर से असंतुष्ट हो उसका विवाह कुष्ठ रोगी श्रीपाल के साथ कर दिया। मंत्रियों ने बहुत समझाया, परन्तु उस पर राजा ने कोई ध्यान न दिया । निदान कुछ ही समय में मैनासुन्दरी ने सिद्धचक्र का पाठ भक्ति भाव से सम्पन्न किया, और जिनेन्द्र के अभिषेक जल से उन सबका कुष्ठ रोग दूर हो गया । और वे सुखपूर्वक रहने लगे । पश्चात् श्रीपाल बारह वर्ष के लिए विदेश चला गया, वहां भी उसने अनेक कर्म के शुभाशुभ परिणाम देखे, और बाह्य विभूति के साथ बारह वर्ष बाद मैना सुन्दरी से मिला, उसे पटरानी बनाया, और चंपापुर जाकर चाचा से राज्य लेकर शासन किया । और ग्रन्त में तप द्वारा आत्म लाभ किया। इस कथानक से सिद्धचक्रव्रत की महत्ता का आभास मिलता है। रचना सुन्दर और संक्षिप्त है । दूसरी कृति 'जिन रात्रि कथा' है, जिसे वर्द्धमान कथा भी कहा जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर ने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रत की कथा शिवरात्रि के ढंग पर रची गई है। उस रात्रि में जनता को इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हुये आत्म-शोधन का प्रयत्न करना चाहिए। रचना सरस है, कवि ने रचना में अपना कोई परिचय, गुरु परम्परा तथा समयादि का कोई उल्लेख नहीं किया । इससे कवि के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। 'सिद्धचक्क कथा' की प्रति सं० १५१२ की लिखी हुई मिली है । जिससे स्पष्ट है कि उक्त ग्रंथ उससे पूर्व बन चुका था । कितने पूर्व यह अभी विचारणीय है । फिर भी यह रचना १४वीं शताब्दी या उसके ग्रास-पास की जान पड़ती है । ७० वीं प्रशस्ति ‘अरणत्थमिय कहा की है, जिसके कर्ता कवि हरिचन्द हैं । प्रस्तुत कथा में १६ कडवक दिये हुए हैं जिनमें रात्रिभोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा की गई हैं और बतलाया गया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य ग्रास की शुद्धि शुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नहीं कर सकता । उसी प्रकार सूर्य के अस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउंटी, डांस, मच्छर आदि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती । बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं, उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि उठानी पड़ती है । अतः धार्मिकदृष्टि और स्वास्थ्य की दृष्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना ही श्रेयस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्य से स्पष्ट है जिहि दिट्ठि ग य सरइ अंधुजेम, नहिं गास-सुद्धि भरगु होय केम । for-as-पयंग भिंगुराई, पिप्पीलाई डंसई मच्छिराई । खज्जूरइ कण्ण सलाइया इं, अवरइ जीवइ जे बहुसयाई । अन्नाणी रिसि भुंजंतरण, पसुसरि सुधरिउ अप्पाणु तेरा । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जन पंच प्रशस्ति संग्रह धत्ता-जं वालि विदीउ करि उज्जोवउ अहिउ जीउ संभवइ परा। भमराइ पयंगई बहुविह भंगई मंडिय दीसइ जित्यु धरा ॥५॥ कवि का वंश अग्रवाल है, उनके पिता का नाम जंडू और माता का नाम वील्हा देवी था। कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, परन्तु रचना पर से वह १५ वीं शताब्दी की जान पड़ती है; क्योकि रचना जिस गुच्छक पर से संगृहीत की गई है, वह ३०० वर्ष से पूर्व का लिखा हुआ है। ७१ वीं प्रशस्ति से लेकर ७३ वीं प्रशस्ति तक तीनों प्रशस्तियां क्रमशः चूनडीरास, निझरपंचमी कहारास और कल्याणक रास की हैं जिनके कर्ता कवि विनयचन्द्र हैं। प्रस्तुत चूनडी रास में ३२ पद्य हैं। जिनमें चूनडी नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है । कोई मुग्धा युवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि हे सुभग! जिनमन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चूनड़ी शीघ्र छपवा दीजिये, जिससे में जिनशासन में विचक्षण हो जाऊँ । वह यह भी कहती है कि यदि आप वैसी चूनड़ी छपवा कर नहीं देंगे, तो वह छीपा मुझे तानाकशी करेगा। पति-पत्नी की बात सुनकर कहता है कि हे मुग्धे ! वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है। चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएँ विशेष रूप से प्रोढ़ती थीं। कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चूनड़ी रास का निर्माण किया है, जो वस्तु तत्व के विविध वाग-भूषणों से भूषित है, और जिसके अध्ययन से जैनसिद्धांत के मार्मिक रहस्यों का उद्घाटन होता है। वैसे ही वह शरीर को अलंकृत करती हुई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को अलंकृत करती हुई बालाएँ लोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगी और और अपने कण्ठ को भूपित करने के साथ-साथ भेद-विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगी। रचना सरस और चित्ताकर्षक है इस पर कवि की एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है जिसमें चूनड़ी रास में दिये हुए शब्दों के रहस्य को उद्घाटित किया गया है। ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए। कवि ने इस रचना को 'त्रिभुवनगढ़' में 'अजयनरेन्द्र' के विहार में बैठकर बनाया है। उस समय त्रिभुवनगढ़' या तहनगढ़ जन-धन से समृद्ध था, इसीसे कवि ने उसे 'सग्ग खंड णं धरियल पायउ' वाक्य द्वारा उसे स्वर्गखण्ड के तुल्य बतलाया है। प्रस्तुत 'अजयनरेन्द्र' तहनगढ़ के राजा कुमारपाल का भतीजा था और उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था । संवत् १२५३ में वहां कुमारपाल का राज्य था, उस समय मुहम्मद गौरी ने सन् ११४६ में उस पर अधिकार कर लिया था। तब समस्त व्यापारी जन नगर छोड़कर इधर-उधर भाग गये थे, नगर जन-धन से शून्य हो गया था। वहां अनेक मन्दिर और शिवालय थे। मूर्ति-पूजा का वहां बहुत प्रचार था; किन्तु मुसलमानों का अधिकार होते ही अनेक मन्दिर-मूर्तियां धराशायी करा दी गई थीं, जिससे नगर श्रीहीन और वीरान-सा हो गया था। मुहम्मद गौरी ने वहां का शासक वहरुद्दीन तुगरिक को नियुक्त किया था, उसने दूर-दूर से बसने के लिये व्यापारियों को बुलाया था, १. त्रिभुवनगढ़ या तहनगढ़ राजस्थान के ऐतिहासिक स्थान है । जो 'बहनपाल' के द्वारा बसाया गया था वयाना 'तहनगढ़' पौर करौली ये तीनों स्थान इस वंश के द्वारा शासित रहे हैं। प्रस्तुत प्रजयनरेन्द्र करौली के राजवंश-सूची से कुमारपाल का भतीजा ज्ञात होता है । तहनगढ़ के सम्बन्ध में अन्यत्र पाद टिप्पण में विचार किया गया है, पाठक वहां देखें। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना खुराशान से भी लोग बसने को आए थे। सम्भव है कुछ दिनों के बाद उसकी समृद्धि पुनः हो गई हो। मुनि विनयचन्द ने अपनी चूनड़ी अजयराजा के विहार में बैठकर बनाई थी। ७२ वी प्रशस्ति 'निर्भरपंचमीकहारास की हैं। जिसमें निर्भर पंचमी के व्रत का फल बतलाया गया है। जो व्यक्ति पंचमी व्रत का निर्दोष रूप से पालन करता है, वह अविकल सिद्ध पद को पाता है। इस व्रत की विधि बतलाते हुए लिखा है कि 'आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन जागरण करे और उपवास करे तथा कार्तिक के महीने में उसका उद्यापन करे अथवा श्रावण में प्रारम्भ करके अगहन के महीने में उद्यापन करे और उद्यापन में छत्र-चमरादि पांच-पाँच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान करे' । यदि उद्यापन की शक्ति न हो, तो व्रत दूने समय तक करे।' इस रास को कवि ने त्रिभुवन गरि की तलहटी में बनाया था। रचना सुन्दर और सरस है। ७३ वीं प्रशस्ति 'कल्याणक रास' की है, जिसमें जैन तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों की तिथियों का निर्देश किया गया है। कवि परिचय प्रस्तुत कवि विनयचन्द माथुरसंघ के भट्टारक उदयचन्द के प्रशिष्य और बालचन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी दोनों रचनाएँ त्रिभुवनगिरि में बनाई थी। किन्तु तीसरी रचना में उसके स्थान का कोई निर्देश नहीं किया, जिससे यह कहना कठिन है कि वह कहां पर बनी है । रचना समय तीनों में ही नहीं दिया हैं। संवत् १४५५ के गुच्छक में लिखी हुई कल्याणकरास की एक प्रति श्री पं० दीपचंद पांड्या केकड़ी के पास है, उससे इतना तो सुनिश्चित हो जाता है कि उक्त ग्रंथ उससे पूर्व ही रचा गया है। चूनडीरास त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल के भतीजे अजयराज के विहार में बैठकर बनाने का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। जिसका नाम करोली के शासकों की सूची में दर्ज है । संवत् १२५३ में त्रिभुवनगिरि का विनाश हुआ था, उसके बाद ही किसी समय 'चूनड़ीरास' रचा गया है। अजयराज के राज्य काल में नहीं इससे जान पड़ता है कि कवि का रचनाकाल वि० की १३वीं शताब्दी का मध्यकाल या १४वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। यहां यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि डा० प्रेमसागर जी ने हाल ही में 'जैन-भक्ति काव्य' नामका निबन्ध, जो भिक्षु अभिनन्दन ग्रंथ के खण्ड दो, पृष्ठ १२३ पर छपा है। उसमें भट्टारक विनयचन्द्र का समय वि० सं ५५७६ बतलाया है। उनके वे वाक्य इस प्रकार हैं "विनयचन्द्र मुनि इसी शती के सामर्थ्यवान् कवि थे। वे माथुर संघीय भट्टारक बालचन्द्रके शिष्य थे। विनयचन्द्र सूरि से स्पष्टतया पृथक् हैं। विनयचन्द्र सूरि चौदहवीं शती के रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे। मुनि विनयचन्द्र गिरिपुर के राजा अजय नरेश के राज्यकाल में हुये हैं। उनका समय वि० सं० १५७६ माना जाता है।" १. धवल पक्खि प्रासादहिं पंचमि जागरण, सुह उपवासइ किज्जइ कातिग उज्जवणू। अह सावण प्रारंभिय पुज्जइ प्रागहरणे, इह मइणिज्झर पंचमि प्रक्खिय भय-हरणे ॥ माके १३२० तारणनाम संवत्सर "समये पौषवदि २ भौमवासरे" टंडास्थाने शाखासपुरास्थाने भटारक श्रीललितकीतिदेवा ग्रन्थीलखापित, काशीपुरे वाह विमलसिरि प्रेषित द्रव्य (व्येन कर्मक्षय निमित्तं लेखावतमिति । सुबुद्धि सुपुत्र पद्मसीह लिखितं । शुभमस्तु । -गुच्छक प० १०४ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन ग्रंप प्रशस्ति संग्रह डा० साहब का समय-सम्बन्धी निष्कर्ष ठीक नहीं है। श्वेताम्बरीय विनयचन्द्र सूरि से तो वे पृ.क हैं हो । वि० सं० १५७६ विनयचन्द्र का समय नहीं है किन्तु उस गुच्छक के लिपि होने का समय है जो सुनपत (वर्तमान सोनीपत) में उक्त संवत् में लिखा गया था। श्वेताम्बरीय विनयचन्द्र सूरि से भट्टारक विनयचन्द्र पूर्ववर्ती हैं। कवि ने कुमारपाल के भतीजे अजयनरेश के विहार में बैठकर तहनगढ़ में चूनड़ी रास बनाया है। सं० १४५५ की तो कल्याणक रास की लिखित प्रति उपलब्ध है। विनयचन्द्र मुनि का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का मध्य भाग या चौदहवीं का प्रारम्भिक भाग हो सकता है । उससे बाद का नहीं। ७४वीं प्रशस्ति 'सोखवइविहाणकहा' की है कि जिसके कर्ता कवि विमलकीति हैं। प्रस्तुत कथा में व्रत की विधि और उसके फल का विधान किया गया है । कवि ने अपनी कोई गुरु परम्परा और रचना काल नहीं दिया। पर-सूत्रों से यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत कवि माथुर गच्छ बागडसंघ के मुनि रामकीर्ति के शिष्य थे। जिनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का है'। राजस्थान शास्त्र भन्डार की ग्रन्थ सूची नं० ४ के पृष्ठ ६३२ पर 'सुगन्धदशमी कथा' का उल्लेख है, जिसकी अन्तिम प्रशस्ति में विमलकीर्ति को रामकीर्ति का शिष्य बतलाया गया है । इससे यह रचना उन्हीं की जान पड़ती है। उनकी अन्य क्या रचनाये हैं। यह अभी ज्ञात नहीं हो सका। प्रस्तत बागडसंघ के रामकीर्ति कब हुए, यहां यह विचारणीय है। रामकीति नाम के दो विद्वानों का नाम मेरे ऐतिहासिक रजिस्टर में उल्लिखित है । उनमें से प्रथम रामकीर्ति ही विमलकीर्ति के गुरु हो सकते हैं। ये रामकीति वही जान पड़ते हैं, जो जयकीति के शिष्य थे, और जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में सं० १२०७ में उत्कीर्ण की गई उपलब्ध है ४ । इससे रामकीर्ति का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। क्योंकि जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश कीर्ति ने जो विमलकीर्ति के शिष्य थे। अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्वेताम्बरीय विद्वान् धनेश्वरसूरि का उल्लेख किया है जो अभयदेवसरि के शिष्य थे और जिनका समय सं० ११७१ है। इससे भी प्रस्तुत राम १. प्रासि पुरा वित्थिपणे वायडसंघे ससंघ-संकासो। मुणिराम इत्तिधीरो गिरिव्व गइमुव्व गंभीरो ॥१८॥ संजाउ तस्स सीसो विबुहो सिरि 'विमल इत्ति' विक्खायो। विमलयइकित्ति खडिया धवलिय धरणियल गयणयलो ॥१६॥ -जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला प्रशस्ति २. रामकित्ति गुरु विणउ करेविणु विमलकित्ति महियलि पडेविण । पच्छइ पुणु तवयरण करेविणु सइ अणुकमेण सो मोक्ख लहेसइ ॥ -सुगन्ध दशमी कथा प्रशस्ति ३. प्रथम रामकीर्ति जयकीति के शिष्य थे, देखो एपि ग्राफिका इंडिका जि० २, पृ० ४२१ दूसरे रामकीर्ति जो मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र ने सं० १४१३ में वैशाख सुदि ५३ बुधवार के दिन अमरावती के चौहान राजा अजयराज के राज्य में लंबकंचुकान्वयी श्रावक ने एक जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी, जो भूगर्भ से प्राप्त होकर भोगांव के मंदिर में खंडितावस्था में मौजूद (देखो, जैन सि. भा. भा० २२ अंक २। ४. एपिग्राफिका इंडिका जि० २ पृ० ४२१ ५. सुवणाणं मज्झण्णो ताण पसाएण इट्ठसंपत्तं । णमिऊण तस्स चलणे भावेण धणेसर गुरुस्स ॥४॥ -जगत्सुंदरी प्रयोगमाला प्रशस्ति Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११६ कीति १२वीं के अन्तिम चरण और १३वीं के प्रारम्भिक विद्वान ज्ञात होते हैं और विमलकीति का समय भी १३वीं शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है । यहां यह विचार अप्रासंगिक न होगा कि विद्याधर जोहरापुरकर ने 'भट्टारक सम्प्रदाय' के पृष्ठ २६३ में जगत्सून्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यशःकीति का समय 'अनुमानतः १५ वीं सदी है' ऐसा लिखा है जो किसी भूल का परिणाम है। ऊपर जो विचार किया गया है उससे स्पष्ट है कि ये यश:कीर्ति विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान थे। उनकी दृष्टि धनेश्वर गुरु के उल्लेख पर नहीं गई जान पड़ती, इसीसे ऐसा लिखा है । ७५वीं प्रशस्ति 'चन्दरण उट्ठी कहा' की है जिसके कर्ता रवि लक्ष्मण या लाग्य है। इस कथा में 'चन्दन छठ' के व्रत का परिणाम बतलाया गया है, और व्रत विधि के साथ उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है। कथाकार ने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न अपनी गुरु परम्परा ही दी, जिससे यह कहना अत्यन्त कठिन है कि पं० लक्ष्मण की या लाखू की गुरु परम्परा क्या है और वे किस वंश के थे ? अपभ्रंश भाषा के दो कवि लक्ष्मण नाम के हैं। उनमें प्रथम लक्ष्मरण कवि वे हैं, जो जैसवाल वंश में उत्पन्न हुए थे, इन के पिता का नाम 'साहुल' था, यह 'त्रिभुवनगिरि' या तहनगढ़ के निवासी थे, उसके विनष्ट होने पर विलराम पुर आये थे, वहां पुरवाड वंशीय सेठ श्रीधर की प्रेरणा से लक्ष्मण ने जिनदत्तचरित्र की रचना सं० १२७५ में पौष कृष्णा षष्ठी रविवार के दिन की थी. । इनका परिचय अन्यत्र दिया हुआ है। दूसरे कवि लक्ष्मण वे हैं, जो रतनदेव वणिक के पुत्र थे और जो मालव देश के 'गोणंदनगर' के निवासी थे। इन्होंने ८२ कडवकों और चार संधियों में 'रोमिरणाह चरिउ' की रचना की थी। इन दोनों लक्ष्मणों में से यह कथा किस की बनाई हुई है या लक्ष्मण नाम के कोई तीसरे ही कवि इस कथाके कर्ता हैं। यह सव अनुसन्धान करने की जरूरत है। ७६वीं और ७७वीं प्रशस्तियां क्रमश: निर्दुःख सप्तमी कथा' और 'दुद्धारस कथा' की है, जिनके कर्ता मुनि बालचन्द्र हैं। प्रस्तुत कथाओं में व्रतों के फल का विधान किया गया है और व्रतों के अनुष्ठान की विधि बतलाते हुए उनके आचरण की प्रेरणा की गई है। मुनि बालचन्द्र माथुरसंघ के विद्वान उदयचन्द मुनि के शिष्य और विनयचन्द मुनि के गुरु थे। विनयचन्द्र का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १४ वीं शताब्दी का प्रथम चरण है । अतएव इनके गुरु मुनि बालचन्द का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का मध्य चरण हो सकता है पर निश्चित समय के लिए अभी और भी अन्वेषण की जरूरत है। ७८वीं प्रशस्ति भी 'रविवय कहा' को है, जिसके कर्ता उक्त माथुर संघी मुनि नेमचन्द्र हैं। प्रस्तुत कथा में रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। ग्रन्थ प्रशस्ति में रचना काल दिया हुया नहीं है । अतएव यह भी कहना कठिन है कि उनका निश्चित समय क्या है ? कथा के भाषा साहित्यादि पर से यह रचना १५ वीं शताब्दी को जान पड़ती है। हो सकता है कि वह इससे भी पूर्व रची गई हो। अन्य साधन सामग्री का अन्वेषण कर कवि का यथार्थ समय निश्चित करना आवश्यक है। १. बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कमकाल वियत्तउ । पढमपक्खि रविवारइ छट्ठि सहारइ पूसमास सम्मत्तउ ॥ -जिनदत्त चरित प्रशस्ति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह ७६वीं प्रशस्ति 'सुगन्धदशमी कथा' की है जिसके कर्ता कवि नयनानन्द हैं। प्रस्तुत कृति में दो सन्धियां और २१ कडवक हैं । जिसमें मुनि निन्दा रूप पाप के फल से होने वाली शारीरिक दुर्गन्धता और कुयोनियों में भ्रमण आदि के दुखों तथा सुगन्धदशमी व्रत के अनुष्ठान के परिणाम स्वरूप होने वाली शारीरिक सुन्दरता और उच्च कुल आदि की प्राप्ति का फल दिखलाया गया है। यह कथा कब रची गई इसका कवि ने कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है। प्रस्तुत ग्रंथ की प्रशस्ति पंचायती मंदिर खजूर मस्जिद दिल्ली की अशुद्धि प्रति पर से दी गई है । हाल में इसकी दूसरी प्रति जयपुर के बड़े तेरापंधी मन्दिर के शास्त्र भंडार से देखने को मिली, जो प्रायः शुद्ध है और विक्रम संवत् १५२४ की लिखी हुई है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथ सं० १५२४ के बाद का लिखा हुआ नहीं है किन्तु पूर्ववर्ती है। और सम्भवतः विक्रम की १५ वीं शताब्दी या इससे भी कुछ पूर्व रची गई हो । कवि खुशालचन्द ने इसका हिंदी पद्यानुवाद भी कर दिया है जो भद्रपद शुक्ला दशमी के दिन शास्त्र सभा में पढ़ा जाता है । कथा रोचक और सरस है। ८०वीं प्रशस्ति 'मुक्तावलि कथा' की है, जिसके कर्ता कोई अज्ञात कवि हैं। ग्रंथ में मुक्तावलि व्रत के विधान और उसके फल की कथा दी गई है। कथा में रचनाकाल भी नहीं दिया है । जिससे उसके संबंध में निश्चयतः कुछ भी नहीं कहा जा सकता। संभव है अन्वेषण करने पर किसी प्रति में कर्ता का नाम भी उपलब्ध हो जाय। जयपुर के पाटौदीमंदिर के शास्त्रभंडार में 'मुक्तावलि विधान कथा' की एक अपूर्ण प्रति उपलब्ध है' । जो संवत् १५४१ फाल्गुण सुदी ५ की लिखी हुई है। यदि यह कथा वही हो, जिसकी संभावना की गई है, तो इसका रचनाकाल भी विक्रम की १५ वीं शताब्दी होना चाहिए। अधिकांशतः अपभंश की कथाएं १५वीं १६वीं शताब्दी में ही अधिक लिखी गई हैं । ८१वीं प्रशस्ति 'अनुपेहारास' की है जिसके कर्ता कवि जल्हिग हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में कवि ने, अनित्य अशरण, संसार, एकत्व अन्यत्व, अशुचि, प्रास्त्रव, संवर, निर्जरा, बोधिदुर्लभ और धर्म, इन बारह भावनाओं के स्वरूप को दिखलाते हुए उनके बार-बार चिन्तन करने की प्रेरणा की है। वास्तव में ये भावनाएं देहभोगों के प्रति अरुचि उत्पन्न कराती हुई आत्म-स्वरूप की ओर आकृष्ट करती हैं । इसीलिए इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कवि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नहीं होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १४वीं या १५ वीं शताब्दी हो। ८२वीं प्रशस्ति 'वारस अणुवेक्खारास' की है। जिसके कर्ता पं० योगदेव हैं । इस ग्रन्थ में भी अनित्यादि बारह भावनाओं का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है । कवि ने इस ग्रंथ को कुम्भनगर के मुनिसुव्रतनाथ के चैत्यालय में बैठकर बनाया है। इनका समय और गुरुपरम्परा अभी प्रज्ञात है। प्रस्तुत कुम्भनगर कनारा जिले में बसा हुा है। इनकी एक कृति तत्त्वार्थ-सूत्र की टीका 'सुखबोधवृत्ति है । जिसका परिचय जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के प्रथम भाग में दिया गया है। उससे ज्ञात होता है कि कवि राज्य मान्य थे। और राजा भुजबली भीमदेव की राज्य सभा में उन्हें उचित सम्मान मिला हुना था, उक्त राजा भुजबली भीमदेव कनारा जिले में किस प्रदेश के शासक थे और कब तक उन्होंने वहाँ राज्य १. देखो, राजस्थान के जैन ग्रन्थभंडारों की सूची चतुर्थभाग पृ० २३६ २. देखो, जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० १ प्रस्तावना पृ०४७ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२१ किया है । इसके ज्ञात होने पर या कवि की गुरु परम्परा मिलने पर ग्रन्थ कर्ता के समय का यथार्थ निश्चय हो सकता है। ८३वीं प्रशस्ति 'अणुवेक्खा दोहा' की है जिसके कर्ता कवि लक्ष्मीचन्द है । प्रस्तुत ग्रंथ में अनित्यादि बारह भावनाओं का ४७ दोहों में परिचय कराया गया है। और अन्त में उनका फल बतलाते हुए लिखा है कि- 'जो मानव व्रत-तप-शील का अनुष्ठान करते हुए निर्मल आत्मा को जानता है, वह कर्मक्षय करता हुप्रा शीघ्र ही निर्वाण का पात्र होता है। ___कवि की एक दूसरी कृति 'सावयधम्म दोहा' है जिसमें २२४ दोहा दिये हुए हैं, जिनमें श्रावकाचार का सरस वर्णन अन्य श्रावकाचारों के अनुसार ही किया गया है । किन्तु इसमें अध्यात्म की पुट है । इस कारण रचना में वैशिष्ट्य आ गया है । रचना सुन्दर और सरस है । कोई कोई दोहा चुभता हुअा-सा है । यह ग्रंथ कब बना, इसके जानने का कोई साधन नहीं है, फिर भी यह रचना पुरानी है । ग्रन्थ कर्ता लक्ष्मीचन्द किस परम्परा के थे, उनकी गुरु परम्परा क्या है ? यह कुछ ज्ञात नहीं होता। इस नाम के अनेक कवि हुए हैं। इस 'श्रावकाचार दोहा' की एक प्रति सं १५५५ में कार्तिक सुदी १५ सोमवार के दिन सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य लक्ष्मण के पठनार्थ लिखी गई है। जिससे यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि उक्त ग्रन्थ उससे बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववर्ती है । कितने पूर्ववर्ती है, यह विचारणीय है, संभवतः यह १५वीं शताब्दी की रचना हो, विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान ब्रह्म श्रुतसागर ने अपने टोकाग्रन्थों में इस ग्रंथ के दोहा लक्ष्मीचंद के नाम से ही उद्धृत किये हैं। इससे यह भी सुनिश्चित है कि कवि श्रुतसागर से पूर्ववर्ती हैं । कवि का समय १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १६वीं का प्रारम्भ भी हो सकता है, किन्तु अभी इस सम्बंध में और भी प्रमाणों के खोजने की जरूरत है। ८४वीं प्रशस्ति 'अणुवेवखा' की है जिसके कर्ता कवि अल्हू हैं। इस ग्रन्थ में आत्मा को ऊँचा उठाने के लिए संसार और उसके स्वरूप को बतलाकर संसार की असारता का दिग्दर्शन कराते हुए जीव का पर द्रव्य से होने वाले राग को हेय बतलाया है । साथ हो, यह भी प्रकट किया है कि शरीर की अशुचिता उससे राग करने योग्य नहीं है । वह मल पूरित और दुर्गन्ध से युक्त है। इस जीव का कोई सगा साथी भी नहीं है, सभी स्वार्थ के साथी हैं, अतएव उनसे राग कम करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह जीवात्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही सुख-दुःखरूप कर्मों के फलों का उपभोग करता है। मन वचन काय को चंचल प्रवृत्ति से कर्म पाते हैं। उनके बंधन से प्रात्मा परतन्त्रता का अनुभव करता है अतएव प्रास्त्रव और बंध के कारणों का परित्याग करना ही श्रेयकर है । साथ ही अपनी इच्छाओं का संवरण करते हुए फल की अनिच्छा पूर्वक तपश्चरण द्वारा कर्म की निर्जरा करना चाहिए, और दुर्लभ रत्नत्रय रूप बोधि को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस तरह अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए आत्मा को ऊँचा उठाने का प्रयत्न करना आवश्यक है। कवि ने रचना में अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न गुरु परम्परा ही दी है, जिससे समय निर्णय किया जा सके । फिर भी यह रचना भाषा साहित्यादि पर से १५वीं-१६वीं शताब्दी की जान पड़ती है। २. 'स्वस्ति संवत् १५५५ वर्षे कातिक सुदी १५ सोमे श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री विद्यानन्दि तत्पट्टे भट्टारक मल्लिभूषण तच्छिष्य पंडित लक्ष्मण पठनार्य दूहा भावकाचार शास्त्रं समाप्तं । -राजस्थान ग्रंथ-सूची भा० ४ पृ० ५२ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह ८५वीं-८६वीं और १०७वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः हरिवंशपुराण, परमेष्ठी प्रकाशसार धौर योगसार की हैं, जिनके कर्ता कवि श्रुतकीर्ति हैं । 1 पहली कृति 'हरिवंश पुराण' है जिसमें ४७ सन्धियों द्वारा जैनियों के २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के जीवन-परिचय को अंकित किया गया है। प्रसंगवश उसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियों का संक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हुआ है। इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ अब तक उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन धारा में है, और दूसरी आमेर के भट्टारक महेन्द्रकीर्ति के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है, जो संवत् १६०७ की लिखी हुई है । और जिसका रचनकाल संवत् १५५२ है । इसकी लिपि - प्रशस्ति भी परिशिष्ट में दे दी गई है । श्रारा की वह प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है जो मंडपाचल (मांडू) दुर्ग के सुलतान ग्यासुद्दीन के राज्य काल में दमोवादेश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है। ये महाखान, भोजखान जेरहट नगर के सूबेदार जान पड़ते हैं। वर्तमान में जेरहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है यह दमोह पहले जिला रह चुका है। बहुत सम्भव है कि यह दमोह उस समय मालवराज्य में शामिल हो । और यह भी हो सकता है कि मांडवगढ़ के समीप ही कोई जेरहट नाम का नगर रहा हो, पर उसकी संभावना कम ही जान पड़ती है। क्योंकि प्रशस्ति में दमोवा देश का उल्लेख स्पष्ट है । १२२ ८६वीं प्रशस्ति 'परमेष्ठो प्रकाश सार' की है, इसकी एकमात्र प्रति आमेर ज्ञान भंडार में ही उपलब्ध हुई है। जिसमें आदि के दो पत्र और अन्तिम पत्र नहीं है । पत्र संख्या २८८ हैं ग्रंथ में ७ परिच्छेद या अध्याय हैं, जो तीन हजार श्लोक प्रमाण को लिये हुए हैं । ग्रन्थ का प्रमुख विषय धर्मोपदेश है । इसमें सृष्टि और जीवादि तत्त्वों का सुन्दर विवेचन कडवक और घत्ता शैली में किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त मांडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीश्वर जिनालय में की है। उस समय वहाँ ग्यासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में अनुराग रखता था । पुंजराज नाम के एक वरिणक उसके मन्त्री थे । ईश्वरदास नाम के सज्जन उस समय प्रसिद्ध थे। जिनके पास विदेशों से वस्त्राभूषरण प्रते थे। जयसिंह, संघवी शंकर, तथा संघपति नेमिदास उक्त अर्थ के ज्ञायक थे । अन्य साधर्मी भाइयों ने भी इसकी अनुमोदना की थी और हरिवंशपुराणादि ग्रन्थों की प्रतिलिपियां कराई थी । प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम सं० १५५३ की श्रावण महीने की पंचमी गुरुवार के दिन समाप्त हुआ था । एकसी सात (१०७) वीं प्रशस्ति 'जोगसार' की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दो परिच्छेदों या संधियों में विभक्त है, जिनमें गृहस्थोपयोगी प्रचार सम्बन्धी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। साथ में कुछ मुनिचर्या श्रादि के विषय में भी लिखा गया है । ग्रन्थ के अन्तिम भाग में भगवान महावीर के बाद के कुछ प्राचार्यों की गुरु परम्परा के उल्लेख के साथ कुछ ग्रंथकारों की रचनाओं का भी उल्लेख किया गया है, और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि १. संवत् १५५३ वर्षे क्वारवादि द्वज सुदि ( द्वितीया ) गुरी दिने प्रद्येह श्री मण्डपाचल गढ़दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमोवादेशे महाखान भोजखान वर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीपद्मनन्दिदेव तस्य शिष्य मंडलाचार्य देविन्दकीर्तिदेव तच्छिष्य मंडलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्ति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीर्ति हरिवंश पुराणे परिपूर्ण कृतम् ''" प्राराप्रति Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भट्टारक श्रुतकीर्ति इतिहास से प्रायः अनिभिज्ञ थे और उसे जानने का उन्हें कोई साधन भी उपलब्ध न था, जितना कि आज उपलब्ध है। दिगम्बर-श्वेताम्बर संघ भेद के साथ आपुलीय (यापनीय) संघ भिल्ल और नि:पिच्छक संघ का नामोल्लेख किया गया है। और उज्जैनी में भद्रबाहु से सम्राट चन्द्रगुप्त की दीक्षा लेने का भी उल्लेख है। ग्रंथकार संकीर्ण मनोवृत्ति को लिये हुए था, वह जैनधर्म की उस उदार परिणति से भी अनभिज्ञ था। इसीसे उन्होंने लिखा है कि 'जो प्राचार्य शूद्र पुत्र और नौकर वगैरह को व्रत देता है वह निगोद में जाता है और वह अनन्तकाल तक दुःख भोगता है'।' प्रस्तुत ग्रन्थ सं० १५५२ में मार्गशिर महीने के शुक्ल पक्ष में रचा गया है। कवि की इन तीन कृतियों के अतिरिक्त 'धम्मपरिवखा' नाम की एक चौथी कृति भी है जो अपूर्ण रूप में डा. हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है। जिसका परिचय उन्होंने अनेकान्त वर्ष ११ किरण २ में दिया है। जिससे स्पष्ट है कि उक्त धर्मपरीक्षा में १७६ कडवक हैं और जिसे कवि ने सं० १५५२ में बनाकर समाप्त किया था। इन चारों रचनाओं के अतिरिक्त आपकी अन्य क्या रचनाएँ हैं वे अन्वेषणीय हैं। कवि परिचय भट्टारक श्रुतकीर्ति नन्दीसंघ बलात्कारगरण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। यह भट्टारक देवेन्द्रकीति के प्रशिष्य और त्रिभुवनकीति के शिष्य थे। ग्रंथकर्ता ने भ० देवेन्द्रकीर्ति को मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकीर्ति को अमृतवाणी रूप सद्गुणों के धारक बतलाया है । श्रुतकीर्ति ने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को अल्प बुद्धि बतलाया है। कवि की उक्त सभी रचनाएँ वि० सं० १५५२ और १५५३ में रची गई हैं। और वे सब रचनाएँ मांडवगढ़ (वर्तमान मांडू) के सुलतान ग्यासुद्दीन के राज्य में दमोवा देश के जेरहट नगर के नेमिनाथ मंदिर में रची गई हैं। इतिहास से प्रकट है कि सन् १४०६ में मालवा के सूबेदार दिलावर खाँ को उसके पुत्र अलफ खां ने विष देकर मार डाला था, और मालवा को स्वतन्त्र उद्घोषित कर स्वयं राजा बन बैठा था। उसकी उपाधि हुशंगसाह थी। इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में ग्यासुद्दीन हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६९ से १५०० ईस्वी तक किया है। इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मंत्री का नाम पुंजराज था, जो जैनधर्म का प्रति पालक था। ___८७वीं प्रशस्ति 'संतिणाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि महिन्दु या महाचन्द्र हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १३ परिच्छेद हैं जिनकी आनुमानिक श्लोक संख्या पाँच हजार के लगभग है, जिनमें जैनियों के १६वें तीर्थकर शान्तिनाथ चक्रवर्ती का चरित्र दिया हुआ है । जो चक्रवर्ती, कामदेव और धर्मचक्री थे। जिन्होंने चक्रवर्ती के अनेक उत्तमोत्तम भोग भोगे। और अन्त में इन्द्रिय-विषयों को दुखद जान देह-भोगों से विरक्त हो दिगम्बर दीक्षा धागा कर तपश्चरण किया, और समाधिरूप चक्र से कर्म-शत्रुनों को विनष्ट कर धर्मचक्री बनें। विविध देशों में विहार कर जगत को कल्याण का मार्ग बतलाया। पश्चात् अवशिष्ट प्रघाति कर्म का १. मह जो सूरि देह वउ णिच्चहं, णीच-सूद-सुय-दासी-भिच्चहं । जाम णिोयमसुह मणु हुज्जई, प्रमियकाल तहं घोर-दुह मुंजइ ॥ -योगसार पत्र ६५ २. See Combridge shorter History of India. P. ३०६. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जनय प्रशस्ति संग्रह विनाश कर श्रात्मानन्द में निमग्न हो गए। जो सदाकाल निजानन्दरस में छके रहेंगे । कवि ने ग्रन्थ में चौपाई, पद्धड़िया और सोरठा आदि छन्दों का प्रयोग किया है । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना जोयरिणपुर' (दिल्ली) निवासी अग्रवाल कुलभूषण गर्ग गोत्रीय साहु भोज - राज के ५ पुत्रों में (खीमचंद (खेमचन्द) गारण चंद ( ज्ञानचन्द ) श्रीचंद गजमल्ल और रणमल ) इनमें से द्वितीय पुत्र ज्ञानचन्द के पुत्र विद्वान साधारण श्रावक की प्रेरणा से इस ग्रन्थ की रचना की गई है। इसीसे कवि ने ग्रंथ साधारण के नामांकित किया है और ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में साधारण के वंश का परिचय कराया गया है । उसने हस्तिनागपुर की यात्रार्थ संघ चलाया था और जिनमन्दिर का निर्माण भी कराकर उसकी प्रतिष्ठा भी करवाई थी तथा पुण्यउपार्जन किया था। भोजराज के पुत्र ज्ञानचंद्र की पत्नी का नाम 'सउराजही' था, जो अनेक गुरणों से विभूषित थी, उससे तीन पुत्र हुए थे। पहला पुत्र सारंग साहु था, जिसने सम्मेद - शिखर की यात्रा की थी । उसकी पत्नी का नाम ' तिलोकाही' था। दूसरा पुत्र साधारण था, जो बड़ा विद्वान् और गुरणी था, उसका वैभव बहुत बढ़ा चढ़ा था। उसने 'शत्रुंजय' की यात्रा की थी । उसकी स्त्री का नाम 'सीवाही था, उससे चार पुत्र हुए थे। अभयचंद्र, मल्लिदास जितमल्ल और सोहिल्ल । इनकी चारों पत्नियों के नाम क्रमशः - चंदाही, भदासही समदो और भीखरणही थे, ये चारों ही पतिव्रता और धर्मनिष्ठा थीं। इस तरह साधारण साहु ने समस्त परिवार के साथ शांतिनाथ चरित बनवाया था । कवि ने इस ग्रंथ की रचना विक्रम सं० १५८७ की कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन मुगल बादशाह बाबर के राज्य काल में बनाकर समाप्त किया था । कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियों का स्मरण किया है । कलंक, पूज्यपाद (देवनंदी) नेमिचंद्र सैद्धांतिक, चतुर्मुख, स्वयंभू, पुष्पदंत, यशः कीर्ति रघू, गुणभद्रसूरि, और सहरणपाल । इनमें से सहनपाल का कोई ग्रंथ अभी तक देखने में नहीं श्राया । ग्रंथकर्ता ने अपना और अपने पिता के नामोल्लेख के सिवाय अन्य कोई परिचय नहीं दिया है । किंतु काष्ठासंघ माथुरगच्छ की भट्टारकीय परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि-काष्ठा संघ माथुरगच्छ पुष्करगण में भट्टारक यशःकीर्तिः मलयकीर्ति और उनके शिष्य गुणभद्रसूरि थे । इससे यह १. जोयणिपुर दिल्ली का नाम है। यहां ६४ योगिनियों का निवास था, और उनका मन्दिर भी बना हुआ था इस कारण इसका नाम योगिनीपुर पड़ा है। जोयणिपुर अपभ्रंश का रूप है । विशेष परिचय के लिए देखिए अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ में 'दिल्ली के पांच नाम 'शीर्षक मेरा लेख । २. बाबर ने सन् १५२६ ईस्त्री में पानीपत की लड़ाई में दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित प्रौर दिवंगत कर दिल्ली का राज्य शासन प्राप्त किया था, उसके बाद उसने भागरा पर भी अधिकार कर लिया था, भौर सन् १५३० (वि० सं० १५८७ ) में भागरा में ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इसने केवल ५ वर्ष ही राज्य किया है । ३. विक्रम रायहुववगयकालइ रिसिवसु-सर- भुवि-अंकालइ । वत्तिय - पढम - पविल पंचमि दिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंत इणि । शांतिनाथ चरित प्र० ४. जोयणिपुर (दिल्ली) के उत्तर में जसुना नदी के किनारे बसी हुई काष्ठापुरी' में टांकवंश के राजा मदनपाल के श्राश्रय में पेदिभट्ट के पुत्र विश्वेश्वर ने 'मदन परिजात' नाम का निबंध १४वीं शताब्दी के मन्त समय में लिखा था । प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् म० म० प्रोभा जी के अनुसार काष्ठा नामक नगर में नागवंशियों की टाँक शाखा के राजाओं का छोटा सा राज्य था । इससे काष्ठासंघ की उत्पत्ति का स्थान दिल्ली की काष्ठापुरी ही जान पड़ती है। दूसरे काष्ठासंघ का सम्बन्ध अग्रवालों के साथ है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५५ स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कवि इन्हीं की आम्नाय का था। पर इनमें से किसका शिष्य था यह कुछ ज्ञात नहीं होता। ८८वी, १०८वीं, और १०६वीं ये तीनों प्रशस्तियाँ क्रमश: 'मियंकलेहाचरिउ' सुयंधदसमी और मउडसत्तमी कहा रास की हैं, जिनके कर्ता पंडित भगवतीदास हैं। मृगांक लेखाचरित में चार सन्धियां हैं, जिनमें कवि ने चन्द्रलेखा और सागरचन्द्र के चरित का वर्णन करते हुए चन्द्रलेखा के शीलव्रत का माहात्म्य ख्यापित किया है। चन्द्रलेखा विपदा के समय साहस और धैर्य का परिचय देती हुई अपने शीलव्रत से जरा भी विचलित नहीं होती, प्रत्युत उसमें स्थिर रहकर उसने सती सीता के समान अपने सतीत्व का जो अनुपम आदर्श उपस्थित किया है, वह अनुकरणीय है। ग्रंथ की भाषा यद्यपि अपभ्रंश है, फिर भी उसका वह रूप हिन्दी भाषा के अधिक नजदीक ही नहीं है किन्तु उसके विकास का स्पष्ट बोधक है । जैसा कि उसके निम्न दोहों से स्पष्ट है । "ससिलेहा रिणयकंत सम, धारइ संजमु सारु । जम्मणु मरण जलंजली, दारण सुयणुभव-तारु ।। करितणुतउसिउपुरगयउ, सो वणि सायरचंदु । ससिलेहा सुरवरुभई तजि तिय-तणु अइणिदु । लहि गरभवु णिरवाण पर पावसि सुंदरि सोइ । कवि सुभगौतीदासु कहि पुणभव-भमण रण होइ ॥ सीलु बड़ा संसार महि सील साहि सब काज। इहि भवि पर भविसुह लहइ आसि भणइ मुनिराज ॥" कवि भगवतीदास ने इस ग्रन्थ को हिसारकोट नगर के भगवान वर्धमान (महावीर) के मन्दिर में विक्रम संवत १७०० अगहन शुक्ला पंचमी सोमवार के दिन पूर्ण किया है। उस समय वहां मन्दिर में ब्रह्मचारी जोगीदास और पं० गंगाराम उपस्थित थे। १०८वीं प्रशस्ति 'मउडसत्तमीकहा की है जिसमें मुकुट सप्तमी के व्रत की अनुष्ठान विधि और उसके फल का वर्णन किया गया है। १०६वीं प्रशस्ति 'सुयंधदसमी कहावतरास' की है, जिसमें भाद्रपद शुक्ला दशमी के व्रत का विधान और उसके फल का कयन किया गया है। कवि-परिचय पंडित भगवतीदास काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगण के विद्वान् भट्टारक गुणचन्द्र के पट्टधर भ० सकलचन्द्र के प्रशिष्य और भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे। महेन्द्रसेन दिल्ली की भट्टारकीय गही के पटधर थे। इनकी अभी तक कोई रचना मेरे देखने में नहीं आई और न कोई प्रतिष्ठित मूर्ति ही प्राप्त हुई है। इससे इनके सम्बन्ध में विशेष विचार करना सम्भव नहीं है । भ० महेन्द्रसेन प्रस्तुत भगवतीदास के गुरू थे, इसी से १. रइयो कोट हिसारे जिणहरि वर वीर वड्ढमाणस । तत्थठिमो वयधारी जोईदासो वि बंभयारीमो ॥ भागवह महुरीया वत्तिगवर विति साहणा विणि । मइ विवह सुगंगारामो तत्थ ठिमो जिणहरेसु मइबंतो॥-मगांकलेखाचरित Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ बैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका आदर के साथ स्मरण किया है। यह बूढ़िया' जिला अम्बाला के निवासी थे। इनके पिता का नाम किसनदास था और जाति अग्रवाल और गोत्र वंसल था। इन्होंने चतुर्थवय में मुनिव्रत धारण कर लिया था । यह संस्कृत अपभ्रंश और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान थे। इनकी पचास से अधिक हिन्दी की पद्मबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं। उन रचनाओं में अनेक रचनाएँ ऐसी हैं जो भाषा और साहित्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । जैसे अनेकार्थनाममाला (कोष) सीतासतु, टंडाणारास, मादित्यव्रतरास, खिचड़ीरास, साधुसमाधिरास, मनकरहारास और रोहिणीव्रतरास मादि'। इनकी इस समय उपलब्ध रचनाएँ संवत् १६५१ से १७०० तक की उपलब्ध हैं। जो चकत्ता बादशाह अकबर, जहांगीर शाहजहां के राज्य में रची गई हैं। एक ज्योतिष और वैद्यक की रचना भी इन्होने संस्कृत में रची थी, जो कारंजा के शास्त्र भंडार में सुरक्षित हैं। इनके रचे हुए अनेक पद और गीत आदि हैं, इनकी सब रचनाएँ विभिन्न स्थानों पर रची गई हैं । उनमें से कुछ रचनाओं में रचना के कुछ नाम भी निर्दिष्ट किये हैं। उनके नाम बूढ़िया (जि० अम्बाला) दिल्ली, आगरा, हिसार, कपिस्थल सिहरदि' और संकशा आदि हैं। कवि की प्रायः सभी रचनाएं मैनपुरी, दिल्ली और अजमेर के शास्त्र भंडारों में सुरक्षित हैं। इससे स्पष्ट है कि कवि को देशाटन करने का उत्साह था। अगलपुर में कवि को अधिक समय तक ठहने का अवसर मिला है और वहां के तत्कालीन शासक अकबर, जहांगीर और शाहजहां तीनों को अत्यन्त निकटता से देखने का अवसर मिला है। इसीसे उन्होंने उनकी प्रशंसा की है। उस समय आगरा उच्चकोटि के शहरों में गिना जाता था और व्यापार का केन्द्र बना हुआ था, वहां अनेक जैन राज्यकीय उच्चपदों पर स्थित थे, सैनिक आफिसर, कोषाध्यक्ष और उमराहों के मंत्री एवं सलाहकार रहे हैं। वे सब वहां की अध्यात्म-गोष्ठी में सरीक होते थे। कवि की कुछ रचनाओं में रचना समय मिलता है। संवत् १६५१ में अर्गलपुर जिनवन्दना', १६८० में १. बूढ़िया पहले एक छोटी सी रियासत थी, जो मुगलकाल में धन-धान्यादि से खूब समृद्ध नगरी थी। जगाधरी के बस जाने से बुढ़िया की अधिकांश प्राबादी वहां से चली गई। आजकल वहाँ परखंडहर अधिक हो गए हैं, जो उसके गत वैभव की स्मृति के सूचक हैं। २. गुरु मुनि माहिंदसेन भगौती, तिस पद-पंकज रैन भगौती। किसनदास वणिउ तनुज भगौती, तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगौती ॥ नगर बूढ़िये बस भगौती, जन्मभूमि है मासि भगौती। अग्रवाल कुल वंसल गोती, पण्डित पद जन निरख भगौती ।।३।। -वृहत्सीतासतु, सलावा प्रति ३. देखो अनेकांत वर्ष ११ किरण ४-५ में कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएं शीर्षक मेरा लेख ४. कपिस्थल को कांपिल्य और संकाश्य भी कहा जाता है । यह पांचाल देश की राजधानी थी। पाणिनीय की काशिकावृत्ति में (४-२,१२१ में) कांपिल्य की विशालता का वर्णन है। यह जैनियों के १३वें तीर्थकर विमलनाथ की जन्मभूमि है। ५. यह नगर इलाहाबाद और जौनपुर के मध्य में बसा हुमा था, यहाँ अग्रवाल जैनियों का निवास था। उनमें कवि दरगहमल और उनके पुत्र विनोदीलाल भी थे। सिहरदि शब्दका मर्थ पहले शहादरा समझ लिया गया था, पर वह गलत था। ६. देखो, जैन सन्देश शोषांक ५, पृ० १८२, २२ अक्टूबर सन् १९५६ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२७ चूनड़ीरास, १६८७ में अनेकार्थनाममाला और सीतासतु, १६६४वें में ज्योतिषसार' शाहजहां के राज्य में बनाया और सं० १७०० में हिसार में मृगांकलेखाचरित्र और सं० १७१२ में वैद्यविनोद' बनाकर समाप्त किया है। इससे कवि दीर्घायु वाले थे। उनका समय १७ वी १८ वीं शताब्दी है। इनका विशेष परिचय अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ में पृ० २०५ से २०८ तक देखिये। ८वीं प्रशस्ति 'अजित पुराण' की है। जिसके कर्ता कवि विजयसिंह हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में १० संधियां हैं। जिनमें जैनियों के दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ के चरित्र का चित्रण किया गया है। रचना साधारण है और भाषा अपभ्रंश होते हुए भी देशी शब्दों की बहुलता को लिये हुए है। ____कवि ने इस ग्रंथ की रचना महाभव्य कामराय के पुत्र पंडित देवपाल की प्रेरणा से की है। इसी कारण कवि ने ग्रन्थ की पाद्यंत प्रशस्ति में कामराय के परिवार का संक्षिप्त परिचय भी कराया है। वणिपुर या वणिकपुर नाम के नगर में खण्डेलवाल वंश में कउडि (कौड़ी) नाम के पण्डित थे, उनके पुत्र १. वर्षे षोडशशतचतुर्नवतिमिते श्रीविक्रमादित्यके । पञ्चायां दिवसे विशुद्धतरके मास्याश्विने निर्मले ।। पक्षे स्वाति नक्षत्रयोगसहिते वारे बुधे संस्थिते । राजत्साहिमहावदीन भुवने साहिजहां कथ्यते ॥ -देखो, सी० पी० एण्ड बरार कैटेलोग डा० रा. ब. हीरालाल । २. सत्रहसई रुचिडोत्तरई सुकल चतुर्दशि चतु।। गुरु दिन भन्यौ पूरनु करिउ सुलितांपुरि सहजयतु । लिखिउ अकबराबाद णिरु साहिजहां के राज । साहनि मई संपइ सरिसु देश-कोष-गज-बाज ।। -देखो वही, सी० पी० एण्ड बरार कैटेलोग । ३ 'खंडेलवाल' शब्द एक उपजाति का सूचक है, जो चौरासी उपजातियों में से एक है। इस जाति का विकास राजस्थान के खण्डेला नामक स्थान से हुअा है । इस जाति के ८४ गोत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें छावड़ा, काशलीबाल, वाकलीवाल, लुहाड्या, पहाडया, पांड्या, सोनी, गोघां, भौंपा और काला मादि प्रमुख हैं । इन सब गोत्रों आदि की कल्पना ग्राम नगरादि के नामों पर से हुई है। इस जाति में अनेक सम्पन्न धनी, विद्वान और दीवान जैसे राजकीय उच्च पदों पर काम करने वाले अनेक धर्मनिष्ठ व्यक्ति हुए हैं। जिन्होंने राज्य के संरक्षण में पूरा योगदान दिया है. और प्रजा का पालन पुन्नवत् किया है। क्योंकि यह जाति भी क्षत्रिय ही थी, किन्तु वाणिज्यादि के कारण प्राज वह अपने उस क्षत्रियत्व को खो चुकी है। इस जाति की धार्मिकता प्रसिद्ध है। शाह दीपचन्द और टोडरमल्लजैसे प्रतिभा सम्पन्न विद्वान भी इसी में हुए हैं । जो जैन समाज के लिये गौरव की वस्तु हैं । रामचन्द्र छावड़ा जैसा बीर पाराक्रमी और हौसले वाला राज्य संरक्षक दीवान, अमरचन्द्र जैसा प्रतिष्ठित विद्वान, गुणज्ञ, रजनी. तिज्ञ, धर्मनिष्ठ दयालू दीवान, जिसने अपने देश और धर्म की रक्षार्थ प्राणोंका उत्सर्ग किया था। इस जाति के द्वारा निर्मापित भनेक गगनचुम्बी विशाल जिन मन्दिर हैं । जिनमें १६वीं-१२वीं शताब्दी तक की प्रतिष्ठित प्रशान्त मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। अनेक ग्रंथ, ग्रंथ-भंडारों में रचना कराकर और उन्हें प्रतिलिपि कराकर मुनियों, भट्टारकों, अजिंकानों और श्रावक-श्राविकामों तथा मन्दिर जी में भेंट किये हुए मिलते हैं। संवत् १२८७ में एक खंडेल परिवार की प्रेरणासे 'णेमिणाहचरिउ' नाम का ग्रंथ मालवा के परमारवंशी राजा देवपाल के राज्यकालमें कवि दामोदर द्वारा रचा गया था। अनेक विनों ने टीका ग्रंथ लिखे। ये सब कार्य उसकी धर्मनिष्ठा के प्रतीक हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह छी थे, जो बड़े धर्मनिष्ठ और श्रावक की ११ प्रतिमाओं का पालन करते थे। वहीं पर लोकमित्र पण्डित खेता थे, उनके प्रसिद्ध पूत्र कामराय थे। कामराय की पत्नी का नाम कमलश्री था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिनका नाम जिनदास रयणु प्रौब दिउपाल (देवपाल ) था । उसने वहां वर्धमान का एक चैत्यालय भी बनवाया था, जो उत्तुंग ध्वजाओं से अलंकृत था और जिसमें वर्धमान तीर्थंकर की प्रशांत मूर्ति विराजमान थी और उसी देवपाल ने उक्त चरित्र ग्रंथ लिखवाया था । afa ने ग्रन्थ की प्रथम सन्धि के हवें कडवक में जिनसेन, अकलंक, गुरणभद्र, गृद्धपिच्छ, पोढिल्ल (प्रोष्ठिल्ल), लक्ष्मरण, श्रीधर और चउमुह (चतुर्मुख) नाम के विद्वानों का उल्लेख किया है । कवि-परिचय कवि ने अपना परिचय निम्नप्रकार व्यक्त किया है— मेरुपुर में मेरुकीर्ति, करमसिंह राजा के घर में हुए, जो पद्मवती पुरवाड वंश में उत्पन्न हुए थे । कवि के पिता का नाम सेठ दिल्हरण था और माता का नाम राजमती था । यद्यपि कवि ने अपनी गुरुपरम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु ग्रंथकर्ता ने अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १५०५ मैं कार्तिकी पूर्णिमा के दिन बनाकर समाप्त किया था। उसी संवत् की लिखी हुई एक प्रति भोगांव के शास्त्र भण्डार से बाबू कामताप्रसाद जी अलीगंज को प्राप्त हुई है', जो उनके पास सुरक्षित है । अन्य प्रतियां जयपुर के शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हैं। एक अपूर्ण प्रति मेरे पास भी है । ०वीं प्रशस्ति से लेकर हवीं प्रशस्ति तक प्रशस्तियां क्रमशः निम्न ग्रन्थों की हैं जिनके नाम 'कोइलपंचमी कहा' मउडसत्तमी कहा, रविवयकहा, तियालचउवीसीकहा, कुसुमंजलि कहा, निसि सत्तमी वयकहा, णिज्झरपंचमी कहा, और प्रणुपेहा हैं। जिनके कर्ता ब्रह्म साधारण हैं । इन कथानों में जैन सिद्धान्त के अनुसार व्रतों का विधान और उनके फल का विवेचन किया गया है। साथ ही व्रतों के श्राचरण का क्रम और तिथि आदि के उल्लेखों के साथ उद्यापन की विधि को भी संक्षिप्त में दिया हुआ है। अंतिम ग्रंथ अनुप्रेक्षा में अनित्यादि द्वादश भावनाओं के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए संसार और देह-भोगों की असारता का उल्लेख करते हुए आत्मा को वैराग्य की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया है । ब्रह्म साधारण ने अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख किया है, किन्तु अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न रचना - काल का समय ही दिया है । कुन्दकुन्दगरणी की परम्परा में रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र, पद्मनंदि, हरिभूषण, नरेन्द्रकीर्ति, विद्यानंदि और ब्रह्म साधारण । ब्रह्म साधारण भ० नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य १. संवत् १५०५ वर्षे कार्तिक सुदी पूर्णमासी दिने श्री मूलसंधे सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे भट्टारक श्री पद्मनंदिदेव तत्पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेव तस्य पट्टे भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेव तस्याम्नाये श्री खंडेलवालान्वये सकल ग्रन्थार्थं प्रवीणः पंडित कउडि: तस्य पुत्रः सकल कलाकुशल: पण्डित छीत (र) तत्पुत्र: निरवद्य श्रावकाचारधरः पंडित जिनदास, पंडित खेता तत्पुत्र पंचाणुव्रत पालकः पण्डित कामराज तद्भार्या कमलश्री तत्पुत्रात्रयः पण्डित जिनदास, पण्डित रतम, पण्डित देवपाल एतेषां मध्ये पंडित देवपालेन इदं अजितनाथदेव चरित्रं लिखापितं निजज्ञानावरणीय कर्मक्षयार्थं शुभमस्तु लेखक पाठव योः । - जैन सि० भा० भा० २२ कि० २ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२६ थे । प्रस्तुत कथा ग्रंथ की यह प्रति वि० सं० १५०८ की लिखी हुई है। अतएव उनका रचना समय सं. १५०८ से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे विक्रम की १५वीं शताब्दी के अंतिम चरण के विद्वान जान पड़ते हैं । ___eeवीं प्रशस्ति 'सिरिपाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि रइधू हैं। इसका परिचय ३५वीं प्रशस्ति से लेकर ४६वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १००वीं प्रशस्ति 'पासणहचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि तेजपाल हैं। जिसका परिचय २८वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १०१वीं प्रशस्ति :सिरिपाल चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि दामोदर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सिद्धचक्र के महात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले चम्पापुर के राजा श्रीपाल और मैनासुन्दरी का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। मैनासुन्दरी ने अपने कुष्टी पति राजा श्रीपाल और उनके सात सौ साथियों का कुष्ट रोग सिद्धचक्र व्रत के अनुष्ठान और जिनभक्ति की दृढ़ता से दूर किया था। कवि ने इस ग्रन्थ को इक्ष्वाकुवंशी दिवराज साहु के पुत्र नक्षत्र साहु के लिए बनाया था। ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने अपनी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार व्यक्त की है। मूलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, और कवि दामोदर । प्रस्तुत कवि दिल्ली पट्ट के भट्टारक जिनचंद्र के शिष्य थे। जिनचंद्र उस समय के प्रभावशाली भट्टारक थे, और संस्कृत प्राकृत के विद्वान् तथा प्रतिष्ठाचार्य थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ भारतीय जैनमंदिरों में पाई जाती हैं । ऐसा कोई भी प्रांत नहीं, जहां उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ न हों। यह सं० १५०७ में भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे और पट्टावली के अनुसार उस पर ६२ वर्ष तक अवस्थित रहे। इनके अनेक विद्वान् शिष्य थे, उनमें पंडित मेधावी और कवि दामोदर आदि हैं। इनकी इस समय दो कृतियाँ प्राप्त हैं सिद्धांतसार प्राकृत और चतुर्विंशति जिनस्तुति । इसमें दश पद्य हैं जो यमकालंकार को लिए हुए हैं। अने० वर्ष ११ कि० ३ कवि दामोदर ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, केवल अपने गुरु का नामोल्लेख किया है। इनको दूसरो कृति 'चंदपहचरिउ' है जिसको प्रति नागोर के भट्टारकोय शास्त्र भंडार में सुरक्षितहै। उनका समय विक्रम को १६वीं शताब्दी है। बहुत संभव है कि इनको अन्य कृतियाँ भी अन्वेषण करने पर भंडारों में मिल जाय। १०२वीं प्रशस्ति 'पासणाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि असवाल हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १३ सन्धियाँ हैं, जिनमें भगवान पार्श्वनाथ की जीवन-गाथा दी हुई है । ग्रंथ की भाषा १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की है, जब हिन्दी अपना विकास और प्रतिष्ठा प्राप्त कर रही थी। ग्रंथ में पद्धड़िया छन्द की बहुलता है, भाषा मुहावरेदार है। रचना सामान्य है। यह ग्रन्थ कुशात देश में' स्थित 'करहल' नगर निवासी साहु सोणिग के अनुरोध से बनाया गया था, जो यदुवंश में उत्पन्न हुए थे। उस समय करहल में चौहानवंशी राजाओं का राज्य था। इस १. कुशादेश सूरसेन देश के उत्तर में बसा हुआ था और उसकी राजधानी शौरीपूर थी, जिसे यादवों ने बसाया था। जरासंध के विरोध के कारण यादबों को इस प्रदेश को छोड़कर द्वारिका को अपनी राजघानी बनानी पड़ी थी। वर्तमान में वह ग्राम इसी नाम से प्रसिद्ध है। २. करहल इटावा से १३ मील की दूरी पर जमुना नदी के तट पर बसा हुआ है, वहां पर चौहान वंशी राजानों का राज्य रहा है। यहां चार जैन शिखर बन्द मंदिर हैं और अच्छा शास्त्र भण्डार है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह ग्रंथ की रचना वि० स० १४७९ में भाद्रपद कृष्णा एकादशी को बनाकर समाप्त की गई थी । ग्रंथ निर्माण में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था । ग्रंथ निर्माण के समय करहल में चौहानवंशी राजा भोजराज के पुत्र संसारचन्द ( पृथ्वीसिंह ) का राज्य था । उनकी माता का नाम नाइक्कदेवी था, यदुवंशी भ्रमरसिंह भोजराज के मन्त्री थे, जो जैनधर्म के संपालक थे। इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह, लक्ष्मणसिंह थे । श्रमरसिंह की पत्नी का नाम कमलश्री था। उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे । नन्दन, सोरिग और लोगा साहु । इनमें लोगा साहू जिन यात्रा प्रतिष्ठा आदि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनिमय करते थे और अनेक विधान - 'उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने 'मल्लिनाथ चरित के कर्ता कवि 'हल्ल' की प्रशंसा की थी । इन्हीं लोगा साहू के अनुरोध से कवि असवाल ने पार्श्वनाथ चरित की रचना उनके ज्येष्ट भ्राता सोरिणग के लिये की थी । प्रशस्ति में मं० १४७१ में भोजराज के राज्य में सम्पन्न होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का भी उल्लेख किया है, जिसमें रत्नमयी जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा सानन्द सम्पन्न हुई थी । ग्रंथ कर्ता कवि प्रसवाल का वंश 'गोलाराड' (लार ) था । यह पण्डित लक्ष्मण के सुपुत्र थे । कवि ने मूलसंघ बलात्कार गरण के आचार्य प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दि, शुभचन्द और धर्मचन्द्र का उल्लेख किया है । जिससे कवि उन्हीं की आम्नाय का था । कवि कहां का निवासी था, और उसने अन्य क्या रचनाएं रचीं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अतः ज्ञान भण्डारों में कवि की अन्य कृतियों का अन्वेषण होना आवश्यक है । १०३वीं प्रशस्ति 'संतिरगाह चरिउ' की है जिसके कर्ता कवि शाहठाकुर हैं । ग्रन्थ पांच संधियों में विभक्त है जिसमें जैनियों के १६वें तीर्थंकर, शान्तिनाथ का, जो कामदेव श्रौर चक्रवर्ती भी थे, जीवन-परि चय अंकित किया गया है । चरित संक्षिप्त और साधारण रूप में ही प्रस्तुत किया गया है । कवि ने यह ग्रंथ विक्रम संवत् १६५२ में भाद्र शुक्ला पंचमी के दिन चकत्तावंश के जलालुद्दीन अकबर बादशाह के शासन काल में, ढूंढाड़ देश के कच्छपवंशी राजा मानसिंह के राज्य में समाप्त किया है । मानसिंह की राजधानी उस समय अम्बावती या ग्रामेर थी । ग्रंथ कर्ता ने प्रशस्ति में अपनी जो गुरु परम्परा दी है उससे वे भट्टारक पद्मनन्दिकी आम्नाय में होने वाले भ० विशालकीर्ति के शिष्य थे। जो मूलसंघ नंद्याम्नाय सरस्वती गच्छ बलात्कार गरण के विद्वान थे, उनके भट्टारक पद्मनन्दि, शुभचन्द्रदेव, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, रत्नकीर्ति, भुवनकीर्ति, विशालकीर्ति, लक्ष्मीचन्द्र, सहस्रकीर्ति, नेमिचन्द्र, अर्जिका अनंतश्री और दाभाडालीबाईं का नामोल्लेख किया गया है । इनमें भट्टारक विशालकीर्ति विद्वान कवि के समकालीन जान पड़ते हैं । और उनमें दो परम्परा के विद्वान शामिल हैं। एक अजमेर पट्ट के और दूसरे आमेर या उसके समीपस्थ पट्ट के । भट्टारक विशालकीर्ति अजमेर - शाखा के विद्वान थे। और जो भट्टारक चन्द्रकीर्ति के पट्टधर थे। जिनका पट्टाभिषेक सम्मेद शिखर पर हुआ था ' । विशालकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हुए हैं, परन्तु यह उनसे भिन्न हैं । ३. इगवीर हो णिब्वुइकुच्छराई, सत्तरि सहुँचउसय वत्थराई । पच्छई सिरि णिव विक्कम गयाई, एउणसीदीसहुँ चउदह सयाई । भादवतम एयारसि मुणे, वरिसिक्के पूरिउ गंधु एहु । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना कवि के पितामह का नाम साहु सीह्ना और पिता का नाम खेत्ता था, जाति खंडेलवाल और गोत्र लूहाड्या था। यह लुवाइणिपुर के निवासी थे, वह नगर जन-धन से सम्पन्न और भगवान चन्द्रप्रभ के विशाल जिनमंदिर से अलंकृत था। कवि की धर्मपत्नी गुरुभक्ता और गुण ग्राहिणी थी। आपके दो पुत्र थे, धर्मदास और गोविन्ददास । इनमें धर्मदास बहुत ही सुयोग्य और गृह भार वहन करने वाला था, उसकी बुद्धि जैनधर्म में विशेष रस लेती थी । कवि देव-शास्त्र-गुरु के भक्त और विद्याविनोदी थे, उनका विद्वानों से विशेष प्रेम था, वे संगीत शास्त्र, छन्द, अलंकार आदि में निपुण थे, और कविता करने में उन्हें विशेष आनन्द प्राता था। कवि की दूसरी कृति 'महापुराण कलिका' है। जिसमें २७ संधियां हैं, जिनमें वेसठ शलाका महापुरुषों की गौरव-गाथा का चित्रण किया गया है । ग्रंथ के अन्त में एक महत्वपूर्ण प्रशस्ति दी है, जिससे कवि के वंश आदि का परिचय मिल जाता है । कवि ने इस ग्रंथ को हिन्दी भाषा में लिखा है और जिसका रचनाकाल वि० संवत् १६५० है । इससे कवि १७वीं शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान जान पड़ते हैं। १०४वीं प्रशस्ति 'मल्लिणाहकव्व' की है जिसके कर्ता कवि जयमित्रहल हैं । इसका परिचय २६वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। . १०५वीं प्रशस्ति ‘जिरणरत्ति विहाणकहा' की है, जिसके कर्ता कवि नरसेन हैं। जिसका परिचय ६६वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १०६वीं प्रशस्ति सम्यक्त्व कौमुदी की है जिसके कर्ता कवि रइधू हैं। इसका परिचय ३५वीं प्रशस्ति से लेकर ४९वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। __ १०७वीं प्रशस्ति 'जोगसार' की है। जिसके कर्ता कवि श्रुतकीर्ति हैं। इसका परिचय ८५-८६ प्रशस्तियों के साथ दिया गया है। १०८वीं और १०६वीं प्रशस्तियां क्रमशः सुगंध दसमी कथा और मउडसत्तमी कहारास की हैं, जिनके कर्ता कवि भगवतीदास हैं । और जिनका परिचय ८८वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। १. श्रीमत्प्रभाचन्द्र गणी-द्र पट्टे भट्टारक श्रीमुनिचन्द्रकीतिः : संस्नापितो योऽवनिनाथवृन्दैः सम्मेदनाम्नीह गिरीन्द्रमूनि ॥-मूलसंघ पट्टावली जैन सि०भा० १ कि०३-४ २. कल्याणं कीर्तिल्लोके जसु भवति जगे मंडलाचार्य पट्टे, नंद्याम्नाये सुगच्छे सुभगश्रुतमते भारती कारमूर्ते। मान्यो श्री मूलसंघे प्रभवतु भुवने सार सौख्याधिकारी, सोऽयं में वैश्यवंशे ठकुर गुरुयते कीर्तिनामा विशालो। -महापुराण कलिका संधि २३ १. कवि ने अपने को स्वयं त्रेसठ शलाका पुरुषों की पुराण कथा को कहने वाला लिखा है और जिसका परिचय अनेकान्त वर्ष १३ किरण ७-८ में दिया गया है । जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है। या जन्माभवछेद निर्णयकरी, या ब्रह्मब्रह्मेश्वरी। या संसार विभावभावनपरा या धर्मकामापुरी॥ प्रज्ञानादथ ध्वंसिनी शुभकरी, ज्ञेया सदा पावनी, या तेसट्रिपुराण उत्तम कथा भव्या सदा पातु नः॥ या मण्या सदा पातु नः।- महापुराण कलिका २. विशेष परिचय के लिये देखिये अनेकान्त वर्ष १३ कि. ७-८ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह परिशिष्ट नं० १ कुछ मुद्रित ग्रन्थ-प्रशस्तियों का परिचय अपभ्रंश भाषा में अनेक छन्द ग्रन्थ लिखे गए होंगे, क्योंकि अपभ्रंश के ग्रंथों में अनेक छन्दों का प्रयोग इस बात का सूचक है कि अपभ्रंश भाषा में अनेक छन्द ग्रन्थ और उनमें उनका परिचय दिया हुआ था, अन्यथा ग्रंथकार उनका अपने ग्रंथों में उल्लेख कैसे कर सकते थे । खेद है कि वे इस समय उपलब्ध नहीं है । महास्वयंभूदेव का छन्द ग्रन्थ है, जिसमें प्रादि के ३ अध्यायों में प्राकृत छन्दों का और अन्त के पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का परिचय सोदाहरण दिया हुआ है । छन्द की यह प्रति बड़ौदा के श्ररियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट की है। जिसे संवत् १७२७ श्राश्विन सुदि ५, गुरुवार के दिन रामनगर में कृष्णदेव ने लिखा था । यह प्रति प्रपूर्ण है, उसके शुरू के २२ पत्र नहीं हैं, यह प्रो० एच०डी० वेलंकर को प्राप्त हुई थी। जिसे उन्होंने सम्पादित कर प्रकाशित करा दिया था' । १३१ ११०वीं प्रशस्ति छन्द ग्रंथ की है । जिसके अपभ्रंश भाग की आदि अन्त प्रशस्ति दी गई है । जिसमें उदाहरण सहित प्रपभ्रंश के छन्दों का विवेचन है । ग्रंथ के अन्तिम अध्याय गाहा डिल्ला, पद्धड़िया आदि छन्दों को स्वोपज्ञ उदाहरणों के साथ दिया हुआ है । इनका परिचय 'छन्दग्रंथ' शीर्षक में दिया गया है । इस छन्द ग्रंथ का अपना वैशिष्ट्य है जो ग्रंथ का पारायण किये विना अनुभव में नहीं आ सकता । कवि स्वयंभू के इस छन्द ग्रंथ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकीर्ति ने अपने 'छन्दोनुशासन' के नन्दिनी छन्द में किया है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू के इस छन्द ग्रन्थ का १०वीं शताब्दी में प्रचार हो गया था । ग्रंथ भंडारों में इसकी अन्य प्रतियों की तलाश होनी चाहिये । जयकीर्ति का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी है । जयकीर्ति कन्नड़ प्रान्त के निवासी दिगम्बर जैन धर्मानुयायी थे । उनका छन्द ग्रंथ एच. डी. वेलंकर द्वारा सम्पादित होकर जयदामन ग्रंथ में प्रकाशित हुआ है । पाठक वहां से देखें । 1 १११ वीं प्रशस्ति 'भविसयत्त कहा' की है, जिसके कर्ता कवि धनपाल हैं । प्रस्तुत कथा ग्रंथ में ३४४ कडवक हैं, जिनमें श्रुतपंचमी के व्रत का महात्म्य बतलाते हुए उसके अनुष्ठान करने का निर्देश किया गया है साथ ही भविष्यदत्त और कमलश्री के चरित्र चित्ररण द्वारा उसे और भी स्पष्ट किया है । ग्रंथ का कथाभाग तीन भागों में बटा हुआ है। घटना बाहुल्य होते हुए भी कथानक सुन्दर बन पड़े हैं । उनमें साधु और असाधु जीवन वाले व्यक्तियों का परिचय स्वाभाविक बन पड़ा है। कथानक में अलौकिक घटनाओं का समीकरण हुआ है । परन्तु वस्तु वर्णन में कवि के हृदय ने साथ दिया है । अतएव नगर देशादिक के वर्णन सरस हो सके हैं । ग्रंथ में जहाँ श्रृंगार वीर और शान्त रस का वर्णन है, वहाँ उपमा, उपेक्षा, स्वभावोक्ति और विरोधाभास अलंकारों का प्रयोग भी दिखाई देता है । भाषा में लोकोक्तियों और वाग्धाराओं का भी प्रयोग मिलता है । यथा १. स्वयंभू - छन्द के प्रथम तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे के जर्नल सन् १९३५ पृ० १८५८ में दिए हैं और अपभ्रंश के शेष पांच अध्याय बाम्बे यूनिवर्सिटी जर्नल (जिल्द ५ नं० ३ नवम्बर सन् १९३६) में प्रकाशित हैं । पाठक वहाँ से देखें २. तो जो तथा पद्म पद्म निधिर्जतो जरौ । ३. देखो मि० गोविन्द पै का लेख Jaikirti in the Karnnatak quarterly प्रबुद्ध कर्नाटक V. L. 28 N. 3 gan. 1947 महाराजा कालेज मैसूर । तथा बम्बई यूनिवर्सटी जनरल सितम्बर १९४७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना off घिउ होइ विरोलिए पारिए'- - क्या पानी विलोने से घो मिल सकता है ? 'दइवायत्तु जइ वि विलहिव्वउ, तो पुरिसिं ववसाउ करिव्वउ ।' यद्यपि सब कर्म दैवाधीन हैं, तो भी मनुष्य को अपना कर्तव्य करना ही चाहिये । कवि परिचय कवि के पिता का नाम माएसर ( मातेश्वर) और माता का नाम धनश्री था कवि का वंश धक्कड़ था । यह एक प्रसिद्ध वंश था जिसमें अनेक महापुरुष हुए हैं। इस धर्कट वंश की प्रतिष्ठा दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में रही है। दोनों ही सम्प्रदायों में इस वंश द्वारा लिखाये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियां मिलती हैं जिनसे उनकी धार्मिक परिणति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । कवि अपने समय के प्रतिभा संपन्न विद्वान थे । उनका सम्प्रदाय दिगम्बर था, क्योंकि ग्रंथों में - 'भंजि वि जेरण दियंबरि लायउ' (संधि ५-२० ) जैसा वाक्य दिया हुआ है'। साथ ही सोलहवें स्वर्ग के रूप में अच्युत स्वर्ग का नामोल्लेख है और प्राचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है । 'चउथउ पुरण सल्लेहरण भाव ' ( संधि १७- १२ ) यह मान्यता भी 'श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नहीं पाई जाती । इस कारण वे दिगम्बर विद्वान थे, यह सुनिश्चित है। इनका समय विक्रम की १०वीं शताब्दी होना चाहिये | सम्पादक ने भी ग्रन्थ की प्रस्तावना में डा० हर्मन जैकोबी के निर्णय को स्वीकृत तथा पुष्ट करते हुए कवि को दिगम्बर लिखा है । यह ग्रन्थ गायकवाड़ ओरियन्टल सीरीज बड़ौदा से प्रकाशित हो चुका है। ११२ वीं ११३ वीं और ११४ वीं प्रशस्तियाँ क्रमश: 'महापुराण' 'नागकुमार चरिउ' और 'जसहर चरिउ' की हैं, जिनके कर्ता महाकवि पुष्पदन्त हैं । प्रस्तुत महापुराण दो खंडों में विभाजित है, आदि पुराण और उत्तर पुराण । आदि पुराण में ३७ सन्धियाँ है जिनमें आदि ब्रह्मा ऋषभदेव का चरित वरिंगत है, और उत्तर पुराण को ६५ सन्धियों में अवशिष्ट २४ तीर्थंकरों, १२ चक्रवर्तियों, नवनारायण, नव प्रति नारायण आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों का कथानक दिया हुआ है । जिसमें रामायण और महाभारत की कथायें भी संक्षिप्त में श्रा जाती हैं। दोनों भागों की कुल सन्धियाँ एक सौ दो हैं, जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या बीस हजार से कम नहीं हैं। महापुरुषों का कथानक अत्यन्त विशाल है और अनेक पूर्व जन्मों की अवान्तर कथानों के कारण और भी विस्तृत हो गया है । इससे कथा सूत्र को समझने एवं ग्रहण करने में कठिनता का अनुभव होता है । कथानक विशाल और विशृंखल होने पर भी बीच, बीच में दिये हुए काव्य मय सरस एवं सुन्दर प्राख्यानों से वह हृदय ग्राह्य हो गया है । जनपदों नगरों और ग्रामों का वर्णन सुन्दर हुआ है । कवि ने मानव जीवन के साथ सम्बद्ध उपमानों का प्रयोग कर वर्णनों को अत्यन्त सजीव बना दिया है। रस और अलंकार योजना के साथ पद व्यंजना भी सुन्दर बन पड़ी है। साथ ही अनेक सुभाषितों और वाग्धारानों से ग्रन्थ रोचक तथा सरस बन गया है । ग्रन्थ में देशी भाषा के ऐसे अनेक शब्द प्रयुक्त हए हैं जिनका प्रयोग वर्तमान हिन्दी में १. देखो, अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ में धनपाल नाम के चार विद्वान । २. उठ्ठाविउ सुत्तउ सीहकेण - सोते हुए सिंह को किसने जगाया । माणु भंगुवर मरणु ण जीविउ-अपमानित होकर जीने से मृत्यु भली है। को तं पूस णिडालs लिहियउ - मस्तक पर लिखे को कौन मेंट सकता है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन अन्य प्राति संग्रह भी प्रचलित हैं। कवि ने यह ग्रन्थ क्रोधन संवत्सर की प्राषाढ़ शुक्ला दशमी के दिन शक संवत् १८७ वि. सं० १०२२ ) में समाप्त किया है और राष्ट्र कूट वंश के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत के अनुरोध से बना है । ग्रन्थ की सन्धि पुष्पकाओं में स्वतन्त्र संस्कृत पद्यों में भरत की प्रशंसा और मंगलकामना की गई है । इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० पी० एल० वैद्य ने किया है, जो मणिकचन्द ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चुका है। ११३वीं प्रशस्ति 'नागकुमारचरित' की है। यह एक छोटा-सा खंड-काव्य है। जिसमें पंचमीव्रत के फल को व्यक्त करने वाला एक सुन्दर कथानक दिया हुआ है, ग्रन्थ में ७ संधियों द्वारा नागकुमार के चरित्र का अच्छा चित्रण किया गया है । रचना बड़ी सुन्दर, सरस और चित्ताकर्षक है ग्रन्थ में तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति का भी वर्णन है । इस ग्रन्थ की रचना भरत मंत्री के पुत्र नन्नकी प्रेरणा से हुई है और और इसीलिए यह ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है । इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० हीरालाल जी एम. ए. अमरावती ने किया है और वह कारंजा सीरीज से प्रकाशित हो चुका है। ११४वीं प्रशस्ति 'जसहरचरिउ' की है । यह भी एक खंड काव्य है, जिसकी चार सन्धियों में राजा यशोधर और उनकी माता चन्द्रमती का कथानक दिया हुआ है। जो बड़ा ही सुन्दर और हृदय-द्रावक है और उसे कवि ने चित्रित कर कण्ठ का भूषण बना दिया है। राजा यशोधर का यह चरित इतना लोकप्रिय रहा है कि उस पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत और अपभ्रंश में अनेक ग्रंथ लिखे हैं। सोमदेव, वादिराज, वासवसेन, सकलकीर्ति, श्रुतसागर, पद्मनाभ, माणिक्यदेव, पूर्णदेव कविरइधू, सोमकीर्ति, विश्वभूषण और क्षमा कल्याण आदि अनेक दिगम्बर, श्वेताम्बर विद्वानों ने अनेक ग्रंथ लिखे हैं। इस ग्रन्थ में सं० १३६५ में कुछ कयन, राउल और कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर पानीपत के वीसलसाहु के अनुरोध से कन्हड के पुत्र गन्धर्व ने बनाकर शामिल किया था। वह प्रतियों में अब भी पाया जाता है। कवि परिचय महाकवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान कवि थे। इनके पिता का नाम केशवभट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। यह कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनका शरीर अत्यन्त कृश (दुबला-पतला) और वर्ण सांवला था। यह पहले शैव मतानुयायी थे। परन्तु बाद में किसी दिगम्बर विद्वान् के सानिध्य से जैनधर्म का पालन करने लगे थे। वे जैनधर्म के बड़े श्रद्धालु और अपनी काव्य-कला से भव्यों के चित्त को अनुरंजित एवं मुग्ध करने वाले थे, तथा प्राकृत, संस्कृत, और अपभ्रंश भाषा के महा पंडित थे। इनका अपभ्रंश भाषा पर असाधारण अधिकार था, उनकी कृतियां उनके विशिष्ट विद्वान् होने की स्पष्ट सूचना करती हैं । कविवर बड़े ही स्वाभिमानी और उग्र प्रकृति के धारक थे, इस कारण वे 'अभिमानमेरु' कहलाते थे । अभिमानमेरु, अभिमानचिह्न, काव्य रत्नाकर, कविकुल-तिलक और सरस्वती निलय आदि उनकी उपाधियां थीं, जिनका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थों में स्वयं किया है। इससे उनके व्यक्तित्व और प्रतिष्ठा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है । वे सरस्वती के विलासी और स्वाभाविक काव्य-कला के प्रेमी थे। इनकी काव्य-शक्ति अपूर्व और पाश्चर्यजनक थी। प्रेम उनके जीवन का खास अंग था। वे २. कप्पड़ = कपड़ा,प्रवसे = प्रवक्ष्य, हट्ट = हाट (बाजार) तोंद = थोंद (उदर) । लीह = रेखा (लीक), चंग= प्रच्छा, डर=भय, डाल=शाखा, पाहुण= पाहुना, लुक्क=लुकना (छिपना) आदि अनेक शब्द हैं । जिन पर विचार करने से हिन्दी के विकास का पता चलता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घनादि वैभव से अत्यन्त निस्पृह और जैनधर्म के अटल श्रद्धानी थे। उन्हें दर्शन-शास्त्रों और जैनधर्म के सिद्धांतों का अच्छा परिज्ञान था, वे राष्ट्रकूट राजाओं के अन्तिम सम्राट् कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत के द्वारा सम्मानित थे। इतना ही नहीं किन्तु भरत के समुदार प्रेममय पुनीत व्यवहार से वे उनके महलों में निवास करते रहे, यह सब उस धर्मवत्सलता का ही प्रभाव है। जो भरत मंत्री उक्त कविवर से महापुराण जैसे महान् ग्रंथ का निर्माण कराने में समर्थ हो सके। उत्तर-पुराण की अंतिम प्रशस्ति में कवि ने अपना जो कुछ भी संक्षिप्त परिचय अंकित किया है उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविवर बड़े ही निस्पृह और अलिप्त थे और देह-भोगों से सदा उदासीन रहते थे। उत्तरपुराण के उस संक्षिप्त परिचय पर से कवि के उच्चतम जीवन-कणों से उनकी निर्मल भद्र प्रकृति, निस्संगता और अलिप्तता का वह चित्रपट पाठक के हृदय-पटल पर अंकित हुए बिना नहीं रहता। उनकी अकिंचन वृत्ति का इससे और भी अधिक प्रभाव ज्ञात होता है, जब वे राष्ट्रकूट राजाओं के बहुत बड़े साम्राज्य के सेना नायक और महामात्य द्वारा सम्मानित एवं संसेवित होने पर भी अभिमान से सर्वथा अछूते, निरीह एवं निस्पृह रहे हैं। देह-भोगों से उनकी अलिप्ता होना ही उनके जीवन की महत्ता का सबसे बड़ा सबूत है । यद्यपि वे साधु नहीं थे; परन्तु उनकी वह निरीह भावना इस बात की संद्योतक है कि उनका जीवन एक साधु से कम भी नहीं था। वे स्पष्टवादी थे और अहंका को उस भीषणता से सदा दूर रहते थे; परन्तु स्वाभिमान का परित्याग करना उन्हें किसी तरह भी इष्ट नहीं था, इतना ही नहीं किन्तु वे अपमान से मृत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते थे। कवि का समय विक्रम की दशवी शताब्दी का अंतिम भाग और ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । ११५वीं प्रशस्ति 'करकंडुचरिउ' की है जिसके कर्ता मुनि कनकामर हैं। यह ग्रन्य दश सन्धियों में विभक्त है । जिनमें राजा करकंडु का जीवन परिचय अंकित किया गया है। चरित नायक की कथा के अतिरिक्त तो आवान्तर कथाओं का भी उपक्रम किया गया है, जिनमें मंत्र शक्ति का प्रभाव, अज्ञान से आपत्ति, नीच संगति का बुरा परिणाम और सत्संगति का अच्छा परिणाम दिखाया गया है, पांचवीं कथा एक विद्याधर ने मदनावलि के विरह से व्याकुल करकंडु के वियोग को संयोग में बदल जाने के लिए सुनाई । छठी कथा पांचवीं कथा के अन्तर्गत अन्य कथा है, सातवीं कथा शुभ शकुन-परिणाम सूचिका है, आठवीं कथा पद्मावती ने विद्याधरी द्वारा करकंडु के हरण किये जाने पर शोकाकुल रतिवेगा को सुनाई । नोमी कथा भवांतर में नारी को नारीत्व का परित्याग करने की सूचिका है। इससे ऐसा जान पड़ता है कि उस काल में ये कथाएँ तात्कालिक समाज में प्रचलित होंगी। उन्हीं को कवि ने अपनी कल्पना का विषय बनाया है । कवि ने कथावस्तु को रोचक बनाने का अच्छा प्रयत्न किया है । ग्रन्थ की भाषा में देशी शब्दों का प्रचुर व्यवहार है। जो हिन्दी के अधिक नजदीक है । रस, अलंकार, श्लेष और प्राकृतिक दृश्यों से ग्रंथ सरस बन पड़ा है, किन्तु उनमें चमत्कारिकता नहीं है और न पुष्पदन्तादि कवियों जैसी स्फूर्ति, प्रोज-तेज एवं प्रभाव भी अङ्कित हो सका है। हाँ, ग्रन्थ में तेराउर या तेरापुर की ऐतिहासिक गुफाओं का परिचय भी चित्रित किया गया है । यह स्थान प्राज भी धाराशिव जिले में तेरपुर के नाम से प्रसिद्ध है, प्राचीन ऐतिहासिक दर्शनीय स्थान है । यह ग्रन्थ डा० हीरालाल जी एम. ए. द्वारा सम्पादित होकर कारंजासीरीज में मुद्रित हो चुका है। इसी से इसकी प्रशस्ति परिशिष्ट नं. १ में दी गई है । कवि परिचय मुनि कनकामर चन्द्र ऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे। उनका कुल ब्राह्मण था; किन्तु देह-भोगों से वैराग्य होने के कारण वे दिगम्बर मुनि हो गये थे । कवि के गुरु बुध मंगलदेव थे। कवि भ्रमण करते हुए Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ जन प्रम्प प्रशस्ति संग्रह 'पासाइ' (प्रासापुरी) नगरी में पहुंचे थे। और वहां उन्होंने 'करकंडुचरित' की रचना की थी। यह ग्रंथ जिनके अनुरागवश बनाया गया था, ग्रन्थकारने उनका नाम कहीं भी उल्लिखित नहीं किया। कवि ने उन्हें धर्मनिष्ठ और व्यवहार कुशल बतलाया है, वे विजयपाल नरेश के स्नेहपात्र थे, उन्होंने भूपाल नरेश के मन को मोहित कर लिया था। वे राजा कर्ण के चित्त का मनोरंजन किया करते थे। उनके तीन पुत्र थे, पाहल रल्हो और राहुल । ये तीनों ही मुनि कनकामर के चरणों के अनुरागी थे । उक्त राजागण कब और कहाँ हुए, इसी पर यहां विचार किया जाता है एक लेख में लिखा है कि विजयपाल नरेश विश्वामित्र गोत्र के क्षत्रिय वंश में उत्पन्न हुए थे। उनके पुत्र भुवनपाल थे, उन्होंने कलचूरी, गुर्जर और दक्षिण को विजित किया था, यह लेख दमोह जिले की हटा तहसील में मिला था, जो आजकल नागपुर के अजायब घर में सुरक्षित है। दूसरा लेख बांदा जिले के अंतर्गत चन्देलों की पुरानी राजधानी काजिर में मिला है। उसमें विजयपाल के पुत्र भूमिपाल का दक्षिण दिशा और राजा कर्ण को जीतने का उल्लेख है। तीसरा लेख जबलपुर जिले के अंतर्गत 'तीवर' में मिला है, उसमें भूमिपात्र के प्रसन्न होने का स्पष्ट उल्लेख है, तथा किसी सम्बन्ध में त्रिपुरी और सिंहपुरी का उल्लेख है। इन लेखों में अंतिम दो लेख टूटे होने के कारण उनका सम्बन्ध ज्ञात नहीं हो सका। सं० १०६७ के लगभग कालिंजर में विजयपाल नाम का राजा हुना। यह प्रतापी कलचुरी नरेश कर्णदेव के समकालीन था। इसके दो पुत्र थे देववर्मा और कीर्तिवर्मा । कीर्तिवर्मा ने कर्णदेव को पराजित किया था, ऐसा प्रबोध चन्द्रोदय नाटक से जान पड़ता है। अतएव मुनि कनकामर का रचना काल सन् १०६५ (वि० सं० ११२२) या विक्रम संवत् १२०० के लगभग जान पड़ता है । विशेष के लिए डा. हीरालाल जी द्वारा लिखित करकंडु चरित की प्रस्तावना देखना चाहिए। परिशिष्ट नं. २ (लिपि प्रशस्ति-परिचय) ११६ वीं प्रशस्ति महाकविपुष्पदन्त के आदिपुराण की लिपि प्रशस्ति है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व की है । इस प्रशस्ति में आदिपुराण को लिखाने वाले ग्वालियर के सदगृहस्थ पद्मसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराते हुए उनके धार्मिक कार्यों का समुल्लेख किया गया है। प्रस्तुत प्रशस्ति को ग्वालियर के राजा डूंगरसिंह के सुपुत्र श्री कीर्ति सिंह के राज्य काल में सं० १५२१ में काष्ठा संघ के भट्टारक १. इस नाम के अनेक गांव और नगर हैं । एक मासापुरी वह स्थान है, जो औरंगाबाद जिले के अन्तर्गत है और जहाँ सन् १८०३ में मराठों और अंग्रेजों का युद्ध हुआ था, अब एक छोटा-सा गांव है। दूसरा पासीरगढ़ खान देश में है, जो पाशा देवी के नाम पर बसाया गया है। तीसरा पासी नाम का स्थान राजपूताने के बूंदी राज्य में है । चौथा प्रासापुरी नाम का स्थान, पंजाब के कांगड़ा जिले के अन्तर्गत कीर ग्राम से १२ मील की दूरी पर पहाड़ की चोटी पर आसा देवी प्रतिष्ठित है और जिसके कारण उसका नाम प्रासापुरी कहलाता है। पांचवीं पासापुरी नाम का एक गांव भोपाल (भोजपुरी) से उत्तर की मोर ४ मील पर बसा हुमा है। यह १२वीं शती में संभवतः एक विशालनगर रहा होगा। ग्रंथकार द्वारा अभिमत प्रासापुरी इनमें से कौन है यह विचारणीय है । और वह संभवतः कालिंजर भोर भोपाल इसके पास-पास कहीं होना चाहिए। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना गुणकीति, यशः कीर्ति मलयकीर्ति और गुणभद्र के समय में जयसवाल कुलभूषण उल्ला साहू की द्वितीय पत्नी भावश्री के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र पद्मसिंह ने लिखवाया था, उसकी पत्नी का नाम वीरा था, उसके चार पुत्र थे, बालू, डालू, दीवड़ और मयणवाल । उनकी चार पत्नियाँ थी, जिनके नाम मंगा या माणिणि, लखरणसिरि, मयणा और मणसिरि थी। मंगा से तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। रामचन्द, कमलनंद और वीरचन्द । इनमें प्रथम के दोनों पुत्रों की नंदा और पूना दो धर्म-पत्नियाँ थीं। इस परिवार संयुक्त पद्मसिंह ने जो धन-धान्य से समद्ध था, अपनी लक्ष्मी का निम्न कामों में सदुपयोग किया था । २४ जिनालयों का निर्माण कराया था और एक लाख ग्रन्थ लिखवा कर भेंट किये थे। इससे उसके धार्मिक कार्यों का परिचय सहज ही मिल जाता है। परंतु आज ऐसे जिन वागी भक्त सज्जन विरले ही मिलते हैं, जिनके द्रव्य का सदुपयोग जिनधर्म और जिनवाणी के प्रचार में होता हो। ११७ वी प्रशास्ति 'भविसदत्त चरित' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर थे। प्रस्तुत प्रशस्ति में उल्लखित माथुर कुलावतंस साह साधारण और नारायण नाम के दो भाई थे, साधारण की रु परिण नाम की पत्नी थी, उससे पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे, सुप्पटु, वासुदेव, जसदेव, लोहडु और लक्खनु । इनमें सुप्पट की माता रुप्परिण ने इस ग्रन्थ को संवत् १५३० में लिखवाया था। ११८ वी लिपि प्रशस्ति भ० श्रुतकीति के हरिवंश पुराण की है। जिसे चंदवार दुर्ग के समीप स्थित संघाधिप की चौपाल में संवत् १६०७ में राम पुत्र पंगारव ने लिखा था । इस ग्रन्थ के लिखाने वाले के परिवार का प्रशस्ति में विस्तृत परिचय कराया गया है, जो एक पद्मावती पुरवाल वंश था। पाठक उसका परिचय मूल प्रशस्ति से देखें । परिशिष्ट नं. ३ (हस्तलिखित ग्रन्थ प्रशस्ति-परिचय) ११९ वीं प्रशस्ति रोहिणिविधान कहा' की है, जिसके कर्ता कवि देवनंदी हैं। इस कथा में रोहिणी व्रत के माहात्म्य का वर्णन करते हुए उसके फल प्राप्त करने वाले का कथानक दिया हुआ है, और उसके अनुष्ठान करने की प्रेरणा की गई है। इसके रचयिता देवनन्दी ने अपना कोई परिचय प्रस्तुत नहीं किया, और न यही बतलाया कि उनका समय क्या है ? इस नाम के अनेक विद्वान हुए हैं । पर ये उन देवनन्दी (पूज्य पाद) से भिन्न और पश्चात् वर्ती हैं। यह किसी भट्टारक के शिष्य होना चाहिये । इनका समय संभवतः १४ वीं या १५ वीं शताब्दी होना चाहिये।। १२० वीं प्रशस्ति 'वड्ढमारणचरिउ' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं। इस ग्रन्थ में जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन-गाथा दी हई है। जिसमें १० सन्धियाँ और २३१ कडवक दिये हुए हैं जिनकी श्लोक संख्या कवि ने ढाई हजार जितनी वतलाई है । ग्रंथ में जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन-गाथा अंकित की है । यद्यपि उसमें पूर्व चरित ग्रंथों के अनुसार ही वर्णन दिया है, किन्तु कवि ने उसे विविधवर्णनों के साथ सरस बनाने की चेष्टा की है। प्रस्तुत ग्रन्थ साह नेमिचन्द्र के अनुरोध से बनाया गया है। नेमिचन्द्र वोदाउ नामक नगर के निवासी थे और जो जायस या जैसवाल कुल कमल दिवाकर थे। इनके पिता का नाम साह नरवर और माता का नाम सोमा देवी था, जो जैनधर्म के पालन करने में तत्पर थे। साह नेमचन्द की धर्मपत्नी का नाम 'वीवा' देवी था। इनके संभवतः तीन पुत्र थे-रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह एक दिन साह नेमचन्द्र ने कवि श्रीधर से निवेदन किया कि जिस तरह चन्द्रप्रभ चरित्र और शान्तिमाष चरित्र बनाये हैं, उसी तरह मेरे लिये अन्तिम तीर्थकर का चरित्र बनाइये । तब कवि ने उक्त चरित्र का निर्माण किया है। इसी से कवि ने प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में उसे नेमिचन्दानुमत लिखा है। इतना ही नहीं किन्तु कवि ने प्रत्येक सन्धि के प्रारंभ में जो संस्कृत पद्य दिये हैं उनमें नेमिचन्द को सम्यग्दृष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मीपति, न्यायवान् और भव-भोगों से विरक्त बतलाते हुए उनके कल्याण की कामना की गई है। जैसा कि उसके ८ वीं सन्धि के प्रारंभ के निम्न श्लोक से प्रकट है यः सदृष्टिरुदारुधीरधिषरणो लक्ष्मी मता संमतो। न्यायान्वेषणतत्परः परमत प्रोक्तागमा संगतः ।। जैनेकाभव-भोग-भंगुर वपुः वैराग्य भावान्वितो। नन्दत्वात्स हि नित्यमेव भुवने श्री नेमिचन्द्रश्चिरं ।। कवि ने इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् ११६० में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी शनिवार के दिन बनाकर समाप्त किया है। इससे एक वर्ष पहले अर्थात् सं० ११८९ में पार्श्वनाथ का चरित दिल्ली में नट्टल साहु की प्रेरणा से बनाया था। चन्दप्रभ चरित सं० ११८७ से भी पहले बनाया था, क्योंकि उसमें उसका उल्लेख है । पर वह ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है । और न शांतिनाथ चरित्र ही प्राप्त है। इन दोनों कृतियों का ग्रन्थ भण्डारों में अन्वेषण होना चाहिये। कवि परिचय कवि का वंश अग्रवाल था । इनके पिता का नाम बुध गोल्ह और माता का नाम बील्हा देवी था। संभवतः इनके पिता भी विद्वान थे। कवि कहाँ के निवासी थे। यह ग्रन्थ में उल्लिखित नहीं है । संभवतः वे हरियाना प्रदेश के रहने वाले थे। अन्य दो ग्रन्थ मिलने पर कवि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त हो सकती है। कवि का समय १२ वीं शताब्दी है , १२१ वीं प्रशस्ति 'संतिणाहचरिउ' की है जिसके कर्ता कवि शुभकीति हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में १९ सन्धियाँ हैं। जिनमें जैनियों के १६वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाथ का चरित्र चित्रण किया गया है । इस ग्रन्थ की एकमात्र प्रति नागौर के भट्टारकीय भंडार में सुरक्षित है । जो संवत् १५५१ की लिखी हुई है । ग्रन्थ सामने न होने से उसकी प्रशस्ति का ऐतिहासिक भाग नहीं दिया जा सका। और न कवि शुभकीर्ति का ही कोई परिचय या गुरु परम्परा दी जा सकी है। पर यह सुनिश्चित है कि ग्रन्थ सं० १५५१ से पूर्व का बना हुआ है। इस नाम के अनेक विद्वान हो गए हैं, अतएव जब तक ग्रन्थ प्रशस्ति पर से उनकी गुरु परम्परा ज्ञात न हो, तब तक उनका निश्चित समय बतलाना कठिन है। यदि भट्टारक जी की कृपा से उक्त चरित ग्रन्थ प्राप्त हो सका, तो फिर किसी समय उसका परिचय पाठकों को कराया जा सकेगा। १२२वीं प्रशस्ति 'णेमिणाहचरिउ' की है जिसके कर्ता कवि दामोदर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में ५ सन्धियाँ हैं, जिनमें जैनियों के २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ का चरित्र अंकित किया गया है, जो श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। चरित्र आडम्बर हीन और संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है, और कवि उसे बनाने में सफल भी हुआ है। इस चरित रूप खण्ड काव्य की रचना में प्रेरक एक सज्जन थे, जो धर्मनिष्ठ तथा दयालु थे। वे गुजरात से मालव देश के 'सलखणपुर' में आये थे। और भगवान महावीर के उपासक थे। वे खंडेलवाल वंश के भूषण थे, विषय विरक्त और सांसारिक जीवन को सफल बनाने Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १५६ वाले थे, जैनधर्म के प्रतिपालक थे। उनका नाम इंदुक या इन्द्र था और उनके पिता का नाम केशव था, वे जिन पूजादि गृहस्थ के षट्कर्मों का प्रतिपालन करते थे और अन्तर्बाह्य कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करते थे । तथा 'मल्ह' का पुत्र नागदेव पुण्यात्मा प्रसन्नचित्त और भव्यजनों का मित्र था, वहीं रामचन्द्र संयमी गुणनिधान भी रहते थे। कवि ने इन्हीं पंडित रामचन्द्र के आदेश से और नागदेव के अनुरोध से उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। उसी सलखरगपुर में संघाधिप कमलभद्र नाम के श्रेष्ठी थे, जो अष्टमदों से रहित, बाईस परीषहों के सहन करने में धीर, कर्म-शत्रुनों के विनाश करने में सावधान, त्रिशल्य, त्रिवेद और कषायों के हनन करने वाले और जिनधर्म की देशना में निरत रहते थे। कवि ने इस ग्रन्थ को परमार वंशी राजा देवपाल के राज्य में विक्रम संवत् १२८७ में बनाया था। प्रस्तुत देवपाल मालवे का परमार वंश का राजा था, और महाकुमार हरिश्चन्द्र वर्मा का, जो छोटी शाखा के वंशधर थे, द्वितीय पुत्र था, क्योंकि अर्जुनवर्मा के कोई सन्तान नहीं थी। अतः उस राजगद्दी का अधिकार इन्हें ही प्राप्त हुआ था। इनका अपरनाम 'साहसमल्ल' था। इनके समय के ३ शिलालेख और एक दान पत्र मिला है। एक विक्रम संवत् १२७५ सन् १२१८ का हरसोड़ा गाँव से और दो लेख ग्वालियर राज्य से मिले हैं। जिनमें एक विक्रम संवत् १२८६ और दूसरा वि० सं० १२८६ का है। मांधाता से वि० सं० १.९२ भाद्रपद शुक्ला १५ (सन् १२३५, अगस्त २६ का) दान पत्र भी मिला है। दिल्ली के सुलतान शमसुद्दीन अल्तमश ने मालवा पर सन् १२३१-३२ में चढ़ाई की थी। और एक वर्ष की लड़ाई के बाद ग्वालियर को विजित किया था। और बाद में भेलसा (विदिशा) और उज्जैन को जीता था और वहाँ के महाकाल मंदिर को भी तोड़ा था। इतना होने पर भी वहाँ सुलतान का अधिकार न हो सका। सुलतान जब लूट-पाट कर चला गया, तब भी वहाँ का राजा देवपाल ही रहा । इसी के राज्यकाल में पं० प्राशाधर जी ने विक्रम सं० १२८५ में नलकच्छपुर" (नालछे) में 'जिनयज्ञ कल्प' नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उस समय देवपाल मौजूद थे। इतना ही नहीं किन्तु जब दामोदर कवि ने संवत् १२८७ में सलखणपुर में 'रोमिणाह चरिउ' रचा, उस समय भी देवपाल जीवित थे। किन्तु जब संवत १. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ३११ २. इंडियन एण्टी क्वेरी जि० २० पृ० ८३ ३. एपि ग्राफिका इंडिका जि०६ पृ० १०८-१३ ४. ब्रिग फिरिश्ता जि० १ पृ० २१०-११ ५. नलकच्छयुर को नालछा कहते हैं यह धारा से १६ मील की दूरी पर स्थित है, वहां का नेमिनाथ का मन्दिर प्रसिद्ध था, उसी में बैठकर पं० प्राशाधर जी ने ग्रंथ रचना की। यह स्थान उस समय जैन संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था। जिनयज्ञकल्प सं० १२८५ में यहीं बना। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट हैविक्रम वर्ष स पंचाशीति द्वादश शतेस्वतीतेषु, पाश्विन सितान्य दिवसे साहसमल्ला पराख्यस्य । श्री देवपालनृपतेः प्रमारकुमार शेखस्य सौराज्ये, नलकच्छपुरे सिद्धो ग्रन्थोऽयं नेमिनाथचैत्यगृहे ॥ जिनयज्ञकल्पप्रशस्ति । ६. प्रस्तुत सलखणपुर या सलक्षणपुर धारा में नालछे के पास-पास ही कहीं पर स्थित था। नागदेव इसी स्थान का निवासी और नागवंश का मणि तथा जैन चूडामणि था। उनके पिता का नाम माल्हा था, पौर वह देवपाल के राज्य में शुल्क, चुंगी या टैक्स विभाग में काम करता था। नागदेव ने एक दिन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जन प्रन्य प्रशस्ति संग्रह १२९२ (सन् १२३५) में 'त्रिषष्ठि स्मृति शास्त्र' आशाधर जी ने बनाया उस समय उनके पुत्र 'जैतुगिदेव' का राज्य था। इससे स्पष्ट है कि उनकी मृत्यु सं० १२६२ से पूर्व हो चुकी थी। इसीसे संवत् १२६६ में जब सागार धर्मामृत की टीका देवपाल राजा के पुत्र जैतुगिदेव के राज्य में, जब वह अवन्ती में था, तब नलकच्छपुर के चैत्यालय में पं० प्राशाधर जी ने 'भव्य कुमुचन्द्रिका' बनाई । और वि० सं० १३०० में जब अनगार धर्मामृत की टीका बनी, उस समय भी जैतुगिदेव का राज्य था। कवि-परिचय कवि दामोदर का वंश 'मेडेत्तम' था। इनके पिता का नाम कवि माल्हण था, जिन्होंने 'दल्ह' का चरित बनाया था, यह भी सलखणपुर के निवासी थे। इनके ज्येष्ठ भ्राता का नाम जिनदेव था । कवि ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि गुणभद्र के पट्टधर सूरिसेन हुए और उनके शिष्य कमलभद्र हुए और उनके शिष्य प्रस्तुत कवि दामोदर थे। कवि ने लिखा है कि पृथ्वीधर के पुत्र ज्ञानचन्द्र और पंडित रामचन्द्र ने उपदेश दिया, तथा जसदेव के पुत्र जसनिधान ने वात्सल्य भाव प्रदर्शित किया था। कवि पं० आशाधर के समकालीन थे। और वे उस सलक्षणपुर में रहे भी थे। ग्रंथकर्ता ने अपना यह ग्रंथ वि० सं० १२-७ में बनाकर समाप्त किया था। मालव प्रांत के शास्त्र भंडारों का अन्वेषण करने पर संभव है अन्य रचनाएं भी प्राप्त हो जाय, और उससे इतिहास की गुत्थियों के सुलझाने में सहायता मिले । परिशिष्ट नं० १२ का परिचय प्रस्तुत प्रशस्ति 'मेघमाला वयकहा' की है, जिसके कर्ता कवि ठक्कुर हैं। इसमें मेघमाला व्रत की कया अंकित की गई है। कथा संक्षिप्त और सरल है और हिन्दी भाषा के विकास को प्रस्तुत करती है। यह कथा ११५ कड़वक और लगभग २११ श्लोकों में पूर्ण हुई है, जिनमें उक्त व्रत के अनुष्ठान की विधि और उसके फल का वर्णन किया गया है । इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद मास की प्रतिपदा से किया गृहस्थाचार्य पं० आशाधर जी से निवेदन किया कि मैं प्रायः राज्यकार्य से अवरुद्ध रहता है। अतः मेरे कल्याणार्थ व्रतों का उपदेश दीजिये। तब उक्त पंडित जी ने प्रार्य केशवसेन के वचन से नागदेव की धर्मपत्नी के लिए सं० १२८३ में 'रत्नत्रय विधि' नाम की कथा संस्कृत गद्य में बनाई थी। देखो राजस्थान जैन ग्रन्थ भंडार सूची भा० ४ पृ० २४२ ७. नलकच्छपुरेश्रीमन्नेमिचंत्यालयेऽसिधत् । टीकेयं भव्यकुमुदचन्द्रिकेत्युदिता बुधैः ।।१२० पण्णवद्वयेक संख्यान विक्रमाङ्क समात्यये । सप्तम्यामसिते पौषे सिद्धयं नन्दताच्चिरम् ॥१२१ -सागारधर्मामृत टीका प्रशस्ति ८. प्रमारवंशावार्थीन्दु देवपालनृपात्मजे । श्रीमज्जतुगिदेवेऽसि स्थेभ्नाऽवन्तींभवत्यलम् ।११६ नकलच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् । विक्रमाब्द शतेष्वेषा त्रयोदशसु कीत्तिके । -अनगारधर्मामृतटीका प्रशस्ति Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १४१ जाता है। व्रत के दिन उपवासपूर्वक जिन पूजन अभिषेक, स्वाध्याय सामायिक प्रादि धार्मिक अनुष्ठान करते हए समय व्यतीत करना चाहिये। इस व्रत को पाँच प्रतिपदा, और पांच वर्ष तक सम्पन्न करे । पश्चात् उसका उद्यापन करे। यदि उद्यापन करने की सामर्थ्य न हो तो दुगने समय तक व्रत करना चाहिये। इस व्रत का अनुष्ठान चाटसू (चम्पावती) नगरो के श्रावक श्राविकाओं ने सम्पन्न किया था। उस समय राजा रामचन्द्र का राज्य था , वहाँ पार्श्वनाथ का सुन्दर जिनालय था और तत्कालीन भट्टारक प्रभाचन्द्र भी वहाँ मौजूद थे। और जो गण-घर के समान भव्यजनों को धर्मामत का पान करा रहे थे। वहाँ खंडेलवाल जाति के अनेक श्रावक रहते थे। उनमें पण्डित माल्हा पुत्र कवि मल्लिदास ने कवि ठकुरसी को मेघमाला व्रत की कथा के कहने की प्रेरणा की। वहाँ के श्रावक सदा धर्म का अनुष्ठान करते थे। हाथुवसाह नाम के एक महाजन और भट्टारक प्रभाचन्द्र के उपदेश से कवि ने मेघमाला व्रत कब कैसे करना चाहिये इसका संक्षिप्त वर्णन किया। कहाँ तोषक, माल्हा, और मल्लिदास आदि विद्वान भी रहते थे। श्रावक जनों में प्रमुख जीणा, ताल्हु, पारस, नेमिदास, नाथू सि और भुल्लण, वउली आदि ने व्रत का अनुष्ठान किया। कवि ने इस ग्रंथ को सं० १५८० में प्रथम श्रावण शुक्ला छट के दिन पूर्ण किया था। __कवि ने इसके अतिरिक्त सं० १५७८ में 'पारस श्रवण सत्ताइसो' एक कविता बनाई थी, जो एक ऐतिहासिक घटना को प्रकट करती है, और कवि के जीवन काल में घटी थी, उसका आँखों देखा वर्णन कवि ने लिखा है। इनके अतिरिक्त जिनचउवीसी, कृपणचरित्र (सं० १५८० पूस मास) पंचेन्द्रियवेल (सं० १५८५ का० सु० १३) और नेमीश्वर की बेल प्रादि रचनायें रची थीं, जो स्व-पर-सम्बोधक हैं ? कवि-परिचय __ कवि चाटसू (वर्तमान चम्पावती) नगरी के निवासी थे। इनकी जाति खंडेलवाल, और गोत्र अजमेरा था। इनके पिता का नाम 'घेल्ह' था, जो कवि थे, इनको कविता अभो मेरे देखने में नहीं आई। किन्तु कवि ने पंचेन्द्रियवेल के अन्तिम पद के 'कवि-घेल्ह सुतनु गुण गाऊँ' वाक्य में उन्हें स्वयं कवि ने सूचित किया है। कवि के पुत्र का नाम नेमिदास था, जिसने मेघमाला व्रत की भावना की थी। कवि की उल्लिखित रचनाओं का काल सं० १५७८ से सं० १५८५ तक का उपलब्ध ही है। इनके अतिरिक्त अन्य किन कृतियों का निर्माण किया, यह विचारणीय है। संभव है ग्रन्थ भंडारों में इनकी अन्य कृतियाँ भी अन्वेषण करने पर मिल जावें। यह प्रशस्ति सुगन्धदसमीकया की है जिसके कर्ता कवि विमलकीति हैं । इस कथा में भाद्रपद शुक्ला दशमी के व्रत की कथा का वर्णन करते हुए उसके फल का विधान किया गया है। कथा संक्षिप्त और संभवतः ८ कडवकों को लिये हुए है। कवि ने दशवीं व्रत के अनुष्ठान करने की प्रेरणा की है । कवि ने कथा कब बनाई, इसका रचना में कोई उल्लेख नहीं है । कवि-परिचय ग्रंथकर्ता विमलकीति ने रामकीति गुरु का विनय कर इस कथा को बनाया है प्रस्तुत रामकीर्ति गुरु कौन थे और उनका समय क्या है ? यह विचारणीय है। रामकीति नाम के चार विद्वानों का उल्लेख १. इनके परिचय के लिये देखो, अनेकान्त वर्ष १४ किरण १ में प्रकाशित 'कविवर ठकुरसी और उनकी कृतियाँ' नामक मेरा लेख पृ० १० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ . अन अन्य प्रमस्ति संग्रह मिलता है। उनमें प्रथम रामकीर्ति के शिष्य विमलकीति हैं। दूसरे विमलकीति मूलसंघ बलात्कारगरण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र ने सं० १४१३ में वैशाख सुदि १३ बुधवार के दिन अमरावती के चौहान राजा अजयराज के राज्य में लंबकंचुकान्वयी श्रावक ने एक जिनमूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी। जो खंडित दशा में भौगांव के मन्दिर की छत पर रखी हुई है। ___ तीसरे रामकीर्ति भट्टारक वादिभूषण के पट्टधर थे, जिनका विम्ब प्रतिष्ठित करने का समय संवत् १६७० है। यह रामकीर्ति १७ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के विद्वान हैं। चौथे रामकीति का नाम भट्टारक सुरेन्द्रकीति के पट्टधर के रूप में मिलता है। इनमें प्रथम रामकीर्ति का सम्बन्ध ही विमलकीर्ति के साथ ठीक बैठता है। इनमें प्रथम रामकीर्ति के शिष्य यशःकीर्ति ने 'जगत सुन्दरी प्रयोगमाला' नाम के वैद्यक ग्रन्थ की रचना की है। जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है। रामकीर्ति जयकीर्ति के शिष्य थे, जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में संवत् १२०७ की उत्कीर्ण की हुई उपलब्ध है । यशःकीर्ति ने जगत् सुन्दरी प्रयोगमाला में प्रभयदेवसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरिका (सं० ११७१) का उल्लेख किया है। इससे विमलकीर्ति का समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी हो सकता है। ___ यह प्रशस्ति 'पुष्पांजलि कथा' की है। इसके कर्ता का परिचय अभी अज्ञात हैं। और संभवतः वे अनन्तकीर्ति गुरु मालूत होते हैं। इसमें पुष्पांजलि व्रत की कथा दी गई है। ग्रन्थ सामने न होने से विशेष परिचय देना संभव नहीं है। इस कथा के कर्ता बलात्कारगण के विद्वान रत्नकोति शिष्य भावकीर्ति युक्त अनंतकीर्तिगुरु बतलाये गये हैं। इनका समय अभी विचारणीय है। २. संवत् १४१३ बैशाख सुदि १३ बुषे श्रीमदमवरावती नगराधीश्वर चाहुवाण कुल श्री अजयराय देवराज्य प्रवर्तमाने मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीरामकीर्तिदेवास्तस्य शिष्य भ० प्रभाचन्द्र लंबकंचुकान्वये साधु... भार्या सोहल तयोः पुत्रः सा जीवदेव भार्या सुरकी तयोः पुत्रः केशो प्रणमंति। -देखो न सि० भा०,भा० २२ मंक २ ३. एपिग्राफिका इंडिका जि० २ पृ० ४२१ ४. देखो जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला प्रशस्ति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रशस्ति संग्रह की प्रस्तावना में उपयुक्त ग्रन्थ-संकेत-सूची अनेकान्त वर्ष – ८, १०, ११, १२, १३, १४, सम्पादक पं० जुगलकिशोर मुख्तार श्रादि वीर सेवा मंदिर, २१ दरियागंज दिल्ली अपभ्रंश भाषा साहित्य - हरिवंश कोछड़ इण्डियन एण्टीक्वेरी जि० २०, पृ० ८३, ३११ इन्डो आर्यन एण्ड हिन्दी एनल्स आफ दी भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना एपि ग्राफिका इण्डिका भा० २ जिल्द ३१ एपि ग्राफिका इण्डिका जि० २ पृ० ४२१ एपि ग्राफिका इण्डिका जि० ७ पृ० १०८ - १३ करकंडु चरिउ कनकामर सं० डा० हीरालाल जैन, कारंजा सीरीज कुवलयमाला, सं० डा० ए० एन० उपाध्ये, भारतीय विद्याभवन बम्बई ग्वालियर गजेटियर - ग्वालियर पुरातत्व विभाग टाsराजस्थान टिप्पण, रा० ब० गौरीशंकर हीराचन्द श्रोभा जनरल एशियाटिक सोसाइटी आफ विहार जसहर चरिउ पुष्पदन्त, सम्पादक डा० पी० एल० वैद्य, कारंजा सीरीज जैन ग्रंथप्रशस्तिसंग्रह प्रथम भाग, वीर सेवामंदिर २१ दरियागंज जैन ग्रंथप्रशस्तिसंग्रह, जैन सिद्धान्त भवन आरा (विहार) जैन मूर्तिलेख संग्रह - बाबू कामता प्रसाद जैन शिलालेख संग्रह भाग १, २, ३, माणिकचन्द ग्रन्थमाला, बम्बई, जैन संदेश शोधांक, सम्पादक डा० ज्योतिप्रसाद जैन, भा० दि० जैन संघ चौरासी मथुरा जैन साहित्य और इतिहास - पं० नाथूराम जी प्रेमी, हिन्दी ग्रं० रत्ना० बम्बई जैन सिद्धांत भास्कर, जैन सिद्धान्त भवन नारा जैसलमेर भण्डार-सूची नागकुमार चरिउ - पुष्पदन्त सं० डा० हीरालाल जैन, कारंजा सीरीज पाइय सद्द महण्णवो — पं० हरिगोविन्द बाम्बे यूनिवर्सिटी जनरल जि० ५ नवम्बर सन् १६३८ L भरत नाट्य शास्त्र भारत के प्राचीन राजवंश भा० १ विश्वेश्वरनाथरेउ, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई महापुराण पुष्पदन्त संपादक डा० पी० एल० वैद्य, माणिकचन्द ग्रन्थमाला, बम्बई राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द, द्वितीय एडीसन गोरीशंकर हीराचन्द श्रोभा राजस्थान जैन ग्रंथ सूची भाग २, ३, ४ महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी जयपुर रायल एशियाटिक जनरल बाम्बे सन् १९३५ लिंगवस्टिक सर्वे आफ इण्डिया सन् १९२७ पृ० १२१ समवायांगसूत्र प्रागमोदय समिति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह हरिषेणक कथाकोश, सं० डा० ए० एन० उपाध्ये, सिंधीसीरीज, भा० वि० भवन, बम्बई हिन्दी काव्य-धारा, महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिस्टोरीकल ग्रामर अपभ्रंश सन् १९४८ पूना हिस्ट्री आफ इण्डिया, पृ० ३०६ हिस्ट्री आफ गुजरात इन बाम्बे गजेटियर अपभ्रंश भाषा की अनुपलब्ध रचनाएँ कर्त्ता दिनकरसेन ग्रंथ नाम गंगचरिउ (नंगचरित) पेहा (अनुप्रेक्षा) अम्बादेवीचचरीरास श्रमयाराहरणा (अमृताराधना ) करकंडु चरिउ (करकंडुचरित्र ) चंदप्पहचरिउ (चंद्रप्रभचरित) "" "" जसहर चरिउ (यशोधर चरित) झारणपईव (ध्यान प्रदीप ) रणवयारमंत्र ( नवकार मंत्र ) धनदत्त चरिउ ( धनदत्त चरित) धर्मोपदेशचूडामणि पउमचरिउ (पद्मचरित ) पउमचरिउ (,, ) पंचमी हा (पंचमी कथा ) पंचमीकहा ( ) महापुराण महावीरचरिउ ( महावीरचरित) रिट्ठमिचरिउ (हरिवंशपुराण) वरंगचरिउ ( वरांगचरित) संतिरगाहचरिउ (शांतिनाथचरित) ) संतिरगाह चरिउ ( सम्यक्त्वकौमुदी सुदंसरणचरिउ (सुदर्शन चरित) सीहनंदि कविदेवदत्त गरि अम्बसेन कवि रघू कवि श्रीधर मुनिविष्णुसेन श्रमरकीर्ति "" नरदेव प्रज्ञात अमरकीर्ति चउमुह सेकवि चउमुह स्वयंभू (त्रिभुवनस्वयंभू) रइधू अमरकीर्ति चउमुह कविदेवदत्त कविश्रीधर, कवि देवदत्त सहरणपाल कवि रइन कहाँ उल्लेख है हरिवंशपुराण धवल कवि, और वाहुबली चरित कवि धनपाल बाहुबली चरित कवि धनपाल जंबुस्वारिचरित कविवीर हरिवंश पु० कवि धवल, और बाहुबली चरित में अपने ही ग्रंथों में अपने पासरगाह व वड्ढमारणचरिउ बाहुबली चरित में अपने षट्कर्मोपदेश में 22 बाहुबली चरित में 11 अपने षट्कर्मोपदेश में स्वयंभू के छन्दग्रंथ, और पउमचरिउ के चौथे पद में हरिवंश पुराण धवल कवि, और बाहुबलि चरित में स्वयंभू के पउमचरिउ में पउमचरिउ प्रशस्ति में सन्मति जिनचरित प्रशस्ति में अपने षट्कर्मोपदेश में कव धवल के हरिवंश में (हरिपंडुवारण कहा के रूप में वीरकवि के जम्बूस्वामि चरित में वड्ढमाणचरिउ में वीरकवि के जम्बूस्वामीचरित में सन्मति जिन चरित प्रशस्ति में Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना की नामानुक्रम-सूची ८४ १२१ २४ १२६ W १०४ प्रकम्पन ७१ अणुपेहा (अनुप्रेक्षा) १२८ अकबर (बादशाह) १२६ अनुवयरयण पईव (अणुव्रत रत्नप्रदीप) १७,६७,६८ अकलंक ५०,५१,८१,११३,१२४,१२८ ७७,६२ प्रकलंकदेव १६,६३ अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) १२१ अंग (देश) अणुवेक्खा दोहा अंगदेश ४८,६७ अणुवेक्खारास १२० प्रगरचन्द नाहटा अंतरंगसंधि अर्गलपुर (आगरा) १२६,१०३-१३८ अथववेद टि. ४-१२ अर्गलपुर जिनवन्दना अर्धकथानक १०५ अग्रदेश ६३ अनंगचरिउ अग्रसेन (राजा) अनंगपाल (दिल्ली का तोमर वंशी राजा) १६ अग्रवाल (कुल) ८५,६१ अनंगपाल (तृतीय , , ) ८६,६३ अग्रवाल (वंश) ८२,८४,८७,६३,६४,६६,६७,९८,६६ अनंतकीर्तिगुरु प०१२-१४२ १००,१०२,११६,१२४,१२६ अनन्तमती अग्रोतकान्वय १०० १११ अग्रोहा (नगर) अनन्तमती (मजिका) अग्रोहा (अग्रोदक-जनपद) ६३ अनन्तवीर्य अचलपुर ५३ अनन्त व्रत कथा अंजनचोर १०० अनाथसंधि अजमेर (नगर) ७ अनिरुद्ध (कृष्ण पौत्र) अजमेर पट्ट १३० अनुप्रेक्षा ६५,७६ अजमेरा (गोत्र-खंडेलवाल) प० १२-१४१ अनुप्रेक्षारास अजयपाल (नरेश) ६७,७०,७६ अनेकान्त ८७,१११,११२ (टि.) अजय नरेन्द्र ११६,११७ अनेकान्त वर्ष कि. १०२ अजयराज ११८ अनेकान्त टि०,७४, १०५,११२,१२४,१२६,१३३,१४१ अजयराज (अमरावती के चौहान राजा) प० १२-१४२ अनेकार्थ नाममाला १२६,१२७ मजरी (गाँव) ७५ अपभ्रश व्याकरण १६,३७ अजितनाथ (दूसरे तीर्थंकर) १२७,१२८ अपभ्रंश साहित्य-सूची अजितपुराण १२७ अप्प-संबोह कन्व ६३,६६ प्रणपमिय कहा (अनस्तमित कथा) १११,११५ अंबसेन (गणि) अमृताराधना के कर्ता) प्रणयमी कहा ( , ) ६३,६९ अंबाइय ५०,७९ प्रणंतवय कहा (अनंत व्रत कथा) । १११ अंबादेवीरासउ प्रणहिलपुर (गुजरात का एक नगर) ६२ अंबादेवी चर्चरीरास ३३,३४,५९ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीर-सेवा-मंदिर प्रन्यमाला ६६ ६७ ३२ १०१ भन्दुलरहमान १६,३१,३३ अलाउद्दीन खिलजी अभयचन्द (पुत्र साधारण) १२४ अलीगंज (एटा) १२८ अभयदेव ११ प्रवन्ती (नगर) ८८,५०६,१४० अभयदेवसूरि ११८ अशोक (मौर्यसम्राट) अभयनन्दी ७७ अश्वघोष (बुद्धचरित्र कर्ता) अभयपाल (चौहान वंशी राजा) ६८,७० प्रसग कवि (वीर चरित्र कर्ता)। ३६,४७,६५,७६,९३ अभयारानी २३,३९ प्रसवाल (कवि) १७,८६,१२६,१३० अमरकीति (भट्टारक) १६,६६,९६,१०१ मागरा १०३,१२४,१२५ अमरचन्द्र प्रात्मसंबोध काव्य १११ अमरसिंह साहु (गोलालारीय) १७ प्रादित्यदेवी अमरसिंह आदिनाथ ६३,१०५ अमरसिंह (मराठा) मादिनाथ भगवान अमरसेन मादिनाथ मंदिर अमरसेन (राजा) प्रादिपुराण १०६,१३२,१३३ प० १२२-१३६ प्रमरसेन चरित्र ६०,६२ प्रादि ब्रह्मा अमरावती (नगर) ११८ पापुलीय (यापनीय संघ) १२३ अमरावतीदेश प्राबू (पर्वत-प्रर्बुदाचल) अमितगति (प्रथम) मामिमम्बा अमृताम्बा) अमितगति (द्वितीय) पामेर (राजधानी कछुवाहावंश) अमोघवर्ष (राष्ट्रकूट राजा) पामेरपट्ट अमृत या अमयपाल भामेर भंडार ७६,८६,८८,६०,६१,९३,११२,११४ अमृतचन्द्र (मलधारी-भट्टारक) आमेर (ज्ञान) भंडार १२२ अमृतचन्द्र (प्राचार्य-तत्त्वार्थसारकर्ता) प्रार्यवसु अम्बदेव (कवि) अम्बाला (नगर) मायास पंचमीकहा अम्बावती (प्रामेर) पाराहणासार (पाराधनासार) ११२ अम्बेर (आमेर) ६१ प्रौरान (ग्वालियर म०प्र०) १८ अयोध्या (नगर) ४१ आशादेवी प०२-१३६ अरहनाथ (जिन) ८० माशाधर (पंडित) प०३-१३६, १४० महदत्त १६ प्राशाई (पाशापुर) १३५ प्रकीर्ति ७१,९६ प्रासापुरी (मोरंगाबाद) ५०२-१३६ अर्जुन ८१ प्रासारी ८७ अर्जुनवर्मा प०६-१६६ पासीरगढ़ प० २-१३६ पर्णोराज ७५ पाहवमल्ल (चौहानवंशी राजा) महंदास श्रेष्ठी ५७ प्राहुल्ल प०२-१३६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन अन्य प्रशस्ति संग्रह १४७ १३२ इटावा (उत्तर प्रदेश) १७,७६,१६६ मोरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट (पूना) इंडियन एण्टीक्वेरी जि.२०प०३, १६९ मोसा १०४ इक्ष्वाकु (वंशी) ३०,६१ मोसवाल १०४ इंदुक या इन्द्र प०३ १३६ कउडी (कौड़ी) पंडित १२७, १२८ इन्द्रउरि (इन्द्रपुरी) ८२ कंचीपुर ५० इन्द्राणी ८१ कंस इब्राहीम लोदी (टि०) १२४ कच्छप (वंश) ६१, ६२, १३० इलाहाबाद (नगर) १२६ कण्ह कृष्ण) चालुक्य वंशी ईशान ६८ कण्ह (कृष्ण) २६, ६८ ईश्वरदास १२२ कण्हड १३४ ईसरदे (पट्टरानी राजा माहवमल्ल) ६८ कण्हड (कृष्णादित्य-मंत्री माहवमल्ल राजा) उज्जैन १३३ कण्हड (कृष्णादित्यद्वितीयपुत्र श्रीवल्लाल ) उज्जनी (नगरी १२३, ५०३-१३६ कण्हपा (बौद्धसिद्ध) उत्तर पुराण - १३३, १३५ कथाकोश १७, ६१, ६३ उदयकीति कथारयणकोश उदयचन्द (वीरदासपुत्र) कनकगिरि (सोनागिरि) उदयमुनि ७०, ११७ कनकामर मुनि १३५, ५० १-१३६ उद्धरण साहू (ग्वालियर निवासी) कर्नाटक १३२ उदितोदय कन्नड प्रान्त ६७, १३२ उद्योतनसूरि (शक सं०७००, वि० सं०८३५) ५,३३ कपिस्थल १२६ कबीर उन्मत्त (ग्राम) १७, २३ उपमितिभवप्रपंचाकहा ३२, ३३ कमलकीर्ति (भट्टारक) ६६, १०७ कमलकीर्तिदेव उभयश्री प० नं० २-१३७ कमलनगर उल्लासाहु १०३ १३७ कमलभद्र प०२-१३९,१४० उषा (पुत्री वाणासुर) कमलभद्र संघाधिपयेष्ठी प० ३, १३६ ऊर्जयन्त (पर्वत) कमलश्री ७६, २३०, २३२ एच. डी. वेलणकर ३६, १३२ कमलश्री (पत्नी कामराय) १२८ ए० एन० उपाध्याय कमलसिंह (साहू) १७,९६ १०३ ककडु (राजा) २३५ एंडिल (गोत्र) ६६ कर्कडुचरिउ २१, २२,१०२, १११, १३५ एपिग्राफिकाइंडिका ११६ करकंडुचरित १३५ एपिग्राफिका इंडिका जि.प.६, १३६ करकंडु चरित (प्रस्तावना) प०१-१३६ ऋषभचरित ___E८ कर्ण ५२ ऋषभदास सेठ ४८, ६१, ६७ कर्णदेव ७६, ५०१-२३६ ऋषभदेव (नाभिपुत्र) ३०,४१, ७८ कर्णदेव (सोलंकी राजा) ११२ ८१ टि०-१११ ५३ एटा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णनरेन्द्र (संवत् १९२०) कर्णराजा करमसिंह करहल (नगर) करौली कलकत्ता कलचूरी (वंश) कलिंग (देश) कल्याणरास कश्य (गोष) कांची देवा कांतिपुरी कामचरित कामदेव कामदेव चरित्र कामराज (पंडित) कामता प्रसाद कामराय कामलता (वेश्या) कायद्रा (गाँव) कारंजा (नगर) कारंजा शास्त्र भंडार कारंजा सीरीज कालपी कालसंवर कालिंजर कालिदास काव्य-मीमांसा काव्यानुशासन काव्यालंकार काव्यालंकार टीका काशिकावृत्ति काफी काश्मीर काष्ठापुरी वार-सवा-मदिर ग्रन्थमाला ६३ ε२,१३६ ८६,१३८, १३० १७,१२६ ११७ १०५ प० १-१३६ ૬૪ ५७ ७५ '६५,१०८ ६७,६८,७७ १३४,१३५ ११५,११७,११६ १३४ कीर्तिवर्मा १०४ कीर्तिसिंह (करसिंह तोमरवंशी राजा) १२ ७८ २६,७८ कुन्दास (साहू) ७८ कुन्दकुन्द (प्राचार्य) कुकुन्दाचार्य १२ १११,११२] कुन्दकुन्दान्वय १२७,१२८ कुबेरमित्रा कुमरसिंह काष्ठासंघ ५३,५६,६६, ८३,९४,१११, ११२,१२४, १२५ काष्ठासंघ प०२१३६ किंकर किंकर (पुत्र अंगदेव ) किसनदास ( पिता भगवतीदास) कीर्तिकौमुदी ७ कीतिर कीर्तिपाल ३० ४,६, २० 8 कीतिराज (पुत्र राजा डूंगरसिंह) कीर्तिलता ११० ७२ ०१-१३६ २७,२८,५०,६३,६८,७२ कुलचन्द्रदेव कुलभूषण कुमार कुमारपाल (चौलुक्य राजा ) कुमारपाल प्रतिबोध कुमारसेन कुमार स्वामी कुरावली (मैनपुरी) १०८ १११ २६ प० १-१२६ १७,१०० १०२,१११, ११२, १० २,१३६ ८०१०१ १२६ कुसुमभद्र ७५ कुसुमंजली ( कहा ) २१ कुवलयमाला ( कहा ) कुशराज ( मंत्री राजावीरमदेव) कुशातं (देश) कृपण परिज टि०-१२४ कृष्ण (तृतीय) २६ ११४ १०६.१२६ ७६ ६५ १०, ७२, ७४, १२६, १३३ ૪૨ २१,६३ ૨૭ ८१ ६४ १६, ६६, ७०, ७५, ७६, ७६ ११६ ११७ २८ ६२ १३ १११ टि०-१११ ६३ ५, २५, ३२, ३४ ११ १२६ 55 १२८ प० १२,१४१ १३४ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केरल १२४ ११४ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह १४६ कृष्णदेव १३२ खिचडीरास १२६ कृष्ण नरेन्द्र १६ खीमचन्द (खेमचन्द) १२४ कृष्ण नरेन्द्र (पुत्र बंदिगदेव) ६६ खुमानरासो कृष्ण (द्वितीय-राष्ट्रकूट राजा) ४७ खुराशान ७०, ११७ कृष्ण (तृतीय-सम्राट) १३५ खुशालचन्द काला १२० कृष्ण ३१ खेऊ साहु (खेमसिंह) ६६, ६७ कृष्ण (पुत्र चंगदेव) ११४ खेता (पंडित) १२८, १३६ कृष्णश्रावक ६२ खेमसी साहु (खेमचन्द्र) कृष्णादित्य (प्रधानमन्त्री प्रभयपाल) खेमचन्द ८४,८५ खेल्हा (ब्रह्मचारी) केशवभट्ट १०१,१३४,१४१ गउडवहो (गोड राजा का वध) १०, १३, १८, १६ केशव (पिता इंदुक) गंगाराम (पंडित) १२५ प०६,१६६ गजमल्ल केशवपुत्र प०१-१४० कैकय (देश) गग्ग (गर्ग गोत्र) गर्ग (गोत्र) ८२, ६३, १२४, कैटेलोग सी० पी० एण्ड बरार १२७ गजाधर साहू १११ कैलाश (पर्वत) १३३ गणेश (गणपतिसिंह) कोइलपंचमी कहा १२८ गंधर्वराउ (राज) नगर कोशलदेश ४५ गंधर्व कोसवाल (प्रपिता लक्ष्मण कवि) ६६ गरवउ (विद्वान) कोल्हाही गाहल कौतुहल १३, ५० गाथासप्तसती कौरव ८१, ८२ गांगदेव (श्रावक) कौल १३४ गांगो टि०-१११ कौशाम्बी ६३ गिरनार (पर्वत) क्षत्रियवंश प०१-१३६ गिरिपुर (त्रिभुवनगिरि) क्षमा कल्याण गुडखेड देश क्षेमकीति ६२ गुजरात (देश) १५, १६, ७५, ७६, ७६, ८८ खंडेलवाल (कुल) ८, १०६, ११८, १२७, १२८ प०३-१३८ ____५०३-१३८, १३६, ५० १२, १४१ गुणकीति (भट्टारक) ८१, ८६, ६५, ५० २ १३७, खण्डेला गुणचन्द्र खंभात गुणपाल (अमरकीति के पिता) खजुराहो ७७, १०४ गुणप्रवर खरतर गच्छ प्रधान गुर्वावली ७० गुणभद्र (भट्टारक) ४७, ५०,५१, ६३, ८८, ६५, खानदेश प०२-१३६ १११,११२,१२५,१२८, प० २, खिउसी १३७ १०३-१४० १०८ ११७ ५८ ८० Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वोर-सेवा-मंदिर अन्यमाला १२४ १३० ६७ गुणभद्रसूरि १२४ चंदणछट्ठी कहा १०६,१११,११६ गुगभद्राचार्य ४६ चंदणही (पत्नी अभयचन्द) गुणाकरसेन ५६ चन्दवार दुर्ग प०२-१३३ गुंदिज्ज (नगर) ७७ चंदादे (पट्टरानी) १०८ गुर्जर ८४ प०११३६ चंदेरी (नगरी) १०४ गुहिल (गुहिलोत) वंश ७५,७६ चंदेरिया १०४ गुह्यसेन (राजा) ५ चन्देल (वंश) प०१-१३६ गूजर ७३ चंदप्पहचरिउ ८०,८५,१२६ गोंणंदनगर ११६ चउमुह (महाकवि) १६,२६,५१,६५,६७,१०३,१२८ गोनन्द (नगर) चकत्तावंश गोपाचल (ग्वालियर) ४३,४८,६७,१०२,१११,११२ चतुर्मुख ५३,६३,६५,६८,७२,७६,१२४ गोयल (गोत्र) ६३,९८ चतुरानन गोलाराड (लार) १३० चतुर्विंशति (जिन स्तुति) १२६ गोलालारीय (जाति) १०२ चन्दणवय कहा गोल्ह (बुध) ८५,५०३-१३८ चम्पा नगर गोवागिरि (ग्वालियर) ८३ चम्पा नगरी ५७,११४ गोविन्द कवि (सनत्कुमार चरितकर्ता) ६५ चम्पापुर ४८,१०२,१२६ गोविन्दचन्द ६४ चर्चरीरास गोविन्द ४७, ५१, ७२ चचिणी (माता अमरकीति) गोविन्ददास १३१ चन्द्रऋषि (गोत्र) १३५ गोविन्दप १३२ चन्द्रकीति (भट्टारक) १३०,१३१ गोध्रा (गुजरात का एक छोटा नगर) ६६ चन्द्रकीति मुनि गद्धपिच्छ १२८ चन्द्रगुप्त सम्राट ११,१२३ गौड़ ८४ चन्द्रप्रभ (आठवें तीर्थकर) ८०,८१,१३६ गौतम स्वामी चन्द्रप्रभचरित्र ७६-८१ प०३-१३८ गौरी शंकर हीराचन्द प्रोझा चन्द्रवाड नगर १७,७८,८०,८६,६७,९१,१००,१०१,१०४ ग्यासुद्दीन (सुलतान) १२२,१२३ चन्द्रपाट दुर्ग १११ टि. ग्वालियर १७,८३,८४,६१,६५,६७,१०२ चन्द्रपाल १०३,१०४,१०५,१०७,१०८,१०६,११०, चन्द्रमती ६६,१३४ १११५०२-१३६ चन्द्रलेखा ग्वालियर गजिटियर १११ चन्द्रसेन घूधलि (साहू) चद्रावती घेल्ह कवि (पिता ठक्कुर कवि) प०१२-१४१ चाटसू (चम्पावती नगरी) प०१२-१४१ चंगदेव २६ चाँदुवाड (गोत्र) चंगदेव (पिता हरदेव) ११४ चारित्रपुर ७६ १२५ ५२ ७५ १०४ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालुक्य वंश चित्रकूट (चित्तौड़ ) चित्तौड़ (नगर) चीनी तुर्किस्तान चूनडीरास चेटक राजा चेतन चारित्र चेदि चेलना चौहान वंश चौहान वंशी नरेश छक्कम्मोवएस (षट्कर्मोपदेश ) छन्द ग्रन्थ छन्दोनुशासन छीतर (पंडित) जंबूकुमार जंबू स्वामिचरिउ जंबू स्वामिचरित जंबूस्वामी रास जंबूस्वामी ( अंतिम केवली ) जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला जगाधरी जटिलमुनि ( वराँगचरित्र कर्ता ) जंडू ( पिता कवि हरिचन्द ) जनार्दन (राजा) जबलपुर (जिला- कमिश्नरी ) जमुना नदी जय कवि जयकीर्ति (रामकीर्ति के गुरु ) जयकुमार जयकुमार (सेनापति ) जयदामन (छन्दग्रन्थ) जयदेव जयभवला जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह जयपाल ५३ जयपुर (राजस्थान ) जयभद्रा जयमित्रहल (कवि ) जयराम (धर्मपरीक्षा कर्ता ) जयसिंह ( राजा भोज ) १३,२०,७७ ७५, ८६, ६१, १००, १२६,१३० १७ ६६ ३४ ११८, ०१२-१४२ १२ ३४,७०,११६,११८,१२७ ८५ २१ ८४ ८५ जय वल्लभ ( वज्जालग्ग के कर्ता) जल्हिग ३६,४७,१३२ जसई १२८ जसकित्ति ५४,८५ जसचन्द्र २१,३३ ५३,५६,६० ३४ ५.५ जयसिंह ( परमारवंशी राजा) जयसी जयसेन जपंधर जयादेवी ११८, ११, १० १२-१४२ टि० १२६ ६५, ७६ ३६,४७,५०,६०,१३२ प० १२-१४२ ७२,६६,६७ जसदेव ( पुत्र जसनिधान) जरासंध (राजा) जलालखां ११६ जलालुद्दीन ( प्रकबर) ८६ जहांगीर (बादशाह ) प० १-१३६ - जायस (कुल - जैसवाल ) १२६ जायस ( यादववंश) ६० जसपाल जसमलु (विद्वान ) जसहरचरिउ ( यशोधर चरित्र ) २१,६६,६३,६८,६६, १५१ जायसवाल जालौर (जाबलिपुर ) जाल्हड जाहड नरेन्द्र ( चौहान वंशी राजा ) जिन रत्ति विहारण कहा जिनमल्ल ( ३ रा पुत्र साधारण ) ७१ १३२ ५० जिनचउवीसी प० १२ ५१,७६ जिनचन्द्र ( भट्टारक ) ७६ ६५, १२८ ५७ १३१ ५०, ५३ १६ ५१,१२२ ६१ ५८ २१ ५८ ११ २७,३४, १२० ५६ ८३ ५० प० २,१३७, १० ३ १४० ७६ ६१ १३३,१३४ ८६,६१,६८,१२६ ८२ १३० १२६ ६६,७८, १०४ ६१ १,१०२-१३७ ३२ ८८ ६६ ११४,१३१ १२४ १४१ १२६,१३० Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला ६७ २६ १६ जिनचन्द्र सूरि ७. जैनेन्द्र व्याकरण जिनदत्त ४७,६८ जैसलनेर ३६,४७ जिनदत्त (सुपुत्र जीवंयशाश्रेष्ठी) ७७ जैसवाल (कुल) ९२,९८,१०४,५०३-१३७ जिनदत्त चरिउ (कवि लक्ष्मण) २२,२३,३५ जैसवाल वंश ११९ जिनदत्त चरित्र ६७,६८,७०,६२,११६ जोइणिपुर १०० जिनदत्त सूरि ७०,७६ जोइन्दु २७,३७ जिनदास (पंडित) १२८ जोगसार १२२,१३१ जिनदास गणो ११ जोगीदास ब्रह्मचारी १२५ जिनदास ब्रह्म ३१ जोधा साहू जिनदास साहु (अग्रवाल,गगंगोत्री) ११२ जोयणिपुर (दिल्ली) ८४,१२५ जिनधर ७० जौनपुर १०६,११०,१२६ टि. जिनयज्ञकल्प प०३-१३६ ज्ञानचन्द (पृथ्वीधर पुत्र) १२४, १०३,१४० जिनराज ज्योतिषसार १२७ जिनरात्रि कथा ८१,८२ झाणपईव (ध्यान प्रदीप) जिनप्रभ सूरि झुमुना जिनभक्त (सेठ) जिन रक्षित (पालित) धवलग्रंथ प्रख्यापक झूनागढ़ (नगर) टक्क (ठक्क) पंजाब जिनवती टंडाणारास जिनसेन ५०,५१,५२,५८,६३,६५,८,१६७,१०३,१२८ टाड राजस्थान हिन्दी (गोरी शंकर हीराचन्द मोझा जिनसेन (हरिवंश पुराण कर्ता) ७६ द्वारा संपादित जिनसेन (पुन्नाट संघीय) ११० टोडर साहु जिनसेनाचार्य ठक्क (पंजाब) जिन्दल (गोत्र) ठक्कुर जीणा प०१२-१४१ प०१२,१४१ जीवदेव ठक्कुर कवि प० १२-१४१ जीवमनः करण संलाप कषा ठाकुर (शाह ठाकुर) १३० जीवंयशा श्रेष्ठी डालू प०२-१३७ जीवानुसंधि २४ डूंगरसिंह (तोमरवंशी राजा, ग्वालियर) १७,८३,८४ जीवंधर चरिउ ६३,९८,१०१ ९५,१०२,१०५,१०८,१११,११२ १०-२,१३६ जुगलकिशोर मुख्तार १०६ ढूंढाहड देश जुलमासीर (हसन निजामी) ६८ गंदन जेरहट (नगर) १२२,१२३ रणक्खत्ता साहु जैतुगिदेव (मालवे का परमार राजा) १०३-१४० रणवकार मन्त्र (नरदेव) जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० १ प्रस्ता. ४७,१२० माइक्कदेवी । जैन सन्देश शोधांक ५ १२६ णागकुमार चरिउ (माणिक्कराज) जैन सिद्धान्त भवन पारा १२२ गागराजु १२६ ६१,९२ ६३ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह १२३ ताल्हू णिज्जर पंचमी कहा १२८ त्रिपुरी प०१-१३६ णेमिणाह चरिउ १६,२१,६६,८८,८६,११६. त्रिभुवनकीति ५०३-१३८,१३६ त्रिभुवनगढ़ (तहनगढ़) गिद्द ह सत्तमी कहा १११ निभुवनगिरि (तहनगढ़) ६६,७०,११७,११६ णेमिजिणिंद चरिउ (हरिवंशपुराण) ६८ त्रिभुवनपाल ६६,८७ तक्खड्डु श्रेष्ठी ५६ त्रिभुवन स्वयंभू १६,३७,४१,४३,४५ तत्त्वार्थ राजवातिक १६ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ११० तपन (राजा) ३२ त्रिषष्टि रमति शास्त्र प०३-१४० तहनपाल (त्रिभुवनपाल राजा) ६६,११६ टी० त्रैलोक्यनन्दी ४६,५१ ताण्डव ब्राह्मण १२ टि० थील्हा तामसचित्तपुर २८ दक्षिण (देश) प०१-१३६ तारानाथ (ऐतिहासिक विद्वान) ५ दण्डी (महाकवि) ४,५१ ताल्हुय साह १२२,१२३ ८८ दमोबा देश प०१२-१४१ दगाह (जिला) प०१-१३६ तियाल पउवीसी कहा १२८ दरगामल (नावि) १२६ टि० तिलोकाही (ध० प० सारंग साहु) १२४ दन्द चरित्र प० ३-१८० तिहुवणसिरि (त्रिभुवनश्री) १२ दशपुर (मन्दगौर) ८६ दशरथ (राजा) २७ दशलक्षण जयमाला १०२,१०६ ३४ दा लाखावय कहा १११,११२ तीवर (जबलपुर) प०१-१३६ दाऊद याह तेजपाल (मंत्री) ७५ दाक्षिणात्य तेजपाल (कवि) ८७,८८,१२६ सभाटालीवाई १३० तेजपाल (वणिक) ८६ दामोदर (कवि) ८८,१२६ प०३-१३६,१४० तेरपुर १३५ दिगम्बर तेराउर (तेरापुर) १३५ दिगम्बर गम्प्रदाय तेरापंथी मंदिर (जयपुर) १२० दिनकसेन (अनंगनरित्र की) ६५.७६,६७ तोसउ (पुत्र दिवराज) ७० दिल्ली १५,१७,६१,८२,८४,८५,८८,६३,६४,१०६,१२६ तोसउ साहु ६३,६४,१०० १२६ प० ३-१३०,१३६ तोमर कुल १०६ दिल्ली (पट्ट) १२६ तोमर (क्षत्रिय वंश) ८३,८४,६१,६३,१००,१०७,१०८ दिल्हण तोमर वंशी (राजाओं) १७ दिवडा (साहु) ८२ ५०-१२ दिवराज साहु तोहक (पुत्र सोमश्री) १११ टि० दिवगी त्योंधर साहु १११ टि० दीपचन्द पांड्या तुम्बर तुलसी तुलसीदास ७६ ३३ १२८ तोषक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला ११४ ७७ २१,६३,६५ १०३ १७,३२७८,७६,८० १३३ ११० ११८,११६ प०१२-१४२ दीवड़ प०२-१३७ द्विजवर दीवा १२ द्विजराज (द्वितीय पुत्र कृष्णादित्य) दुग्धारस कथा १११ धक्कड (धर्कट वंश) दुद्धारस कथा ११६ धक्कड़ वंश दूब कुण्ड (घडोभ-वालियर स्टेट का एक ग्राम) ५६ धंग (चन्देलवंशी राजा) दूहा मातृका २७ घणकुमार चरित देलवाड़ा (गाँव) ७६ धनदत्त चरित्र देवकीति धनदत्त (कवि) चंद्रप्रभचरित्र कर्ता देवगिरि (दौलताबाद) ७७,८० धनदेवी देवचन्द (कवि) ७६,७७ धनपाल (बुध) देवदत्त (कवि) ३३,५६,६० धनपाल (कवि) देवधर ६१ धनपाल नाम के चार विद्वान देवनन्दी (पूज्यपाद-जैनेन्द्र व्याकरण कर्ता) ६५,७६,६२ धन श्री ६७,६८,१०३ प०३-१३७ धन्यकुमार चरित्र देवपाल (परमारवंशी राजा) १६ ५० ३-१३६ धनेश्वर मूरि देवपाल (पिता जैतुगिदेव) प० ३,४० धनेश्वर मूरि (अभयदेवसूरि शिष्य) देवपाल (पंडित) १२७,१२८ धम्मपद (बौद्ध ग्रन्थ) देव वर्मा प०१-१३६ धम्मपरिक्खा १०४ धरणीवराह देवराय ८६,१०३ धरसेन (राजा) देवराय चौधरी ६१ धर्कट-जाति (वंश) देवसेन १३,५६,७६,६८,६७,१०३ धर्मकीति देवेन्द्रकीति (भट्टारक) १२३ धर्मचन्द्र देशीगच्छ धर्मचरित्र टिप्पण देशीगण धर्मदास देशीनामाला १६ धर्म परीक्षा ८०,१०४,१०५,१०७ धर्मसेन दोहानुप्रेक्षा २७ धर्मोपदेश चूडामणि दोहाकोश २७ धवल (राष्ट्रकूट राजा) दोहापाहुड २७ धवलकवि द्राविड पवलइया द्रोण ६५,७८,७६,१०३ धवला द्रोपदी धवलासिय (धवलइया) द्वारिका ८६,१२६ धांगा ३१,७२,८९ धाडी वाहन (राजा) १२३ देवरा SM-U १०३,१३३ A " ७७ १३९ देहली ५१,५२,५३,१०३ ४४,६४ ६६ १२ १६,६४ ४४,४५ २७ द्वारावती २३,४८,४६ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह ११४ ४७ प०३-१३६ प०१-१३७ ८८ प० ३-१३६ १०१,१२६ १०६, प०३-१३८ ८० १०५,१०६ प०१२-१४१ ८७ १८१०२-१३७ १२८ १२८ धारनगर ८० नागदेव (वनराज) धारा नगरी ५१ नागदेव धारा वर्ष ७५,७६ नागदेव (पुत्रमल्ह) धाराशिव (जिला) १३५ नागदेव (मल्लुगि पुत्र) धारिणी ५७ नागपुर धीरसेन (कवि चक्रवर्ती) ६५,७६,६७ नागर मंडल (नगर) धृतराष्ट्रादि कौरव ४७ नागवश ध्रुव (राष्ट्र कूट राजा) १६,४७ नागौर (नगर जोधपुर स्टेट) नकुल . १ नागौर भण्डार नक्षत्र साहु १२६ नाथूराम 'ब्रह्म नक्षत्रसिंह ८६,१३० नाथूराम जी प्रेमी नजीबाबाद (जिला विजनौर) १०६ नाथूसि नट्टल साहु प०३-१२८ नाटय दर्पण नट्टल साहु (मंत्री अनंगपाल तृतीय) १६,८४,६३ नाट्य शास्त्र नंदन १३० नारायण (साहु) नंदा प०२-१३७ नारायण नन्न (मंत्री भरतपुत्र) १६,१३४ निदूस सत्तमी वय कहा नन्दी संघ १२३ निरवद्य नंद्यम्नाय १३० निर्भर पंचमी कहा नमि साधु ६ निझर पंचमी कथा रास नयनन्दी १६,३५,४७,४६,५०,५१.७७,८४,१२० निदख सप्तमी कथा नरदेव (नवकार मंत्र कर्ता) ६५ निः पिच्छक संघ नरपति साहु निबडिदेव नरवर १०८ निशीथचूणि नरवर साहु प० ३-१३७ नेमिचन्द्र (साहु) नरसेन १०२,१३१ नेमिचन्द्र मुनि (माथुर संघी) नरेन्द्रकीति ७७,१२८ नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक नर्मदा सुन्दरी सन्धि २४ नेमिचन्द्र नेमिनाह चरिउ प०३-१३६,१४० नलकच्छपुर (नालछा) नवगांव (नगर) नेपाल नसीरशाह (पुत्र ग्यासुद्दीन) १२२ नेमिदास (संघपति) नोइक्कदेवी १३० नेमिदास (पुत्र ठकुरसी कवि) २१,१३४ नागकुमार नेमिदास (साहु) २१ नेमिनाथ (२२ वें तीर्थकर) नागकुमार चरित्र २१,६०,६१,१३३,१३४ ७०.११६,११७ ११६ १२३ ६२ १०३-१३७,१३८ १२४ टि०-१३० ८१ ८४ १२२५० १२-१४१ प०१२-१४१ १००,१०१ ७२,८०,८१,८२,८७,८६ ६१,९६,१२२ नागकुमार चरिउ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नेमिनाथ (श्री कृष्ण के चचेरे भाई) नेमिनाथ (मन्दिर) नमि पुराण नेमीश्वर की वेल पंगार ( रामपुत्र) पंच इन्द्रिय संवाद पंचायती मंदिर दिल्ली पंचास्तिकाय पंचेन्द्रियबेल पंजाब पंडिता दासी पंपाइय पउम चरिउ पउम चरिय पवत्र कहा पंजरा गाहु पज्जुण कहा (सिद्ध तथा सिंहकवि ) पज्जुणचरिउ पणियार चैत्यालय पतंजलि (ऋषि) पद्मकीर्ति पद्म चरित्र पद्मनन्दि ( भट्टारक ) पद्मावतिया पद्मावती पुरवाड (वंश) पद्मावती पुरवाल पद्मावती (नगरी) वोर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला पद्मावती पद्ममनी परमेष्ठी प्रकाश सार पद्नन्दिदेव पद्मन्दिश्रावकाचार पद्मनाभ (कवि ) पद्म लक्षणा पद्मसिंह पद्मसिंह मुनि पद्मसिंह पद्मसेन (पार्श्वनाथचरित्र कर्ता ) १० ३,१३८ ७१ १०६ प० १२,१४१ ८० १९-१३० २१ ४६ ७२ ६ १०,१६,२१,३६,४९,४२, ४५ १११,११२ ६५,११२,१२० १० १० १२-१४१ ५१ १०२-१३६ 25 २२ ७२ ४३ ३ १४,५२,६५ ४२,४६,६७ १३,४६,८६,८७,८८,६२ १२६,१३० १२८ ८६ १,१३४ ८६ १३ २७ प० २ १३६, १३७ ६५,६६,७६ १०४ १२८ १०३५० २-१३७ १०४ परमात्म प्रकाश परमार (वंश) परमार जाति के इतिहास पर प्रकाश परिहार (वंश) पल्लीवाल ल्हपुर (पालनपुर ) वाया (ग्राम-प्राचीन पद्मावती ) पाद पूज्य ( पूज्यपाद - देवनन्दी) पाणिनीय व्याकरण कर्ता ) पादलिप्त पानीपत (परिपद) पहराज पांचाल (देश) पाटन ( गुजरात राजधानी महिलवाड़) पटौदी मंदिर शास्त्र भंडार जयपुर पाण्डव पुराने पाण्डव पारस (पार्श्व ) पारस श्रवरण सत्ताइसी पार्वती पाल (वंश) पाली पाह ब्रह्म (श्रीपाल ब्रह्म) पावापुर पार्श्वनाथ चरित्र पार्श्वनाथ (मंदिर) १३५ ४५ १२२ २७,३७ ७५,७६५०३-१३६ पार्श्व पुराण पासरगाह चरि पासरगाह चरिउ पास पुराण १०५ ૪ १०४ ७६,८० १०४ ६६ १२,८४,१२६ टि० ६२ १२० १७,२१,३६,८१ ४७,८२,६८ ३१ १६ १०४ १०७ ८२ पार्श्वनाथ ( तेवीसवें तीर्थंकर) ५२,७६,७७, ८४, ८५' ६६ १२६,१३० १७,८६,८६,११० ७७,६१ ५२,६३,११० ११,१६,२१,७६, ८४, ८६, ८७, ६२ ६५, ६८,१२६ ८७,६६ ६३ = १४,१६,५० १२४,१३४ प० १२-१४१ प० १२-१४१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हड़ (श्रीक) हल (कवि) गल १० एल० वैद्य जराज ण्डरीकिनी (नगरी) ष्णासव कथा गासव कहा सव कहा कोस व्यपाल ण्यपाल ( साहु ) नाट (संघ) फंजलि कहा पांजलि कथा पुरंदर विहारण कहा वाड वंश (कुल) पुरुषार्थसिद्ध पाय पुष्कर गर हम (पृथ्वी राजा ) पूज्यपाद (देवनन्दी) पूर्णदेव भद्रमुनि ना (नगर) ७६ ८ 's १११ फंजलि व्यक ११२ पदन्त ( महाकवि ) ७,१४,१६,५१,५३, ६०, ६३, ६८, ७२ _७६,६१,६५,६७,९९′१०३, १२४,१३३,१३४५० २-१३६ पृथ्वी देवी पृथ्वीपाल पृथ्वीराज रासो जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह पेशावर पोढिल्ल (प्रोष्ठिल्ल) माव (पद्मावती पुरवाल कुल ). पोमावती गेमसेल (पद्मसेन) ल्हरण १ प्रत कीर्ति ( भट्टारक ) २६ ५० १३४ १२२ ५.७ १९४ ६३ १०० प० १२-१४२ ६६,६७ ६४,७६,६०,१०३ ८३,१२४,१२५ ८६ ८१,१२६ १३४ ८८ प० २ १३७ २१ १०६ ३३ ३४ १२ १२८ १०३,१०४ प्रताप रुद्र ( चौहान वंशी राजा ) प्रतापसिंह ( चौहानवंशी राजा रामचन्द्र पुत्र ) ५८ ६४ 55 प्रद्य ुम्न प्रद्युम्नकुमार (श्री कृष्ण पुत्र ) प्रद्य ुम्न चरित्र प्रभाचन्द्र ( भट्टारक ) ७४ प्राचीन जैन लेखसंग्रह प्रभाचन्द्र (प्राचार्य) प्रभाचन्द्र गणी प्रबन्ध चिन्तामरिण प्रबोधचन्द्रोदय (नाटक) प्रवचनसार प्रशस्ति संग्रह प्रहलाद् देव प्रल्हादन देव ( पालनसी) प्राकृत पिंगल प्राकृत प्रकाश प्राग्वाट (पुरवाड) कुल प्रियंकर ( पुत्र रामदेव ) फतहखां हार्वी फीरोजशाह तुगलक बखतराम (पंडित) बंगाल दूर) बघेल वंश १५७ वडनगर बडौदा बंदिग्गदेव बनारसीदास (कवि ) म्हणवाड (नगर) बम्बई ७७ १०० १११ ६८ ७२ ७६ ५१,८६,११८,१२८१२६,१३०, प० १२-१४१, १४२ १३० 50 ६३ प० १-१३६ १० २६ ७५ १०३ टि०-११३: १२ ६२.७० १०६ 50,88 १२५ १५,१६ बघेरवाल १०४ बपेश (प्राचीन नगर वर्तमान कस्वा केकडी से १४ मील १.११ १४. १०४ ६७ ७६ १३२,१३.३ ६.६ २७,१०५ ७५ १०४,१३२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला १. ब्राचड १६ बुधजन बलडइ ग्राम (महमदाबाद) ६४ बूचिराज (बल्ह) बलदेव ८१ बूढिया (जिला अम्बाला) बलभद्र (रामचन्द्र) ९६,९८ बूंदी (राज्य) प०२-१३ बलभद्र चरिउ ११० बोदाउनगर प० ३-१६ बलभद्र चरित्र १०६,११० ब्रह्मदेव बलभी (नगर) बलहद्द चरिउ ६५,६६ ब्राह्मण (कुल) बहलोल लोदी (बादशाह दिल्ली) १०६,११० भगवती आराधना बलात्कारगरण ८६,११८,१२१,१२३,१२८,१२६,१३० भगवतीदास (कवि) २१,२४,१२५,१६ प० १२-१४२ भट्टारक सम्प्रदाय बल्लाल भदासही (पत्नी सा० मल्लिदास) ७५,७६,७८ बाटू (साहु) भद्रबाहु (श्रुतकेवली) भमियापुहमी बाण (कवि) ५०,६८,७२ भरतक्षेत्र बांदा (जिला यू० पी०) प०१-१३६ बाबर (मुगल बादशाह सन् १५२६-१६३० तक) १७,१२४ भरतचक्रवर्ती (मादिनाथ पुत्र) भरत बाम्बे युनिवर्सिटी जर्नल १३२ ३०,५०,५ बालचन्द्र भरत (तक्खडु श्रेष्ठिका लघु भ्राता) बालचन्द्र मुनि (विनयचन्द्र गुरु) ११७,११६ भरत (मंत्री राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय) १६,१३४,१६ बाल्मीकि (ऋषि) १७,७२,९८ भरत सेनापति चरित बालू (पुत्र पद्मसिंह) प०२-१३७ भरत बाहुबलि ६६ भरत बाहुबली ७८ भरत मुनि (नाट्यशास्त्र के कर्ता) बाहुबली चरिउ १७,२१,२६ भर्तृहरि बाहुबली चरित्र ७८ भवदत्त बाहुबलीरास ३४ भवनगर बाहोल भवनन्दि बाह साहू भविष्यदत्त ८६,१०६,१ बिम्बसार (श्रेणिक) भविष्यदत्त कथा बिलरामपुर (जिला एटा) भविष्यदत्त चरित (त्र) ८३ ५०२-१ बिहोलिया (गोत्र) भविष्यदत्त पंचमी कहा बिहोली (ग्राम) भविसयत्त कहा (धनपाल २२,२३,८६,१६ बोल्हादेवी ८५,९६ भव्यकुमुद चन्द्रिका प०३-११ पोल्हादेवी (माता कवि श्रीपर) ५० ३-१३८ भादानक (पंजाब के झेलम जिले का भद्रावती बुद्धिविलास १०५ देश) १०५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह १५६ ६८ नीम मुल्लण दानक (भदायर-भदौरिया राजपूतों का स्थान) ८७ मंगा या माणिणि प०२-१३७ मह (कवि) ४,२०,५१ मंडपाचल (मांडू) १२२ वकीर्ति प० १२-१४२ मउडसत्तमी कहा १११,१२८ गावधी प० २-१३७ मउडसत्तमी कहा रास १२५,१३९ गावसेन ६५ मगध (देश) ७,११,१२,५४,५६,६७,८४,०५,८९ भक्खु अभिनंदन अन्य ११७ मरिण द्वीप भल्ल (संघ) १२३ मथुरा ६,६१.१०४ रवणहो (पली सोहिल्ल) १२४ मदन मदन पारिजात १२४ नीम भट्टारक मदनपाल (टांक वंश के राजा) १२४ भीमदेव मदन युद्ध भीमदेव मदनावली १३५ भीमदेव (पुत्र मूलराज सोलंकी) मध्य प्रदेश १०५ भीमद्वितीय ६७ मनकरहा रास २९,१२६ भीमसेन (पंडित लक्ष्मणसिंह चौधरी पुत्र) ११२ मन्दोदरी भुजबली भीमदेव (राजा) १२० मनोरमा ७५ मम्मट भुल्लण साहु १८ मम्मलपुरी भुल्लग प०१२-१४१ मयण जुज्झ भुवनकीति ८८,१३० मयगा पराजय २१,२९,११३ भुवनपाल प०१-१३६ मयगणवाल प०२-१३७ भूधरदास (कवि) . मयण-रेहा-सन्धि भूपाल ७२ मयन सिरि (मदनधी) प०२-१२७ भूपाल नरेश परि० १-१३६ मयणा (मदना) प. २-१३७ भूमिपाल प० १-१३६ मयना सुदरी (रानी) भेलसा (विदिशा) १०, प० ३ १३६ मयूर । ५०,७२ भोगांव १२८ मा (मारबाड) भोजरवान १२२ मह भोजराज (राजा) ८६१३० मलयकीर्ति (भट्टारक) ११२,१२४ १०२-१३७ भोजराज (चौहान वंशी राजा) १७ मलधारीदेव भोजराज (साहु-गर्ग गोत्रीय) १२४ मल्लिगाह कव्व ५२,८६,१३६ भोट ८४ मल्लिदास भोपाल प० २-१३६ मल्लिदास (पुत्र साधारण) १२४ भोवई (श्रेष्ठी) ७६ मल्लिदास (पं० माल्हा पुत्र) प०१२-४१ मंगलदेव (दुष) १३५ मल्लिनाथ ४ ८७ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला २७ १२ मल्लिनाथ चरित्र १३० माणिक्यदेव मल्लिभूषण (भट्टारक) १२१ माणिक्यनन्दी ४६-५१ मल्लिषेण ४७ माणिक्यराज (कवि) ६१,६०,६२ मल्लुगि (वैद्य-विद्यामें निपुण, प्रियंकर पुत्र) ११४ माथुरकुल मल्हादे (माता रत्नपाल और कण्हड) ६९ माथुरगच्छ ६२,८३,११६,११८,१२४,१२५ महणा (साह महणा) __ माथुर संघ ६०,७०,१०८,१०६,११०,११७,११९ महमूद शाह शर्की १०६,११० माथुर (वंश) ८७ महाकीत ५० माथुरान्वय १११ टि० ११२ महाखान १२२ मांधाता प०३-१३९ महाचन्द माधवचन्द्र ७४,७७ महादेवी ८७,१०१ माधवसेन महापन (चक्रवर्ती) ५७ मानसिंह (राजा) १३० महापुराण कलिका १३१ मान्यखेट (मलयखेड) १५,१६,४५ महापुराण ७,१६,१९,२१,९८,१०२.१३३,१३५ मारवाड महाभारत २३,४७,१३३ मारुतदेव महाभाष्य ३ मालती माधव १०४ महायान (बौद्धों का एक सम्प्रदाय) ५ मालव देश ५८,६०,११६ महामात्य भरत १३४,१३५ मालव राज्य महाराष्ट्र देश १० माल्हण प० ३-१४० महावीर (चौबीसवें तीर्थकर) ६,१११३,८२,६३ माल्हा प० १२-१४१ महावीर चरिउ ६६ माहणसिंह १०६ महावीर चरित्र ६३ माहव (माधव) चंद (मलधारी) महावीर स्वामी ५३ माहुर (माथुर कुल) प०२-१४५ महासूदन ५८ माहिदसेण महासेन ५६ मित्तल (गोत्र) ८७,९३ महासेन (सुलोचनाचरित्र कर्ता) ६५,७६ मियंकलेहा चरिउ (सगांकलेखाचरित्र) १२५ महिंदु (महाचन्द कवि) १७,११३,१२३ मुक्तावलि विधान कथा १२० महीचन्द ६१ मुग्धादेवी महीयडु (देश) ६६ गुद्राराक्षस महेन्द्रकीर्ति (भट्टारक) ६१,७६,१२२ मुनिभद्र ८८ महेन्द्रसेन भट्टारक (दिल्ली गद्दी) १२५ मुनिसुव्रतनाथ (बीसवें तीर्षकर) ११३,१२० माएसर (मातेश्वर) १३३ मुबारिकशाह १७,२ माघ (कवि) ५१ मुहम्मद गौरी ६९.११६ मांडवगढ़ १२२,१२३ मुहम्मदशाह तुगलक ८० माणिकचन्द ग्रन्थमाला १३४ मूलराजन्टपेन्द्र (सोलंकी राजा) माणिक्क (माणिकचन्द) १२५ मूलराज (द्वितीय) १२२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थप्रशस्ति संग्रह ८४ १३५ मूलसंघ ७७,८८,१०८,१२६,१३०,११८ टि०प०१२-१४२ यशस्तिलक चम्प मेषचन्द्र १११ टि० योगदेव पंडित ३४,१२० मेघपुर २१ योगिनीपुर (दिल्ली) ८०,८४,९८,६९ मेषवन ६० योधेय (देश) मेघमालावयकहा प० १२ १४१ योगसार (जोगसार) २७,१२२ मेषश्वर ___७१,६७ रइधू (कवि) १७,८३,६२,६६,६६,१००,१०२,१०३ मेश्वर चरिउ १०६,१०७,११० १०५,१०६,१०७,१२६,१३४,१३७ १०२ मेउत्तम (वंश) प०३-१४० रइधूप्रतिष्ठाचार्य १११ 'मेधावी पंडित १२६ रघुपति कौर मेमडिय रणधोरी ७५ मेरुकीर्ति रामल ८७,८८ मेस्तुग रतगऊ मेवाड़ रतन मेहस्सर चरिउ २१,८३,६५,६६,६७ रतपाल मैनपुरी प०३-१२६ रति मैनासुन्दरी ११४,११५,१२६ रतिवेगा मैसूर १३२ रत्नकीति (भट्टारक) ८०,१२८,१३०,प० १२-१४२ मोल्हण १११ टि. रत्नपाल (प्रथम पुत्र श्रीवल्लाल) मोल्हादेवी १०१ रत्नप्रभ मोहनघोष (डाक्टर) रत्नशेखर (विद्याधर) मौनीदेव रत्नसिंह सूरि मृगांक (केरल नरेश) ५४,५ रपरी (चन्द्रवाड के समीपवर्ती नगर) ६१ मृगांकलेखाचरित्र १२७ रयडा धनंजय (मामात्य राष्ट्रकूट राजा ध्रुव) । यदु (वंश) ५६,८७,१२६,१३० रयणकरंड सावयायार (रत्नकरंड़ श्रावकाचार) १६,३५ यदुवंशी ७२ यमकालंकार १२६ रयणत्तय कहा यमुना (नदी) रयणदेव (रत्नदेव) ९० यादव (कुल) ८६ रयणु युधिष्ठिर ८१ रविवउ कथा यशोधर (राजा) ६,१३४ रविवय कहा ११६,१२८ यशोधर चरित्र ११,१००,१०७ रविव्रत कथा ८२ यशोधवल ७५,७६,७६ रविषेण (पद्मचरित्र कर्ता) ४२,४५,४६,६५,७६,९७ यशोमती ६८,१०३ यशःकीति (भट्टारक) १७,२६,४३,४४,४६,८०,८१ रहीम ५२,८३,८४,६५,१०७,११२,११६,१२४,प० २-१३७, राउल प०१२-१४२ राघव ११४ ११७ ६१,६३ १२८ २७ १३४ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला ४८ ८७ ७६ प. . . । राजगिर (राजगृह-मगध देश की राजधानी) ५५ राहव (राघव) साहु राजगृह (नगर) ५७,८६ राहुल परि० १-१३६ राजपूताना प० २-१३६ रासक (रासा) ___३०,३१ राजमती ८६,१२८ रिठ्ठणेमिचरिउ १६,४१,४३,४४,४६,४७,६३,६८ राजशेखर (कवि) ७,५० रिपुदारण रास (उपमितिभवप्रपंच कथान्तर्गत) ३२ राजसचित्तपुर २८ रुद्र राजस्थान १५,८ ,१०६ रुद्रट (कवि) राजरथान जैन ग्रन्थ-भंडार-सूची ४.११८ रुप्पिणी (रूपिणी) राजस्थानी पत्रिका २४ रुप्पिणी (पत्नी साधारण) प० २-१३७ राजेहिं (राजसिंह या राजकुमार) ६. रुहियासु (रोहतासु) राणू (पत्नी कृष्ण श्रावक) रूपदेव रामकीर्ति (जयकीति शिष्य) ११८ रेवतीरानी १०० रामकीर्ति मुनि ११८ रंधू (प्राचार्य) टि०-१११ रामकीति प० १२,१४१,१४२ रेवतगिर (ऊजयन्तगिरि) राम (चन्द्र) रोहतकपुर (नगर) ११,१०५ रामचन्द्र (राजा) १००,१०१,५०२-१३७,५०१२-१४१ रोहिणी विधान कहा प० ३-१३७ रामचन्द्र पंडित प०३-१३६,१४० रोहिणीव्रतरास १२६ रामचन्द्र (पुत्र साहु नेमचन्द) प० ३.१३७ रोहिणेउ रामचरित्र १०६ लंबकंचुक (लमेचू) रामणदि लंबकंचुकान्वयी प०१२-१४२ रामदेव ७५ लक्खण पंडित ११६ रामनगर ३६,१३२ लक्खणंक रामनन्दी ४६,५० लक्खनु प०२-१३७ राम (पुत्र नागदेव) लखमणु (लक्ष्मण) रामसिंह २७ लखमदेव (साहु) रामायण १६,२३,४७,१३३ लक्ष्मण (पंडित) १३० रामाही लक्ष्मण १४,१२८ रायमिह (राजगृह) लक्ष्मण कवि (रत्नदेव वणिक पुत्र) ११६ रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे १३२ लक्ष्मण कवि १७,१६,३५,४१,४२,६७,६८,८६,९२,६६ रायवद्दिय (नगर) ६८,७० लक्ष्मणसिंह रल्हण (बुष) ७३ लक्ष्मणसिंह (चौधरी जैसवाल वंशी) ११२ परि० १-१३६ लक्ष्मणसिंह रावण वध १०,४३,६० लक्ष्मीचन्द २७,३४,१२१,१३० राष्ट्रकूट (राजा ध्रुव) १६,४५,१३५ लद्धिविधान कहा १११ राष्ट्रकूट वंश १३४ ललितकीति ११७ टि. २६ ४३ ६७ १३० रल्हो ८६ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ललित विस्तर लाख लालबागड लाडपुर (साहू) लिच्छविलोग लीलावइ कहा लीलावती लुवाइरिणपुर लुहाड्या (गोत्र) वही लोणा (साहू) लोणव लोणा साहु लोहड लोहाचार्य वडली बंसल (गोत्र) वजीरिस्तान वज्रदन्त राजा सूरि ( प्रमाण ग्रन्थ कर्ता ) वज्रसेन स्वामि सन्धि वड्डमा कव्व (वर्धमान काव्य ) वड्ढमाण चरिउ वणिपुर (वणिकपुर ) वत्सराज (सम्राट् ) यद्दिगदेव (चालुक्यवंशी राजा ) वनमाला रानी वरदत्त वरांग चरिउ बरांग राजा वरांगचरित्र वडक (देश) वराड या वराट वरषेण जैन ग्रन्थप्रशस्ति संग्रह ५ वसाड (वंश) १४ वर्द्धमान ५८ वर्धमान (मन्दिर) εε वर्धमान चरित्र £5 वल्लभराज १२ वसंतपुर १६ वसुदेव १३,५८ वसुदेव हिण्डी १३१ वस्तुपाल १३१ वहरुद्दीन तुगरिक ७६ ६२, १३० ८६ प० २-१३७ ६३ प० १२-१४१ १२६ १२ ५७ वाक्यपदीय ( व्याकरणग्रन्थ) वागडसंघ वाग्भट्ट वाटग्राम वादरायण वादिभूषण वादिराज वामन वामादेवी वायुभूति वारावती (द्वारावती-नगरी) वारिषेण वाही (भार्या) वासद्धरु (वासाधरु) वासवचन्द्र ६५, ७३ ६७,१०३ २४ ८५ प० २-१३७ १२७ ३२ वासवपुर १६ वासवमुनि ५७ वासवसेन २४ वासाघर (साहू) ८७ वासाहरू वासिल्ल (गोत्र) ८७ ५६ बासुएव (वासुदेव) ८ वाहड़ ५१ ६३ विक्रमसिंह विक्रमसिंह (राजा) १६३ ६५ ४७,५२,८५ १२५ ८५,८६,६२ ५० ६७,६८ ६८ ११,२५ ७५ ६६,११६ ३ ११८ ७, १४,३१ ५१ ५० प० १२-१४२ १३४ ५० ८४ ६३ ८६ १०० ५१ ३४ ७७ 55 ६३ १३४ ७८,७६,८० ३६ १११ टि० ४६, १०२-१३७ ७६ ७५,७६ ६१,९२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ विर-सेवा-मन्दिर ग्रंथमाला ४६ १२७ विहगसेन १०३ विहराज १३,९८ विहारी १० वातशामक ११६ १०५ १४ वीरमदेव ५५,५७ वीरसेन विक्रमोर्वशीय नाटक २७,३८ विश्वनंदी विजयकीति (मुनि) ६५ विश्वभूषण विजयगढ (बयाना) ६६ टि. विश्वामित्र (गोत्र) प०१-१३६ विजयपाल नरेश प०१-१३६ विश्वेश्वर (पुत्र पेदिभट्ट) विजय पालाही १२३ विसन्धर (राजा) विजयसिंह विजयसिरि वित्तसार (ग्रन्थ) विदेह (उत्तर विहार) वीतशोका नगरी विदेहक्षेत्र वीर कवि ३३,५३,५६,६०,९५,११२ विद्याधर (जोहरापुरकर) वीरचन्द्र ६३ १०२-१३७ विद्यानंदि ६३,१२८ वीरजिन प०३-१५१ विद्यापति विद्य च्चर विद्युन्माली ५६,५७ वीसलदेव विनयचन्द (मुनि) ३४,७०,११६,११७,११८,११६ वीसलदेवरासो विनयचन्द्र सूरि ११७,११८ वीरसिंह विनोदीलाल (अग्रवाल कवि) १२६ टि० वीरसूरि विपुलकीति (मुनि) ८७ वीरा (पत्नी पसिंह) प०२-१३७ विपुलाचल ५६ वीरादेवी प०३-१३७ विम्बसार (श्रेणिक राजा) ५४ वील्हा साहु विबुधश्रीधर ८३,१०६ वील्हादेवी (माता कवि हरिचन्द) विभीषण ४३ बीसल साहु विमलकीर्ति ११८,११९ १० १२,१४१,१४२ वूकेक (श्रावक) विमलचन्द्र (पुत्र साहु नेमचन्द) प०३-१३७ वैराग्य सार २७ विमलमती ६८ वृत्तसार विमलसिरि ११७ वृषभनन्दी विमलसूरि १०,४२ वृन्द (कवि) विमलसेन (गणधर) ७२,१९४ व्रात्य १२ बिलरामपुर व्यास ६८,७२ विलासवती ५४,८५ शंकर संघवी १२२ बिल्हण सेठ शत्रुजय (तीर्थ) ७६,१२४ विशालकीति (भट्टारक) ८८,१३० शम्भूनापसिंह २२ विष्णुनंदी ४६ शमसुद्दीन अल्तमश (बादशाह) प. ३-१२६ विश्वनाथ (कविराज) १६,३१ शशिशेखर राजा १४ १३४ ४६ १७ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थप्रशस्ति संग्रह शिव 9 mm शान्ति कवि ६० श्रीपाल चक्रवर्ती ६७ शान्तिदास ६१ श्रीपाल ब्रह्म (प्राचार्य) १०६,१०७ शान्तिनाथ (१६ वें तीर्थकर) १११,१३० श्रीबालपुर शान्तिनाथ चरित्र १२४,प०३-१३७ श्रीमालकुल शान्तिषण श्रीमती (सिंहल द्वीपकी राजपुत्री) शाबर श्रीवल्लाल (मंत्री जाहड नरेन्द्र) भारङ्गधर श्रीषेण लिभद्र (जीव उद्योत कर्ता) ६५,७६ श्रीसेना (रानी) शाहजहाँ (बादशाह) १२६,१२७ श्री हर्ष (हर्षवर्धन राजा व कवि) ५०,६३,६८,७२ शिवकुमार श्रुतिकीति ६३,१२२,१२३,१३६ शिवकोटि मुनीन्द्र श्रतकीर्ति (भट्टारक) प०२-१३७ श्रुतसागर (ब्रह्म) १२१,१३४ शिवक्षस (साहु) श्रेणिक (राजा) २०,५६,५७,८६,१०० श्रृंगारदेवी शिवदेवी (रानी) शिवनंदि शृंगारमती (राजकुमारी) ६८ शिशुनागवंश शृगारवीर महाकाव्य प०३-१३८ श्वेताम्बर ७६ षट्कर्मोपदेश १६,१०१ शुभचन्द्र ६३,९८,१२६,१३० षड्दर्शन प्रमाण प्रत्य ७६,६० शुभचन्द्रदेव १२८ षोडशकारण जयमाला १०२,१११ शौरसेन १२ संकशा १२६ शौरीपुर ८९,९१,१२९ संघदासगणी बबल बेल्गोल ७७ संघसेन श्रावकाचार दोहा १२१ संतिणाह चरिउ १७,१२३,१३०,५०३ १३८ श्रीकीर्ति ६३,७७ संतुपा (माता वीर कवि) श्रीकुमार ८० ७२,९१,९८,१२२ संदेशरासक श्रीकृष्ण १९,२६,३१ श्रीचन्द्र १६,३५,५१,६१,६२,६३,१२४ संभवरगाह चरित्र श्रीचन्द्र (पुत्र सा० नेमचन्द) संभवनाथ (तीसरे तीर्थकर) प०३-१३७ श्रीदत्त ७६ श्रीधर (श्रेष्ठी) ६८,७०,८६,८७ संसारचन्द (पृथ्वीराजसिंह) ८६,१३० श्रीधर कवि १६,८५,९२,५०२-१३७,१० ३-१३८ सउराजही (पत्नी ज्ञानचन्द) , १२४ श्रीधर ६३,१२८ सकलकीर्ति (भट्टारक) ३१,१३४ श्रीपर (पुरवारवंशी सेठ) ११६ सकलचन्द (भट्टारक) १२५ श्रीपाल (राजा) १०२,११४,१२६ सकलविधि विधान काव्य ५०,५१,५२ शुभकीति सुभकर ७३ संतोष ८७ संभरी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मंदिर ग्रन्थमाला ५७,१२५ ४६,६८ प० ३-१४० १२८ प०२-१३७ - १२४ १०४ ६२,७६ १२४ २७,१२१ प०३-१३६ १६,३१ ..१०२ ११९ सती सीता १०० सागरचन्द्र सनत्कुमार चरित्र ६५ सागरदत्त (सेठ) सन्धि-काव्य २४ सागार धर्मामृत टीका सपादलक्ष (सांभर) ७५ साधारण (ब्रह्म) समन्तभद्र (पाचार्य) ५०,५१,६३,८१ साधारण साहु समदो (पत्नी जितमल्ल) १२४ साधारण समयसार साधारण (श्रावक द्वितीय पुत्र ज्ञानचन्द) समयसार (सेनगणकारंजा भंडार) ११२ साधु समाधिरास समरसिंह ८६,१३० सांभर समराइच्च कहा ११,२५ सामंतसिंह (चावडावंशी राजा) सम्मइजिन चरिउ ८२,९२,९३,१०३,१०६,१०७,११० सारंगसाहु (प्रथम पुत्र ज्ञानचन्द) सम्मत्त कउमदि १३ सावय धम्म दोहा सम्मत्त गुण निधान (हाण) ६३,६७,१०७,११० सावसमल्ल (देवपाल) सम्यकत्व कौमुदी १०२,१०६,१११,१३७ साहित्य दर्पण समुद विजय (राजा) ६ साहु बाहु सम्मेद शिखर १२४,१३० साहुल श्रेष्ठी सयलविहिविहारण कब्ब १६,४७,४६,७७ साहुल (पिता लक्षमण कवि) सरस्वती कंठाभरण सरस्वती गच्छ ८६,११८,१२१,१२३,१२८,१२६,१३० सिंगल (सिंगल) सरस्वती देवी सिद्धचक्र कहा सरस्वती नदी सिद्धचक्र माहात्म्य (श्रीपाल कथा) सरहपा (बौद्ध सिद्ध) सिद्धचक्र का पाठ सर्वनन्दि सिद्धचक्र विधि सलखणपुर (मालव देशमें स्थित ग्राम) ५० ३-१३८ सिद्ध सिद्धपाल सवण वारसि कहा १११ सिद्धसेन सहजपाल (गोपाचलवासी साह ११२ सिद्धसेन (भविक विनोद कर्ता) सहजपाल (साहु) सहणपाल १२४ सिद्धर्षि (९६२) सहदेव (साहु) ८१,९३,९४ सिद्धांतसार (प्राकृत) सहदेवी ६५ सिद्धांतार्थसार सहसराज ६६ सिन्धु (पश्चिमोत्तर प्रदेश) सहसाम्रवन (शेषावन) ८६ सिन्धु सौवीर (पश्चिमोत्तर प्रदेश) ६३,९५,१३० सिंह भद्र ४३ सिंह (कवि) १०४ साहुजी २३,९५ १०२,११० ७२ १३६,१४० ४७,७६,८१ ६५ ६८,६९,९३,६४ सिद्धार्थपुर १२६ १६,१११ सहखकीति सहस्त्रार्जुन ५०,५१ ७२,७३,७४ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थप्रशस्ति संग्रह १६७ २१,२६,७१,७२ ७१,९६,६७ ६,९,१०,१२९ ६१,९२ प०३-१५२ प०३-१४० १०२ ६५,७६ सुमब्बा ४५ १०,१८ सिंहनंदि मुनि (अनुप्रेक्षा कर्ता) ७६ सुरसुन्दरी चरिमं सिंहनन्दी ५०,५१ सुव्रतानुप्रेक्षा रास सिंहपुरी प० १-१६६ सुलक्षणा (धर्मपली कृष्णादित्य) सिरिपाल चरिउ ६३,१०२,१२६ सुलोयनाचरिउ (चरित्र) सिहरदि (नगर) १२६ सुलोचना सिंहल (गोत्र) ६३ सुहडप्रभ (श्रेष्ठी) सिंहलद्वीप १७,१९,२५,३५,३७,६८ सुहडा देवी सिंहसेन (प्राचार्य) १०६ सूर्पट सीता २३,४१,९६ सूरसेन देश सीतासुत १२६,१२७ सूरसेन सेठ सीमंधर (राजा) १०१ सूरा (बुध) सीवाही (पत्नी साधारण) १२४ सूरिसेन मुणि सील्हा १३१ सूरिसेन सीहल्ल ५६ सेउ साहु सेढु कवि (पउमचरिउ कर्ता) सुकमाल चरिउ (चरित्र) २१,६३,८३,८,१०६ सेरिणय चरिउ सुकमाल (श्रेष्ठी) ८८ सेतुबंध सुकमाल सामिरास सेनवंश सुकोसल चरिउ ६२,६५,११० सोखवई विहान कहा सुगंध दशमी कथा ११८,१२०,१२५,१३१,१० १२-१४० सोढल (साहु) सुगंध दहमी कहा १११ सोढुल साहु (पुत्र अमृतपाल) सुजड साहु सोणपाल (पहराज पुत्र) सुदंसण चरिउ १६,१६,२१,२२,२३,४७,६५,१०२ सोरिणग (सोता साहु) २३,४८ सोगिग साहु सोता (संघाधिप श्रावक) सुधर्म मुनि ५६ सोनागिर (तीर्थक्षेत्र) सुनपत (नगर) सुनीतिकुमार चटरजी १३,३७ सोमदेव सुप्पटु प०२-१३७ सोमदेव प्राचार्य सुप्रभाचार्य सोम प्रभाचार्य सुप्रभादेवी सोमराज सोमशर्मा (पत्नी मार्य वसु) सुभाषितरत्नविधि सोमश्री सुमित्रा सोभादेवी (माता साहु नेमचन्द) सुरजन साहु सोमेश्वर (कवि) ३४ ११८ ७८,८४,१०६ ८८ ८६,१३० १२६ सुदर्शन सुदर्शन चरित्र ५२ ६,६१ सोमकीति १३४ ७६,१३४ १८,६९ सुभद्रा १११ टि. प०३-१३७ ७६ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मविर ग्रन्थमाला १२४ सोहिल्ल ७५ हरिसिंघ २८ सोलंकी (वंश) ६६,७६ हरिषेण ११,५२,५३,१०३,१०७ सोबह कारण वय कथा हरिषेण चक्रवर्ती ११३ सोऽहं युदि १०२ हरिषेण (बुध) सोहिल्ल (४ वा पुत्र साधारण) हरिश्चन्द्र वर्मा (महाकुमार) १०३-१३९ १०० हरिसिरि १२,१२५ सौभाग्यदेवी सौराष्ट्र (देश) ५,३१ हरिसिंह मुनि सौरिपुर (तीर्थ) ८० हरिसिंह स्वयंभू (कवि) ६,१४,१६,१६,२६,३१,३६,४१,४४,४५ (डा०) हर्मन जैकोवी __ ५१,५२,५३,६३,६८,७२,७६,८४,६५,६७,१२४ हल्ल (कवि हरिचन्द) ८५,८६,१३० स्वयंभू छन्द ३५ हल्लग स्वयंभूदेव ३६,३७,४७,६०,१०३,१३२ हल्लण श्रावक हजारी प्रसाद द्विवेदी ३३ हाल (कवि, सतसई कर्ता) हटा (तहसील मध्यप्रन्तका एक गांव) प०१-१३६ हलिय हम्मीर हस्तिनापुर (मगध देश का एक नगर) हम्मीरदेव हस्तिनागपुर (मेरठ जिला) ७१,१२४ हम्मी वीरु ४५,६८,८४ हिन्दी महाकाव्यों का स्वरुप विकास हर देव (कवि) ११३,११४ हिमालय (पर्वत) हरदेव हिरण्य गर्भ हरसी (साहु) ६६,१०२,१०६ हिसार । ८२,६३,९४,१२६,१२७ हरसोडा (गाँव) प०३-१३९ हिसार कोट १२५ हरिचन्द (कवि, अग्रवाल) हीययान (बौद्धों का एक सम्प्रदाय) हरिदेव हीरालाल एम०ए० १२३,१३४,१३५,१०१-२३६ हरिदेव (प्रथम पुत्र कृष्णादित्य) हरिनन्दि (मुनीन्द्र) हरिभद्र १३,२५ हेमकीति हरिभूषण १२८ हेमकीति माचार्य १११ टि. हरियाना (देश) ८४,८५ हेम (पुष नागदेव) हरियास (हरिदास) ११६ हेमचन्द्र । ७,११,१३,१६,९२ हरिराज ८० हेमचन्द्र (पाचार्य) २६,३०,३१,३७ हरिराय ३७ हेमदेवी हरिवंश १९ हेमराज (साहु) ८२,६९,१०१ हरिवंश पुराण ३,१७,२१,४६,४७,६४,८१,८२,८३,६७ हेमराज साह (मंत्री मुबारिक शाह) ९८,११०,११२, १० २-१३७ होलिवम्म ८६,९६ ११३ होलु २९ ६३ हुसैन शाह ८७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची संख्या विषय पृष्ठ संख्या विषय १ पउमचरिउ स्वयंभू १ ३३ अमरसेन चरिउ माणिक्यराज २ रिट्टणेमिचरिउ स्वयंभू २८ नागकुमार चरिउ , ३ सुदंसण चरिउ नयनंदी ३५ सम्मइ जिन चरिउ कवि रइध ४ पास पुराण पद्यकीर्ति ३६ सुकोसल चरिउ ५ धम्मपरिक्खा बुध हरिषेण ३७ पासणाह चरिउ ६ जंबूसामिचरिउ वीर कवि ३८ पउमचरिउ ७ कहा कोसु श्रीचन्द ३६ मेहेसरचरिउ ८ रयणकरंडसावयायार श्रीचन्द ४० सम्मत्तगुणणिहाण ६ सुकमाल चरिउ विबुध श्रीधर ४१ रिटुणेमि चरित १० हरिवंश पुराण धवल कवि ४२ घणकुमार चरिउ ११ छक्कम्मोवएस प्रमरकीति ४३ जसहर चरिउ १२ पुरंदरविहारण कहा ॥ ४४ अणथमी कथा १३ जिनदत्त चरिउ पं० लक्ष्मण ४५ अप्पसंबोह कब्ध १४ सुलोयणा चरिउ कवि देवसेन ४६ सिद्धतत्त्व सार १५ पज्जुण्ण चरिउ कवि सिद्ध व सिंह ४७ वित्तसार १६ पासणाह चरिउ कवि देवबंद (चन्द) ४८ पुण्यासव कहा १७ सयलविहिविहाण कव्व नयनंदी ४९ जीवंधर चरिउ १८ अणुवय रयणपईव पं० लक्ष्मण ५० सवणवारसि कहा भ० गुणभद्र १६ बाहुबलि चरिउ धनपाल ५१ पक्खवइ कहा २० चदप्पह चरिउ यशःकीति ५२ प्रायास पंचमी २१ पंडवपुराण ५३ चंदायण पय कहा २२ हरिवंश पुराण ५४ चंदण छट्ठी कहा २३ जिनरत्तिविहाण कहा , ५५ दुग्धारस कहा २४ रविवउ कहा , ५६ णिद्द ह सत्तमी कहा २५ पासणाह चरिउ कवि श्रीधर ५७ मउडसत्तमी कहा २६ वडुमारण कन्व हरिइंद ५८ पुष्कंजली कहा २७ भविसयत्त कहा श्रीधर ५६ रयणत्तय कहा २८ संभवरणाह चरिउ . कवि तेजपाल ६० दहलखणवय कहा २६ वरंग चरिउ , ६१ प्रणंतवय कहा ३. सुकमाल चरिउ मुनि पूर्णभद्र ६२ लद्धिविहारण कहा ३१ ऐमिणाह चरिउ अमरकीति ५५ ६३ सोलह कारण वय कहा ३२ मिणाह परिउ लक्ष्मण कवि ५६ ६४ सुगंध दहमी कहा , १०१ १०३ au . w . . १०३ १०४ . . . . . . Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख्या ६५ प्रणतवय कहा ६६ प्रराहणासार ६७ हरिसेणचरिउ विषय वीर कवि ६८ मयण पराजय कवि हरदेव ६९ सिद्धचक्र कहा नरसेन ७० प्रणत्थमिय कहा हरिचन्द ७१ चूनड़ी रास ७२ णिज्भर पंचमी कहारास मुनि विनयचन्द ७३ कल्याणकरास 27 ७४ सोलवर विहाण कहा विमलकीर्ति ७५ चन्दण छुट्टी कहा लाखू या लक्ष्मण ७६ हि सत्तमी कहा मुनि बालचन्द ७७ दुद्धारस कहा मुनि बालचन्द ७८ रविवय कहा नेमिचन्द ७६ सुगंध दसमी कहा ८० मुक्तावली कहा " ६२ दुद्धारस कहा ६३ रविवय कहा ६४ तियाल चडवीसी कहा ६५ कुसुमंजली कहा वेक्खा रासो जल्हिगि ८१ ८२ बारस प्ररणुवेवखा रासो पं० योगदेव ८३ प्रणुवेक्खा दोहा लक्ष्मीचन्द ८४ श्रणुवेक्खा प्रल्हूकवि ८५ हरिवंशपुराण श्रुतकीर्ति ८६ परमेट्ठिपयास सारो "1 " ८७ संतिरगाह चरिउ महाचन्द ८८ मयंक लेहा चरिउ भगवतीदास ८६ श्रजियपुराण पं० विजयसिंह ६० कोइल पंचमी ६१ मउड सत्तमी कहा ब्र० साधारण " "3 " 11 11 पृष्ठ १०५ १०५ १०६ १०६ १०६ १०७ १०८ १०६ १०६ १०६ १०६ १०६ ११० ११० ११० ११० ११० १११ १११ १११ १११ ११२ ११३ ११६ ११७ ११६ १२० १२० १२० १२१ १२१ संख्या ६६ गिद्द सि सप्तमी कहा ६७ रिज्झर पंचमी कहा विषय ६८ प्रणुवेक्खा EE सिरिपाल चरिउ रइधू 11 १०० पासपुराण कवि तेजपाल १०१ सिरिपाल चरिउ दामोदर रइधू ا" 21 १०२ पासचरिउ कवि प्रसवाल १०३ संतिनाह चरिउ १०४ मल्लिरगाह कव्व जयमित्तहल १०५ वडमाण कहा नरसेन १०६ सम्मत्तकउमदी १०७ जोगसार श्रुतकीर्ति १०८ मउड सत्तमी कहा १०६ सुगंध दहमी कहा, ११० स्वयंभू छन्द स्वयंभूकवि प० नं० १ १११ भविसयत्तकहा धनपाल पुष्पदन्त "1 शाह ठाकुर ११२ महापुराण ११३ जसहर चरिउ ११४ गायकुमार चरिउ 11 ११५ करकंडु चरिउ प० नं० २, मुनिकनकामर ११६ आदिपुराण पुष्पदन्त ( लिपि प्रश०) ११७ भविसयत कहा विबुध श्रीधर, १२१ संतिरगाह चरिउ शुभकीर्ति १२२ मिरगाह चरिउ दामोदर भगवतीदास ११८ हरिवंशपुराण श्रुतकीर्ति ( लिपि प्रश० ) परिशिष्ट नं० ३ ११६ रोहिणी विधान कथा देवनन्दि १२० वडमारण चरिउ विबुध श्रीवर १२३ सुगन्ध दसमी कहा भ० विमलकीति १२४ पुप्फंजलि कथ १२५ मेघमाला वय कहाँ अनन्तकीर्ति गुरु कवि ठकुरसी पृष्ट १२१ १२१ १२२ १२२ १२४ १२६ १२८ १२६ १३१ १३२ १३२ १३३. १३५ १३५ १३६ १३७ १३८ १३६ १४१ १४२ १४४ १४५ १४६ १५० १५० १५० ३५१ १७६ १७६ १७६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह (आद्यन्तादिभागसं चयात्मक) १- पउमचरिय [ पद्मचरित्र ] महाकवि खयंभु आदिभाग:महाव-कमल-कोमल मणहर- वर- बहल कंति सोहिल्लं । उसहस्स पायमकमलं स-सुरासुरवंदियं सिरसा ॥१॥ दीहर- समास गालं सहदलं अत्थकेसरुग्धविय ं । बुद्द महुयर - पीयरसं सयंभु- कम्युप्पलं जयउ ॥२॥ धत्ता - जे काय त्राय-मये च्छिवि, जे काम कोह- दुरणय तिरिय एक्क-मणेण सर्वभुषण, वंदिय गुरु परमायरिय ॥ ... बुहयण सयंभु पह विण्णवद्द, म सरिस गुणत्थि कुकइ । वयर कयाविण जाणियउ, उ वित्तित्तु यवखाणियउ ॥ याउ पञ्चाहारहो तत्ति किय, उ संधि उपरि बुद्धि थिय । उ सुिणिउ सत्त विहसियाउ, छविउ समास - पउत्तियाउ ॥ छक्कारय दस लयार ण सुय, वोसोवसग्ग पच्चय बहुय । या बलाबल - घाउ शिवायगणु, उ लिंगु उणाइ वक्कु वयणु ॥ उ शिसुगिउ पंच महाय कम्बु, गाउ भरहु या लक्ख छन्दु सम्बु । उ बुज्झिड पिंगल परथारु, ... 1 वड्ढमाण-मुह - कुहर - विणिग्गय, रामकहा- यह एह कमागय । अक्सर - वास- जलोह· मणोहर, सु-अलंकार छन्द मच्छोहर ॥ दीह समास - पवाहावकिय, सक्कम -पायय- पुलिग्णालंकिय । देसी भासा - उभय-तडुज्जल, कविदुक्कर - सह-सिलायल ॥ श्रथ बहल कल्लोलाणिट्ठिय सासय-सम-तूह परिट्ठिय । एह राम कह-सरि सोहंती, गणहर-देवहिं दिल बहंती ॥ पच्छ इंदभूइ प्रायरिए, पु धम्मेण गुणालंकरिए । उ भम्मह दंडियलंकारु । वसा तो विउ परिहरमि, वरि रगडायुक्त कः करमि ॥ ... *** । इय एत्थ पउमचरिए धणं जासिय सयंभु एवकए जिण - जम्मुप्पत्ति इमं पढमं चिय साहियं पव्वं ॥ अन्तिमभाग - पु एवहिं संसारा, कित्तिहरे गुत्तरवाए । रविसेायरि पसाए', बुद्धि अवगाहिय कराए । तिहुयण-सयंभु- गवरं एक्को कहराय - चक्कियुप्परयो । पउमचरियस्स चूडामणि व सेसं कथं जेण ॥१॥ कइरायस्स विजय-लेसियस्स वित्थारिश्रो जसो भुवये । तिहुयण- सयंभुणा पउमचरिय सेसेा विस्सेसो ॥२॥ तिहुयण-सयंभु- धवलस्स को गुणो वरिण जए तरह । बाले विजेण सयंभु- कब्बभारो समुब्बूढो ॥३॥ वायरण दढक्खंधो भागम-भंगोपमाय-वियडपत्रो । तिहुया सयंभु- धवलो जिए - तित्थे वह कन्वभरं ॥४॥ उमुह-सयंभुवाण वरिणयत्थं अचक्खमाणेण । तियण - सयंभु रयं पंचमि चरियं महच्छरियं ॥ ५ सब्वे वि सुया पंजर सुयव्व पढिचक्खराइँ सिवखति । पर्म' - जयाणि गम्भ· संभूप, म. रुपवरून अणुराए । अतएण पईहरगत, छिब्बर- यासें पविरल दंखें । पत्ता- विम्मल - पुण्य- पवित्त-कह- कित्तणु धाढप्पड़ । जेण समाविज्जंतरच थिरकिन्ति विडप्पा ॥२॥ कइरायस्स सुयब्व सुइगम्भ· संभूय ॥६॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तिहुयण-सयंभु जइ ण हुतु गंदणो सिरि सयंभुदेवस्स । कव्व कुलं कवित्त तो पच्छा को समुद्धरद्द ॥७॥ जइ ण हुउ छ दचूडामणिस्स तिहुयणसयंभु लहु तणउ । तो पढडिया कन्वं सिरिपंचांम को समारे ॥८॥ सव्वो वि जणो गेरहइंणियताय-वित्त दव्व-संताणं । तिहुयण-सयंभुग्गा पुण गहियं णं सुकइत-पंताणं ॥१॥ तिहुया रूयभुमेक मोत्ता सयंभुकन्व-मयरहरो । को तरह गंनुमंतं मझे णिस्सेस-सीसाणं ॥१०॥ इय चारु पोमचरियं सयंभुवे रहय सम्मत' । तिहुयण- प्रभुणा तं समाणियं परिसमत्तमिणं ॥ ११॥ मारुय सु - सिरिक राय ताय-कय-पोमचरिय अवसेसं । संपुरणं संपुरणं वंदश्रो लहउ संपुरणं ॥ १२॥ गोद-मया सुयांत विरइयं (?) वंदइय-पढमतणयस्स । वच्छलदाए तिहुयण संयंभुणा रहयं महत्पयं ॥ वंदय याग- सिरिपाल पहुइ-भन्त्रयण-समूहस्स । श्रारोगत समिद्धी संति सुहं होउ सम्बस्स ॥ सत्त महा संसग्गी तिरयणभूसा सु रामकड़ करणा । - तिहुयण - सयंभु- अणिया परिणउ चंदइय मरणतणउ ॥ इय रामायण पुराण समत्तं सिरि- विज्जाहर-कंडे संधीचो हुति वीस परिमाणं । उज्झाकडंमि तहा बावीस मुणेह गणणाए ॥ दह सुंदरकंडे एक्काहिय वीसजुज्मकंडेय | उत्तरकंडे तेरह सन्धीओ व सव्वाउ ॥ छ ॥ - लिपिकार-प्रशस्ति संवत् १२१४ वर्षे वैशाख सुदि. १५ लोमबार ग्रन्थ संख्या १२००० । २- रिट्ठमिचरिउ [ हरिवंश पुराण ] - महाकविस्वयंभू, आदिभागः सिरि परमागम-णालु सयल-कला- कोमल-दलु | करहु विसणु करणे जयत्र कुरुव- कुलुप्पलु ॥ X X X चितवइ सयम्भु काई कर मि, हरिवंस - महरण के तरम्मि । गुरु- वयण- तरंड लधु णवि, जम्मही विण जोइउ कोवि कवि || गाउ गाइड पाइन्तरि कलाउ, एक्कु विण गंधु परिमोक्कलाउ । तहिं श्रवसरि सरसह धीरवद्द, करि क दिणु मइ विमलमइ । इंदेण समप्पिड वायरणु, रसु भरहें वासे वित्थर । पिंगले छन्द-पय- पत्थारु, भम्म-दडिरिहि अलंकारु । वाणेण समपिड घण घणउ,तं अक्खर - डंबरु अप्पणउ । सिरिहरिसे यि णिउत्ताउ अरहि मि कहिं कत्तणउ । छणिय दुबइ-धुवएहिं जडिय - चउ मुद्देण समपिय पद्धडिय । जण याद जो रियए, सीए सब रियए । • पारंभिय पुणु हरिवंस कहा, स-समय पर समय विचार-सहा । " घत्ता -- पुच्छइ मागहणाहु, भव- जर मरण-वियांरा । थिउ जिण सास केम, कहि हरिवंस भंडारा ॥२॥ X x x इय रिgfमचरिए धवलइयासिय सयंभु एवकएं पढमो समुहविजयाहिसेयरणामो इमो सग्गो ॥१॥ अन्तिममाग: इह भारह पुराण सुपसिद्धउ, ऐमिचरिय- हरिवंसाइन्छ । वीर - जिसे भवियहो क्विड, पच्छ गोयमसामिण रक्खिउ | - सोहम् में पुणु जंबूसा में, farहुकुमारें दिग्गयगा । दिमित्त अवरजिन गाहें, गोवणेण सुभद्दवाहें । एम परंपराई अलग्गउ, आयरियह मुंहाउ श्रात्रग्गड 15 सुसंखेव सुहारिड, विउसें सब में गहि वित्थारड, पढडिया छन् सुमंणोहरु भवियण जगा. मग सब- सुहंकरु, जस परिसेसि कहिं जं सुरयाउ । तं तिहुयण संयंभु कि पुण्यर, सुपुपि भरग्निहित Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनथ-प्रशस्तिसंग्रह पिय-जसु णिय-जसु भुषणे पसाहिउ, इत्थ सुदंसण-चरिए पंचणमोकार फल-पयासर गय तिहुयण-सयम्भु सुरठाणहो । माणिकणंदि तइबिज्ज-सीसु-यणंदिणा रइए असेस जं उन्बरिउ किंपि सुणियाणहो। सुर संथुयं णवेवि बड्ढमाणं जिणं तउवि पट्टणं गरयतं जसवित्ति मुणिहि उद्धरियउ, पच्छियो पञ्चयं समोसरण संगयं महापुराण-अाउत्थणं इमार : णिए वि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ । कय पढमो संधि सम्मनश्रो । संधि : णिय गुरु-सिरि-गुणकित्ति-पसाए, अनिमभाग:-- कि परिपुण्णु मणहो अणुराए । जिणंदस्प वीरस्स तिन्थे महंते। सरह सेणे (सहससेण) सेठि-पाएसें, महा कुंकुंदएणए एत संते । . कुमर-णयरि प्राविउ-सविसेसें । ससिक्वाहिहाणो तहा पोमणंदी। गोवगिरिहे समीवे विसालए, पुणो विण्हुणंदी तबो दिर्णदी पणियारहे जिणवर-चेयालए। जिणुदिट्ठ-धम्म धुराणं विसुद्धो। हो। सावयजणहो परउ वक्खाएउ, कयाणेय गयो जयंते पसिद्धो। .... दिदु मिच्छत्तु मोहु अवमाणिउ । भवांबोहि पोश्रो महाविस्सांदी . . जं अमुणंते इह मई साहिउ, खमाजुत सिद्धतउ विसहरणेदी ॥.. तं सुयदेवि खमउ अवराहउ । जिणिंदागमाहासणों एय-चित्तो। एंदउ परवइ पय-पालन्तहो, तवायारणिट्ठाय लवीय जुत्तो। . . णंदउ भवियण-कय उच्छाहतो। परिंदामरिंदहि सो णंदवंदी। . . णंदउ परवइ पय-पालंतहो, हुो तस्स सीसो गणी रामणंदी ॥२॥ : वंदउ दय-धम्मु वि अरहंतहो । असेसाण गंथम्मि पारम्मि पत्तो, .. कालं वि य णिच्च परिसक्कउ, तवे यंग बीभब्य राईव मित्तो। कासुविधणु कणु दितु ण थक्कउ । गुणावास-भूओ सु-तेलोक्कणंदी। भदवमासि विणासिय-भवकलि, महापडिऊ तस्म माणिक्कएं दी । ... हुउ परिपुण्ण चउद्दसि णिम्मलि (तइविज्ज सीसो कई णयणंदी,) . घत्ता--इय 'वउविह सप्पह, बिहुणिय-विग्घह, भुयंगप्पहाऊ इमो णाम छंदी ॥३॥ णिण्णासिय-भव-जर-मरणु । घताजसवि.ति-पयासणु, अर्खालय-सासणु पढम सीसु तहो जायउ जगविक्वायउ मुणि यणंदीप्रणिंद पयडउ संतिसयंभु जिणु ॥१७॥ इय रिट्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभुएब-उब्वरिए । चरिउ सुदंसण णाह हो तेण प्रवाहहो विरइउ बुह अहिणति तिहुवण-सयंभु-रहए समाणियं कण्हकित्ति हरिवस ॥१॥ पाराम गाम-पुरबर-णिवेस। गुरु-पव-वासभयं सुयणाणाणुक्कसं जहां जाय। सुपसिद्ध उ.वंतीणाम. देस॥४॥ सयमिक्क-दुदह-अहियं सन्धीयो परिसमत्तानो ॥२॥ सुरवइ-पुरिव्व विबुहयण इह। इति हरिवंशपुराणं समाप्त । सन्धि ११२ तहिं अस्थि धारणयरी गरिन्छ । ३-सुदंसणचरित्र(सुदर्शनचरित)नयनंदो रचनासं०११०० रण दुद्धरु अरिवर सेलवज्ज । 'आदिभाग:-.. . रिद्धिए देवा सुर-जणिय-चोज ॥१॥ हमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो पाइरियाणं । तिहुवण णारायण सिरिणिकेउ । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहणं ॥१॥ तहिं णरवर पुंगमु भोयदेउ । .. "इह पंच मोकार लहेवि गोवहु बउ-सुदंसणु । मणि-गण-पह-दूसिय-रवि-गभस्थि । गठमोक्खहो अक्खमि तहो चरिउ बचड वग्गपयासणु ॥ तहिं जिणहरु बद्ध-विहार अस्थि ॥६॥ . णिव विक्कम कालहो ववगए। ...... विभागमा हामो ना सञ्च Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोरसेवामन्दिर-मन्थमाला एमारह संघच्छर-सएसु। पत्ता-रिसि गुरुदेव पसाए कहिउ असेसुविचरितु मई। तहिं केवलि चरिउ प्रमयच्छरेण । पउमकित्ति मुणि-पुगवहो देउ जिणेसह विमलमई ॥ णपणंदी-विरयउ वित्थरेण । जइवि विरुद्ध एवं णियाएबंध जिणेद-उक्समए । जो पहइ सुणइ भावइ लिहेइ। तहं वि तहय चलण कित्तणं जयउ पउमकित्तिस्स ॥ सो सासय-सुहु अहरे लहेइ । रइयं पासगुराणं भमियापुहमी जिणालया पिट्ठा । पत्ता-रायणंदियहो मुणिंदहो कुवलयचंदहोणर-देवा सर बंदहो। एहिय जीविय-मरणे हरिस-विसाम्रोण पसास्स॥ देउ दिणमह हिम्मलु भवियह मंगलु वाया जिणवर इंदहो॥ सावय-कुलम्मि जम्मो जिणचरणाराहणा कहत। एत्थ सुदंसणचरिए पंचणमोक्कार-फल पयासयरे एयाइ तिगिण जिणवर भवि भवि (महु) होड पउमस्स ॥ माणिक्कणंदि-तइविज्जसीसु-णयणंदिणा रहए गइंद, णव-सय-एउवाणुइए कत्तियमासे अमावसी दिवसे। परि वित्थरो सुरवरिंद थोत्ततहा मुणिंद सहमंडवंत-सुविमोक्ख लिहियं पासपुराणं करण णामं पउमस्स" वासे ठामे गमणमो पयफलं पुणो सयल साहणामावली इमाण सधिः अष्टादश ॥१८॥ इति पार्वनाथचरित्र समाप्त कय वएणणो संधि दो दहमो सम्मत्तो छ। संधि १२ ५-धम्मपरिक्खा (धर्मपरीक्षा) बुध हरिषेण ४-पासपुराण (पार्श्वनाथपुराणं) पद्मकीर्ति रचनाकाल सम्बत् १०४४ रचनाकाल सOR आदि भागः आदि भागः सिद्धि-पुरंधिहि कंतु सुद्ध तणु मण-वयणे । चउवीस वि जिणवर सामिय, भत्तिए जिणु पणदेवि चिंतउ बुह-हरिसेणें ॥ सिव-सुह गामिय पविवि अणुदिणु भावें । मणुय-जम्मि बुद्धी किं किज्जइ, पुणकहं भुवण पयास हो, मणहरु जाइ कब्बु ण रहजा। पयडमि पास हो जणहो मज्म सहावें ॥3॥ तं करंत अवियाणिय पारिस, अन्तिम भागः हासु लहहिं भड रणि गय-पोरिस ॥ अट्ठारह संघिउ इय पुराणु, तेसट्टिपुराणे महापुराणु । च उमुह कब्व-बिरयणि सरंभुबि, सय तिरिण महोत्तर कडवयाई,णाणाविह छंद सुहावयाई ।। पुल्फयंतु अण्णाणु णिसुमिवि । तेवीससयई सेवीसयाई, अक्खरहं कहमि सविसेसयाई। तिरिण विजोग्ग जेण तं सीसइ, इउ एत्थु सत्थु गंथह पमाणु फुडु पयडु असेसु वि कय पमाणु॥ चउमुह-मुहेथिय ताव सरासह ।। सुपसिद्ध महापहु णियमधर ॥ जो सयंभू सो देउ पहाणउ, माथुरहं गच्छिउ पुहमिभरू। मह कयलोयालोय-वियाणउ। तहो चन्दसेणु णामेण रिसी, पुएफयंतु णवि माणुसु खुषह, बब-संजम णियमइ जाउ किसी ॥ जो सरसइए कयावि ण मुबह ॥ तहो सीसु महामहणियमधारि, ते एवंविह हडं जडु माउ, गयवन्तु महामइबम्भचारि । तह छन्दालंकार विहूणउ। रिसि माहउसेणु महाणुभाउ, पार्श्वपुराणकी अन्तिम प्रशस्तिके बेचार पवारंवा जिणसेण सीसु सुणु तासु जाउ ॥ भण्डारकी सं० १४७३ की लिखितमें नहीं पाये जाते, मा तहो पुग्व सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णु सीसु जिणु जासु चित्ति। रचनादि सम्बत्को लिए हुए होनेके कारण इस प्रसहितको ते जिणवर-सासर-भाविएण,का-विरहय जिणसेणहोमएण॥ यहां स्थान दिया गया है। गारवमय-दोस-विवज्जएण, अक्खर-पय-जोडिय लज्जिएण। -लेखकने भूलसे भामेर भण्डारकी पकिनच. कुकात विजणे सुबहत्त, होह, जई सुवाई भावह एत्य लोह ॥ वाक्योंको उक्त चार गाथाओं के ऊपर दे दिया है से मिली 'अम्हांकुकाइहिं किंपि बुत, खमिएम्बड सुपबहोतं णिरुत्त । गल्तीका परिणाम जान पड़ता है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमन्व-प्रशस्तिसंग्रह [ ५ कम्बु करंतु केम णवि लजमि, तणंदाह ज लिहइ लिहावइ, सह बिसेस पिय जणु किह रंजाम || ते संदहि जे भत्तिह भावहि । तो विजिणिव-धम्म-अणुराएँ, जे पुणु के बिहु पढहि पढावहि, हसिरि-सिद्धसेण-सुपसाएँ। ते णिय-पर-दुहु दूरे लुटावहि ॥ करमि सयं जि एलिणि-दल थिउ जलु, एयहो प्रत्थु के वि जे पयडहिं, अखहरेह णिरुवमु मुत्ताहलु ॥ ताण णिरंतर सोक्खहि सुहडहिं । पत्ता-जा जयरामें पासि विरहय गाह-पबन्धि । जे णिसुणेवि परिक्खा भत्तिए, साहम्मि धम्मपरिक्ख सा पददिया-अन्धि ॥१॥ ते जुज्जहि हिम्मल मइ सत्तिए । सयल पाणिवग्गहो दुहु हिज्जा, इस धम्मपरिक्खाए चउवागःहिट्टियाए वित्ताए हहरिषण सोम समिविए महि सोहिज्जा । कए पल्मो सन्धी परिसमतो ॥ संधि ॥ परहिय करणि विहंडिय-अंहहो, अन्तिम भाग: होउ जिणत्तणु चउबिह संघहो । इह मेवाड-देसि-जण-संकुलि, पयडिय बहु पयाव अरिवार, सिरिजहर-णिग्गय-धक्कड-कुलि । एंदउभूवह सहु परिवारें। पाव-करिंद-कुम्भ-दारण हरि, धम्म पवत्तणेण दुह-हारें, जाउ कलाहि कुसलु णामें हरि ॥ यंदउ पय बहुबिह-ववहारें। तासु पुत पर-णारि-सहोयर, पत्ता-संखए दुसहसु साहिउ सदरिया हिउ इउकह रयणु भगव्वह।। गुणगण-णिहि कुल-गयण-दिवायरु । जो हरिसेण धराधर उयहि गयणधर ताम जणउसु-भव्वहं । गोवड्ढणु णामें उप्पण्णउ । इय धम्म परिक्खाए चउबग्गाहिट्ठियाए बुह-हरिसेण जो सम्मत-रयण-संपुएबउ ॥ कयाए एयरसमो संधि समतो ॥ सन्धि ११ ॥ तहो गोबड्ढणासु पिय गुणवइ. जो जिणवर-पय णि वि पणबह । ६-जंबूसामिचरिउ [जंबूस्वामीचरित] कविवर वीर ताए जणिड हरिसेणे णाम सुउ, रचनाकाल संवत् १०७६ जो संजाउ विबुह-का-बिस्सुउ । आदिभाग:सिरि-चित्तहु चहवि प्रचलउग्शे, विजयंतु वीर-चरणग्गि-चंपए मंदिरंमि थरहरए । गवउ-णिय-कजें जिणहर-पउरहो । कलसु छलंतं तोए सुतरणि-लग्गत-बिंदु-छंकारा ॥१॥ तहिं छंदाजकार-पसाहिय, सो जयउ जस्स जम्माहिसेय-पय-पूर-पडुरिज्जतो। धम्मपरिक्ख एह ते साहिय ।। जणियहि मसि हरिसको कणयगिरि राइनो तइया ॥२ जे मज्मस्थ-मणुय प्रायरहि, जयउ जियो जस्सारुण-णह-मणि-पडिलग्ग-चपखु सह सक्खो। • ते मिच्छत्त भाउ अवगएणहिं । अणिइच्छिय सम्वावदुयवस्थ-परिकलिय-लोयणो जाम्रो ॥३॥ ते सम्मत्त जेण मलु खिजइ, समिरसु अवेय भामिय जोइसगण-जणिय-रयणि-विणि-संक। केवलणाणु ताण उप्पजइ ॥ इय जयउ जस्स पुरो परिचयं चारु सुरवाणा ॥॥ बचा-सहो पुणु केवलणाणहोणेव-पमाणहो जीव पएसहिं सुहडिउ, सो जयउ महावीरो माणाणल-हुणिय-रह सहो जस्स । बाहावी प्रवड प्राइसपर्वतउ मोक्ख-सुक्खु-फलुपयरियड ॥ णामि फुरद भुषणं एक्कं एक्खत्तमिव गयणे ॥२॥ विक्कमणिव-परिवत्तिय कालए, जयउ जियो पासदिव्य णमि-विणमि-किवाण-फुरियपडिविंबी गपए परिस सहस पडतालए। गहियाणं रूव-जुयलोव ति-जय-मणु सामियो रिसहो ॥६॥ इस उमण भविवजय सुहबरु, जबड सिरिपासणाको रेहह जस्संग शीलमाभियो। .. हम-पहियामासक्-सापर। प्रमियो सहि लिहिय शब-यशोग्य मणि-गम्भिहो पाकरप्पो Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाल इह अस्थि परम-जिण-पय-सरणु, प्रविय:गुडखेड विणिग्गउ सुहचरणु ॥१॥ सेटिठ सिरि तक्खडेणं भणियं च तो समस्थमाणेण । सिरिलाइबग्गु तहि विमल जसु, वनइ वीरस्स मणे कइत्त-करणुज्जमो जेण ॥१॥ कइदेवयत्तु निबुड्ढ कसु । मा होंतु ते कईदा गरुय पबंधे वि जाण निम्बूढा । बहु भावहिं जे वरंगचरिउ, रसभाव मुग्गिरंती वित्थरई न भारई भुवणे ॥२॥ पद्धडिया बंधे उद्धरित। संतिकई वाईविहु वएणुक्करि सेसु फुरिय-विण्णाणो कवि-गुण-रस-रंजिय-विउस सहं, रस-सिद्धि, संठियथो विरलो वाई कई एक्को ॥३॥ . . विस्थारिय सुद्धय वीरकह। विजयंतु. जए कइणो जाण वाणी अट्ठ पुब्बाये । भवरिय-बंधि विरइउ सरसु, उज्जोइय धरणियलो साहइ वटिव णिबडई ॥४॥ गाज्जा मंतिउ तारु जसु । जाणं समग्ग.सद्दो हज्झे हुउ रमइ मइ फडक्कम्मि । नच्चिज्जइ जिण-पय सेवयहि, ताणं पिहु उवरिल्ला . कस्स व बुद्धी परि फुरई ॥५॥ किउ रासउ अचादेवि यहि । इय जंबुस्वामिचरिए सिंगार वीर-महाकव्वे महाका सम्मत्त-महा-भर-धुर-धरहो, देवयत्त-सुअ-बीर-विरहए सरिणय-समवसरणागमो णाम तहो सरसइ-देवि लद्ध-बरहो। पढमो संधि ॥१॥ नामेण वरु हुड विणयजुनो, अन्तिम प्रशस्ति:संतुव गभब्भ पढमसुनो। तरिसाण सय-चउक्के सत्तरि-जुत्ते जिणिंद-वीरस्स। घत्ता-अखलिय-सर-सक्कय, कइकलिवि आएसिउ सुउ पियरें। णिब्वाण' उच्चएणे विक्कमकालस्स उप्पत्ती ॥१॥ पायय पब वल्लहु जणहो, विरइज्जउ किं इयरें॥५॥ विक्कम णिव कालाश्रो छाहत्तरि दस-सएसु वरिसाणं । अह माहवाम धण-कण दरसी, माहम्मि सुद्ध-पक्खे दसमी-दिवसम्मि संतम्मिः ॥२॥ नयरी नामेण सिंधु-बरिसी। सुणियं पायरिय - परंपराए वीरेण वीर णि हटें । तहिं धक्कड़-बग्गे वंस-तिलउ, बहुलत्थ-पसत्थ-पयं पवरमिणं चरियमुद्धरियं ॥३॥ मह सूयण णंदणु गुणणिलउ । इच्छे (इठे) दिणे मेहवण-पट्टणे घड्ढमाण, जिण-पडिमा णामेण सेठि तक्खडु वसई, तेणा वि महा कइणा वीरेण पर्याट्ठ-या पवरा ॥४॥ जस पडहु जातु तिहुयणि रसई। बहुराय-कज्ज-धम्मत्थ-काम-गोट्ठी-विहत्त समयरस । मह कइ देवदत्त हो परम सुही, वीरस्स चरिय • करणे इक्को संवच्छरो लग्गो ॥५॥ तें भणिउ वीरु-वय सुवण-दिही । जस्स कय-देवयत्तो जणणो सच्चरिय-लद्धमाहप्पो । चिरु कइहि बहुलगंधुद्धरिउ, सुह-सील सुद्धसो जणणी सिरिसंतुआ भणिया ॥६॥ संकिल्लहिं जंबुसामिचरिउ । जस्स य पसरण बयणा लहुणो सुमइ स सहोयरा तिरिण । पडिहाइ न वित्थरु अज्जु जणे, सोहजनकरणंफा जसइ-णामेत्ति विक्खापा ॥२॥ पडि भणइ वीरु सकियउ मणे ।। जाया जस्स मणिहा जिणवह पोमावइ पुणो बीया । भो भब्यबंधु किय तुच्छ कहा, लीलावइत्ति तइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ रंजेसह केमवि सिट्ठ सहा। पढम कलत्त' गरुहो संताण कइत्त विउवि वारोहो । एत्यंतरे पि सुणसीह सरहो, ‘विणय-गुण-मणि-णिहाणो तणउ तह ऐमिचंदो त्ति। तक्खडु कणिटु बोल्लइ भरहो । ... सो जयउ कई वीरो बोरजिणंदस्स कारियं जेण । : .. वित्थर संखेवहु दिग्व मुणी, पाहाणमयं भवणं पियर सेण मेहवणे ॥६॥ गुरु पारउ अंतरु बीरु सुणी। - अह जयउ जस्स णिब्वासो जसणाउ पंडिजति विक्खायो । त्तिा-सरि-सर-निवाणु-ठिउ बहु विजलु,सर सुन तिहमणिज्जा वीर जिणालय सरिसं चरियमिणं कारियं जेणाः ॥१०॥ धोवउ करयत्थु विमलु जणेण,हिलासें जिह पिज्जा ॥१॥ इति.जंबूसामिचरियं समत्त ।.. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ - कहा कोसु ( कथाकोष ) श्रीचन्द आदि भाग नम पण चित्त थवेवि द्वादस दो । लोयत्तय बंदु देउ जितेंदु ग्राहासमि कहको || पण निगु सुबिसुद्ध मई, "चित मणि मुणि सिरिचंदुकई । संसार असार सog थिरु, पिय पुत्त - मित्त माया तिमिरू ॥ संपय पुगु संप गुहरइ, खण दीस खणि पुणु ऊसरइ । सुविणय समु पेम्मु विलासविही, देहु वि खणिभंगुर दुक्खतिही ॥ जोन्वणु गिरि बाहिरिण वेयगड, लागु वरागु कर सलिल सउ । जीव जल-चय फेण लिहू, हरिजालु वरज्जु अज्ज गिहु ॥ श्रवरुवि जं किंपिवि श्रत्थि जणे, तं तं घाहिन् पलाइ खणे । इंदिय सुहु सोक्खाभासु फुड, जद्द णं तो सेवइ किरण पहु || जैन ग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह धत्ता - इय जाणि त्रि णिच्चु सव्यु प्रणिच्चु, म विसएसु ण खिंचिउ । दादिगुण उ चिरागु, तेणप्पा एउ चिउ ॥ बहु दुक्खे जिउ बलि चिज्जगु मुयं मय हो पचि ण जाइ घणु । बंध-गु लज्जइ पो सरह, सुहु सत्थभूतामणुसरइ ॥ सह भूउ साया जो पोसियड, सो देहुवि दुज्जण विलसियउ । उजाइ समता केम बरू, वसु-पुत्त-कलत बंधु- गियरू ॥ श्रममइ सुहासु केवलउ, परभव पाहुण्यहो संबलउ । वावारु करइ सव्वाण कए, अणुवह दुक्खु पर एक्कु जए ॥ घता : राणियंतिणियंत श्रयाणमणा, पर पुरिसु पलोयइ सवर्णियणा ॥ इय पुत्थि विपत पुराण पविस े, दिज्जइ सई विलसिज्जइ । एत्तिउ फलु थे जणिमान्थे, जं दुस्थिमणि वइज्जइ ॥ · X X X अन्तिम प्रशस्तिः X ७ सर्वज्ञ शासने रम्ये घोरायोध-विनाशने । धर्मानेक-गुणाधारे सृस्थे सुरसंस्तुते ॥ १ ॥ अणहिल्ल पुरे रम्ये सज्जनः सज्जनोऽभवत् । प्राग्वाटवंश - निष्पन्नो मुकारत्न-शताप्रणीः ॥ २ ॥ मूलराज - नृपेन्द्रस्य धर्मस्थानस्य गोष्ठिकः । धर्मसार - धराधारः कूर्मराज-समः पुरा ॥ ३ ॥ वृष्णनामा सुतस्तस्य गुणरत्न महोदधेः । बभूव धर्म-कर्मण्ये जनानां मौलिमंडनं ॥ ४ ॥ निद्रान्वय- महामुका-मालायां नायकोपमः । चतुर्विधस्य संघस्य दान-पीयूष वारिदः ॥ ५ ॥ श्वकाजयती तस्य कृष्णस्येव सुभद्रिका | राणूनाम प्रिया साध्वी हिमांशोरिव चन्द्रिका ॥ ६ ॥ तस्यां पुत्रभयं जातं विश्व- सर्वस्व भूषणं । बीजासाहपालाख्यो सोढदेवही स्तृतीयकः ॥ ७ ॥ चतस्रश्व सुतास्तस्या धर्म-कम्मैककोविदाः । श्री शृंगारदेवी च सूः सोखुरिति क्रमात् ? ॥ ८ ॥ कलिकाल - महान्याल - विष व्यालुप्त चेतसः । जैनधर्मस्य संपन्ना जीवास्तु स्तत्र सुंदका ॥ ६ ॥ महाश्रावक कृष्णस्य संतानेन शुभात्मना । व्याख्यायितः कथाकोशः स्वकर्म- यहेतवे ॥१०॥ कुन्देदु निर्मले कुंकुंदाचार्यान् वयेऽभवत् । धम्मू : स्वयं वा श्रीकीर्तिनामा मुनीश्वरः ॥ ११ ॥ तस्मात्तमोपहः श्रीमान्स प्रभावोऽति निर्मलः । श्रुतकीर्तिः समुत्पन्नो रत्नं रत्नाकरादिव ॥१२॥ विद्वान्समस्तशास्त्रार्थ- विचारचतुराननः । शरच्चन्द्रकराकार - कीर्तिव्याप्त - जगत्त्रयः ॥१३ व्याख्यातृत्व कवित्वादिगुणहंसकमानसः । सर्वज्ञ शासनाकाश शरत्पार्वण- चन्द्रमाः ॥१४॥ गांगलवार रात का गर्ने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर प्रन्थमाला = 1 भव्य पद्माकरानन्दी] सहस्रांशुरिवापरः । aat गुणाकरः कीर्ति सहस्रोब पदोऽजनि ॥ १६ ॥ कपूर- पूरोज्ज्वल- चारुकीर्तिः सर्वोपकारोयत चितवृत्त । शिप्यः समाराराधित वीरचन्द्रस्तस्य प्रसिद्धो भुवि वीर्य चन्द्रः १७ सूरेश्चारित्र - सूर्यस्य तस्य तत्त्वार्थयेदिनः । विवेक वसति विद्वासोऽस्य श्री चन्द्रोऽभवत् ॥ १८ ॥ भव्य प्रार्थनया ज्ञात्वा पूर्वाचार्यकृतां कृतिः । पत्ता - सो सिरिश्चंद सुरिंद फणि रिंद बंदिव अक्खय सुक्ख णिवासु होइ देव परमप्पड ॥३० इय पंडिय सिरिचंदकए पयडियकोडहलसर सोहनमान पव्वत्तए परितोसिय-बुह चित्राए दं. एकहर यह दंड मिच्छत्त-पउहिं तिरंडिए कोहाइ- कसाब- विहंडए सत्थम्मि महागुण- मंडए देव-गुरु-धम्मायण- गुणदाम-पबासयो ग्राम पढमपरिच्छेच समत्तो ॥ संधि १ ॥ अन्तिम भाग: T परमार वंस-मह गुण उदयई । कुंदकुंदाइरियहो भाई । देसीगण पहाणु गुण गणहरु, अबद्दण्णउ गात्रइ सइ गणहरु | तव पहा वि भाविथ वासउ, धम्मभाव विहिय पावासउ । भव्वमणो खलियाय दिसरु, सिरिकित्ति तिसु चित्त मुखासरु ॥ तासु सीस पंडिय- चूडामणि, सिरि-गंगेय- पमुह पउरावणि । पोलत मिय सुइया सरोरु कुमुखि, उंहुलिया मब गयण सहासकुसल ॥ वरस पसरय - साहिय महियलु, गियमहत्त-परिणिज्जिय- वाहयलु । चडविह-संघ महाधुर-धारण, दुसह - काम-सर-घोर - शिवारण ॥ धम्मु व रिसिवें जल रूवड, सिरि-सुकिन्तिणाम संभूयउ । तासु वि परवाइय-मय-भंजणु, गाणा बुहयणर्माया अनुरंज ॥ चारु-गुणोहर-मण-रयशायरु, चाउरंग-गण- वच्छलय यरु । इंदिय चंचल मयहं मयाहिड, चउकसायसारं गमिगाहिउ ॥ सिरिचंदुज्जल-जस संजायड, शामें सहसकिन्ति विक्खायड । घन्ता-तहो देव इंदुगुरु सीसु हुड, बीयर वासव मुणि बीरिंदु ॥ उदय कितीवितहा तुरिय, सुहइंदु वि पंचम भाव उ । तेनायं रचितः सम्यक् कथाकोशोऽति सुन्दरः ॥१३ यत्र स्खलितं किंचित् प्रमाद वशतो मम । तत्क्षमंतु क्षमाशीलाः सुधियः सोधयंतु च ॥२०॥ यावन्मही मरन्मयी मरुतो मंदरोरगाः । परमेष्ठी पावनो धर्मः परमार्थ- परमागमः २१॥ यावत्सुराः सुराधीश: स्वर्गचन्द्रार्क - तारकाः । तात्काव्यमिदं स्याद्रीचन्द्रोज्जल - कीर्तिमत् ॥२२॥ ८ - रयण करंडसाव्यायार (राम कर रहश्रावकाचार ) पण्डित श्रीचन्द्र, रचना काल सं० १९२३ श्रादिभाग: सो जयड जम्मि जिणो पढमो पढमं पयासिउं जेण । कुईसु पढंतायां दिवयांकर - लंबणा धम्मो ॥१॥ सो जय संतिणाहो विग्धं सहस्साइं णाममिया । जस्सा वहत्थिऊणं पाविज्जह ईहिया सिद्धी ॥२॥ जयउ सिरि वीरइंदो अकलंको अक्खनो णिरावरणो । म्मिल केवलणाणो उज्जोइय सयल- भुवणयलो ॥३॥ सिद्धिवि विजय बुद्धि तुट्ठि पुट्ठि पीयंकर । सिद्ध सरूव जयंतु दिंतु चउवीस वि तित्थंकर ॥४॥ धत्ता - प्रवरवि जे जिणइंदा सिद्ध-सूरि पाठय वर । संजय साहु जयंतु दिंतु बुद्धि महु सुंदर ॥१॥ पण वेष्पिणु जिण वयसुग्ायाहें विमलई पयाई सुयदेवया । दंसण-कह-रयरणकरंडुणामु श्राहासमि कन्बु मोहिरामु । एक्केक पहाणु महा मइल्ल इत्थस्थि अणेय कई बहल्ल । हरिगंदि मुदु समंतभद्द, अकलंक पयो परमय-विम । मुम्बइ कुलभूस पायपुज्ज, तहा विज्जाणंदुधरांत विज्ज वध ? रसेणु महामह वीरसेगु जिरणसेगु कुबोहि - विहंजसेणु गुणभद्दवणंकुह उच्छमल्लु सिरि सोमराउ परमय-स- सल्लु च उमुह चउमुहु व पसिद्ध भाई कहराइ संयंभु सर्वभुणाई । तह पुष्यंतु गिम्मुक्कदो वरिगज्जइ किं सुयएवि कोसु । सिरिहरिस का लिया साई सार, अवरुवि को गणइ कहाकार । ही हिं मह संपइ आरिसेहिं किं कीरह तर्हि अम्हारिसेहिं । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्ति-मंग्रह जो चरण कमल प्रायम पुराण, पाउत्तई बहु साइम-समाणु ॥ पाइरिय महा-गुण-गण-समिद्ध, वच्छल्ल-महोवहि जय पसिद्ध । तहो वीरइंदु मुणि पंच मासु, दूरुज्झिय-दुम्मइ, गुण-णिवासु ॥ सउजएण-महामाणिक्क-खाणि, वय-सीलालंकिउ दिव्व-वाणि । सिरिच'दु णाम सोहण मुणीसु, संजायउ पंडिय पढम सीसु॥ तेणेउ अणेय छरिय-धामु, दसण-कह-रयण-करंडु णाम्। किउ कम्वु विहिय-रयणोह-धामु, ललिगक्खर सुयणु मोहिरामु जो पढइ पढावइ एयचित्तु, संलिहइ लिहावइ जो शिरुत्तु । प्रायण्णा मरगाह जो पसाधु, परिभावह अह-णिसु एउ साधु । जिप्पड ण कसायहिं इंदरहि, तोजिय इह सो पासंडिएहि ॥ वहो दुक्किय कम्मु असेसु जाइ, सो लहर मोक्ख-सुक्खई भवाई। जिगणाह-वरण-जुय भत्तएण, अमुणते कम्वु करंतएण। जंकाई वि लक्खण-छंद-हीणु, जह मत्त तुत्तउ मह अहिय-हीषु । पत्ता- खमड सव्वु जण णमिय, सुय-देवय भएणार मह॥ जमि पुज्जणिज्ज सिरिचंदमई, वह य मडारी विउसमह । एयारह तेवीसा बाससया विक्कमस्स महिवाइयो। जहया गया हुवइया समाधिए सुदरं वयं । करणणरिंदहो रजसुहि सिरि सिरिबालपुरम्मि बुह । चालुपुर महि सिरियंदे एड कर मंदडपच्यु जयम्मि ।। अबउ जिसवरू जपङ जिधम्म वि जबर जब जबड स्पा संबइ सुईकर। पणवत हा मव्वयण कुण्ड जयहो सा सुह परंपर । दाण पुज्ज दय-धम्म-रय सच्च सउच्च वि चित्त । भव जयंतु सया सुयण बहगण परहिय चित्त । जयउ गरवह णाम गयणेत्तु पयपालउ धम्मुरउ । सयणबंधु परिवारि सहियड णिण्णासिय विउणु जणु । जण शियय पियकम्मि विहियड पच्चयउ मेइणि सई हवड । परिसर देक्सया वि कित्ति धम्मु गणरह जयउ जसु खंडण ह कयादि । जाम मेइणि जाम महणइड कुल-पन्वय जाम तहिं। जाम दीव गह रिक्ख-गह पालइ मायम सयल । जाम सग्गु सुर बियरु सुरवह जाम रायणु चंदु-रवि । जंजिणधम्मु पसत्यु ताम जणउ सुहुमम्बयणि जयउ एहु जड़ सत्यु । जो सम्बणु तिलोयक्इसिद्ध सहा मंड। ताम जणउ सुहु भग्वणि दसणकह रयणकरंद। इति श्री पंडिताचार्य-श्रीचन्द विरचिते रत्नकरण्डनाम शास्त्र समाप्तम् । -सुकमालचरित (सुकुमानचरित) विबुध श्रीधर रचना सं० १२०० पादिभाग:सिरि पंच गुरुहं पर कबह पविवि संजय समय है। सुकमालसामि कुमरहा परिड पाहासमि भम्वयण हैं। एक्कहिं दिखे मन्बमब-पिवारए, बलाइबामे गामे मणहारए। सिरि गोविंदचंद शिव पालिए, अब हयारयकर -बालिए! दुर्गाखव बारहनिबवर मंडिए, विमर्मविरे बाबा , Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाना भब्वयणहाच दुारड हरत। इयासार सुकुमालसाम मबाहरचारए सुदरयर र करवायीए पुहेण अणिदे, स्यय णियरस भरिए विदुह सिरिमुका-सिरिहरविरहए । पोमसेण गामेण मुणिदे। पीये पुत्त कुमरगयामंकिए अग्गिा -बाउभूह-सूरमित्त मेल भासिड संति प्रणेयई सत्थई, पण वयगणो णाम पठमो परिच्छेनो समतो ॥१॥ मिण सासणे अवराई पसत्थई। अन्तिममाग:पर सुकमानसामिया मालहो, मासि पुरा परमेटिहि भत्तड, करसह मुह विवरिय परवालहो। चडविचार दाण अणुरतड । चारु चरित महुँ पडिहासह वह, सिरिपुरबाड-वसमंडण चंधड, गोवरु बुहयणमण हरण विजह । णिय गुण गियरायंदिय बंधउ । तं णिसुणे वि महियले विक्खाएं, गुरु भत्तिय परणमिय मुणीसर, पयडसाहु पीथे तणु जाए, हामें साहु जग्गु वणीसर, सलखण जगणी गम्भुप्पगणे, वहो गल्हा पामेण पियारी, पउमा भत्तारेण रवयणे । गहिणि मण इच्छिय सुहयारी। सहरसेण कुबरेण पउत्तर, पविमन सीजाहरण विहूसिय, भो मुणिवर पई पाणड जुत्तड। सुह सज्जण बुहण्णा पसंसिय । तं महु अग्गा किरण समासहि, ताहे गणुरुहु पीथे जायउ, विवरेविण माणसु उत्खासहि। जण सुहया महियले विक्खायउ । ता मुणि भणइ वष्य जाणिसुणहि, भवतु महिंदे बुच्चइ बीयर, पुन्व-जम्म-कब दुरियई विहुणहि । बुहयणु मणहरु विकत तड्पड । जल्हणु णामें भणि चडत्थड, धत्ता-अमस्थि विणिरुसिरुहरु, सुबह तमचरित विरयावहि । पुण वि सलक्खणु दाग-समत्थर । इह रत्ति वि कित्तिणु तव तणउ सुहु परस्थे धुउ पावहि ।। बटर सुर संपुण्णु हुभाउ बह, ता भएणहि दिणि तेण कहल्ले, समुदपाल सत्तम भयउ वह। जिणमणियागम सत्य रसल्लें। भट्टा सुतण्यपालु समासिड, कई सिरिहरु विणएण पडत्तर, विण्याइय गुण गणहि विहूसिड । तुहु परियाणिय जुत्ता जुत्तउ । पढमहो पिय थामेण सलक्खण पुर'बुहु हियय सोक्स-विधारणु, लक्षण-कलिय-सरीर-वियखण। भवियण मण चितिय सुहकारणु । वाहे कुमरु णामेण तारुहु, जह सुकमालसामि कह सक्सहि, बापट मुहपहपहप सरोरुह । विरएविशु महु पुरउ ण रक्खहि । विणय-विहूसण भूसिउ कायड, ता महु मणहु सुक्खु पाइप लाइ, मय-मिच्छत्त-माण-परिचतड । तंणिसुणेवि भासइ सिरिहरु कह पत्ता-णाणू प्रबह बीयर पवन कुमरहो हुम पर गेहिणि । पउमा भणिया सुप्रणहिं गणिय जिण-मप-पर बहुगेहिणि । भो पुरवाड़-पंस सिरिभूषण, तहे पाल्हणु णामेव पहूपर, . धरिय-विमन-पम्मत्त विहमण । परम पुत् मयण-सरूवट। एक्कचित हो एवि भायणहि, बीयड साल्हणु जो जिणु पुज्जा, अपर पुडि मा अवगरवाहि । . जसु स्वेण व मणहरू पुज्जा । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंपर १‍ अप्पा किं भयामि हरी कम्पयरो सायरो- सुरसेखो । तयड वले भणि वि जाणिज्जह, बंधव - सुथाहिं सम्माणि । तुरियड अब सुपटु । में, णं णं अप्पपर्ससा परविंदा गरहिया खोये ॥ ५ ॥ अप्पा जेण धुवं बुद्धिविहीरोय बिंदिय तेण । पुक्कार वह जो पहायरो पायो तह वि ॥ ६ ॥ जो जोडद्द विग पथा विसुद्धा जिखबरेहि जह भणिया । सिरु दरसिउ कामें । एयहं ग्रीसेसई कम्मक्खड, जिणमयर महं होठ दुक्खक्खउ । या ते चि सरसो भवियायण वच्छलो तह वि ॥ ७ ॥ सुन्दर भवियां पिसुरण चढक्काय भब्वजणसूलं । age धवले कथ' हरवं स-स-सोहां कन् ॥ ८ ॥ अस्थसार उदो सपरि मुक्कु, प्रयायाणिप्याइयउधवलु कम्बुमयोहरु एहु कसिउ सविग्रक्खयहि, करहु कवण जण गुणमहायरु ॥ १ ॥ जिणखाइहोकुसुमंजलि देवखु, गिम्भू मरणगुणिवर पण वेप्पि । पवर परिय हरिवस कवित्ते, अप्पट पर्याडिड सुरहो पुत्ते ॥ १० ॥ x x मज्भुविए जि कज्ज या घराणें, चहु संघु महीयलि दउ, जिवर पथ-पंकय एवं ढड । ख हु आउ पिसुणु खलु दुज्जणु, दुट्ट दुरासद सिंदिय सज्जणु । एउ सत्थु मुणिवर पढिज्जड, भतिर भविणेहिं पिसु णिज्जड । जाम याहं गणि चंद-दिवायर, कुल गिरि-मेरु-महीयल - सायर | पीथे बंसु ताम अहिद, सज्जया सुहि मचाई अदि । बारह सयहं गयई कय हरिसई, अट्टोत्तरं महीयले वरिसई । कसा पक्खे अग्गइये जाए, X कई चक्कव पुग्वि गुणवंत, धीर धर ?) सेणु होतंड सुपसिद्धउ । HT पुग्णु सम्मत जुत सरागड, जेण पमाणगंथु किड चंगड | देवदि बहुगुण जस भूसिड, जे वायर जिरिंदु पयासिठ । वज्जसुउ सुपसिद्ध सुणिवरु, य-पयागु- गंथु किट सुरु | मुमसे सुजोय जेण, पउमचरिउ सुणि रविसेणेण । जिससे हरिवंसु पवित्त, afe मुणो वर गचरन्तु । विज्ञ दिवसे ससिवार समायए । घचा -- बारह सयई गंधह कयई पडिएहि र-वया जय-मय-दर-सु-विरधरखु एड सत्थु संपुण्य इस सिरि सुकमालसामि मयोहर चरिए सुदर पर गुणयासियरसभरिए विवुहसिरि सुकइ सिरिहर विरहए साहु पोधे पुत्त कुमार यामंकिए सुकुमा वसामि सम्वत्य-सिद्धि गमयो याम छट्ठो परिच्छेद्यो समत्तो ॥ संधि ६ ॥ । ॥ १३ दिणय से चरि भणंग हो, पउमसेणे प्रायरिय पा बहो १० - हरिवंस पुराणु (हरिवंश पुराण) धवलकवि आदि भाग:कोयाय दोहावं ये मि-दली-कह-केसर सुसोहं । मह पुरिस तिसद्विदवं हरिवंस सरोरुह जवठ ॥ १ ॥ से जे अमियारा, विरहय दोस विवज्जिय सोहलु । जिय चंदप्पह चरिउ मणोहरु, पाव-रहित धरणयन्त सु-सुंदरु | मि किम एमाइ बहुसई, विहुसेण रिसिएव चरिचहूं । हरि-हुवाथ कहा चडमुह वासेहिं भालियं जह या । सह विरयमि लोब पिया जेय गं यासह इंसयां पढरं ॥ २ ॥ सीइदि गुरुबे अणुवेा, पर देवें गवयार सुबेहा । विस-मीसिब वरवीरं जह सा चारित खंडियारी । rone इंसय महयं मिच्छत्तकः वियं कथं ॥ ३ ॥ जह गोतमेव भणियं सेखियराए पुष्क्रियं जह था । अह जिसे कम वह विश्वमि किंपि उहे ॥ ४ ॥ सिद्धसेगु जे ए धागर, भविय विलोय पपासिय चंगढ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ 1 वीरसेवामन्दिर -ग्रन्थमाला रामशीद जे विविध पहाया, जिया सासवि बहु-नय-कहाणा । असगु महाकइ जे सु-मयोहरु, बीर जिरिंग चरिउ किड सुंदर । केसि य कहमि सुकइ-गुण-शायर, गेय कव्व जहिं विरइय सुंदर । सणक्कुमारु जे विरयड मणहरु, कइ गोविंद पवरु सेयंवरु । तह वक्खड़ जिरण क्लिय सावट, जे जय धवलु भुवणि विक्वायड । सालिद कय जीउ देउ, खोए च उमुह दोण-पसिद्धउ । एक्कहि जिया सासये अच्छलियड । सेतु महाइ जम्मिलियड । पउमचरिउ जि भुवणि पयासिड, साहु परेहि परवर िपसंसिउ । हुउ जहु तो वि किंपि धम्भासमि, महियले जिसिय बुद्धि पयामि । घसा सहस किरण रद्द वे विगय णिचडे वि तिमिर असेसु पणासहिं । यस मणि दीवज जइविसु थोबडतो वि उज्जोवि पयासहिं ॥३ X X X X मूले कहि इहु वीर जिरिंदु, पुण गोत्तमेण सुधम्मु मुंगिंदु । जंबूसामि विवि रसए दिमित्त प्रवरज्जिय कए । गोबद्ध वह बहुमुखि, तह विसाहु पोट्ठिलु खत्तिउ मुयि । जय वह याग सु सिद्धत्यु, धिइसे माइत्थु । विजयहो बुद्धिलं गंगदेव हो, धम्मसेरा क्खन्तमुदिहो । जयपालो पंडो धुवसेणहा, कंसारियो तव सुभद्दहो । जयभद्दहो वह पुणु जसभंदहो, सत् हु लोहाइजहो । पुकमे बहु गय सुहाय हो, हू सत् य जिसेणहो । घता जिणसे पुल इह उज्जोयड, 'बसे रिसिया महु ढोयड । एवह हरं भवियहं पयासमि, पदर अत्यु असेसुवि दरिसमि । बालो विद्रो वि तिहs सुहेब, सुक्खु विविड वीसु बुझइ जेा । एहु जिस वयणु पराइड कम-कम गड पुणु पवित्सु । सुिह पावपणास भवियहु बहुगुणु अविचलु-धरिविणु चित्तु ॥२॥ मह विप्पो सूरहो यांदणे, केसुल्ल उपरि तह संभवेण । जिणवरहो चरण भरतएव, ग्गिंथ रिसिय भत्तएव । कुतिरथ कुधम्म विरसरण, यामुज्जलु पयड वहंता । हरिवंसु सबलु सुतलिय इएहिं, महं विरयड सुट्टु सुहावएहिं । सिरि बसेणु गुरवेण जेम, वक्खाणि किड अणुक्रमेय तेया । सज्जया मुणे वि बहुगुण भांति, जया परचोकिङ दोस लिति । इहु बुट्ठहं खलई सहाउ को वि, लाए वि दोस यिद्दोस हो वि । जे खाहि पियहिं धणु बिवांत, अप्पाड समन्ता खल भयति । जेवि वि बिसंचहि त्थु केवि, तिट्ठाउ खुल्लाहिं खलहि तेवि । वक्लाहिं जाहिं जे पद्धति, वायर हुया ते भवति । जे विविध सत्ये ये सुर्याति देवि, जसु सुक्ख व सक्खा भयहिं ते वि । सहहि महंत जे संति पर, ते युच्चहिं ललहिं असक्कार । जे परिहिता सहि पोरुलेय, परजंडा युच्चर्हि खलययेय । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह जे माय विसावहिं णियपडषि, तहुदुक्कर ए अपणुको वि। जो उवहसित ण तेहिं असुरेहि सोहउ भुवाण देखमि । पउरवबहंदेविणुरिसिय णवेविणु जणणिसुणहु कह अक्खमि ॥ अन्तिम भाग जिणचक्क-हरी-बबएव जेवि, चडवरण मंगल दंतु तेवि । रोइड हरंतु सुत वित्थरंतु, सग्गा-पवग्ग-पह-पायतु । मह बुद्धि विहूणे कहिट जंजि, जिणमुहणिग्गय महो खमड तंजि मुरिणदेव पसाएण अबुहएण, पिटुत्तणि जंपिड जंपिएण । छंदालंकारें जं विहीण, महु दोसण दीवड बुद्धिहीणु। जह बालुय जंप जेमतेम, तह एण तिणिय भत्तीवसेण । जिणसेण सुतु पेक्खेवि एहु, मह विरयड भवियहो पुणु बिलेहु जो को वि सुणइ एहुमहपुराण, हरिवंसणामु इच्छिय पहाणु मो लिहइ लिहावह को वि भन्यु, सग्गा-पवग्गु हो होह सम्वु हो एह विहव बहिराहु करण, अंधाहणेत्त पुत्त विकलत्त । समप्पह लोयह सयक्ष काल, जो भावह हरिकुज णाम मान । दे साह संति रायाहिराड, विहरंतु णेमिजिणु हरउ पाउ | पाउसु वरिसड गिय समय सासु, गिप्पज्ज सबलु महिपयासु "-छक्कमोवएस (षटकमोपदेश) अमरकीर्ति, रचनाकाल सं० १२४७ पादि भाग: परमपव-भायशुमुह-गुण-पावणु बिहणिय-जम्म-जरा-मरणु। सासव-सिरि-सुंदर पणय-पुरंदर, रिसाहुणविवि भविपण सरणु। x बह गुज्जर-विसयह ममिवेसु, पामेख महीय, बहु-पएस । गयरामर-पर-गामहि बिरुड, णाणा-पवार-संपह-समिछु । तहिं वह पथि गोदय णामु, णं सग्गु विधि सुरेस-धामु । पासायहं पंतिउ जहिं सईति, (वसति?)सरपन्भहु सोहा व बहंदि । धय-किकिणि कसाराबहिं समिति, हाँ कहासुरहं पाविय पसिदि। देसागप-खोवहिं जाय-पमोहि, जणियवि मणि मरियपर। एहि संकासड बच्छि-पवासट, यहण अण्णु परिणयड ॥४॥ तंचालुक्क वंसि पय-जाणड, पान कण्ह-परिंदु पहाण । जो बज्मतरारि-विदसण, भत्तिए सम्माशिय-बसणु। णिव-जंदिग्गदेव-तणु-जायड, खत्तधम्मु णं दरिपिय-काय । सयन-कान-माविय-णिव-विज्जड, पुहमिहि...विपत्थितहो विज्जट । धम्म-परोवयार-सुह-वाणई, लिच्च-महो सब बुद्धि-पमाणई। आसु रजिजणु एपह माणई, दुक्खु दुहिक्खु रोड व वियाणई। रिसह-जिणेसहो हि चेईहरु, गुसिहा-होहिउ णं ससहरू । जो चित्त बहारई पुण्णुवियाईणिसुबह भाषट जो सदा तहो पावणिवारणु सिव-सुहकारणु होडणेमि धवलुधि कहा ॥ इस हरिवंस पुराणं समत', Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ घता दसाय असु दुरउ विलज्जइ, पुराण-हेड ज जणि मयियज्जइ । वीर सेवामन्दिर - प्रन्थमाला श्रमियगइ महामुणि, मुणिचूणामणि, सितिस्थु समसील - धणु । कित्ति समत्थउ, विरय बहु-सरथड सगुणादिय-विवइ-मणु ॥ ५ ॥ गणि संतिसेगु तो जाट सीस, यि चरण-कमल-णामिय- महीसु । माहुर-संघाहि श्रमरसेणु तो हुड विड पुणु हय-सुरेणु । सिरिसे सूरि पंडिय पालु, तो सीसु वाइ-कायाया- किसाणु । पु दिक्खिड तो तबसिरिखिवासु, अस्थिया संघ बुद्द पूरियासु । परवाइ· कुंभ-दारण महंदु, सिरिचंद कित्ति जायड मुबिंदु । तो सहोयर सीसु जाड, मणि अमरकित्तिविहणिय पमाड । ग्रहणि सुकत विज्ञोय ली, जामच्छ - विह-सुब-पवीणु । तामयाहिंदिखि बिहियाबरे, गायर-कुल-गया- दिसरेण । चिणि गुणवालहं यदय, अवदिषयदाय पेरिय मयेय । पत्ता भब्वमय पहार्यो बुहगुण जायें, बंधवेव श्रणुजाय । सो सूरि पवित्तड, बहु विय्यत्त, भक्तिएँ अंब पसाई ॥ ६ ॥ परमेसर पहुं वरस - भरिड, विरहयड रोमि । हहोचरिउ । धविवरितु सम्वस्थ-स हड, पत् महावीरहो बिहिउ । सीड चरितु जसहर- शिवासु । पढडिया-बंधे किड पयास् । टिप्पण्ड धम्मचरिय हो पयड़, तिह विरइड जह बुज्मे जह । सक्कम-सिलोय - विही जाणिवदिही, गु फिड सुहासिब रयथा किही । धम्माव एस - चूडामायाखु, तो माण-पईड जि माय सिक्खु । छक्कम्मुवएसेंस पबंध, कय भट्ट संख सई सच्चसंध | सक्कय-पाइय कव्वय घणाई, अमराई कियहूं रंजिय-जयाई । पईं गुरुकुलु ताय हो कुलु पविन्तु, कसा कि महंतु । कड्या-वयणाम जेपियंति, अजरामर होइ त्रि से नियंति | जिद्द राम-पमुह सुरकितिवंत, कहमुह- सुदाइ पेच्छहि नियंत कइ सुटु काप्पापरु समग्णु, अक्खयत कर पसिद्ध गणु । घत्ता मंतोसहिं देवहं किय चिरसेवहं, धुब पहाट गहु सीसई परकाय-पवेसणु, किय-सासयतणु तिजिह क्रहिं पदीसह ॥ ७ महु माहासहि पणिय सम्मई, ग्रह काहों गिहि- छक्कम्मई । जाई करंतर भविय संच, दि िदिणि सुहु दुक्कवहिं विमुच्च । तेहिं विवज्जिड परभड भव्वहं, सुग्गा-गल-भय-समु गय-गब्बई (१) महंमदमूढें कि पिचितड, पुण्यकम् इव कम्मु पवित्तर | भव-कायणि भुल्हो महु अक्सहि, सम्म मग्गु सामिय मा बेक्खहि । अमरसूरि तवयणायंवर, test गिहि छक्कम्म वित्यरु । सुधि कण्हपुर वंस - विजयदय, थिरूवोहिय-मयरदय | पूयच देवहं सुह-गुरु बालखा, समय - सुद्ध-सम्झाय-पवासया । संजम-तव- दाई संगुराई, जिसबि छक्कम्मई बुराई । घसा-रब-सुख, सलाहिं चराउ, गुण-सील-तड-हणिय-मलु | Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनप्रन्ध-प्रशस्तिसंग्रह जो दिणि-दिण एयई करह विहेपई, मणुय जम्मु तहो पर सहलु ॥८॥ इयएफकम्मोवएसे महाका सिरि अमरकित्ति विहए महा कम्वे गुणपाल चिश्चिणिणंदण महाभब्य अंबपसायाशु ... मरिणए एक्कमणिण्णय वण्णणोणाम पढमो संधि समत्तो। मन्तिमभागः ताई मुणिपि सोहेवि णिरंतह, होणाहिउ विरुद्ध णिहियक्खरु । फेडेवउ ममत्तु भावतिहि, प्रम्हहं उप्परि बुद्धि-महतिहि । छक्कम्मोवएस बहु भवियहो, वक्खाणिग्वट भत्तिइंगवियहो। . अंबपसायइंचच्चिणिपुत्त, गिह-छक्कम्म-पवित्त-पवित्ने । गुणवालहु सुरण विरयाविठ, अवरेहि मिणियमणि संभाविउ । बारह सयई समत्त-चयालिहि, विक्कम-संवरह विसालाहिं। गर्हि मि भइवयहु पक्खंतरि, गुरुवारम्भि चउहिसि वासरि । इसके मासे महु सम्मत्तिड, सहं लिहियड भालसु प्रवहत्थिड । गंदर परसासण-णिण्णासणु, सयनकाल जिगणाहहु सासणु । गंदड तहवि देवि वाएसरि, जिणमुह-कमलुम्भव परमेसरि । गदड धम्मु जिणिदें मासिड, गंदर संधु सुसीले भूसिड। शंदड महिवह धम्मासत्तड, पय परिपालण-गाय-महंतड । गंदउ भावयणु हिम्मत-सणु, भक्कम्महि पाविय जियसंसणु । पंदर अंवपसाउ वियाखणु, अमरसूरि-बहु-संधु सुखक्खणु । यंदा अवध जिण-पय-भत्तड, विबुह-वग्गु भाविय-ययत्तह। पदर गिर तावहिं सत्यु हु अमरकिति-मुणि-विहिउ पयत्त । जावहि माहि मारुव-मेह-गिरि-याहयतु अंब पसायणिमित्त ॥ १८॥ इय एक्कम्मोवएसे महाकइसिरि-अमरकित्ति-विरहएमहाकग्वे महाभब्य चपसायाणु मरिणए तव-दाणपरगणोणाम चवदसमो संधी परिच्छेमो समतो॥॥ ॥संधि४॥ ११-पुरंदर विहाण-कहा (पुरंदर्रावधान कथा) अमरकीति मादिभागः परमप्पय भावणुसुहगुण पावण, णिहणियजम्म-जरा-मरणु। सासय सिरि सुंदर पणय पुरंदर, रिसहुविवि तिहुयण सरणु । सिरिवीर जिणंदे समवसरणि, सेणियराएँ पुण्याणिहि। जिणपूय-पुरंदर विहिकहि कहिउ तं, पाययणहि विहिय दिहि। अम्तिम भाग: अवराइमि सुरगिरि सिहरत्यई, तह संदीसर दीवि पसस्थई। जाह वि बहु सुरवर समवाएँ, महम सए कय दुदहिनाएं। यहाइ कि सुरतह कुसुमिहि अंचर, हिरवाहि पुण्णविसेसे संचा। जिण पूय पुरंदर विहि करइ एक्कवार जो एस्थ गरु । सो चंब पसाइड येह बहु अमरकित्ति तिय सेसह ॥ जिणदत्त चरिउ (जिनदत्तचरित) पं लक्ष्मण, रचनाकाल सं० १२७५ मादि भागः सप्पच सरकत हंसहो, हिवका सहो सेयंस वहा । भणमि भुमण करईसहो रणकलहंस हो यविवि जियहो जिरायत्त कहा। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेामन्दिर-प्रन्धमाला मुहु बहु पभणद कर फास जाणु, लक्खणहो सिरिहरुमरियमाणु । बहु भात कुणि वि मउलिय स-पाणि, दय किज्जड बंधव परमणाणि। इस पणवाव हय संसार-सरणि, पुरवाडवंस तामरस तरणि । बिल्हण सुरुह पाय स्य धाम, जिणहरु जिनमत पसिद्धबाम्। तहो आंदण गयणायद-हेड, णामेण सिरिहरु सिरिणिकेट । णिव गोतामर पंथो सहीसु, पणिणीह तरंगिण तीरिणीम्। दुग्वसण कसर भर समय-मेहु, प्रगतिन गडरउ गुख गरु भागेदु । परिवार भार धुर-भाग-धीर, विलसिय विलास सुरवर सरीरु। मुगि वयण कमल मयरंद भसलु, पवयण क्यचाहिब मुगव कुसलु । सो विलरामे खिवसंतुमंतु, तह शिवसह लक्खणु सीवर्षतु। ते सिरियामें कह पसु पयार, विरह व पयडिव हो पुरउ सार । शिसुक्षेवि कहा जियहरहो पुत, संपभणह बक्सबहो सुबुद्ध शुत। पर चित्तु परिवखणु तस तणु रक्सणु सुवियक्खणु सक्खणु स-धणु । पिसुणेवि पडिहासह सिरि विसरासह कुमा-पंसु उपसमइ घणु ॥॥ हो हो सिरिहर पणिवर कुमार, मारावयार कय चारु चार । चारहडिचउर चड रस्स उर, उरयाहिव सरिणह भोय पउर । पडरिस रस रसिय सरीर मोह, सोहाहिल कलिय पमुक्क मोहर मोहिय स्बें पुर रमणि विंद, वंदिया सासण केलि कंद। कंदाविय दुटु जयाण मुख, मुखमा विवज्जिय अस विसुद्ध । सुद्धा साहु परिय तेयतार, तारवि तिरवण रयणसार । सारंग वम्ग पर दीहोत, रोल हराम तामरस बना ........."पीणिय सुपण सत्य, सस्थेहिं बियायिय शिरू पायस्थ अत्यावियसुय-पय-रस-विसेस, सेसिय १ कुविसय विसरस पएस । हावाह बह रस मुशिव भंग, . अभंग य सासिब सिहरि संग । सिंगार विडवि पोसणु सुमेह, मेहावर कर दिय रोहये। येहिल अबर्हि वकित्तिमाल, मावह मावकिय कुडित बास । बाबा किरण तनु-य खीख, खोलारस पहिय कामकील। कीलारविंद मवर मिग, भिंगाहाविध विविसिंग मुशिया हिखबर लक्खण भोकह ! लक्षण कह दिसुणे वि मजुरंज़ियड । महु मनु गुबगसारख पावणु पावें अहं बिबट। पशुपमवह सिरिहरु बिसुबिबल्स, पर पडिय सत्य रस मह महत्व। पणि मरुहदत्त कह कहहि तेम, अहिबर विग्हवि मा पुरउ म । फिहमद संबडप सज्छु, पाविज्जह किंप परत कन्छ । तेसु पसाएं महु सहलु जम्मु, बाहुबह बच बिहथिय-कम्म। सम्हालुप्परि किजा पसाड, । बहु समय परिगति गाउ। .. पहुं अदिख मे मवि पुत्र विग्य, पई परिमाइर मड विद विज। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [१७ घत्ता-अरियण तामर सायर सुहमण, जण जाणिय जिणमइ जुषह तासु । सायर दोसायर हायर तिलया। ताहं गय सत्त पमुक्क तासु। वणि जिणयत्त कहंतर पुण्ण णिरंतर पढमउ अल्हणु सुहि सरय सूरु, कह चिरइज्जइ गुणणिलया ॥४॥ परिवार-णरह-परमास-पूरु। पवयण वयणामय-पाण-पोछ, अवमेय महामइ-दलिय,दुर्छ । णिक्कलंकु अकलंकु चउमुहो, जिणवणच्चग-पूयण-सयत्तु, कालियासु सिरिहरि सुकइ सुहो। अहिणाणि य णिहिल विणाय वित्त । व्य विलासु कहवासु अमरिसु मिच्छत्त · चिय णच्चहल्लु, दाणु वाणु ईसाणु सहरिसो। गंभीर परम हिम्मय महल्लु । पुफ्फयंतु सुसयंभु भल्लो , किल्लिल्ल-बेल्लि पिल्लूर-णिल्लु, बालमीउ सम्मई रसिल्लो । इह कईउ भीम इण दिठिया, भायर सुउ लक्खण णेह-गिल्लु । परिवार-भार-उद्धरण-धीरु, फुरद केम महो मह वरिट्टिया। जिण-गथ-वारि-पावण-सरीरु । धाउलिंग गुण णउ गुण ण कारो, कम्मु करणु ण समासु सारो। पवहिय-तियाल-वंदण-विसुद्धि, पय समित्ति किरिया विसेसया, सुख सत्थभाव-भावण अमुद्धि । संधि छंदु वायरण भासया। बहु-सेवय-पर-सिर-घट्ट-पाय, देस भास लक्खणु ण तक्को , वंदीयण दीणह दिण्ण चाय | मुणमिणेव श्रायहि गुरुक्कयो। भायणिहि पयोसिय सूरिबंदु, महाधवलु जयधवलु ण दिट्ठो, सउलामर-बह-कय चंदु-बंदु ण उर वप्प पयमिइ वरिटुओ। घत्तातह ण दिटु सिद्ध'तु पाय............? वहोसोहणहो रसाल हो भोयपराल हो कलकणिट्ठत्थ सहोयर छहवि महामइ सोहण रिउवल सोहण गुणराहणविहियायर गाहलु साहुलु सोहण मइल्लु, इय जिणयत्तचरित्ते धम्मत्थ-काम-मोक्खवण्णाणुब्भाव तह रयणु मयणु सतगुण जि छइल्ल । सुपवित्त सगुणसिरिसाहुलसुउ-लक्खण-विरहए भवसि छहमहि भायर अल्हणाह भत्त, रिहरस्सणामंकिए जिणयत्तकुमारुष्पत्ति-वण्णणो णाम पढमो छहमवि ताहा माणासत्त चित्त । परिच्छेत्रो समत्तो ॥॥ संधि ॥ छहमवि ताहर पय पयरुह-हुरेह, अन्तिम भाग: छहमाह मयणोवम-कामदेह । इह होतउ पासि विसाल बुद्धि, साहु लहु सुपिय पिय यम मणुज्ज, पुज्जिय जिणवर ति-रयण विसुद्धि । यामंज्जय ताकय णिलय कज । जायस रहवंस उवयरण सिंधु, ताह जि णंदणु लक्खणु सलक्खु, गुण गरुवामल माणिक्क सिंधु । नक्खण-लक्खिउ-सयदल-दलक्खु । जायव परणाहहो कोसवालु, विलसिय-विलास-रस-गलिय-गव, जसरस मुहिय दिक्चक्कवालु । ते तिहुअणगिरि णिवसंति सम्व । जसवालु तासु सुउ मइ परालु, सो तिहुवणगिरि भग्गउ उज्जवेण, लाहडुबहउ बहलक्ख राख्नु । वित्तउ बजेण मिच्छाहिवेण । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला लक्खणु सव्वाउ समाणु साउ, वित्थायड विहिणा जणिय-राउ । सो इत्थ तत्थ हिंडंतु पत्तु, पुरे विल्लराम लक्खणु सु-पत्तु । मणहरु जिणहर तणुरुह पवित् । ते णिज्जिउ सिरिहरु परम मित्तु । विरदा णंदणु सम्माण घणउ, लक्खण हो समउ सो करइ पणउ । तहे जि सणेहु णिभरु महंतु, दिण दिण तं अइसय बुद्धि जंतु । भद्दवए पवुट्ठए मेहुणीरु, असराल-बारि-पोसिय- सरीरु। जं एयारह मए मासि फारु, णिवडहणहारु उ णिभरुत्तु सारु । खर-कय पर्यड-बम्हंड-पूरु, जं जिइ णिहरु तवइ सूरु। सुवणहो सुवणेसहु णाहु जंजि, चिरु वह भोकह चित्त तंजि । इण्हं चरितु जो को वि भन्छु, परिपढइ पढावइ गलिय-गन्छ । जो लिहइ लिहावइ परमु मुणइ, 'भावह दावइ कहइ सुणइ । जो देह दिवावह मुणिवराह, जह तह सम्मइ पंडिय पराह । सो चक्कट्टि पर प्राइ करिवि, पालिवि सबकत्तण लच्छि धरिति । अणुहुँज्जिवि संसारिय-सुहाइ, सव्वइ दिन्वइ पयलिय-दुहाइ । उबहियाहिल सुहरस-पयासि, पच्छइ गरछह णिवुह णिवासि । घत्ताबारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कम कालवि इत्तउ पढम पक्खि रविवारइ छठि सहारह पूस मासे सम्म सम्मइसण णाण णिरु सम्मच्चरिय विसालु । तं रयणसउ सिरिहरहो अहिरक्खउ चिरकालु ॥ -श्रामर भंडार प्रति. सं. १४ सुलोयणोचरिउ (सुलोचनाचरित गणिदेवसेन आदिभागवय-पंच-तिक्ख-णहरो पवयण-माया-सुदीह-जीहा चारित्त-केसरड्ढो जिणवर-पंचाणणो जयऊ ॥१॥ तिहुवण-कमल-दिणेसु शिरणासिय-घण तिमिरपयडिमि चरिउ पसत्थु पणविवि रिसह-जिणेसह जह अहिणव पण दसणे ताव विहंसणे चंद कवउगं हुल्लियइ सिरिहरुसिरिसाहारउरय-परिहारउलक्खपणाणहर सुल्लियइ एवरेक्कदिणम्मि महाणुभाउ, आभस्थि विलहो घत्थ-पाउ । पभणिड भो बंधव अइ पवित्त , विरइव्वउ जिणयत्तहो चरित्त । तहो वयणे मई विरइउ सवोज, बणिणाहो ववसायउ मणोज । पद्धडिया बंधं पायडत्य, प्राइहि जाणिज्जसु सुप्पसस्थु। सयलह पद्धडिया एइ हुँति, सत्तरि एवज्जु दस य दुरिण संतु । एयइ गंथइ सहसइ चयारि, परिमाण मुणिहु अक्खर वियारि । हउ""रक्खरु खलिय लज्ज, ण वियाणमि हेयाहेय-कज । पय-बंध णिबंधु ण मुणमि किंपि, मह-विरइड संपइ चरिउ तंपि । णिवमम्मलहो पुरि शिवसते, चारुवाणे गुणगणवतें। गणिणा देवसेणमुणिपवरे, भवियण-कमल-पवोहण-सूरें। जाणिय धम्माहम्म-विसेसें, विमलसेण मलहारिहि सीसें। मणि चिंतित किं सत्याभासें, गिफलेण णिरु बयणायासें। जस्थ व धम्म-जुत्त रंजिय सह, विरइज्जह पसत्य-सुदर-कह । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह एस विय पावे गुण वि चमक्किड, चिह कह कन्वहं चिंति विसंकिउ । जहिं वम्मीय वास सिरि हरिसहिं, कालियास पमुहहि कह सरिसहिं । वाण-मयूर-हलिय-गोविंदहि, च उमुह अवरु सयंभु कइंदहिं। पुप्फयंत-भूपाल-पहाणहि, अवरेहिमि बहु सत्य बियाणहिं । विरईयाई कबह णिसुणेप्पिणु, अम्हारिसह ण रंजइ बुहयणु । हउँ तह वि घिट्ठन्तु पयासमि, सत्थ रहिउ-अप्पर प्रायासमि । पत्ता-जा सुरवइ करिमत्त , तो किं अवरु महन्वउ । जइ दुदहि सुरुसह, तो किं तूर म वज्जउ ॥३॥ जह पायासं विणयासुउ गउ, तो किं अवरु म जाउ विहंगउ। जइ सुरघेणुय जणयादिणि, दुज्झइ तो किं अवर गणंदिणि । जह कप्पड मु फलइ मोहरु, तो किं फलउ णाहिं अवरु वि तरु । जह पवहइ सुर-सरि मंथर-गइ, तो किं प्रवर नाहिं पवहउ ह । जइ कह पवरहिं रइयह कब्बई, सुंदरराइं वरणहिमि अउब्बइ । हउंमि किंपि नियमह अणुरूवें, विरए वि लग्गउ काई बहूवें । जइ विण लक्खणु छंदु बियाणमि, अवरु निबंटु णाहि परियाणमि । णालंकारु कोवि अवलोइड, गवि पुराण-प्रायमु-मणु ढोयउ । मई पारंभिय तो वि जडते, वरकह जिणधम्महो अणुरत्त । पिसुणते सुंदर मइ दूसह, हीणु णियवि सुयणत्त पोसह । पत्ता-मह किं पच्छमि एह, अब्भस्थित रोसालो। जिम दुद इंगालु, धोयड धोयड कालो ॥४॥ किंकरह पिसुणु संगहिय पाउ, छुड महु सरसह जीहग्ग थाउ । खुडणीहरंतु सुदर पयाई, लखियाई बद्ध भासा-गयाई। छुडु गय-विरोहु संतवउ प्रत्यु, छुडु होउ वयणु सुदरु पसत्थु । आयएणहो बहुविहु-मेय-भरिउ, हउं कहमि चिराणउ चारु चरिउ । वइयरेंहि विचित्तु सुलोयणाहे, णिव पुत्तहो मयणुक्कोवणाहें ।। वयवति हिहय मिच्छत्तियाहें, वर-दिढ-सम्मत्त-पउत्तियाहें। जंगाहा-बंधे प्रासि उत्त, सिरि कुदकुंदनगणिणा शिरुत्त । तं एम्वहि पद्धडियहि करेमि, परि किं पि न गूढउ अत्थु देमि । ते णवि कवि गउ संखा लहंति, जे अत्थु देखि बसणहिं घि (खि) वंति। पत्ता-कहियं जेण असेसु मिच्छत्ताउ मोहाइ । अवर वि बहुत्तव पाउ, तं जीवासिउ तुह॥६॥ इय सुलोयणाचरिए महाकब्वे महापुराणे दिलिप गणिदेवसेण-विरइए पढमो परिच्छेनो सम्मत्तो ॥१॥ चरमभाग: णंदउ सुइरु जिकिदहो सासणु, जय सुहयरु भन्वयण सासणु । णंदउ पयजें धम्मु पयासिउ, पाढउ जेण सत्थु उवएसित । साहु-बग्गु-रयणत्तय धारउ, णंदउ सावउ वय-गुण धारउ । दाणु देह इंदिय बल-उमर, वेज्जावच्चु करेउ मुणि-पवरहं । गंदउ परवह सह परिवार, पालिएण गिरु णिययायारें। यंदउ पय-पय मुच्चड पावें, जिज्जड जिण-धम्म-पहावें। बीरसेण-जिणसेणायरियह, प्रायम-भाव-मेय-बहु-भरिया। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वीरसेवामन्दिर प्रन्थमाला तह संताणि समायउ मुणिवरु, देवसेण णामें मुणि गणहरु, होटल मुत्त' णाम बहुगुणधरु । विरयड एउ कव्वु तें मणहरु । रावणु ब्व बहुसीस-परिग्गहु, अमुणतेण किं पिहीणाहिउ, सयलायम-जुत्तउ अपरिग्गहु । सुत्त-विरुद्धड काइमि साहिउ । गंडविमुत्तु सोसु तहो केरउ, सयलुवि खमउ देइ-वाएसरि, रामभद्द णामें तव सारउ । तिहुयण-जण-बंदिय-परमेसरि । चालुक्कियवंसहो तिलउल्लड, फुडु बुहयगु सोहेप्पिणु भल्लउ, होतउ परवइ चाएं भल्लउ । तं करंत सुय-देह-णवल्लउ। तिणमिव मुयवि रज्जु दिक्खंकित, रक्खस-संवच्छर बुह-दिवसए, तिरयण-रयणाहरणालंकिउ । सुक्क-चउद्दसि सावण-मासए। जायउ तासु सीसु संजम-धरु, चरिउ सुलोयणाहि णिप्पण्णउ, गिंवडिदेउणामु णिह णियसरु । सह-प्रत्थ-वएणण-संपुण्णउ । तासु सीसु एक्को जि संजायउ, पत्ता-वि मई कवित्त-गव्वेण किउ अवरु केण पवि ला णिहणिय-पंचेदिय-सुह-रायउ । किउ जिणधम्महो अणुरत्तरण मण-कय-परमुच्छाहें ॥१ सोल-गुणोहर गुण रयणायरु, आमेर भंडार प्रति सं० १५६ उवसम-खम-संजम-जल-सायरु । मोह-महल्ल-मल्ल-तरु-गयवरु, (दिल्ली पंचायती मंदिरकी खंडित प्रतिसे संशोधित) भवियण-कुमुयखंड-वण-ससहरु । १५-पज्जुण्ण परियं (प्रद्युम्नचरित) सिद्ध या सिंहकविकृर तवसिरि-रामालिंगिय-विग्गहु, आदिभागः-- धारिय-पंचायार-परिग्गहु। खम-दम-जम-बिलयहो ति-हुमण-तिलय हो पंच-समिदि-गुत्तिय-तय-रिखड, विलिय-कम्म-कलंकहो गुणिगण-वंदिउ भुवण-पसिद्धउ । थुइ करमि स-सत्तिए अइणिरुभत्तिए मयरडय-सर-पसर-णिवारउ, हरिकुल-गयण-ससंकहो दुद्धर-पंचमहब्वय-धारउ। पणवेप्पिणु णेमि-जिणेसरहो भन्वयण-कमल-सरणेसरहो। सिरि मलधारिदेव पणिज्जा, भव-तरु-उम्मूलण-बारणहो कुसुम-सर-विणिवारणहो। णामें विमलसेणु जाणिज्जइ । कम्मट्ठ-विवक्ख-पहंजणहो मय-घण-पवहत पहंजणहो । तासु सीसु णिज्जिय-मयणुब्भउ, भुवयत्तय-पयडिय-सासणहो छब्भेयजीव पासासणहो । गुरु उवएसें णिवाहिय-तउ । हिरवेक्ख णिमोह णिरंजणहोसिव-सिरि-पुरंधि-मणरंजणहो कलइ धम्मु परिपालइ संजमु, पर-समय-भणिय-णय-सय-महहो कम-कमल-जुयल-गायभविय-कमल-रवि-गिरणासिय-तमु, सम-महहो। सत्थ-परिग्गहु-णिहय-कुसीलउ, महसेसिय-दंसिय-सुप्पहहो मरगय-मणि-गण-करसुप्पहहो। धम्म-कहाए पहावण-सीलउ । माणावमाण-समभावणहो प्रणवरय-णमंसिय-भावणहो भयवंतहो संतहो पावणहो सासय-सह संपय-पावणहो। उवसम णिलड चरिय-रयणत्तउ, सोम्मु सुयशु जिण-गुण-अणुरत्तड । पत्ता भुवणत्तय-सारहो णिज्जिय-मारहो अवहेरिय-घर दंदहो। १.६ प्रती 'पुत्त' इति पाठः, २. द प्रतौ 'गंडापुत्त उज्जयंत गिरि-सिद्धहो याण-समिबहो दय-वेल्लिहिइति पाठः। ३. भ प्रतौ 'विज्जहु' पाठः। कर्जकदहो॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह हय दुरिय रिणं, तइलोयहणं । माहवचंद पासि सुपसिद्धउ भव-भय-हरण', णिज्जिय करणं । जो खम-दम-जम-णियम-समिद्धत । सुहफलकुरुहं, वैदिवि अरुहं । तासु सीसु तव-तेय-दिवायरु पुणु सत्यमई, कलहंसगई। वय-तव-णियम-सील-ग्यवायरु । वरवर पया, मणि धरिवि सया। तक-लहरि-झकोलिय परमउ पय-पाणसुहा, तोसिय विबुहा । वर-वायरण-पवर-पसरिय-पउ सव्वंगिणिया, बहुभंगिणिया। जासु भुवण दूरंतर वकिवि पुवाहरणा, सुविसुद्धमणा । ठिउ पच्छएणु मयणु प्रासंकिवि सुय-वर-वयणी, एय-गुण-णयणी ॥ अभयचंदु णामेण महारउ कइयणजणणी, तं दुह-हणणी । सो विहरंतु पत्तु बुह-सारउ । मेहाजणणी, सुह-सुय-करणी । सस्सिर-णंदण-वण-संच्छण्णउ घर-पुर-पवरे, गामे गयरे। मठ-विहार-जिणभवण रवएणउ । वम्हण वाडउ गामें पहणु विउ विउससहे सुह-झाणवहे। अरि-णरणाह-सेण-दल वहणु । सरसह सु-सरा, महु होउ वरा। जो भुजह परिण खय कालहो इम वज्जरह, फुडु सिद्धकई। रण-धोरिय हो सुअहो बल्लालहो। हय-चोर भए, णिसि भवियगए । जासु भिच्चु दुजणु-मण-सल्लणु पहरिट्टिए, चित्त'तु-हिए॥ खत्तिउ गुहिल उत्तु जहिं भुल्लणु । घत्ता : - तहिं संपत्त मुणीसरु जावहिं जासुत्तड प्रत्थइ तातहिं पेच्छह णारिएक्क मणहारिणिया । भम्वुलोउ प्राणंदिड तावहिं । सियवस्थाणियस्थिय कंजय हस्थि य अक्खमुत्तसुयधारिणिया ।। बत्ता णियगुण अपसंसिवि मुणिहि मंसिवि जो लोएहिं प्रदुर्गछियड साचवेह सिविणं तितक्खणे, काहंसिद्ध चिंतयहि णियमणे। '' गय-विषय-समिळू पुणु कइ सिद्ध सो जहवरु पाउंछिय॥३॥ तं सुणेवि कह सिद्ध जंपए, महमज्झणिरु हियउ कंपए। कन्वुबुद्धिचित्त'तु लज्जिओ, तक्क-छंद-लक्खण-विवज्जियो। पुण पंपाइय-देवण-णंदणु, भवियण-जणमण-गयणाणंदणु । ण वि समासु ण विहत्ति कारो, संधि-सुत्त गंथहं प्रसारमो बुहयण-जणपय-पंकय छप्पड, कन्यु कोहण कयावि दियो, मह णिघंटु केवि णु सिहयो। भणइ सिद्ध, पणमिउ परमप्पउ। तेण बहणि चितंतु अत्यमि, विउल गिरिहि जिह हय भवकंदहो, खुजहो वि ताल हलु वंछमि । समवसरणु सिरिवीरजिणिंदहो। अंधहो वि गवण पिच्छिरो, गर-वर-खयरामर समवाए, गेय मुणणि बहिरो वि इच्छिरो । गणहरु पुच्छिउ सेणियराए । तं सुणेवि जाजय महासुई, मयरद्धयहो विणिज्जिय मारहो, णिसुणि सिद्ध जंपा सरासई। कहहि चरिउ पज्जुएणकुमारहो, पत्ता तं णिसुणेवि भणइ गणेसरु, पालसु संक्किल्लहि हियउ ममेल्लहि मज्वयणु इयदितु करहि णिसुण सेणिय मगह-परेसह। हउँ मुणिवरवंसें कहमि विसेसें, कन्तु किंपि तं तुहुं करहिं ॥३ ४ ता मलधारि देउ मुषि-गमु इस पडणकहाए पडिय-धम्मस्थ-काम-मोक्खाए कह. थं पच्चक्ख धम्मु उक्समु दमु । सिद्ध-विरड्याए पढमो संधी परिसमतो ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२1 वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला अन्तिम प्रशस्ति कह सीहु ताहि गम्भंतमि कृतं कल्मष-वृक्षस्य शास्वं शस्त्रं सुधीमता संभविउ कमलु जह सुर-सरंमि । सिंहेन सिंहभूतेन पाप-सामज-भंजन ॥१ जण वच्छलु सज्जण-जणिय हरिसु काम्यस्य काम्यं कमनीयवृत्त वृत्त कृतं कीर्तिमतां कवीनां । सुइवंतु तिविह वह-राय सरिसु । उप्पण्णु सहोयरु तासु अवर भग्येन सिंहेन कवित्वभाजां लाभाय तस्यात्र सदैव कीर्तिः २॥ नामेण सुहंकर गुणहं पवरु। सम्बण्हु सम्बदंसी भव-वण-दहणो सब्ब मारस्स मारो। साहारण लघु वउ तासु जाउ सम्वाणं भन्वयाणं सवणमणहरो सम्वलोयाण सामी । धम्माणुरत्तु अह दिव्वकाउ । सम्बेसि वच्छरूवं पयडण-कुसलो सम्वणाणावलोई, तहु अणु व मह एड वि सु-साह सम्बेसि भूययाणं करुण विरयणो सम्बगलं जो सो ॥३ संविणोड विण कुसुम सरधारु ? जं देवं देव देवं अइसयसहिदं अंगदाराणिहंतं, जावच्छहि चत्तारि वि सुभाय सुद्ध सिद्धी हरथं कलि-मल-रहितं भव्य भावाणु मुक्क । पर उवयारिय जण जणियराय । णाणायारं अणंतं वसुगुण गणिणं अंसहीणं सुणिच्चं । एकहिं दिणि गुरुणा भणइ वल्थ अम्हाणं तं प्रणिंद पविमल-सहिद देउ संसार-पारं ॥४ णिसुणहिं छप्पय कइ राय दच्छ । णादं मोहाणुबंध सारुह-णिलए किं तवत्थं प्रणथं, भो बाल-सरासह गुण-समीह संतं संदेहयारं विबुह-विरमणं खिज्ज देदीययाणं । किं प्रविणोयई दिण गहि सीह । वाए सीए पवित्त विजयदु भुवणे कन्वु-वित्त विचित्त, चडबिह-पुरिसत्थ-रंसोह-भरिड दिज्जपणं वियरदि सुइर णाणालाहं विदितं ॥५ विवाहदि एड पज्जुण्णचरिउ । कह सिद्धहो विरयंतहो विणासु घत्ता संपत्तउ कम्मवसेण तासु। अंइह हीणाहिड काइमि साहिउ अमुणिय सत्य-परंपरई । महु वयणु करहि किं तुव गुणेण तं खमउ भडारी तिहुवण-सारी वाएसरि सच्चायरई ॥ संतेण हूय छाया समेण । दुबई-जा णिरु सत्तभंगि जिण वयण घत्ताविणिग्गय दुह विणासणी। किं तेण पहूवई चउ पणइं जं विहलियण उबयरह होड पसरण मम्झ सुहयरि, कन्वेण तेण किं कायणहो ज छहल्द मणु हरई । इयरण-कुमइ-णासणी॥ गुणा पुणो पउत्त पवियप्प धरम पुत्त मा चित्त । पर वाइय-बाया-हरुम-छम्म, गुणिणो गुणं लहेविण जइ लोमो दूसणं थवा ॥१ सुयकेवलि जो पच्चक्खु धम्मु । को वारह सविसेसं खुदो खुदत्तणं पि विरयंतो । सो जयउ महामुणि अभियचंदु, जो भन्च णिवह कहरवहं चंदु । मुवणो छुड मब्भस्थो अमुवंतो णियसहावं वा ॥२ मलधारिदेव पय पोम-भसलु, संभव-इव हुन विग्धं मुण (मणु ?) याणं सेपमग्गे लगाणं । अंगम सरसइ सम्वत्थ कुसलु । मा होहि कज्ज सिढिलो विरयहि कम्वं तुरंतो वि ॥३ तह पय-रड णिरु उण्णय अमयमाणु सुहमसुहंण वियप्पहि चित्त धीरे वि तेजए वरणा। गुज्जर-कुल-गह उज्जोय-भाणु। परकज्ज परकव्वं विहांतं जेहि उद्धरियं ॥४ जो उहय पवर पाणी विलासु अमिय मयंद गुरूणं पाएसं लहेवि मत्ति हय कम्वं । एवं विह विउसहो रल्हणासु। विषमहणा हिम्मवियं णंदड ससि दिणमणी जाम ॥५ तहो पणइणि जिणमइ सुहमसीक को लेक्सह सत्यम्में दुज्जीह दुजणं पिन सुहमरं । सम्मत्ततधम्मसीन। मुवणं सुद्ध सहावं कर-मति रवि पच्छामि ॥६ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [२३ जं कि पिहीण-अहियं विउसा सोहतु तं पि इयकन्ये । सुकवित्त-करणे मणे बद्धगाहु, निसिसमइवियप्पह एव साहु । घिद्वत्तणेण इयं खमंतु सव्वंपि महु गुरुणो ॥७॥ जाणिययं नमई कालक्खराई, न सुप्रउ बायरएउ सविस्थाई। यत्काव्यं चतुराननाऽजनिरतं सत्पद्यदानस्वकं । पय-छेउ-संधि-विग्गहु-समासु,मणि फुरहन एक्कवि मह-पयासु स्वैर भ्राम्यति भूमिभागमखिलं कुर्वन् बलशं क्षणात् । छंदालंकारु न बुझियउ, निग्धंटु तक्कु दूरझियउ । तेनेदं प्रकृत चरित्रमसमं सिद्धन नाम्ना परं, नवि भरहु स वु वक्खाणियउ,महकइ किउ कवु न जाणियउ प्रद्युम्नस्य सुतस्य कर्ण सुखदं श्रीपूर्व देवद्विषः ॥ सामग्गि न एक्क वि मज् पासि, उत्तरमि केव सबु रासि । (थामेर प्रति सं० १५७७ से और फरुखनगर प्रति माहिय सइ साहुविसरण मणू, इय चित्तवंतु थिउ एक्कु खणु सं० १९१७ से) कलहंसगमण ससिबिंब-वयण , विलुलंत-हार-सयवत्त-नयण । १६ पासणाहचरिउ (पार्श्वनाथचरित) कवि देवदत्त आदिभाग-: सिरिपासनाह-चरिए चउवमाफलेभवियजण-मणणंदे मुणिदेवचउवीसवि जिणवर दिट्टपरंपर, वंदवि मुढदिदि-रहित। यंदरइए महाकव्वे विजया संधी॥ वर-चरिउपणिदहो पासजिणिवंहो णिसुणिज्जउ वईयरसहिउ ॥ अन्तिभागःवंदवि जिणलोयालोयजाण, दुबई- देसिय गच्छि सीलगुण गणहरु, अत्तीद-प्रणागय-वट्टमाण । भविय सरोजनेसरो। पुणु सिद्ध अयंत महाजसंस , श्रास सुम्बु-रासि-अवगाहणु, जो मोक्ख-महासरि-रायहंसु । सिरि सिरिकित्ति मुणिवरो। आइरिश्र सुअंबुहि-पारु-पत्त, तहो परम मुणिंदहो भुषण भासि, सिद्धबहु कडक्खविणिहिय विचित्त । संजाउ सीसु तब-तेयनासि । उज्माय परम-पवयण-पवीण, नामेण पसिद्धउ देवकित्ति, बहु-सीस सुनिम्मल-धम्म-लीण। पुणु साहु महव्वय-बूढ-भार, बावीस-परीसह-तरु-कुठार । तहो सीसु तवेण अमेयतेउ, पंचवि परमेष्ठि महामहल्ल, गुणनाउ जासु जगि मउनिदेउ । पंचवि निम्मच्छर-मोह-मल्ल । गिब्वाण-वाणि गंगा-पवाहु, पंचमि कहिउ दयधम्मु सारु, परिचत्त-संगु तवसिरि-सणाहु । पंचहमि पयासिउ-लोय-चारु । तहो माहवचंदहो पाय-भत्तु, पंचहमि न इच्छिउ दुविहु संगु, पासीह सुयायरु सीस बुत्तु । पंचहमि निराउहु किउभणंगु । निशाहिय-वय-भर अभयणंदि, पंचहमि भग्गु-इंदिय-मडप्पु, निय-नाउ लिहाविड जेण चंदि । (चहि किउ-णिविसु-विसय-सप्यु । इस दुसम-कालि कुंकण बजेण, पंचवि परिकलिय-असेस-विज्ज, डोल्लंत धम्मु थिरु-कयउ जेण। पंचवि निव-निय-गुण-गण-सहिज्ज । ते दिक्खिउ वासवचंद सूरि, पंचहमि कलिडाणई समग्गु, में निहिउ कसाय-चउक्कु-चूरि । पंचहमि पयासिउ मोक्ख-मग्गु । भवियण-जण-नयणाणंदिराई, घत्ता उद्धरियई जे जिण-मंदिराई। पंचवि गुरुवंदवि मणिपहिणंदवि जिणमंदिरे मुणि अच्छह । तहो सीसु जाउ मुणि देवचंदु, पयउत्थ-मणोहरे अक्खर-डंबरे सुकवित्तहो मएउ गच्छह ॥१॥ अविलंब वाणि कब कुमुप्रयंदु। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४1 वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला रयणत्तय-भूसणु गुण-निहाणु, अण्ण मणई रसमोहिय चित्तई। अण्णाण-तिमिर-पसरंत-भाणु । लक्षण-छद-रहिउ हीणाहिउ, गुदिज नयरि जिण पासहम्मि, न मुणंतेण एत्थ किर साहिउ । निव संतु संतु संजणिय-सम्मि । तं महुँ खमहु विबुह-चिंतामणि, अह अज नियवि पासहो चरित्तु, सत्त भंगि नय-पवर-पयासणि । अम्भत्थि वि मविय जणेहि वृत्त । जांतइ लोयसिहर-पुरवासहो, छंदालंकार-ललिय पयत्यु, कमठ-महासुर-दप्प-विणासहो । पुणु पासचरिउ करि पायउत्थु । चउ-भासामय-सावण-चंदहो, घत्ता अइसयर्वतहो पास-जिणंदहो। तें तहिं गुण गणहरि गोंदिज पुरवरि णिवसंतह पासहो चरिउ पत्ता मुह-कुहर निवासिणि भुवणुब्भासिणि कुपय-कुपत्थ-कुनय-महणि अक्खर-पय सारहं प्रत्थवियारहं सुललिय छंदहिं उद्धरिउ ॥१२॥ सा देवि सरासह मायमहासइ देवयंद महुँ वसउ मणि ॥१३॥ दुबई सिरिपासणाह-चरिए चउवग्गफले भविय जणमणाणंदे पास-जिणिंद-चरिउ जगि निम्मलु फणि-नर-सुरह गिज्जई। मणिदेवयंव-रहए महाकवे एयारसियाइमा संधी समत्ता ॥ फुड सग्गापवग्ग-फल पावणु खणु न विलंबु किज्जए॥ (मेरे पैतक शास्त्रभंडारसे सं० १५४६ की खंडित प्रतिसे) अणु दिणु जिण-पय-पोमहि नवियहं, १५-सयलविहि-विहाणकव्व(सकलविधि-विधान-काव्य) कवि नयनन्दी गंथ-पमाणु पयासमि भवियह । श्रादिभाग:नाणा छद-बंध-नीरंधहि, धलव-मंगल-णंद-जववह-मुहलंमि सिद्धथवि, पासचरिउ एयारह संधिहिं । परलोय-हरिसु ब-संकमिउ-सग्गाउ जिणु । पउरच्छहि सुवण्णरस घडियहि, जयउ पुरिम-कल्याण-कल सुव श्रह णं सिद्धि-बह-विमल दोनि सयाई दोन्नि पद्धडियहिं । मुत्तावलिहि णिमित्त सुह सुत्तिए ।पियकारिणिह सिप्पिहि चउवग्ग-फलहो पावण-पंथहो, मुतिउ खित्तु ॥ सई चउबीस होंति फुड गंथहो । जिण-सिद्ध-सूरि-पाढय सवण, जो नरु देइ लिहाविउ दाणई, पणवेप्पिणु गुरुभत्तिए। तहो संपज्जइ पंचई नाणइं। णोसेस विहाण णिहाण फुड, जो पुणु वह सुललिय-भासई, करिम कव्व मिय-सत्तिए॥ तहो पुगणेण फलहिं सव्वासहं । पयासिय-केवलणाण-मोह, जो पयडत्थु करे वि पउंजइ, परामर-विंदरविंद-पबोह। सो सग्गापवग्ग-सुहु भुजह । वियंभिय--पाव-तमोह-विणास, जो पायब चिरु नियमिय मणु, णमामि अहं परहंत विणास । सो इह लोइ लोह सिरि भायणु । णिरामय-मोक्ख णहंगण-लीण, दिणि दिणि मंदिरि मंगलु गिबाइ, कयावि ण वडिव्य हो परिहीण । नच्च कामिणि पडदु पवज्जा । कलंक-विमुक्क जगत्तय-वंद, निप्पजहिं भुवि सम्वई सासई, णमामि सुसिद्ध प्रणोवम चंद। दुहु-दुभिक्खु-मारि-भउ नासहं। अलंध महंत खमासुणि सरण, अण्णु विजं मइंकब्बु करतई, अथग्य-महारयणावलि-पुषण । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह पउन पऊरिय चित्तहिलासु, सुकोमल-णिम्मल-वाणि-विलासु । तुमं कुरु किंपि कवित्त मणिछु, समामिण जंकणा इह दिछ । तिणं भणियं ण कहत्तु मुणेमि, प्रयाणमणो भणु काई करेमि । परं महु भट्ट गुणाहु सजेवि, व लडू पसिद्धहि सिद्धहि तेवि । ण देवहि दाणव-विदह पत्त, असेस-गुणायर-अच्छड-बत्त । गुणेक्कु वि कथवि पाविड जेण, पइंपइ सो एयणंदी तेण । मए पुणु अंगुलि उज्माय तासु, पणामउ मे गुणलेसु विणासु । पत्ता-पर-जिंदा णिहले सलठणु सढवढ रत्ताणि ट्ठिय । कलिवंडल भट्ट वि गुणगरुव मईमुएवि कसु संठिय ॥३॥ पट्टिय-संजम-बल-सुरुद, णमामि गणेस गहीर-समुद्ध। महब्बय-सेल-सरोवरि-थक्क, विचित्त-मऊह-णिसुभणि-सक्क । दिसासु पणासिय-वाइ-गईद, णमामि उवज्झय चारु-मइंद । पमाय-विवक्ख-वियारण-दक्ख, समीहिय-सिद्धि-पुरंधि-फडक्ख । परीसह-गुज्मि-णिबद्ध-सरीर, णमामि प्रसेसवि संजय-वीर । पत्ता-इय परम पंच परमेट्टि पहु पणविय पुरण पयासहि । वियरिय-विस-विसहर-जनण-णि..........॥1॥ दरिसिय सुवरण-गुण-गण-सलग्घु, मुत्तालंकरित महामहग्घु । णं वसुह-विलासिणि-हियय-हारु, अत्थीहावंती विसय-सारु । पांडवक्ख-पक्ख-पयडिय-गिरोहु, सिंगार-विलास-विसेस-सोहु । तहिं सुका-कहा इव चित्त-हार, एयरी-चउवग्गण-धरण-धार । तहिं सरसइ-कंठाहरणु देउ, रण-गमल्लु भाली-समेड | विहुयण-णारावणु-भुश्रण-भाणु, परमेसर अस्थी जण-णिहाणु । पम्मारवंस-गयणेक्कचंदु, जयसिरि-णिवास भूवह-यरिंदु । तहो णेमिणामु ठक्कुर गरिछु, सपुराण-पुण्ण-पंजुव जणिछु । तेल्लाक्क-कित्ति कामिणिहे धामु, सुपसिखंड व? विहारु णामु । महिमाणिणी हे मडडू व मणिछु, काराविउ कित्तणु तें गरिछ । मणु जएणवक्कु वामीउ वासु, वररुइ वामणु कवि कालियासु। कोहलु वाणु मयूरसूरु, जिणसेण जियागम कमबसुरू। वारायणु वरणाउ वि वियछु, सिरि हरिसु रायसेहरु गुणट्छ । जसइंधु जए जयरामणामु, जयदेउ जणमयाणंद-कामु । पालित्तउ पाणिणि पवरसेणु, पायंजलि पिंगलु वीरसेणु। सिरिसिंहनंदि गुणसिंहभद्द, गुणभह गुणिल समंतभद्द अकलंकु विसमवाइयविहडि, कामदु रुद्दु गोविन्द दंडि। भम्मुह भारह भारुवि महंतु, चउमुहु सयंभु कइ पुप्फयतु । घसासिरिचंद पहाचंदु वि विषुह गुण गण णदि मणोहरु । सिरिकुमार सरसह-कुम-विलासिणि-सेहरु ॥६॥ नहिं मस्थि सूरि हरिसिंघु मुणि जिणसासण-पुर-तोरणु । पाएसि-तरंगिणि-मयरहरू, तसिरि-बहु-मण-चोरण ॥२॥ समोवि णिवठ्ठ णियच्छिवि तेण, मुवीणयदि पसरण-मणेण । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] इम अरण जेते कसे ललामा, गुणालं किया कित्ति-कंतांहिरामा । या चायं भरतं कसं विसं गुणं केवलं मज्मर्य तं सढर्स | जिदिस्स णिग्गंथ-पंथंनि लीयो, पयासेमि चायं कहं गंथहीयो । रामो भढत' जेणं सुसिद्ध, पणाले गाणं मदूरे शिसिद्ध । समुप्पणिया मज्मिणो कव्वसत्ती, भए विग्गुणत्ते किती । अलंकार - सरलक्खा देसि छंद, या लक्खेमि सत्यंतरं श्रत्थमंदं । परं लक्खयो रम्म भाई कणिट्टो, अलंकारवंतो वि सत्यं हहट्ठो । हुड देखि सो विदेसंतराले, पइट्ठो या ऐसे कइसे विसाले । विसंबंध सुर सुबुद्धीइ वण्यो, या जाणामिवाया-विलासो पवरयो । या बुज्झेमि कन्त्रस्स ग्रामं पिजुत, इसेऊया ता सूरिया ते अहं तुम सज्मा कविती पहाउं, पयामि भुजंगप्पयाडं । घसा जो चारु चाउ यार- जम्म र इय पिठ मुणि हसघु जाम, पडिजंप मुणि यदि ताम । चिरु कह सरसह करणावयंसु, सुकइत-सरोवर-रायहंसु | वीर सेवामन्दिर-प्रन्थमाला चार हडि गुणु सु कइत्तणु या पयासह | दुल्लहु लहवि भव सायरि सो यासह ॥७॥ x X X पचक्स-परोक्ख-पमाण- शीर, X - तरल-तरंगावलि - गहीर । वर- सत्तभंगि- कल्लोल- माल, जिया - सासणि- सरि-म्मिल - सुसाल । पंडिय-चूड़ामणि विबुह- चंदु, माणिकरणंदि उप्पल कंदु । दिबुद्धि कठिण कंटय-पबंड; तो तुहुँ हुड सीसु गुणत्थ डंडु । तब्भूड- विमल सम्मन्त-सदलु, सयल - विहि-गिहाणु सुकव्व कमलु । aana-मिच्छन्त तमोह- दोसु, धम्मस्थ-काम-मणीय-कोसु । संकाइब - मलसंगम - विरामु, दय-रम्म-रमा- रामाहिरामु । सावय-वय-हंसावलि-वियासु, परमेट्ठि - पंच- परिमल - पयासु । केवल सिरि-कामिणी कम-विलासु, सग्गापवर्ग-सुह-रस-पयासु । मुणि-दाया कद-मयरंद वरिसु, बुवा-महुयर-मण-दिया- हरिसु । धत्ता हय कब्बु कमलु कोमल करह, जो लंकारु स कण्याहं । सो सिद्धि पुरंधि मणु हरइ, कवणु गहणु सुरकयणाई ॥ ११॥ X X X X मुणिवर- यदि संणिबद्ध पसिद्ध, सयल विहि-विहाणे एत्थ कन्ये सुभच्ये । सुहर सुबह चाई वययागुल्लासजुत्तो, जलिय-पयर उतो प्राइमो संधि बुत्तो ॥१॥ x X X X सिरी भोयएव धाराउरेहि, कन्व विणोएं प्रच्छद । मुमि एम हरिसिंधु तहो, यदि एव सुपयासह ॥ १ पारंभि वि. कम्बु ममंतए, पुर पट्टया पसुद्द कर्मतएण । यदि मुबिंदु मोहि रम्मु, वन्धी णिच्छिउ लच्छि - धम्मु । अहिं वच्छराउ पुणु पुत्रवधु, हुतर पुह ईसरु सूद्रवत्थु । होएप्पिणु वत्थए हरि मएड, मंडल विक्कम इच्चु जाउ ।' वक्कमक्लु रायो पियारु, गुणवंतड गरि-गुण-पियाह ॥ बाइय कंचीपुर विरत, अहं भमहं भब्बु भन्तिहिं पन्त | जहिं वल्लहराएं वल्लडेय, काराविड कित्तणु दुल्हेय । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [२७ जिण परिमालकिड गच्छमाणु, अन्तिमभाग:णं केण विभिउ सुर-विमाणु । मुणिवर-णयणंदि-सपिबद्ध पसिद्ध, जहिरामणदि गुण-मणि-णिहाणु, सयलविहि-विहाणे एत्य कन्वे सुभग्वे । जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु । अरिह-पमुह-सुत्त-वृत्तु मागहणाए इय तिषिण वि परिमण-मई-मइंद, पणिउ फुड संधि अट्ठावणं समोत्ति ॥ मिच्छत्त-विडवि-मोडण-इंद। संधि ॥ (प्रति भामेर भंडार,सं. १५८०) पत्ता १८ अणुवय-रयण-पईव (अणुवत-रत्न-प्रदीप) सिवपुर गच्छत तिहुयणहो णं ग्यणत्तय सोहण । -कवि लक्ष्मण, रचना काल सं० १३३ पादिभाग:दरसिय अहवीरें गणहरु, कलिकाल हो पडिबोहण ॥३॥ रामणंदि पत्तिड मणिट्ठड, णत ण जिणे सिद्ध पायरिए पाढए य पम्वइदे । अणुवय-रयण-पई सत्थं वुच्छे णिसामेह। जहिं जिथं समंसि वि शिविठ्ठड । तहिणिए वि भन्वाहिणंदिणा, इह जउँणा-इ-उत्तर-तडत्थ, सूरिणा महारामणंदिणा। बालइंद-सीसेण जंपियं, मह णयरि रायवडिय पसत्य । धना-कण-कंचना-वण-सरि-समिड, सयत-विहिणिहाणं मणप्पियं । दाणुएलपकर-जब-रिद्धि-सिद्धि । कह दिणाई पारंभिउ पुणा, किम्मीर-कम्म-णिम्मिय रवण्य, कीस-विट्ठसे-चित्त-दुम्मणो। सहन-सतोरण-विविह-वण्ण। त सुणेवि णयदि बोल्वाए, पंडुर-पायारुण्णइ-समेय, मणु करिंद-करणेब डोल्लए। नहि सहा पिरंतर-सिरि-निकेय । रहए कन्वे इयभत्तिणिज्झरा, चउहह चच्चरुहाम जत्य, कासु सत्ति बेहावये परा । मग्गण-गण-कोलाहल-समय । कहा तासु सो भरहरिद्धए, जाहिं विषणे विवणे पण कुप्पमंड, वर वराडदेसे पसिदए । जहिं कसिमाहि विच्च पिसंडि-खंड। कित्ति-जडिछ-सरमह-मणोहरे, मिचिच्च-पाण-संमाण-सोह, वाडगामि महि महिन-सेहरे। जहि वसहि महायण सुद्ध-बोह। जहिं जिशिंद-हर-पह-पराजिया, ववहार-चार-सिरि-सुद-खोय, चंद-सूर आहे जंत बजिया। विहरहिं पसरवा चवरण बोष। तहिं जिलागमुच्चय अलेवहि, जहिं करायचूड-मंडला-विलेस, वीरसेण- जिसेण देवहि । सिंग्गार-सार-कय-निरवसेस । गाम धवल जयधवल सय, सोहमा-लग्ग-जिग-धम्म-सील, महाबंधु तिरिणसिदत सिव-पहा । माशिशि-णिव-पह-वय-वहण-वीन । विरहज्य भवियहं सुहाविया, महिं परण-पऊरिय-पएन-साब, सिद्धिनमणि-हाराच्च दाविया । णापर-परेहिं भूसिय विसाव । सुंदरोउ अहिं कवि धांजड, थियजा बिंदुज्जन जणिय-सम्म, इस सयंभू भुवणं पिरंजर। कडग्गि-थयाववि-रू-धम्म । पत्ता-सवसिरि-सरसइ-कंठाहरण सिद्धतिय विक्साहिं। पउ-सालुण्णय-तोरण-सहार, बहिहिमि तेहि पथरिय सहहिण जिणु तिषण राहिर बहिं सहहिं लेय-सोहख-विहार। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८1 वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला जाह दावणगण-बाह-पम-छत्त, नावरण-पुराण-धण-लोल-चित्त । नहिं चरड चाड कुसुमाज मेड, दुज्जग-सखुद-खल-पिसुण-एछ । ण वियंभहि कहिमि य धण-विहीण, दविणड्ढ पिहिल पर धम्म-लीय। पेम्माणुरत्त परिगलिय-नाव, महिं वसहि वियक्खण मणुव सम्व । बावार सम्व जाहिं सहहि णिच्च, कणयंवर-भूसिय-यमिश्च । तंबोल-रंग-रंगिय-धरग्ग, जहि रेहहिं सारुण-सयल-मग्ग। तहिं गरवइ बाहवमल्ल-एउ, दारिद समुत्तारण-स-सेड। करवाल-पट्टि-विप्फुरिय-जीहु, रिउ-दंड-चंड-सुडाल-सीहु । माह-विसम-साह सुदाम-धामु, घउ सायरत-पायडिय-णामु । गाणा-लक्खण-लक्खिय-सरोरु, सोमुज्जल सामुद्दय-गहोरु: दुप्पिच्छ-मिच्छ-रण-रंग-मल्लु, हम्मीर-वीर-मण-नठ-सल्लु । चउहाणवंस-तामरस-भाणु, मुणियह न जासु भुय-बल-पमाणु चुलसीदि-खंड-विरणाण-कोसु, छत्तीसाउह पयडण-समोसु । साहण-समुह बहुरिद्धि-रिद, अरि-राय-विसह-संकरु पसिद्ध । उब्वासिय-परमंडलु दसिय मंडलु कास-कुसुम-संकास-जसु। पालिय-खत्तिय-सासणु परबल-तासणु ताण मंडल-उब्बासणु। छन-कुल-बल-सामत्थे णीह-णयत्थे कवणु राउ उमियइ तसु मह-जस-पसर-पयासणु णव-जल-हरसणु दुरणय-वित्ति-पवायण णिय-कुल-कहरव-षण-सिय-पयंगु, तहो पट्ट-महाएवी पसिद्ध, गुण-नयणाहरण-विहूसियंगु । ईसरदे पणयणि पणय-विद्ध । प्रवराह-वलाहय-पलय-पवणु, णिहिलते उर-मज्मए पहाण, मह मागह-गण-पडिदिएण-तवणु। शिय-पइमण पेसण-सावहाण । दुम्बसण-रोय-पासण-पवीणु, सज्जय-मण-कप्प-महीय-साह, किउ अखलिय-सुजस मयंकु मीणु। कंकण-के ऊरंकिय-सुबाह। पंचंग-मंत-वियरण-पवीणु, छण-ससि-परिसर-संपुण्य-वयश, मुक्क-मल-कमल-दल-सरल-पयण । माणिणि-मण-मोहणु मयरकेड, पासा-सिंधुर-गह-गमण-जील, णिरुवम-अविरल-गुण-मणि-णिके। बंदियण-मणासा-दाण-सील । रिउ-राय-उरत्थल-दिगण-होरु, परिवार-भार-धुर-धरण-सत्त, विसुमुण्णय-समर-भिडंत वीरु। मोयई अंतर-दल-ललिय-गत्त । . खगाग्गि-हिय-पर-चक्क-वंसु, छईसण-चित्तासा-विसाम, विवरीय-बोह-माया-विहंसु। चउ-सायरंत-विक्खाय-णाम | अतुलिय-धन खल-कुल-पलय-कालु, अहमल्ल-राय-पय-भत्ति-जुत्त, पहु-पट्टालंकिय विउल-मालु। अवगमिय-णिहिल-विरणाण-सुत्त । सर्तग-रज्ज-धुर-दिण्ण-खंधु, णिय-पदणाहं चिंतामणीच, सम्माण-दाण-योसिय-सबंधु । णिय-धवलग्गिह-सरहसिखीव । थिय-परियण-मण मीमत्सण-दच्छु, परियाणिय-करण-विलास-कग्ज, परिवसिय-पयासिय केरकच्छु । रूपेव जित्त-सुत्ताम-भज्ज । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंगा-तरंग - कल्लोल -माल, समकित्ति - भरिय - ककुहंतराज । कलयंठि-कंठ-कल-महुर-वाणि, गुण गरुव- रयया- उप्पत्ति-वाणि । रिराय-विसह संकरहो सिट्ठ सोहग्ग- लग्ग गोरिव्वदिट्ठ । पत्ता - तहिं पुरे कइ-कुल-मंडलु, दुण्य खंड मिच्छन्त त्ति या जिन्सड । सुपसिद्ध कह लक्खणु, बोह - विक्ख पर-मय- राय या छित्तड ॥४॥ एक्कहिं दिये सुकइ पसरण-चित्तु, ािंस सेज्जायले झाइयइ सद्दत्त । मह बोहर धड गरुय- सविसु, बुहयण भन्वयाहं जणिय-हरिसु । कर-कंठ-करण पहिरण प्रसक्कु, - दर मई ते सजोरु थक्कु । महु सु-कइत विज्जा-विलास, बुहयण-मुह-मंड साहिलासु । श्राणंद-लयाहरु अमिय-रोय, या वियाग सुबाइया इत्थ को वि । महं सुह-कम्म-परियह सहाउ, उग्गमिड सहिग्वड दुइ-विद्दाउ । एमेव कत्ता-गुण-विसेसु, परिगल णिच्च महुणिरवलेसु । केणुप्पाएं अज्जियां धम्मु, फिज्जइ उचाउ इह भुवणि रम्मू । पाइयह धम्मु-माणिक्कु जेय, सहसा संपद्द सुद्ध मणेय । धम्मेण रहिउ र जम्मु बंभु, इय चिंतालु कह-चित्तु रंभु । किं कुयामि एत्थ पयडमि उचाउ, जें लग्भद्द पुराण- पहाव-राउ । मणे भाइ माणु सुइ-वेल्लि कंदु, -दल- बिसाए शिलिचि दंदु | - भिर- शिद्दाणंद-भुत्तु संवेइय-मणु जा सिज सुत्त । ता सुइतरि सुसम पसरा, निसास- जक्खिरिण तम्मि पक्ष । जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह पत्ता वाहारउ ताइ ह सुद्द - सहाव, कइ-कुल- विलयामत गलिय-गाव । जिणं- धम्म- रसायण- पाण-वित्त, तु धरण परिसु जासु चित्त । चिंता-किल्लेसु जं तुम्ह बप्प, तं तजिवि सज्जद्दि मण- विथप्प । श्रमल्ल-राय-मद्दमंति सुद्ध, जिणं सास-परिणय गुण पबद्ध । कण्हडु-कुल-कइरव- सेय- भालु, पहुणा समज्ज सब्ब पहाणु । सम्मत बंतु भासण्या भव्वु, सावय-वय- पालणु गलिय-गन्वु । [ २६ सो तुम्हम-संस जणिय-दुहंसउ गिरणासिहद्द समुच्चड । सुपयासि कइत तुम्ह पहुत्तणु, जि-धम्मुल उच्च ॥ ५ इउ मुणेवि मय्यसि दिलहि बंदु, इह कज्जे म सज्जया होहि मंदु । सहो या में विरयहि पयडु भन्छु, सात्रय-वय-विहि- बित्थरए-कम्बु । इ पभणेवि भंजिवि मण महत्ति, गय अंबादेवी यय थत्ति । परि गल्लिय विद्यावरि गोसु बुद्धु, कइ - लक्खगु संजम - सिरि- विसुद्ध । जिणु वंदिवि अज्जिवि धम्म- रयणु, काय मणे लालस्त्रिय-य । मुहु मुहु भावइ जं स्यणि वत i अंबादेविए भणि पवित्त । तम लीड ए हवइ कयावि सुरगु महु मण चिंतासा-धवखु पुएछु । गंजोरित्जय- मणु लक्खणु बहूउ, सोयरीड कष्व करणायारूड । यि घरे पतउ वा गंध-हत्थि, मय-मत्त पुरिय मुहरूह-गर्भास्थि । चसि हुड स-सर दस - दिलि भरंतु, 1. भणु को या परिच्छद्द तो तुरंतु । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला सुप्पसण्ण-राड घरह तवा, भयुकवणु दुवार-कवाड देह । अवमिय वय लिया चातुरंग, धण-कण-कंचण-संपुण्ण चंग। घर समुह एंत पेच्छि वि सवार, भणु कवणुपण झपड दुवार। चितामणि-हाडप-निवह-जडिड, पजहा कवणु सई हत्य-वडिड। घर-रग्गुप्पण्णड कप्परुक्खु, जले कवणु न लिंचा जणिय-सुक्खु । सयमेव पत्त वह कामघेणु, पज्जहइ कवणु कय-सोखसेणु । चारण-मुणि तेए जित्त-भवा, गय गाउ पत्त किरकोण बबद। पेउस-पिंड करे पत्तु भन्बु, को मुग्रह निवे (इय)-जीवियन्तु । मह विज्जक्खर-गुण-मणि-णिहाणु, पवयण-वयणामब-पय-पहाणु । घर-धम्मिय-गर-मण बो] गत्यु, वर-काणा विरइउ परमु सत्थु । एमेव लव-मह-पुण्ण-भवणु, अवगाह यह धीमंतु कवणु। तहा अभयबालु तणुरुहव हूड, बणि-पकिय-मालयन-कट गरवह-समज्ज-सर रायहंसु, महमंत-धविय-चरहाण-वंसु । सो अभयवाल-णग्णाहनज्ज, सुपहाणु राय-बावार-कज्ज । जिय-भवणु करायड तेससेड, केयावलि-झपिय-तरणि-तेउ। कूडावीडग्गाइणा वोमु-कलाहोय, कलस-कलवित्ति-सोमु। चड सालउ तोरणु सिरि जणंतु, पर-मंडव-किंकिण-गण-मातु । देहरूहु तासु सिरि साहु सोनु, जाहड-गरिंद-सहमंत-पोतु । इह महियले सो घण्ट , पुण्ण-पउण्या जसु थामें सुपसाहमि । चितड लक्षण-कणा, सोहण-महणा कम्व-श्यणु णिवाहमि ॥६॥ इह चंदुवाडु जमुण-तरत्यु, इंसिय-विसेस गुण-विविह-वस्य । पड हा-सह-धर-सिरि-समिड, घउ बरवासिय-जण-रिद्धि-रिन् । भूवालु तत्थ सिहि मरहवालु, बिय-देस-गाम-पर-रखवालु वहि-बंधकंधु-कुलमायण-भाणु, हलणु पुरवह सम्बह पहाणु । नरनाह-महा-संग्णु जबिट्ट, जिय-सासर-परिवह पुण्य-सिद्ध । संभूयउ तहो रायहो, बच्छि सहायहो पढम जण मणाणंदणु । सिरि बल्लालु गरेसर, वें जिय-सरु सुद्धासउ महणंदण ॥ जो साहु सोढु तहि पुर-पहाणु, जण-मण-पोसणु गुण-मणि-णिहाणु । तहो पढम पुत्त सिरि रयणवालु, बीपड कएहडु महिंदु-भालु । सो सुपसिदउ मल्हा-तराउ, तस्साणु मणा जिउ सुबरूड (१)। उद्धरिय जिणालय-धम्म-मार, जिणसासण-परिणय-परिय-चारु । गंधोवएण दिण दिण पवित्, मिच्छत्त-वसण-वासण-विरत्तु । अरिराय-गाइ-गोवाल-ज्ज, बल्लालएव-पारवहंसमज्ज । सम्वहं सम्बेसह रयण-साहु, वावरई बारम्गलु चित्त-गाहु । सिवदेउ तासु हुउ पढनु सूण, सिरि दाण (वंत) ण गंध-थूण । परियाणा णिहिल-कला-कसार, विण्णाण-विसेसुज्जल-सहाउ । मह-महा-पंडित वि (3)-सियासु, अवगमिय-णिहिस-विज्जा-विसासु। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह पट्टाहिबार संपुरणगत रए कंतु (कण्णा) दाणिणा सुद्ध'कत्ता, जहासरण भव्वस्स सम्मत्त-वित्ती वियलिय सरोय- संकास-वत्तु । आयुक्खए सो सिरि रयणवालु, गड सग्गालए गुण-गण-विसालु । asो पच्छर हुड सिवएव साहु, पिउ-पट्टि बटुड गलिय-गाडु । अहमल्ल - राय-कर-विहिय-तिलड, महया महिउ गुण-गरुव- लिउ । घतातासु सुक्खा विहिय कुलक्कम अणुगामिण तह जणमडिया तहि हुव वे गंदणण यथायंदण हरिदेउ जि दिउराउ हिया || X X X X अन्तिम भाग सिरि लंबकंचु-कुल-कुमुय - चंदु, करुणावल्ली-वय-धवा-कंदु । जस-पसर - परिय-बोम-खंड, यहि विमा कुलिस दंड । घेता अवराह-बल हिय-पलय पवणु, भव्वयण वयण - सिरि-सयया-तवणु । सो साहु पट्टि आणि सेड, सिदेउ साहु कुल-स-केउ । जो करड्डु पुब्वुत्तड पुराण पडत्तड महिं मंडल विक्खाय हव मल्ल-परिदं मासा ददु मंतत्तण भाय ॥८॥ पिया तस्य संल्लक्खणा लक्खणड्ढा, गुरूयां पर भक्ति काउं विषढां । स- भतार - पायारविंदाणुगामी, घरारंभ-वावार संपुराण-कामी । सुहायार चारित- चीरंक- जुत्ता, सुया गंधोदयं पवित्ता । उम्मूलिय-मिच्छन्तावपीड, जिया वरच्या विरयण - विणी । H दंसण-र्माण भूसण-भूसियंगु, तज्जिय-पर- सोमं तिमि -पसंगु । पवयण- विहाण पडण-समोसु, णिरुवम-गुण-गण-माणिकक-कोसु । सपर्याड - परपयडिया श्रणिंदु, धण-दाण-धविय-वंदिया- बिंदु | संसाराड - परिभ्रमण भीह, जिया कण्वामय-पोसिय-सरोरु । स- पालाय कासार सारा मरानी, किवा दाण-संतोलिया बंदिणाली । पसण्या सुवाया प्रचंचेल-चित्ता, राम (रमा) राम - रम्मा मए वाल णित्ता (९) । खखागं मुंहभोथ-संपुष्ण-जुहा, पुरग्गो महासाह सोढस्स सुण्डा । गुरु-देव-पाय- पुंडरिय-मन्सु, विणया लंकिय-त्रय - सील- जुसु । दया- वल्लरी-मेह मुक्कं बुधारा, सत्तत्तणे सुद्ध सोभावबारा । जहां चंद्रचूडागामी भवाणी, जहा सब्वयेहिं सवंग-वाणी । महसह लक्खा तहु पाणणा हु, पुर- परिहायार- पलंब - बाहु । कहडु वणिव जण -सुप्पसिद्ध, अहमल्ल-राय-महमति रिद्ध । तो पणय वसेा वियक्सो, महमइया कहया लक्खणेण । हा गोत- हारियो रंभ रामा, रंगा' दाणवारिस संपुण्यकामा । जहा रोहिणी श्रोसहीसस्स सराया, महढी सपुण्णस्स सररस रयणा । हिंसयणस्म साहा जहारूवमीसा (१) । जहां जायाई कोसलेसस्स सारा, कुणीयस्स मंदाणी तेयतारा । साहुलहो घरिणी जइता - सुए, सुकइतयगुण-विज्जाजुएय । जायंस- कुल-गयण - दिवायरेय, अणसंजमीहिं बिहियायस्य । जंहा सूरियो मुन्तिवेई मणीसा इह अणुवय- रयण- पई कम्बु, विरयड ससन्ति परिहरि वि गब्बु । [३१ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला पत्ता (61) बाहुबलिदेव-चरिउ (बाहुबलि-चरित) जिण-समय-पसिन्द्वहं धम्म-सद्धिहं वोहणत्थु महसावयहं।। कवि धनपाल । रचना काल १९५४ इयरह महलोयहं पक्षिय-मोहहं परिसेसिष-हिंसावयह। प्रादिभाग: सिरिरिसहणाह-जिण-पय-जुयलु, मइ अमुणते अक्खर-विसेसु, न मुणमि पबंधु न ईद-लेसु। पणविवि णासिय-कलि-मलु । सहावसदु ण विहत्ति प्रत्यु, पुणु पढम-कामएवहो चरिउ, माहासमि कयमंगलु । धित्तणेण मह रहउ सत्थु । दुजणु सज्जणु वि सहावरोवि, साय-बाय-वयणं दरिसंती, महु मुक्खहो दोसु मलेउ कोवि। दुविह-पमाण-समुज्जल-णेत्ती। पद्धडियावधे सुप्पसगणु, पत्रयण-वयण-सण-गिर-कोमल, अवगमड अत्थु भब्वयणु तयणु । सह-समूह-दसण-सोहामल । होणक्खरु मुणेवि इयरु तस्थु, सालंकार-अहर-पडणावइ, संथवड एंणु वज्जेवि अणत्थु । पय-समास-भालुख-दलु भावह । जं अहियक्खरु मत्सा-विहाउ, गण चउ-णासा-सु-परिट्टिड, तं पुसउ मुणि वि जणियाणु राउ। दो-उवमोय-सवणजुउ-संठिउ । सय दुरिण छ उत्तर प्रस्थसार, विग्गह-तण-रेहागलि-कंदलि, पद्धडिय-छंदणाणा-पयार । णय-जुय-उरय-कढिण वच्छथलि | बुझहु ति-संहस सय चारि गंथ, मह वायरणुउ अरु जड दुग्गमु, बत्तीसक्खर शिरु-तिमिर-मंथ। अत्य-गहीर-गाहि-सुमणो रमु । चदु-दुहय सग्ग पिहु बिहु पमाण, दुविह-छंद-भुव-जुभ-जग-जणणिहिं, सावय-मय-बोहण सुद्ध-ठाण । जिणमय सुत्तसार माहरणहि । तेरह सय तेरह उत्तराल, तय-सिद्धत-तिबलि-सोहालत, परिगलिय विक्कमाइच्च काल । कह थलु तुंगुणियंबु विसालउ । सवेय रहसवहं समक्ख, वर-विरणाण-कलासकरंगुलि, कत्तिय-मासम्मि असेय-पक्ख । ललियर करई-कसण-रोमावति । मत्तमि दिण गुरुवारे समाए, अंग-पुन्छ ऊरू-णिभंतिए, घट्टमि रिक्खे साहिज्ज-जोए । पय-विहत्ति-लीलई पय-दितिए। नवमास रयंतें जयरत्यु, विमल-महागुण-णह-भा-भासुर, सम्मत्तउ कम कम पहु सत्थु । गाव-रस-गहिर-वीण तंतीसर। धत्ता हिम्मल-जस-भूसिय-सेयवर, . तिथंकर वयणुन्भव, विहुणिय-दुब्भवजण-वल्लह परमेसरि। पविमल-पंचणाण सुइकय कर। कव्व-करण महपावण, सुहसरिदावण,महुउवणउ वाएसरि। मा हुय अणुवय-रयण-पईव-पत्थे महासावयाण सुपसरण- मह उपरि होड पसरण मण मोह-पडल-णिण्णासणि। परम तेवरा-किरिय-पयडण समाथे सुगुण सिरि-साहुल- तियग्ण सुद्धिय तहणविवि पय-जिण मुह-कमल णिवासिणि॥ सुव-लक्खण-विग्इए भन्न-सिरि-कण्हाइस-यामंकिए गुज्जरदेस मज्मि णय-बट्टणु, सावयार-विहि-समत्तणो याम अट्टमो परिच्छेउ समतोमा वसह विउलु पल्हणपुर पहणु। 'प्रति सं० १५६५, वीसलएउ-उ-पय-पालट, (जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ६, ३ से) कुवलय मंडणु सयलुव मालउ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिं पुरवाड धंस जायामल, रिय पुष्प-पुरि-सिम्म कुक्ष । हु राजसेट्टि मित्तठ, भोवई में द-गुण-सुसठ । सुहडपड हो गंद जापड, गुरु सजण मुधणि विक्खायत । हो सुउ हुड धरणवालु धरापति, परमध्य-पंकय- रउ अति । तहि तहिं जिया-तिस्थ एमंतड, महि-भमंतु पल्हापुर पतड । सिरि पहचंदु महामणि पावशु, बहुसीसेहि सहित या वि रावणु । वासरि सरि-रययायह, सुमय का सुपरिक्षण गरु । दिगणोंसें पय-पणवंतठ, बुद्द धरणवालु विबुह-नय-भतर । मुणि। दिउ हत्याएं, होसि वियक्णु मकु पलाएं। जेनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह मंतु देमि तुहकय मत्थर कर, महु मुद-विग्ग घोसहि स्वर । सूरि-प्रय सुणि मधु आदि, विएं परच शुभ मई पंडि पहिय सत्य गुरु-पुर अभ्यास, हुआ जय-सिद्धि सुरु- प्राण वस । घसा - पट्टों खंभायच्चें धार णयरि देवगिरि । मिच्छामय वहुतु गणि पसठ जोइणिपुरि ॥ ३ ॥ तहिं भवहिं सुमहोच्छउ विहिमठ, सिरि रयाकित्ति पट्टे विभव । महमूद साहि म रंजियठ, विज्जहिं बाइच-माणु- मंजियठ गुरु. - महं किठ गमणु, सूरिपुर मंदिर सैमिजिणु । पुदि चंदवाडु रायरु, वर यशानां मयर-हरु | गायकाय कस वह पठ, या पुद्द रमणि सिरि सेहवड । उत्तरंग धवलु सिरि-कय- कल सु तहि जिवणं बासहर जसु । मइ पि पलोयड जिण भवखु, बहु समालडणं सम-सरणु । सिर अरु बिंबपुणु मंदिर, अप्पाड गरिहउ बिंदियड । हो कि सिक्लिंग यई, विडंगई कि सुहि संगम । भो भो परमप्पथ तुहुं सरणु, महुणासउ जम्म· जरा-मरणु । ३३ घत्ता मु.वर चरण मंसियहूं, अच्छमि जातहिं एक खलु । तापत विरि संघाहिवह दिउ वासरु सुचणु ॥४॥ जायव-वंस पहि-उहु-पहु, मासि पुरि सुपसिद्ध जमहरु । तहो दल गोकरणु संखाय संभरिराय मंति बाट | तो सुट सोमएड सोमायण, कृष्णनगद दिन्यचावयन् । हो पेमसिरि भजा विक्लाइय वय-यम-क्ष-गुणेहिं विहाय । एहिं सस पुस संजाइय, जिया free तच विक्साइय । पढमु साहं दय-वली सुरतरु, संघाहिउ णा में घासा हरु । जो दिवहाडिय चाउ पसिद्धड, यह भंजु शिव मंत-समिद्धउ । पुणु बीड - परिवार सहोयरु, विज्ञयंकि हरिराय मणोहरु । तड़बड सुर पल्हाउ सलक्खणु, संजायत प्रादिय- सज्जणु । पुणु तुरियड महराउ विसुद्ध गुण-मंडिय-त हुड जस लुड्ड । पंच भामराउ मेहावरु, छड तथा ग्राम- रयणायरु । सतमु सयल-बंधु-जण-त्राहु, : Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ वीरसेषामन्दिर-ग्रन्थमाला संतणु-याम-जाउ-अइ-दुल्लहु । एहि सत्तहिं सुयहि पसाहिड, सोमएउ गं बयहि जिवाहित । जो पढमड णंदणु वासाहरु, सयन-कलालट संकण-ससहरू । पेक्लेविण सारंगणरिंदें, बाहु-वाण-कुल-कहरव-दें। रज्ज-धुराध णियमणि जाणिवि, मंति-पयम्मि उविड सम्माणिवि । अप्पिवि देसु-कोसु-अणु-परियणु, भुजइ रज्जोक्स-णिच्चन-मणु । सोसुमणु-गुणायरु बुहु-विहियायरु दुक्खिय-जण-यव-कप्पवरु जिया-पव-पंकय-महुयह सिरिवासहरु जापच्छह नहिं दुरिय-हरु ता पेक्ववि पंडिय धणवाले, विहसिवि पमणि बुद्धि-विसावें। भो सम्मत्त-रयण-ग्यशायर, वासद्धर हरिराय-सहोयर। विणयं-गुणालंकिय हिम्मच्छर, पंडिप-जण-मणरंजण-कोच्छर। करिवि पट्ट मन्वजणु-रजिड,. .. जे तिव्ययर-गोत्त भावज्जिउ । भएणउं तुहं गुरुभत्ति-कयायर, मह-सुह-कित्ति-वरंगिणि-सायर । जियवर-पाय पोरुह-महुवर, सयन-जीव-रक्षण-सु-दयायर । दुस्समकाल-पहाव-गुरुक्कड, जियवर-धम्म-मग्गि जणु वंकउ । दुज्जण-पउर-जोर-अकयाथरू, विरलउ सज्जणु गुणिविहिवायरु । असहायहो जगि को विण मरणई, धम्म-पहावें खडभइ उरणई। धम्महीणु जणु जहिं जहिं गच्छा, वहितहिं सम्महुकोविण पेच्छह । कजें धम्मापरु किज्जा, धम्महीणु ण कयावि हविज्जा । इस धम्मो पहाड र टुड, बिमुशिवि वासाधरु संतुहर। पत्ता-पुणु जापाव पियचायए महुह ताह गुरुचरणग्य ठया बहुषिणए सिरिवासद्धरेण कह धणवाल पस्थिपड। जिण-पय-पंकय-इंदिरेण, मायम-पुराण-सुइ-मंदिरेण । सम्मत-स्यश-रयणायरेण, कह पुच्छिउ-पुणु वासाहरेण । भो किं प्रविणोएं गहि कानु, मह-तंदु थुमहिं जिणु सामिसाल। करि-कायु मणोहरु सत्य-चित्त, जिण-पक्कि-काम-कह माइ-विचित । जसु णामई णासह णिहिल्लु दुरिउ, बाहुबलि-कामएवहो चरियड । जस असणोवरि बोलु भन्बु, तह जिण तिलोवरि सहह कम्यु। बहुविरयहि भन्व-मणोहिरामु, पडिया बंधे सहयामु। के विज्जए जाएग होइ सिद्धि, पुरिसे जेण ण बद्ध-खति। किं किविणएण संचिय-धणेण, किं थिरणेहं-पिय-संगमेण । किं णिज्जलेण घण-गज्जिएण, किं सुहडे संगर-मजिएण। किंबप्पणेण गुण-कित्तण, .. किं अविवेयं विउ-मरणयोग। . किं विप्पएण पुणु रूसिएण, किंक लक्खण-खिएण। किंमणुयत्तणि जंजणि भन्दु, किंबुद्धिए जाएण रहब कम्यु। इय वयण सुणिवि संघाहि वासु, धणवाल पर्यपह वियसियासु। भो कुणमि कब्बुजं कहिउ मज्यु, गुरुयण हंसाएं किं असमु। हउं करमि कम्बु बुह-जशिय-हास, तुच्छमई यं पयह जस-पचासु । णालोयड पत्यशु पय-सुमंगु, गाउ-जब मइ-कामयह संगु। पत्ता-वायरण महोवहिं दुसरु सह-बहरि वित्परिवर्ड। गाणाभिहाण-जब-परिपा पर हर पारुतिएपडं ॥.. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह वाएसरि-कोला-सरयवास, घर पउमचरिउ किड सु-कइसेदु, हुम भासि महाकई मुणि-पयास । इस अवर जायवर बलयबेहु । सुभ-पषण-दुविय-कुमय-रेणु, पत्ता-चउमुह दोणु सयभुकइ पुप्फतु पुणु वीरु भणु कह-चावहि-सिरि धीरसेणु । ते गाण-दुमणि-उज्जोय-कर हर दोवोषमुहीणु-गुण ॥८॥ महि-मंडलि वरिण विबुहवंदि, तं णिसुणिवि वासाहरु जंपह, वापरण-कारि सिरि-देवणंदि । किंतुहं बुद्ध चिताउलु संपह। जइणेद यामु जायण-दुलखु, जह मयंक किरणहिं धवनइ भुषि, किड जेण पसिद्ध स-वायसन्खु । तो खजोड ण थंडहणिय-कृषि । सम्मत्तारू बुसु रायभन्यु, जा खपराड गयणे गमु सजाइ, दसण-पमाणु बरु रयड कम्यु। वो सिहहि किंणिय-कमु वजह । सिरि बज्जसूरि गणि गुण-णिहाणु, जह कप्पतरूपमिय फल कप्पह, वि.यड मह छहसण-पमाणु । तो किं तरु लज्जा णिय संपह। महासेण महामई विड समहिल, जसु जेसिड मह-पसरु पबहछ, पण याम सुलोयणचरिउ कहिउ । लो तेत्तिउ धरशिपलें पयहह । रविसेणे पउमचरित्तु वुत्तु, इय णिसुणिवि संघाहिव बुत्तर, जिणसेणें हरिवंसु वि पवित्त । करणा धणवालेण पउत्त। xxx मुणि जडिलि जडत्त-णिवारणत्थु, इयसिरि-बाहुबलि-देव-चरिए सुहडदेव-तणय-गृह धणयं वरंगुचरिउ खंडणु पयत्थु । बाल-विरइए, महाभम्व-वासद्धर-णामंकिए सेणिपरायदियरसेणे कंदप्पचरिउ, समवसरण-समागमो वण्णणो याम पढमो परियो वित्थरिय महिहिणव-रसहभरिड। समत्तो ॥ संधिः॥ जिण-पासचरिउ भइसयवसेण, अन्तिमो भागःविरयड मुणिपुगव-पउमसेण । xx अमियाराहण विरहय विचित्र, जंबुदीव-भरह-वर-संतरि, गणि अंबसेण भव-गोस-चत्त । गिरि-सरि-सीमाराम-णिस्तरि । चंदप्पहचरिउ मणोहिराम, अंतरवेइ ममि धयारिदउ, मुणि विण्हुसेण किउ धम्म-धामु । व कावि-विसउ सु-पसिद्धछ । धणयत्तचरिउ चउचग्गलारू, वीर-खाणि उप्पत्ति पवित्तर, भवरेहि विहिड मायापयारु । सूरीपुरु जण परिपालंतड । मुणि सीहणंदि सहस्थ वासु, सूरसेणु णरवह सहोणंदा, अणुपेहा-कय-संकप्प-णासु। अंधय-विदि-राउ रिउ-महणु। एवयारणेहु णरदेव वुत्, वहो पहवय पिय-पाण-पियारी, का असग विहिट वीरहो चरित्तु । णाम सुभद्दा देवि भडारी। सिरि-सिद्धसेण पवयण विणोड, दस-दसार तहिं संदण जाया, जिएसेणें विरहर पारिसेनु (पारिसोड) वोर-वित्ति तिहुअण-विक्खाया। गोविंदकह दसण-कुमार, : सायर-विजउ पढमु उविणीपर, कह-यय-पमुद्दो लड-पारु । पुण अक्खोडु णाम हुम बीपठ । जयभवलु सिद्ध-गुण-मुबिड तेड, तइपड अमियास सिरिवल्लहु, सुप सालिहत्थु का जीव देउ। पुणु हिमवंतु तुरिउ जाणहु दुल्लहु । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३i वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला विजउ यामु पंचमु सुह-बद्णु, बहउ अचलु रिद्धि-साकंदणु । सत्तमु णामु पसिद्ध धारणु, पुणु भट्टमउ तणुभउ पूरणु। सुड अहिचंदु णवमु पुण जाणहु, दहमड सुड वसुएवड मारा। एयह बहुअंकोऽतिमदोबर, बावरण णिजिप अमरच्छर । समुद विजअ सूरीपुरि थपिउ, चंदवाडु वसुएवहो अप्पिउ। तहो सुट रोहिणेउ अरि-गंजणु, देव-शंदणु अणु जगहणु। तहो संताण कोडि-कुल-लक्खइं, संजाया केवलि-पच्चक्खई। पुणु संभरि परिंद महि भुजिय, जाथव- सुब्बभते रंजिय। प्रसवंतु चहुवाण पुहइ पहु, तहु मंतिउ अदुवंसिउ जसरहु । पहुगण पत्तिहु अउ धरणीयति, भासानुरि सुरि-पय-पंकय-अलि । साहु णाम गोकणु मंती तहु, जिणवर-चरणंभोरुह-महुलिहु । हुउ संभरिणरिंद महिवालउ, करणदवु-णाम-पय-पानउ । सोमदेउ बहो मंति सहोयर, सयल-कलाकर ससहरु। पत्ता-पुणु सारंगु णरिंदु अभवचंदु तहो णंदणु । तहो सुप हुड जयचंदु रामचंदु णामें पुणु ॥ शिव-सागरनजि-समयंकित, वासाहरु मंतिउ गीसंकिउ। शिय-पान-भार-दिठ-कंधक, विवुह-वंदि तह-पोसण-कंधा । एक्कु जि परमप्पाड जो मावा, वे बवहार सुदणय भावह। जो ति-काल रयणतड बंचा मनोय-ल कह-विय मुग्छ। जो परमेटि-पंच-धाराहह, जो चंग-संव-महि साहा। जो मिच्छत्त पंच अवगरणई, छक्कम्महि जो दिणि दिणि गम्मई। जो सत्संगु- रसु णिहालह, सत्त-तरच-सहा रसाला। दायास्हु-गुण-संततमत्तल, सत बसखें जो कहिवि ण रत्त। भट्ट मूलगुण-पालण-तप्पर, सदसण अट्ठ'ग रयणाधरु। अष्ट-सिद्ध-गुण-गण-सम्माणई, अट्टदब्वपुज्जिय जिण-धरण। एष-विह-पुण्ण-पत्त दाणायर, शव-पयस्य परिरक्खा -णायरु। एव-रस-चरिउ सुण वक्खाणई, दह-जवण-म्महि रइ-माणई। एवारह अंगई मणि इच्छा, एयात्रह-पडिमाड-णियस्छ। बारह-सावय-वय-परिपालाइ, रह-विहि चरितु सुणहाबाद। चउदह-कुलपरक्खमुवपस्सइ, . चउदह-विह-पुरुबाह-मणु-वालाइ । पउदह-मम्मण-वित्थरोबर, चम्पह पुरिस सत्तण उगोवह । पत्तातहो बंधउ रयणसी मणि भज्जयमेरु सुपसिउ जिणविंव-पाटनएवि पुणु जिलावर-मोतु शिबउ ॥२॥ वासदर पिययम वे परिणि, पतिव-पोसण णं कुछ धरणि । वे पक्तुस्मता पर यमराखिया, सोल-तहहिं बेक्ति रसाक्षिय। पेमकिय-कुल-सरणं पोमिणि, सुयण-सिहंडणि णं जलहर-कुषि । पइ-का-सीत-सविन-मंदाइणि, दुक्खिय-जय-जय-सुक्दापणि । उदयसिरी होमा विक्षय- परविह-यहो कम्पबिहे इन। उधर-सपि-सुव-रक्य-समुन्धव, संजाया कुख-हरण-मबमव। पाम-पुजु जयपालु गुणपड, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह सो पञ्चसायंगड । सतासु तह य हारराय पुण। हुड जसपाल वियक्खणु बीयउ, वित मरुह-धम्मु जा महिवलएं, पुणु रउपालु पसिद्धतीयड । सायर-जलु जा सुर-सरि मिलिएं। तुमिरचंदपालु सिरि-मंदिर, करणयदि जाम वसुहा प्रचलु, पंचसु सुभ विहराज सुहकरु । वासरहो बट्टउ ताम कुलु। कहा पुरणपालु पुण्णायक, जो पढइ पढावह गुण-भरिभो, सखस बाहुणाम गुणायक । जो निहा लिहावह वर-चरित्रो । भट्टमुरूवएउरूवउ, संताण-बुढि वित्थरइ तहो, एबिटु-सुत्राहि-चिरु-वड्डङ । मणवंछिउ परइ सयलु सुहो । भाइय-भत्तिज्जय-संजुत्तर, बाहुबखि-सामि गुरु-गण-संभरणु, यंदउ वासाधर गुण जुतह । महुणासउ जम्म-जरा-मरण । जंह पच्छिड पसमिय गवें, पत्ता-जो देह लिहावह वि पत्तहो, वायइ सुणइ सुणावह । वासाहर-संघाहिव भब्वें। सो रिद्धि-सिदि-संपय बाहिवि, पच्छह सिव-पउ पावह ॥॥ तहो वयणे मई पारिसु दिट्टङ, श्रीमप्रभाचन्द्र-पद-प्रसादादवाप्तबुड्या धनपालदक्षः । जंगणहर सुअ-केवलि-सिट्टउ । श्रीसाधुवासाधर-नामधेयं स्वकाम्य-सौधे कलाशी-करोति ॥ सो पेच्छिवि मइं पाइय कन्धे, विरयड बुह-धणवाले भब्वें । इति बाहुबलि-चरित्रं समाप्तम् । सिरि-बाहुबलि-चरिउ जं जाणिलं, (मामेर-भंडार, प्रति सं० १५८९ ऐ० पचालान सरस्वती भवनकी प्रतिसे संशोधित) बक्खण छंदु तक्कु ण वियाणिउं । बत्ता-लक्खण-मत्ता-छंद-गण-होचाहिउ जंभणिउ मई २० चंदप्पह-चरिउ (चन्द्रप्रभचरित) भ० यश:कीति तं खमउ सयलु अवराह पाएसरि-सिवह संग ॥ आदिभाग:विक्कम-गरिंद-अंकिय-समए, गमिऊण विमन-केवल-जच्छी-सम्बंग-दिण्ण-परिरंभ। चडदह-सय-संवच्छरहि गए। खोयालोय-पयास चंदप्पह-सामियं सिरसा ॥३॥ पंचास-परिस-चउ-अहिय-गणि, तिक्कान-बहमाणं पंचवि परमेटिर ति-सुद्धोऽहं । वासहहो सिय-तेरसि सु-दिणि । तह मिजब मणिस्संदप्पाह-सामियो परियं ॥२॥ साई याक्ख परिट्रियई, परसिद्धि-जोग-णामें ठिपई। जिण-गिरि-गुह-जिग्गव,सिव-पह-संयप,सरसह-सबिसुह-कारिणिय ससि-वासरे राखि-मयंक-तुले, महुहोउ पसरिणय गुणहि रवरिणय तिहुषण- जनवरणिय गोलग्गै मुति-सुक्कें सबसे। हुबड-कुल-नहयति पुप्फयंत, चढवग्ग-सहिउ-गाव-रस-भरिउ, बहु देउ कुमरसिंहवि महंत । बाहुबलिदेव-सिद्धहो चरियउ । तहो सुर हिम्मलु गुण-गण-विसालु, गुज्जर पुरवाड-सविखार, सुपसिद्धउ पभणह सिद्धपालु । सिरि-सुहड-सेहि गुण-गणिखाउ । जसकित्ति विबुह-करि तुहु पसाउ, हो मणहर छाया गेहणिय, महु पूरहि पाइय कम्व-भाउ । सुहडाएवी पामें भणिय। सं निसुविवि सो भालेह मंदु, तहो उवरि जाउ बहु-विशय-गुनो, पंगलु तोडेसह केम चंदु । घणवालु वि सुरगामेण हुनो। इह हु बहु गणहर गाणवंत, 'कहो विषिण तणुम्भव विउल-गुण, जिप-वयण-रसायण विवरंत । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामधि-प्रमाला गाण कुदकुद बच्चरज गुणु, को बण्ाण सक्का इयर जणु । कनिकाल जेण ससि निहित यामु, सह हिटउ केवल त-धामु । पामें समंतभदु वि मुणिंदु. मह हिम्मलु णं पुरिणमहि चंदु । जिउ रंजित राया रुद्दकोडि, जिण-थुत्ति-मित्ति सिवर्सिडि फोदि । गीहरिड विबु चंदप्पहासु, उज्जोयंतउ फुड दर दिसासु । अकलंकु णाई पच्चक्खु गाणु, जें तारा-देविहि दजिउ-माणु । उज्जालिड सासणु जय पसिद्ध, मिडाडिय घल्लिय सयज-बुद्धि । सिरि-देवणंदि मुणिबहु पहाड, जसु णाम-गहणि णासेड पाउ । जसु पुञ्जिय अंबाएई पाय, संभरण मित्ति तक्खणिण भाय । जिणसेण सिद्धसेण वि भयंत, परवाह-इप्प-भंजण-कयंत । इय पमुहहं जहिं वाणी-विलासु, तहि पम्हह कह होई पयासु । पत्ताजहि धुणर फणीसरु, बहुजीहाहरु, बह सहसखुतिरिक्सा। तहि परु जिण-चरणह, सिवसुहकरणह, किह संधणइ समिक्खा हउं यमु पनि किपिवि सत्थु गंधु । पत्ताजा चंद दिवायर सम्व विसापर, जा कुल पन्नाय भूवन का एहु पयहहु हियई बहुउ, सरसइं देविहिं मुहि तिला इय-सिरि-चंदप्पा-चरिए महाका-जसकित्ति-विर महाभम्व-सिद्धपाज-सवण-भूसणे सिरिचंदप्पह-सामि णिज्य गमणो-याम एयारहमो-संधी परिच्छेनो सम्मत्तो। (मेरे पैत्रिक-शास्त्र-भंडारसे) सं.-१२॥ पडव-पुराणु (पांडव-पुराण) (भाषा अपभ्रंश) कर्ता-भ० यश-कीर्ति. रचना-काल सं १४६ मादिभाग:बोह-सु-सर-प्रयरहहो गय-भय-रटहो सिरिजलाम सोरटहो पथविवि कहामि जिगिट्ठहो गुयबल-विट्ठहो कह पंडव-भयरट्ट जो भव सरप-बोहण-दिणिंदु, हरिवंस-पवण-पह णिसियरिंदु । सम्बंग सलक्खणु लद्धसंसु, थिय-कम्म-णियक्खाणण विसु । ' भव-भीयहं सत्तह बलिय इंसु, वे पक्ख समुजलु णाह सु। जेसिं वर-जम्मि पयडिड महिंसु, जो सिद्धि-मराखिहि परमहंसु । जें णाणे पवियाणित वसु, जो तिस्थणाहु बजरिय इंसु। जण-चाय-विसा-सारंग-परिसु, जम्मणे हरि-किय सारंग-वरिसु । णिय-कतिए जिड सारंगु सज्ड, सारंगेण जि मेदिलउ प्रवज्जु । गिह-मोहु चह वि सारंगु जाड, सारंगु णयणे दिएणड न राठ। सारंगें पणविय णिच्च-पाठ, सारंग पाथिकर तुलिड राउ। पडतीसातिसयहिं सोहमाण वसु-पारिहेर-सिय-चत्त-माणु । चड-षण-चमरेहि विजिज्जमाण, जसु खोयाजोय पमाणु थाणु । में पयडिड बावीसमठ तिस्थु, . असु अणुदिणु पणवइ सुरहं सत्यु। समुद-विजय सिषएवीहे पुन, अन्तिमभाग: गुज्जर-देसहं उम्मत्त गामु, तहिं छहा-सुउ हुउ दोण णामु । सिद्धउ तहो णंदणु भग्व-बंधु, जिण-धम्म-भारि ने दिएणु खंधु । तहु सुर जिट्टड बहुदेव भन्बु, जें धम्म कजिज विव कलिउ दम्बु । बहु बहु जायउ सिरि-कुमरसिंह, कलिकाल-करिदंहो हणण-सीहु । तहो सुउ संजायड सिद्धपालु, जिण-पुज्ज-दाण-गुणगण-नमालु। तहो उबरेहिं इह कियड गंधु, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [ ३६ सो नेमिणाहु गुण-सीख-शुत्त । बसु तित्थे जाउ महियले पवितु, एडवहं चरिउ परिव-जुत् । वह पविवि सिहं गाण-समिन्द्रहं पायरियाहं पाठयहं वह। साहु पणवेप्पिणु भाउ घरेप्पिणु बाएसरि जिण-वयण-रुहं।" पुणु पयवेप्पिणु जिणु वढमाणु, मज्जवि जस तिथु पवड्ढमाणु । चउ-कम्म इणि विहु परम-णाणि, जोयण-पमाण-जसु दिग्व-वाण । जं जए पडिय पंचस्थिकाय, बदन्य तह व कालो नकाय । जीवाह-पयासिय-सत्त-तरच, पुणु शव-पयस्थ-दह-धम्म-सच्च । सम्मतु वि पणविसह दोसु चत्त, हिस्सकिय संवेयाई जुत्त । वज्जरिड विविहु सायार-धम्मु, भणयार-धम्मु मिह णियहु कम्मु । जसु समवसरणु जोयण-पमाणु, जे भणिउ तिलोय-पमाण-ठाणु । पुणु इंदभूइ-पमुहइ णवेषि, शिय-गुरुहु जसुज्जल गुण सरेवि। चिर का हुकरेपिणु परम भति, सुड किंपि पयासमि णियय-सत्ति। इय चितड मणि जाम थक्कु, मुणि ताम परायड साहु एक्कु । इह जोयणिपुरु बहु पुर-हिसारु, धण-धयण-सुवरण-परेहि फारु । सिरि-सर-पण-उववण-गिरि-विसालु, गंभीर-परिह-उत्तुंग-सालु। तहिं निवसह जालपु साहु भन्नु, णिउजी भज्जालंकित अगम्वु । सिरि-अयरवाल-वंसहिं पहाणु, .. सो संघहं वच्चलु-विगय-माणु । वहो वाणु वील्हा गय-पमाड, ..............सई जि माउ । भावेप्पिणु हितमक्याउ दिटट, तेवि सम्माणि किड वरिह धनाहा तहा पिय णाम सिह, गुरुदेव-मत्त परियण । तहो रावणु णंदणु हेमराउ, जिणधम्मोवरि जसु णिच्च-भात । सुरवान मुमारख-तणई रज्ज, मंतितणे थिट पिय भार काज । पत्ताजें अरहंतु-देउ मणि भाविउ, जासु पहुत्तें, को विण ताविठ। जेण करावड, निण चेपालड, पुरण हेड चिर-य-पक्खालउ ॥२ धय-तोरण-कलसेहिं प्रलंकित, जसु गुरत्ति हरि जाणु वि संकित ।. पर-तिय-बंधउ-पर उवयारित, जेण सम्वु जणु धम्महं तेरिउ । संघ धुरंधरु-पयड मुणज्जा, सावय-धम्में णिच्च मणु रंजह । सत्त वसण जे दूरे वज्जिय, सीन-सयण-वित्ति वि भावज्जिय । सत्त गुणहं दायारह जुत्तउ, णव-विह-दाण-विहिए यउ बत्तउ । पणएं पणय-गुणे मउ भंजित, रयणत्तय-भावण-अणुरंजिउ । विणएं दाणु देह जो पत्तई, जिणु तिकालु पुज्जह समचित्तहं । तासु भउज-गुण-नयया-वसुधरि, गंधो णाम थिय-गइ-जिय-सुरसरि । रूव चेलण-देवि पहाणय, जियवर-भत्तिहें णं इंदाणिय । प्रमिय-सरस-वयणहिं सच्चहि ठिय, गड तंबोलराय अणुरंजिय। उपरि कडिल्लु सील जे धारिउ, रयणत्तय हारें मणु पेरिड। धम्म-सवण-कुंडल जें धारिउ, जिण-मुद्दा-मुहिय संचारिउ । जिण-गेहम्मि गमण-णेउर-सह, तहो चंदण-कंकण सोहिय-कर। जिणवर-मंत सरण कुंचउ उरि, जिणवर-हवणु विजउ किट णिय-सिदि । . एयह माहरणहं जा सोहिय, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 भार मुवि कंचाहि ण मोहिय । वासु तु पह जाणिज्जद्द, चाएं तब गहिं णिज्जइ । atra सारंगु वि पि भक्त, कउला त वहिं चत । घता पल्हण णंदणु गुण णिलउ गोल्हण माय-पियर-मण-रंजणु । वील्हा साहु व सुउ लखा यामु जण मग आणंदणु॥३ दिउ राजही य भज्जहि समेउ, की हुड संताप जोड । गंदणु डूंगरु तह उधरणक्खु, हंसराज तयउ सुड कमल-वक्खु । द सास सम्मइाहें, यद भवियण कय उच्छा है । दरव पथ पातठ, दउ उदय-धम्मुवि रिसिहंकिउ । यद मुणिगणतड पालंतर, दुविधम् भविया कहंतउ । दाण- पूय त्रय-विद्दि- पालंड, यदि सात्रय गुण रय- चत्तड । कालं विशिय णिन् परिसक्कड, कासवि धणुक देति या थक्कउ । चज्जड मंदलु गिज्जर मंगलु, यच्चणारीय रहसें कलु : द वील्हा पुत्त गुणवंतउ, एक्कहिं दिणि चिंतित हेमराय, जिणधम्म हीणु दिणु अहलु जाय । 1 गिसुज्जि चिर पुरिसहं चरित, हरि-नेमिनाह - पंडवहं वित्तु । ता होइ मज्म जम्मु वि सलग्घु, यासह - चिर संचिउ पाउ- सिग्धु । इय चितिथि जिय-मंदिरहि पत्त जस मुखि पण विवि श्रक्खि सचित्त । हेमराउ-पि पुत्त सतउ । - विरुद्ध बुद्दहिं सोहिन्वउ, सोउं इच्छमि पंडवचरितु, पयहि सामिय जं जेम वित्तु । धम्माल न विउ । विक्कमराय हो वय कालए, महि- सायर-गह- रिसि अंकालए । विवरी सम्बु जणु वज्जरेह, परवावयि दुक्खहो उ डरेह । कत्तिय सिय अट्ठमि वुह वासर, हुड परिपुरण, पद्म नंदीसर । यहु मही- चंदु-सूरु-तारायणु, सुर- गिरि उवहि ताउ सुद्द भावशु । तं सुणिवि जंपित मुविरिंदु, चंग पुच्छि बुहयण चंदु । पंडव-चरित इ-गणु जइवि, तुव उवरोहें हउ कमि तहवि । जाता गंद कलिलु हरंतउ, भविय - जयहिं विस्थारिज्जंतड । घता - इय चविह संघ विहुणिय विश्व तो तो वय गुण-गण-महंतु, पारंमि सत्यहं फुरंतु । सज्जण दुज्जण भउ परिहरेवि, यि यि सहाव र वि दोषि । घन्ता-सज्जा वि सहावु अकुडिल भावु पर दोस-पया सिरु अवगुण - भासिरु ससि-मेहुब उवयार- मई | मेवायन्तर प्रन्थमाल गुण कति सिस्स मुणि- जसकित्ति विरहए साधु- वीरुद्दा- पुत्तरा मंति- हेमराज यामं किए बु. रुवंस-गंगेयड- थितिः वय याणेया। पढमो सग्गो ॥ प्रथमसंधिः ॥ १ ॥ चरमभाग : दुज्जणु सप्पु व कुढिल गई ॥४॥ X x किण्यासिय भव-जर-मरणु । जसकिन्ति पयास अख लिय- सासखु यह संति सयंभु जिणु ॥ २३ ॥ इय पंडव-पुराणे सवल- मद्य-मय-समय- सुहयरे सिरिगुण कित्ति - सिस्स मुणि- जस कि सि-विरइए साधु -वील्हा- पुस हेमराज - ग्रामंकिए मियाद-मुनिहर-भीमान्य-निम्वाय गवणं, नकुल सहदेव सन्ध सिद्धि बलदद्द - पंचम सग्ग गमण - पयासयो याम चडतीसमो इमो सम्भो समतो ''x इय पंडवपुराणे सयल-जय-मय-समय- सुहयरे सिरि- ॥ संधि ३४॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमन्थ- प्रशस्ति संग्रह सिर कट्टसंघ माहुरहा गाच्छ, क पुक्खर गए मुणिवरई विलछि । संजायड वोर जिलुक मे या, परिवाडिए जइवर हियए । सिर देव से वह विमलसेणु, तह धम्मसेगु पुणु भावसेणु । तो पट्टि उण् सहसकित्ति, अवश्य भमिय जए जासु किति । तवा मुणि गुणकित्ति यामु तव ते जासु सरीरु खामु । तो श्रायरियासिय दो-राउ । ते गाय बुद्धिए विरयउ गंधु, भवियहं दाविय-सु-मग्ग-पंथु । बंध जसकित्ति जाउ (प्रति भामेर और देहली पंचायती मंदिर शास्त्रभंडारसे, सं० १६१२, सं० १६६१ ) २२ हरिवंशपुराण ( - भ० यशः कीर्ति ) रचनाकाल सं० १५०० आदिभागः पयडिय जयहंसो कुणय विहंस हो भविय क्रमल-सरहंमहो । पण विवि जिगहंसो मुणिया हो कह पडमि हरिवंसहो ॥ जय विसह विसंकिय विस- पयास, जय अजिय-प्रजिय हय-कम्मपास । जय संभव भव तरुवर कुठार, जय अभिनंदण परिसेसिय कुणारि । जय सुम सुम पडिय-पय थ, जय परमप्पह या सिय-कुतित्थ । जय जय सुपास हय-कम्मपास, जय चंदप्पe ससि भास-भाय । जय सुविधि सुविहि-पडण- पवीय, जय सीयल जिया वाणी-पवीण । *प्रशस्तिका यह भाग थामेर प्रतिमें नहीं है, प्रतिलेखकोंकी कृपा से छूट गया जान पड़ता है। किन्तु पंचायती मंदिर देवलो के शास्त्र भंडारकी प्रतिमें मौजूद है, उसी पर से यहां दिया गया है। जय सेय सेय क्रिय- विगय-सय, जय वासुपुज्ज भव-जल हि सेय । जय त्रिमल विमल गुण-गया- महंत, जय संत दंत जियावर प्रांत । जय धम्म धम्म विस हरिय ताव, जय संति समिय-संसार-भाव । जय कुंथु सुरवि-हुम-पाणि, जय अरिजिण चक्की सयल-णायि । जय मल्लि हिय- तिल्लोक-मल्ल, जय मुणिसुन्वय चूरिय-ति-सल्ल | जय यामि जिण विस-रह- चक्करोमि, जय जहिय राय रायमह रोमि । जय पास असुर - णम्महिय-मायण, जय वीर विद्दासिय-याय- पमाण । [ ४१ वत्ता पुणु विगय-सरीर गय-भवतीर तीस छह गुण सूरिवरा । उवज्झाय सुसाहू हुय सिवलाहू पणविवि पयडमि कह पवरा ॥१ पुष्व पुराण विस्थरु, काल- पहावें भवियहं दुत्तरु । अयरवाल-कुल-कमल-दिशेसरु, दिउचंदु साहु भविय जण-मयहरु | तासु भज्ज बालुहिइ भणिज्जद्द, दाय गुणहिं लोएहि थुणिज्जइ । सच्च-सील - हरयहिं सोहिय, भारु मुणिवि कंचयाहिं ण मोहिय । ताहि पुतु विणा वियाणड, दिउढा णामधे बहु जागउ । तो उवरोह मई यहु पारद उ सुहं भविया प्रत्थ-विसुद्ध उ । जासु सुत महारउ-खिज्जइ, सग्गपवग्गहं सुह-संपज्जइ । अ महंतु पिक्खवि जणु संकिउ, ता हरिबंसु महंमि श्रहिंकिउ । सद्द - प्रत्य-संबंध-फुरंत, जिरासेहो सुत्तहो यहु पय डिउ । त सी वि गुणभड़ वि मुबिंडु, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ו כט वीरसेनामनिर-माला . बाईहिं कुंभदारण-मयंदु'। सज्जण-दुज्जण-भउ अवगरिणवि, ते णिय-णिय सहाव-रय दोरिणवि | कहुयउ-णिबु-महुरु इंगाली, अंबिलु बीयपूर-चिं वाली। सिंह सज्जण सुसहावें वच्छलु, दुज्जणु दुत्थु गहइ कवियण छलु । लेउ दोसु सो मई मोकल्लिर, जह पिक्खइ ता अच्छउ सलिलउ । अन्तिमभागः इहु हरिवंसु सस्थु मह अक्खिर, कुरुवंसहो समेउ एउ रक्खिड । पढमहि पयडिउ वीर-जिणेदे, सेणियरायहो कुवलय-चंदें। गोयमेण पुणु किय सोहम्में, जंबूसामि विण्हु सणामें। दिमित्त अवरज्जिय गाहें, गोबद्धणेण सु भद्दयबाहें। एम परंपराए अणुलग्गउ, पाइरियहं मुहाउ भावग्गउ । सुणि संखेव सुत्तु अवहारिउ, मुणि जसकित्ति महिहि विस्थारउ । पद्धडिया छंदें सुमणोहरू, भवियण-जण-मण-सवण-सुहंकह। करि वि पुरणु भवियह वक्खाणित, दिदु मिच्छत्त, मोह-अवमाणिउ । जो इउ चरिउ वि पढह पढावा, वक्खाणेप्पिणु भवियह दावा । पुणु पुणु सहहेइ समभावे, सो मुच्चइ पुवक्किय-पावें। जो मायरइ ति-सुद्धि करेमिण, सो सिउ लहइ कम्म छेदेप्पिणु । जोणु एम चित्तु णिसुणेसह सग्गु-मोक्खु सो सिग्घु खहेसह । १ यह पंक्ति मामेर प्रतिमें नहीं है, किन्तु पंचायती मंदिर देवी भंडारकी प्रतिमें पाई जाती है। एउ पुराणु भषियहं भासासह, पायु-बुद्धि-बलु-रिद्धि पयासह । वहरिउ मित्तत्तणु दरिसावइ, रज्जस्थिउ विरज्जु संपावह । इट्ट समागमु लाह सुहाइवि, देवदिति बरु मच्छरु मुचिवि । गह साणुग्गह सयल पयहि, मिच्छाभाव खणड तुट्टहिं । भावह सव्व जाहिं खम भावें, सुह-विलास घरि होहि सदावें । पुत्त-कलित्तत्थियहं सुपुत्तइं, सन्गस्थियहं अणु हुज्जइ । जो जं इच्छह सोतं पावइ, देसंतरि गड णिय घरि श्रावइ । भवियण संबोहणहं णिमित्ते, एउ गथु किउ हिम्मल-चित्त। गाउ कवित्त कित्तहें धणलोहें, गड कासुवरि पवडिय मोहें। इंदड रहिएउ हुड संपुण्णउ, रज्जे जलालखान कय उराउ । कम्मक्खय णिमित्त हिरवेक्खें, विरहउ केवल धम्मह पक्खें। अस्थ-विरुदधु जंजि इह साहिउ, तं सुयदेवि खमड अवराहउ । यंदउ परवडणाय सपत्तड, सहता उवणिय पय पालतउ । यंदड जिणवर सासणु बहुगुण, शंदउ मुणिगणु तह सावय जणु । कालि कालि कालिविणि परिसर, पच्चउ कामिणि गोमिणि विलसत । पसरट मंगलु बज्जड महलु, मंदर दिउढासाहु गुणग्गलु । जावहि चंदु सूरु तारायण, यंदड ताम गंथु रंजिय जणु । विक्कमरायहो ववगय कामई, महि इंदिय दुसुण्ण अंकालई। भादवि सिय एपारसि गुरुदिणे, हुए परिपुण्यर उगतहिं इणे । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह [४३ सय चालीस संख स-माणहु, गथ-पमाणु अणुट्ठई जाणहु । घत्ताहरिवंसु एहु मई वज्जरिउ हरिबलणेमहि चरिउ विसिटिउ। परिवाडिए कहिउ मुणीसरहं तं तिह भवियह सिटु ॥ इह कट्टसंघे माहुरहं गच्छि, पुक्खरगणे मुणिवर-वह विलच्छि । संजाया वीर जिणुक्कमेण, परिवाडिय जइबर णिहयएण । सिरि देवसेणु तह विमलसेणु, मुणि धम्मसेणु तह भावसेणु। तहो पट्ट उवगए उ सहसकित्ति, प्रणवरय भमिय जए जासु कित्ति । तहो सीसु सिद्ध गुणकित्ति णामु, तव-तेएं जासु सरीरु खामु । तहो बंधउ जस मुणि सीसु राउ, पायरिय पणासिय दोसु-गउ । तहो पट्टय सिट्ठ मलयकित्ति, मलधारि मुणीसरु पयडिकित्ति । तहं अण्णइं सातउ दिण्ण चाउ, पासीवालु विज्जय यदु जाउ । इह जोयणिपुरु बहु पुर हंसारु, धण-धण्ण-सुवरण-गारेहिं फारु । सरि-सर-वण-उववण-गिरि-विसालु, गंभीर परिह उत्तु गु सालु । जउणाण तहो पासिहि वहंति, पर-णारि जत्थ कीडति रहति । जहिं घरि-घरि ईसर भूइ-जुत्त, घरि घरि णिय णिय-गोरीहिं रत्त । प्रणवरड जत्थ वट्टा सुभिक्खु, उ चोरु-मारि गड ईय-दुन्छ । जहि कालि कालि परिसंति मेह, यंदर्हिणायर-जण जणिय-णेह । जहियालउ उत्तुंगु बंदु, धय-रवण-स-घंटहिं करिंदु। जिण-पडिमा-मंडिड विगय-मण्णु, कहलासु व उच्चड सेय-वएणु । पत्तातहिं जिणवर-मंदिर गयणाणंदिरि, प्राइवि रिसि सुह अच्छर्हि सावय-वय-पालहिं जिणु जयकारहिं साविय दाणु पयस्थाहिं। जहिं डूंगर पंडिउ अह सुदक्खु, अणुदिणु परिपोसइ धम्मु-पक्खु । तहिं भयरवाल-वंसहं पहाणु सिरि गग्ग-गोत्तणं सेय भाणु । जं स्वें वेणज्जिय काम-वाणु, दिउचंद साहु किय पत्त-दाणु । भत्तारहो भत्तिय इठ्ठ पत्ति, बालुहिय णाम णय-विणय-जुत्ति | तहि यंदण चत्तारि वि महत, संघही दिउढा-डूमाहि जुत्त जो पढम गुणग्गलु आसराउ, णिय पिय तोसउही बद्धराउ। सुर चोचा जिण-सुय-भत्त साहु, पिय यम बोघाही बद्धगाहु । पुणु दिवचंद भज्जहिं गम्भहूउ, गुण अग्गलु देभो णाम बीउ । देवो पिय परिहुव महुर-वाणि, गाय-सच्च-सील-गुण-रयण खाणि । खत णामें जिणमय विणीय, कीलंतहं सा संदण पसूय । मोल्हणु लखमणु तहं गोइंद दक्खु, दाणेकचित्तु णं कप्परुक्खु । देयो बीया भज्जा गुणंग, देदो या सवंग चंग। जिण-सासण बच्छल सुद्धभाव, जिण-पूर्व-दाण-रय-रिउ सहाव। गोइंद पिय अोल्ही गुण-महंतु, पिय-पाय-भत्तु जिणयासु-पुत्तु । दिउढा साहुहिं पिय-भइ-विणीय, पूल्हाही सह सीलेण सीय । तह लाडो थामें अवर भज्ज, संघहं वियायर अह सलज्ज । भत्तारहो भत्तिय विणयवंति, सवें रह पिय इव कणय-कति । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तहो पुत्त वीरदासुवि गुणंगु, जो बारह भावण अणुचितइ, पिय साधाही रूवं अणंगु । अप्प-सरूव भिएणु तणु मण्णा । तहो णंदणु णामें उदयचंदु, दिउढा जसमुणि पथि पवित्तवि, पिय-माय-कुमुयवणणाइ इंदु । काराविउ हरिवंसु-चरित्तुवि ।। तुरियउ एंदणु डूमासयत्तु पत्तापाहुलही पिय करमसिंह वुत्तु । जामहिं णहु सायरु चंदु दिवायर ता णंदउ दिउढा हु कुलु पत्त जे विण्हुहि चरियउ कुरु-वंसह सहियउ काराविउ हय-पाव एयाहिं मज्झि णंदणु तइयो, दिउचंद साहुहिं कि वरिणज्जइ। इय हरिवंसपुराणे कुरुवंस-साहिट्ठिए विबुह-चित्ता दिउढाणामें सुद्धमणु सिह सुदसणु इव जाणिज्जइ । रंजण-मिरिगुणकित्ति-सीसु मुणिजसकित्ति-विरहए साधु अरहंतुवि एक जि जो मायइ, दिउढाणामंकिए णेमिणाह-जुहिटिर-भीमाज्जुण-णिब्वाण ववहार सुद्धा भावह। गमण (तहा) णकुल सहदेव सब्वट्ठसिद्धि-गमण-वण्णणं जो तियाल रयणत्तउ अंचह, णाम तेरहमो सग्गो समत्तो ॥ संधि १३॥ चउणिोय रुह-कहव ण मुच्चइ । (लिपि सं. १६४४ पंचायती मंदिर दिल्ली शास्त्र भंडारसे चउविह संघहं दाणु कयायरु, २३-जिणरत्ति कहा (जिनरात्रिव्रत कथा) मंगल उत्तम सरण विणय-परु । जिणवरु थुइवि तिकालहिं अंचइ, भट्टारक यशःकीर्ति आदिभाग:धणु ण गणेइ धम्म-धणु संचह । जो परमेट्टि पंच आराहइ, पणविवि सिरिमंतहो अइसय-जुत्तहोवीरहो नासिय-पावमलु पंचवि इंदिय-विसयई साहह । गिच्चल मण भब्वहं विलिय-गन्वहं अक्खमि फुड जिण जो मिच्छत्त पंच अवगण्णा, रत्ति फलु पंचम गइ णिवासु मणि मण्णा । परमेट्ठि पंच पणविवि महंत, जो अणुदिणु छक्कम्म णिवाहइ, तइलोय णमिय भव-भय-कयंत । दाण-पूय-गुरु-भसिहि साहह । जिण-चयण-विणिग्गय दिव्ववाणि, जो छज्जीव-निकायह रक्खइ, पणमेवि सरासइ सहखाणि । छह दम्वहं गुण-भाव गिरक्खा । णिग्गंथ उहय-परिमुक्क-संग, सत्त-तच्च जो णिच्चाराहा, पणवेवि मुणीसर जिय-अणंग। सत्त-वसण दूरेण पमायह।। पणविवि णियगुरु पयडिय-पहाउ, सत्तवि दायारह गुणजुत्तड, फलु अक्खमि जिणरतिहि जहाउ । इह परसत्त भयहं जो चाड । अन्तिमभाग :अट्ठ मूलगुण जो परिपाला, णिसुणिवि गोयम भासिउ पिराउ, उत्तर गुण सयल वि संभाला। बउ गहिउ झत्ति मणि करि विराउ | सदसण-अटुंग-रयण-धर, जिणु बंदिवि तह गोयमु गणेसु, मज्ज-दोसु परिवज्जण-तप्पर । णिय णयह पत्तु सेणिउ गरेसु । एव णव णयवि पयत्थई बुज्मा , दह-तिउण वरिसि विहरिवि जिणेंदु, दह-विह धम्मग्गहण वि रुच्चा । पयडेवि धम्मु महियलि अणेंदु । एयारह पडिमडं जो पालइ, पावापुर पर मज्झिहि जिणेसु, बारह वयई णिच्च उज्जान । बेदिय सह उज्झिवि मुसिईसु । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसेसह कम्मह करि विणासु, संपत सिद्ध-शिवास त्रासु । देवाली अमावस लेड, महो देउ बोहि देवादिंउ । देवणिकायहं श्रइम गुज्ज. आइवि विरइय किव्वा ण- पुज्ज | जिस णिसिवड जो त्रि करेइ भन्छु, पावे मोक्खु संहरिय-गब्बु | घन्ता जिण णिसिवड फलु क्खिड गुणहं कित्ति मुणो से । सिरिजसकित्ति मुणिर्दे कुत्रलय चंदे जिया गुण-भक्तिविलेसें ॥१५|| श्रमुणिय कव्वविसेस तह वि जं वीरगाह-गुराएं । चिट्ठत्तणेण रहयं तं सयलं भारही खमश्र ॥ इति निरात्रिव्रत कथा -- ( श्रामेरशास्त्र भंडार से ) ४२ रविवर कहा ( रविव्रत कथा ) भ० यशःकीर्ति आदिभाग: : आदि अंत जिणु दिवि सारद. धरेवि मणि गुरु निग्गंथ गयेत्पिणु । सुयहं श्रणुसरेवि पुच्छंत भव्त्रयणहं पासणाह तहं रचि-वउ पभणामि सावयहं जासु करंतई लब्भइ संपइ पवरा ॥ अन्तिमभाग -: पास जिर्णेद पसाएं दिवसहं सो कहइ. जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह आदिभाग पंडिय सुरजन पासहं भव्वड व लवइ । जो इहु पढइ पढावइ बिसुराइ कण्णु दइ, सो जसकित्ति पसंसिवि पावइ परम गई ॥२०॥ (दिल्ली पंचायती मन्दिर शास्त्र भंडारके गुटकेसे) २५- पासरणाह चरिउ (पार्श्वनाथ चरित) ( कवि श्रीधर ) रचनाकाल सं० ११-६ पूरिय भुणालहो पाव-पणासहो शिरुवम-गुण-मणि-गण- भरिउ । तोडिय भवपासहो पणवेवि पासहो पुण पडमि 'वासु जि चरिउ ॥ x x X [85 विरएव चंदष्पहु चरिउ चारु, चिर चरिय कम्म दुक्खाहारु । विहरतें कोडगहल-वसेण, परिहत्थिय वायुसरि रखेया । सिरि-यर बाल- कुल-संभवेण, जणी - बील्हा - भुषेण । वर विणय पणायारुण, का बुह गोल्ह-तगुरुहेण । पडिय तिहुश्रण वई गुणभरेण, मरिणय सुहि सु सिरिहरेण । जउँगा-सार सुर र हियय-हार, णं वार विलासिणि-पउर-हार डिंडीर - पिंड उप्परिय- पिल्ल, कीलिर रहं गंथोग्वड थणिल्ल । सेवाल - जाल - रोमावलिल्ल, बुहयण-मण-परिरंजण छइल्ल । भमरावलि - वेणी वलय- लच्छि, पप्फुल्ल-पोम-दल-दीहरच्छि । पवणाय सतिलावत्तणाहिं, विहिप जणवय तणु-ताय-वाहि । वर्णमय-गलमय जल घुसिण लित्त, दर फुडिय - सिप्पिड दसया-दित्ति । वियसंत सरोरुह पवर-खत्त, रणार-पवर-पिथाणु रत्त । विडलामल पुलिग यिब जामु उत्तिरी जयहिं दिट्टु तामु । हरियाणए देसे असंखगामे, गामियि जणिय अवश्य कामे । घसा परचक्क विहट्टणु सिरि-संघट्टणु, जो सुरवइया परिगणित । रि रुहिरावण विलु पवहणु, ढिल्ली यामेण जि भणिउ ॥ २ X X X जहिं असि वर-तोडिय रिठ-कवालु, राहु पसिन्दु अगवालु । दिलु वयि हम्मीरवीरु, दिया-विंद- पविययण- चीरु । दुज्जय-हिययावदिलण-सीरु, दुपाय-पीरय-रिला-समीर । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला बल-भर-कंपादिय गायराउ पुणु बीयउ विबुहाणंद-हेड, माणिणि-यण-मण-संजणिय-राड । गुरु भत्तिए संथुन अरुह-देड । तहिं कुल-गयणं गणेसिय पयंगु. विणयाहरणालंकिय-सरीरु, सम्मत्त विहूसण भूसियंगु। सोढल-णामेण सुबुद्धि धीर । गुरुभत्ति णविय तेल्लोक-णाहु, दिड अल्हण णामेण साहु । पुण तिजउ णंदणु णयणाणंदणु जगे णट्टलु णामें भणिउं । तेण वि णिज्जिय चंदप्पहासु, जिणमा योसंकिउ पुण्णालंकिउ जसु बुहेहिं गुण गणु गणिउं॥ णिसुणेवि चरिउ चंदप्पहासु। जो सुदरु बोया इंदु जेम, जपिउ सिरिहरु ते धरणत, जण-वल्लहु दुल्लहु लोय तेम । कुलबुद्धि विहवमाण सिरियवंत । जो कुल-कमलायर-रायहंसु, अणवरउ भमई जगि जाहि कित्ति, विहुणिय-चिर-विरड्य-पाव-पंसु । धवलती गिरि-सायर-धरिति । सा पुणु हवेइ सुकहत्तणेण, तित्थयरु पयहावियउ जेण, बाएण सुएण सुकित्तणेण। पढमड को भणियई सरिसु तेण । जो देह दाणु बंदीयणाहं, बत्ताजा अविरल धारहिं जणमण हारहिं दिज्जइ धणु बंदीयणह। विरएवि माणु सहरिस मणा । पर-दोस-पयासण-विहि-विउत्तु, ता जीव पिरंतरि भुषणभंतरि भमई कित्ति सुदर जणहं ।।४ जो ति-यण-यणाहरण-जुत्तु । पुत्तेण विजच्छि-समिद्धएण, जो दितु चउम्विहु दाणु भाई, णय-विणय सुसील-सिणिडएण । अहिण बंधू अवयरिड णाई। कित्तणु विहाइ धरणियलि जाम, जसु तणिय कित्ति गय दस दिसासु, सिसिरयर-सरिसु जसु ठाइ ताम | जो दितु ण जाणई सउ सहासु । सुकइत्ते पुणु जा सलिल-रासि, जसु गुण-कित्तणु कइयण कुणंति, ससि-सूर मेरु-पक्ख त-रासि । प्रणवरउ वंदियण णिरु थुति। सुकइत्तु वि पसरइ भवियणाह जो गुण-दोसहं जाणइं वियार, संसग्गे रंजिय जण-मणाह। जो परणारी-रह णिन्वियारु । इह जेजा थामें साहु मासि, जो रूव विणिज्जिय-मार-धीरू, मह हिम्मलयर-गुण-यण-रासि । परिवा -बयण-धुर-धरण-धीर। सिरि-भयरवाल-कुल-कमल-मित्तु, सुह-धम्म-कम्म-पवियएण-वितु । सोमहु उवरोहें बिहय विरोहें णट्टलसाहु गुणोह-गिहि । मेमडिय णाम हो जाय भज्ज, सीमाहरणालंकिय सलज्ज । दीसह जाएप्पिणु पणउ करेप्पिणु उप्पाइय भव्वयणदिहि ॥ बंधव-जण-मय-संजणिय-सोक्ख, सं सुणिवि पयंपिड सिरिहरेण, हंसीव उहय-सुविसुद्ध पक्ख । जिण-कम्ब-करण-विहियापरेण । तहो पढम पुत्तु जण वयण राम, सब्बड जं जंपिड पुरउ मज्नु, हुड प्रारक्खि तसजीव गामु । पद सम्भावें बुह मइ असज्छु। कामिणि-माणस-विदवण-कामु, परसंति एत्यु विबुहहं विवक्ख । राहट सम्बस्य परिणाम। बहु कवड-कूट-पोसिय सवालु। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैतप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह अमरिस धरणीधर सिर विजग्ग, हर सरूव तिक्ख मुह करणलग्ग । असहिय परणर गुण गरुन रिदि, दुन्वयण हणिय पर कज्ज सिन्ति । कयणा सा मोडण मत्थ रिल्ल, भूमिट डिभंगि णिदिय गुणिल्ल। को सक्कइ रंजण ताहं चितु, सज्जण पयडिय सुप्रणत्त रित्तु । तहि लह महु किं गमणेण भन्व, भब्वयण-बंधु परिहरिय-गव्य । तं सुणिवि भणइं गुण-रयण-धाम, अल्हण णामेण मणोहिरामु । पउ भणि काहं पहं अरुहभत्तु, किं मुणहि ण णट्टलु भूरिसत्तु । पत्ता--जो धम्म-धुरधरु उरणय-कंधरु सुश्रण-सहावालंकरिड अणुदिणु णिच्चलमणु जसु बंधवयणु करह वयणु णहावरित। जो भब्वभाव पयडण समत्यु, ण क्रया वि जासु भासिउ णिरत्यु । माइण्णइ वयणइंदुज्जयाई, सम्माणु करह पर सज्जणाहं । संसग्गु समीहइ उत्तमाहं, जिणधम्म विहाणे णित्तमाहं । णिरु करह गोहि सहुँ बुहवणेहिं, सस्थत्थ-वियारण हिय-मणेहि। किं बहुणा तुझु समासिएण, अप्पड अप्पेण पसंसिएण । महु वयणु ण चान सो कयावि जं भणमि करइ लहु तं सयादि । तं णिसुणिवि सिरिहरु चलिड तेत्यु, उपविट्ठ गट्टलु ठाई जेत्थु । तेणवि तहो पायहो विहिड माण, सपणय तंबोलासण समाणु । जं पुष्व जम्मि पविरइड किंपि, इह विहिवसेण परिणवह तपि । खणु एक सिणेहें गलिउ जाम, अल्हण णामेण पउत्तु ताम । भणमि किंपि पहं परम सुहि । पर समय परम्मुह अगणिय दुम्मह परियाणिय जिण समय विहि ।।८।। कारावेविणायहो णिकेउ, पविइण्णु पंच वएणं सुकेउ । पहं पुणु पट्ट पविरड्य जेम, पासहा चरित्त जइ पुणवि तेम । विरयावहि ता संभवह सोक्खु, कालंतरेण पुणु कम्ममोक्खु । सिसिरयर-विवे णिय जणण णामु, पई होइ चडाविड चंद-धामु । तुज्मु वि पसरह जय जसु रसंत, दस दिसहि सयल असहण हसंतु । तं णिसुणिवि गट्टलु भणई साहु, सइवाली पिय यम तणणाहु ॥ भणु खंड रसायणु सुह पयासु, रुच्चहण कासु हयतणु पयासु । एत्वंतरि सिरिहरु वुत्त तेण, पट्टनु णामेण मणोहरेण । भो तहु महु पयडिय देहभाउ, तुहुँ पर महु परियाणिय सहाउ । तुहुँ महु जस सरसीरुह सुभाणु, तुहुँ महु भावहिणं गुण-णिहाणु । पइं होतएण पासहो चरितु, प्रायण्णमि पयहि पावरितु । तं णिसुणिवि पिसुणि कविवरण, प्रणवरउ लद्ध-सरसइ-वरेण । विरयमि गयगावें पविमल भावे तुह वयणे पासही चरिउ । पर दुज्जण णियरहिं हयगुण पयरहि घह पुरु ायरायह भरिउ ॥३॥ इप सिरिपासचरित्त रइयं पुह-सिरिहरेण गुण-भरियं । अणुमरिण मण्योज पहल-णामेण भव्येण ॥१॥ विजयंत-विमायामो पम्मादेवीह यंदणो जानो। कापणहविजय पामो संधी परिसमतो॥२॥संधि भो ण्डल विरुवम धरिष वाम Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला अन्तिमभाग: अग्रातकान्वय-नभाङ्गण-पावणदुः, राहव साहुहें सम्मत्त-लाहु, श्रीमाननेक-गुण-रंजित-चारु-चेताः॥२॥ संभवड समिय संसार-दाहु । ततोऽभवत्सोढल नामधेयः सतो द्वितीयो द्विषतामजेयः । सोढल नामहो सयल विधरित्ति धर्मार्थकामत्रितये विदग्धो जिनाधिप-प्रोक्लवृषेण मुग्धः ॥१ धवलंति भमउ अणबरउ कित्ति ॥ पश्चाबभूव शशिमंडल-भासमानः, तिरिण वि भाइय सम्मत्त जुत्त, ख्यातः क्षितीश्वरजनादपि लब्धमानः । जिणभणिय धम्म-विहि करण धुत्त । सदर्शनामृत-रसायन-पानपुष्टः महिमे जलहि ससि सुरु जाम, श्रीनट्टलः शुभमना ज़पितारिदुष्टः । सहुँ तगुरुहेहिं संदंतु ताम । तेनेदमुत्तमधिया प्रविचित्य चित्ते, स्वप्नोपमं जलदशेषमसारभूतं । चउविहु वित्थरउ जिणिंद-संधु, श्रीपार्श्वनाथचरितं दुरितापनोदि, परसमय खुद्दवाइहिं दुलंघु ॥ मोक्षाय कारितमितेन मुदं व्यलेखि ॥२॥ वित्थरउ सुयजसु भुअणि पिल्लि, -प्रति भामेर भंडार सं० १९४७ तुद्दउ तडित्ति संसार-वेल्लि । विक्कम परिंद सुपसिद्ध कालि, नोट-इसके बादमें पहलसाइके सम्बन्धमें १५-२० ढिल्ली पट्टणि धण कण बिसालि ॥ पंकियों और दी हुई हैं जिनका सम्बन्ध प्रशस्तिसे न होनेके कारण यहां नहीं दी गई। सण वासि एयारह सएहिं. परिवाडिए परिसहं परिगएहिं । २६-वड्ढमाणकव्व (वर्धमानकाव्य) कसणठमीहिं भागहणमासि, -कवि हरिइद ( हरिश्चंद) रविवारि समाणि उ सिसिर भासि ॥ आदिभागसिरि पासणाह णिम्मलु चरित्तु, परमप्पय भावणु सुह-गुण पावणु णिहणिय-जम्म-जरा-मरणु । सयलामल-गुण रयणोह दित्तु । सासय-सिरि-सुदरु पणय पुरंदरु रिसहु णविवि तिहुयण-सरणु पणवीस सयइं गंथहो पमाणु, पणवेप्पिणु पुण अरहंताणं दुकम्म-महारि-खयंताणं । जाणिज्जहि पणवीसहिं समाणु । वसुगुण-संजोय-समिद्वाणं सिद्धाएं ति-जय-पसिद्धाणं ॥१॥ पत्ता सूराणं सुद्ध चरित्ताण-वय-संजम-भाविय-चित्ताणं । जा चन्द दिवायर महिह रसायर ता बुहयहिं पढिज्जत। पयडिय समग्गसस्सायाणं भव्वयणहो णिरुज्झायाणं ॥२॥ भवियहि भाविज्जउ गुणहिं थुणिज्जड वरलेयहिं लिहिजड ॥८ साहूणं साहिय-मोक्खाणं सुविसुद्धज्माण-विहि-दक्खाणं । इय पासचरितं रहय बुह-सिरिहरेण गुणभरियं । सम्मत्त-णाण-सुचरित्ताणं स-तिसुद्धएण वमि पवित्ताणं ॥३॥ अणुमणिय मणुज्जं णट्टल-णामेण भग्वेण ॥ वसहाइसुगोत्तमाणं सु-गणाणं संजम-धामाणं । पुब्व-भवंतर-कहणो पास-जिणिदस्स चारु-निग्वाणो। अवहारि व केवलवंताणं'.........................nn जिण-पियर-दिक्ख-गहणो बारहमो संधी परिसम्मत्तो॥ x x x x संधि १२ अन्तिमभागःभासीदत्र पुरा प्रसन-वदनो विख्यात-दत्त-श्रुतिः, जय देवाहिदेव तित्यकर, सूत्र षादिगुणैरलंकृतमना देवे गुरौ भातिकः । वड्माण जिण सम्व-सुहकर सर्वज्ञ क्रम-कंज-युग्म-निरतो न्यायान्वितो नित्यशो, णिरुवम करण रसायणु धपणा, जेजाख्योऽखिलचन्द्ररोचिरमजस्फूर्जयशोभूषितः ॥१॥ कव्व-रयणु कंडलु भड पुरण | पस्यांगजोऽजनि सुधीरिह राघवाल्यो, सोणंदड जो शिवमणि मण्णाई, ज्याथानमंदमतिरुजिमात-सर्व-दोषः । वीर-चरितु वि [मण] पाथरवई। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह सुभाय- देवि जगसारी, सो कंद जो बिहह लिहावर, रस-रसड्डु जो पढ पढाव | जो पयत्थु पयडेवि सुभग्वहं, मणि सह करेह सुभन्वहं । द देवरायांदा घर, होलिवम्मु करणु च उपाय कर । महु वराहु खमड भंडारी । दय-धम्म-पवत्तणु विमल सुकित्तणु विसुवतहो जिणइंदहो । जं होइ सुधग्गणड हउ मणि मय्य तं सुह जगि हरिइंदहो ॥ इति श्री वर्धमानकान्बे श्रमिकचरित्रे एकादशमः संधिः । प्रति जैनसिद्धान्तभवन धारा लि० सं. १६०० २७ - भविसयत्त कहा (भविष्यदत्त-कथा) कवि श्रीधर, रचनाकाल सं. १२३० आदिभाग:ससि-पह जियचराई सिव-सुइकरवाई पाविवि विम्मल हु चरितु जेा विस्थारिउ, लेहाविव गुणियण उवयारिठ । होउ संति पीसेसहं भव्वहं, जिस-पय-भक्त विर्यालय-गब्वहं । गुण- भरि । महाममि पविमल सुत्र पंचमिकलु भविसयत्त- कुमरहो चरित वरिल सयल-पहुमि घरवारह, मेह-जालु पावस-वसुहारहं । घरि-घरि मंगल होड सडण्याड, दिणि-दिणि धण धरणाहं संपुरणउ । होउ संति चडविह जिया-संघ हु, देवास गराह दुबहु । दर सास वीर-जिदिहो, सेणिवराय - रिंद - णिवासहो । मंदर - सिरि होउ जम्मुच्छ, घरि-घरि दुदुहि सद्दु तुच्छ । T सिरि चंदवार यर-हिए, जिया धम्म-करण उक्कट्टिएय । माहुर-कुल-गयण तमीहरेण. विदुयण सुबण मण घण हरेण । पारायण - देह समुग्भवेय, मा-वय-काय हिदिय-भवेण । सिरि वासुएव गुरुभायरे, भव- जलविहि-विड-कायरे । बीसेसें सविलक्ख गुग्णालय, मइवर सुपट्ट यामालएव । होठ सयल पूरंतु मणोरह, परमानंद पवट्टड इह सह । अमिय-विड उस एव यद, जगि अगि मिवि दुरिय- सिकंदछ । विरावेह सम्मन्त दय किज्जड, सास-सह-शिवासु महु दिग्जउ । आल्हा साहु साह महुद, सज्जन्य-अयम-यययानंद । होहु चिराडल थिय-कुल-मंडलु, मग्गहा- जब दुइ-रोह विहंडलु । 1 विगएव भणिड जोडेवि पाणि, भक्ति कह सिरिहरु भब्वपाथि । इह दुल्लहु होइ जीवहं यार त बीसेसई सं-साहिय परतु । जड़ कहव लहर दहयहो वसेब, ठग भमंतु जिउ सहरसेब । ता विजय जाइ गन्मे वि तेमु, वायाहट खसर पसु जेमु । अह लहइ जम्मु वा बहु-विहेहिं, रोयहिं पीडिज्जइ दुइ-गिहेहिं । होठ संति संचल परिवारहैं. भक्ति पवड गुरु-वय-धारहँ । पउमदि सुबियाह गदिहु, चरण सरगु गुरु कह हरिइंदहु । हीवाहित कम्बु रसह, पड विरहड सम्मह अवियहाँ । १ यह पाठ जैनसिद्धांत भवन धाराको प्रतिमें नहीं है। [ ४६ जह बिडिय मायरि अब खामोयरि अवहेर विनमणि प्रासु पय-पाय-विहीगड आयइ दीयउ तासो यवि जी बेह सिसु ॥२ हड आय माय मह मइए, साई परिपालित मंथर गइए । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] कप्पयस्व विउलासए स्यावि, दुल्जहु रवणु व पुष्णेय पावि । जइ एयहिं विरयमि योवयारु, उग्वाडिय सिव सड हलय वारु । ता किं भणु कइ मह आवश्य, जम्म-मह पीडा कारएण । पड जाणि वि सुललिय पर्याहिं सत्यु, विरयहि बुहया मयाहरु पसत्थु । महु तसिय मान्य यामेा जुत्त पायडिय जियोसर भविय सुत्त । वणिव भविसयत्ता चरिन्तु, पंचमि ववास फलु पवित्त । महु पुरउ समक्ख वप्प सेम, पुण्वायरियहिं भासियड जेम । संणिसुविणु कइया पठ भो सुप्पट पई वज्जरिङ जुत्तु । नइ मुज्झ समत्थि उ करेमि हउं अज्जु कहव विरु परिहरेमि । ता किं चाय महु बुद्धियाई, कीरह विलाए स-सुद्धियाइ । वीरसेनामन्दिर-मन्थमाला बता- किं बहु पुणु-पुणु भणिरं सावहाणु विरएवि मणु । भो सुप्पट महमद्द जाणिय भवगद्द या गयामि हरं मये पिसुख-बलु X X X इय सिरि-भविसयत्त-परिए विह- सिरि सुक सिरिहरविरहए साहु बारायण-भज्ज- रुप्पिणि- शामंकिए भविसयस उप्पत्ति-वायो नाम पढमो परिच्छेच समन्तो ॥ संधि १ अन्तिम भाग: परवाह विक्कमाच्च काले पवईतर सुहयारए विसाले । बारहसय वरिसहिं परिगएहि, फागुण-मासम्म बलक्ख पक्खे, दसमिहि दिये तिमिरुक्कर विवक्ले । रविवार समाग्रिड एड सत्थु, जिह महं परियाचिड सुप्प सत्थु । भासिड भविस्य हो चरित पंचम उपवासहो फलु पवित्त । - प्रति आमेरभंडार लिपि सं० १५३० २८ संभवणाह चरिउ ( संभवनाथ चरित ) कवि तेजपाल आदिभाग:पवित्रविदो चरिम जिदिहो बीरहो दंसव्यन्यायवहा । सेणिय परिंदो कुवलयचंदहो णिसुग्गहु भवियहो पवरक सेणियरायहो लच्छि सहायहो सबलु सम्याउं सुहयरु । कुवलय आसाणु तम- णिण्यास जयड चरिट यां हि मय वसंततिलका—संबद्ध सत्तमधरा वियजीवके वि, सीसेव .......पाउलहि विषेठ । गोबिद अहस्स फलेा जस्स, ससस्स महिमा पयडेमि तस्स ॥ छ ॥ हो भवियहो सिहु थिरु कुहु, सेणियचन्तुि जह तह सुखेहु । चिरु पर्याfer गोयमसामि जेम, बहु रस रसद हउं भयमि तेम । इह दीवि भरह खेसंतराल, fee मगहदेसु गिरि सरि विसाल । कर्याव जो गंदण वोहिं, तर सहलिय कुसुमिय पल्लव घयेहिं । रणारुवरणारेहिं, ढण्णय धणुब्व बहु-अल-सरेहिं । कय कम्बु व बहुरस-पोसोहिं, वल्लहद्ध व कय हलकरि सोहिं । कण्डु व कंसा क्किंदोहिं, भरहु व सेविवु सक्कंदयेहिं । बहुधयवेव कय-विवकहिं, मीमंसु व पोलिय तक्कएहि । अज्जन महिव्व जण भोइएहि, समसर व संठिय जोइएहिं । सोहइ पुरु तर्हि शयगे हु, ..... ..... *** ¡ जय पास वर भास पूरिय जयाद्यास, जयवीर जियइंद सिंह विग्वास । बारसंगि समयग्गय जिस मुहणाय वह सब पोलिय वि दुविहालंकारहिं य पमारहिं सा भयवह सह जयउ सय । पुपयामि मुणि तव -सेय- चारु, चिर चरियक्रम्म दुक्खावहार । मुबि सहसकित्ति धम्माणुवहि, गुकिन्ति गुद्यावरु ताह पट्टि । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपन्थ-प्रशस्तिसंग्रह तहो सीसु सेय-मच्छी-शिवासु, अडहसि दुग्गाह गाहि (१), जसकित्ति जिलायम पह-पपासु । गामें पसिद दाउमाहि। तहो पहिमहामुखि मलकित्ति, पच्चत बासि मंडलुमसेसु, उद्धरिय जेब चारित्त वित्ति। पियवति सहेबिलु पुग्वदेसु । हो सीसुगमसमि बय-सिरेखा, तिहुअरियण कोविजेसम पर्या, परमप्पड साइट पर जेण। दक्खिणदिसि पेसिट णियय दंड । दो पढम भाव दूरीकएण, पच्छिम दिसि खरबह जे जियंति, दो माणहि सियमणु दिएणु जेण। सेवंति चाह अक्सरु णियंति।। गुणभदु महामह महमुखीसु, उत्तर दिस गवाह मुह वि पु, जियसंगहो मंडणु पंचमीसु । माति प्राण डोवती कप्पु । जे केवि भब्व कंदोह-वंद, किं कि गुण वयामि पवह तासु, परवेपिलु तह भरविंदु निंद। थे तोणिहिम्ब गंभीरमासु । मुणि गुणकित्तिमहारउ तच्च विद्यारउ सव्व सुहंकर विगयमलु मण इच्छिय-यह कप्परक्यु, मह पर पणवतहो भत्ति कुणंतहो कन्व-सत्ति संभवड फलु ॥२॥ प्रणदिणु जण वयहो विलुन दुल्लु। इह इत्यु दीवि भारहि पसिद्ध, तहिं कुल गयणंगवि सियपयंगु । णामेण सिरिपहु सिरि-समिदु । सम्मत्तवि-इसण-भूसियंगु। दुग्गु वि सुरम्मु जण जणिय-राउ, सिरि भयरवाल कुल कमल-मितु, परिहा परियरियड दीहकाड । कुलदेवि सवड मित्ताय गोत्तु । गोउर सिर कलसाहय पर्यगु, इह लखमदेखणामेव मासि, गाणा खच्छिए प्रालिंगि पंगु । अह हिम्मलयर-गुण-प्रयण-रापि । जहि-जण यहाणंदिराई, वाल्हाही शामें मासु भबज, मुणि-यय-गण-मंडिय-मंदिराई। सीमाहरणालंकिय सलज्ज । सोहति गठर-वर कह-मबहराई, तहो पाम पुतु जण-गयाराम, मणि-जडिय किवाई सुंदराई। हुच प्रारक्खिव तस जीव गाम् । जहि वसहि महायव चुय-पमाय, या खिउसी जब-जणिव-कामु, पर-रमणि परम्मुह मुक्क माय । बीयड होलू सुपसिन् जाम् । जहिं समय करहि घट घट हति, तहो बीह वरंगवति-अयसार. पडिसाद दिसि विदिसा फुति । हामेण महादिव्ही सुनार। जहिं पवण-गमन धाविय तुरंग, तेहमि दोहिमि सुहबक्सहिं भजहिं सोहह सेष्टि धरु । वारि-रासि भंगुर-तरंग। जिम मंद सुर्णदहि मणहरी रिसहु जिससह तिजय पहु॥४॥ जो भूसिड णेत्त-सुहावणेहि, तह दिउही पुच चयारि चार, सत्यब्व धवल-गोहण गणेहिं । शिवत्तवि वि बिज्जिय-धील्-माह। सुरपण वि समोहहि जहिं सजम्मु, दिउसी शामें जब-जविय-सेट, मेल्लेविशु सग्गाला सुरम्म। गुरु-मत्तिए संबड-मालदेउ । रिड-सीस-विहट्टणु पविउलु पट्टणु सिरिपहु थामे रयधि-खिहि । तस्साखुद बंड अवरु जाउ, सहि शिवसह महिवहरू सुरवा इतर परहं पयंहु सिहि ॥३ विएमाहरणासंकिपरकार। किवण्यामि बह रवि-सरिस-तेड, जो दिन दाजुबंदीयवाह, महि-मति पयती कप-विवेड। विरए विमाड सहरिस-मबाई। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] वीरसेनामन्दिर - प्रन्थमाला जसु वणियकित्ति गय दल दिसासु, जो दिंतु या जाग्रह सह सहासु । जसु गुण कित्तणु कश्या कुति, अणवर बंदियण बिरु थुयति । जो गुप-दोसई जायई वियार, जो परवारी-रह- सिम्बियार । जो रथात्तय-भूलिय- सरीरु, पडिवण्या-क्या धुर धरय धीरु । हथील्हा ग्रामेय साहु, गुरुभति व्यविय तिल्लोक बाहु । तस्सालय अवरुवि मल्लिदासु, को वयियाबि सक्क गुण-सहासु । जिन कुंथुदासु ब्रहमर भाइ, जिा पुज्ज पुरंदर गुण विद्दाइ । ता भाई भील्हू ते धयावंत, कुल-बल लच्छी हर व्यायवंत । असवर भ्रमइ जणि जगि जाएं क्रिति, धवलंती लय पर धरति । ता पुण हवेह सुकसय, श्रहवा सुहि पुत सुकितयेय । धनुदित कित्ति पसरेह लोह, याचि दिज्जद्द तो जस- हाथि होइ । अहं किं पु धम्मि जाम, किराणु बिहाइ धरणियति ताम । सुकइसे जा गिरि-सरि-धरति, ससि सूरि मेरु व्यक्त पंति । सुकन्तु वि पसरवि भविवयम्मि, संसग्र्गे रंजिय सज्जयम्मि । अहसावम कुछ तो महु पहाणु, लेहावभि संभव-जिय पुराणु । तर्हि गुण सागर जब तोल्लायर जिया सासा भर विम्वहणु सावय-थय पालड सुद्ध, सुहालउ दीयायाह रोस - हर ॥५॥ धम्मे तव पुत्रा, समसम्व सुहवारि, चारण कण्णु बल-रूवे कंसारि । समदिट्ठि वर वंसि बियगोति यहि- चंदु, जियाधम्मंवर मुक्ति सावय मयायं । लखमदेव सोभब्य सुप्पुत्त महि धरण, गि। यामेव शील्ह | जिर्ण भक्ति सुत्तामु, तें भविडं कइ इक्क दिय हम्मि सिरिधाम । जिग्राह कम मूर्ति सिर थाइ थिक संतु, अक्खे विथ कज्न सिरिमंतु सु-महंतु । भो पंडिया लड् वर कव-कय-सति, प्रणवश्य पविहिब आजम्म जियभत्ति भव-दुइ-तरंगाल - सायर-तरंडस्स, यां महिय रहयाहु गुणमणि करंडल । बहुमेय दुछ-कम्मारि-हय जेवण, परिधविय भव्वण दयधम्म अमिए । इंडवि उ या तब तिब्व दिसी दियदस्स, पाइडहि वर कम्बु संभव-जिदिस्स । तं विधि विभासइ सरि विसरासह तेजपालु जयमि तु बहु । तव-बय कम-उज्जमु पालिय संजमु श्रवहत्थिय गिहदंड दुहु ( ? )। ६ भो विसुयि थील्ह वर सुद्धर्वस, पिय-कुल- कमलायर - रायहंस । मणिमलिय वि दुस्समु कालुए, दुयमाणविवज्जिड दुक्ख - गेहु । पर परवर एवहि धम्महीया, बहु पावयम्म विवेण खीय । जो जो रु दीसय सो तु मिस, किंह अस्थि पयइ मज्कु चित् । जिया संभवहो चरिउ एम, यायry कहमवि कहनि केम । X X X इस संभव-जियाचरिए सावय-विहायफल भरिए पंडियसिरितेजपालविरइए सज्जासंदोह - मय्यमणुमणिए सिरिमहाभव बील्हा सवण भूलये सिरिविमलवाहयणिव- धम्मसवण-वण्णणो णाम पढमो परिच्छेची समतो ॥१॥ अन्तिम भाग अयरवाल कुल-यहिं दिवसाहित, भीतर गोतु गुणेय य साहिउ । यावडिकुल देवय संतुङ, धय' 'धयधार पउट्ठड। सोता संघाहिउ चिरु हुंदड, यि वित्त सिरिहलु भुं जंतर । चविह संघभत्ति जे दाविय, जे जियाबिंब पडठ कराविय । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [५३ तजा तासु पुत्तु घणारखड, जोवण सिय बावरण समिदद। तासु-बांगणि हिय-मिय भासिणि, विर राजही दिढ जिण-सासणि । लखमदेउ तहो सुभ गुणरिदड, णिय स्वोह हणिय मयरड। बाल्हाही तहो या पत्ती, मुणिवर वयण जिणागम भत्ती। खिउसी तासु पुत् गुणसायरु, बच्छराजही णेह कयायरु । णेमिदासु तहो सुट संजायड, देवदातु अवरुवि विक्खायउ | खिउसी अण्णु होलु तहो भाषर, छाल्हाही पिययमु सुक्खाया। देवपालु तहो पुत्तु पसिद्धड, भाचरह अवरु गुण-रिख । लखमएव गिह बीय वरंगण, महादेवही यह सुरंगण । दिवसी तासु पुत्तु गुण-सायरु, गंगदेवही बाइय भज्जह । पत्ता-तहो पुत्तु कुमारसीहु अवरु दिउचंदु जाणित्तउ । णागराजु चउत्थड पम्ममइ पुणि पंचायणु पंचम ॥२६॥ दुवई-णिवण. मंट वि दाणं देह सहर लंबणे थीरहा। तासु बंधु कुल मंडण,पह-सिहि-समशु वषणे ॥६॥ कोल्हाही सामें तहो भामिणि, सुहबक्सण सधम्म ह सामिथि। बासुक्ति उप्पण्ण मयोहरू, तिहुणपाल गामें कुल-ससहरु । थील्हा मज्जु भवरु बहुयारी, भासराजही बहुगुण सारी । तासु कुच्छि रखमलु उप्पण्ण्ड, पुरणवंतु महिमंडखि धराउ । थोल्हा बहुड बंभु गुण देवड, जिणवर मलिदासु सुपसिद्ध । भाषणही होतीय महाहब, रेहह पुत्तयारि विराहय । हंसराजु पदमडं जब-पुज्जिड, पुण जगसी परपति ती) तइज्जर। तारयड महबसाएष ९, मंदहु ताम जाम ससि दिणयह। लखमदेव सुड पंचमु सारड, जिणवर कुंथुदासु हय गारउ । जसुचाएक दुहिय-सोक्वं-करू, हिएणड आजम्मु वि जायट गह। जा सुत्तड पेच्छेग्विणु वंगड, लज्जा कामु वि जाउ भयगड । जसु गंभीरिय गुण असहंतड, अंभोणिहि खारत्तणु पत्तड । जो जिणभासिय धम्म धुरंधरु, णिय जसंग धवलिय गिरिवंदा । तहो पिय धणयाही धर परागड, भोज्जू वासु पुत्त उप्पण्यार। राजा अवरु जाट दिहियारड, सज्जण-जण-मण-णयण-पियारठ । पत्ता-पवयण सुवण्यमा मह रहड ममलीकय दिसिमग्लु साथील्हा सणि परिठ्ठविउ संभवजिण कह कुंजल । दुवई-जयगुरवयण सिहिय संजोएं असुविंधण णिवत्तम्। हिय मियत्तसिरम्म सोवरणहं लेहिणिकर पवत्तणं ॥६॥ णिय विण्याणएण सेवाविउ, सोहेग्विणु मुणिणाहहो दाविउ । साहु साहु वासु पाहो मासिड, । रयणतय गुपेण संवासिड । गाणा-दुर्विद-मणि-जडियठ, संभवजिण-गुण-कंचा घडिपड । पहुचरिडकुंछ सोहिल्लड, थील्हा सववाहणु अमुल्बड़। वनड जियवर धम्म धुरंधरु, बखि बरणीय पयासय सुंदर। सम्म सब गुणेण पुरंदरू, णियस्वे सव्वंगें सुदर। जिंह धम्मु विवदित्य दयनुचिय, जिय उवसम भावेण विखंविधा। जिज पुण्यं वदलिय हुत्तय, तिहथीन्हा संताण पबत्तषु । अमुणतेण एमाहासिउ, जिसबाहें जो भागम-मासिड। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] वीर सेवा मन्दिर प्रन्थमाला महुलहु बुद्धिए दोखु म दिग्वड । धत्ता - जय मंगल यह एहु मण महासित जियाधम्म पहुग्वण । ...... पवडडड धरणियति णिमल्ल- बोहि समाहि-महो ॥ इय संभव जि-चरिए सावयायार विधाय-फला खुसरिएकइतेजपाल वादे सज्जया - संदोहमाया - अणुमयियद सिरि महाभवथोल्हा सत्रया भूसको संभवजिया यिव्वारा गमणोशाम छट्टो परिच्छेश्रो समन्तो ॥ संधि ६ ॥ - प्रति ऐ० प० दि० जैन सरस्वतीभवन व्यावर लिपि सं० १५८३ २६ वरगचरिउ (बरांगचरित) कवि तजपाल रचनाकाल सं० १५०७ आदिभागः पण विवि जिणईसहो जियवम्मीसहो केवलयाय पयासहो । सुर- यार-वेयर-बुह णु य-पय-पयरुह, वसु कम्मारि विया २६ ॥१ वसु-गुण-समिद्ध पद्यदेवि सिड, आयरिय णमो जगि जे पसिद्ध । उज्मा साहु पाविवि तियाल, विपदरसा गुण-विसाल । वाएसरि होउ पसव्य-बुद्धि, जिणवर वाणिय कय-विमल-बुद्धि । हडं येड छंद लक्खा - विहीणु, वायर ण जायमि बुद्धि-हीछु । ड जाणमि संधि समोस किंपि, चिट्ठन्त करेसमि कब्यु पि । हउं जायामि जियवर भति जुति विरथरह जेण पविमल सुकिति । जे विडल वियक्खय बुद्धिवंत, जियभक्ति-जीया पंडिय महंत । ते हं बाहिर पठ मुविवि कम्यु परिट्ठबहु चारु पड परम भब्यु । सुरसरणयरहिं शिवसंत संत, चितल वरिणय मणि महंत । महु महु याम पसिड तेयपालु, मइ गमिड रित्थक सबलु कालु । एवहि हड करमि चिरमलु हरराम रायवरंग चारु चरिउ । जय जय बाय समुहयचं कोड:-सएहि भरिठ ॥१॥ अंतिम भाग: सय पमाय संवच्छर खीया, पुणु सतग्गत सडवोलीयइ । वहसाहहो कियह विससम दिखि, किड परिपुण्य जो सुह महुर-कुणि । बिल किन्ति मुयिवर पसाएं, रहयउ जियभत्तिय प्रगुराए । मूलसंघ गुणगण परियरियड, श्यपत्ति हूड पायरियठ । भुवर कित्ति सीसु वि जायठ, खम-दमवंतु वि मुणि विक्वायड | तासु पट्टि संपय विधिविहिट्ठउ, धम्मकित्ति मुणिवरु वि गरिट्ठड। तो गुरहाइ विमलगुण धारट, मुणि सुविसालकित्ति तव सारड । सोहं गुरु हिमहु दिणिय, पाइय करण बुद्धि मह गिरिहय । जिभसि - पसायं मइ अणुरायं कियत कम्यु कब तमु विलड पुर्ण गुरुणा सोहि हरह विरोहिड विलकिन्स बुहयया-तिक्ष सर पियवास पुरसुपसिद्धठ, धण-कण-कंच- रिद्धि-समिड्ड । बरसावडह बंसु गरु थारउ, जाल्ड याम साहु वणिसारउ । तासु पुतु सूजउ दयवंतउ. जिण धम्मारत सोहंतड । तासु पुत अहि कुल उदरिबड, रणमल यामु मुहु गुणभरियड । हो लहुड वल्लालुवि हुंड, जिया कल्लायाइ अन्त कुयात । 1 तह लहुब ईसरु जायड, सपड़ अथ दब गुबारायड ॥ पोल्हगुणामु चत्थु पसिद्धड, यि पुराणेा दम्व बहुलदङ । इय चतारि वि बंधव जाय, वर खंडवाल्ल विश्वाय ॥ रामल यांदणु ताल्हुय हुंड, तासु त ह कह-गुण-सुत्तर | Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह 1५५ तेयपालु महु यामुय सिब्बड, सो पणवेप्पिणु रिसहजिणु मक्खय-सोक्ख-णिहाणु ॥ जिणवर-मत्ति विबुह-गुण-खड्ड। प्रवक-पणवेवि भडारड रिसह गाहु, कम्मक्लाय कारण मन अवहारण मरहमत्ति मह रहय। पुणु अजिउ जिणेसह गुण साहु । जो पन्ह पढावा णियमणि भावह येहु चरिउ तुइ सहियड ॥ x x पहु सन्धु जो सुबइ सुणावद, मन्तिमभागःएहु सत्यु जो लिहइ लिहावह । इय भरहखेत्त संपण्ण देसु, एहु सत्थु जो महि विस्थारह, ठिउ गुज्जरत्तु णामेण देसु । सो बरु बहु चिरमल प्रवहारह ॥ नासु वि मज्महं ठिठ सुपसिद्ध, पुणु सो भविषणु सिवपुरि पावड, शायर-मंडल-बब-कण-समिछु । जहि जर-मरणुण किंपि वि भावह । तहिं पयरु गाउ संठियड ठाणु, शंदड गरवह महि दयवंतर, सुपसिबु जगत्तर सिय पहाणु । शंदडसावय जणु वय-वंतड ।। सिरि वीरसूरि वहि पवर-मासि, महि भिण-शाहहु धम्मु पबद्दड, विण्यासंकिर गुण-यण-रासि । खेनु सब्व जणवह परिवड्ढउ । मुणिभर सीसु तहिं जाउ संतु. कालि कालि वर पावसु बरिसड, मोहारि-विणासलु हिम्ममत्त । सब लोउ दय-गुण उक्करिसउ ॥ सासुवि सुकमारुह पयाड, अज्जिय मुणिवर संघु वि यंदड, सिरि कुसुमभर मुणीसहु सीसु जाउ । सयलु कालु जिणावर जणु वंदउ । तासुधि भविषण-यण मास पूरि, ज किंपि वि होणहिड साहिड, संजाय सीसु गुणभहसूरि। हीण-बुद्धि कम्युवि णिवाहित ।। हउं तासु सीसु मुणि पुण्णभद, सं सरसइ मायरि सम किज्जड, गुणसील-विहूसिड गुण-समुह । अवर विपडिय दोसुम दिज्जड । महबुद्धि-विहीणेउ एहु कम्यु, विरयउ भवियण णिसुणंत सब्बु । जो पारु दयवंत हिम्मत चित्तड णिचु जि जिणु पाराहा। बत्ता-जा मज्जप-साबह सवा दिवायह सो अप्पड माइवि केवल पाववि मुत्ति-रमणि सो साहा।। जाम मेरु महि-बलव पिका इस वरंग-चरिए पंडियतेयपाल-विरइए मुणिविडल जाहवह यहंगणु जणमण रंजणु कित्तिसुपसाए वरंग-सम्वत्थसिद्धि-गमणो याम चडत्य संधी ता एड सत्यु जह होइ चिहा परिच्छेमो सम्मसो, संधि ॥ इय सिरि सुकुमालसामि-चरिए भम्बयणाणंदयर सिरि -प्रति ,भारक हर्षकीर्ति शास्त्रभंडार, अजमेर गुणभा सीसुमुणि पुरणमाह-विरइए सुकुमालसामि-सम्वत्थलिपि० सं० १६.. सिदिगमणो शाम षट्ठो परिच्छेमो समतो। ३० सुकुमानचरित (सुकुमाल चरित) -प्रति पंचायती मंदिर शास्त्र भंडर दिल्ली । मुनि पूर्णभद्र लिपि सं० १६३२ पादिभाग:पडमु जियवर विवि भावे जाड-मउड ३१ णेमिणाह चरित (नेमिनाथ चरित) विहूसिपर विसय विण्दु मपणारि पासणु। अमरकीर्ति रचनाकान सं० १२४४ असुरासुर-सर-पुष-पशु सत्व च श्रादिभागाबव पयत्य यव पयहि पयासा॥ विजरंतुमि पह-यह-ससिणा पुरण-पहा पबोहंता । खोयाखोषपयासयह जसु उप्पापड बाणु । कुमुदाय हरिमा सिपमणि पडिबिम्ब-सक्खणा णिच् ॥१ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला विजयतु पास-सह-मिलिय-धरण-फण-मणि-मयूह-णिउरंवा। घणा-बाइ-कम्म-वा-रहण सुद्ध माणग्गि-जाल पुजब्बा ॥२ रवकसि लग्गसुतणुप्पहाए धम्मोवएस समम्मि । स जयड वि सो जस्सहि सरमम्म-तडिन्य विप्फुरियं ॥३॥ हरिणको गिद्दोसो सम्पो (१) मय-णास विहाउस्सो। सच्चित्तस्स विपासो संति जिणे सो जये जयउ ॥४॥ अन्तिमभाग:ताई रज्जि वढतए विक्कमकालि गए बारह सय चड मालए सुक्ख । सुहि वक्खमए भइवयहो सियपक्खेयारिसिदिणि तुरिउ ॥ सकठिणक्खत्तए समप्पिड सिरियेमियाह चरिउ । उत्तर माहुर संघायरियहो चंदकिति णामहो, सुहचरियहो पाय-पणासिय परवाक दहो? सगुणादिय कण्हणरिंदहो, सी अमरकित्ति णामके। जिणवर दसण गयणमयंकहो याहिट बिरुद्ध अमुणा तं ॥ जं महु भासिउ कन्यु कुर्णते तं महु खमहु सरासह । सामिणि जिणवयणुउ भव-सिव संभाहिणि । असाव वुहिहिं समंजस चित्तहिं मज्मत्यहि । -प्रति भट्टारकभंडार सोनागिर लिपि सं० १९१२ ३२ णेमिणाह चरिउ (नेमिनाथ चरित), कवि लक्षमण आदिभाग:विस-रह-धुर-धारड विस्स वियारट विसय विसम विसंकउ विड पणममि वसु गुणहरु वसुधर तिय-धवारिय लंछण गुण-णिलड (चतुर्विशति तीर्थकरोंको स्तुतिके बाद प्रारम्भ किया गया है।) जाह सार सरवर चडादसिर-वरण, पाणंदिय पहिवण तहि विसरण । जहि ईहर मणहर विसाल, वं मेह जियालय सहिय साख । तिहुवण मंदिर गिह मणि विहार, फेडिव एवंतण-बंधयार। अहिं पठमु जाड वायरण सारु, जो बुदियण कंठाहरणु चाह। सिद्धतिय जइबर हुई तस्थ, जहिं भवियण लीइय मोक्स-पंच। जहिं णिच्च महोच्छव जइण गेहि, कय भवियहि भव प्रासंकिरहि । तहिं शिवसइ रयण गल्ल भन्छु, परणारि सहोयर गलिय-गन्दु। लखमणामहं तहं तणउ पुतु, लक्खम सराउणामे विसयहिं बिरुत्तु । पुरबाड माहिसउर तिलड शाणि, सो अह णिसि बीणड जइणि-वाणि ॥ पत्ता-तहि जोयड वह रायड, अवलोएविष्णु भवगह । तं किज्जइ हिड प्रत्यु, जेण जीड व महगह ॥२१॥ पउरवाल-कुल-कमख-दिवायरु, विजयवंसु संघहु मय सावरू । धण-का-पुत्त-मत्व-संपुण्ड , भाइस राषट स्व-रत्रएयाउ । तेण विकयड गंथु प्रकसायह, बंधव अंबएव सुसहायइ। कम्मक्खह गिमितु माहासिड, प्रमुगतिण पमाणु पयासिड ॥ जहीयाहिट किट वाएर, माणदेवि समह परमेसरि । लक्खण-छंद ही जं भासिड, तं बुहयण सोहेवि पवासित। । प्रारंभिड प्रासाहिं तेरसि, भड परिपुण्ण बहतिय तेरसि । पन्ह सुणहजो बिहा लिहावा, मण-बंधियत सो सुह पावह। पत्ता-जहीयाहिट मत्त-विहणिड साहिट गपट यागि ममुखमिन्बट बाय किज्जड साहसोडग्गमणि॥ इति ऐमिणाहचरिए अबुहकहरयण सुभ-लक्खणेण विराए भग्वयामणादे ऐमिकुमार संभवो शाम पढमो परिमो समत्तो॥ अंतिम भाग: मालषय विसय अंतरि पहाणु, सुरहरि भूसिर सिसव-गा। शिवसह पट्टणु गामई महंत, गाणंदु पसिर बहु रिद्विवतु । पाराम गाम परिमिड धणेहि, थं भू-मंडण किड शियय-देहि । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैमग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह इय यामशाहचरिए अबुह-का-यण-सुभ-लक्सम- गायम-एवं जा कहिय सेणियस्स सुह-दायणि । णेण विरहए भन्वयश-जणमणाणदो सावप-बय-वएणणो जा बुहयण-चिंतामणिय धम्मारसहु तरंगिणि ॥२॥ णाम चउत्थो परिच्छेत्रो समतो ॥ संधि ॥ महिवीट पहाणउ गुण-वरिट पंचायती मंदिर शास्त्रभंडार दिल्ली, लिपि सं १९९२ सुरह विमण-विभउ जणइ सुह । ३३-अमरसेन चरिउ (अमरसेन चरित) वर तिरिण-साल-मंडिउ पवित्त, कवि माणिक्कराज, रचनाकाल सं० १५७६ शंदह पंडित सुर पार पत्तु ॥ आदिभाग-प्रथम पृष्ठ नहीं रुहियासु वि णामें चणिउ इछु, ए सयजवि तित्थंकर कुलहोसहिधर ते सव पणविवि पुहमिवर अरियण जगाह हिय-सल्लु कठ्ठ । पुणु मरुह सुवाणी ति-जय-पहाणी, गिय मणि धरि वि कुमा-हर जहिं सहहिं पिरंतर जिग-णिकेय, पुणु गोयमु गणहरु णमट पाणि, पंडर-सुवण्या-धय-सुह-समय। जे अक्खिड सम्मइ-जिणह वाणि । सट्ठान स-शोरण जत्य हम्म, पुणु जेण पयत्थहं भासियाई, मण सुह संदायच णं सुकम्म । भव-उवाहि-तरण-पोयण-सुहाई ॥ चळवाहम-सार दाम जत्थ, पुणु तासु अणुक्कमि मुखि पहागु, पणिवर ववहरहिं वि जहिं पयस्थ । गिय चेयणत्थ तम्मड सुजाणु । मग्गण-स-कोलाहल समत्य, हुय बहु सहस्थह-सुइ-बिहार, जहिं जब शिवसहि संपुरण प्रत्य । जिंह दुखरु सिज्जिय-पंचवाया। जहिं प्रावणम्मि थिय विवह मंग, विण्णास-कलालव-पाल्पत्त, कसवहि कसहि भम्मखंड। उद्धरिय भम्व जे सम-विसच । संतहय ताह मुशि गच्छयाह जहिं वसह महायण सुद्ध-बोह, गय-राय-दोस संजय साहु॥ मिचिय पूया-दाण-सोह। जहि वियरहि वर घड बयण जोय, जे ईरिष गंधहका-पीट पुरोण पयासिय दिन्व-भोय॥ णियमाणे परमप्पयह बीतु । यवहार चाग संपुरण सम्व, तव-तेय पियत्तणु किपट स्वीण, जहिं सत्त वसण-मय-हीण भव्व । सिरि-खेमकित्ति-पक्षी पवीण। सोवरण-बूढ मंडिय-विसेस, सिरि हेमकित्ति जि हुयट धाम, सिंगार-भार-किय-णिरविसेस ॥ तहुं पट्टवि-कुमर वि सेणु शाम। णिग्गंथु दयालउ जह-वरिष्ट, सोहग्ग-विलय जिणधम्म-सील, जिं कहिट जिणागम-भेड सुह॥ जहिं माथिथि-माण-महम्ब-जोन । तहु पट्ट-णिविट्ठउ बुह-पहागु जहिं चोर-चाड-कुसुमाल दुट्ठ, सिरिहेमचंदु मय-तिमिर-भाष । दुज्जय स-शुदखल पिसुख चिट्ठ । तं पट्टि धुरंधर वय-पवीशु, अविदीमहि कहि महि दुहिय-दी, पर पोमणंदि जो तवहिं खीणु ॥ पेमासस्स सम्व जि पवीण। तं पणविवि णियगुरु सील खाथि, जहिं रेहहि हय-पय-दलिय मग्गु, णिग्गंधु दयालउ अमिय वाशि । तंबोल-रंग-रंगिय-धरम् ॥ पुणु पतमि कह सवबाहिरम, सुहखडि जसायर स्यगाया हयण सुटणं ईदउह। मायएगहुजा सात्य-नाम ।। सत्यवाहि सोहिउ जब-ब-मदत करामह ए गुरु ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-1 बीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तहिं साहि सिकंदर सामिसालु, बार-यणह णं उप्पत्ति-खाणि, णिय पइ पालइ परियण भयालु । जा वीणा इव कलयंठि वाणि । तं रज्जि वसइ वणिवरु पहाणु, सोहग्ग-रूव-चेलणि य दिछ, दुक्खिय-जण-पोसणु गुण-णिहाणु । सिरि रामहु सीया जिह वरिष्ठ । जो अयरवाल कुल-कमल-भाणु, सहि वीर उवण्णा रयण चारि, सिंघल-कुवलयहु वि सेय-भाणु । णं णंत चउक्क सुरूव-धारि । मिच्छत्त-वसण-वासण विरतु, तम्मजिम पढमु वियसियसुवत्, जिण-सासणि गंथह पाय-भत्तु ॥ लक्खण-लक्खंकिउ बसण-चत्तु ॥ चउरिय णाम चीमा सतोसु, अतुलिय-साहसु सहसेकणेहु, जो वंसह मंडणु सुयण-पोसु । चाएण कएणु संपइहिं गेहू । तं भामिणि गुण-गण-सील-खाणि, धीरें गिरि गंभीरें सायरु, मल्हाहीण.में महुर-वाणि ॥ णं धरणीधरु णं रवि-ससि सुरु । तं णंदणु णिरुवम गुण णिवासु, णं सुरतरु पइ पोसणु सुहहरु, चउधरिय करमचंदु अरुहदासु । पं जिणधम्मु पयदु थिउ वसु वरु । जिणधम्मोवरि जें बद्धगाहु, जिं णियजसि पूरिय दाणि महिं, णिव हियह पुरयण शाहु॥ जो णिव सुह पालउ सुयणसुहि ॥ जिण-चरणोदएण वि जो पवित्, दिउराजु णामु चउधरिय सुर्हि, मायम-रस-रत्तड जासु चित्तु । जिणधम्म-धुरंधरु धम्मणिहि । उद्धरित चडम्विह-संघभारु, विण्णाण कुसमु बीयउ सुपुर, पायरिउ वि सावय-चरिउ चार ॥ जो मुणइ जिणेसर धम्मसुत्तु । पउदावंतु णं गंध-हरिथ, सुपवीणराय-वावार-कज्जि, वियरेह णिच्च जो धम्म-पंथि । गंभीरु जसायरु बहुगुणिज्ज । सम्मत्त-भयण-लंकिय सरीरु, माझू चउधरिय विसुद्ध भाइ, कणयायलु ग्व णिक्कंपु धीर । जो णिव-मणु रंजइ विविह भाइ। सुहि परियण-कहरव-वहिं इंसु, अण्णु वि तीयउ रिसिदेव भत्त, जिणवर-सहमज्में लद्ध-संसु । -गिह-मार-धुरंधरु कमल-वत्तु । तं भामिणि दिउचंदहि मियच्छि, चुगनाणामें चउधरिउ उत्तु, जिण-सुय-गुरु भत्तिय सील सुच्छि। जो करह णिच्च उवयारु तः ॥ तं जायउ दणु सील खाणि, पुणु चउघड णंदणु कुल-पयासु, चउमहणा णामें अमिय-वाणि । अवगमिय सयल-विजा-विलासु । धण-कण-कंचणु-संपुरण संतु, जिण-समयामय-रस-तित्त चित्त, पंडियह वि पटियगुण-महंतु ॥ छद्राणामें चउरिय उत्तु ।। दुहि-यण-युह-गासणु बुह कुल-सासणु जिण-सासण-ह-पुर-धवलु एचड भाइय जिणमा-राइय, दिउराजुणामु गरुवड ! विज्जा बच्छी घर रूवें गयरु मह णिसु किण विह उद्धरण४ बाणासुह विलसह कइयण पोसहणियकुल कमलज्जु पहा तं पणइणि-पणइ-णिव-देह, भरणहि दिणि जिणवर गंथदत्यु, गामें खेमाही पिय-सणेह। सम्मत्त-यण-लंकयहि पत्थु । सुर-सिंधुर-गह सहवा-विखील, गड अरुह-गेहि दिउराज साहु, परिवार पोलमा सडसील परचारिय रायरंजणपयाहु । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [५६ भाव वादउ तह पासणाहु, पुण जिण-गंथाणं णविवि साहु । सिद्धत-प्रत्य भाविय मणेण, पुरयण सुहयारउ सुरधणेण ॥ तहं दिहउ पुणु सरसइ-णिवासु, माणिक्यराज जिण गुरहं दासु । तेणवि संभासणु कियउ तासु, जा गोहि पयासइ बहु सुपासु ॥ तं जिण अंचण फ्सरिय भुवेण, अक्खिड बुहसूरा णंदणेण । भो! अयरवालकुल कमलसूर, बुहयण जणाण मण पास पूर ।। जिणधम्म-धुरंधर गुण-णिकेय, जसपूर दिसतर किय ससेय । चउधरिय खेमहणासुय सुणेहिं, कलिकालु पयलु णियमण धरेहिं ॥ दुजण प्रवियहवि दोस गाहि, वहति पउर पुणु पुहह माहि । इय सुकहत्तणि पुणु बद्धणाहु, णिय हियह घरेप्पिणु पासणाहु॥ सत्थत्थ-कुसल लइ रसह भरित, सिरिअमरवइरसेणहु वि चरिउ । भउ वंसु गरिहु पुहइमजिक, एं प्राइसाह हीणंह दुसज्मि || जह जाय पुरिसवर तवहं धारि, बरसीहमल्ल पमुहाइ सारि । तं वयणु सुणेप्पिणु मणि पुलएविणु अक्खह देवराज बुहहो भो माणिक पंडिय सील अखंडिय वयणु एकु महुसुणहिं बड अन्तभाग: गंदहु जिणवर सासण सारउ, जिणवाणी वि कुमग्ग-वियारउ । यंदड बुहयण समय परिट्टिय, यंदड सज्जण जेवि सविष्ठिय गंदउ गरवह पय रक्खेतड, णय-मन्गु लोमहं संदरिसंतड । संति वियंभउ पुति वियंभउ, तुढि वियंभर, दुरिउ णिसुभा॥ सबिउ णिग्गउ परय गवासहु, जिणधम्मु वि पयडउ भव-वासहु । जिं मच्छरु मोहवि परिहरियउ, सुहयज्झणि जे णियमणु धरियड ।। हेमचंदु प्रायरिउ वरिट्ठउ, तहु सीसुवि तव-तेय-गरि8ड । पोमणंद धरणंदउ मुणिवरु, देवणंदि तहु सीसु महीवरु ।। एयारह पडिमड धारंतर, राय-स-मय-मोह-हणंतउ । सुहज्माणे उवसमु भावंतउ, णंदउ बंभलोलु समवंतउ । तह पास जिणेदह-गिह-वरण, वे पंडिय णिवसहि करायवरण । गरुवउ जसमलु गुणगण णिहाणु, बीयड लहु बंधउ भन्व जाणु । सिरि संतिदास गंथत्य जाणु, चवह सिरिपारसु विगय-माणु । णंदड पुणु दिवराउ जसाहिड, पुत्त-कलत्त-पउत्तु वि साहिउ । पत्ता-रोहियासि पुरि वासि, सयलु लोउ सह णंदउ । पास जिणहु पय-सरणु, णाणा थोत्तहि वंदिन ॥" पुणु णामावलि भणड विसारी, दायहु केरी वरण विसारी। अइरवालु सुपसिद्ध विभासिउ, सिंघल गोत्तिउ सुयण-समाहिउ । बूल्हा णिवि अहिहाणे भणिउ, जेणिय-तेए कुलु संताणित । करमचन्दु उधरिय गुणायरु, दिवचंदही भजहि विमणोहरु ।। तस्स तणुरुह तिरिण वि जाया, णं पडव इव तिणि समाया । पढमड सस्थ-प्रत्य-रस-भायणु, महणचंदु णं उदयउ धरहण ॥ तह वणिया पेमाही सारी, पुसबउ किं जुव मणहारी। अम्गिमु वाणे जिउ सेयंसिड, उज्जब बसचरिमो विजयसिड। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.1 रमेकामनिर-मन्यमाला असुवह परहर तियहि विरत्तड, जं असच्च कइया उ उत्तड । दिउराजु जि जिण सहहि महल्लड, णोणाही तिय रमणु विभल्ला ॥ तहु कुक्खि सिप्पि मुत्ताहलाई, उप्पणई वेसु परिउ सलाई। पहिलारउ णिय कुलहं वि दीउ, हरिवंसु सामु गुणगण विदीउ ॥ पत्ता-तहु भज्जा गुणहिं मणुज्जा, मेल्हाही पणिज्जए। गउरि गंगणं उहि सुया तहु कस उप्पम दिज्जइं॥१२ पुन्वहि अभयदाणु असु दिण्णउ, तह सुड अभयचंदु सुणि संथिउ । अवरु वि गुण-नयणहिं रयणायरु, देवराज सुउ सयल दिवायरु ।। रतणपालु गामें पणिज्जा, तहु भूराही खलण वि गिज्जइ । देवराय पुणु बीयउ जायर, माझगामें जग-विक्वायड॥ तह चोवाही भज्ज कहिज्जइ, तो तेंयहु णेहें जो विज्जा। पढमड णायराउ तहु कामिणि, सवटही थामें जयराविणि ॥ बीयउ गेल्हु वि अवरु पयासिड, माझू तीयउ पुत्तु पयासिउ। चाप्रोगामें जण-विक्खायउ, महणासुर चुगणा पिय भासत ॥ डूंगरही तहु भामिणि सारी, खेतासिंघ दश जुयहारी। सिरियपालु पुशु रायमल्लु पुणु कुंवरपालु भासिड जडिल्लु । महणा अवरु चउत्थर यंदण, छुटमल्लु वि जो धम्महु संदण। फेराही अंगण मण-हारत, दरगहमल्लु विणंदा रह सारउ ॥ पत्ता-करमचंदु पुणु पत्, बीयउ जो जुवि भणित। साहा हिय पिय उत्तु गुरु-पय रतु वि पाणि ॥१॥ तहो अंतहो अंगोभव विरिण जोय, विममय पवजउ अनुगोय। पहला रावण तस्स णारि, रामाही जाया प्रहि वियारि ॥ बहु सरीरि सुभ चारि उवण्णा , पुहइभरलु वि पदमु सुवण्णा । तस्स भज्ज बहुणेहालंकिय, कलचंदही जाया बहु संकिय ॥ कित्तिसिंधु तहु कुक्खि उवएणउ, गग्गिर गिरु एवं कंचण वएण्ड । पुणु जस चंदुव चंदुभणिज्जा, लूणाही पिय यम अणुरंजह ॥ तह वि तणंघउ लक्खणलंकिङ, मदणसिंघ जो पावह संकित । अवरुवि वीण कंतु वीणावरु, पोमाही तहु कामिणि मणहरु ॥ णरसिंघु वि तउ सुउवि गरिटुउ, खच्छि पिल्लु णं पियरह इट्ठउ । पुणु लाडणुरूवें मयरबउ, तह वीवोकता वि जसा ॥ पुणु जोजा बीयर पुत्तु सारु, णियस्वे जित्तड जेण मारु। दोदाही कामिणि अणुरंजा, जें सुहि मरणे सग्गि गमिज्जइ॥ जोजा अवरुवि णंदणु सारउ, लखमणु थामें पंडिच हारउ । मल्लाही कामिवि तहु यंदण, हीरूणामें जण-मण-णंदणु ।। पत्ता-अवरुवि यंदणु तीयट ताल्हूगामें भासित। बाल्हाही मयहाह वे सुय ताहं समासिउ ।' पदमड पोमकंति दामू सुहो, इच्छाही भामिणि दिएणड सुहो। महदासु वि तह पुत्तु पियारउ, पुणु दिवदासु बीयड मणहारड । साधारणही भज्ज मणोहरु, घणमलु णंदणु तहु पुण सुहयरु । जगमलही कामिणि तहु सारी, चायमल्लु सुय पोसण हारी॥ इय दिवराजहं वंसु पयासिड, काराविड सत्यु जि रस सारठ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनान्य-प्रशस्विसंमा [६१ .......................... कोह-मोह-भय-माण-वियारउ, तहिं निगमंदिरु धवलु भब्वु, जं अक्खरु य किंपि विण्यासिड ।। सिरि प्राणाह जिणबिंब दिन्छ । सुपसाएं वि विरुद्ध भासिड, तहिं शिवसह पंडिय सहखणि, सिरि-जयसवाल-कुल-कमल-तरणि । इक्खाकु वंस महियलि वरिट्ट, हं सरसह महु खमह भंडारी॥ बुह सूरा यंदणु सुउ गरिछ । वीर जिणहो मुहु गिग्गय सारी, उप्पएणड दीवा उरि रवण्णु, जे धारे ते भव-सरि-तारी। बुहु माणिकु णामें बुहहि मण्णु ।। हेम-पोम पायरिय विसेसें, तत्यंतरि सावउ इक्कु पत्त, बंभुज्जाणं गुण गरियाणहीसें। वय दाण-सील-णियमेण जुत्त । मह कस बहिय बण्णधरेप्पिण, बुहयण रंजणु गुण गण विपालु, कव्व सुवरणहु बीह वि देप्पिशु । विच्छिण्ण वत्थ दिपंत भालु ॥ मत्त-प्रत्य-सोहग्ग लिवेवियु, धम्मथ काम सेवंतु संतु, प्रत्थ-विरुद्ध किहि कविणु॥ तस जीव दयावह सिरिमहंतु । सोहिउ एहु विमणु लाएविशु, मेहब्व धीरु गुणगण-गहीरु, होउ चिराउसु कम्वु-रसायणु । जिण-गंधोवय-णिम्मन सरीरु ॥ विक्कम रायहु ववगय कालई, परवइ सह मंडणु सव भासि, लेसु मुणीस विसर अंकालाई । गोहाण गौहु सुय सील-रासि । धर्राण अंक सहु चइतवि मासे, चंदुम्व भुवण-संतावहारि, सणिवारें सुय पंचमि दिवसें। वर स्व स उण्णउ णं मुरारि ॥ कित्तिय गक्खत्त सुह जोएं, छह अंग विहूसिउ णं महेसु, हुड उप्पएणउ सुत्तु वि सुह जोए । मंदारय पुज्जिउ णं महेसु । हो वीर जिणेसर जग परमेसर एत्तिड बहु महु दिज्जर। जिण पयसी संकिड णीलकेसु।। जंहि कोहुण माणु पाव व जाणु, सासव-पप महु विजय ॥१५ रस देसण पालड सुयण-तोसु, इब महाराय-सिरिनमरसेब-चरिए चढवग्ग-पुकह सिरि ठाकुराणि जिणधम्म धुरंधरु । कहासमरसेण-संभरिए सिरिडियमाणिक्कु-विरइए साधुसिरि सुरवइ.करभुय जुयले हिं विमलु, महणासुय-बउधरि-देवराजणामंकिए सिरि अमरसेणमुनि सिरि जइसवाल इक्खाकु वंसु ॥ पंचमसग्ग-गमणवरणयो याम सतम इमं परिच्छेमो सिरि जगसी गंदणु सुदर्वसु, सम्मत्तो ॥७॥ टोडरुमल णामें घर पयलु । -प्रति आमेर भंडार सं०१५७७ जं कित्ति तिलोयह पूरि थिरु॥ कार्तिकवदी चतुर्थी रविवार सुवर्णपथ (सुनपत) ते भाइ वि जिणहरि णयणाणंदणि पाइणाहु जिणवंदियउ । में लिखित। पुणु दिद्रुड पंडिट भवियण मंडिउ मह विणयं अभत्थियड । ___३४-णागकुमारचरिउ (नागकुमारचरित) xxx कविमाणिक्यराज रचनाकाल स. १५७६ इय-वय-पंचमि सिरिणायकुमारचरिए विबुह-चित्ताणुआदिभागः रंजिये सिरिपडिय-माणिक्यराज-विरहए चउधरिय-जगसी प्रन्थ प्रतिमें भादिके दो पत्र न होनेसे उससे भागेका सुप-राय-जय-बउधरि टोडरमल्लयामंकिए जयंधर-विवाहभाग दिया जाता है: वण्णणो शाम पढमो संधि परिच्छेभो समत्तो। अन्तिम भाग : Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला णंदउ जिणवारद जिण-सासणु, बुहयण रोसु ण करहु महु उप्पार, दय-धम्मु वि भन्बह पासासणु । अहरोसें सोहिज्जहु गंथु वरि ॥ णंदउ णरवह पह पालंतउ, विसमड गामिणि वज्जउ मंदल, णंदउ मुणिगणु सुत-तउ-वंतउ॥ गच्चउ कामिणि होउ सुमंगलु । णंद जिण सुहमग्गि चरंतड, गुरयण वच्छल्लें पंडिएण, भवियणु दाण-पूय विरयंतउ । माणिक्कराज वज्जिय-मएण॥ कालि कालि धाराहलु वरिसर, तं पुण्णु करेप्पिणु एहु गंथु, दुक्ख-दलिह, दुहिक्खु विणिरउ ॥ टोडरमल्ल हत्थे दिएणु सत्थु । घरि-घरि णारिउ रहस ब्वउ, णिय सिरह चढाविउ तेण गंथु, घरि घरि मंगलु गीउ पदरिसउ । पुणु तुट्ठउ टोडरमल्लु हियइ गपि ॥ घरि-घरि संखु समुहलु वज्जउ, दाणे सेयांसह कण्णु तं पि, घरि-घरि लोउ सुहेहें रंजउ || पंडिड वर पट्टहिं थविउ तेण । चउविह संघह दाणह पोसणु, पुणु सम्माणिउ बहु उक्कवेण, जिणवरिंद-सुय-गुर-पय अरचणु । वर वत्थई कंकण-कुंडलेहिं॥ णंदउ टोडरमल्लु दयालउ, अंगुलियहि मुहिम णिय-करेहि. पुत्त-कलत्त-सुयण-पइ-पालउ । पुजिउ अाहारहि पुणु पुणु तुरंतु । जावहि मेरुचंदु रविणहयलि, हरि रोविव सजिड विणयं शिरुत्तु, णंदड एहु गंथु ता महियलि । गड णियरिं पंडिड गंथु तेण । भवियण लोयह पाढिज्जंतउ, जिण-गेहि णियउबहु उच्छवेण ॥ यंदउ चिरु दुक्खिउ विहुणंतउ ॥ तहि मुणिवर बंदहि सुक्क गैथु, विक्कमरायह ववगय-कालें, दिएणउ गुरु-हत्य सिवह-पथु । बे समुणीस विसर अंकालें । विस्थारिउ अत्यु वियारि तेण, पणरह सइ गुण्णासिह उरवालें, भब्वयणह सुहगइ दावणेण ॥ फागुण चंदिण पक्खिससिवालें। पुणु टोडरमल्लहं णिवसरि पुण्णह लिहयाइ गंथ बहुसुच्छविह जिणगिह मुणिसंघहं तव-वय-वंतहणाण दाणु तं दियणु बरु॥ णवमी सुह एक्खित्त सुहवाले, सिरि पिरथीचन्दु पसायं सुंदरें। शुभंभूयात् । प्रधान ११.. हुउ परिपुराणु कम्वु रस-मदिरु, प्रति आमेरभंडार लिपि सं १५३२ सज्जण-लोयह विणड करेप्पिणु ॥ ३५-सम्मइ-जिणचरिउ(सन्मति-जिन-चरित्र)कवि रइधु पिसुण-वयण कद्दमेण भरेप्पिणु, आदिभागविरयड एहु चरित्तु सुबुद्धिउ । जय सररुहभागहुँ वढियमाणहु वड्ढमापतित्येसरह । जह यहु अस्थ-मत्त होणउ हुउ, पणविवि पय-जमलं णह-पह-विमलं चरिउ भणमि तहहय सरह ता महु दोसु भन्बु म गहियउ॥ धीरस्साणंत वित्ति प्रमर-चदि-णुदं धम्मभूयादमाई, विणवह माणिक्क कई इम, बडा कम्मडवित्ति परमगुणस्साहिरामं जिणस्स । महु खमंतु विबुह गुणमंतिम । वंदित्ता पाय-पोमं ति-जय मणामुयं धम्मचक्काहिवस्स, भएणुवि अमुणते हीणाहित, वोच्छ भम्वत्थजुत्त प्रणह-सुहहरं तच्चरित पवित्त ॥३॥ मइ-जलेण जं कायमि साहिउ ॥ तं जि खमड सुयदेवि भडारी, फेवलणाण-सतणु-पहवंती, कायण-जण तिल्खोयह सारी। साय-बाय-मुह-कमल हसंती। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ra विरिण पमाण-पायण-जोवंती, परिहरिहिं मण चिंतकरि भव्वणिरु कन्वु, दो-दह-णिय अंगई गोवंती॥ खलयणहं मा डरहिं भउ हरिउ मह सम्वु । वे-णय-कोमल-पयहि चलंती, तो देखिवयणेण पंडिउ विसाणंदु, चउदह-पुवाहरण-धरती। तक्खणेण सयणाउ उटि ठड जि गय-तंदु । ति-जय-चित्ति विभमु विहुणंती, दिसवहणियंतोय पुणु तुट्ठ चित्तमि, अत्य-पसत्थ-वयण-भासंती । संपत्तु जिणगेहि सुहगई णिमित्तम्मि । कुणय-विहंडणि संतावंती, पणवेवि जिणणाहु बहुविह विसंथुत्ति, गाणा-सह-दसण सोहंतो। मुणिपाय वंदेवि जाथक्कु जसमुत्ति ।। छंद-दुविह-भुयडाल-रवण्णी, ता तम्मि खणिबंभ-वय-भार भारेण, वायरणंगु णाहिं सुयवएणी । सिरि अइरवालंकवंसम्मि सारेण । जिणमय-सुत्त-वत्थ-पंगुरणी, संसार-तणु-भोय-णिब्बिरणचित्तण, सोज-महाकुल-हर-हर-धरणी। वरधम्म-माणामएणेव तित्तण ॥ दुविहालंकारेण पहाणी, सस्थत्थरयणोह-भूसिय-सदेहेण, होड पसरण जिणेसहु वाणी ॥ दहएग पडिमाण पालण स-णेहेण । सुयदेवि भडारी ति-जय पियारी दुरियवहारी सुद्धमा । खेल्हाइ हाणेण णमिउण गुरुतेण, कइयण-यण-जणणी सुइफल-जणणी सा महु दिज्जर विमलमई जसकित्तिविण्णातु मंडिय गुणोहेण ।। संसारोवहि-पोय-समाणा, भो मयण-दावग्गि-उल्हवण-वणदाण, विगय-दोस वे मुगिय पमाणा। संसार-जलरासि-उत्तार-वर-जाण । याण-घउक्को जोय दिवायरु. अम्हह पसाएण भव दुह-कयंतस्स, ससिपहजिणेदस्स पडिमा विसुखस्स ॥ थावर-सस सत्ताहं दयावरु॥ जे हुय गोयमु पमुह भडारा, काराविया मइंजि गोवायले-तुग, ते असेस पणविवि सरहारा । उदुचावि णामेण तित्थम्मि सुह-संग । ताहं कमागय तव-तवियगो, आजाहिया हाण महु जणाण सुपवित्त, पिच्चम्भासिय-पवयणसंगो॥ जिणदेव मुणि पायगंधोवसिरसित्त ॥ भव-कमल-सर-बोह-पयंडो, दुल्लंभु गर-जम्मु महु जाइ इहु दिएणु, बंदिवि सिरि जसकित्ति प्रसंगो। संगहिवि जिण-दिक्ख मयणारि जिं बिएणु । तस्स पसाएं कन्वु पयासमि, तहिं पढिय उवयारं कारणेण जिण-सुत्ति, चिर भवि-विहिउ सुह णिण्णासमि ॥ काराविया ताहि सुणिमित्त ससि-दित्ति ॥ जह कह भवि मणुयत्तणु लद्धड, कलि-कालु जिणधम्मधुर धारपूढस्स, देस-जाइ-कुल-वंस-विसुद्धउ। तिजयालए सिहरि जस सुज्मरूढस्स । तं हेलइ विहलउ ण गमिज्जई, सिरि कमलसीहस्स संघाहिवस्सेव, सत्यभासे सहलो किज्जइं॥ सुसहायएणावि तं सिद्ध इह देव ।। गोवग्गिरि दुग्गमि शिवसंतड, बहु सुहेण तहिं। जणणी उवयारहु णर-भवयारहु, हुवउ तस्स णिम्भार हउ । पथमंतड गुरु-पाय पायतु जिण सुसु-महिं ॥३॥ एवहिं मुणि-पुगम बहु-सुय-संगम माहासमि णिविगय-भड। जिय-धम्म कम्मम्मि कय उज्जमो जाम, महु मणम्मि सल्लेक्कु पयहछ, णिय गेह सयण यलि सुहि सुतु बहु ताम | तुम्ह पसाएं सोज हहह। सिविणंतरे दिट्ठ सुयदेवि सुपसरण । चित्ति परमु बहराउ धरितें पाहासए तुज्म (१) हडं जायसु पसरण । सु-तव-भारि विग्गहु धारते। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वीरसेवामन्दि-ग्रन्थमाला णिय जण जग्गई भासिड जंते, चहुँ गोउर सोहहिं विष्फुरति, किंचि किंचि मणि मोहु कुणंते । अरियण मणमाणहु अवहरंति ॥ णाणावरण-कम्म-खय-कारणि, दुतिक्खणहं जुतवर जत्थ हम्म, प्रासि विहिय कलि-मन-अवहारणि । कस-वष्टिहिं कसियहिं जहि जत्थ भम्म । सिरि चरमिल्ल जिणिंदहु फेरउ, जिन-चेईहरु जहि मजिममाइ', चरिउ करावमि सुक्खजणेरउ । जिण पडिमहिं जुडं सुर-हरु-वणाइंछ । जइ कुवि कहयणु पुराणे पावमि, जहिं सोहई सरुवरु सलिल-पुण्णु, ता पुण्णहं फलु तुम्हहं दावमि ।। परिमलजुएहिं कमलेहिं छण्णु । तड्याइ ममाइ तासु पउत्तउ, रायालउं सोहह जहिं विचित्तु, तेण जि अणुमण्णियउ शिरुत्तड । वर-पंचवण्ण-रयणेहिं दित्तु ॥ तं जि सहल करि भो मुणि पावण, तिक्खालिय-गणहि-भरिय-हह, एत्थु महाकइ णिवसह सुहमण ।। छुह-पंकिय जहिं दीसहि विसट्ट । रइधू णामें गुण गण धारउ, बावार करहिं जहिं वणिय-विंद, सो को लंघइ वयण तुम्हारउ । सच्चेण सउच्चे जे अशिंद। तंणिसुणिवि गुरुणा गच्छह गुरुणाई सिंहसेणि मुणेवि मणि खडतीसयवणि जहिं सुहि वसंति, पुरु सठिठ पंडिउ सील अखंडिउं भण्डि तेणा तं तम्मि खणि वित्तानुसारि दागाइं दिति। भो सुणि कइयण-कुल-तिलय-तार अण्ण जहिं सावय विगयविभावय शिवसहि जियपयभत्तिरया। णिवाहिय णिच कहत्तभार । छक्कम्महिं जुत्ता वसब-विरत्ता पर-उपयारहं शिल्च-रया ॥॥ जिण-सासण-गुण वित्थरण दच्छ, जो अयरवाल-कुल-कमल-भालु, मिच्छत्त-परम्मुह भाव-सच्छ । वियसावणि गुण-किस्पाहि पहा । महु तणउं वयण प्रायणि पप्प, गरपति बामें संबहु महारु, अवगणहि बहु विह मण-विषप्प । संघाहिड परिवार संचमार॥ जोयणिपुराउ पच्छिम दिसाहि, तहु मंदाबील्हा साहुजार, सुपसिद्ध यह बहु सुह-अयाहि । जियधम्म धुरंधर विगय-पाउ। णामें हिसारपिरोज अस्थि, सम्माणिड जो पेरोजसाहि. काराविउ पेरोसाहिज सत्थि। तहु गुण वएपणि को सक्कु प्राहिं ॥ वण-उववणेहि चडपास-किरण, तहु णंदणु हवा वेवि इत्थ, पंथिय-जणाहं पह-खेडं विसु ।। बाधू साधू गामें पसत्य । चित्तग तरंगिणि अह गहीर, बाधू सुमो जाउ दिवराज सुपसरलु, वय-हंस-चक्क-मंडिय स.तीर । दालिदतिमिरंखयह ह रविविमएणु ॥ जहिं वहह सुहासु समु जलु मुबिछु, सयलहं जीवहं पोसण समिटु ।। • तहिं मुबिका हुउचित सिद्धसेणु, परिहा-जल लहरि-तरंगरहि, बो सिद्ध विद्यासिनि तबड कंतु । जा सेवह सालहु अहमणिसेहिं । वहो सीसु जाउ मुणि कणयकि (1) सप्पुरिसहु संणिहु गाहणारि, जो भन्य-कमल-मोहब-दिहिंदु ।।। थक्की अवरु डिवि सुक्खयारि ॥ चारों पक्रियां भवामंदिर धर्मपुराकी अपूर्ण प्रतिमें जहिं पायार वि सुज्झजियपसत्य, और सेठकेचा मन्दिरके शास्त्रभण्डारकी प्रतिमें नहीं रेहति तिरिय उत्स'ग जत्थ। हैं। किन्तुमार सिदान्त भवनकी प्रतिमें पाई जाती हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमाइ बह वणिय-कुल भरि णिवसंति, जिण-पूय-उच्छव सुदाणाई ववसंति । जिम्मल कुलुन्भूय जुबईड जिसहम्मि, कर पूर्व संजुति कय जति सुहकम्मि। तं यह को वएणणेई सुबहसोह सुरगुरु वि वरणंतु संदेह मह हो । तहि पट्टणि परिदल पट्टणि जिण-पय-पयरुह-ममणिहु । बुद्धिए मेहव विरुसहजपालविरुभयरवालकुल गयणविह तहु यंदणु मुखियण-पायभत्त, विहलियजणासपूरण सुसत्तु । संघाहिउ सहएव जि पसिद्ध, पउबिह-खंघहं पाए सचिन्द । णियकुल-कुवलय-अरुणीस-तुल्तु, पर-उवयारह जो मशिअमुल्लु । काराविवि जिराहु पहजेण, लच्छिहिं फलु गिबिहड सुहमणेण। तित्ययह गोत्त दुल्लहु शिवर, महिमंडल शिम्मलु सुजस बड़। तोसउ गामें तहु बहुबंधु, सस्थत्थ-कुसल जो सम्वसंधु। जिणचरणकमल-गंधोवएश, तणु सिंचिवि कलिमलु हणि जेवा। संसार-महावय-णासणाई, पविहियई जेण सुह-भावणाई। सग-वसण-तिमिर-घण-चंडरोइ, जिणधम्म-धुरंधरु एत्थु लोह। सम्मत्त-रयण-भूसिय-णियंगु, जे पालिउ सावय-वय अभगु । बुहयण-जणाण जो भत्तिवंतु, बहु सील-सउच्चे अहमहंतु । दाणेण गुणेण वि बाइपवीख, धम्मामएण जसु चितुबीन। प्राजाही पिययम-सुह-बिहाड, वणिवर-विदह जें बबु मातु । तहुँ पुष तहो भन्वहुँ वियजिय गवहुँ णामु चडावहिक विक जेम जि कालंतरि, इह भरहतरि परिवह मोतजि चितम जह पयपास-जिणेदह फेरउ, चरिउं रहउं बहु सुक्ख-जयेउ । पुर्ण मेहेसर चमुवइ चरिउं, लोय पयासिङ बहुरस-भरि । खेमसीह वणिणाहु खाने, किं पई परिय चित्तहु में। पुणु तेसहि पुरिस-रयणायक, पवर महापुराणु महसायह। घु यास विरणतिवसें हिं, पई विरयर्ड पुणु भो पंविष तिह। सिद्धचक्कविहिं पुणे जि परती, हरसीसाहु णि मत्त वित्ती। पुणु बलहर-चरि मुक्खासिड, तहेव सुदंसण-सीलकहासिङ । घणकुमार-पमुह बहु परिवई, जिह पय विहिबई भरिरल-अरिया। सिंह कर वढमाण जिणवाहा, चरि जि केवलवाण पवाहतु। महु पपणे तोसउहु णिमिन, चर्हि तंदुमणि विहिब ममति। संणिसुणिवि हरसिंहहु पुत, खग-भंगुर-संसार-विरत। गुरु-पय-कमल-हत्व धारेप्पियु, कहणा बोखिड ता पपवेप्पिड। हउं तुच्छमई कम्बु किह कीरमि, विशु वोण किम रणहि धीरमि। यो भावरिलय वायरण तक, सिदंत चरिय पाहुड प्रवक्क । सुदायम परम पुराय गंथ, मावस-संसब-तम-तिमिर-मंथ। किह कानु रयमि गुरु-गव-समुद, को उचाई जिव-समव-मुर। अम्हारिसेहि णिय घर कई बुह-कुलह मजिक उज्मिव-मईदि। बामस्स वि धारण गहनु भन्नु, भो कि कीरिजाचार का। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६.1 वीरसेवामन्दि-प्रन्थमाला ता सूरि भणइ सुणि कह-जनाम, भप्फर-संगें महरंदरोई. भो रयधू • क्खिय छंद गाम । किंवच्छण गिम्मल दित्ति होइ । तुहु बुरि तरंगिणिए समुह, परदोस विवर मुह बदलक्खु, मिच्छावाइय भययह रउद। चरणजिमय सकुरित गइ दुलक्खु । इस परियाणिवि मा होहि मंदु, पषणासणुष्व दुज्जण-दुरासु, अणुराएं थुणिज्जा ति-जयवंदु । अवगणिवि भग्वहं पूर पास । ता सुकह भणई भो धम्म नाय, . पर किजा मणि भडं किंपि ताई, दुल्लंघणिज्जमहु तुम्ह वाय। तेर्ड ययारिय णिरुकइयणा । चउमुह दो सुणु सयंभुकइ, पुप्फयंतु पुणु वीर भणु। जइ खल सबंक अंकुस ण होत, ते णाणदुमणि उज्जोयपरा, हडं दीवोवमु हीण-गुणु ॥६॥ ता बुह गइंद णो सज्म ठंत । पुणु विहसेप्पिणु सूरि पयंपई, अवगुण-चुउ कम्वु रयति जोइं एह चिंतमणि मावहि संपई। तिं वड्ढारडं गुण कबहु होई। जई खम्गेसु.यहयति गमु सज्जई, जं विहिणा णिम्मिय खल अलज, ताम उरु किं गिय कमु बज्जई। तं बहु उवयारु जि विहिय सज । जइ सुरतरु इच्छिय फल अप्पई, ता कणा सुहमह मंदिरेण, ताकि इयरु चयइं फल संपई। दुम्मइं-कयली-वण-सिंधुरेण । जइं रवि किरणहि तमभरु खंडह, पडिवएणडं गुण-रयणाउ तेण, ता सज्जोउ सपह किंछडद। . प्रारंभिडं सच्छ जि सुह दिणेण । जय मलयामिल भुषण बहु वासई, अवगमिय तियालाहिल णिमित्तु, ता कि इयरु म वहां स पास। . मुणिरण-संजीवण-जायमित्त । जसु मह पसरु अस्थि इह जेत्तड, पडिय केवलु जगि बढमाणु, दोसु यथि सो पयडुडं तेत्तड। - वि चरमजिणु वडढमाणु । इय णिसुणिवि जस मुणिहु पमोडं, तहु चरिउं भणमि पय णियह बोह, कहणा ता मरिणउं णिरुत्तई । मम्मत्य वि भत्तिए सज्जयोह। करणहि महई कइतु जि जामहि, खेल्हण बंभ ५यज्ज, पुण्ण करेसमि हउं तुरिया। हुव दुज्जणहं सक्कमणि तामहि । पर-गुण दोस-करण-गयतंदा, जाता बहु भग्गेण पासि विहिय तिगुण-भरिया ॥१॥ सज्मण जसु सहति गवि मंदा । अन्तिम भाग:पणवंतह खलु अहियउ कुप्पई, चंदालंकारेइ प्रणेया, सीरु बेवि जिहं फणि विसु अप्पई । तहं पुणु गणमत्ताह जि मेयह। प्रमियई को विणिंबुजा सिंचा, प्रमुणते मई एहु पिरुत्तउं, सो कवत्तणु तो वि व मुचा । चरमजिकिदह चरिउ पवित्तउं। जंग हवह ण सुणिज्जइ, मणि व मुणिज्जई तं गुणियण महु दोष खमिज्जहु, यवि सच्च वियहं पुणु पयवा । अयरिं होणाहिउं सोहिज्जहु । तं परि पहि दुज्जण, गिच्च मलिष शंदड वढमाण जिण-सासण, मण्णई गालवि दुग्वयणा ॥..॥ पंदर गुण-यण-तच्च-पयासण। एत्वंतरि खलपण विहिप वासु, कालि कालि देड जि संवरसाई, गुरु माहासई पंडिप जणा। इन्स दुहिक्ख दूरि सो पिरस । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह SU यंदउ राणउ णीइवियाण्ड, सर्वे णं सरु, कंतिय ससहरु, पय पुणु यंदउ पाउ-णिकंदउ । लच्छिहि पायरु, थावह सायरु, सावय बग्गुवि पुराण समग्गुवि, कर करवाले, अरि-खय काले । .........................। तोमर वंसहु, ति-जय-पसंसहु, परि घरि वीयराउ अंचिज्जड, उज्जोयणयर, कुल संतय धरु। मिच्छातम भरु भम्वहं खिज्जउं । गामें डोगरु, परि-यण-खययरु, मुणि जसकित्तिहु सिस्स गुणायरु, तासु जिरज्जहि, मह गिरवजहि । खेमचंदु हरिसेणु तवायरु। जिणहरि ठते, सुहमहवते । मुणि तहं पाल्हबंभुए णंदहु, विरयड कन्वे, एहु जि भन्वे । तिणि वि पाबहु भारु णिकंदहु । पुन्वायरियहि, पट्टि गुणायर, देवराय संघाहिवाणंदणु, अणुकमेण संठिउ, वयसायरु। हरिसिंघु बुहयणं कुल-माणंदणु । मिच्छत्त-तिमिर हरु णाई सुहायरु, मायमत्यहरू तब-णिलडं पोमावइ-कुल-कमल-दिवायरु, णामेण पयह जणि देवसेणु गणि, संजायउ चिरु बुह-तिकडं सो वि सुणंदड एत्थु जसायरु । जस्स घरिज रइधू बुहु जायड, तासु पट्टि णिरुवम गुण-मंदिर, देव-सत्य-गुरु-पय-अणुरायड । गिच्च भग्वजण-चित्ताणंदिर।। चरिड एह गंदड चिरु भूयलि, विमल मई फेडिय मल-सगमु, पाढिज्जंतु पवट्टउ इह कलि । विमलसेणु णामें रिसि-पुगमु । पत्ता-गोवग्गिरि दुग्गहि, खय असि गार्डि, सुक्खापरे । वत्थु-सरूव धम्म-धुर-धारलं, गोडर उदारहि, तोरण-फारहिं, बुहयण-मण-संतोस-परे। दह-विह-धम्मु भुषणि विस्थारट । भयलिह मेहहिं, जिणवर गेहहि, वय-तव-सील-गुणिहि जे सारड, मणिगण चंदिरि, गपणाणंदिरि । बज्मभंतर संग-णिवारउ । जिण पुज्जिज्जह, धम्मु सुणिज्यद, धम्मसेणु मुणि भवसर तारलं, मिच जि जत्यहि, थक्क अवत्यहि । ........................। तउ ता विज्जई भव-मनु-खिज्जई, भावसेणुपु शु भाविय णिय-गुणु, जहं पुण घरि घरि, पण कंचण भरि । दसण-णाण-चरण तहं यशु । मंगल गिजाहिं, उच्छह किज्जहि, दोविह तविण जेण ताविड-तणु, सावप लोयहि, मणहु पमोपहिं। धम्मामहं पोसिड भग्वहं गणु । तिविहहं पसई, गुण-गण-मुह, मूलुत्तर-गुणेहिं जो पावण, दाणई दिज्जहि, पुण्णई लिज्जहि । सुप्पहु सरूउ संभावणु। परि घरि सरसण, भाविजई मण, कम्म-कलंक-पंक-सोसण इण, तसु भावणई, कम्म-मनु-खिज्जई। सहसकित्ति उम्बासिय-भव-वणु। भावणि भावणि, वर कंचण मणि, तासु पष्टि उदयहि-दिवायरु, विक्कहिं वणिवर, वें जिपसर । बज्मभंतर-तव-कय-प्रायह। करि-घर-दाणे, जहिं प्रप्पाणे, बुहयण-सस्थ-प्रत्य-चिंतामणि, पंथई सित्तई, अलि भासत्तई। सिरि गुणकित्ति-सूरि पापड जणि । दह दिस धाविय, कस्य व पाविय, तहु सिंहासणि मिहरि परिष्टुिड, तह पुह-ईसर, या सुरेसह । मुत्ति-रमणि राएणोक्कंठिड। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-मन्थमाला सुजस पसर वासिय दिग्बासडं, सहजपाल पढमडं जयवल्बहु, सिरि जसकित्ति णाम दिवास। तेजू इयरु विबुहजण दुल्लहु । बहुभासणि गुण-गण-मणि-सायर, बिरुवम-रूव-सील-वय-सज्जा, पववशत्य-प्रभासण-सावरु । मामेहीय पढमिल्लहु भज्जा। दो-विह-तक-सावें तवियंगो, पुरिस-यण-उप्पायण-खाणी, मन्व-कमन-वण-बोह-पयंगो। सञ्चित्त जि परहुव-सम-वाणी। बज्मामंतर-संग-प्रसंगो, तह उवरि उवण्णा सक्खण-पुरणा छह णदण पाणंद-भरा में दुग्जड विज्जियड भणंगो। णं जियावर भासिया दग्व सुहासिया, शं रस छह जण पोसपुन्वायरियाहं मग्ग पयासपि, वाह पढमु वर-कित्ति-लयाहरु, सन्वेषण मरंदुच शिरु जणि । दुहिय जगाय दुक्ख धण खययन। दिग्गंधुवि प्रत्यहं संजुत्ता, दाशुरणय-करु शं सुरकरि-करु, सत्वाववियरहं परिचय । परिवारहु पोसणि सुर भूनहु। बंद-सक्क-बायरब्यहि बाइय, जिण-पूयाविहि-करण-पुरंदर, जियि जिणि विस-सिक्खा दाविय । थियकुल मंदिर बहु सोहायरु । उत्तम-खम-वालेण धर्मदउं, भूरि दम्वु ववसाएं अजिवि, मलयाकत्ति रिपिवक चिर यंदडं। जच्छि सहाउं चवलु पडिवजिवि । वहो पर पहुवहरिउंह मज्जमु, जिणणाहहु पट्ट काराविवि, धरिय चरित्तायरण स-संजमु । मण-दलिय दाणई बहु दाविति । गुरु-गुणयण-मणि-पाइय-भूसा, तित्ययरत्त-गोत्तु जि बद्धर, बयण-पउत्ति-जणिय-जय-सणु । संघाहिउं सहदेउ जसद्धउ । कब-कामाइय-दोस विसज्जण, धामाहिय तहु भामिणि भासिय, दसिय माण-महागय-तज्जन । जिणदासहु सुवेण हासिय । भवियण-मण-उप्पाइय-बोहणु, कुमरपाल हिय जिणदासहु पिय, सिरि गुणभह महारिसि सोहण । कहु उवमिजई तहिं सीलहु सिय । पत्ता-एयह मुणिविंदहिं भवतम-वंदहं पय-कमलाई जे अत्त हुया मामा माइय जिण-पय-कमल, वाह जियामावलि पयडमि भूयति, वंदिगणहिं जा णिच्च थुया पढमढं बीयउं तीयउं अमल । विय-जस-पसर-दिसा-मुह-वासिय, बच्छराज साभूणा माल, वर-हिंसार-पहहिं शिवासिय । तिरिय पुत्त हुय ताई गुणाल । अयरवाल कुल-कमल-दिवायर, सहजपाल सुउ बीयउ पुणुहूयउ, छीतमु गयतमु विर गोयल गोति पयउ णियमायर । दुहियहं दुख-खंडणु पियकुलमंडणु गुण-वरणणिकोईसुर मासि पुरिस जे अगणिय जाया (पड), बहु पिया खिम गुण सील प्रतुल्ली, ताई जि कि वरणम्मि विक्वायड । जायण-जण-प्रासा-तरु-वल्ली। जिण-पय-पंकयाई पिकप्पड, खिउ धरही अहिहाणे साहिलं, परियापिड सचित्ति परमप्पड । ताहि गम्भि हुई पुत्त गुवाहिउं । जाल्हे णाम साहु चिरु पुत्तलं, बह पमाण भूयलि सु-पमाणिय, पुन जुबल बहु हुवड पिक्चर्ड । गुरुयण जेहिं णिच्च सम्माणिय । सह जोमय गुण मणिरययावर, वणिवर-यह जो मुक्खेसर, तिविह पचदाण कयायक। बीयराय-पय-पंकय-महुयर। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ- प्रशस्ति संग्रह Tee जगसीहु जयम्मि मई पहाणु, यि कुल-कमाल विबास भाखु । सिरि सहजपाल सुड मणिउ छ, संसार-महाब-पडा भट्टु । सग-वसया - विरक्त धम्मि रस, पालियरं जेया सावय-चरितु | H वीरदेउं पढमडं गुणमंदिरु, दाय करु जो जग सुंदरु । बीबर्ड हेमाहे भुव दुल्लहु, यि परियण-जयम्मि अवल्हु । लडदिउ या भासिड तइयडं, देव-सत्य-गुरु-पाय- विणीयउं । रूपा रूवें जिम मयरद्धउं, जेम्मिल जसु महियालु सदरं । after fee पंच धर्मग्गो, वियि बुहयण-जय-संगो गिरणारहु जन्त सघाहिटं, विह सभारु णिग्वाहउं । उजाला सुवर्णिय जाणणु, परिवारहु भत्तउ कमलाणणु । सहजपाल गंदणु पुणु तीय, जिया सासा वि जेण मणि भाविडं । मण वडिय दायण - चिंतामणि, खेमद यामें विक्खायडं जयि । भीखुदी तो पिययम-सारी, पुत्त उत्यहिं सोहा - धारी । पढम पुत्त खेत्ता खेमंकरु, बीयर चाचा चाएं सुंदरु । गेहम्मि वसंत ग्रह पवित्त, धणु अज्जिड जिं दाणहु विमिन्त । तोसउ णामें तोसिय जणोह, आजही तहु पिय जय गोह । कुलहर-कमल- निवास - लच्छि सुर-सिंधुर - गामणि दीहरच्छि । सुर- वल्लि व परियण- पोलयारि, जुबई या सयल मडिक सारि । दार्थि पीणिय गिरु तिविह पस, मह सील पब्वय याह-भन्त । तर्हि गभि समुब्भव पुत दुरिया, या महिं परवडं वरं य विरिय । जेबहु दंसा-रणहु करंड, कुल-कमल- विद्यालयण - किरण बंडु । खेल्हण यानें गुणसेण संड, मिच्छत लिहरि - सिर वज्ज-दंड | कुरुखेत्त देसवासिय पवित्त, सावय-वय- पालण - विमल-चिस । ठाकुरु यामें तीयढं णंद, भोजा चउथर्ड जय श्रावण । सुडं तुरिडं पुणु हूउं, डाला थामें पीण भुडं तह पिया रामहुलिया, चारि पुत संजाय धुउं सहजपाल । ॥ ३३ जिण पूयाइवि-कम्म- रस, परिवारहु मंडण गुण- णिउत्त । प्रभाहिय जियादेव भन्त दूदगु गरि, जिया धम्म- धुरंधर एत्यु लोई, त गुण को वर िसक्कु होइ । सहजा साहहिं मुह जिरवा, भायर चटक्क पुणु वि भव । परिवार भन्तु दरवेसु सिद्ध सेखू खातिय सपुण्णु, जासा चडत्थ यां दाय-कण्णु । पुर्ण सहजपाल सुड पंचमिल्तु, थील्हा या बहु-गुण-गरिल्लु । केसा हिय भासिय तहु कलस, तहु तिथिय पुत्त जाया पवित्त । सिरिसेट्ठिवंस उप्प धम्मु, तेजा साहू जि खामें पसराणु । तहु पिय जालपहिं च वलयीय, परिवार भन्त सीले सीप । तहि गम्भि उवण्या सुव सपुरिय राजा स पालु ढाकरु जि तिरिख । तुरिया वि पुलिजा पुण्यमुत्ति, जि विरहम जिययाह-भति । पहराजु पसिद्ध मक्क खोई, विदायें भो भब्य ओहूं । हरिराज जि पंडिय गुण-पहाड, छक्काम-रस गुवा-गय-विषाणु । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला खीमायामा वरसोल थात, को कई वएगाई सहि गुणहं कित्ति। सा परिणिय तेण गुणायरेण, बहुकालें जं ते सायरेण । थिय भायर यंदण गुण पिउत्त, मागेप्पिणु गियिहडं कमलवत्त । हेमा णामें परिवार-भत्तु, तहो धरहो भारु देप्पिणु विरतु । विसयहं सुहु मणिवि दुह-णिमित्तु, ........................। जिग-यय-धारण-उत्कंठएण, संसार असारडं मुणिमणेण । जगणी जणणुवि परिवार-लोडे, सयवहं वि समावणु करिवि सोड अप्पणु वि खमेप्पिणु तक्खोण, जिणवेसु धरिउं णीसल्लएण। जसकित्ति मुर्णिदहु गविवि पाय, अणुवय धारिय ते विगय-माय । तोसउ यंदणु दिवराज पराण, साधाहिय पिय गेहें पसगणु । परिवार-भत्तु गुणसेणि-जुत्, णिय-बस-यण-उज्जोइ-मित्त । सच्चावमासि सच्चेयजी, जिणधम्म कम्मु कारण पवीणु । तहु णंदणु जाया दुरिण वीरू, जिणधम्म-धुरंधर गुण-गहीरु। चंदुग्ध कलायरु सिहरुचंदु, पढमढं सज्जयजण अणंदु। बीयर्ड पुणु गामें मल्लिदास, वीसेगूणहं जिसवरहुँ दास। तोसउ हु पुत्ति तुण विरिण जाय, जिणधम्म-कम्मि रय विगय-माय । जेठी शामें जीवो जि उत्त, जिण-पय-गंधोवह विच्च सित्त। वय-शियम-सीत-पाक्षब-समग्ग, जिय-समयहुभरु धरणिं प्रभग्ग । बाहुटी थामें सेल्ही पवित्त, विविसि भल। सीलें सोहगे सिय-समाणु, पिरु पत्तहं चढविह देय दाणु । तहि णंदण हया विरिण सज्ज, मांडू भोजाणामें मणोज्ज | पंच जि भायरहं वि अण्ण सूय, जाल्ही वीरो पमुहाइ हुय। इहु परियणु वुत्तडं, सजस पवित्तउं, जा कणयायलु सूर ससि । जावहिं महिमंडलु, दिवि माहंडलु,णंदउ तावहिं सजसबसि ॥३. इय-सम्मा-जि-चरिए, णिरुवम-संवेय-रयण-संभरिए, वरचउवग्गपयासे, बुहयण-चित्तस्स जणिय-उल्लासे, सिरिपंडिय-रइधू-विरइए, साहु सहजपालु-सुय सिरि संघाहिव सहएव-नहुय-भायर-महाभब्व-तोसउ-साहुणाम-णामकियकालचक्क तहेब दायारस्स वसणिस-वएणणो णाम दहमो संधी परिच्छेमो समत्तो। संधिलिखितं पांडे केसा ॥ वि० सं०१६०० प्रति सिद्धान्त भवन, पारा, नया मंदिर धर्मपुरा दिल्ली। ३६ सुकोसल चरिउ रचनाकाल सं० १४६६ (सुकोशल चरित्र) पंडित रइधू आदिभागजिणवर-मुणिविंदहु थुव-सय-इंदहु चरण-जुबलु पणवेवि तहो कलिमल-दुहनासणु सुहयण-सासणु चरिउ भणमि सुकोसलहो तिहु मेय पसिब जि भुवणि सिद, पिकल तहंसयल विसह-रिद्ध । वसुगुण-समिद वसुकम्म-मुक्क, वसुमी वसुहहिं जे णिच्च थक्क । परमाणंदालय अप्पलीण, उप्पत्ति-जरा-मरण-त्ति-हीण । वर णाणमए गरसेण सिच्च, ते शिक्कल सिद्धगवेवि णिच्च । जे चासई कम्म विपासणेण, महि विहरहि केवल-खोयणेण। . पर पाडिहेर भइसय सु-सोह, भावयि विभासणि भवगिरोह । अहि-पर-सुर-वहणा गमिय-पाय, सम्बई हिय मागहि जाह वाय । से सकल सिद्ध तह पुण गवेवि, पुणु पारसंग सुब पय सरेवि । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [७१ जिण-वयण-विगिग्गड वरण-पिंड, तुव जुग्गट भणेमि हर पेसणु, तं सह सिद्ध माइवि प्रखंड । तं करणि अवसु दुह-पासण । ए सिद्ध तिविह पणविवि गिरीह, जहं पहणेमि जिणिंदहु केरउ, मिच्छत्त-माण-णि इलण-सीह । चरिउ रइड बहु सुक्स जणेरड । तह गणहर सामिय सुहगह गामिय भव-सर सोस-दिणेसर अण्णुवि पासहु चरिउ पयासिड, जे सत्त सत्तसय पयडिय महिदय, तेवएण हियं पिहय सर॥ खेऊ साहु णिमित्त सुहासिउ । ते पण विवि बहु भत्तिए गणहर, बलहरहु पुराण पुणु तीयउ, ताहं पट्टि पुण जे हुव मुणिवर । णियमण प्रशुराएं पहं कीयउ । विजयसेण पमुहाय गुणायर, तहु सुकोसल चरिउ सुहंकर, प्रायम-सस्थ-प्रत्थ-रयणायर । विरयहि भव-सय-दुक्ख-खयंकरु । तेहिं अणुक्कमि सूरि पहाणउं, तं णिसुणिवि हरसिंघहु दणु, छंद-तक्क-वायरणहं ठाणउं । पडिजंपह किम जिम्-पय-बंदछ । खेमकित्ति पामेण जईसरु, सत्त-प्रत्य-हीणउ हर सामिय, महिउ जेण दुम्महु दिई सरु । किम पंगुल हवंति बह गामिय । तासु पयासणि कलिमल-चत्तड, णिच्च चित्त भाविउ रयणत्तउ । किम अतरंदु तरह पुणु सायर, बारह-विह तव भेय सुहकरु, किम अभिडहरणं गणि-कायर । हेमकित्ति अहिहाणु दुरिय-हरु । वोक्कडु धूलु करिहु किं बोलाइ, तासु पट्टि तव लच्छिहि मंदिर, किम वच्छड धवन हर भर भिल्बह। मासि कइंदहि चरिउ जि भासिड, अइ अकंपु णं चढउ मंदिर। कह विरयमि हडं तं गेहासिड । दुइम-इंदिय बल-दमणायरु, पिंगल छंदु विहत्ति व जाणवि, भवह-मण-संसय-तम-भायरु । किम अप्पड कहत्त गुणि माणवि । मणसिय-विसहर-विस-विणिपारड, तेरहविह चारित्त जो धारउ । महं तुम्हह वयहिं करमि सत्यु सुहसय-परणु । पायम रस रसेण जो सित्तड, पर कारणु सामिय तव पह गामिय, एकु प्रत्य संसप-हरण । अहणिसु जे भाविउ रयणत्तर । अंतिमभागकुमरसेणु णामें कलि गणहरू, जंगण मत्ताहीण चरितु, पणविवि निय-माण-सुद्धिए भव-हरु । मम भणिउ किंपि इहु गुण पवितु । प्रवर वि जे णिग्गय महामुणि, तं कोसलमुह णिग्गय सुवाणि, णवकोडि वि तिहु ऊणिय बहु गुणि । महु खमहु भंडारी प्रस्थ-खाणि । प्रणहि दिणि जिणहरि धयलग्गंवरि रइधूबहु-सुह-माण-रमो बुहयण मा गिएहहु किंपि दोसु, जिणवर दिउणयण मणि?उ सिरु धरधरियणवाउ कमोर सोहेज्जहु पहुचएवि रोसु। तहिं वदिउ गच्छदं परमेसर, भवि भवि होजउ महु धम्म बुद्धि, कुमरसेणु पुणु परम जईसरु। संपज्जउ तह दसण-विसुद्धि। भासीवाउ दिएणु तहु राए, भवि भवि दुखम समाहि बोहि, गेहु समप्पि वि अविरल वाए। संपज्जउ महुभव-तम-विरोहि । पुण गुरुणा अपिट भो पटिय, .राबर मंद सुहि वसउ देसु, रइधू णिसुणहि सात प्रखंडिय। . जिग-सासण यंदड विगय-जेसु । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवामन्दिर-मन्थमाला ७२ ] सावय-यथ यांदकिय सुकम्म, जे वय भरु धारहि यटु-छम्म । यद रणमलु पुणु साहु धरलु, जिं चरिउ कराविड इहु खरखु । मुवियय सहसारहो तब वयधारहो मरुसे सामिहुत । उवएससुहरु व्यासिय भव-दुहु महु मणि विच्च थुति कुणो ॥ २ ॥ वीधो यामागेह-लड विह-संग्रह दाणे दच्छि । तहि उवरि उवण्या गुण संपुष्णा, पुत: तिथिय लक्खयहि जुवा वाह जि पुन पठमठ यां ससि पढमड, पीथा वामें दीह भुवा तासु पिया पियचित सुहायरि, भणिय कुबेरदेव यां सुरसरि । बीयर चंद फुड जस जसयर, पिय-कुल-कमल विद्यालय-भायरु | पल्हूण सी (सा) हु वलय-मण- चत्तड, जिया चरणारविंद - रय-रसउ । कर पालही हु [ह] भामिबि, सिरि विक्कम समयंतरालि, वह ई दुस्सम विसम कालि । चदह सब संवछरह अय्य preuse हि पुजाय पुण्य । बाहहु चित्त विच्च अनुगामिणि । तीय सुठ पुखु बहु लक्खा घर, जो धाराहह अह णिसु जिणवर । P देव-सत्थ- गुरु पार्याहि लीाउ, कहमवि वयणु ण जंपह दीणउ । रणमलु ामु महिहि विक्खायड, जालपही पिययम-अणुरायउ । ति सुक्कोसल चरिउ कराविड, बिच्च चित्ति पुणु तहु गुण भाविउ । वायर यहि ससि भायरु, कुलगिरि-वर- करणयहि वरा जं त बुहहि णिरुत्तड चरिउ पवट्टड एहु धरा ॥२३ जामहि तावई माह दुजि कियह दहमा दिव्यम्म, राहु रिक्खि पर्याय सकम्मि । गोवागिरि गोवग्गिरि) डूंगर शिवहु रज्जि, पइ पालंतर अरिराय तज्जि । जि-चरण-कमल यामिय सरीर, सावय-वय-रहधुर- धरण - धीरु । सिरि अयरवाल कुल गया चंदु, सघवीर विधा जण जणिय दु । वे पक्खज्जल सात यि भज्ज १, श्रभणी णामा वय - सील-सज्ज । तहि उवरि उवरणउ बार पहाणु, ग्रह-विसु भावित जिं धम्म-काणु । महलगि दिउ णामें साहु धण्णु ! यि जसे महि वीढ छ । तहु भज्जा दुक्खिय-जय जगेरि, मह सील तीर वहक्क धीरि । वीरो णामा वर चाय लीय, गह हंसियोव सण वीण । हुपु पढ जि-पाय-भत्त आरणाहिहाणु गिह-धम्मि रतु । तहु धरिणि गुणायर सुद्ध सील, जिय- धम्म-रसायणि जाहि कील । इ-सुकोसल- मुणिवर-चरिए णिरुवम-संवेय- रयणसंस (भ) रिए सिरि-पंडिय-रइधू विरइए सिरि-महा भव्य आणासुत- रणमल ग्राम या मंकिए सुकोसल- णिग्वायगम या चढत्यो संधी परिच्छेचो समत्तो ॥ छ ॥ संधि ४ ॥ प्रति देहली पंचायती मन्दिर लिपि सं० १६३३ सिरि पासणाह चरिउ पं० रइधू (पार्श्व पुराण आदिभाग पणविवि सिरिपालहो, सिवउरि-वासहो, विहुणिय पासहो गुण - भरिश्रो । भवियह सुह-कारण, दुक्ख-विवारणु, पु महासमि तहु चरित्र ॥ रिसाहु पाविवि जिबिंदु. * - सिरि अयर वाल वंसहि पहाणु, सिरि विधा संघ (ई) गुण बिहाइ । भव-तम-विलासवि जो दिबिंदु । सिरि अजित वि दोस - कसायहारि, संभड विजयचय- सोक्सकारि । सुकौशल चरित १-४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [७३ अहिणंदणु जिणु पुर्ण गाण-चतु, जसक्खुकित्ति सुदरो प्रकं वाय-मंदिरो, सिरि सुमहदेड पोसिय-सपक्स। सुसिस्सु तस्स जायो समागुण्ण राइनो। पउमप्पहु पदमाऽऽलिंगि अंगु, सुखेमचंद पायडो जिनो जिणि गजो मडो, सिरि जिणु सुपासु पुणु विगय-संगु । रिसीस सम्ब मज्मु ए मई विसाल दितुते। चंदप्पहु जिणु चंदंसु वाणि, महिनीति पहायउं णं गिरि राबडं, सुरहं वि मणि विभउ जणिर सिरि पुष्कयंतु तित्यवरु णाणि । बउ सोसहिं मंडिउ गइहु पंडित, गोयायलु णामें मणिउं ॥२ सीयलु विसील-वय-विहि-पवीण, जहिं सहहिं चिरंतर जिण-जिकेय, सेयंसु वि सिव-पय-शिच्च-बीणु । पंडुरसुवराधयवसु समेव । पासवेण महिड जिणु वासुपुज्ज, सहाल-सतोरण जत्य हम्म, विमलुवि विमलयर गुणेहि सुज्छु। मयसुह संदायमणं सकम्म । तित्थया अयंतु वि अंत चुक्कु, परि-कोह-माण-मय-सयल-मुक्छ । पउहद चल्न सद्दाम जत्य, वणिवर ववहरहिं वि नहि पयत्य । सिरिधम्मु वि धम्मामय-णिहाण, मग्गण डायकोलाहल समय, पुणु संति निणेसह जय-पहाणु । जहि जण दिवसहिं परिपुरण प्रत्य। सिरिकुंथु वि शंत-घउकठाण, भरणाहुवि बोयालोय-जाणु । जहिं भावम्मि थिय विविह भंड कसवहहिं कसियहिं मम्मखंड। सिरि मल्खिणाहुतिस्थयर संतु, मुखिसुबट अइसय सिरि महंतु । जहिं वसहि महापय सुद्धबोह, वह यमि जिणेसु पावाहि मंतु, विचचिय पूषा-दाब सोह। पुणु रिट्टनेमि राइमइ-कंतु । अहि वियरहिं वर चडवल बोब, पुरणेब पयासिय दिनमोष । सिरि पासणाहु विग्धंत-यारि. ववहार-पार-संपरख सम्ब, पुणु वड्डमाणु दुग्गइ-णिवार । अहिं सत्त-वसब मय-हीय भब्य । तसु तित्य पवह भरह खेति, सोवण्यचूर मंडिय विसेस, पयडिय धम्माहम्म जुक्ति। सिंगार मारकिय शिरवसेस । सयन जिणेसर, हुव होसहि धर, ते सयख वि पनवेवि धरा सोहग्ग-विलाय जिराधम्मसील, पुणु जिपवर-वाणी लोय-पहाणी, णियमणि धारिवि परमपरा जहिं माचिदिमाश महग्य बील । पुणो वि गोषमो मुशी पयासिया जिणगुणी, जहिं पर चार कुसुमाल दुह, पयत्य जेण भासिया सुसब्ब जीव भासिया । दुज्जर सखुद खत पिसुब विट्ठ। अणुक्कमेण तासु जे, जई वि जाय सव्व ते, सवि दोसहि कहिमिव दुहिय हील, णविवि हाण-धारया भवरणबोहि-तारया। पेमाणुरतु सम्वजि पबीन। मुणिंदु साहं संतई, विराय-रोस संबई, जहिं रेहहिं हव-पय-दविव-मग्ग, जिस सुत्त भासमो गुणाण भूरिवासमो। वंबोख-रंगरगिव-धरग्ग। सुचेषणत्य तम्मनो तवेव सोसिमो वो, जहिं सच्च प्रयुज्यबई विहार, सहस्सकित्ति पटि जो गुणम्सुकित्ति शाम सो दुग्गहु अवह एहणाह। सुतासु पहि मायरो विभाषमत्य-साबरो, सोवण्यरेख व स्वहिं जाप, रिसीसुगन्यायको जयत्तसिक्ल-दायको। वोमर शिव पुरखेव भाव। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४। वोरसेवामन्दिर-अन्धमाला - - ताह विसोहिड गोयायलक्खु, दुक्खिय-जय-पोसणु गुण-विहाणु, शं भज्ज समाबर्ड याहु दक्खु । जो अयरवाल-कुल-कमल-भाणु। सुहाच्छि जसायर णं रयणायरु, बुहयण जुहण इंदरु । मिच्छत-वसब-वासब-विर, सत्थत्यहि सोहिड जामणु मोहिउ,वर यरह एह गुरु।। जिण सत्य विग्गंधहं पायभत्तु । तर्हि तोमर कुल सिरि रावसु, सिरि साहु पहुणुजि पहसियासु, गुणगब रयणायह लदसंसु । तहणंदणु विस्वम गुणणिवासु । अण्णायणाय गासण पवीणु, सिरि खेमसीह गामेण साहु, पंचंग मंत सत्यहं पवीणु। जिण धम्मोपरि में बढ़-गाहु। अरि-राय-उरत्यलि-दिगण-दाहु, जिणचरणोदएण वि जो पवित्, समरंगणि पत्तउ-विजय-खाहु । मागम-रस-रत्तड जासु चित। खग्गग्गि दहिय में मिच्छ-सु, उद्धरित चडम्बिह संघ भार, जसरिय अरिय जे दिसंतु। पायरित विसावय चरिड चाह। शिव-पालकिय विउल भालु, रिसि दाणवंतु गंध-हस्थि, अतुलिय बल-खल कुल-पलय-कालु । वियरेद णिच जो धम्म-पंथि । सिरि शिवगणेस गंदणु पयंदु, सम्मत्स-रयबलंकिय सरीरु, णं गोरक्खण विहिरड वसंड। कण्यायलुम्ब पिपुधीर । ससंगरज्ज भरदिण्ण खंधु, सुह-परिवण-कहरव-वण-हिमंसु, सम्माण-दाण-सोसिय-सबंधु । उद्धरिउ पुरष पाखहु जि बंसु । करवाल पट्टि विष्फुरिय जीहु, धण-कण कंचण-संपुरणु संतु, पम्वंत णिवह-गय-दलण सोहु । पंडियह वि पंडिड गुण-महंतु । मा विसम साह सुहाम थामु, दुहियण-दुह-पासणु बुह-कुल-सासणु जिन-सासण-रहार-धरणु सायरहु तीर संपत्तु णामु । विजालच्छीधरु रूपेण सह महबिसु-किय-विह उबरण ॥५ छत्तोसाउह-पयडण-पसिद्ध, तहु पणयणि पाय शिवदेह, साहण-सायरु जस-रिद-रिख । गामेण धणोवइ सीलगेह। र-बल-संतासणु शिव-पय-सासणु णं सुरवह बहु-धण-धणिउं सुर सिंधुरगह पायडिय बीज, पव जबाहर खस्सरु पहुपहुई धर, डोंगरिंदु णामें भणिउं ।।४ परिवारहु पोसण सुद्ध सीख। तहु पट्ट महाएवी पसिद्ध, बार स्वहं उप्पत्ति खाणि, चंदादे यामा परावरित । गय-हंसिणीव कसायंटि-वाणि। सयलंते उर मज्महं पहाण, सोहम्ग-रूप चेल्लणि व विट्ट, शिय-पइ-मण-पोसण-साबहाण । सिरि रामहु जिंह पुणु सीय सिट्ट। तहणंदणु शिवम गुण-णिहाणु, तहि वरि स्वरमा रयण चरि, तेषग्गलु णं पचक्खु भाणु। णं पंत चक्क सस्व धारि । गवड जसंकुरु पुहमि जाड, तह मजिक पदमु वियसिय सुबत्तु, वंजय-सिरीए पयडियड भाउ । लक्स बल्लकिट बसब-वत्त । सिरि कित्तिसिंधु णा गरिदु, अउलियसाह सहसेक्सोड, चंदु कनायक जय मणिटु । सिरि सहसराजु बामें मुणेहु। सिरि हूंगरसीह गरिंद रज्जि, विएवाब-सहबीबड सुपुत्तु, पणिवह शिवसह पुणु बहु दुसज्जि । जो मुबह जियेस-भविडं सुतु । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह सुपवीणराय वावार-कजि, गंभीर जमावर बहु-गुणनिन । पहराजु पहायर पुहमिलाइ, जो शिव मणु रंजह विविह भाइ । भएणु वितीयड रिसि-देव-भत्त, गिह-भार-धुरंधर कमल बर। सिरि देवसीहु देवावयार, जो करह णिच्च उवयारु सारु । चडथड णंदणु पुणु कुलु पयासु, अवगमिव विहिल-विज्जाविलासु । जिण समयामव-रस-तित्त-चित, सिरि होलिवम्मु णामें पवितु । एमहिं चहुं सहियड गुणगण अहियड खेउंसाहु जसायरु । णाणासुविलसह जईयण पोसहणिय-कुल-कमल दिवायरु अरणहिं दिणि पायम सत्यदत्थु, सम्मत्त-रयणलकिय समत्यु । गड जिब-हरि खेडं साहु साहु, भावें वंदिड तहिं णेमिणाहु । पुणु पाल्हबभु पणवियउ तेणु, सिद्धत्य भाव भाविय मोण। पुणु तहि दिट्टउ सरसह-णिकेत, राधू पंडिड पयडिय विवेट । तेण वि संभासणु कियउ तासु, जो गो िपयासह बहु सुपासु । ता जिण अडचण पसरिय भुषेण. जपिउ हरसिंघ संघवी सुवेण । भो अयरवाल कुल कमबसूर, पंडिय-जणाण मण-पासपूर। जिणधम्म-धुरंधर गुब-णिकेय, जस-पसर-दिसंतर-किय ससेय। सिरिपजणसाहु णंदण सुरोहिं. कलिकालु पयह बिष-मणि मुखेहि। दुज्जण प्रवियर वि दोसगाहि, वति पउर पुशु पुहा माहि। मई सुकहाण पुणु बद्धगाहु, पणविक अणुराएं पासणाहु। तुहु सत्थु कुसलु खेजेहि भारु, सिरि पासचरित जयप-तारु । तहु वयण सुणेपिणु मणि-पुखएप्पिण, जंपइ खेड तासु पु भो रइधू पंडिय सीत अखंडिप, बहु वि एक्कु महु क्यणु गिय गेहि उवण्बाट कप्प-रुक्खु, त फलु को बाउ छह ससुक्छु । पुरोष पतु जह कामधेनु, को हिस्सायह पुणु विगय-रेलु । तह पह पुशु महु कि सई पसाड, महु जम्मु सयलु भो अज्जु जाउ । तुहुधएणु जासु एरिसउ चितु, कइयण-गुणु दुल्खहु जेण पत्तु । बहु जोणि भवंताणंत कालु, भवि भमई जीउ मोहेश बालु । कहमवि पावह गड मसुव जम्मु, मह पावह तो पयह कुकम्मु । बालत्तणि असइ प्रभक्खु-भक्खु, रंगह महि सहइ भणंत दुक्तु । कहमवि पावहतारुण्ण भाउ, बम्मह-बलेण सेवेह पाउ । -विधाणइं जुत्तायुत-मेड, पड सत्यु यसरु अरहंतु देउ । धावह दहदिहि दविणचि खिरखु, उ भावह चेयण परहु-मिएनु । लोहें बहु लिवउ रसंतु, पर-धणु-पर-जुबई मणि सरंतु । मिच्छतु विसम-स-पाण-तत्तु, गड कामवि जियवर धम्मु पर। माहवा विपतु सामुणवतु, विहल हारद पुणु वाण रतु। रयणुव्व दुलहु सावयहु जम्मु, मह पुण्ण मइंबट सकम्मु । भो पंडिय सिरि पासहु चरितु, पभणहिं हां सुणमिसु एवचित । ते सवानि सुगर्हि जिमिंद-माथि, संदेहु किंपि मा चित्ति ठाधि । इय साहुहु वयणे वियसिक्वयण पंडिएण हरिसेप्पिषु । तें कम्व रसायणु सुहसयदायशु पारदर मणु देप्पिणु ।।।। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला अन्तिमभाग: तेचसारि विचहु दिसि मंडया, सिरि भयरवाल-कुल-बद्ध-संसु, जाचय जय-मा-रोस विहंग्य। एडिल गोतं बरवाई हंसु । सहसराजु पढमउ तह सञ्चा , जोइणिपुरम्मि णिवसंतु भासि, जो संघवी गिरनारहु वुच्चई । सिरि देदासाहु स पुण्ण-रासि । स-रतनपालही यामा तहु पिय, पुणु तासु अणुक्कमि लच्छिकोसु, उधरण सुव उच्छगिरमियमिय । महियाणा में जण जणिय-तोसु । पहाराजु जि बीयउ ससिकर-पहु, बहु पदणु पैरूपावहीण, दाण भोय उवमिज्जह सो कहु । पुसु तासु तान्भड धम्मि लीगु । मयणपालही तहु पिय धण्णी, परिचयति जियवर चरणारविंद, सोणपाल यंदणेण सउरणी। मह दाणे पोसिय बंदिविंद । तीउ पुत्त पुणु रइपति भासिड, गिह-भर-भारु वहणु जसु भासिट । यामेण पुरणपालु जि पउत्त चाइडिय शाम पुणु बहु कलात्तु । कोडीणामा तासु जि भामिणि, प्रहणिसु सधव-चित्तमननामिणि । बहु पुत् विगिण चंदवक सोह, ताहि पुत्तु लोहगु ससहरू, जियधम्म धुरंधर पयह गोह। बंजण बक्खण चचिव मणहरु । वह गरुवउ साहु जा पउनु, चउयड सुड विज्जारस भरियर, नाथू साहु वि पुणु तासु पुत्तु । होलिवम्मु णा विप्फुरियउ । नाथूसाहुहु सुव विरिण हूब, तहु कसत सरसुत्ती यामा, झामणु बीधा गुणसारभूव । दाण सील सुदर महिरामा । बीयउ जि पुण्णपालहु जि पुत्तु, तहु पुत् गुणायक बाउं कलायरु, चंदपालु यामेण सिसु । जापट भावियट जिणिंद सुत्तु । इहु वंसु पवित्तड जिण-पय-भत्तड, यंदड महि-धण कण-वरिसु जिणवरपयभत्तड गिह-वयरत्तड, जसु जसु वंदियणहि गुणि। एयह सम्वहं जो मज्मि सारु, परियण-सुह-दायणु गुणसय भायणु पजणसाहु णामें भणिउं खेऊ सुसाहु कण्णावयार। बहु पिय वील्ही शाम गुणायर, तें काराविड पासहु पुराण, पिययम चित्तहो पिच्च सुहायर | भव-तम-गिरणासणु गाइं भाणु । ताहि तणुम्भउ महि विक्खावत', काहणा विरएप्पिणु सुह मणेष महणिसु पवयण-गुण-अणुरायउ । रइधू यामेण वियक्खयेण। चडविह-संघ-भार-धुर-धारित, संपुषण करेपिनु पयह प्रत्यु, जें मिच्छत्त-महागड मोडिट । खेऊंसाहुहु अप्पियउ सत्यु। संसारहु संसरणे भीयड, बहु विणए त गिरिहया तेण, दाणेणं सेयंसु जिबीयत । नक्सथि आदि थिय-मण खेउ शाम साहु विक्खापट, दीवंतर-मागव-विविह-वत्यु, देव-सत्य-गुरु-पव-अणुराया। पहिराविव प्राइसोहा पसत्यु । तासु धपोयामा पियवई मई, पाहरबाहि मैडिट पुणु पवितु, जिम राहबहु सोय वम्म रई। इच्छादाणे रंजियउ चितु । शंदद चारि सुजय सारा, संतुटर पंडिड शिव-महमि, संजाया गुणियह पिवारा। मासीबाट विदिण्ड समम्मि । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [७७ अविरल-जन-धारहिं तरह शिवारहि तप्पड मेइणि णिच्चपरा कजि-मन-दुह खिज्जहु मंगल गिज्जहु पास-पसाए परि जि घरा विरुवल शिवसउ सयलु देसु, पय पालटणंदउ पुणु बरेसु । जिग-सासणु णंदड दोस-मुक्कु, मुणिगणु णंदड तर्हि विसय-चुक्कु । दहु सावय-यण गलिय-गाव, जो णिसुणहि जीवाजीव भाव । सिरि खेऊसाहु सुधम्मि रत्तु, यंदहिं सभडणंदड बहुतु । यंदड महि गिरसिय असुह कम्मु, जो जीव दयावरु परम धम्मु । अहि यंतउ पास पुराणु एहु, सज्जण जशाह जि जणिउणेहु । कंचण महिहरु जा ससि दिशिंदु, जा पुषु महियलि कुल महिं हरिंदु । जा सक्क सग्गि सुरसिय समिधु, ता सस्थ पवट्टड प्रत्थ सिद्ध । मच्छर-मय-हीण सत्य-पबीड पंख्यि-मण-शंदड सुचिरु । पर-गुण-गहणायह वय-गिरायमायरु, जिणापयपयरुह एविय सिरु इय सिरि पासणाह-पुराणे भायम-प्रत्य-सुणिहाणे सिरि-पंडिय-रयधू-विरहए सिरि महामव्व-खेऊसाहु णामंकिए सिरिपाजिण-पंचकल्लाण-बएणयो तहेव दापार-वंस-णि सो णाम सत्तमो संधी परिच्छेत्रो सम्मत्तो ॥॥ संधि ॥॥ प्रति तेरापन्थी बड़ा मन्दिर जयपुर, लिपि सं० १६५५ ३८-पउमचरिउ पद्म पुराण) कवि रहधू मादिभाग: पर-य-विद्ध सणु मुणिसुन्वय जिणु, पणविवि बहु-गुण-गण-भरिड । सिरिरामहो केरउ सुक्ख जणेरड, सह-सक्खा पयडमि चरित॥ सिरि पाहणाह-भब्बयणु हट्ट. पणवेप्पिणु खोयत्तय-वरिछ । पुणु ससि-पहुधम्मामय सर्वतु, भण्वयणहं भवतयह संमतु ॥ तहिं संतिवि जीव-दया-पहाणु, जिं भासिङ महियति विमल-शाख । पुण बढमाणु चरमित देड, सो सब्वहं जीवहं करव-सेट। पुणु वाहं पाणि उमाए विचित्त, बोयत्तय-गामिविवरण दित्ति। पुण इंदभूह गणहरु यबेवि, सोधम्मु वि जंबूसामि तेवि ॥ पुण नाई भक्कमि देवसेणु, इंदिय-भुभंग-णिहलग-वेणु । पुणु विमलसेणु वह धम्मसेणु, सिरिभावसेणु गय-पाव-रेख ॥ वह सहसकित्ति प्रायम-पहाण, तहिं पह-णिसरगट गुण-गिहाणु। गच्छह गायकु सिरि गुणमुणिंदु, सहत्य-पयासणु विगय-संदु॥ तहु पट्ट जईसरु णिहय-ईसरु जसकित्ति मुणियण-तिजउ । तह सिस्स पहाणउं तव-वय-ठाणउं खेमचंदु प्रायम-पिज। गोवग्गिरि खामें गढु पहायु, वं विहिणा थिम्मिड रयण-ठाणु। अइ-उच्च धवलु णं हिमगिरिंदु, जहिं जम्मु समिछह मणि सुरिंदु ॥ तहिं डुंगरिंदु थामेण राउ, अरिगण-सिरग्गि-संदिरा-बाउ । तुंवर-वर-वंसह जो दिगिदु, जिं पवनहं मिच्छहं सबिउ कंदु॥ तह पट्ट परविरूव-जच्छि, णामें चंदादे बह-सुदच्छि। तहु सुत्त कित्तिसिंघु जि गुणिल्लु, जो रायगीइ-जाणण-कहल्लु ॥ पिड-पाय भत् पञ्चक्स मार, पज्जुएण व महियति कुमर साह । तहिं रज्जि वीसह सुदाचित, संचियउ जेब जिबधम्म-वितु। जसु चित् सु-पचहं वापरत जिगवाह-पूर्व जो विन्च-म । झाबामएबमह-विसिहि बीए, काउस्सगे तणु किपट खीणु ॥ भायमु-पुराव-पायहं समत्यु, शिम-मय-सम्म जिकिडकयत्व । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-मन्थमाला जो अयरबाल-वंसह मयंक, बहु विथए पुणु बिण्यात तेण विहु-पक्स-सुर सो शेय वं। कर भारोमेविणु णिय-सिरेण । वाटूसाहुहु वंदनु पवीशु, मो रहधू पंडिय गुण-विहाण, शिय-जणगिह-बोइय-विणय-खीणु । पोमावाद-पर-यंसह पहाणु । जिब-सासणु-भत्तु कसाय-खीणु, सिरिपाल बम्ह भायरिय सीस, उद्धरिय-दीनु । महु वपशु सुगहि भो बुह-गिरीस ॥ तहो भज्जा गुण-गण-सजा द्योचंदही चामें भणिया। सोढल-णिमित्त णेमिहु पुराणु, मुशिदाया-पियंकर अय-शियमायर णं पवित्ति स्वहो तरियार विरयड जहं कइ-जण-विहिय-माणु । बीई तिय वील्हाही गुणंग, तहं रामचरितु, वि महु भणेहि, भइसील-विसुखविणाय-गंग । लक्खा समेड इड मणि मुणेहिं । जेठिहि दलु सिरि करमसीहु, महु सासराड तहु मित्त जेण गिह-भारु धुरंधरुबाहु दीहु ॥ विपत्ति मा प्रबहारि तेण । मुणिसह शिवसह जसु पढम लीह, महु णामु बिहहि चंदहो वि माणि, जावय-जहाण पूरिय-समीह। इस वयणु सुद गिय चित्ति ठाणु । तसु भज्जा जौणाही पवीण, इस णिसुणिवि वयणई, जंपिय सवणई पंडिएण ता उत्त गुरुदेव सस्थ-पय-भत्ति लीय । हो हो किंयुत्तड एत्यु भजुत्तड हउँ गिह कम्में गुत्तउ । तहु वहणीऽणंतमती पहाण, घडएस मवह को उबहि-तोट, मह-सीत-सीय गिह-ल-मार। को फणि-सिर मणि पपड विणोड । चढविह दायें पोसिष-सुपत्त, पंचाणण-मुहि को खिवह हत्थु, मह-णिसु जिणवर-कम-कम-भत्तु विगु सुने महि को स्वइ वत्थु ॥ बहईहिं पुत्ति हवे सुतारु, विणु बुद्धिए तहं कन्वहं पसार, णामेण ननो नेहें सुसार॥ विरएप्पिणु गच्छमि केम पारु । जिण-चरब-कमल णाविय-सरीरु, इब सुणिवि भण्इं हरसीहु साहु, वय-सरु-शिवाहवा-धीहवीह। पावियउ जेण महि धम्म लाहु॥ भरणहि वासरि चितियउ तेण, तुहं कम्बु धुरंधर दोसहारि, हरसीह काम इडिय सिया। सत्वत्थ-कुसलु बहु-विण्य-धारि । किंकिज्जा वित विहिय मम जेण यदीणु भरिज्जह । करि कन्बु चिंत परिहरहिं मित्त, किंतेय निकाए पडिबराए पय-वह जिण ण धरिजह ॥३ तुह मुहिं शिवसहसरसह पवित्त । गरभट पाविव करणीड एम, सं वयणु सुणिवि भरियायत सेय, भवदहि विवडण यो होइ जेम । पारबु, सत्यु पुजु परिएक। चितिम्बर सनुबाशु इदछ, सह बिहु दुज्जण महु भट कांति, चरणु वि पुड खोयत्तय-बस्छि । पूपर जह दुमयि भय उबंति । धम्मु जि पहलवाणु खोयसारु, जहं काय-निंद मजबहु सरीरु, सेविब्बर एत्यु भवषयगरु । सेयंति पेय-धणि खोय भीह । विषुधमें जीड व मुक्ति पाइ, तह अवगुणु गुणु ते पाव लिंति, तं विलुर चडि वि सबलु जाह। णिय पयति सहाड जि पायति॥ इप चिंतिषि पुडगड साहु तत्व, सज्जण अम्माम हंड सतुम्ह, अहडिट जिबगेहब। एत्येव खमेवट दोसु प्रम्ह । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनथ-प्रशस्तिसंग्रह [७६ इहु तुम्ह पसाएं कमि कम्यु, सिरिराम-शिवाण-मको थाम एकादसमो संधि परिच्छेनो हडं मइ-विहीणु सोहेहु सन्बु॥ समत्तो ॥३॥ जसु मह इह जोत्तिय सो पुणु तेत्तिय पपडड दोसुण अस्थि इह प्रति मामेर भंडार, लिपि सं० १५५१ णिय घणु अणुसारें सह परिवार ववसाउवि सो करउ तिहा ॥५ (स. १९४८ की लिखित नया मन्दिर धर्मपुराकी x x x अपूर्ण प्रतिसे संशोधित ) इप बनहा-पुराणे बुहयणविदेहिं जन-सम्माणे ३६-मेहेसर चरिउ सिरिडिय-रहधू-विरहए पाइय-बंधेण अस्थि विहि-सहिए (मेघेश्वर चरित) कवि रइधू सिरि हरिसोहु साहु-कंठ-कंठाहरणे उहय-लोय-सुह-सिद्धि आदिभागकरणे वैस- विस-रावण उप्पत्ति-वाणणो णाम पढमो संधि- सिरि रिसह जिणेदह थुषसय इंदर भवतम चंदहु गयहरहु । परिच्छेभो समत्तो॥ पय-जयतु गवेप्पिणु चित्ति मिहणेपिणु चरित भणमि मेहेसरह वरम भाग: जय रिसहवाह भव-तिमिर-सूर, भन्वहं गुण-शंदउ किउ सुकम्मु, जय सासिय तासिब कुमइ दूर । अरु णंदड जिणवर-णि धम्मु । जय करय हरण गयहरि अपाव, राउ वि णंदर सुहि पब समानु, जय ति-जय-सुहंकर सुदभाव । गंदउ गोवग्गिरि पचलु ठाणु ॥ जय तियस-मन-मणि-चिट्ट-पाय, सावय जणु यंदउ धम्म-जीसु, जय माह जिणेसर बीवराय । जियवाणी भाषण्णण पवीण। जय हिम्मत केवल वाण बाह, देसु वि गिरवड सुहि-बसेड, जय भठवह दोस-विगय प्रवाह। घरि घरि भरिचज्जड बाइदेउ । जय भासिय तच्चं स्वसार, यंदड पुणु हरसीसाहु एत्यु, जय जगणोवहि शिरु पत्त पार । जिंभाविड चेयय-गुण-पयत्थु । जय बाएसरि बह हिम-गिरिंद, सई अंगिमंतु जसु फरह चित्ति, जय परुह निरामय महिपाणिंद ।। कलिकाल-धरिय जिं माण सत्ति ॥ जह निहय पमाय भयंत संत, सिरि रामचरितु वि जेण पहु, जय मुत्ति-रमविनंजय-सुकंत । काराविउ सब्वहं जणिय णेहु । जय धम्मामय ससि सुजस सोह, तहु णंदणु थामें करमसीहु, जय भग्वहं दुग्गह-पह-निरोह ॥ मिच्छत्त महागय-दलण-सीहु ॥ पुलु सिरि वीर जिणेंदु पणविवि भत्तिए सुबड । सो पुणु गंदउ जिया-चलण-भत्त, सम्मासणु सारु जासु तित्त्थे मह जउ ॥१॥ जो राय महायणि मानु पषु । साय-बाय-मुहकमल-इसंती, सिरि पोमावइ परवाल वंसु, बेपमाय-यणहिं पेच्छंती। यंदउ हरिसिंघु सबवी मासु संसु॥ पवयण प्रत्य भणह गिरि कोमल, वाहोल माहणसिंह चिरु गंदड याणा-सा दसव-पह-चिम्मन । इह रइधू कहतीयड विधरा । बेउवमोय कराया समु संकिङ, मोलिक्क समाउ कल गुण जावड नासा बंस सुचरितु परिट्ठिठ । संदड महियति सोवि परा॥1॥ रेहा विग्गह वह गवदति, इस बबहाद-पुराणे बुहयण-विदेहिं बद-सम्माये दे गय उरह सहहि उरत्यति । पंडिय-महा-विरहए पाहय-घेण प्रत्व-विहि-सहिए वापरयंगु उयह बिल दुग्गम, रिसीह-साह-कंठ-कंठाहरणे उहयसोय-सुह-सिदिकरणे याहि प्रत्य गंभीर मनोरमु । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला सुविहवंद भुवदंड रवषयी, जिण मय सुत्त सुवत्यहि भएबी॥ सुकह पसार गियंदु विसाखड, अंग पुग्वमो सु रमाबर । संधि-विहात्ति-पयहि शिरु गच्छद, रस गव बहभाव सु पयच्छा ॥ पंचवाण पाहरणहिं बंकिय, मिच्छावाइहि कहि सपकिय । विमल महाजस पसर विहूसिय, जम्म-जरा-मरणत्ति प्रदूसिय ॥ सा होउ महुप्परि तुटुमणा, कुमा-पडव हिण्णासणि। तिल्लोय पयासणियाणरा. रिसहहु क्यण शिवासिणि ॥२ पुणु सिरि इंदभूह गणसारउ, पविधि जिण-याहहु गिरिधारउ । तासु अणुक्कमेव पुखि पावणु, जायड बहु सीसुविबा उरावणु ॥ णं सरसइ सुरसरि रयणायल, सत्य-प्रत्य-सु-परिक्सा -यायत । सिरि गुणकित्ति मामु जइ-युगम, तड तवेह जो दुबिहु प्रसंगमु॥ पुणु तहु पट्टि पवर अस-भावणु, सिरि जसकित्ति भग्न-सुह-दायणु । तहु पय पंकयाई पणमंतड, जा बुइ शिवसह जिणपयभत्तड । ता रिसिणा सो भविउ वियोएं, हत्थुणिए वि सुमहु तेजोएं। मोह पडिय सुसुहाएं, होसि वियत्खणु मज्मु पसाएं। इब भयेवि मंतक्खर दियाउ, सेवाराहि तजि अलिबउ ॥ चिर पुरणे कात गुण सिद्धर, सुगुरु पसाएं वर पसिबर। एत्यत्यि वि सुंदर स्वरणिहि भूपति पापड सुक्खाया। दे बहुत प्रयतु शिर गोपायलणामें यह ॥३॥ पर स्यबाहरु यं मयरहरु, परियण भयहरु यं वज्जहरू । यं णाव काय कसबह पहु, यं पुहह रमणि सिरि सेहतु। पर उबवणबएणड बाह भड, गवणहं रुहदातण बाइंगड। सोवरण रेखाइ अहिं सहए, सज्जण वय व सा जलु वहए। उत्तु गु धवलु पायारु ससु, णं तोमर शिव संताय जस । जहिं मणहरू रेहह हह पहु, गीसेस वस्थु संचव जि बहु । वर कणय रपण पह विष्फुरिउ, णं महियनि सुरधणु वित्थरिट । जहिं जग शिवसहि उवयार-रया, घण-कण-परिपुरण-सधम्मसया । सहि राउ गुणायह पवर जसु परियण-कु-संतावरु । सिरिहूंगरिंदु गामें भणिक स-पयावें जिउ सहसयरु ॥४॥ गोह तरंगिण णावह सायरु, सबल-कचालटण वि डोसायर। वे पाखुजलु णिय पब पालउ, म्बिन्छ-परिंद-यंस-खय-कालउ । एयच्छत् रज्जु जि जो भुजा, गुणिवण विदह दाणे रंजह। सबज-तेउराह शिरु सेवी, पट्ट महिसि तहु चंदाएवी। तहुणंदणु भूयलि विक्खापड, रपदाणे कलिकरणु समायउ। कित्तिसिंह णामेण गुणायरु, तोमर-कुल-कमलायर भायरु। सिरि डूंगणिव रज्जि वणीसरु, अस्थि दुहियजण-मय-चिताहरु। अयरवाल वंसं वर-भायर, दाण-पूर्व-बहुविहि-विहियायह। पजणु साहु जियपय-भत्तिल्वाड, पर-उवयार-गुणेश प्रमुखड। तहुशंदणु दमवल्ली सुर-तरु, जें णिवाहिउ जिणसंबहु भरु। अप्पा-पर सहव-गुण-जावणु, कुणय-गईद विंद-पंचावणु। गुणमंदिव विगह जस-बुद्धन, रणवत्तड मणि भावह सुद्धध। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ८१ बुहयण हं विदहें णिरु सम्माण्ड, पवयण--प्रत्थ सचित्ति पमाणइ । खेमसीहु णामेण पवित्तउ, वीयराय-कम-कमलहिं भत्तउ । पत्तातह भज्जा सीलगुणेश जुया,सुद्ध-सलवखरण ललिय-गिरा। जाणइ वसणाहहु भत्तियरा पयडधणोरु णामेण वरा ॥५॥ एंदरपु चारि साह संजाया, दाण चार ए महि विक्खाया । पढमु ताहि परिणारि सहोयरु, विणयंकि उ णियकुलगिह-सेहरु । गिरणारहु संघाहिउ बंधरु, सहसराजु णामें गणर-सिंघुरु । पुणु बीय उ माणंदिय सज्जरा, किउ ववसाएं जेण धरणज्जणु । जाणि विबुद्धि विसालु गरेंदि (दे) थप्पिउ अप्पपास अणिदि (दें)। पहराजु जि वि णामेण पसिद्ध उ, जो जिणवयणु य मण्णइ सुद्धउ । पुरसु तीयउ गंदणु गुणमंदिर, सज्जण-जणमण-यणाएंदिरु । बृहयण-तरुवर-पोसण-कंघरु, रइ(ह)पति-गिहभर-धरण-धुरंधरु । विज्जा कोसुदत्थु भइ दुल्लहु, तरियउ सयल-बंधव-जण-वल्लहु । जे अवगमिउ सुयंगु अभंगउ, बुहचूडामणि विणय वसंगउ । होलू साहू णिहिल-गुण-भायण, जो सेवइ रिणय-धम्म-रसायरषु । घत्ताएयहिं चरसुउहि पसाहियउ खेऊ साहू पसण्ण-मणु सह मुंजइ रंजइ परियणहं विलसह धम्म णिमोय घणु ॥६॥ प्रणहि दिणि सो पुणु गिहि यक्कउ, रिणय-मणि चितइ साहु गुरुक्कउ । पाविवि वित्तु पवर जो माउ, धम्मि ण सेवइ सो जि प्रयागउ । सो प्रप्पं प्रप्पाणउ वंचह, जो धरतु महियलि लोहें संचा। दाणु ण देइ ण मिट्ठउ भक्खइ, रिणय-पाणहु स भूमि मिक्खिम्बइ। घिप्पइ परियहि बलि मंडइ, लेइ चोरु मह राणउ दंडइ । डहा मग्गि अहठाणु जि मुल्लइ, इह प्रत्यहु गइ कहव रण चल्लइ । इ एउ जाणे वि सहिउ णिरु किबइ, पत्तहु दाणु णिरंतरु दिबइ । सई विढत्तु रिणय सत्थे एिजइ, कि पिए पत्थलि तं पाविजह । इम चिति विजिएमंदिर पत्तउ, तहि बुह दिट्ठउ वियसिय वत्तउ । संघवीय हरसिंघउ एंदरण, मिच्छत्तावलि वल्लि-णिकंदणु । भएई साहु भो सुणि सुय-सायर, विमलचित्त गुरुभत्ति-कयायर । कि णिय कालु गहिं प्रविणोएं, मझु वयणु प्रवहारहिं मोएं घत्ताकरिकम्वु गुणायर भव्वणिरु मेहेसर रायहु चरिउ । जि कलिमलु खिज्जइ सुहु हवइ जो धम्मामय विप्फुरिउ ॥७॥ इय णिसुणिवि जंपियउ गुणालें, कइणा विणय गुणेण रसालें। भो सहसण मणि रयणायर, पुरणपाल कुलकमल-दिवायर । जिणधम्मालंकिय णिम्मच्छर, बुहयण-जण-मरण-रंजण-कोच्छर । सयल-जीव-रक्खण सुदयावर, णिसुणहि खेऊसाहु सुहंकर । पंचम-काल-पहाउ गुरुक्कउ, धम्ममग्गि जणु प्रह-णिसु वंकउ । धरि परि दुज्जणु जणु प्रकयायरु, विरलउ दीसह कुवि सज्जण गरु । हउं पुषु छंदु विहत्ति ण जाण उं, वायरणोवहि-तरण प्रयाग। सद्दासद्दहु भेउ ण बुज्झमि, पप्रमत्ता भेउ ए मणि सुज्झमि । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमालो %3 - - पणविवि सईसरण दुग्गय-भंसा विहुरिणय-जम्म-जरा-मरण । संतिक्क एह वण महिमा स-सोह, X X सावय जगाह पयरिणय-पबोह । वीयराय-मुह-कमलहु रिणग्गय, चउसाल एयं तोरए सहार, बहु-वण्ए किय मत्थ-समग्गय । जहिं सहहि सुन्म सोहण विहार । छंदालंकारेहिं रवण्णी, पत्तासा भारइ महु होइ पसण्णी । जह जिणहरि जिणपडिम चंदकंति-विद्द,म-घडिया । संसारोवहि-पोय-समाणा, सोहंति रिगच्च बुहयण-महिय भव्वहं सिव-संपय-घडिया॥३ विगय-दोस जणि मुरिणय-पमाणा। जहिं घरि घरि सुम्मइ वर मंगलु, मइ-सुइ-माभिण-णाण-दिवायर, जहिं घरि घरि प्रचिय अंबिज्जइ गयमलु। तस-यावर-सत्ताह-दयावर । जहि घरि घरि पोसिज्जइ दुत्थिउ, जे हुय गोयम पमुह भंडारा, जहिं घरि घरि जणु दीसइ सुत्थिउ । ते पणवेप्पिणु तिहुवरण-सारा । जहिं घरि घरि पविहिय सम्माणइं, तह पुशु सुतव-ताव-तवियंगो, पत्त जि भेयहिं दिज्जहि दाणइं । भष्व-कमल-संबोह-पयंगो । जहिं घरि घरि दंसरणु गाइज्जइ, पिच्चोंभासिय पवयण-अंगो, घरि घरि संघसणु वणिज्जइ । वंदिवि सिरिजसकित्ति प्रसंगो । घरि घरि संदसणु सुमियारउ, तासु पसाए कन्वु पयासमि, घरि घरि जणु सइंसगु धारउ । प्रासि विहिउ कलि-मलु रिणण्णासमि । जहिं णारीय सुसील प्रखंडि उ, घत्ताएत्यु जि भारहि खेत्ति जणि पसिद्ध णं इंद उरु । घरि घरि सइंसशु गुण-मंडिउ । गापायलु णामेंग तं जइ वरणइ तियस्स गुरु ।।२।। भविहव-सूहव णाह-विवज्जउ, जहिं उवणाइ (उववरणाइं) रय-परिमलाई, बाल विद्ध जे तरुणि सलज्जिउ । कइ कलहाइं मुहखंडिय फलाई । तेहि जि सयलहिं दोस-अछिण्णउ, जहि सरवराइ रिणम्मल जलाई, सम्मइंसशु दिनु पडिवण्णउ। पोसिय-मराल-सारस-कुलाई । डिभ नि दसणु दंसणु घोसहिं, बाहिं दीयाउ बहु जलयराउ, चच्चरि चच्चरि बुह संतोसहिं । जल-कीलिय वर णिव रणरवराउ। घत्ताजहिं मंदिराउ बहु भोमयाई, तव-ताब-पवित्ता विगय-रया पवयणत्यमणि गण-उवहि । छुह-पह दित्तीए रहिवोमयाई । दोविह-संजम-भर-घरए-खमा रिसिवर जिएहरि वसहि जहि।।४ जहिं प्रावणाई मणि सामलाई, जिएवर-सासण-सररुह-पयंग, वित्थरिय-रयण-जुज्जलाई । भवियण-कइरव-वए-सिय-पयंग । कत्थ वि बरिण-कुल विक्किय स-वत्व, मिच्छत्त-महद्दिय-वज्जदंड, मूइव सह विक्कय सण हत्य। परिपालिय-दुद्धर-वय-प्रखंड । सिहिं तावें सुज्झइ कुणइ फेम, एिच्छम्म धम्म पइउप प्रमंद, मह तव-संतत्ता भव्वु जेम। भब्वेहि णिच्च पय-कमल-चंद । जहिं पुण्ण परिय पण्णसाल, एरिस जइवर जहिं पिच्च ठंति, पामर-परेहिं भूसिय विसाल । सम्माइ भाए कम्मइ हणंति । जिण सिव बिबुज्जल शियय सम्म, तहिं हुंगरेदु पामें परिंदु, अंधग्ग-षयावनि-ब-बम्म । तोमरकुल कमलायर-दिपिंदु । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुयि इ भुयबल पमाणु, समरंगण प्रतुए तहु समासु । रुिवम प्रविरल गुण - मरिण - एि केउ, साहए समुदु जयसिरि-शिवासु, जस ऊपरि परिय दह दिसासु । करवाल - हिाएं अरि-कवालु, तोडिवि घल्लिउ एवं कमल- लालु । दुपिच्छु मिच्छ रएरंगु मल्लु, रिया- कामि-मरण दिसु सल्लु । सपयावें जिय एां तर जेएए, जसु रज्जि पत्रावट्टिय सिवेए । जैनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह घत्ता उब्वासिय परमंडलु रामबंद संका जसु । छलबल साम छहुएगी इयिछ हो कवर राउ उवमिय तसु ।। ५ तहु रज्जि महाया बहु धए छु, " गुरु देव सत्य- विएं वियडु । जहिं संति वियक्खा मरणुव सव्व, धम्मासुरत वर गलिय-गव्व । जहिं सत्त-वस-चुय सावयाई, विसह पालिय दो -दह-वयाई । सम्म सए मए एि ) भूसियंग, चिचोन्भासिय पवया सुयंग | दारापेखए विहि णिच्च लीए, जिए -महिम - महुच्छव गिरु पवीरण । arer - गुण प्रप्पारुह पवित्त, जिए - सुत्त रसायए सवातित्त । पंचमु दुस्समु श्रइ विसम कालु रिलिवि तुरिउ पविहिउ रसालु । धम्मज्झाएँ जे कालु लिति, वयारमंतु ग्रह - णिसु गुणंति । संसार- महाव-वडा, भीम, स्सिंक प मुह-गुर वाणीय | जहि पारीयए दिढ सील-जुत्त, दाणें पासिय rिs तिविह पत्त । तियमिसेण लच्छि अवयरय एत्थु, गयrव ण दीसह वि कावि तत्थु । घर-वर-कणयाहरण एहि, = जिण हवण - पूय उच्छाह-चित्त, भव-तर-भोर्याह णिच्च जि विरत । गुरू- देव पाय पंकर्याह लीण, सम्मद्द सण- पालण पवीण । [ ८५ पर पुरिस सबंधव सरिस जाहि ग्रह - णिसु पडिवण्णिय णिय मनाहि । किं वण्णमि तहि हउं पुरिस- जारि, जहि डिभवि सग वसावहारि । पवहि पर्व्वाह पोसह कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिण गुए युति । साहम्मि य वच्छलु शिरु वहति, पर अवगुण पहि गुए कहति । एरिस सावग्रह विविहिप माणु, मीसर जिए हरि वड्डम तु । शिवसइ जा रइधूक व गुणालु, सुकवित्त रसायण रिहि रसालु । घत्ता तास जस पसर - पूरिय राहेण संग भार-धुर-घरिय सिह । सिरि कमलसी संघाहिवेा बुहयरतु ति वित्तर ||६|| X X X X म्हहिं किंपि धम्मु चितिज्जद्द, तं एा करहु सक्कमि संकिज्जइ । परि दिम्मि इय चित कुज्जिह, तुम्हासे तं संपज्जइ । जस कित्तर तउ शिरुवद्द सई, पुर प्रखंड प्रांतु हवे सई । हउं वराउ महियलि असमत्थउ, मव- जम्मु कि रोमि रित्थउ । तं शिसुप्पिरतु पुलइय-कायें, कित्तिचंद कुमरह पुतु तायें । वियसि विजंपिउ डुंगररायें, कमलसीह वणिवर संपायें । पुतु कज्जु जंतुव मणि रुम्बई, • तं विरयहि साहु समुच्चई । जे पुखु भण्ा केवि सु-सहायए, करहु करहु ते धम्म महायएा । कि पि संक मा किज्जइ वित्तहि, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला जहिं सोरट्रि वीसल णिव रजहिं, धम्म पविट्ठिउ चिरु णिखजहिं । वच्छ-तेयपालक्ख-वणिदहिं, पवर तित्थ णिम्मिय गयदंतहिं । जिह पेरोजसाह सुपसाएं, जोइणिपुर णिवसंत अमाएँ । सारंगसाहु णाम विक्खाएँ, पविहिय जत्त धम्म प्रणुराएं। तिहु तुहुँ विरयहिं एत्थु गुणायर, लइ लइ पउरु दवु धम्मायर । न सु जेत्तइ उविरि अच्छाई, सो सयलु जि वेक्कउ कय-रिणच्छई। ऊणइ हउ असेसु पूरेसमि, जं जं मग्गहु तं तं देसमि । पुए पुए तेण एम तहिं भणिउँ, पुण, तंबोलु देवि सम्माणिउं। पुण सुरिताणसीह णिय भिच्चहु, सामिय धम्म चितियह णिच्चहु । तहु पाएसु णिवेण पुण, दिण्णउ, किजहिं धम्म-सहाउ पछिण्णउ । कमलसीह जं तुम्ह [हु] भासइं, तं तहु पविहिबहि सु-समासई । भणिवि पसाउ तेणा पडि वणक, अज्जु सामि किंकर हउँ घणऊ । घत्तासुपसाउ अतुल्लु रसरहो लहिवि वणीसरु द्रमणि । वउविह-संघे जुउ सोजि पुण उडवाविहि संपत्तु खणि ॥१५॥ xxx जो देवाहिदेव तित्थंकरु, माइणाहु तित्थो य सुहकरु । तहु पडिमा दुग्गइ णिण्णासणि, जा मिच्छत्त-गिरिद-सरासणि । जा पुषु भव्यह सुहगइ-सासणि, जा महिरोय-सोय-दुह-णासणि । सा एयारह कर-पविहंगी, काराषिय बिरुवम महतुगी । प्रगएिव प्रए पडिम को लक्खाई, सुरगुरु वाह गयए'जह मक्ताई। करिवि पयि? तिलउ पुणु दिण्णउ, चिरु भवि पविहिउ कलिमलु छिण्णउ । चउविह-संघहु विणउ पयासिउ, कज्जु सयलु जा सिद्ध सुहासिउ । ता हउं णिय मणम्मि संतुटुउ, णं प्रवेणिहाणु युद्ध दिट्ठउ । एं वासागमु लद्धमु ऊरें, एं समरंगणु गिब्भय सूर। एं जोईसहु झाणु जि सिद्ध उ, एं विज्जे पारय रसु बद्धउ । इय संतोस परायण संते, मइ सुहेण पुणु धरिणि वसंतें। अण्णहि दिणि जं चितिउ पंडिय, तं णिसुणहि भो सील प्रखंडिय । घत्ताजं जं इह तिय जम्मि सुयारउ णिरु दीसइ । तं तं सयलु प्रखंड जिरणधम्महु फल सीसह ॥ १७ ॥ त संपज्जइ दय-परिणामें, तं संपज्जइ वियलिय-कामें । तं संपज्जइ वय-तवयरणे, तं संपज्जइ णिज्जिय-करणें । तं संपज्जा उवसमभावें, तं संपज्जइ वज्जिय-गब्वें। एरिसु धम्मुवि ति-जय पयत्थउ, सम्मत्तं विशु तं पि गिरत्थउ । संसारऊ कारण जाणिज्जइ, मज्जणिवित्ति सहु तं किज्जइ । तं सम्म सणु अइ-दुल्लहु, मझु पयासहि तं पंडिय लहु । कासु जाउ चिरु दंसशु सुद्धउ, केण केण फलु लद्ध-विसुद्धउ । त सोउं कइमुहउ बंधमि, सदहामि रोएमि समित्थमि । तुहु पुषु कव्व-रयण-रयणायरु, बालमित्तु मम्हहं गेहायर । तुहु महु सच्चउ पुण्ण-सहायउ, महु मरिणत्व पूरण प्रणुरायउ । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह जिग- पट्ठ महु णिरुवम होंति, चरि पुराण गुणेण महंति । देवाहिदेव दय करहिं मज्भु, महु भक्तिभाउ पय होउ तुज्भु । घत्ता पश्यतु विरश्य सत्य प्रणेय, चरिय पुराणामय बहु भेइय । वह महु वित्तिय माह, सत्य चंदि गायर करु ढाह । विरएप्प करणा एहु दिपु हत्थि संघाहिवहो । साट्ट चित्रिणा संघाहिव वित्तिणा सम्मारिणउ ति बहुजि बहु . घत्ताf सुरिवि का। रिंगम्मलमइगा पडि जंपिज्जइ सुहमरिण गा हरिसिंघ पुत्तं गुणगणजुत्ते हंसिवि विजयसिरि णंदणेण ॥ 1 अन्तिम भाग:मइ प्रणते प्रक्खरविसेसु, उ मुमि कब्व पुरणु छंदलेसु । मधिट्ठत्तणेण रयउ सत्यु, गउ बुज्झिउ सद्दासद्द प्रत्थु । दुज्जरण सज्जरण ससहाव जे वि, महु मूढउ दोसु मलेउ कोवि । attrare मरिण विरयरु तत्त्थ, संथवउ अणु वज्जिवि प्रणत्थ । जं अहियक्खरु मत्ताविहाउ, तं पुसउ मुरिवि जरियारपुराउ । चउदह सय वण्णव उत्तरालि, वरिसइ गय विक्कमराय कालि । गोयल डुंगरराय रज्जि, fast as वरणा विहिय कज्जि । तहि रिगव -सम्माणें तोसियंगु, बृहयहं विउि जं णिच्च संगु । करुणावल्ली वरण घवरणकंदु, सिरियरवाल कुल कुमुदचंदु | सिरि भोया गामें हुवउ साहु, संपत्तु जेरण घमें लहाउ । तहुणालाही गामेण भज्ज, प्र साहुहारण सा पुण्गकज्ज । तहु णंदण चारिउ गुरगोहवासु, ससि - रिह - जस-भर पूरिय- दिसासु । खेमसिंह पसिद्ध महि गरिछु, क रिगट् ठु । मद्दराजु महामइ तहु असराज दुहिय जरग प्रासकर, पाल्हा कुल-कमल- वियास-सूर । एहु गरु जो खेमसीहु, वणिय एत्थु भव- भमरण-वीहु । तहु णिउरादे भामिरिण उत्त, गुरु-देव-सत्थ-पय-कमल-भत्त । तहि उयरि उवण्णा विणि पुत्त, वक्यत्तु जि जगवय सभक्खि, भद्दव मासम्मिस पेय पक्खि । पुर्णामि दिरिंग कुजवारे समोई, सुहयारें सुहरगामें जलोइं । तिहु मासयति पुण्णु हूउ, सम्मत्तगुणाहिणिहार घूउ । जिराहु पिया महु चरमदेहु, अविचल केवल लच्छीहि मेह । विष्णारण-कला-गुण- सेणि-जुत्त । पढम संघाहिउ कमलसीहु, जो पयलु महीयलु सिव-समीहु । गामेण सरासइ तहु कलत्त, बीई जिस सेविय - पायभत्त । भवि भवि तिस्थंकर मज्झ देउ, होउ गुरु गिग्गं वि भलेउ । संज्जउ बोहि-समाहि-लाहु, संसार महण्णव दिष्ण थाहु | उत्तमखमाइ वह भेय धम्मु, संभव दयावरु भुवरण रम्मु । हे वीयराय जिरण. जरिणय भोउ, मग्गमि णाहं संसार भोड़ । विह दाणें पीरिणयसुपत्त, ग्रह-रिसु विरइय जिरगरगाह जत्त । तहु द गामें मल्लिदासु, सो संहत्तउ सुह गइ रिणवासु । संघाहिव कमलहु लहउ भाउ, गामेण पसिद्ध मोयराउ । तहु भामिरिण देवइ गाम उत्त, विहि पुत हि या सोहइ सत । १७ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर प्रन्थमाला णामेण भणिउ गुरु चंदसेणु, पुणु पुरणपालु लहुवउ परेण । घत्ताइय परियण जुत्तउ एत्यु णिरू कमलसीह संघाहिव । चिरु णंदउ एत्यु पसण्णु मणु णिहय-दुहिय-जणमा(उ) इ॥ णंदउ वीर जिणेसहु सासणु, लोयालोय सरूव-पयासः । गंदउ सूरि चरित्तचरंतउ, सिरि जसकित्ति महातव तत्तउ । गंदउ वसुहाहिउ वसुधारर, चउवण्णस्स संति पययारउ । णंदउ सयलु महायशु सारउ, घय रिणय मायरु कलिमलु हारउ । रिणय समयहि घणु अविरल धारहि, वरिसउ णिच्च चित्त सुह यारहिं । मेइणि सयल-सालि गिप्पज्जई, घरि घरि मंगल विहि संपज्जई। घरि घरि सव्वहु जिरण अंचिज्जइ, घरि घरि पत्तदारा रिण दिज्जइ । गंदउ कमलापह संघाहिउ, भोयराय सहु पवर गुणाहिउ । घत्तापाडिजंतउ बुहणहि इह सत्थु प्रसत्थु संपत्थउ । गंदउ चिरु वीढम्मि थिरु पयडिय जे परमत्थउ ॥३६॥ इय सिरि सम्मत्त गुणरिणहाणे णिरुवम-संवेयभावसुपहाणे सिरि बुहु-रइघू-विरइए सिरि-संघाहिव-कमलसीह-णामंकिए पहावणंगगुण-वण्णणोणाम चउत्थो संधिपरिच्छेउ समत्तो॥ संधि ४॥ ४१ अरिट्ठणेमिचरिउ (हरिवंशपुराण) आदिमागःसुर-वइ-सय वंदहु तिजय प्रवदह सिरि परिदुणेमिह चरणं । पणविवि तहु वंसहु कह जय संसह, भणमि सवण-मण सुद-रमणं ॥६॥ नोट-इस धत्ता के अनंतर 'जय जिण उसह (उभय) सुहकारण । जय जय मजिय भवंतुह तारण' रूप से चतुर्विशति तीर्थकरों का स्तवन दिया है। जिण-मुह-णिग्गय देवि भडारी, वाएसरि तिल्लोय-पियारी। साय-वाय-विहि-पयइण-सारी, मिच्छावाय-वाय-प्रवहारी। केवलणाए-पमुह गुणधारी पणवेप्पिरशु सामिणि सुहयारी। चउदह सय तेवण जिण वणिहि, णिच्च-भव्व-मण-उप्पाइथ दिहि । कम्म-दारु-पज्जालण-खरसिहि, भोयरण-काल वसहि सावय-गिहि । विसयसेणु धुरि अति जि गोयमु, ते पणवेप्पिणु पयडिय गोयमु । जाह प्रसूत्रकमि जे मुगिजाया, गाणंभोरिणहि जह विक्खाया। देवणंदि वाएसरि-भूसिउ, जेहि जहरिंणद-वायरण पयासिउ । जिसेण वियवखरण विगयतंड जेण महापुराण किउ पयंड। तह रविसेणु सु-तव-विप्फुरिउ, ते रामायण-सायरु-तरियउ । एवमाइ बहुसूरि अणुक्कमि, संजायउ रिसि-पुंग-मुरिणतमि । कमलकित्ति उत्तमखम-धारउ, भब्वह भव-अंबोरिणहि-तारउ । तस्स पट्ट करणयट्टि परिट्ठिउ, सिरि-सुहचंद सु-तव-उक्कट्ठिउ । घत्तासईसण पाणइंचरिय-समारण्इं प्रह-रिणसि भावंतउ सुमरिण गुरुपय सेवंतउ तच्च-सुणंतह रिणवसिय जा पंडिय भवरिण । ताम अगुव्वय-धरण-पहावें, पीणिय सावय-जण सुहदाणे। एयादह पडिमा गुणठाएँ, तित्तउ सिद्धतामय पाणे। सिरि-गुणकित्ति सूरि पयभत्ते, देह-भोय-संसार-विरत्तें। बंभयारि खेल्हा महिहाणे, माहासिज्झइ भव्व-पहाणे। भो रइधू पंडिय सुहभावण, पह बहु सत्य रइय सुह-दावरण। सिरि तेसहि पुरिस गुणमंदिर, रइउ महापुराण जयचंदिरु। कवि रइधू Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्य-प्रशस्तिसंग्रह [CE = परियण-गण-यंगण-उदयभारः । सिरि-लाहासाहु गुणाण ठाणु । दिव्यराजही तिय तह तरिणय कंति । गं परम मुरिणदंहु सुद खंति । तह भरहह-सेएणावइ-चरियड, को मुह पबंधु गुण-भरियउ। जसहर-चरिउ जीव-दय-पोसणु, वित्तसार सिद्धत-पयासणु। जीवधरहु वि पासह परियड, विरइवि भुवरणत्तउ जस-भरिउ । भो कइ-तिलय महागुणभूसणु, सिरि अरिदनेमिह जरण-पोसणु । विरइय चरिउ मज्झ उवरोहें, सोउं बंछमि पयरिणय मोहें। घत्ताइय खुल्लय वयणाई पोसिय जयणाई प्रवहारिवि पंसु रयण मारिणउ । को जडु घड उल्लेखें मवइ जय विरय गुत्त णियह ते पल्ल उ सहसकिरण पुरु कि जोइस्म ॥ तास पिउ बंभवय-धारएण, मित्तिउं रिणसुरहिं थिरमणेण । जोइणिपुराउ उत्तर-दिसासु, तहु णिवड झुणु-झुणु पुरु पयासु । णं लच्छि हि केरउं वर विलासु, चउवण्णासिय-जण-कय-णिवासु । चउहट्ट चच्चरुद्दाम जत्थ, वंदियण वयण-कलरव पसत्य । जिरण-महिम-महोच्छव दारणसोह, सावय रिणवसहिं जहिं सुद्धबोह । जहि णिच्च ण्हवरण पावावहार, धय-अंड-दंड-राइय-विहार । जहिं धीर वियक्खरण वसहि लोय, तियसत्थ समासिय-दिव्व-भोय । तहिं मासि वरणीवर-कुल पहूउ, अग्गोयवंसु पयसार भूउ । दुव्वसण-पाव-वासरण प्रगम्म, संघाहिउ लक्खू णामु रम्मु । तहु पिय देवाही सच्चवाय । सु-पसण्ण सील गं सीय जाय । तह तखुरुह बुहयण कप्पविक्खु । पोसियउ णिच्च जिरण-समय-पक्छु । तहि गम्भ-उवण्णा सुह-संपुण्णा गंदण णिरुवम सोहपरा। दुक्खिय-जण-पोसणु कुलहर-भूसरण तिरिण पन्हव पलंबकरा।।४ तहं पढमउ गंदणु दुरिय-हरु, जस-बल्लि-पसर-माहार-तरु । परिवार-धुरा-धारण-धवलु, रिणग्गंध-सवरण--णुय-पय-कमलु । दाणेण पयोसिय विकुह मरणु, लोणा संघाहिउ भूरि धरणु । बीयउँ एंदणु संवेय-रिणहिं, पयरिणय गुरिणयण संदोह दिहिं । पर-पारि-परम्मुहु सपियरउँ, परियण-संघह-पलद्ध-जउं। मोदा पहिहाण गुण-णिलउँ, बुह-चिंतामणि पुरयण-तिलउं। पुणु पउमसीहुं तीयउ पसिद्ध , सम्मत्ताइयवर-गुण-समिद्ध। उन्धहि जेण जिण-समय पारण, रिणवाहिय पत्त-तिभेय-दाण । पत्ता:एयाहं जि गुरुयरु जण विहियायरु, दुहियण-जण-एव-कप्पतरु लोणा जु पउत्तउ जिणपय भत्तउ, मच्छमु कुलणह दिवसयरु इय सिरि-परिठ्ठणेमिचरिए हरिवंस-कहंतराइं गुणभरिए सिरि लाहासुम-साहुलोणा-परमणिय सेणियसमवसरण-गमणो पढमो संधी परिच्छेप्रो समत्तो ॥१॥ मन्तिममागः जिए-सुत्त-प्रत्य-अलहंतएण, सिरि कमनकित्ति-पय-सेवएण। मइ जड़ हीणाहिर भरिणउ किपि , बुहयण सोहेप्पिणु सयलु तंपि । कायन्बु सुद् हु हरिपुराणु, जिम लोय पवट्टइ लढमाणु । सिरि-कंजकित्ति-पढेंबरेसु, तचत्व-सत्य-भासण दिणेसु । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है.1 दौरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला उदइय-मि छत्त तमोह-णासु, घत्तासुहचंद भडारउ सुजस-वासु।। तहिं देहि उवण्णा चिर सुह-पुण्णा, तिण्णि तणुम्भव परिमल मणा पत्ता : दुक्खिय-जण-पोसरण गिय-कुल-भूसण विबुह महीरुह वरणसधण' तहु पय सेवंति जिणहरि ठंति कइणारिठणेमिचरि।। पढमु ताहं लायण पहणालं, विरइउ पुणु विरयमि जेण अक्कमुहु उदापारु गुणुक्करिउ ।। लोणासंघाहिं धरधरणउं । अग्गोयवंसु गुण णलिण-हंसु , दाताही पिययम-साहीण, गोयल सुगोत्तु जंण लढथोत्तु। पिच्च जिरिंणद-भत्ति-भर-लीणउं । जिण-समय भत्तु राईव वत्यु ? तिपरदास पुत्तेहिं पउण्णउं, राजेहिंहारणु तहिं हु उं पहारण । दाण-पूय विणएहि सउण्णउं । तहु सुउ सुरणेहु सुह-लच्छि गेहु ; पुणु बीओ पुण्णोदयचंदो, बाटू सुसाहु करि-सुड-बाहु । उदयचंदु उवयार अणंदो। गयण। सुभज्ज तह गुण सहेज्ज , भामिणी चोचाही सुहु भावण, सुभयनाम पंच कय सुकय संच। णंदण तिण्णि हुया घर-पावरण । पढमउ भरिंगदु पाल्हा वरिंणदु, सहसराजु गुण-सहसहं भायणु, लाखू विदीउ दोदा तिदीउ । बच्छराजहो पियराइय मरतु । लक्खणु च उत्थो लक्खण पसत्यु, म मराज जगमलु पुरणु तीयउं, पुणु अरुदेव सेवासु सेउ । देव-सत्थ गुरु-पाय-विरणीयउ । पत्ता: पुणु छज्जीव-णि काय-दयावरु, पाल्हा साहुह सुउ विरणय अंग जुउ धील्हाणामें तासु पिया पदमासाहु सउल-ह-भायरु । काल्हाही सुउ तहि साथर गुणरिणहि सहदेवी पियरणाम सिय जीदाही पद्धंगिणि सोही, सहदेवी गंःण वे वि जाण , पुत्त-जुयल-णेहेण ण मोही। दीवा पोल्हा णिरु रणेह भाण। खेमवंतु खेतागरु णार, जो बाधू सुउ लाखू पउत्तु , गुरुदासु जि जगविंद-पियारउं । तह गुण वणणे सुरगुरु जहुत्तु । तीया पुत्तु दगाई जगि विक्खाया, तहु पिय एयएंवइ देहं जायदणं, एं सागउं पिय-दुक्ख घायणं । पुरषु चउत्थो चाउ-गुण-भायण, देवाही णामा सुह चरित्त, दाण-सील-विणएं सुह-पावण । जिणधम्म-रसायण-पाण-तित्त । पुणु बाधू स हुस्स तणुब्भउ, तहि गम्भि उवण्णउं कुल-णिहाणु, दोदा जो पयत्त महि गिब्भउ । कुल-कुवलय-पोसणु सेय-भारतु । बालाही पिययम मोहिल्ल, बुहयण-चिंतिय-सुह-कामधेरगु, जाटा णंदणेण सोहिल्लउ। सम्वत्य विणंमिय सुजस-रेणु । सूदाही जाया पिय उत्ती, जिणधम्म-लाह संतुट्ठ-चित्तु, विण्णि पुत्त-पुत्तहिं सउत्ती। सिरि लाहा साहु बुहाणि मित्तु । पाहा पढमु पहिय-विस्सामो, तहु पिय सपइन्वय बयणसार, बाहिरही पिय पूरिय-कामो । रायणंहे सुह-यरणं खीर-धार। सुय वहोरु उल्हो वे भासिय (?) मल-पडल-णासि एं सुकइ-उत्ति, धम्मभेण अण्णोण्ण पयासिय । दिवराजही ति महिहाणु जुत्ति । ... बाटा साहुहु णंदणु बीयउ, Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [११ कवि रइधू धारिउ जेण धम्मु वर सणु। ४२-धएणकुमार चरिउ (धन्यकुमार चरित) मेल्हू णामें जय-विक्खायउ, डूगरही भज्जा असुरायउ। . आदिमागःघत्ता पणविवि सिरिवीरहोणाणसरीरहो कमजुप्रो घणकुमाचरिमो। पूण वर जस फुरिउ लक्खमणु तरियउ दिउराजही तासुपिया प्रक्खमि सुपसिद्धयो गुणगणरिद्धही धम्म-रसायण-रस-भरिमो। वे गंदण जाया गेह सखाया वागुण सोहिय धम्महिया । २७ जे हवा होसहि तित्यंकर, तिहुणा तिहुवण-वई पय-भत्तउ, वट्टमाण पणविवि सुहंकर। खेताही तहु भणिउं कलत्तउ । साय-वाय-वयरणई दरिसंती, णागराजु बीयउ हासिय, रणय-पमाण-विहि जा भासंती। चूहडही णामें तिय भासिय । रिगच्च भाइ सा देवि सरासइ, पुणु जो सेवा साहु जि पंचमु, रणविवि जेम मइ विउल पयासइ । गिरसिउ जेण प्रदुमय भरतमु । पुरण गणेमु गोयमु गणसारउ, जमु पिय भीमाहिय जिय पव्वय, जगण-समुद्द-पार-उत्तारउ। जा पालइ कासण्णे वरदय । तहं मुधम्म पमुहाई जईसर, तह णंदपु मेहा जिरण-भत्तउ, पणविवि भत्तिए वय-भारधर । कोलाही पिययम पासत्तउ। ताहं अणुक्कमि सूरि पहारण उं, णाणू णंदणु मुरिण-पय वदउ, सहसकित्ति तव-वय-गुण-ठाणउं । एहु सयलु परियणु संयंदउ । तारा पट्टणि रूव-गुण-भायणु, दउ समउ वीर-जिरण केरउ, जे भाविउ मरिण गाण-रसायणु । धम्मु पवट्टइ सुक्खु जणेरउ । सिरिगुणाकत्ति विबुह-चिंतामणि, गंदउ सूरि सुगुरु सुहुचंदो, परविवि तिरयरण सुद्धिए बहुरिण। कमलकित्ति-पट्टबर-च दो। घत्ताःगंदउ महि वइणीय पणासणु, इय जिण मुरिणवरविंदु साइ वि मण वय-काएं । भन्न विरिणदउ सच्च पयासणु। तुणु पयडमि. जएि संधु गुरु गुणकित्ति पसाएं ॥१॥ चिरु णदउ लोणा संघाहिउ, अण्णाहिं दिणि जिरणगुणसु विसालें, भायर परियण जुत्तु जस हिउ । विहसि विजपि उ बुद्धि-विसालें। जासु भत्ति-भारेण जि कइणा, भो सहत्थ-रयण-रयणायर, रइधू णामेण जि सुहमइया । मिछमय-तम-णाण-दिवायर । उदयराज जणणे जि रइयउ, रइधूपं.डय सुणि हिम्मत्यर, सिरि परिणेमिह जिरण-चरियउ । बुहृयण जण-मण-रंजण-कोत्थर । पत्ता: जहं पइं पास-जिणंदह केरल, चिरु णंदउ सत्यो जाम णहत्यो रवि ससि गह एक्खत्तणु । चरिउ रयउ बहु सुक्ख-जणेरउ । कइयण रिणरु सोहहु दोसु णिरोहहु सुणइं पयम भषयगु ८ पुरण बलाद पुगणु सुहकरू, इय हरिवंसपुराणे मण-वंछिय-फलेण सुपहाणे सिरि ऐमाजिणिंद-चरिउ विरयउ बरु । पंडिय-रइधू-वण्णिए सिरिमहाभग्व-साधु हाहा-सुय सादल साहु रिएमित्त सुदर, संघाहिव-लोणाणुमणिए सिरिअरिठणेमिरिणव्वाण- जहं पयं वद्रमाण भासिउ बरु । गमणं तहेव दायारवंसु-देसरमणाम चज्दहमो संधी : . . . . तहिं सिरियल कुमार पुण्णहं फलु, परिच्छेपो समत्तो॥ .. महु वयणे पयहि पुरा गयमलु। । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला ता गुरु भणियालाब सुणेप्पिणु, इय सिरि घणकुमार चरिए कय सुह-भावण-फलेण रइधू बुहु जंपइ पणवेप्पिणु। विप्फुरिए सिरि पंडिय-रइधू-विरइए सिरि पुण्णपाल-सुत पत्ता: साधु सिरि भुल्लण-णामंकिए धरणयत्तजम्म वण्णणो णाम तुम्हहं पाएसें कविसेसें करमिण संसउधरममा पढमो परिच्छेग्रो समत्तो ॥१॥ परकारण वट्ट चित्ति पत्रट्टइ सेयोरुण कुवि णियमि जिणि||२ एंदउ महिवइ पाए पवीणु एंदउ सज्जण यणु भरिय-दीशु । तं सुरिणवि भणइ गुणकित्ति एम, एंदउ स-धम्मु सिव-सोक्खयारि, भो पंडिय तुह गढ मुहि केम । एंदउ जइवर वट्टय-भार-धारि । गोवागिरि णियड पएसि धम्मु, इक्ख कु वंस-मंडण-मयंकु, पुरुषाल संडु णामेण मणु । सिरि पुरणपाल-सुप विगय-संकु। इक्खाइ वंसि तहिं चिरु वणेंदु, एंदउ भुल्नण गामेण साहु, प्रगणिय जाया पणविय जिणेंदु। णिउरादे वल्लहु दोह-बाहु । जसवालु जसायरु गुरण-महंतु, महु होज्जउ विमलसमाहि-बोहि, करमू पटवारि जणि महंतु । जा दुग्गइ-गमणह पह-णिरोहि । तुहु एंदणु विरुवमु गुण-णिवासु, णिय-कालें बरसिउ मेघमाल, महरिणसु जो मच्च जिणवरासु । गिहि निहि संमुह मंगल व माल । चउविह संघ विणयाणुरत्तु, बहु-प्रत्य-समिबहु चरित्त एहु, सिरि पूनउ साहु सम्मि बत्तु । परिपुण्ण करिवि संवेय-गेहु । तुहु भज्जा सील गुणस्स खारिण, पंडिएण समप्पउ पाव-णासु, सम्वहि य गाई तिस्थयर-वाणि । भुल्लण हु हत्यि पयडिय-पयासु । तिहुवण सिरि मुरिणयरण-पय-विरणीय, तेण जि रिणय सीसि चढाविएण, सिरिहरसिरि जिम राहवहु सीय । पुणु पंडिउ पुज्जिउ पणमिएण । एहि संजणिया चारि पुत्त, पत्तालक्खण-लक्खंकिय विणय-पुत्त । गुण मुणिहु पसाएं पयडिय-राएं सिद्धउ कन्व-रसाया । णिय-कुल-मयंकु पुणु पढ़मु ताहं, सो पाइज्जंतर प्रत्य-समंतउ वट्टउ सुह-सय-भायातु ॥१६॥ भुलणु जि साहु पयडहु जणाहं । जिण गुण गणराएं वज्जियमाएं, बीयउ पुणु बुहयण-बण-निवासु, चरिउ कराविउ एह व। सिरि रूले णामे जस-पयासु । तहु वंसु पसिद्धउ सुह जण रिद्धउ, तइयउ णंदणु मयरगावयारु, पयडमि जमण-सुक्खकर। सिरि कामराजुणामेण साहु । घण-कण-जए-पुण्णउ सुह-रिणवासु, चउपर गंदणु मासण्णि वासु, पुरुपालि संड परि विहिय तासु । प्रास्लु णामें सो फुल-पयासु । तहिं वणिवर जिण-पय-चंचरीउ, एयहिं जो पढमउ गुण-गरिछु, भव भमए हु जो मुरिण णिच्च भीउ । सिरिभुल्लण गामें साहु सिद्छु । करमू पटवारिउ गुण-गरिटछु, पत्ता: सोई सुणाई मुणि-दाण इट। पार उण पुरवरे मुह लच्छिषरे, तहिं पहुवहरि-णिकंदरणु । वह भज्जा रूवा ब्वसार, तोमरकुल मंडण परि-सिर खंडण, सिरिगरिदं गंदररा ॥३॥ णं सोल-वयह पढमिल्लकार । तहु एंदण एव एं रणव-पयत्यु, Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह गोणाई मरिण मुयि- रात्यु | उद्धरणु पढमु उद्धरिय- दी, साधारण सावय-धम्म- लीपु । ती खझखम-गुण-महंतु, तुरियर पुराउ पुणे महंतु । मल मुक्कमल पंचम वृत्त, जो परियां आय पवित्रु । रयणत्तय भत्तउरयगु साहु, हरि भुत्ति हरु पुग्गु दीह-बाहु | श्रम घिरराजु गुणोह द्वाणु, धूलि नवमउ तुज्झिय पमास्तु । एह जि मज्झि चउत्थउ जि वृत्त, सिरि पुण्ग पालु मणि मुणिय सुत्तु । घन्ता 11 तहु पढमी भामिरि कुल हि सामिणिति हुवर सिरि गामें भणिया बी पुणु म सरणं पीयउ सिरि ग्रह पवित्तु रूत्रहु भणिया । गंदण य चारितहु विएयवंतु, णं तचक्क जि जणि सहंतु । ताहं जि गुरुमं नतणि म भुल्लु, सिरि भुल्लरगु एामाणे जि अतुल्लु । तदुभय चउविह पत्त-भत्त उरादे णामा गिह महंत । बीउ दणु सूले वारि, तहु भज्जा महासिरि गेह खाणि । तहु तिणि पुत्त कुल भवए दीउ, . काम दीउ । अमरदिउ लामखु ...?... एएं रयात्तउ जायउ पयक्वु । तीय एांदणु पुणु कामराज, कल्ला सिरी भेज्जा सराज । चउथ सुड आसलु विगय-पाउ, परिवार महू एदउ सराउ । घन्ता यहं सत्रहं पुरा पर्याय बहुगुए एांदउ भुल्लरंतु गुए भरिउ धत्तकुमार सुफल सारहु कारिवो वइ इहु चरिउ इय सिरि धाकुमार-चरिए कय सुय भावए - फलेए विष्फुरिए सिरि पंडिय - रइधू-विरइए सिरि पुण्णपाल- सुयसाधु सिरि-भुल्लर णामं किए भव्त्रजीवाणुमणिए धरणकुमार - व्विाए गए वण्णणो ग्राम चउत्थी संधी परिच्छेप्रो समतो ||४॥ ६३ ४३ - जसहर चरिउ ( यशोधर-चरित) कवि रद्दधू आदिभाग: सिरिरिसह पवित्तहु केवल सहु सिव- सिरि-पत्तहु कम- जुयलं विवि तिजईसहु विजिदर ईसहु जसहर कह पयडमि विमलं जाम सुइ जिए -पय-पए मंतउ, अच्छा चेईहरि शिवसंतउ । तामईसि विहमेवि पयत्तें, शिवाराहिय मणि रयणत्तें । दो - वह सुनव ताव संतत्तें, म्मिल-गुए. गएाए शिरु पत्ते । कमलकित्ति गामेए जि गुरुणा, ते पवत्त उ मइ सुइ- गुरुणा । हि रघू पंडिय प करत बुहयए सह-मंडिय । दय गुए सारं जसहर चरियड, विरयहि धम्म रसायए भरियउ । पयरवाल वंसंवर-ससहरु, जिए -पप-कमल-दुरेहु दुरिय हरु । व मलसीह - साहुहु जो एांदपु च्चि तियाल विहिय - जिए-वंदतु । समय परम्मुहु संतउ, म्मिल जस-भूसिय- लोयत्तउ । छह-कम्माररत्तु गुए-मंदिरु, रायहंस गए तेयें चंदिरु । कंचरतु दाणे परिणिय बुहयए, हेमराय में भाव [हि] मए । सो सोया पयडु जरिए जाए हि, मुसुकइतठाएहि । तासु सो कइत प्रायासु पमाएाई, इसएण तुम्हहं सम्माएाई । तब-वय-सम-दाणाइ गुणावर, जीव दया- विएा सयल ग्रहलयर । इदि सिरि गुरुणा देसिउ जामहि, कइए। सब्बय मण्उि तामहि । मणा fee तुम्हासें, कव्व सुरायलो ठवमि विसेसें । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ । घन्ता जीवाहं सुहंकरु धम्म इह जइ दय लक्खए इरि कहिउ । ताहि रुि जर कहा जस्तु महोउ उप्पह पहिउं ॥ X X X X अन्तिमभागः इह मज्झलोय जण पवर भोय, लाड पुर+खु खय वइरि पक्खु । वरण- उबवणेहि मंडिउ घरोहि, सु-वंस सेरिए कुतिय - बेरिण । साहार उच्च जहि सहल रिणच्च, सप्पुरिस जेम ते सहहि तेम । दारु-मय गेह कय-चित्त-रोह, रंधेहि चत्तणं जाणवत्त । तत्थट्टियाहं सावय जरणाहं, ****** | भवजलहि पारु होही अपार, जहि जग सदिट्ठि रिणवसहि सहिट्टि । घरि घरि जिरिंग केवल दिरिंगदु, पुज्जति भवु जहिं गलिय-गन्नु । पत्ताहं दारण विराएँ पहाण, घरि घरिवि जत्य दिज्जहि पसत्य । तहि प्रत्थि राउ प्ररि खय कयाउ, रिव गीइ-वंतु जयलच्छि-कंतु । सुलिताण साहि सुउपयड्डु अहि, 1 ईसाफ लामु रूवेण कामु, गामि मल्लुरि-चित्तु सहलु । तसु तराइ रज्जिम्मिल जसज्जि, वीर सेवामन्दिर - प्रन्थमाला घन्ता तद आदि सयरतु कमलालंकिय वत्थयलु । तिहुँ सुद्धिए श्रहणिसु जिरणवरहं भत्तिए पणमिय पय-जुयलु कमलसीहु गामेण पसिद्ध उ, जिरण समयारण भत्ति पडिबद्धउ । साधम्मिय जाण हद्धउ, रिय कुल भवरण सिहर मंडरणद्धउ । तहुतिय सील-रयरण वर-साला, रिम्मल-गुण- पसूण-ए माला । वीराय पूना रस-रत्ती, पत्त-तिभेयहं पर्याडयभक्त्ती । गामें रूपा कुल - सर हसिरिग, ससिलेहा दुरिय- त्रिसिरिग । ताहि गब्भि बे एांदण जाया, एणं चंदवक स तेय सहाया । एवं गुरिणयरण-तरु-पोसरण कंधर, विणि वि जिरणवर धम्म-धुरंधर | ताहं पढमु बुहयण - चिंतामणि, अवरुज्जिय समंतु भावइ मरिण । जे गिरियरहु जत्त पवित्त ( उ ), वियि यि परियण-संजुत्त ( उ ) । किय स-र-भउ महलु गिरुत्तउ, पेमराजु गामें से वृत्तउ । तरिय बधो गामें तहु भज्जा, पयडिय ताए रिणच्च सुहकज्जा । गोयसि बुहपण पसंसि । जोयणिपुराउ चिरु वसिवि प्राउ, जिरणसमय भत्तु पोसिय- सुवतु । चहा वर पहा . तहु सुउ उपतु गुरण-गरण- पसतु । कुलकमल भारत कलविबुह मार, दय धम्म- लीपु चाएँ पवीतु । पालिय सवग्गु दिढ़ समय लग्गु, पाल्हा सुसाहु-गामें प्रबाहु || मदर गामु जायउ तहु एदर, पयडिय परियण - जरण- प्राणंद | कमनसीहु साहुस्स तब्भव, वीय गं रूवेण मरणुब्भव । चंडिय गुण आरज्जिय दुज्जरण, विरणय-पसारे रंज्जिय सज्जरण । रिम्मल जस-भूसिय सुवणत्तउ, पंचपरमेट्ठी पाय णिरुत्तउ । अवजस दुह दुव्यरहिं चत्तउ, शय सगरि वडिय पत्तउ । बुहयरण कंचरण दाणें तोसिय पर - उवयार महीयलि पोसिय । हेमालय समु णिच्चल चित्तउ, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह णामें हेमराजु सुपवित्तउ। गोमाषइ-पुरवाइस्स बंसु, तासु पसिद्धा हुय बे भज्जा, उज्जोयउ जेण जि लद्ध-संसु । रूवामल गुण-सील सहिज्जा। सो उदयराज पिउ सुकइ धीरु, थणराजहि य णाम सुगरिहा, हरिसिंघहु णंदरपु पाव-भीरु । परियण-पोसणेण सुगरिट्ठा। सिरि कमलकित्ति गुरु-पायभत्तु, पत्ता णंदउ रइधू परिवार-जुत्तु। बीई पुरण कामिणि मयगय-गामिरिण सामिरिण रिणयपरियण-यणहु सिरि हेमराजु णंदउ बहुत्त, जिणधम्मासत्ती पिय-पय-भत्ती महणसिरीणामें मुगहु ।१७ जसु-भत्ति वसें जसहरचरित्तु । लक्सरण-लखंकिय तिणि पुत्त, विरयउ दय-रस-भर-गुण पवित्त, परिवारहु मंडण विणय-जुत्त । .........................." तहं मज्झिम गुरुउ कुल कमल-माणु, सिरि जोधा साहुहु वर विहारि, जिण-पाय-भत्तु सत्थत्य जाणु । चंदीव घंट कलसंड धारि । परिवारहु मंडण कमल-णेत्तु, तत्थट्टिएण विरइउ जि एहु. गाएण समज्जिय भूरि-वित्तु । जं हीणाहिउ तं बुह खमेहु । ए विहियउ जेणि णिरु विबुह संगु, पत्ता:गामेण य कुमरू भासिउ गुणंगु । बह पाढिजंतउ चरिउ महंतउणंदउ लाहि दिवसयर । बाल्हाही तहु भामिरिण पसिद्ध, सरसइ जि खमहु महुजं प्रविणउ बहु पयडिउ जह तह भासयरु णिम्मल सुसील विहुकुल विसुद्ध । इय सिरि जसहरचरिए दयलक्खरण-भावरणासरिए तहु एइचंद गंदणु गुणालु, सिरि पंडिय रइधू-विरइए भव्वसिरि-हेमराज-णामंकिए जणणी-जणणहु मोहण रवालु । भवांतर-वण्णणं तहेव दायार-बंसरिणद्देस-वण्णणं ण मं सिरि हेमराज सुउ अण्णु बीरु, च उथउ संधी परिच्छेनो समत्तो।। रिणय वंस से रिंग उज्जोय दीउ । (प्रति सचित्र, ७६ पत्रात्मक ऐ०प० सरस्वतो भवन, सग-बसण-विवज्जिउ संति मुत्ति, व्यावर, सं० १७६६) गुरु-देव-सत्थकय णिच्च भत्ति । ४४-प्रणथमी कथा (अनस्तमितसंधि कथा) णामेण रयणपाल हियय सज्जु, कर्ता-कवि रइधू आदिमाग:मोल्हण णामें तीयउ जि पुत्तु, इहु परियशु णंदउ चिरु रिणरुत्तु । णवेप्पिशु सामिय देव जिरिंणद, सरणारण पयासण गणहरविंद । णिरूवम-दव्व-पयत्थहं खाणितहा पूरण वंदमि-जिरणवरवारिण।१ एंदउ जिणसासण दुरिय हारु, पयासमि पुरशु अणथमिउ जणाह,सुएन सु सावय एक्कमणाहं । एंदउ गुरुयण भव-पत्त पारु । सुणेप्पिशु चित्ति धरेउ झटित्ति, पतद्रइ पावह पास तडत्ति ।२ गंदउ गुणियण जे सुकइ कव्वु, ण सोहइ जिम करि दंतविहीए, रण सोहइ दसणुविरणु तव-खीरगु सोहेविवि सुद्धउ करहि सव्वु । गंदउ भव्व जि सम्मत्तवंत, ण सोहइ सुवविराजिम कुलगेह, ण सोहइ जिम-गरणारिप्रसीलु बहु-रोय-सोय-दुह खयह जंत । अन्तिमभागःलाहडपुर-बासिय सावयांइ, जुमावक-धम्महु मूलु पउत्तु, सुकिज्जइ प्रणयमियउ जि निरुत्तु । दुक्खिय-जणाहं हय-प्रावयाई। परिजइदंसणणाणचरिउरिणयवित्ति,सिवालय-पंचगमणहजुत्ति ते गंदहु विरुधरण करण-समिद्ध, जुगारि गरो कुविसुरणइंजिएह, जु पढइ पढावा किय मण-रोह सु पभणइं रइधू सासय सुक्खु, लहेइ सुमण वंछिय उ पयक्नु। ..... ..... ... . . .. .. .........." Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्ता १६ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला ४५-अप्पसंबोहकव्वं (प्रात्मसंबोध काव्य) बुज्झइ परमागमु पुणुवि सोइ, कवि रइधू जसु तच्चत्थइ सद्दहणु होइ मादिमाग: तच्चत्थई पुणु सम्मत्तु जाणु, जय मंगल-गारउ वीर भडारउ भुवरण-सरशु केवल-गया । विगु सम्मत्तें ण वि होइ णाणु । लोगोत्तमु गोत्तमु संजण सोत्तम पाराहमि तहं जिण-वयरगु विरण गाणे चारित्तु वि अलक्खु, चउवीसमु जिणु हय-पंच-वाण, विण चारित्तें लन्भइ न मोक्खु । तिहुवण-सिरि-सेहरु वडमाणु । विणु मोक्खें सुह लेस विण होइ, चउगइ-गमणागमण- चुक्कु, तेण जि सम्मत्तु महंतु लोइ । कम्मट्ट-निविड-बंधण-विमुक्कु । दिनु करि सम्मत्तु लहेविणारा, गव-भावजोणि-उप्पत्ति-हीशु, चउ चिज्जइ कय रिणव्वुइ विहाणु । परमप्पय-सुद सहाव-लीणु। णिय सत्तहों अणुसारेण लोइ, परिसेसिय-पंच-सरीर-भारु, पालिज्जइ दिढ वउ गुरु-णिमोड । पाविय संसार-समुद्द-पारु। मावरणु-हीणु गय-वेयणीउ, सम्मत्तबलेण पाणु लहेवि चरेवि चरणु । माउसु-विमुक्क हय-मोहणीउ । साहिज्जइ मोवखु भविहि भव-दुहु अवशु ॥११॥ घुवनाम-गोत्तु विगयंतराउ, इय अप्पसंबोहकन्वे सयल-जरण-मरण-सवण्णा-सुहयरे परिगलिय सुहासुह-पुण्णु-पाउ । सबला-बाल - सुहबुज्भ-पयडत्थे तइयो संधि - परिच्छे ग्रो समत्तो॥ प्रवहस्थिय पंच-पयार-दुक्खु, संपत्तु सहोत्थाणंत-सुक्खु । ४६-सिद्ध तत्थ-मार (सिद्धान्तार्थसार) चुव जोणि-लक्खु चुलसीदि जम्मु, कवि रइधू आदि भागःसंसार मसेसावइ अगम्मु । मुत्ति-रमणि-कताएं अरिहंताएं एवेवि संनाएं । पासिय तिलिंगु पज्जत्तिछक्कु, खीणाडयाल-सय-पयडि चक्कु । णिरुवमगुण जुत्ताएं पायंबुरुहं पवित्ताणं ॥१॥ सिद्धत-अत्थसारं भव-भय-हारं गुणट्ठ-साहारं । मा-खंघ-दब्व-संबंध-चत्तु, वण्णातीद-महप्पं सिद्धयणं यापि पायडं वुच्छं ।। २ ॥ सय केवल-अप्प-सरुव-पत्तु । फेडिय अट्ठारह-दोस भाउ, सुद्धप्पभावणाभवसुहेण तित्तस्स भव-विरत्तस्स । घोविय-प्रणाइ-दुव्वार-राउ पत्तस्स धम्मलाहं जिण-सुय-मुरिण-पायभत्तस्स ॥३॥ बत्तस्स तोमराए वणिवरणास्स खेमसीहस्स। छद्दव्य-सरूव फुरंत पाणु, तस्स णिमित्तं किज्जइ रइधूणामा बुहेणेदं ॥४॥ सहजाणंदाचल-सुह-णिहारषु । दंसए-जीवसरूवं गुणठाण। पि भेय किरियाय । पत्तासोवीस जिणेसरु भुवरण-दिणेसरु हियह घरेविगु भव-हरणु । कम्मं सुयंग लद्धी अणुवेहा धम्म-झाएं च ॥५॥ एयाएं हि सरूवं पयर्डताणं छलं ए गाहिव्वं । जह बुद्धि पयासें करमि समासे रिणय-संबोह-पवित्परा ॥१॥ जइ चुक्कमि ता भव्वा कायव्वं [सुद्ध] भब्वेहि ॥६॥ अन्तिममाग: इति श्रीसिद्धांतार्थसारे शुद्धात्मतत्त्व संवित्याधारे श्री इय संखेवें हय-गब्बयाई पंचवि भासियई अणुब्वयाई। पं० रंधू [रइधू] कृती [कृते] संसार-सरए -भयजो पालइ सो तिहु गई न जाइ, उप्पज्जइ सुरगइ विमल ठाइ भीतेन क्षेमसीसाधुनानुमोदितो सम्यग्दर्शन-कथनमुख्यत्वेर वउ हवह तासु इय पंच भेउ, प्रथमोऽन्हः ॥१॥ जो पहागमि बुज्झवि प्रणेउ । नोट:-प्रति में मन्तिम भाग उपलब्ध नहीं है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जननन्थशास्तसंग्रह मादि माग:- कवि रघु ४७-वित्तसार (व्रतसारं) कवि रमधू ४८-पुण्णासवकहा ' पुण्याभव कथा) . मादिमागःसासयपयपत्ताएं वसुगुएजुत्ताए कम्मचत्ताएं । परणषिवि सिरिवीरं पाण-गहीरं भव-जलरिणहि-परतारपयं । शामिऊएं सिद्धाणं भवामि एं वित्तवारक्खं ॥१॥ पुरणासब-सत्यं सुरहर-पंथं भणमि कहाणिउरूवमयं ॥१॥ परहाइ परमेट्ठीणं बारस-अंगाण सूरिविदाएं । बंदिवि पुणु परहंताण पयं, तयरण-सुद्धीए पय तह पएवेप्पिर ति-जय झेयाएं ॥२॥ इंसिय-सासय-पिल्लेव-पर्य। अग्गोयवस-यह-ससि दाण-विहाणेए णाइ-सेयंसो । बसु कम्म-पयडि-सुय-सिद्धाणं, कायए मए क्रय-तोसो हालू साहस्स अंगमो विदिदो॥३॥ सम्मत्ताईयगुण-रिवाएं। परमेडि-पायभत्तो चत्तो विसपाए रत्तु पत्ताएं। :: लोयग्गसिहरि दिदि-पत्ताएं, पिभो सुविणीमो आदहिहाण साह सोलंगो ॥४॥ उप्पत्ति-मरण-जर-चत्ताए । तेपाऽविय भव-भीए एाविय सीसेए धम्मराएए । छत्तीस-गुणायर-सूरीएं, भएिमो सुकइ-पहागो लहिवि खएं पावरों ऐमं ॥५॥ रायाइदोस-कय-दूरीएं। भो सत्योवहि-पारय रइधू कइ-तिलय पइजि बहु भेयः । दो-दह-सुप्रंग-मज्झयरिणरयं, चरिय पुराए विरइवि सज सरसें पीएिमो भुवएो।।। बज्जिय-सग-भय-पाढय विरयं । महु पुरा माएस-कमलं संकुइनो प्रत्यि जएए-भय-भीमो । स-सरूव सुहायर साहणं, तुह बयण-सूर-किरणहिं तं वियसइ रिगच्च कालम्मि । ७॥ परि सेसिय-चउ-विकहा-कहएं। जाइबिहु प्रत्थि प्रणग्यो सम्मत्तो वय-तवाण धुउसारे । विहम इव णिय रसरत्तयहं, तहवि हु तेण जुदो कुवि बाउसु जाय गरयम्मि ॥ ८ ॥ एयहं वि संमारणसकमलिणिरू, जह पुशु चरिय-पउत्तो सम्मत्तो होदि भव्वजीवाणं । तिरयण सुद्धिए धारेवि थिरू। ता पुग्गइ बहु गच्छइ एरिसु माहप्पु वित्तस्स ॥९॥ पत्ताजह करण्य-कडय-जडिमो रयणो दीसह णिरुवमो लोए। जिण हिमगिरिवयण पोमदहहो सरसइं सुरसरि गिमिया। तह संजमेण सहिदो सम्मत्तो भब्व-सत्ताएं ॥१०॥ जासा फिडेप्पिणु मल-पडखू सुमइं पयत्या रणमिया ॥१॥ तमहं परित्त सारं सोऊं वेच्छेमि तुम्ह वयरणादो। दो-विह-सव-पह मग्गेसरेण, जि हवदि जम्मु सहलो सासय-पह-संबलो चेव ॥ ११ ॥ संडिय झारणा सिरईसरेण । इदि वाया अवसाणे कइणा भरिणदो विप्रड्ढवयणेण । पण-इंदय-उरय-दियेसरेण, प्राइभवं प्राइम ब्वं स-पर-हिंद तुम्ह वयणेदं ॥ १२॥ भब्वहं मणकंज-दिणेसरेण । जगमल्ल ताप-पावरण सुहभावण सुद्ध-चित्त कइ-रंजण। गोयम-गणि-अणुकम्म-पयट्ठिएण, अपह एउ पउत्तं तं वसिदं माणसे प्रम्ह ॥ १३ ॥ सिरि कमलकित्ति गुरुणा जवेण । जो कवि चरित्तसारं पुच्छदि भणदीह सुणदि कथरामो। एकहि दिणि धम्माएसु दिरणु, सो भवत्तणगुणजुमो हवदि कयत्यो जणे-पुज्जो ॥ १४ ॥ मो बुह कि वासरु गमंहि सुषु । भएमीह वित्तसारं स मइ विहूईए दोससंगहणे। स-कइत्त-विणोएं जाउ कालु, मा होंतु जणा तप्पर सोहि सुद्धं हि कायब्वं ।। १५ ।। पुरणासउ विरयहि जरिण विसालु। अन्तिममागः पुण्णा सवेण सुह सिद्धि होय, तं विणु माणुस भउ विहलु लोय । हरसिंघ संपाहिव-सुमो कइत्त-पन्भार-बरिणय-खंघो। सुह माउ पवट्टइ जेण जेण, गुरुयण भत्ति कुणतो स एंदउ उदयराएण ॥ १३४ ॥ तं तं कायबउ इह बुहेण । गुणियण-पविहिय-रामो सुपत्तचामो सदिहि गिम्मामो। महकामिऊण तारिसि वयणु तेण, मादूसाहू चिरं इह जीव तिय-पुत्त-पोत्तेहिं ॥१३५ ॥ तं पड़ि वाणउ पमिय सिरेण । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] पीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला घचा महाव कारत्तै उ जडत्तु, . .... सकरत महाभरु भव-भय-समहरु दुद्धरु होइ ज्याम्म णिक । स्वेणा एंगु वि गहिय-गत्तु। . . जो तहो रिणवाहइं पउप्रवगाहई सो कृविदीसह विरतुणकार मह भीरु वि जो माहवे प्रभग्गु, .. इय चितंति तह विफ्फुरियउं... रिउ सीस णिवेइय रिणसिय-खग्गु। भव्य विणउणिय माणसि सरियउँ अपमिद-कुल खल-बल-पलय-कानु, .. पत्यु-दीवि भारहं वरिसंतरि, . गुणियण-संदोह-समाहि-यालु। .. . विसइ कुसत्यलिदो रवि पहयरि । पउ-सायर-तडि संपत्त-णामु. . . चंदवाड पट्टण विक्खायउ, प्रतुलिय-साहस उद्दाम पामु । तियस णय तुएं (णिलय एं) बुह सुह दायउ । घत्ताकालेंदी सरि चउदिसु रुदउ, . जय-लच्छि-णिवासउ सुगुण-पयासउ चाएं कण्णु व विमलमाई एं भजइ पिउ पणय पमुदउ । सिरिराम-पभत्तउ प्रवजस-वत्तउ रुह व पयाय जरिणवा धरण-कण-कंचरण-सिरि-संपुष्ण उ, तहो रग्जि वरिणसर लद्ध-माणु, एं कयपुण्णु महाणरु घण्णउ । जिणधम्म-रसायण-तित्त-पाणु । सई चित्तु व परणरहं प्रगम्मो, सिरि पउमावइ पुरवाड वंसु, सम्वहं सुहयर एंदय धम्मो। उद्धरिउ जेण जय-लद्ध-संसु । वायरा व परिहा-सालंकिउ, जोइणिपुराउ चिरु वसिविभाउ, पर-विवाय-परिविंद-प्रसंकिउ । तोसउ णामेण विसुद्ध याउ । पंडुर पायारालय वित्तउ?, तहो एंदण [चउ] जणिया एंदरगु, एं रिणव स-वर-जसेण सुपवित्तउ । चारिदाण षा यड पंवितणु । धवलहरइं धवलई णं सुर-हर, जायाणंतचउक्क मुत्त, दाणुण्णय कर जाण रितीसर। . एं पुणु रिणमोय चारि वि ससुस्त । बावारापुरत्त जहि परिणवर, ... तइ पढमिल्लउ जस-भर-णिवासु, वसहि णिव णिव सम्माणेवर। संघाहिव णामें णेमिदासु। जहि जिबिंब समुज्जल पुज्जिय, भग्गेसरु-णिव-वावार-कज्जि, मंडपसिहरिधयावलि-सज्जिय । सुमहंत-पुरिस-पहु-रुद्द रज्जि । तोरण पलि पयार दुरिय-हर, जिण बिव-पणेय-विसुद्धबोह, सोहण पउर-विहारि मणोहर । णिम्माविवि दुग्गइ-पह-गिरोह । पत्ता सुपइट्ट कर विउ सुह-मणेण, तहि णिउ रिणवणीइं तरंगिणीहिं सायरु पवर रख साल। तित्थेस गोत्त बंधियउ जेरण। सिरि चाहुवाणि कुल-गयण-रवि सत्तित्तय गुण-पाल॥३॥ पुणु सुर-विमाण समु सिंह खेऊ, सिरि रामइंदु बडिय विवेउ, . णिय-पह-कर-पिहियउ-चंद-तेउ । दालिमोरिणहि-तरण-सेउ। काराविउ जि जिणणाह-भवणु, तं णिय-हत्ये जाणिवि समुत्यु, मिथ्यामय-मोह-कसाय-समणु । एंदरपुरज्जारुहु गुण-महत्यु । बुहियण-चिंतामणि जस-मयंकु, णिव पट्टय पप्पिउ वइरिम-मदु, बंदियण विद-युड खलप्रसंकु। महिवाणामेण पयावरूद। वहो एंदरपु पुणु बीयउ गुणिल्लु, गंभीरत्तणि रणि दुदरासि, परणारि परम्मुह सुद्ध सीलु। एं दिणवा सण्णय पयासि । प्रतुलिय-साहस सहसेक्क-धाम, Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह : साधारणु णामें स्व-कामु पुणु तीयउ सग-वसणा वहारि, जिण-भरिणय-सत्य-अत्यावहारि। जिग्गंथ-सवण-पय-भत्ति लीण, णामेण होलि उद्धरिय दीगु । पत्ता:तुरियउ गुण-पावरगु कम-सुह-भावरणु जसवल्ली माहारतउ। गुरिणयण-कय-मित्ति रिणरुवम भत्ती वारसिंघु एं कुसमसरु एयहं...."सगरीय सेण, सोमसिरि जणि गन्भु वेण । मि सत्त-वसण-णिरुवभ-चुएण, सत्थत्थ-परिक्खा-पायरेण, कुल-कुसुम-वियासणि सायरेण । रिणय-जस-धवलिय-महिवीढएण, सम्मत्त-पमुह-गुण-बूढएण। कहा वच्छल्ल-परायणेण, परियारिणय-सारासार एण। पंणेमिदास संघाहि वेण, सहु प्रायेरण पणमिय-सिरेण । एकहिं दिणि हर्ड संठिउ सलीगु, णुवि पत्तु तेण बहु करिवि माणु । भो रइधू बुह वड्डिय-पमोय, .......................। संसिद्ध जाय तुहु परम-मित्तु, तउ वयणामिय-पाणेण तित्तु । पइकिय पइट्ठ महु सुहमणेण, जाजय-पूरिय-धण-कंचणेण । पुणु तुव उवएसें जिणविहारु, काराविउ मई दुरियावहारु । पइं होंति"........." एकज्जि चिंता बढाइ पस । तुहु सकइत्तण फल कामघेणु, महु सासु रायमणु पुषु परेषु । पई विरयाई णाणा पुराण, सिद्धतायम जुत्तिए पहाण। पुरणासउ हर वयणास तु, सोहं बट्टमि इय चितं मज । 'सकयत्त [थापहि ] मझुणामु, बिह होइ प्रयलु सासउ सघामु । इय संघाहि व विष्णंति वाय, तहिं कालसुणेविशु मइ अमाय । संघाहिउ बुत्राउ वियसिएण, पइ जुत्तु भरिणउ सण यजुवेण। परकारणु वट्टइ दुसमु कालु, परदोस गाहि खलयण करालु। ते दूसहि कन्वु सहाव सुट्छु, कालाहि जेम वि सुखि विविदुदु । दुज्जण परगुण ण सहनिपाव, साणे विजि पुण्णिणम ससि-पयाव । जइ विहु एरिस ते तह वि कव्वु, तं उविणों (वरिणय ?) पेरिउ करमि भन्छु । सज्जण दुज्जणहं णिसग्गहोंति, गुण-दोसगाहि पयडिउण मंति । पुरणासव विरयमि पुष्ण होय, तव जसु वित्थारमि एत्यु लोय । पत्तातइया पडिवण्णाउ मइजिपत्थिउ एंतिउ कालुजि वंजिणिक बीसरिजं सुहावउं कय सुहभावउं एवहि मह मणिपक्कुषित अन्तिममागपत्तातहिं सोमबंसि पुण गुणहं णिहि जोइणिपरि संजोउचित तेजू णामें तयाहियउ बुद्धिए कणया पलु व पिरु ॥१॥ जिहं मुगिहुँ खमासुह गइ सहिज्ज, णं णामेण कल्ही तिहं तासु भज्ज । तहि उवरि उवण्यउ कुल-पयासु, जसु जसु वित्थरियउ दह-दिसासु । घरम्ह ? पहि हाणें विइउ लोड, घण-दाण-विहाणे बुह पमोह। साइति पिपयम तह विमल चित्त, एं सील-वित्ति सुहगइ-रिणमित्त । तहु सुउ जिण-पय-पयरुह-दुरेह, णिम्मल-मणु कमलावास-गेहु । परियण-सुह-पोसण-कप्पाखु, निरसियउ दुरासउ जि विवक्छ । पामेण साहुवोस मलेट, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] वोरसेवामन्दिर-प्रन्धमासी पविमारिणउ जि जिएण-समय-भेउ । तहु पिय पइ-वय-वर-सलिल-गंग, परजुवईण णिच्च परम्मुह, मलणासिणि णावह सत्त भंग । दह-लक्खण धम्मेंहु णिरु सम्म । एं पर-रयणहं उप्पत्ति साणि, मतुलिय साहस सय साहारउ (सु), पइ सोममुत्ति सोमाहि हाणि । साहु सधू दाणे णं वारण? घत्ता पत्तातहि गम्भ-उवण्णा लक्खरण-पुण्णा दुण्णय-बत्ता-विमल-मणा तह पिय कुलहर-मंडण सधया सिंघो पाम गुण गया। दृस्थि (विख)य जरण-पोसण रिणय-कुल-भूसए चत्तारि जिणु बाई पुरण पाधए धम्मरया भणियं चंदोमुरिण-भत्ति-जुया ॥१ ___ यजिणचरणा ॥१॥ अज्जुण गामें तहु सुउ वुत्तउ, चारि झारण ए सुह-पय-भायर, बीरदासु पुण लक्खण-जुत्तउ । ठिय-मज्जाय चारि ए सायर। जसु जम्मणि पुरणासउसत्थो, ताहं पढमु बुहयण वक्खाणित, हत्यि चडिउ पयडिउ परमत्थो । णिव पयावरुद्द सम्मारिणउ । तोसडस्स पुरण तीयउ णंदरगु, बहु-विह-घाउ-फलिह-विद्दुम-मउ, चउविह-संघ-चित्त-मरणरंजणु । फारावेप्पिणु प्रगरिणय पडिमउ । होलिवम्मु मज्ज व गुण सोहिउ, पतिद्वाविवि सुहु भावजिउ, देवसिरि भज्जइ णिरु मोहिउ । सिरि तिस्थेसर-गोत्तु समज्जिउ । वामदेव हरपति वेणंदरण, जि गह-लग्ग सिहरु चेईहरु, तासु पसिद्धा रगया गंदण। पुणु रिणम्माविय ससिकर-पह-हरु । पुणु तुरियउ सुउ सुहिण मुच्चा, णेमिदासु णामें संघाहिउ, गिरणारहु संघाहिउ वुच्चइ । जि जिण-संघ-भार-रिणग्वाहिउ । वीरसिंघु वंदियणहि युत्तउ, तस्स पिया लच्छी बसुहायर, भज्जा कल्हो कम्मं प्रगुरत्तउ। णाम मिखो वण्णिय विणयायर । खोल्हा णंदणेण नंदंतउ, प्रवर विमणिको सुदपइव्वय, रेहइ जिरणवर-पय-वंदत्तउ। णं धम्महु सहयारि वरदय । अह पुणु तोलस्स इक्कोयर, तिणि तासु एंदण संजाया, बंधव तिणि पत्थि हायर । एं लवणंकुस जय विक्खाया। . देल्हा सावघा (य) वय सोहिल्लउ, जो इच्छिय-दाणें सुर-भूरुह, पुणु साल्हेणामेण गुणिल्लउ । जो चिंतामणिब्व पोसिय सुह। कमलसीह तीयउ जिण-भत्तउ, पो पर सुव्व कणव दाणे?उ, मिच्छा-समय परम्मुहु संतउ । रिसराम णामें सो दुर । हंसराजु णामें देल्हू सुउ, तस्स पिया गइसिरि संजाया, साल्हे पुत्त अजू जिण-पय-सुउ । रिणय-पिययम-भत्तिए परतुराया। महिपति कमलसीह कुल मंडणु, जसु जम्मागमि जिणबर-बिंबह, विणएं गुरुयणाहं पाएंदरतु । तिलउ पदिण्णउ दुरिय-णिसुभहं । घत्ताकुलह तिलउ तिलकूति दुतर, इय-परियण-जुत्तउ सोम-कलत्तउणेमिदास सुष-माप-पुउ तोखउ साहह पुरतु बीयउ सुन । एदउ जा रवि ससि एहि कर दिणणिसि जाकणयायलु महराना करिकर पिाक अवलुपुर ॥१२॥ पपा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्थ-प्रशस्ति गंदउ जिएसासणु सुगइ-ठार जय पउमणाह गय सयलबाह । तिल्लोय,सरूप-पयास-भाणु। जय जिण सुपास पूरिय-जणास, दहु गुरुयण णिग्गंथ रूव, जय रिणसिबई संखय तिमिरिरासि । जे पाणे थक्क पलंब-भूव । जय पुफ्फयंत पडिय सुतत्त, णंदउ चिरुराउ पयावरुद्द । सीयम जिऐंद जय कुरुह कंद ? अवगाहिर जि माहव-समुद्द, । सेवंस संस जय कुगइ-भंस, भब्बयण वि गंदहु सच्च भासि, जय वासुपुज्ज हरि सयहि पुज्ज । सिरिचंदवाड पट्टण-रिणवासि । पय विमल सुट प्रये सुबुद्ध, गंदउ बुहियण सत्थत्यखाणि, जय पह मणंत गुणगण अनंत । पयडी कयजेहिं जिरिंगदवाणि । जय पम्मषार भव उवहिं पार, सिरि पोमावइ पुडवार-वंसु, जयदेव संति हय लोय-भंति । एवंदउ महिमंडल विगय-पंसु । जय कुंचकुंच पमुहह ममंथ, एंदउ सवि हूइ ए उदयराउ, अब पर हयारि तच्चहं वियारि । रइधू कइ जासु पसिद्ध ताउ । जय मल्लि मल्ल चूरिय-तिसल्ल, गंदह सज्जण कय सबमित्ति, मुरिण सुब्वयंक जय भव असंक। परिभमिउ णेमिदाससा कित्ति । जय णमि गिरीह पायड मिसीह, रिणय समए सया वरिसंतु मेह, जय रिट्टणेमि सुह सुरह रोमि । मंगल हवं तु गिरु गेह गेह । जय पासपाह पारणे अथाह, तह सयल पया सुक्केण ठाउ, जय जयहि वीर सुरगिरिव धीरु । संपज्जउ बोहि-विसुद्ध-भाउ । घत्ताघत्ता एए तित्यया तिजय महिया गाएँ भोरिणहि विगय मला । संवेया दहि बुहियण विदंहि पयडिज्जंतउ गंथुइह । महु पणमंतह भत्तीमरि (रे) ण सुमइ पयासह ते सयला ॥१॥ एंदउ चिरु सायरु इच्छिय ससुहर कुमइ-तिमिर-भर-दलण सरस्सई सुसामिणी सु सत्यपाय गामिणी, जिणेस बत्त वासिणी पमाण-बाय-भासिणी। बिहु ॥११॥ सुवण्ण वण्ण देहया कईय ण ण मोहया, इय-पुण्णासवसस्थे पडिय-सुह-हेउ-परम-परमत्ये कुमग्गजाण रोहिणी जडाण चित्त बोहिणी । सिरि पंडिय-रइधू-वष्णिए सिरि महाभव्य-संघाहिव-मि सुमायरी महंसया हवेउ णेह संजुया, दास-अणुमण्णिए पत्त-दाण-फल-वण्णणो णाम रहमो सुभब्व कव्वभोयरणं जणाण चित्त मोयणं । संधी परिच्छेप्रो समत्तो॥१३॥ पयत्थिऊरण पीणउंहवामि जिय वीणउ? ___४E-जीपंधरचरिउ (जीवधर चरित) . रिणगंथमग्गचारिणो सुयंग संग धारिणो । कवि रइधू कसायचक्कहारिणो सुजम्मसिंधुतारिणो, पादिमाग: सुषम्मरुक्ड वारिणो दुहंग कारण सारिणो। सिव सिरि रयण्यरु सम्बदयावरु भूरि गुणायक जय तिलमो। सुगोयमाइ सूरिणो रिणरास मास दूरियो, पणविवितिस्पेसरुजितुजीमंधरुचरिउभणमितहसुहरिणलमो॥ सुताह पायकंजयं पवेवि पाव-भंजयं । जय माइदेव तियसेससेव, पत्ता:जय भजियसामि लोयग्गगामि । रह गोपायलिजणधरण पउरे मंदिर-सिर-धय-दिविय-गहे। जय संभवेस हय भव-किलेस, हब-य-बह-संकड-हद-बहे सेविय-मंडलीय-रिणवहे ॥२॥ महिएंदणक्ख जयजय पक्ख । सहि रिणवसंतें जरिणयाणंदें, जय सुमइ संत तिजप हु महंत, पोखबह सुबंस-णह-चंदें। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ jܕܘܪ वीरसेवामन्दिर-प्रन्थाला हरिसिंघ संघाहिव तणुजाएं, कुथयास साहुहु सिरि सेहरु, रइधू कइणां वियलिय माएं। ठविउ महापुराण, दुक्किय हरु। तेणेक्कहिं दिणि जिणहरिवंदे, दाहिण सवणि सुवण्णहिसिद्धउ, गुरुयण लद्ध पमाणु गुरुक्कें । सम्मइंसणु रयण रिणबद्धउ । रिणय विरयउ भवसेणि णिवारउ, को मुह कह पसारु वर कुंडलु, रिसह पमुह कह सुगण पियारउ । पहिराविउ पह जिय रविमंडलु । महापुराण वक्खारिणज्जतउ, सोलह-भावरण-मणिमण-जडियउ, रिणसुरिणउ तेण जि गुरु मुह होतउ । जीवंधर-गुण-कंचरण-घडियउ । तह सम्मसरण पह धारउ, वीयउ सवणाहरशु प्रतुल्लउ, को मुह कह पबंधु जय सारउ । वाम सवणि संघिउ सोहिल्लउ । इय वणिज्जतउ णिसुणेप्पिरा, रइधू कइणा णिय विण्णाएँ, णिय मरिण अइव पमोउ बहेप्पिणु । पवियारिणय सत्थत्थ-पहाएँ। जिण गुण वण्णरिण महरिणरुणामो, सुगुरु-वय-सिहिणा संजोएं, प्रखउ जाउ पोसिय बुह कामो । प्रसुहिं धम्म-पज्जालण-मोएं। इय जंपत्तउ जण पुरमो कई पछय जाम णिसण्णउं ? हिंयय मूसि पक्खित्तु सुवण्णा, भारिणयय दोसु फेडंतुमणे चिंतह बहु सुय पुण्णंउ?॥३॥ लेहिणि हत्थउ तेण पसण्याइ । मह पुराण सिरि सेहरु परियउ, धरि विज्जा सो वरिणवरु भूसिउ, को मुह कह कुंडल पुणु घडियउ । साहु साहु ता लोहिं मासिउ । कुथुदास दाहिण कण्णंतरि, सुगइ णारि पिच्छिवि प्रसुरत्ती, मइ पहिराविउ तं इच्छतरि। ... मच्चइ तस्सा लिंगणि सत्ती। जइ वि सुगुण रयणहिं सोहिल्लउ, तेह जि भूसिउ सो इह साउ, तहि विण सोहइ सो इक्कल्लउ । चिर एंदउ होज्जउ दीहावउ । क्यायलहु एम भाम (स?) हिजण, पत्ताएक्कु सुरु (सूर?) किं देइ पयक्खरण। सयतीस पमाण सलोयाहि जि पण्ािउ जीवंधर चरिउ । पउ (त) सचित्ति चितेप्पिा कइणा, कंधयाइ जीवहं णिच्च हिमोणंदउ रइधू गुणमदिउं ॥२७ भासिउ वरिणवरस्स सुहयइणा । इय जीमंधरजिणचरिए सोलहकारण विहाण फल भो भो कुंथयास प्रायण्णहि, . सरिए सिरिमहाकह-रइधू-वण्णिदे सब्वेहिं सवरिण-प्रमजइ वि सम्हं तुहु किपि ण भण्णहि । णिदे सिरिमहाभब्व-कुथंयास-सवरणभूसणे जीवंषरजिरण तह विवाम कण्णहिं तउ संघमि, विहारवण्णएं णाम तेरहमी संधी परिच्छेपो समत्तो ॥१३॥ जीवंधर गुण चरिउ पबंधमि । जा सुरगिर कणयंगो जा ससि सूरो महीबलं उवही। घत्ता तज्जीवंधरचरिमो स एंदउ कुथुयासेण ॥१॥ इय सुकह पउत्तउरोह-जुमो रिणसुरिणवि पाणंदियसमरा । इत्याशीर्वादः वियसंति वया कुयु जि भरणइं विणय रायभरण वियत्ता॥४५०-सवणवारसि विहाणकहा (श्रवणद्वादशी विधानकथा अन्तिममागः कर्ता-भट्टारक गुणभद्र तहो पाय कमल तत्ती जुवेण?मइ हरिसिंघ संघाहिव सुवेण। मादिभागःसोलहकारण वय फलु बहुत्तु, यो उविभक्खिउ सत्तिएणिरुतु । दिवि वाएसरि सहखाणि, अणुसरि गोयम सेणियहो वारि पत्ताजाणारि पहव पुणु कोविणरु सोलहकारण बउ करह। प पभणेमिसवणवारसिविहाणु,मब्वहं सिष-साहणु सुह-णिहा सो तित्थयरत्तु लहेविणिरु, पच्छह सिरपुरि संचरह ॥२६॥ नोट-प्रति बहुत ही पशुख लिखी हुई है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान्तममाग: जेनप्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ५४-चंदण छट्ठी कहा ( चंदनषष्ठो कथा ) सुएि पय पए विवि घरि गय प्रपाव, जाणिय-चउगइ-दुह कर्ता -भ० गुणभद्र सुहसहाव आदिमागःसीनवह एवउ किउविहिय जेम, मणि भासिउ सम्वहंावतेम परमविवि जिपयजुयल जम्म-जरा-मरण-खय पडियता अन्तु विजो परणारी करेइ, सो एरिसु फलु भवसें लहेइ । सहिट्टिहिं । सारंग साहु सुउ गुणविलासु इय कह मणि भावइ देवदासु : फलु मक्खमि सब्बउ दस्खमि भवियहं चंदण छट्टिहिं ॥ अन्तिममाग:पत्ताः पत्तासिरीगुणभद्द मुणीसरेण यह कह किय पवयणु मरणुसरेण सिरि मलयकित्ति मुणिवरह पयारिणय मणि झाइवि विगयरप जिण एत्ति उमग्गिउ देहिलहु जर-जम्मणं-मरण हरेहि बहु गुणमह गणीसें रइय इह चंदण छट्टिहिं सरस कह ॥५॥ ५१-पक्खवह वय कहा पाक्षिकव्रतकथा) - ५-नरकउतारी दुग्धारस कथा - कर्ता-भ० गुणभद्र आदिभाग ' कर्ता-भ० गुणभद्र वंदिवि सिरि वीरहो पय जुयलु भत्तिए णासिय कम्ममलु। . भादिभाग:- . पक्खवावयहो कह कहमितिहा, गणहर पयडिय पुवजिहा वंदिवि सिरि पासु कय-दुह-गासु विरइय मोक्खणिवासु । बरणाणविलासु हय समलासु विसिय तामरसासु ॥ अन्तिमभाग: अन्तिमभाग:पत्ताभवनोइवि मणु थिरु ठाविवि पुत्रसूरि-विरइय-कहा।। सिरी वोधू गंदरणु संहणपालु, तें काराविय इह कह गुणालु। गंदउ सो गहि जा सूर-चंदु, रिणय-कुल मंडणु कित्तोइ कंदु ।। गुणभद्दे कोमलसद्दे पयडिय णंदउ भुवणि इह ।।८।। पत्ता:५२-आयासपंचमी कहा (आकाशपंचमी कथा) ___ सिरीमलयकित्ति पय-पंकयहं भसलें गुणभद्द मुणीसरेण कर्ता-भ. गुणभद्र बरइय कह इह भवियण गणहं णिय मण परशुसारें दय धरेण सिद्धि विलासिरिण कंतु पणविवि भावे हय मरणु । ५:--णि ख सत्तमी कहा [निदुःख सप्तमी कथा ) बीरजिरिंगदु महंतु कम्म-महिंधण-दवजलणु ॥ कर्ता-भ० गुणभद्र णहपंचमिबिहि विराम मउव, जिह पूज्वायरियहि रहय भव्य श्रादभागभन्तिमभागः सासय सिरिकंतहो अगहियकंतहो अरहंतहो कलिलंतहो। णिज्जिय णियकंतहो अइसयवंतहो पणविवि पयजुय संसहो॥ पत्ता मन्तिमभागकह पक्खिय जिहमह लक्खिय मलयकित्ति पयभरों। पत्तागुणभहे कोमलसर्दै मुत्तिसुहा-मय सत्तें ॥६॥ गोवग्गिरिणयार बसंवएण मलयकित्ति पय-भत्तएण। ५३-चंदायणक्य कहा (चंद्रायणव्रत कथा) . गणमहसूरि णामेण इय णि खि सत्तमी रइया ।।५।। . . कर्ता-भ० गुणभद्र ५७-मउडसत्तमी कहा (मुकुट सप्तमी कथा। भादिमाग: कर्ता-भ० गुणभद्र णविवि रिसिहेसरु परमजिगु,णासिय भवियण दुरियरिण। आदिमागफलु पयडमि चंदायणक्यहो तारिय जन्म जलहिजणहो। पणविवि सिरि रिसहहु पयजुयलु जम्मजरामरणत्तिहरु । अंतिम भागः माहासमि जिम जिण लद् फल मउडाइहि सत्तमिहिवरु । अन्तिममागपत्ता :इस चंदायणबउ पक्लिय कयसिउ मलयकित्ति पय-तिए। सिरि मलयकित्ति सीसेण इह विरयइ गुणमई सुकह । गुणभर गणीसें विगलमणीसें भन्वयणहें णिय-सत्तिए ॥२॥ शियमह प्रणुसार विहिय सिव सोहहु मुणिवर रइयकिव ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] वीरसेवावन्दिर प्रन्थमाला ५ः-पुप्फजली कहा (पुष्पांजलि का पारसउ पावसु बज्जइ मद्दलु । कर्ता-भ० गुणमा घरिघरि गच्चहु कामिरिण सहरसु, . आदिभाग घरिघरि रिडि विडि जायउ वसु । सिरि पाहुणेवप्पिणु हिय इघरेनिगु सासयसिव-सुहकारतु । रिणयगुरु कम वंदिवि मरिण अहिणंदिवि भवदुह-भूरुह-वारा जिणगाह करहि दयमहकिज्जउ मयाएत्तिउलहु संपाउ । अन्तिमभाग रबरगत्तउ सारउ भवदुहतारउ जिणवर सामिय दिज्ज। सिरि लक्खणीह कुल-कमल-बंधु, इति दशलक्षणव्रत कथा समाप्ता बहु भीममेणु गुण-रयण-सिंधु । ६१- अणंतवय कहा (अनंतव्रत कथा) तहु उवरोहें कहकहिय एह, कर्ता-भ गुणभद्र आदिमागएंदउ चिर पसरउ कह सुमेह । घत्ता पणविवि सिरिजुत्तहं गुत्तित्ति गुत्तहं पंचगुरुहु पय-पंकयई सिरि मलयकित्ति पय-भत्तियइ, रइय कहाणिय ससियइ। माहासमि सुकय पयासमि भवियहं पाविय संपवई। गुणभद्द गणीसें प्रप्पहिय भव्यहं लोयह पाइमाहिया ।।८।। अन्तभाग सिरीजयसवाल-कुल-गयण-चंदु, ५६... रयणत्तयवयकहा (रत्नत्रय व्रतकथा) घउधरिय लखणु धम्माहिएंदु । कर्ता-भ• गुगभद्र सउ पंडिय सिरीमणि भीमसेणु आदिभाग कलि-कलिल-पय-संदोह-सेणु । पणविवि जिणइंदु णिहणिय तंदु केवलणाण दिवायरु । तहो प्रणुरोहें किय कह अपुन्व, ससारहु तारु कय सुहसारु रयणत्तय रयणायक। पाइरियं गुणभद्दे ण दिव्व। पुरा पणविवि सिरिपरमेट्रि पंचणियमणिपरिगुरु-पय-य-पवंच जो पढइ पढावइ एयचित्त, रयणत्तय कह विरियमि विचित्ति सेणियह जेम गोयमेण उत्त तं गाण पयासह गाइमित्त । अन्तिमभाग गंदउ जिणधम्मु सुदया-समेउ, सिरि मलयकित्ति पय-भत्तएण जिरणवर-गुण-अणुरत्तएण गंदउ परिंदु मरिगरण-प्रजेउ । गुणभद्दे विरइय एह कहा गंदउ रणासिय जम्म-दुहा ॥७॥ एंदउ चउविहु संघु वि सु-भव्वु, ६०-दहलक्खणषय कहा [दशलक्षणव्रतकथा) गंदउ मुणि-णियरु विण?-गव्वु । कर्ता-भ० गुणभद्र संखेवें वित्थरु परिहरेवि, आदिभागसिवसिरि भत्तारहो णिहणियमारहो विय लियहारहो सीयलहो एियगुरु-पय-पंकयमणिपरेवि । परमप्पयलीणहो दुह-सय-खीणहो पविवि पगिरि सीमहो मह हीऐं भत्ति-विसालएण, सिरिजय प्रणंतकय जिय-मएण । अन्तिमभाग घत्तापढइ गुणइ सद्दहइ जु भावह, एसिउ मह दुज्जिउ लह संरगजउ केवलणाण मरा विमल मुत्तिसिरि प्रवसे सो पावइ । पर अण्ण जि मग्गमि जिण-पह लग्गमि भवि भविमोहिहो लक्खणसीह पउपरिय सुपुत्तहो, सपटक भीमसेण णामहो गुणजुत्तहो । इति अनंत व्रतकथा समाप्ता तह उवरोहें गुणभह मुणीसें, ६२-लद्धिविहाणकहा ( लब्धिविधान कथा) विरइय इह कह विगय मणीसें । कर्ता-भ० गुरगभद्र मनयकित्ति मुणिणाहहो सीसें, आदिभागःमग मह लेलिहाण परवीसें। पराविधि जिणसामि सिव-पय-गामि सग्ग फलोहत। सावय लोयह होउ सुमंगबु, पड़ लडि-विहाणु सुक्ख-णिहाणु भणमि पण मण-पदयर गुणभई पालखणष गुणभः Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह [१०५ अन्तिमभाग-- ६६ माराहणासार (प्राराधनासार) उधग्ण संघवह जिणालयम्मि, पादिभाग: -वीर कवि शिवसने गुणभद्दे सुधम्मि। इय कह विरहय पविडियबंध, णाणपिंड गुण सायर भुवणदिवायर पणविवि सिद्ध जिणेसर। वोच्छमि माराहरण सिव-सुह-साहरण जह मक्खियं जिगवर संखे। कम जण पुण्णबंध । भरहेसर पुछियउ जिरोसरु, सारंग साहु सुउ गुणविलासु, माइणाहु जो जग परमेसरु । इय कह मणि भावइ देवदासु जहं तहं सेरिणय पुछिउ सम्मई, पत्ता : गाण दिवायरु चत्तउ दुम्मई। मिरि गोयम सामि एत्तिउ लहु मह देहि तुहु । जहि जम्मु ण गामि मह विपराणहि तित्थु लह ।।।। मोक्खह कारण प्रक्खिय सामिय, प्रवरुवि तह फलु सिवसुह गामिय । ६३-सोलह कारणवयाहा (षोडशकारण व्रत कथा) संसारह भय-भीरु गरेसरु, कर्ता-भ० गुणभद्र पुछिय सेणिय जो जगईसरु । अदिभाग: वीरु भणई चउविह पाराहणु, बंदि अपवग्ग मग्गु अण्णह जेण होइ जणु मुत्ति पहु। जा दुहु-णासण-सिव-सुह-साहण । सोलहकारणवयविहि कहमि जे भवसायर लहु परिलहमि ।। सो रिणच्छय-ववहार मुरिणज्जइ, अन्तिमभागः सो भवियण जिणवरु भासिज्जइ । पत्ता दंसरण णाणु चरित्तु पयासइ, जीवंधरसामि सिवउरगामि एत्तिउ लहु महु विज्जइ। महण्णव तारउ जग विक्खायइ । जहि गउ तहुं ठाणि मइ वि पराणिमण्णु ण मग्ग सिविह।। जे तच्चहरु सम्मत्त भणिज्जइ, . '४-सुगंधदहमी कहा (सुगंधदशमीकथा) जाणिज्जह सो गाणु मुरिणज्जा । कर्ता-भ० गुणभद्र जो थिरु भावइ परु विवज्जइ, पादिभागः सो चारितु महिं भाविज्जइ । तेरह विहि जिणवर प्रक्खिज्जइ, अन्तिमभाग ववहारइं सु बुह जाणिज्जइ। सिरि मलयकिति गुरु-पय णविवि सिरि गुणभर राय कहा जो बारह विहु तउ जिण सासणु, संखेबें कह जिह गणहरि ण रिणय-मइ-प्रणुसारेण तिहा ।। प्रक्खहि बुह सो मुहिं वियक्खणु । ६५-अणंतवयकहा (अनन्तव्रत कथा) पर मुव्वहाणिवित्ति जो किज्जइ, कर्ता भ. गुणभद्र सो तउ णिच्छउ बुह जाणिज्जइ । भाविभाग: इय चउविह माराहण जाणहि, ववहारेण परहं वक्खारहिं । णमो जिण पाय पसूरण सुप्रंष, रिंगच्छइ जागा जिरणवर बुह प्रक्खहि. णमो परमेसरऽकप्पिय-बंध । अप्पा अप्पउमारण उवलक्खहि । णमोवर..."पुज्जिय देह, माराहण फलु जिणवर भासइ, णमो मयणग्गि-विज्झावरण-मेह । केबलणारण प्रणंत पयासइ । अन्तिमभाग:को पढइ पढावइ सुद्धमणु लिहइ लिहावइ णिन्छ। . हंप मालहणसार कारण-कज्ज वियारिणयह। सोमण भवंतरे गुणसहिउ णिरु पावह मणवंधित जो मालहि जगणाह जाणि विणिय मणिमाणियई ॥१॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦] अन्तिम भाग:-- घत्ता: X महो महो सत्यवाहि कुलभूसरा, रिगसुरिण धम्मु तउ कहमि अहिंसाः । विरणकज्जेरण जीउ जे मारहि, कु' तलवड प्रसिथाय [प ] हाहि । ते दालिद्दिम- दुह उप्पज्जह, गर (य) पडता केरण घरेज्जहि । जे महिलास जाहिं परयारहि, जाहि पुरिस ते संढ ! वियारहि । जे पेसुण भासंरय अणुदिणु, सुह जरिंग रिंगदा कहि जि कुम्मर । रिगच्च गुत्ति उप्पज्जहि ते गर, होण सत्त बहु दुक्ख परंपर दउलायंति भमहि परिद्धे, मंति इत्थु वि विध्दें । खास- सास बहु वाहहि गीढा (हा ) भबि भवि हुति पुरिसभई मूढा । छिंदह दहहि विविह जे तरु वरु, कुवाहित दो सइ गरवर । वीर सेवा मन्दिर-प्रन्थम । जे कहहि दिट्ठ विदिट्ठउ, असुवउ सुबउ कहति । ते प्रधवहिर रण पाविय, दुक्किय भमंति ||२०|| ( गुटका घार भंडार) ६७ हरिसेण चरिउ (हरिषेण चरित्र ) प्रादिभाग: भावें पर विवि मुरिण सुव्वय हो चरण कमल भवताव महा । नि (रि) सुरहु भवियहु बहु रस भरियहु हरिसेणहु पयडेमि कहा ॥ जिरण सासरिण दुरिय पणासरिग महो जग कण्ण महोच्छउ दिज्ज हो । विमलुज्जलु तव निम्मलुयउ हरिसेरण हो. गरिय मुरिपज्ज हो । X श्रान्तमभागः बुहयरगाह व परियव्वहो गुरु उवएसि जारियो । काविज्जीयइ जिणु परणवेप्पिणु तें हरिसेण सम्माणियो । महा चक्रवर्ती हरिषेण चरित्र समाप्तं । ६८ मयरण पराजय ( मदन पराजय ) कवि हरदेव मंगलाचरणः कमल-कोमल-कमलंक तिल्लोक मलंकिय कमल गय । कमल हणरण सिहरेण प्रचिय, कमलपिय कमलपिय । कमल भवहि कमलेहिं पुज्जिय । ते परमप्पय पय कमल परणमवि कलिमलचत्त । मयद जिगदह जेमरणु पयडमि साजइ वत्त । X X UP X अन्तिमभाग: विसय सेण मुणिवर मच्छेसइ, तंचारितनयर रक्खेसइ । इम: भगेवि गउ मोक्ख हो जिावरु विसयसेणु पाल 3. संजमभरु X प्रांत का इवि साहिउ, मुणिवरतं खमतु ऊरणाहि उ जिग वरि दे पये पकय भसलि नाविज्जाहर गणहर कुसलि मयण पराजएण विरइय कह, हर एविरेति विघुहयरण स गुरदोस पयाउ प्रक्खिउ भाउ महु छलेण विरइय कह भव्वयण - पियारी हरिसंजरणेरी नं (पं) दउ चउविह संघहं ॥ इयमयपराजयचरिए हरिएवं कइ विरइए मयरा पराजयरणाम दुज्जो परिच्छेश्रो समत्तो ॥ प्रति प्रामर भंडार, सं० १५७६ ६९ सिद्ध चक्क कहा (सिद्धचक्र कथा ) पं० नरसेन प्रादिभाग : सिद्धचक्कविहि रिद्धिय गुणहं समद्धिय परणविवि सिद्धि मुणीसर हो पुरण अक्खमि भव्वहं वियलिय गव्वहं सिद्धि महापुरि सामिय हो ** X X X Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह [१०७ पत्ता : अन्तिमभाग:जो जिण गुणमाल पढेसइ मणि भावेसइ रिद्धि विद्धि जसु घत्ता ___ लहइ पउ। सिद्ध चक्क विहि रइयमई णरसेणु भणई णियंसत्तिए । जो सिद्धि वरंगण णारिहिं हयजर मारिहिं सुहु गरसेरणहं भवियण जणमण आणंदयरे करिविजिणेसर-भत्तिए ॥३६ परमपउ ॥१॥ इम सिद्ध चक्क कहाए पयडिय-धम्मत्थ-काम-मोक्खाए जिण वयरगाउ विणिग्गय सारी, महाराय चंपा-हिव सिरिपाल देव-मयणासुदरिदेवि-चरिए परणविवि सरसइ देवि भडारी। पंडिय सिरिणरसेण विरइए इहलोय-परलोय-सुह फल सुकइ करंतु कव्वुरसवंतउ, कराए रोर-दुह-घोर-कोट्ठ-वाहि-भवणासणाए सिरिपाल जसु पसाय बुहयणु रंजंतउ । रिणव्वाण-गमणोणाम बीओ संधि परिच्छेप्रो समत्तो॥ साभय वय महु होउ पसण्णी, संधि २॥ सिद्ध चक्क कह कहमि रुवण्णी । पुण परमेट्ठि पंच पण वेप्पिण, ७८ अणस्थिमिय कहा (अनस्तमित कथा) जिणवर भासिउ धम्मु सरेप्पिरण । कर्ता-हरिचन्द्र कवि विउल महागिरि आयउ वीरहो, प्रादिभाग:समवसरण सामिय जयवीर हो । वासरि मेल्लंतहं णिसि भुजंतह पाव पिसाएं गाहिय मण। तहो पय बंदण सेणिड चलियउ, गुण-दोस-वियारण सुह-दुहकारणु तं परमत्थु कहेमि जिणु ।। चेल्लणाहि परिवारह मिलियउ । प्राइ जिणिंदु रिसहु पणवेप्पिणु, तिणि पयाहिण देवि पसंसिउ, 'चउवीसहँ कुसमंजलि देप्पिण। उत्तमंगु भूरोवि रणमंसिउ । वड्डमारण जिणु परमविवि भावें, जाय ति भा मरि देविण णाह हो, कलिमल-कलुस-विविज्जिउ पावें। पणविवि बहु भाविहि हयमोहहो। संचालिवि अइरावउ गइंदु, गणहर रिणग्गंथहं पणवेप्पिण, जसु जम्म ठहवरण प्रायउ सुरिंदु । अज्जियाहं वंदणइ करेप्पिण। रिणउ मेरु सिहरि तिल्लोक पाहु, खुल्लय इच्छाकारु करेप्पिणु, प्राइ-विसम-कम्मवरण-डहरण-दाहु । सावहाणु सावय पुच्छेविणु। कलसेहिं हायउ सिंहासणत्यु तिरियहं उवसम-भाउ गरि दुउ , चल चामरेहिं विज्जिउ पसत्थु। पुणु गरिंदु णरको? णिविट्ठउ । बालउ णिएवि इंदस्स ताम, पुच्छइ सेणिउ वीर जिणेसर, जल संकपईसइ हियह ताम । सिद्ध चक्क फलु कहि परमेसर । ता प्रबहिणाणु परिकप्पियउ, ता उच्छलिय-वाणि सव्वंगहो, तें मेरु मंगट्ठइ चप्पियउ। सुय-सायर-पवरि तरंगहो । यर-हरिय धरणि बंभंडु खसिउ, पत्ता गिरि डोल्लिउ सुर-समूह तसिउ । गायमु गणि साहइ पण पडिगाहइ ए उद्देसे पयासइ। घत्तासिद्ध चक्क विहि इट्ठिय णिसुणि सइट्ठिय सेणिय कहिम परमेट्ठि पयासणु णिरुवम सासणु इंदि वण्णिय जासु गुणा। समासइ ॥२॥ जिण णवेवि पयत्तें फहमि हियत्ते थुइ प्रणयमिय सुणेहु जगा ॥१॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला - जय वड्डमाण सिव उरि पहाण, तइलोय-पयासण-विमलणाण । जय सयल-सुरासुर-णमिय-पाय, जय धम्म-पयासण वीयराय । जय सोल-भार-धुर धरण धवल, जय काम-कलंक-विमुक्क अमल । जय इंदिय-मय-गल-वहण बाह, जय सयल-जीव-प्रसरण-सरगाह । जय मोह-लोह-मच्छर-विरणास, जय दुट्ठ-धिट्ठ-कम्मट्ठणास । जय चउदह-मलवज्जिय-सरीर, जय पंच-महन्वय-धरण-धीर। जय जिरणवर केवलणाण-किरण, जय दंसरण-गाण-चरित्त-चरण । पत्ताजिणवरु वंदे विण गुरहु णवेविण भाव वाएसरि सरिवि । प्रणथमिउ पयासमि जण उन्भासभि रिणयमण सम भाव करिवि ॥२ अन्तिमभागः पुणु पाविट्ठह हमासक्कमि, धम्मकहा पयडे विरण सक्कमि । तेण समुच्चएण मइं जंपिउ, भव्ययणहं उवसंतहं जंपिउ । इउप्रणथमिउ जिणागमे उत्तर, एव्वहिं मई हरियंद रिणवुत्तउ। इहु प्रणथमिउ जु पढइ पढावह, सो गरु-गारि-सुरालउ पावइ । जो पुणु अविचलु मणि णिसुरणेसइ, तहो सुह विमल बुद्धि पयडेसइ । जो अक्खलिड प्रणथमिउ करेसइ, सो णिव्वाण णयरि पइसेसइ । मई पुणु भावें कव्वु चडावा, सुगम सुभरण बहुगुण अणुराया। पाविड वील्हा जंडू तरणएं जाएं, गुरु-भत्तिए सरसइहिं पसाएं। गाथा मयरवालवंसे उप्पण्णई मई हरियंदेण । भत्तिए जिणु पणवेवि पयडिउ पद्धडिया छंदेण ॥१॥ इय प्रणथमी कहा समत्ता। ७१ चूनडी (रास) कर्ता-मुनि विनयचन्द्र मादिभाग: विणएँ वंदिवि पंचगुरु, मोह-महा-तम-तोडण-दिणयर । वंदिवि वीरणाह गुण गणहर तिहुयरण सामिउ गुण पिलउ मोक्खह मग्गु पयासण जगगुर, गाह लिहावहि चूनडिय, मुद्धउ पभणइ पिउ जोडिवि कर ॥१॥ ध्र वर्क परगवउँ कोमल-कुवलय-यणी, लोया लोय-पयासण-वयणी। पसरिवि सारद-जोह जिम, जा अंधारउ सयलु विरणासइ । सा महु रिण-वसउ माणसहि, हंसवधू जिम देव सरासइ ॥२ माथुर संघहँ उदय मुरणीसरु, पण विवि बालइंदु गुरु गणहरु । जंपइ विणय मयंकु मुणि, मागमु दुग्गमु जइ विण जाणउँ। मालेज्जउ अवराहु महु, भवियहु इह चूनडिय वखाण ॥३ अन्तिमभाग: तिहमणि गिरिपुरु जगि विक्खायउ, सग्ग खडुणं धरयलि आयउ । तहिं रिणवसंतें मुणिवरेण, अजयणरिंद हो राय-विहारहिं । वेगें विरइय चूनडिया सोहहु, मुणिवर जे सुय धारहिं ॥३२॥ इय चूनडीय मुरिंगद-पयासी, संपुण्णा जिण पागम भासी। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढहि गुह जे सद्दहि, तेरा सिवसुह लह पत्तें । विएं दिवि पंचगुरु ॥ ३३ ७२ विभर पंचमी कहा (निर्भर पंचमी कथा ) कर्ता -मुनि विनयचन्द्र प्रादिभागः जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह परविवि पंच महागुरु धरिवि मरणें, उदयचंद गुरु सुमीर विबंदिविबाल मुणें । विरrय चंदु फल्नु अक्इ णिज्झर पंचमिहि, निसुर धम्मकहाण कहिउ जिणागमिहि || अन्तिम भाग: तिगिरि तल हट्ठियह रासउर, माथुरसंघ मुणिवरु विजयचंद कहिउ । भवियहु पढ पढावह दुरियहं देहु जलु, माणुम करहु मरुसहु मसुरवंचहु प्रचलु । जे (जि) ण भांति भडारा पंचमि पंचपहु, म्हहि दरिसाव अविचल सिद्धि हु । ७३ कल्याणक रासु कर्ता - विनयचन्द्र आदिभाग: सिद्धि-सुहंकर सिद्धि-पहु पणविवि ति-जय-पणासण | केवलसिद्धिहि कारण थुणमि हउ, सयल विजिण कल्याण निहियमल । सिद्ध सुकर सिद्धि पहु ॥ १ ॥ पढम पक्खि दुइज्जहिं प्रासादहि रिसह गव्भुर्ताहं उत्तर साह । धियारी छट्टिहि तंहिमि (हउं ) बंदमि वासुपूज्ज गब्भुत्थउ । विमलु सुसिद्धउ भट्टमिहि दसमिहि मि जिण जम्मरण तह तउ । सिद्ध सुहंकर सिद्धि पहु || २ || पन्तिम भाग: एयभत एक्कवि कल्लाणइ णिवि froaefs प्रहइकल ठाणउ । तिहि प्रायं विलु जिरण भणइ उहिमि होइ उववासु गित्यह । ग्रहवा सयलह खवणविहि विरायचंदु मुणि कहिउ समत्तह इति श्री भट्टारक विजयiद विरचित कल्याणक विधि समाप्त । ७४ सोखवइ विधान कथा कर्ता - विमलकीर्ति [१० प्रादिभाग: परविवि तित्थंकर सिद्धि सुहकर सुह संपइविहि मरण हर । गुण गणहर विरयंत वर दितु वोहि महु सुन्दर ॥ अन्तिमभाग: रिसिहेस विष्ण व मुरिण विमलकित्तित्ति । लहु देहि सत्त सम सिद्धि संपत्ति ॥ घत्ता जो पढाइ सुइ मरिण भावइ जि प्रारहs सुह संपइ सोणरु लहइ । णाणु वि पज्जइ भव-दुह रिवज्जइ सिद्धि विलासणि सो रमइ ॥ ७५ चंदर छट्ठी कहा ( चन्दनषष्ठी कथा ) कर्ता - पं० लाखू (लक्ष्मण) प्राविभागः पणवेष्पिण भावें विमलसहावे पाय पोम परमेट्ठि | अक्खमि निय-सत्तिए भवियण भत्तिए जं फलु चंदण - छट्टिहे ॥ अन्तिम भाग: इय चंदर छठिह जो पालइ बहु लक्ख । सो दिवि भुंजिवि सोक्खु मोक्खहु णारों लक्खणु ।। ७६ गिद्द: क्लसत्तमो कहा ( निदुःखसप्तमी कथा ) कर्ता - मुनि बालचन्द्र प्रादिभाग: संति जिणि दह पय-कमलु भव-सय-कलु स कलंक निवारु । उदयचंद गुरु भरेवि मरणे बालइंदू मुणि णविवि णिरंतरु । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 01 वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला अन्तिमभाग: अन्तिमभाग:किज्जइ धण सत्तिहि उज्जवणउं, जे इहु पढइ पढावइ निसुइ कण्णेदइ । सो सुर।नर-सुहु भुजिवि पावइ परमगइ । विविह णहावणेहि दुह-दमणउं । प्रायण्णि वि मुणि भासियउ, ७६ सुगंधदहमो कहा (सुगन्ध दशमी. कथा राएं गुण अणुराउ वहंतें । कर्ता-कवि देवदत्त लयउ धम्मु साबय जणहिं, आदिभागःति यरणेहिं विहिउ उत्तम सत्त। जिण चउवीस णवेप्पिण, ७७ नरक उतारी दुधारसी कथा झाउ धरेप्पिणु देवदत्तहं चउवीसहं । कर्ता-मुनि बालचन्द्र पुणु फलु आहासमि धम्मु पयासमि, मादिभाग: वर सुयंध दसमीहि जिहं । पुच्छिउ सेणिएण तित्थंकर कहहि सुयंध दसमि समवसरण-सीहासण-संठिउ गई जिणिदु णिसुणि अहो सेणिय भव्वरयण गुणरर सो जि देउ महु मणह पइट्ठउ । रिणसेणि अवर जि हरिहर बंभु पडिल्लउ, अन्तिम भाग:ते पुरण णमउंण मोह-गहिल्लउ॥ ...जहिकोहु न लोहु सुहि न विरोहु जिउ जर-मरण विवज्जि छह सण जा थिरु करइ वियरइ बुद्धि-पगासा। .'जहि हरिसु विसाउ पुण्णु ण पाउ तहिं णिवाणु । सा सारद जइ पुज्जियइ लब्भइ बुद्धि-सहासा। दिज्जउ॥ उदयचंद्र मुणि गणहि जुगहलउ सोमई भावें मणि अणुसरिउ। ८० मुत्तावली कहा (मुक्तावलि कथा) बालइदु सुरिण णवि वि णिरंतरु णरगउतारी कर्ता-............ आदिभाग:कहमि कहतरु। वीर जिरिंणदहं पय-कमलु वंदिवि गुरु गोयमु पणविज्जइ मन्तिमभागः रयणत्तउ मणिधर वि मई मुत्तावलि-विहाणू-भलु गिज्ज अवर वियहु विहाणजे धण्णा, करहि उदय जुवइहि. संपुष्णा। - अन्तिमभाग:सग्गु मोक्खु ते लहहि विसिट्ठिउ, जं जिह विणयचंद जो विहिणावसइ एह विहि सो कमेण जिह पउम रहो। 8 सिव-सोक्ख लहइ सइ उतरे वि भवंसमुद्द दुग्गह लहु ॥' ७८ रविवय कहा (रविवारव्रतकथा) ८१ अनुवेक्खारासो (अनुप्रेक्षारास) ___ कर्ता-कवि नेमचन्द . कर्ता-कवि जल्हिगि प्रादिभागः आदिभागःप्राइ अंत जिण वंदे वि सारद घरेवि मणि, मोक्खह कारण जाणि, भासिय जिणेंद णाणि । गुरु णिग्गंथ णवेप्पिणु सुयणह अणुसरेवि । दो दह भावण जाणि मणि भावि जिया ॥छ।। संपइ पथिर एह जइ सिय विज्जुल-रेहा, पुच्छंतह भन्वयणहं सदुपदेसु चवइ, सुर घणुहर समु जोव्वणु जिया, दीसइ जु सुंदर दब्बू, माथुरसंघहं मुणिवरु णेमियंदु कवइ। जाइ सीखयहु सव्वु मोह न जाणसि जीव तुहु ॥१॥ पासनाह रविवार वउ पभणमि सावयह, अन्तिमभाग:जासु करतहं लगभइ सम्पह पाइय पय परहं। जो भावह भावण सारु, मेल्लि वि मण वियारु ।। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह [१११ पावइ चारुसो नरु परमसुहो, जो पढ़इ अणुवेहारासु, ए प्रण वेहा जिणभणिय, णाणी बोलहि साहु । सोतरु फेडइ पाव पासु, समावासु पावइ सुह-निलउं ॥१५ ते तावज्जिहि जीदतुई, जइ चाहहि सिव लाहु ।।४७ जइ मुणिउ नकव्वबंधु, तहं विपयासिउ छंडु । ८४ अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) नियय सत्तिए जल्हिगि रयउ, जय किंपि वि अहिउ हीण, कर्ता-अल्हू कवि अक्खर-मत्त-विहीण, सोहंतु मुणीसर-विगय-मला, मोक्खह कारण जाणि भासिय जिणेंद णाणि, आदिभागःदोदह भावरण जाणि मणि भावि जिया ॥१६ राव जिय छंडहि......मनुमंडहि देव-गुरु-वयण सो गहु गहहि । ८२ बारह-अणुवेक्खा रासो अप्पु थिरु मनहिं परु अवगणहिं चेइ जिय भवसरि मा (द्वादश अनुप्रेक्षा रास) पउहि । कर्ता-पं० योगदेव सतगुरु दीसइ सीखु होहि जिय सामिय पंचमगइ करि जिम प्रादिभाग: चाहि। णविविचलण मूणि सून्वयहो कर सुरखयर महोरगमहिय हो। प्रन्तिमभाग:सयलविमल केवल गुण सहिय हो, बारह अणुवेक्खउ णिच्च णिरंजण णाणमउ चित्तधरि भवियहु मल्हु कांव कहमि । वज्जरए। भव्वयणहु णम विणयहु सहियहुणवि विचलण मुणि सोमणि पढड पढावए हहहइ सो णनो सिवपुरा जार सुव्वयहो । सरए ॥११॥ अन्तिमभागः ८५ हरिवंस पुराण एह रासु जिणवर पयभत्तं विरयउ कभणयरें णिवसंतें। जोगदेव पंडिय पुरउ विसयसेण मूणिवर पयभत्त। कर्ता-कवि श्रुतकीर्ति पढइ सुणइ जो सहहइ सो णरु सिव सुह लहइ पयत्त । रचना १५५२ णवि विचलण मुणि सुव्वय हो ॥२०॥ पादिभाग:८३ अणुवेक्खा दोहा (अनुप्रेक्षा दोहा) ससिइण वोमंसइ ते हरिवंसइ पाव-तिमिर हा विमलयरि । कर्ता-लक्ष्मीचन्द्र गुण-गण-जस-भूसिय तुरय अइसिया सुब्वय-णेमियहलिय मादिभाग:पणविवि सिद्धमहारिसिहि जो परभावहं मुक्क । सुरवइ-तिरीड-रयणं किरणंवु-पवाह-सित्त-गह-चलणं । परणाणंद परिट्ठियउ चउग्इ गणमहं चुक्क ।।१।। पणविवि तह परम जिणं हरिवंस कयत्तणं वुच्छे ॥१॥ जइ वीहउ चउगइ गमण तो जिण उत्तु करेहि । चरमभाग:दो दह प्रणवेहा मुणहि लहु सिव सुक्खु लहेहिं ॥२॥ तह कमेण सुयणाणिउ छिण्णइं, मधुव प्रसारण जिणुभणइं, संसारुवि दुह-खाणि । . ... मंग अंग देसई धर अण्णइं। एकत्त वि अण्णत्तु मुणि असुइ-सरीरु वियाणि ॥३॥ पंचम काल चलण पढ मिल्लई, प्रासब-संवर-णिज्जर वि लोया भाव विसेसु । तह उवण्ण पायरिय महल्लई। धम्मुवि दुल्लह वोहिजिय भावें गलय किलेसु ॥४॥ कुदकुद गणिरणा अणुकम्मई, मन्तिमभाग: जायइ मुणिगण वितिह सहम्मई । जो प्रप्पा णिम्मलु मुणइ वय-तव-सील-समाणु । गणवाल तवा गेसरि गच्छई, सो कम्मक्खउ फुड़ करइ पावइ लहु निव्वाणु ॥४६॥ मंदिसंघ मणहर मई सुच्छई, हरि। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वीनसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला चरमभाग: पहाचन्द्र गरिगणा सुद पुण्णइं। पोमणंदि तह पट्ट उवण्णइं। पुणु सुह्चंददेव कम जायई, गणि जिणचंद्र तहय विक्खाई। विज्जाणंदिकमेण उवण्णई, सीलवंत तहु गुण-संपुण्णइं। पोमणंदि सिस कमेण ति-जायइं जे मंडलामरिय विक्खायइं। मालव-देस-धम्मु सुपयासणु, मुणि देविंदकित्ति मिउ भासणु । तह सिसु अभियवाण गुण धारउ। तिहुअणकित्ति पबोहण सारउ । तह सिसु सुदकित्ति गुरु भत्तउ, जहिं हरिवसु पुराणु पउत्तउ। मच्छर-उज्झिउ बुद्धि-विहीणउ, पुव्वाणरियहि वयण पय लीणउं । अप्पबुद्धि बुह दोसुण दिज्जउ, जं असुद्ध तं सुद्ध, करिव्वउ । एयहु सयल गंथ सु-पमाणहु, तेरसद्ध सहसई बुह जाणहु । संवतु विक्कमसेण गरेसहं, सहस पंचसय बावण सेसहं । मंडवगढ़ वर मालव देसई, साहि गयासु पयाव असेसई । णयर जेरहड जिणहरु चंगउ, णेमिणाह जिण-बिंदु अभंगउ । गंथ सउण्ण तत्थ यहु जायउ, चविहु संघु णिसुणि अणुतायउ। माघकिण्ह पंचमि ससिवारइ, हत्थणखत्त समत्तु गुणालई। ८६ परमेट्ठिपयाससारो (परमेष्ठी प्रकाशसार) कर्ता-भ० श्रुतकीर्ति रचना १५५३ मादिभाग दहपणसय तेवण्ण गयवासई पुण विक्कमरिणव संवच्छ तह सावण-मासहु गुर पचमि सहुगंधु पुष्णु तय सहस मालवदेसइगढुमांडव चलु, वहइ साहि गयासु महाबलु । साहिणसीरु णाम तह णंदणु, राय धम्म अणुरायउ बहुगुणु । पुज्जराजु वणिमंति पहाणई, ईसरदास गयंदहं माणइं। गत्थाहरण देसु बहु पावइ, प्रह-णिसि-धम्महु भावण भावइ । तहं जेरट णयर सुपसिद्धई, जिण चेईहर मुणिसु पबुद्धई। रणेमीसर-जिणहर-णिवसंतई. विरयहु एहु गंथ हरिसंतई। जइ सिंघु तह संघवइ पसस्थई, संकरु णेमिदासु बुहतत्थई। तह गंथत्थभेउ परियाणिउ, एउ पसत्थु गंथु सुहु माथिउ । प्रवर संघवइ मणि मणुराइय, गंथ-प्रत्थ-सुणि भावण भावइ । तेहिं लिहा [व] इ णाणा गंथई, इय हरिवंस पमुह सुपसत्थई । विरइय पढम तिमहि ? वित्थारिय, धम्मपरिक्ख पमुह मण हारिय । पढहिं भव्व जहिं पडिय-लोयई, संतिहोइ सुणि प्रत्थमरणेयई। पत्तापुर गयर गरेसहि गामह देसहं मुणिगण सखयलोय सहें घणु कणु मणि सारई धम्मुढारई करहिं संति परमे पहो। इय परमेट्ठि पयाससारे भरूहादि. गुणेहिं षण्णण संकारे प्रप्पसुद-सुदकित्ति जहासत्ति कहाकवु विरयं णाम सत्तमो परिच्छेप्रो समत्तो । संषि ७॥ इति पर प्रकाशसार ग्रंथ समाप्तः । ............ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११३ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ८७ संतिणाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) रचना १५८७ कर्ता-महिन्दु या महाचन्द्र पादिभाग:जिणभय-तरु कंधर णुय भुविकंधर सुर वइ संतिहु पय जुयलु। उत्तमु तह केरउ सुक्ख जणेरउ चरिउ कहमि पणविवि अमलू ॥१॥ पर-छिद्दाण्णेसहि रह-यरेहिं । वेजीह वंक गइ सरल-रहिय, कि कीरइ कह बुह धम्म-सहिय । वर-बुहयण-कमल-दिरणेसरासु, णिय-कुल पह-मंडणु-सस-हरासु । प्रत्थी-मण-पूरिय-कंचणासु, जंपइ साहारणु मइ वरासु सल वलिय किमिहि उलु गलिय रंधु, मिल्लेवि देहु बहु पूइ गंधु । कक्कस-भासी पइ किहणु घिठ्ठ, उत्तम पएसि किं रमइ रिठ्ठ । णिक्कारणेण करि रोस भाउ, पर-दोस-गहण-पिसुरगहु-सहाउ । हण तिमिर-पसरु तेएण पूरु, को सियहु ण भावइ उयउ सूरू जइ तासो पोसिय खडय राह, कि णउ सावय लच्छी हराह । सुहिगण-छमाणव झेड पाउ, तहु कवणु गणइ प्रसहिय पयाउ । कोल्ही देवी पय-भत्तएण, ताजपिउ कव्व रसद्द एण । पावेवि देसु-कुलु-जम्म-रूउ. पाउवि-अरोय-बीरिय-सविणउ । वर-सवण-गहण-मइ-धारणासु, जणि मण्णिउ वण्णिउ बुहयणाम् । तह भत्तउ-भायरु-सुक्ख-हेउ, दोदा णामेणं मयर-केउ । लहुणिय घर पुत्तहु धरिय-भरु, कंचण वाणिज्जउ महुर सरु । तुहु सुत्थिउ दुत्थिउ उ कयावि, किंण कहहिं धम्म-कहा सया वि । कइ पुप्फयंत सिरि महपुराण, तहु मज्झि णिसुणउ मइ गुण-णिहाणु । चरियउ सिरि संतिहु तित्थणाहु, मइ णिविड-रइउ गुण-गण-अथाहु । गंभीर-बुद्धि दुल्लहु ण होइ, सो तुच्छ-बुद्धि सुलहउ ण जोइ । बुहयण हू जि एहु सहाउ हुति, सव्वहि हिययत्तण चितवंति। तहिं हुंतउ कड्डिबि वित्थर हि, पयडेसमि हउ मा भंति करहि । बोलिज्जइ कव्वं किय मएण, . महु तुच्छ बुद्धि खलयण भएण। ............जिह पित्त गहिय, विवरीय पयं पहि महुर-रहिय । जल-सप्पिणि इव दुज्जण हवंति, मुह दुद्ध थणहु रुहिरु वि प्रसंति । दोसायरेहिं णं णिसियरेहि, पत्तापुण णिसुणहि इबहि वियलिय गवहि जेहु प्रासरसह ___णिलया। सो या जण-वल्लह पालिय वय दुल्लह पणविवि ते कइयण तिलया ॥४॥ प्रकलंक सामि सिरि पाय पूय, इंदाइ महाकइ प्रहूय । सिरि गेमिचंद सिद्धतियाई, सिद्ध तसार मुणि ण विवि ताइ । चउमुहु-सुयंभु-सिरि पुप्फयंतु, सरसइ-णिवासु गुण-गण-महंतु । जसकित्ति मुणीसरु जस-णिहाणु, पंडिय रइधू कइ गुण प्रमाणु। गुण भद्दसूरि गुणभद्द ठाणु, सिरि सहणपाल बहु बुद्धि जाण। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वीरसवामन्दिर ग्रन्थमाला णंउ दिट्ठाणउ सेविय सुसेय, मई सह-सत्य-जाणिय ण भेय । णो कता कम्मु ण किरिय जुत्ति, णउ जाइ धाउ णवि संधि उत्ति । लिंगालंकाह ण-पय-समत्ति, ण बुज्झिय मइ इक्कवि वि विहत्ति । णिग्घंटु वि यो जो अमरकोसु, ........। धत्ता भो सुणु बुद्धीसर वरमहि दुहुहर, इल्लराज सुमणा खिल्जइ । सण्णाण सुभ साहारण दोस णिवारण वरणरेहिं धारिज्जइ ॥ इय सिरि संतिणाह चरिए णिरुवम गुणरयण संभरिए अण्णाणमयो (?) इल्लराजसप्र-महिदु विरइए सिरिणाणा सुप-संघाहिव-महाभव्व साहारणस्स णामंकिए भन्बयण जण-मणाणंदयरे सिरि इद्रदेव-णमायारकरणं सेणिय महाराय सिरि वड्डमाण समवसरण गमणं-धम्मक्खाणनिसुणणं पढमो इमो परिछेप्रो समत्तो। मन्तिमभाग:-- घत्तामहणा णामावलि, वण्णवि पाउलि पभणउ अइसुहयारी। सिरि वीरु णवेपिणु हियइ घरेविण सुद्धविदा पहुकेरी। पद्धड़ी इह जोयरिणपुरु पुरवरहँ सारु, जहु वण्णणि इह सक्कु वि असारु । सालत्तय मंडिउ सो विभाइ, कोसी सहि परिहा दुग्गणाइ । जो वण-उववण-मंडिउ विचित्त, गं मेरुवि चेईहर-पवित्तु । तण्णियड वि जउणा-णइवहेइ, गं गंग वि ईसहु सहु बहेइ । खंड गोउराई अइ जिगि मिगंति, खण मुहहु वि णं प्रवयारु दिति । जहु रक्सह गोउव दंडधारि, भारयण-गणाह जो संपहारी पच्चंत णिवइ संगहइ दंडु. रायाहिराउ वव्वरु पयंडु। मिच्छाहिउ अइव विणाय जाण, महसूलणोन्व जणदिण्णमाणु । जहि चाउवण्ण पय सुहि बसंति, णिय णिय किरियाइविरत्तचित्ति । तहिं चेत्तालउ उत्तुग सहइ, धयमंडिय मोक्ख [सु] मग्गु वहह । जहिं मुणिवर सत्यइं वायरति, मह जण्ण-पूय सावय करंति तहि कट्टसघ माहुर वि गच्छि , पुक्खर गण मुणिवर चइविलच्छि । जसमुत्ति वि जस कित्ति वि मुणिदु, भन्वयण-कमल-वियसण-दिणिदु । तहु सीसुवि मुणिवरु मलय कित्ति, प्रणवरय भमइ जागि जाह कित्ति । तहु सीसु वि गुण गणरयण भूरि, भुवणयलि सिद्ध गुण भद्द सूरि। सोरठातहु पय भत्तउ साहु भोमराउ जाणिज्जइ । गुण वट्ठियइ णिवास जोयणिपुरि णिवसज्जइ ॥१॥ चौपाई जे तित्थयर वि गोत णिबद्धउ, करि पयट्ट सुह-पुण्ण वि लद्धउ । संघाहिउ गयपुरि संजायउ, अयरवालु सघह सुह-भायउ । गग्गगोत्त-णिम्मल गुण सायरु । सुथिरें मेरुवि तेय-दिवायरु । पद्धडी तहु भज्जवि घोल्हाही विसार, णाहहु गामिणि णं गंगफार। तहु पुत्त पंचणं मेरुपंच, मह-वयइ पंच णं समिइ पंच । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह पहिलारउ संघहु भारवरण, चउभेय संघ बहु भत्ति-करण । संघाहिउ खीमविचंद सारु, तहु विण्णि भज्ज गुणगण विसारु । पढम वि घीकाही गुणवरिष्टु, बीई नानिगही अइव इट्ठ। तह पुत्त चयारि वि चउ रिणग्रोस । छीथा पढमउ भज्ज वि असोय । तिहुणाही णामें मिदासु, तोउ वि जायउ सीस किरणहासु । तहु कामिणी वि गज्जो वि णाम, बीयउ सुउ पिरथी मल्लु नामा तहु पिययम हिलगही पसिद्ध, तहु पुत्त चयारिवि गुण-समिद्ध। पढमउ उधरणु रणगउ विवीउ, गण गण गरिदु धणराउ तीउ । चौपाई चउत्थउ मानसिंघु वि भणि जइ, खेमचन्द्र सुउ तीयउ गिज्जइ । इंदेव कीड सो इंदराउ, रावणही कामिणि जो सराउ । . तहु पुत्त विण्णि णं लच्छिपिल्ल, संतीविहासु तारण रसिल्ल । पुणु चउथउ चंदु वि चंदहासु, दोदाही बहु सुउ सामिदासु।। बीयउ संघउ भार धुरंधरु, देवसत्थ गुरु भत्ति वि पायरु। जिण सह पोमिणि महिरायहंसु, पावारिणाय जो पवरहंसु । जुण्णय-सेतुंजय जत्तकारि, विहवेण विजित्तउ जे मुरारि । चौपई पंडियसमूह दप्पणु गिज्जइ, पंडियाह गुणणाय भरिणज्जह । साधारणु णामें सो भाणि, उवमा रहिउ वि जण-अहि-मारिणउ । तहु बरिणया सीवही णा, णं सरधोरणि पेसिय-कामें। पद्धडी तहु चारि तणुभव गुण महंत, जेहुबि सुअ अभयहु चंदु संत । चौपई चंदणही भज्जहि रसइल्लउ, बीयउ जेटुवि मल्लु गुणिल्लउ । वर भदासही भज्ज प्रलंकिउ, तीयउ जितसल्लो वि प्रसंकिउ । सो पिया वि समदो रइ माणइ, पुणु चउत्थु सोहिलु पिउ भाणइ। तासु णारि भीखणही पावण, णं मंदोयरि सीलहु भायण । संघाहिव णाणातीउ पुत्तु, संघाहिउ ताल्हणु गुणविचित्तु । संघवइ वि भोयहु तीउ तोउ, सिरियचंदुमाणंतु भोउ। धत्तातहुभज्जा गुणहि मणोज्जा हरराजही व भणिज्जा । सीलेण वि सीया प्राइव विरणीया णं सुतार जण गिज्जह ।। पद्धडी तहु भुल्लणु णामें तीउ (य) जाउ, वे कामिरणीहि मंडियउ कान । भोयह सुउ बीयउ गुण गण जूयउ, पाणचंदु पणिज्जइ। तहु भामिणि गुण-गण-रामिणि, सउराजही कहिज्जइ ॥२॥ तहु तिण्णि मंगसू तिण्णिा रयण, णं तिणि लोय ते सुद्धवयण । पढमउ सम्मेय वि जत्त करणु सारंग विणामें सुद्ध करणु। तहु ललण तिलोकाही गुणाल, राका-ससहर-दिप्पंत-भाल । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला पढमी उधरण पुत्ती विचित्त, वीया चुहडही पियह रत्त। सं-भोयउ तुरिउ वि तोउ सालु, गजभच्छणामु गुणियण- रसालु । वे कामिणी भरहविपालधी य, दुइया साल्हाही अइविणीय । तहु अंगम्भउ सयतणु रमालु, बूढणही भज्ज हि अइ रमालु। तहु कुच्छिजाउ सुहवंत सूख, णं हंसपिल्लु णामेण सूबु । पुण भोयह पंचमु पुत्तु साहु, रणमलु णामें प्रच्चंत साहु । वे भजहि मोहिउ जासु मण, पढमा चूहडही भज्ज-रयण तहु जटमल्लु वि णामें विणीउ, तहु तीयवि रावणधीय गीउ । तहु पुत्त चयारि वि कामकासु, पढमउ हिमारउ विबुह-विसेसु । चौपई बीयउ मेइणिमल्लु पउत्तउ, तीयउ वाइ विमल्लु वि उत्तउ । पद्धडी चउथउ चउहत्यु वि दाण जुत्तु, सं रणमल्लहु बीयउ कलत्तु । पंथही तहु सुउ सूरदासु, पियमाइ भत्तु जिणवर वि दासु । एयाहं मज्झि साहारणेण, काराविउ एहु गंथुतेण। चौपई कम्मक्खय वि णिमित्तै सारउ, संतिणाह चरि वि गुणारउ । प्रायहु गंथ पभाणु विलिक्खिउ, तेयालसइ गणि कइयण प्रक्खिउ । पद्धडी विण्णहेण वि ऊधा पुत्तएण, भूदेवेण गुणगरणज्जुएण। लिहियाउ चितेण वि सावहाणु, इहु गंथ विबुहसर-जाणभाणु । चौपई विक्कम रायहु ववगयकालइ, रिसि-वसुसर-भुवि-मंकालइ । कत्तिय-पढम-पक्खि पंचमिदिणि, हुउ परिपुण्ण वि उग्गंतइ इणि । घता जावहि महि-सायरु गयणु दिवायरु, मेरु-महीहरु चंदउ । जउण वि गंगाणई जिणवाणीसई, एहु सत्थु ता दउ॥ इति श्री शांतिनाथचरित्र समाप्तमिति । ८८ मियंकलेहाचरिउ (मृगांक-लेखा-चरित कर्ता-पं भगवतीदास रचना-१७०० आदिभागः पणविवि जिणवीरं गाण-गहीरं, तिहुवरण-वइ रिसिराइ जई। णिरुवम मविसत्थं सील पसत्थं, भगमि कहा ससिलेह सई ॥१॥ पुणु पभणमि सील-महप्पु लोइ, हरिशंक-किरण-सिय-कित्ति होइ । इय सिरि चंदलेहा-कहाए रंजिय-बुहचित्त-सहाए : रय सिरि महिंदसेण-सिस्स-पंडियभगवईदास-बिरइए सा लेहा-विवाह-भत्तार मिलाव वण्णणो णाम पढमो सं परिच्छेनो समत्तो।। अन्तिमभागः कट्ठासंघ सु माहुर-गच्छए, पुक्खरगण-रिणम्मल-वय सच्छए । जिनवाणी पुव्वंग समाधरु, प्रवइण्णउ गावइ जणि गणहरु । धम्मज्झारण-साहरण पउ-सासमो, मिच्छ-कसाय- राइ रुझासमो। भविय-कमल-हिद-रणाण-दिवायरु, रिसि जसकित्ति गुरू तव-सायरु । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तासु सीसु गुरणचंदु जु साहियउ, पर वाइय-मय जूहमि गाहियउ । चउविह-सं । महाधुर-धारण, दुस्सह-मयरण - सरणि घोर बारगु । धम्सवरसु सम-गुणि ससि रूवउ, गुण- पट्ट-सी संभूव । गोमि सयलससि सत्थ कलालउ, जिणहरि साबय सहसु मरालउ । धम्मामय वरिसण सुपयोहरु, तासु पट्ट तव भार-धुरा घरु । वर-जस-पसर-पसाहिय-महियलु, नियम- महत्थ य रज्जिय- गहयलु । भट्टारउ महियलि जाणिज्जइ, माहिद से बिहार गिज्जइ । तासु सीसु यहु चरिउ पयासिउ, भगवइदासें गाणिरु भासिउ । सील - पहाउ-भवणि जस- कित्तणु, ससिलेहा चारित्तु सत्तणु । लिहइ लिहावइ ग्राइण्णइ णरु, सो सुर वर पर लहइ मणोहरु । प्रमुते रिगरु जुति प्रजुत्तउ, लक्खण - छंदु जु हीरणउ बुत्तउ । तं खम करउ सरसइ देविय, इंद-हिंद-रिद-सुसेविय । सील-चरित - विचित्तु पियारउ, पण बुह सोहि करहु गुण सारउ । air-for-for-avy वियारए, ठारण ठविज्जइ पर-उवयारए । जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह घता सग दह-सय संवदती तहां विक्कमराम महत्वए । अहणसिय पंचमि सोम दिणे पुष्ण ठियउ भवियप्पए ॥१५॥ दुबई चरिउ मक-लेह चिरु गंदउ जाम गयरिण रवि ससिहरो । मंगलया रुह वइ जरिग मेइरिण धम्म- पसंग हिदकरो ॥१६ गाहा रोकोट हिसारे जिणहरि वर वीर बहुमाणस्स । तत्थठियो वयधारी जोईदासो वि बभयारीश्रो ॥ १ ॥ ११७ भागवई महरी बत्तिग वर वित्ति साहणा विग्गिए । विबुह सु गंगारामो तत्थठिम्रो जिगह रेसु मइवंतो || २ || दोहा ससिलेहा सुबंधुजे अहिउ कठिण जो श्रासि ( स ) । महुरी भास देसकरि भगिउ भगोती दासि (स) ।।१ जागरण - रवि-मसि भमहि जाव भरह् थिरु खित्तु । ससिलेहा सुंदरि भई गांदउ ताउ चरितु || २ || इय चंद्रलेहा कहाए रंजिय-बहू-चित्त-सहाए भट्टारकसिरि मुणि माहिदसेण सीसु-विबह भगव इदास - विइइए ससिलेहा-सग्ग-गमरणइ-त्थिलिंग छेउ- इंद- पयवी-पघणं- सायरचंदरिणव्यारण गमरणं......साहणं गाम चउत्यो संधि परिच्छे समत्तो ॥ संधि ४ । । ८६ श्रजियपुराण ( श्रजित पुराण) बुध विजयसिंह रचनाकाल १५०५ प्रादिभाग: मुत्तिपियावरु संकरु दसिय तव भरु तिहुवण भवरगहि मंड णविवि पणय पुरंदरु रिणयगुण सुंदरु रिसह नाहि णिव नंदर + दिवसे कहि सज्जण रमिय रम्मे, X X धु वड रोहि विसि यंत धम्मे । चोरारि अलक्खिय मज्झ मग्गे, प्रमुरिणय दुक्काल महोवसग्गे । सुहयारि वणिप्पुरे रम्मगामे, वड्डारियमिहुरहु सुहसकामे । सिरि सुंदरे मंदिरे ठिदिरस्पण, पंडिय खेता कुल नहइण । बुह काम राय कमला सुएण, सव्वण्हु कहा थुइ थोत्तए । सम्मत्त पवित्त सुचित्तएण, सद्दा पोसिय पत्तएण । मिच्छायम वायरण मूयएरण, सलल्क्खरण चज्विय विग्गहेण, जिरणदास रयण सुसहोयरेण, इसिय दुस्सीलवय सामरण । परगुण गणेच्छिय मानसेण, दुम्म दुप्सु सुपाउसेण । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ छक्कम्म पवित्ति सुकच्छरेण, जिरगहाण - विहाण सुरेसरेण । अच्छर पिय पेम सुकंतरण, परिपालिय वयविहिसंत ए । सव्वय बुह दिउपाल ए. राहबहु पउत्तु दयालएर । घता X X इय सिरि प्रजियणाह तिस्थयर देव महापुराणे धम्मत्थ-काम-मोक्ख-चउपयत्थ पहाणे सुकइणसिरि विजयसिंह बुह विरइए महाभव्व कामराय सुय सिरिदेवपाल विबुह सिरसेहरोमिए दायार गुणाग- कित्तणं पुणो मगहहो पंडिय वर राहव सियजिय राहव नागा चरियइ देसाहिब वण्णणं णाम पढमो संघी परिछेश्रो समत्तो ॥ सुयह मइ । धत्ता संधि ॥ १ ॥ पर भजिय जिस पण य सुरेसहु गायष्णिय कह अन्तिम भाग :महिलए ||२|| पण महु मणि वद्ध, सह तं सवजह केरउ गाढ गाहु । पर सुकइ विवज्जिय समइ अज्जु, दुग्धडु तं जायउहय अवज्जु । इय चितं जाकिर चित्तु रोह, ता बृह वरु राहउ उल्ल एइ । एत्यत्थि समायउ कइ पसिद्ध, दुम्बुद्धि सिद्धिहि कर्याणि सिद्ध । प्रत्तावयदेसंह गलिय गब्बु, परि सेसिय दुज्जसदव्व ण्सवु । सिर मेरुकिति मेरुहि पुरोह, सं करमसीह गरवइ घरेह । जो पोमावइ पुरवाड बंसे, उपणु बिसुद्धायार संसे । सर दिल्हण वर तउ, रायमइ जगेरिय संपमूउ । बुह बोहु मच्छर पुण्णलीहु, श्रहिहाणें पंडित विजयसीहु । त पुण्णाणिल पेरियउ भाउ, सोभाणिज्जइ दइ विजय वाउ । तउ पउर मणोरह पुण्णहेउ, इय प्राणिवि तें पहिउताउ । वरसेवामन्दिर प्रन्थमाला तह प्राणयणत्थहु घाट मक्खु, घण पणय विजय प्रायार दक्खु । होकर गुण गुंदल हय-दुम्मइ-मल म्हत्तउ सुरण चित्तु धरि ॥ ३ X सो पादावि तं पुरु विजय विउस धरु, वाउव घोसह विणउकरि । ग्रह प्रजिया रुह पय पोमभसलु, खंडेलवाल कुल सरसि कमलु । चदह विज्जा वित्थर कुसलु, म्मिल यि जस पड पिहिय कुलु । पंडियउ कउडि पंडिय पहाए, उभय पयत्थि पत्तदा । तहु दर दुम्मइ पंकहारि, छावसिय कम्म पवित्तियारि । दुहामलवय विहिचरणसीलु, दुच्चरण दुमुप्पाडर्णाहि पीलु । पडिउ छीतु सुपसिद्धणामु, गंदर तहु सज्जरगउल सकामु । एपारस पडिमा गुण रसालु, जिण वयण अमिय सायण तिसालु 13 खेत्ता पंडिउ बुह लोयमित्तु, तहु सूर सुगोत्तम प्रोम मित्तु । सुपहाणउ पंडिउ कामराउ, मुणियण प्रप्पिय सुद्धण्ण चाउ । कमला पणइणि भारत भाउ, सद्धम्म परिग्गहु हिय पाउ । तहु तिणि सुरगंदण पुण्ण मुत्ति, जिरणदासु जेटू, चिय धम्म जुत्ति । धत्ता जो यि कुल मंडरणु दुज्जस खंड कप भुयह मित्त तर । दुम्बरणि विरतउ णिम्मल चित्तउ महि पर्याय कित तणु ॥३०॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह ११६ बीयउ रयणुव जोइय सुवासु, पंदउ जिणवर सासण सारउ, पंडियउ रयणु सरसइ णिवासु । वंदउ जणु सावय वय पारउ । उबसम सम्मत्त पसित्त चेउ, वंदउ सयलु सहायणु सावउ, सुणिय दुपावज्जि य सुद्ध सेउ । एयह गंथहु सवण पयासहु । पुणु तइउ तइ विह पत्तु रत्तु, शंदउ बुह जो पढइ पढावइ, सुपह सियण वं कुरुहाह वत्तु । लिहइ लिहावइ चंगउ भावइ । जिण पयह वणच्चण वज्जपाणि, र्णदउ गो मिणि छह रस दाइणि, णीसेस कला गुण रण खाणि । घुम्मउ मद्दलु णच्चउ कामिणि । चउदारण चउर पर अग्गणीउ, होउ चिराउ सुभहु दायारउ, घण लोलम मग्गण मग्गणीउ । पुणु पुण बुहु दिउपाल पियारउ । बुह सत्थोत्तमु दिउपाल सुवहु, जय जय अजिय तजिय संमिदि पह, जो पयडउ दीसइ धम्म कुरुहु । हरहि देव महु जम्म-मरण-वह । कारियइ जेण चेथाल जाइ, पत्ताधय-दंड-मड सुविसालयाइ। समरण्ण पण्णदह सएह पंच तह कत्तिय पुण्णिम वासरे। जिण सहस कुडु वारिण पुरि सुद्ध, संसिद्ध गंथुइउ विजयसिंह किउ बुह दिउपाल पुणु कुडिल पुरिहि सलाप बद्ध । कयादरे ॥३२॥ सिरि षड्डमाण जिणदेव भवणु, इय सिरि पजियणाह तिस्थयरदेव महापुराणे धम्मत्थघणऐसें जह किउ समवसरणु । काम-मोक्ख चउ पयत्थ पयडण पहाणे सुकइण सिरि धत्ता विजयसिंह बुह विरइए महाभव्व कामराय सुय सिरि तेणवि पुरण एहु वह रएइ चरिउ प्रजिय अरुहह सुवरो। देवपाल विबह सिरो सेहए वमिए पजिय जिणणाह गमण कारेविण रम्मु पयणिय सम्मु सुसिरि प्रलंकिउ मउउ वण्णणोणाम दहमो संधि परिच्छेमो समत्तो ।। संधिः १०॥ _यरो ॥३१॥ १० कोडल पंचमी कहा (कोकिला पंचमी कथा) गाहासिरि सोमराय णंदणु णंदउ हरियासु पुण हरिमासो। ब्रह्म साधारण आदिभाग:गरसिंह विबुह तणुरुह लक्खणु गुणवंतु जसवासो ॥१॥ रिसह पमुह जिण पणविवि सरसइ चित्त धारि । शंदउ गंथमउडु इउ णिम्मलु, बह दिउपाल सीम ठिउ णिच्चलु । कुदकुद गणि पहससि पंकयणंदि भरि । वंदउ गंथ मउड कत्तारउ, गुरु भायर हरिणिज्जिय पंच सरे। विजय सीहु पंडिउ वत्तारउ । गुरु गरिंदकितीतर विज्जाणंदि यरे । वंदमि वय-विहि भासमि णिसुणहु भाउकरि । वंदउ बुह दिउपाल सपरियण, दूरंतरिउ थाउ तहु परियणु। मन्तिमभाग.णंदउ तहु घरि लच्छि मणोत्थिय, अण्ण जि वय-विहि पालहि ते अमरिदं तणु । जिण अण्षण दाणाइ पसंसिय । पुण गरिंदकित्ति तणु पालिय जीवगण । शंदउ परवइ दुग्णय हारउ, मुणि वरिंद वय पालि वि पावहि मुत्ति सिया । सयल पया परियरिउ दयालउ । पुन्य मुर्णिदहि भासिय जह तह एह किया। वंदउ देसु वासु पुरु पट्टणु, सरसइ खमउ भडारी सुरणर युय चरणा । भुवि सुय मउडु विकरउ पवट्टणु । महु परमत्य पयासउ भव-सायर-तरणा । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला विज्जाणंदिय दंसण साहारण भणिया। जिरण वयण कमल रहदिव्य वाणि, पंडिय सोहि पयासह कोइल पंचमिया ॥ पणमामि जगत्तय पुज्ज जारिण। इति श्री नरेंद्रकीति शिप्प ब्रह्म साधारण कृत कोकिला णिग्गंथ सवरण णिय मरिण धरे वि पंचमी कथा समाप्तः ।। पहचंद भडार हो थुइ करे वि । दुद्धारसि कह फलु सावयाह, ६१ मउडसत्तमी कहा (मुकुट सप्तमी कथा) जह गोयम भासिउ सेणियाह । ब्रह्म साधारण तह भासमि जइ हउं मंद बुद्धि, आदिभाग: सर सइहि पसाएं कव्व सुद्धि । दसण गुणसार हो केवलधार हो तिहुवण कंज दिणेसर हो। अन्तिम भाग :कलिमल णिण्णासहो धम्म पयास हो पणविवि वीर अण्णुवि जो इय विहि पालेसइ, जिगणेसर हो । गरु तिय सो सुरलोय गमेसइ । जिण वयणुभव सरसइ पवित्त, जिणवर दंसण मूल गुणायर, भुवणत्तय सण सद्ददित्त । पोमणं हरिभूसरण भायर । सिरि कुदकुद गणि रयण कित्त, सोसु णरिंदकित्ति भवतारण, पहसोम पोमणंदी सुवित्ति । विज्जाणंदि बंभ साहारण । हरिभूसरण सीसु गरिंद कित्ति, पयडिय एह कहा जणमणहर, विज्जाणंदिय दंसणधरित्ति। णंदउ ताम जाम रवि ससहर । वंदे वि पयासमि सुह-णिहाण, घत्तापुव्युत्त मउडसत्तमि विहाणु। जे पढहि पढावहि भब्वयण णियमणि णिक्चउ भावहिं। अन्तिमभाग: ते बंभ सहारण वय फलेण, अमर लोय-सुहु पावहिं ।।५।। इति गरेंद्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारणकृत अण्णाज पाले सहि वय-विहाणु, क्षीरद्वादशी कथा समाप्तः । ते पावसहि अमरत्न ठाणु । पत्ता ६३ रविवय कहा (रविव्रत कथा) जे किरीड सनमि विहि सह मंगल मिह पालहि भवसरि ब्रह्म साधारण तारण । प्रादिभाग:ते णरिदकित्ती घर खयर पुरंदर होति बंभसाहारण ___ केवल सिरि सारहो गुणगणधारहो कम्मकलंक वियारहो इति श्री नरेंद कीति शिष्य धारण कृत मुकुट उबसग्ग णिवारहो रायसुयर सारहो पणविवि पास सप्तमी कथा समाप्तम् । भडारहो ॥१॥ वंदि वि परमेसरु वड्डमाणु, ९२ दुद्धारसि कहा (दुग्ध द्वादशी कथा) जसु तित्थे धम्म पवट्टमाणु। ब्रह्म साधारण सुर असुर मंसिय परम वाणि, मादिभाग: पणविवि गोयम गणि दिव्व णाणि । जिण सिद्ध भडारहो तिहुमण सारहो पायरियहो पुए जिण समय मूल सिरि कुदकुदि, उज्झयहो। पहचंद मुणीसर पोमणंदि। वंदे वि मुणिंद हो कुवलयचंद हो दुदारसि पयडमि हरिभूसण सीस गरिद्रकित्ति, गुरु चरण मंसि वि पयड कित्ति । जणहो॥१॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह पुर दियर वासर कह करोमि, भव्वर हो मरिण संसउ हरेमि । अन्तिमभागः घता जो रविवासर-वउ करहि गलिय-मउ दंसरगुत्त वय धारणु । गरिदकितित लहहि सुरत्तणु परम बंभ साहारणु ॥५॥ इति रविवासर कथा श्रीनरेन्द्रकीर्ति शिष्य ब्रह्म साधारण कृत समाप्तः ॥ ४ तियाल चडवीसी कहा (त्रिकाल चौवीसी कथा) ब्रह्म साधारण प्रादिभागः तिहुवण सिरि तिलयो गुण - गरण - गिलयहो भविय कुमुय-वरणचंदहो । रयणत्तय - जुत्तहो कलिमलचत्तहो परणविवि परम जिरिंग ॥ १॥ अन्तिमभागः धत्ता जे तियालचउवीसहे हिय रईसहि विरयहि विहि गुण धारण । ते गरिंदकित्ती पउ अमरेसर जउ लहहि वभ साहाररणु ॥५॥ इति श्रीनरेन्द्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारणकृत त्रिकाल चवीसी कथा समाप्तं । ६५ कुसुमंजलि कहा ( पुष्पांजलि कथा ) ब्रह्मसाधारण प्रादिभागः परमप्पय सारहो गुणगणधारहो, पर्याडिय तच्च वियारहो । पालिय वय बंभहो दुक्ख रिणसुभहो पणविवि वीर भडारहो ॥ .. अन्तिमभाग: घता जे कुसुमंजलि विहि विरयहि कर्यादिहि पाव - किलेसरिण वारण । १२१ ते गरिंद कित्तेसर अमर खगेसर पयड बंभ साहारण ||५|| शिष्य ब्रह्मसाधारण कृत इति श्री नरेन्द्रकीर्ति पुष्पाजलि कथा समाप्तः ॥ ६सी संतमिवय कहा (निर्दोष सप्तमी व्रत कथा ) ब्रह्म साधारण आदिभाग: रयणतय धारहो भवसरितारहो समय कमल सरणे सरहो । गुरागरण संजुत्त हो सिवपुरपत्तहो बंदिवि वीर जिले सरहो ।। अन्तिम भागः धत्ता जे णिम्मल भावहि वज्जि य गावहि पढहि पढावहि एह कहा । ते पर सुर सुक्खइ लहहि असंख बंभ सहारण कहिय जहा ||५|| इति नरेन्द्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारण कृत निर्दुख सप्तमी कथा समाप्ता । ६७ णिज्भर पंचमी कहा (ब्रह्मसाधारण) आदिभागः परणविवि परमेसरु वीर जिणेसरु वाए सरि गियमरिण धरि वि । पहु-कित्ति पाएं मरिण धराएं णिज्झर पंचमी फलु कहमि ॥ *न्तिमभागः घता सिरि मूलसंघ उदयगिरि मुरि पहु किनि दिसरु | तहो सींसु सहारणु बंभवरु तें पयडिय पणवेवि गुरु ||५|| इति श्री नरेन्द्रकीति शिष्य ब्रह्मसाधारण कृत निर्झर पंचमी कथा समाप्तः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला ६८ अणुवेक्खा (अनुप्रेक्षा) ब्रह्मसाधारण प्रादिभाग:वंदिवि जिरणवर वाणिगुरु पयडि तित्थ बहु सत्थ पयासिणि। पंरिय लोयहो जडमइ णामिणि सरसइ होउ पसण्ण महु ॥ सुरणर खेयर णमिय भडारी बंभ सहारण विष्णवइ । जह अणुवेहा कव्वु पयाममि । वंदि वि जिणवर वारिण गुरु । अन्तिमभाग: परम तच्च सिद्धत पयासण, गोयम कुदकुद गणि सासण। पहससि पंकयणंदि गुरु, हरिभूसण गरिंदकित्ति तणु। विज्जाणंदिय सीसभरु, परम बंभ साहारण पणविय वंदिवि । इति श्रीनरेन्द्रकीति शिष्य ब्रह्म साधारण कृत मनुप्रेक्षा समाप्ता। ९८ सिरिपाल चरिउ (सिद्धचक्रवत कया) कवि रइधू मादिभाग सिद्धहं सुपसिद्धहं वसु-गुरण-रिद्धहं हियम कमले धारे वि निरु । अक्खमि पुणुसारउ सुह-सय-सारउ सिद्धचक्क-माहप्य-वरु॥ छांगे साहु हु वंस प्रलंकिउ, मुणिवर गुण भावइ निसंकिउ । बाटू साहुहु पुत्तु धुरंधरु, जिणणाहहो पय-पयरुह-महुयरु । दाणे तिविह-पत्त-पोसणयरु, दिउचंदही भज्जहि पुण जो वरु । करमसिंह णंदणेण समाणउ, सोहय महियलिउ नय-माणउ । सो हरसीहु साहू विक्खायउ, जो-जिण-पय-पंकय-अणुरायउ। जो सावय-वय-दिढधरकंधर, जो गुणियण तरु-पोसण-कंधरु । जो चेयणु सु एकु मणि भावइ, झाणे चेयण जो पुणु झावइ । तिष्णि काल रयणत्तउ मंचइ, जो णिउय चारिवि सं सुच्चइ । जो परमेट्ठि पंच पाराहइ, जो पंचेंदिय विसयहं साहइ । मिच्छामय पंचवि प्रवगण्णइ, जो वासरु छह कम्महं मण्णइ । जो छहब्व-भेय सुणिहालइ, सत्त-तच्च-सद्दहइ रसालइ। सग-दायार-गुणहि अणुरत्तउ, सत्त-वसण-वासहिं विरत्तउ । भट्ट-सिद्ध-गुण-चिंतण-तप्परु, रिणस्संकाइ भट्टगुण सुदरु। भट्ट-दव्वजिरण-चरणहं पुज्जइ, पत्तदाणु दें विसयइं भुजइ । णव-पयत्थ-भैये जो जाणइ, दहविह धम्महं जो रइ माणइ। तहु विण तिवसें भव-हारी, मक्खमि सिद्धचक्क कह सारी । घत्ता भव-भय-सयहारी तिहुवणसारी सिरिपालें जा विहिय चिर। सा रुय-रिणण्णासरिण विग्घ विरणासरिए भणमि लोयमणुधरि वि चिरु ।। xxxx इय सिरि सिद्धिचक्क सुविहाणे महा मंडलेसर सिनि पाल-मायसुपहाणे सिरि महाभब्व-हरसीसाहु गामंकि मयणसुदरि-विज्जालाहो नाम पढमो संधि परिच्छे। समत्तो । संधि १॥ मन्तिमभाग:घना पुरण देवि सरासह विवि समासइ ऐमित्ति हु बंसु जि भणमि। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [१२३ जाटा गामें पढम भरिंगज्जइ, गायणेहें जो महरिणसु मिज्जा । जोल्हाही तह पियय मउत्ती, सा गोविंद सुवेण पउत्ती॥ गोविंदहु तिय धोल्ही बुच्चइ, तहु नंदणु तुणु चेचा सुच्चइ । धणसीहहु सुतीयउ माला, तहु तिय लाडो प्रइ सुकमाला । पत्ता -- पुणु जा सुहिरज्जें दुण्णयवज्जें हुवउ सत्थु पुणु थुगमि ॥ गोपाचलु दुग्गु पसिद्ध णामु, घय-कंचण-रिख, जणाहिरामु। गोउर-पायारंकिउ सुवित्तु, पर नर अगमु न सयहि चित्तु, तहिं पत्थि राउ भरि कुल कयंतु, तोमर-कुल-पायडु मह महंतु ॥ सिरिडू गरिंदु णामेण सूरु, विप्फुरिय पयावें णाई सूरु ।। तहु किनुपालु णंदणु गरिद, णं रूवि कामु सम्वहं मरिगट्ट । तहु रायरज्जि सम्मारणवंतु, सिरि प्रयरवाल वंसहि महंतु । सावय-वय-पालण-विगय-तंदु, रिसि दारण पहावें जो भमंदु । वाटहु जि साहु हुउ मासि घण्णु, रिणय जसेण जेण दिसि मग्गु छण्ण । तहु भज्ज जसोवइ कमलवत्त, तह उवरि उवण्णा विष्णि पुत्त । गुण गण भायण राहु सुजेट्ट, जिण चरण कमल जो भसलु सिद्ध । घत्ता बाटू साह हु सुउ तीयउ पुरण हूप्रो बोहिथ नामें दीहि-भुनो। गुणगण रयणायर जिणवयणायरु नानिगही पिय भज्ज जुमो ॥२॥ जो पुणु बाटूसाहु पयासिउ, तह चउत्थरणंदणु विजयासिउ । हरसीसाहु नामु महि पायडु, जो जिणभरिणय सत्थ-प्रत्थहु पडु । तहु कलत्त परियणहं पहाणी, जिह सिरि रामहु सीया जाणी। देब-सत्थ-गुरुवयरण कलायर, दिव बंदही नामें नेहावर । बीजी भज्जा पुणु वील्हाही, णं गोविंदह लच्छि पसाई। तहु नंदणु पुणु कइयण वरिणउं, जो डुगर रायं निरु मरिणउं । नामें करमसीहु सो नंदउ, अह-निसु जिनवर चरणइं वंदिउ। जउणाही तिहु तियसु पसिद्धी, विहुकुल सुद्धरूव गुण-रिद्धी। पुणु हरसीहहु पुत्ति पउत्ती, नामा नंतमई गुण-जुत्ती। जाइ प्रखंडु शीलुवउ पालि उ, कलि-मलु प्रसुहु सचित्तहु खालिउ । पुणु विननो तहु लहु सुय सारी, सयलहु परिवारहु सुपियारी। एहु गोत नंदउ महि मंडलि, जा रवि-ससि निवसहि माइंडलि । बीयउ एंदणु पुणु भाविय जिण गुणु सकल कलालउ सुद्धमए ।१।। तहु नियसील विसुद्ध पउत्ती, असपालहिय णाम सा उत्ती। गंदण चारि ताहि उर जाया, चारिदाण णं पायउ नाया। पढमु साहु णयणसिह पउत्तउ, णीयमग्गु जि मुणिउ णिरुत्तउ। विजयपालहिय तासु पुण भामिणी, सुहम-शील-महाधण सामिणी। बाटु साहु हु बीयउ तणाहु, धण णामु सुपरियण-किय-सुहु । बील्हाही पिय पय-अणुरायउ, पुत्तहु जयलु ताहि उर जायउ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला एयह सव्वहं मज्झि पहाणउ, सत्थ-पुराण-भेय-बहु जाणउ । कलिकालेंजि प्राणुखरियउ, चेयण गुण प्रखंड विप्फुरियउ । तिण्णिकाल रयरगत्तउ अंचइ, सुद्ध धम्म जो ग्रह-णिसु संचइ । जेण लिहाइ पराण सुहं करु, काराविउ अपमत्तें मणहरु । सो हरुसीह साहु चिरु णंदउ, सज्जण चित्तहु जणिया गंदउ । घता पोमाबइ पुरवाड वंसिउ वणिउ कुल-तिलउ । हरसिंघ संघविहु पुत्तु, रइधक गुणगण णिलउ।। इति श्रीपाल चरित्र पंडित रइधु कृतं समाप्तम् । आमेर भंडार प्रति सं०१६३१ (दिल्ली पंचायती मंदिर प्रति सं० १६७३ से संशोधित) मुाण पउमणंदि तिरयण णिहाणु, सिवणंदि सीसु तहो गुण पहाणु । तहो णंदणु मुणियणपायभत्त, वुच्छिय जणाण पूरण सुसत्त । पढम भीखमु परियण सहारु, णिव्वाहिउ जे चउ संघ भारु । पुणु तहो मणूउ माणदु जाउ, जिणधम्म पुरंधरु विगय पाउ । जिणदासु पुणु वि सव्वहं समत्यु, सिवदासु पवर णामेण सत्थु । पंचमु रुकसुख्खु गुणगण पबीण, छ?मउ चितू जिण समय लीणु। पुणु सत्तमु उत्तम जीव दुक्ख, अवहत्थिय विहल जणाण दुक्ख । घत्ता ९६ पाश्र्वपुराण कवि तेजपाल रचना काल सं० १५१५ आदिभागगुण-वय-तब-सायरु उवरि जसायरु णिरुवम सासय-मूह गिलो। पणविवि तित्थंकर कइयण सुहयरु रिसहु रिसीसर कुल तिलम्रो॥ देविदेहिं णुप्रो वरो सियरो जम्मबुही पारणो, कम्मारीणवि इसणो भय हरो कल्लाण मालायरो । झाणे जेण जिग्री चिरं प्रणहिलो कम्मट्ठ पुट्ठासवो, सोयं प.स जिणिंदु संघवरदो वोच्छ चरित्तं तहो ।। (इसके आगे चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है)घत्ता संसारो वहि तारण कुमइ णिवारण विगय दोस गुण गण णिलया। गीयम पमुह भडारा णिज्जियसारा पणवेप्पियु तिहुवण तिलया ॥२॥ जो पंच महव्यय धरणधीर, सुइ समिति गुत्ति भूसिय सरीरु । जो तुरियउ भायरु धम्म कयायरु रेहइ जिरणमइ मत्ति रउं। सावय-वय उत्तिउ वसण विरत्तउ, सेवदासु वणि विगय-भउ ।।३ तहो णंदण णियकुल कमल मित्तु, सव्वासा पूरण जासु चित्तु । जदुकुल कुवलय रयणीस तुल्लु, पर उवयारहं जो मणि प्रमुल्लु । काराविय बहु संतीय मेण, लच्छिहि फलु गिहिउ सुहमणेण । जिण चरण कमल गंधोवएण, तणसिंचिवि कलि-मलु-हीराउ चित्तिजेण । सम्मत्तरयण भूसिय णियंगु,. जो पालिय सावय वय अभंगु । दाणेहि गुणेहिं विप्रइ षयीण, बुहयणभत्तिए जसु चित्तुलीण। मायरिहिं लोभेण जे पूरियासु, अवगष्णिय वहुदुज्जणु दुरासु । णामेण मदो पिय सुह-णिहाणु, सम-बसण-तिमिर-हरणेकू भाण । रिणयजस धवलिय जे भुवरण सत्यु, जे विद्ध सि णामें परम भव्य Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंगह [ १२५ x घणसण्ह गुरु व भायरुगुणालु, वारे समनउ सरय भासि । ते गाउं उभिउ बुहु तेजपालु। सिरि पासणाहु भव-जलहि जाणु, भो परम मित्त गुण गरुय गेह, महो एत्तिउ दिज्जउ विमलणाणु । परवालिय पयावसुविसुद्ध देह । पत्तापत्ता कइयण सिसु मायरि भुवण सुहायरि परमिट्ट हो मुह जिणमय धु लिणखण? सुहवालक्खण णिय सुकयतु । णिग्गमिया। पयासहि। कइ तेय सुहत्तिएं, घूधलि भत्तिएं तियरण वाएसरि सिरिपासह सुक्नणिरंतरु, महोषिरएवि समासहि ।।४।। गमिया ॥३८ णामें सुरजण साहुदयावरु, सिरिपासचरितं रइयं बह तेजपाल साणंद।। लंबकंचु जणमण तोसायक। धणसिरि रमणि सुहवणेहासिय अणु मणियं सुहई घूघलि सिवदास पुत्तेण ॥१॥ रिणय जस पसरदि सरमुह वासिय । देवाण रयण विट्ठी वम्माएवीए सोलसोदिट्ठो। ल.अंबर पइव्वय सायर, कय गब्भ सोहणत्थं पढमो संधि इमो जाम्रो । भयणंदण गुणमणि रयणायर । अन्तिमभाग सुरजणसाहु सपरियण जुत्तउ, सुपहाण चरिउ पद्धडियबंधु, घूघलिकारा विउरमणिबद्ध । मच्छइ घरि सुहि णिवसंतउ । कम्मक्खय कारणु जिणचरित्तु, विरयउ भवसायर जाणवतु ।। ता संसारु णिए वि विरत्तउ, घत्ता भावण बारह मणि सुमरंतउ । पाउच्छरण कुच्छण सुच्छमई, वउ-तय-संजम-रिणयम-वहा । बेगएं ण उरिणय घर संठिउ, प्रमुणंत पयत्थह कहियलहु, पास जिणिंद अणिद हो ॥३७ मुत्ति रमणि राएणुक्कंठिउ । जिण सासण बड्डउ सयण काल, पणविवि पोमणंद मुणिसारउ, जणु वडउ वरिसउ मेह माल । दिक्खंकिउ सिवणंदि भडारउ । सुपयासउ सासउ महि सुहिक्खु, सुरजस पसरबसि दिव्वासउ, पय बहुउ दडउ रोरु दुक्खु । कय मासोपवास दिव्वासउ । जिण पासु हरउ जर-जम्मवहि, कइ वय वरिस अण्णु परिचत्तउ, महो देउ सुख सुंदर समाहिं । अणसणेणतरण मुएवि सुपवित्तउ । रणंदउ महियलि सिवदासु साहु, धम्मज्झाणे भव-सायर-तारउ, संभवउ विमलु सम्मत्तलाहु । गउ सुर हरि सिवणंदु भडारउ । घूघलि साहु हो कय सुयणमित्ति, घत्ताधवलतिय भमउ धरणियले कित्ति । तहो णंदण पाणंद मण अहिणंदहु महि विगयभय । महि मेरू जलहि रवि-चंदु जाम, ताहं जिणाभावलि णिरुभणमि सावय-जिणधम्मरया ॥३६ सिवदास वंसु णंदउ वि ताम । भीखमु साहु णामचिरुवुत्तउ, विक्कम भरणाह पसिद्ध कालि, पुणु पाणंदु सुपरियण जुत्तउ । परिरायपट्टि धण-कण-विसालि । घरणि उदयसिरि गेह पहाणी, पणरह सय पणरह अहियहि, वं ई हरसिरि णं इंदाणी। एत्तियइ जि संवच्छर गएहि । देवराजु तहो णंदणु जायउ, पंचमिय किण्ह कत्तियहो मासि, रयणु दुइज्जउ जणि विनायउ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] वीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला १०० सिरिपाल चरिउ (श्रीपाल चरित्र) कवि दामोदर मादिभाग . ... तइयउ मिदासु जगि सुहियरु, पाणंद हो जिणदासु सहोयरु । तासु महादे रमणि पउत्ती, साजिणपाय सरोरुह भत्ती। तासु पुत्तु मण सुक्ख मणोज्जउ, लहु भायरु माणिक्कु दुइज्जउ । सा सुरजणहु पुत्तु चउत्थउ, सेवदासु भुवणयलि पसत्थउ । गहिणिहलो सुभत्त जिणिदहो, पाइं सुलोयण जयहु परिंदहु । पत्तातहो कुच्छि उ वण्णउ लक्खण पुण्णउ कुलसुहयरु पुत्तत्तउ । णं जिणवर सासणि दुरिय पणासणि सहइ परम रयरगत्तउ ॥४० पढमउ घूधलि गुणसंपुण्णउ, णररूवे जिणधम्म उवण्णउ । जिणपूया विहि करण पुरंदरु, सील णिहाण सव्वजण सुदरु । क.म्मक्खय कारण मणि भाविउ, जेण जिरिंगद चरित्त कराविउ । तित्थयरत्त गोत्तु णिरु बीउ, माडणि रमणिहि पिउ जस लुद्धउ । णंदणु तहो दसरहु पिउभत्तउ, सिरिचंदु वि णंदउ गुणवंतउ । सा घूघलिहि धरणू लहु भायरु, गहिणि दीयाणेह कयायरु । पुणु विसण्हु बुच्चइ लहुयारउ, कुम सिरिहि परिणिहि मणहारउ । पंच........................ सो कुदकुद मुणिवरु जियक्खु, दिवि दिवि घुयमाणुण्णय विवक्खु । दीसइ पर्सतु जगि कयकयंतु सरतिय रंडत्तणु रय महंतु । मंथइ गोरसु भिण्हइ ण तक्कु, परित पइतवणु गच्छइणवक्कु । रयणायरु णउ पय पुण्ण देहु. गंभीरुण सरयन्भुवि सुमेहु । मंतोवहि बद्दण पुण्णिमिदु, पहचंदु भडारउ जगि अणिदु । तहो पट्टवर मंडल मियंकु, भन्वाण-पवोहणु विहुय संकु। सिरिपोमणंदि शंदिय समोहु, सुहचंदु तासु सीसुवि विमोहु । परवाइ मयंगय पंचमुहु, परिपालिय संजम णियम विहु । तह पट्ट सरोवर रायहंसु, जिणचंद भडारउ भुवणहंसु । वंदिवि गुरुयण वरणाणवंत, भत्तीइ पसण्णायर सुसंत । घता (Incomplete meeter.)(१०२वां पत्र नहीं) प्रति-भट्टारकहर्षकीति भंडार, अजमेर पत्र १०१ महो कव्व करणि गुरुयण, सयला करहुं सहाउ जि महुरसरा। भव्व कुमुय बोहण दिणयर णिण्णासिय कंदप्प भरा ॥२॥ वुच्छामि पापभंजण पवित्त, सिरिपाल गराहिव वर चरित्त। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [१२७ मह मन्झउ छ मम्मिए सुवासु । पढमिल्लु लोउ मुणिवर चवंति, विवरीय सरायण णिह कहति । बीयउ वज्जायातु वि कुइंद, तीयउ मुयंग सिरि सुवि परिणद । केणवि करिउरण धरिउ पुब्ध, रक्खिउणतेण सव्वत्थ भव्व । सममेयसिद्ध तह लोउ एहु, भासिउ पुवायरियति समोह । सिरि सिद्धचक्क बउ वयहंसारु, मुत्तिप्पि य माणस हरण चारु । पुग्विल्ल सत्तु पिक्खिवि मणुज्ज, विरइउ कर भूमी सरहि सज्जु । जिणचंद सीसु भो बंभयारि, दामोयर कइवर भव्वयारि। इक्खुवाय वंस संभूयएण, सुहिणा विणीय मइणा विएण । कुल्लिउ दिवराजह वर सुएण, रणक्खत्तसाहू साहिय भएण। पुण्णिम मयंक वयणे बरेण, परिचत्त पाव भारे परेण। कहि रम्मु कहंतर पुण्यधामु, संजणिय मणोहर फलु सुकामु । जासु सु जिसुणंत भव्वयणलोय, पावंति परम गइ विगय-सोय । भायण्णहो इच्ठमि धम्मठाण, सिरि सिद्ध चक्क कह जगि पहाण । णिय मइ करे विथिर भव्वणाय, मग्गण जण पोसण अयर बाल । तहो वयण सुणि वि हरसिउ कहेइ, सिरि सिद्ध चक्क कह गुणि सहेइ। णिदितिहि दुज्जण सुकइ कन्वु, सज्जण थुवंति सव्वाण भव्वु । अप्पाणउ सहाउण ते मुवंति, सज्जणु-दुज्जणु जगि पत्थि भंति । वइसाणरु उण्ह सहाउ जाउ, हरिणंकु जि सीयलु णिहयताउ । इय ते वि सहावें परिणभत्ति, दुहत्तणु सिट्टत्तणु धरंति । मायण्णहि कह सिरि सिद्धचक्क, णामंकिय विगुणिय पावचक्क । पभणामि समासें पुण्णणाम, सिरि णखत भव्य गुणि गण सुधाम । मायं तहिउ गयणु जि मणंतु, भासिउ जिगणा भइमहंतु। तिविहु जि परिसंठिउ मज्झितासु, अन्तिमभाग दिवराज साहु वर गंदगोण, सिरि णक्खत्तु भवें सुहमरणेण । सिरिपाल गरेसहोपहचरित्तु, धम्मत्थ-काम-सिव कहणसत्त । तं महु विरयउ दामोयरेण, जिणचंद चरण भत्तीधरेण । यंदउ सया वि सिरि सिद्धचक्कु, वउएउ णिहय पहुरियारि चक्कु । जं सरसु वंधि वंजणु विहीण, लक्खण छंदालंकार खीए । अहिहाण पयत्थ वियार भाणु, पायम विरच्छु उ मग्ग लागु । सोहंत कईसर तं चरित्तु, तह अहिउ हीणु घरयलि पवित्तु । गिण्ड म दोसु महोतणउ तेवि, उवयार वरण प्रायर जि जेवि । जे लिहहि लिहावहि सुहमणीस, बम्पवाणहि पढहि विज्जा मरीस । सद्दहहि कयायर जे प्रतंद, पवियारहिं मत्थुवि मणि महिंद । ते सयलवि णंदहु जामतरणि, ससहरु धुवतारा धम्मसरणि । कंचण सुसेलु कुल गिरिउ ताम, सिरि सिद्धचक्कव पयडु णामु । पत्तामह खमहु जिरणेसर वयण सह माइ महासह णिहयमला। वाए सरि ते मुखेसरहो दामोयर वंदिय कर कमला ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] बोरसेवामन्दिर प्रन्यमाला इय सिरिपाल महाराय चरिए जय पयड सिद्धचक्क परमातिसय विसेस गुण णियर भरिए बहुरोर-घोर-दृट्ठ-यरवाहि-पसर-णिण्णासणे। धम्मई पुरि सस्थपय पयासणो भट्टारयसिरि जिणचंद सामिसीस बह्म दामोयर विरइए सिरि देवराज गंदण साहु णक्खत्त णामंकिए सिरिपालराय मुक्त गमण-विहि वण्णणो णाम च उत्थो संधि परिच्छेप्रो समत्तो॥ १०१ पाश्र्वनाथ चरित कवि असवाल (रचनाकाल सं०१४७९) आदिभाग:सिव-सुह सर सारंग हो सुय-सारंगहो सारंग कहो गुण भरियो। भणमि भुषण सारंग हो खमसारंगहो पणविवि पास जिण हो चरिमो॥ भाविय सिरि मूलसंघ चरण, सिरि बलयारयगण वित्थरण। पर हरिय-कुमम पोमायरिउ, मायरिय सामि गुणगण भरिउ । धरमचंदु व पहचंदायरिओ, पायरिय रयण जस पहु धरियो। धरपंच महव्वय कामरण, रणकय पंचिदिय संहरण । वरधम्म पयासउ सावयह, वयधारि मुणीसर भावयहं । भवियण मण पोमारणंदयरु, मुणिपोमणंदि तहो पट्ट बरु । हरि समउ ण भवियणु तुच्छ मणु, मणहरइ पइट्ट जिणवर भवणु। वर भवरण भवणि जस पायडिउ, पायडु ण प्रणंग मोहणडिउ । णडिया वय रयणत्तय धरण, धर रयणत्तय गुणवित्थरण। कुलुखित्ति पयासमि पहु माहासमि, संघाहिव हो वहो परिणद हो , इयं जंबूदीवहं पहाण, भरहंकिउ णं पुर एव णाण। खेत्तंतरि देसकुसठ्ठ रम्म, दो वीसमु जिण कल्लाणु जम्मु । कालिदिय सुरसरि मज्झ गाई, दस्सा छणयंतरि पक्खु णाई। करहलु वरणयरु करहलुसुरम्मु, यणिव परिपालणि पयलहइ सम्मु । चहुवारण वंसि परि कुरुहणाई, भोइव भोयं किउ भोयराउ। माइक्कुदेवि सुन परिमयंद, चंदुवकुवलय संसारचंदु । जसुरज्जि पुव्व परिसाहि मारण, संघाहिवेण विज्जइ पमाणु। सयचउदह इगहत्तरि समेय, माहव धरण सणिवासर पमेय । रयणमय बिंब जिण तिलक सिद्ध, तित्थयरणामु कुल पाउ बद्ध । तहो जय रज्जिउ कय पुहइ रज्जु. प्ररिकुल कयंतु पुह पुहइ रज्जु । तहो समइं रएउ गुणगण पसत्थु, लेहाविउ संघाहिवेण गंथु । जदुवंस विकासणुभाण सेउ बंभुवाय पालउ बह्म एउ। घत्ताएहु रज्जि धुरंधरु उण्णयकंधरु रिणव कुवेर पहचंद गुरु । णयकयसुज्जिणालउ चउवीसालउ मंतत्तरिण पह संतियउ ।' तहो भज्जा तिण्णि कुसुवा पहिल्ल, सुअकरम समरासह गूण गरिल्ल । सूहव बोई एक्खत्त कुमर, मायरि पउमा लक्खरणहे एवर । हुव पंच पुत्त गुणगण महंत, धीरत्तणेण ण मेरु संत। करमसिंह समरणक्खत्त सीहु, तुरियउ सुमकुमर अमरसीहु। घत्ता तहो पट्टवर ससि णामें सुहससि, मुरिण पय-पंकयचंद हो :१॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [ १२९ णिव भोयमंति मंतण वियह, कीरइ जाणे विणु मरणयजम्मु, लक्खरणों जे? भायर गुणड्ड। सहलउ पयडेवि अहिंसधम्मु ।। कमलसिरि जाय तहो तरिणय भज्ज संसार प्रसारउ मुणहि एउ, पइवय-वयधारिणि पिय सलज्ज । सारत्तण बुद्धिहि तच्च हेउ । तहिउ भरि पुत्तउ (म) तिण्णि केय, उक्तंचजि णवणिहि रयणइंतिण्ण जेम । 'बुद्धेः फलं तत्त्व विचारणं च, पढमउ मण णंदणु णंदणक्खु, देहस्य सारं व्रत धारणं च । सोणिग्गु बीउ सघवइ दक्खु । मर्थस्य सारं किल पात्रदानं, लहुभाइग लूणि व कज्जि दस्थ, वाचाफलं प्रीति करं नराणां ।' जिण जत्त पवित्त ण वित्त सत्यु । रयणोहें कि कर जंपिएण, बहु विह विहाण उज्जावणासु, किं वृद्धिएं तच्च अजंपिएण। कइहल्ल कवित्त पसंसणासु । जिण मल्लचरित्त णामकियासु, इउ सुणिवि मज्झ पोसेहि चित्तु, करि कव्वु पासणाहहो चरित्तु । सुम तिलयताय जस पूरियासु । ते णिसुणबि कव्वहं तणउणाभु, अट्टविह पुज्जसुहदाणयासु, बुहु प्रासुवालु हुउ जो सधामु । जो भाइ जेठ्ठ उवसमधरासु । खणु इक्क विलंबिवि भणई तासु, घत्ता किं कुणमि कव्व संघाहिवासु । गुणियणहं गुणायरु मंतणि कुलगुरु जिण गिहतुंग घत्ता विसालउ । हउँ मुक्ख णिरक्खरु प्रमुणिय सक्खरु चिरु महकइ कह कारावण तप्परु संधाहिउ गुरुदाणेणं मयपालउ ॥४॥ सोहणु। तहो रामाणामें रामलच्छि, पावमि किरणोहें रविससि बोहें खज्जोवय किं बोहणु ॥५॥ सुरवइ सईव कुल कमललच्छि । १०२ सांतिनाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) सुउ गुण संघट्टवघाट मुक्खु, रिणव पयरु पियक्खर सयल बक्खु । कवि ठाकुर रचना-काल १६५२ इक्कहिं दिणि जिणहरि ठतएण, पादिभागःजिणसत्थतच्च पयडं तएण । प्रति अनुपम अंगु जित्त अनंगु, घाटेम्मताएं एह संतएण? सांति सदा जगि सांतियरो। दह लक्खण धम्मासत्तएण। रवि जिम कमलाई भवि जन भाई जिणजत्त-पट्ट कयायरेण, तह गुणकित्ति उछाह करो ॥१॥ सयत्त रयणा रयणायरेण । लोणासिंह भाइ णिव दुल्लहेण, बोलिज्जा रामावल्लहेण । जिनगुण चरित्त उदित उग्गत रवि, महो पंडिय लक्खण सुयगुलंग, जगि भवि कम्मल केवलं । गुलराड वंसि धयवड पहंग । बोहति भवि-समूह सरमंडलि किं धम्म प्रहघणु णिग्गुणेण, स्यणोहें बुह णिब फग्गुण । दोस म वहति प्रति प्रलं ॥२॥ दुवई Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला गाथा सिरि पदमनंदि भट्टारकेण । सो जग सांति चरितं पुव्वायरिएहि परिभिउ लोए । तह कह कहरण रिगमित्तें ठाकुर कवि भायर कुरणए ॥ ३ ॥ दोहोवारणी गिम्मल गौरवहि, भागमु सरिसु पयट्ठ । सागर वीर जिनिन्द भरि सेणिक सर्वाणि सुट्ट. ॥४॥ पढहु सुतासु सुभचंददेव, जिणचंद भट्टारक सुभगसेव । सिरि पहाचंद पापाटि सुमत्ति, परिभगहु भट्टारक चंदकित्ति । तहु वारइ किय कहा-पबंधु, सुसहावकररण जगि जेम बंधु । प्राचारिय धुरि हुउ रयरकित्ति, तहु सीसु भलो जग भुवणकित्ति । X X X भट्टारक परणमि रामों जति सासरिण, लार । सासरिण जे चंदकित्ति परणमो पुहवि प्रवर महिमंडलि भवण कित्ति पट्टि जे सार ।। मानो मंडलीइ मोरिय महि, कित्ति वंत जगकित्ति विसास अनेकान्त प्राचार अधिक मति, नेमिचंद सासन रखिपाल || X ता कय सिक्ख - साखा बहु सुजंति, नामाय नाम गणती प्रमित्ति । सिखि हूवउ सुमन साहरण सु-सत्ति, हुव सासण कमल - विकास मित्ति । दिक्खा - सिक्खा-गुण- गहरणसार, सिरि विसालकित्ति विद्याघ्रपार । तहु सिखि हूवउ लक्ष्मीसुचंद, भवि - बोहरण सोहरण-भुवण मिंदु । ता सिक्खु सुभग जगि सहसकित्ति, नेमिचंद हुवो सासनि सुयति । अज्जिका अन्नतिसिरि ले पदेसि, दाभाडाली वाई विसेसि । की कथा सुभग भागम-पमाण, सासय ललोय बुज्झहि प्रयाण । X X X अन्तिमभाग:दुबई 1 एयहि भवर प्रवर गुण संतति, जिरण सोलहम सुह-यरो । ता गुण चरण चारु चितवनि महि, ठाकुर किय कवि-सरो ॥ ५८ ॥ संवत सोलासइ सुभग सालि, बावन वरिसउ ऊपरि विसालि । पुविल्लि कथा जु हती प्रछूट, किम् वाणइ बहु जगि जटाजूट । सांसारिकथा किय सुगमसारि, साह ठाकुर कवि मंडी विचारि । भादव सुदि पंचमि सुभग वारि, दिल्लीमंडल देसु - देस मारि । अकबर जलालदी पातिसाहि, वारइ तहु राजा मानसाहि । संबारहु सज्जन विविह-छंद, मत्तागरण लगिलंकार छंद । जिरणवारिण प्रणु गति लब्धपार, संतिरगाहकथा जलणिही प्रपार । जाहु जिसासरि जैनधम्म, कुलि जे दे साधुसुकिय कम्मु । करमवंसि श्रांवर सामि, लूढाहड देसहु सोभिराम । कइ इरिण गरिंदु जो श्रखयराज, भगवानि सुत न कूरम सुसाज । खंडेलवाल साल्हा पसंसि लोहाडिउ खेत्ताणि सुसंसि । सिरि मूलसंघ नंद्याम नाइ, सुरसह गच्छ सासन सुभाइ । ठाकुरसी सुकवि गामेण साह, कुंदकुंदाचारिज अनुकमेरण, पंडितजन प्रीति वह उछाह । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता यह पुरा पगड जगि जसु मईय मानिसालोय महि मंडलीय । गुरुयण सुभत्त गोविंददास, विषम्म बुद्धि जगि धम्मदास वह वायणिपुर लोबिंद, मंद जिण सासरा जगि जिगिदु । चंदप्पहु जिनमंदिर विसाल, दहु पाति मंडल सामिसाल । दहु जातिवाद वह्मचारि, द पंडित सावय सुधारि । राजा सुकवत तहपुतयुक्त, Time विनोयकांता कलत्त । कीलति विलासरिंग रम बाल, गायंति धवल मंगल विसाल । बासी सुमेध रुतिरुति पमाणि सत्त ईति जगति मा करहु नाणि । दुरभिक्ष पणासउ चोर-मारि, मा होस पीडा रोग भारि । जिरा धम्म चक्क सासरण सरंति, गयणय सह जिम ससि सोह दिति । जिण धम्म-णाण केवल रवीय, अनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह तह भट्ट-कम्भ-ल-विलयकीय एत मांग जिण संतिण ह, महु किज्जहु विज्जहु जद्द बोहि-लाह ||५|| कवि कला कवितणा पयडथ कियउ गुण चिर किय कम्म पणासणे । दुग्गम जो कम्म कये किय सुगमा मुझे ठकुर पसम्न जिन सासले ॥ ६०॥ दुबई संचार कवित्त पण जग मत्ताकल विदय ण कियत सम लोह लालच मय मा मणिदियं ॥ ६१ इति श्री सांतिनाथचरित्रे भाचार्य विशालकीर्ति शिष्य ठाकुर विरचिते बोशांतिनाथ साख-विम्यान कार पंचम संधि समत्तं संपूर्ण म० कीर्ति भंडार, मजमेर १०३ मल्लिरगाह कव्य ( मल्लिनाथ काव्य ) ( जयमित्रहल ) प्रादिभाग ( प्रथम तीन पत्र न होने से नहीं दिया गया ।) अन्तिम भागः मुखि पचंद पट्ट सुपहावरा, पठमरणंदि गुरु विरियत पावस घता परि परि जरा महब धवल मंगलुच्छव गाइज्जहु । पंच सद्दराय हरिसु मुण्णइ, तुगिन्छ र दाइ ? चविह संधु महग्धिम पावउ, बुहवरा जा बट्टठ धणु रायत । चिरु णंदहु कइ हल्लइ गंदण, ग्राहसाहु साहसु घरि वंदरण । वच्छउ बाह्यसाहु कुल सारउ, तुंबर रतराउ सज्जण महारत । गहू गहि प्रसंग संदण, होउ चिराउ कलुस रिकंद । मस्ति-परित जेण वित्पारित, हाविवि गुरिणयरिणवित्यारित । ते दह जे लिहहि लिहावहि, मरिणमारणंद जि पढहि पढावहि । से बहु ने नियमणि भावहि, सत्य-पसत्य वि जे जण दावहि । १११ चिरांद देसु पुहमिणरेसु, जिन सासवच्छ धार । महु वयण सुहावउ गय परतावउ, कुरण चित्त संतोसुरणा ॥ २० ॥ इय मल्लिणाह कव्वं रयणत्तय रयण कुहलु महग्यं । जय मित्तल करणा X भगम्यमाणा वि गिम्मियं भव्यं ॥ X X इति सिरि जयमित्तहल्ल करणा रहवं मल्लिगाह कव्यं समतं ॥ ( अन्तिम पत्र नहीं) आमेर भंडार Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२1 वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला १०४ वड्ढमाण कहा (जिणरत्तिविहाणकहा) जिनरात्रिविधानकथा कवि नरसेन आदिमंगल तव-सिरि भत्तारहो रिणज्जिय मारहो पणविवि अम्मइं जिणवर हो। वय जिणरत्तिहे फलु अक्खमि णिम्मलु भव-सयसंचय दुह-हरहो ॥१॥ हूंगरणिव रज्ज धरा समत्यु, वंदियण समप्पिय भूरि मत्थु । चउराय विज्ज पालण प्रतंदु, रिणम्मल-जस-वल्ली भवरणकंदु। कलि चक्क बट्टि पायड णिहाण, सिरिकित्तिसिंधु महिवइ पहाणु । तहु रज्जि वणी सु-महाणुभाउ, गोलाराडिय अण्णइ प्रपाउ । सेभो सेयाहिउ विदिय णामु, बुहयण कुवलय पालेय धामु । अन्तिमभाग: इय जिण रत्ति विहाणु पयासिउ, जह जिण सासण गणहर भासिउ । जं हीणाहिउ काइमि वुत्तउ, तं बुहयण महु खमहु णिरुत्तउ । एहु सत्यु जो लिहइ लिहावइ, पढइ पढावइ कहइ कहावइ । जो णरु णारि एह मरिण भावइ, पुण्णंह अहिउ पुण्ण फलु पावइ ॥ घत्ता सिरि णरसेण हो सामिउ सिवपुर गामिउ वड्ढमाणु तित्थंकरु । जा मग्गिउ देइ करुण करेइ देउ सुबोहिउ गरु॥ मामेर भंडार १०५ सम्मत्तकउमदी (सम्यक्त्व कौमुदी) कवि रइधू मादिभागः अन्तिमभाग: इय धण कण रयण गुणोह पुण्णु, वितमत्थ गिरि व जिण उर रवण्णु । बहु वि बुहा सिउ रणंतिम सवासु, गोवग्गिरि दुग्गु मही पयासु । तहि महि वय णामें कित्तिसिंघु, मरि-वर-गय-घड णिद्दलण सिंधु । तस्सेव रज्जि या पडु वरिणदु, गोलाराडय-कुल-कुमय-चंदु। चिरु हूबहू महरू णाम साहु, गुण मंदिरु सीया भज्ज गाहु, तहु णंदणु जिपय-पयम-भाण, विहडिय जणाण अद्धार ठाणु । लडकहिं दाण पालिय सधम्म, रूपा पिय मम तुहू रूप रम्म । तह जिस्सुमो तिस्सुमो सुक्खयारि, डूंगररिणव भंडाराहि यारि। सिरि सेऊसाह पसिद्ध साह, संजाउ जासु वर धम्म लाहु । सुहगा तहु पिय यम सुह पवित्ति, मलहारिणि णं जिणणाह कित्ति । x xx पुरण टेकणि जंप विय सियासु, एत्यु जि गोवग्गिरि सुहपयासु । तोमर-कुल-कमल-विपास-मित्त, दुब्वार वैरि संगर प्रतित्तु । हुय चारि वि णंदण जगं पाणंदण धम्मकज्ज पुरषरण वरू। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [१॥ भवियण मण सुदर पुज्ज पुरंदर मग्गरणजण दालिद्द हरु ॥ गुहिं गरि, जेट्ट, सुह भावणु, सुह सहयरु अरियण संतावणु। सिरि माणिक्क साहु विक्खायउ, तिय लक्खरण सिरि सुह अणुरायउ । तहु गंदणु चउक्कु गुण भूसिउ, पढमु वण्णु कइयण हिय संसिउ । ही सिंधु हरिसुप्पायणु अण्णो, पहरूरूब महाय पसण्णो । कुमुमचंदु चंदुव सु-कलालउ, जिरण पय पुरउ गमिय पिय भालउ । पुणु यउ संदणु सकियत्थे, पत्ता जो जिउ पिय रइ सो पाण-णिय सुय मंडण मंडिय अण्णह । शंदउ सिरि सुक्ख अखंडउ, पाइय चंदु भायर वंत कहा। इय चिरू णंदउ सुह लच्छि गहु, सिरि वीयराय जिण समउ एउ। णंदउ रिणग्गथ रिसिंदविंद, ये दुविह महातव पह-दिणंद । णंदउ महिवइ सिरिकित्ति सिंघ. समरंगण पंगण परि अलंघु । जे धम्म कम्म णिरु साधहाणु, सम्मदंसरण भावरण पहाणु। गोपालय वासिय सावयावि, णंदण मोह अण्णयि सभावि । गंदउ गोलालाडयउ वंसु । Incomplete matter. नोट-प्रस्तुत प्रशस्ति अधूरी है, इसे नागोर के भट्टारक देवेन्द्रकीति ने पूरी नहीं उतारने दी थी। संघाहिउ असपत्ति असंकिउ, ससि-पह कर णिम्मल जस अंकिउ । रिगर सिय पाव-पडल पिरु रंभइ, जग पइट्टाविय जिण विबइ। तहु थिरमामं जाया भण्इ, जिण सय लक्खणजंसु मरणोज्जणु, तहु सुह माघहु परियण गंजणु। तह तिय होत्था] पुत्त वियक्खणु, उधरण देवचन्द सल्लक्खणु। सेऊ साहुहु णंदणु वीयउ, सिरि कुसुराज सयं पि विणीयउ । तस्स पिया मुणिदाण कयायर, लोहब णामें सुह भावण पर। बीई वोरा जिण गुण मण्णइ, रूवे रइ सीलेणं जाणइ। णंदणु णमिदासु सुह-योसणु, पावणु परियण-जणमण पोसण। पुणु सेउय साहहु सुउ तुरिभो, पर उवयार-रयरण-गुण भरिमो। जुजिय जुत्ता जुत्त वियारो, णामें जे जिय हिय जिण्यारो। १०६ जोगसार (योगसार) श्रुतकीर्ति (रचना १५५२ लि. १५५२) आदिभाग: परमविवि जिण वीरह णाण गहीरहु तह गिर गणि गोयम हससु । जह जोय पउत्तउति-जय-पवित्तउ अक्खमि भवियहु तं जि कमु । सन्सह वम्म जोउ जगि सारउ, जो भव्वयण भवोवहि-तारउ । सोलई सिद्धिय सिद्ध मणंतइ, जम्मण-मरण-भवोवहि-चत्तइ । सासय पंत चउट्टय लाह, दंसरण-रणंस णाण सु-पवाहई। वीरिय रणंत सुक्ख तं जागाइ, सम्मत्तादि गुण विराय। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] इसके बाद पंचपरमेष्ठियों का स्तवन है अन्तिमभाग: घत्ता गण जि बलातकार वागेसरि, गच्छ पसिजाय भो । तह पोमरणंदि गुरु गणहरु, बहु- सुद-तवणु रायो । तह बहु सिस्स जाय गुणवंतई, विज्जा विरणइ सीलमइ वंतई । देविंदकित्ति हिहाण, मालवदेस पसिद्ध पहाणई । जहसु पवाहिय सावय वग्गई, तिहुवणकित्ति सिस्समइ उग्गई । ते मंडलायरिय विक्खायनं, सिसवग्गतह धम्मगुरायई । पुण सुकतिपय प्रहिहाण, प्रायम-भेय किंच सो जाई । धम्मपरिक्खा गंधु खडकम्मई, पत्त परिक्ख तहय मुरिण धम्मई । तं हरिवंस सगं चिरु पिक्खउ, पढडिया छंदेण पलक्खिउ । परिमिट्ठपयासु तदंतर, सिद्धचक्क कह वह मंहत्तर । पुवर जोय-भारतद प्रक्खिउ, संकर चिर पारंभिवि रक्खिउ । जो भाणु मरण सो प्रणुरायठ, णाणाणउणिए वि विक्खायउ । तह सुत्ताणु सार पारंभिउ, पद्धड़ियाँ छंदें मरिण विभिउ । गिह वावार तेम सो रहियउ, सोवइ मरु सुदकित्तिर्हि कहियणउ । तं किय उस उष्णउं बहु पय पुण्णई जं चिर प्रायम सहि म्रो । जायहु गुण प्रक्खि भारण पलक्खिय संकर अणु लोएं मंहियो ॥ ७१ ॥ वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला दुबई घत्ता रणारणा वरण कम्मखय-कारण तं सुउत्तम भइ । सुक्क - भाणु जिण सासरगु तव पय पुर पवित्त श्रो ॥ चेवि सहस मुणि प्रत्थ भउव्वई । जे सद्दह ते गइ सुह गच्छई । प्रत्थ जि दय-धम्मह मण लीणइं । ते सासय- सुह लहहि पवीणई । fareय रायहु ववगइ कालई । पणारह सय ते वावण अहियई । उगंथु तं जाउ उण्णउ सेय पक्खु मग्गसिर मणुण्णउ । पंच... दासरू जायउ । [सद्द प्रत्थ पुण जग विक्खायउ । मंडवचलगढ़ जो सुपसिद्धउ । साहिं गयासु जयम्म गरिदउ । साहि सीरु ताहि सुइ गंदणु । दमण सिट्ठति प्रागंणु । पुंजराज वरिंग मंति पहाणइ । ईसरदास गयंद प्राणई । वत्थाहरण देंस बहु पावइ । - णिसिधम्महु भाबण भावइ । (सावय- धम्म) मरणहि भरगुरायउ । तह जेरहद यरु विक्खायउ । हर सावय मरिण हिट्ठरं । मिरगाह जिणहर मुट्ठि । तह यह गंधु जाउ परिपुष्ण ं । णिसुरिउ सखय संघ मगुण्णउं । मरण प्रारदिय सावय वग्गई । जयसिंघ मिदास सु-हरिसंगई । अवर जि भरणाइय गंण लिहाइय पुष्ण पवि ढप्पिउ तह धरणउ । कुष्णारण विहट्ट गाण पवट्टई । सो सिव संपइ सुह जरगउं ॥ ७२ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह आदि दुवई १०८ सुगंधवहमी वय कहा (सुगंषदशमी देसहं भरहे णासणि वरिटूह, चउ विह संघ भब्वहें । व्रत कथा रासु) रिसह जिणंद पमुह वीरंतइं सांति करेंहि सव्वहें । इयजोग झाणाणुसरे चिरसूरि पउत्तियाण अणुसारे । भगवतीदास बहु जोयस्स विसेसो पढभा रंभेण संकर हेसो। कय सुयकित्तिसउण्णो भविया प्रायणि चित्त संतोसो। वीर जिरिणदं चरण जुग पणविवि गोयमुजान विसाला। सो बुहयण गुरुपय भत्तो णाम विदीयो परिच्छेप्रो॥ बउ सुगंधदसमी गुण निम्मल भासमि रासु रसाला। समत्तो॥ भविकजण यह दसमी वउ कोजइ, दुक्ख जलांजलि दीजह । तेरापंथी मंदिर प्रति जयपुर सं०१५५२ अन्तिमभाग: गुरु मुणि माहिंद सेणु १०७ मउड सत्तमि कहा (मुकुट सप्तमीकथा) भट्टारउ चरण कमल नमि तासो। भगवतीदास रुहतग वीर जिनालय मणिहरि आदिमंगलपणविवि पंच परम गुरु सारद परि वि मरणे । भरणत भगौतीदासो॥ सत्तमि मउड तणउ फलु भासमि भेउ जणं । भविक जण यहु दसमी वउ कोजइ । अन्तिमभाग: पर णारि जो गावहिं मन बचि अण्णुवि जो णरु णारी करणी भाउधरे। मुहि चतुर मनि धारी। सो एरिसु फलु लहसी वमु परि निहारिण के। राज रिद्धि सुर नर सुहु भजिवि गुरु मुणि माहिदसेण चरणयुग धर विमणां । दासुभगोती भासै निमुणहु भविकजणां ॥१४ मुकति वरहि वर नारी। पढहि गुणहि जे बुहियण सुरणहि सुजाण गरा। भविकजणु यह दसमी वउ कोजइ, राज रिद्धि लुमंगलु दिण दिण ताह धरा ॥१५ बुक्ख जलंजलि दीजइ ॥२७ इति मउडसत्तमि कहा समत्ता। इति सुगंध दसमी कहा समात!। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ कुछ मुद्रित ग्रन्थ प्रशस्तियाँ २०६ सयंभुछंद (अपभ्रंश) महाकवि स्वयम्भू मादिभाग:-. जो पाउमस्स सारो तस्स मए लक्ख लक्खणं सिट्ठम् । एताहे मवहंसे साहिज्जन्तं णिसामेह ॥१॥ इहि मारा विन्दु जुमा पावसाणम्मिजह हुवन्ति लहू । तह कत्य वि छन्द वसा का अव्वा उहह पारावि ॥२॥ उपारो बिन्दु जुमो पभावसारणम्मि लहू चउमुहस्स । मन्तिमभाग: पद्धड़िया पुण जेइ करेन्ति, ते सोउह मत्तउ पउ घरेन्ति । विहिपहिं जमउ ते णिम्ममन्ति, कडवम अहिं जम अहि रन्ति ॥३० प्राइहिं पुरण घत्त समामणन्ति, जं पावसाण छड्डणि भणन्ति । संखारिणबद्ध कडवेहि संधि, इह विविह पभारहिं तुहं विबन्धि ॥३१ संधि भेप्राइं ते रइम एम, छड्डरिणयावि पत्ता भण सु भेन । अण्णाउ विविह पारिपाउ, पत्ताउ छड्डरिण विभारिमाउ ॥३२ तीए सुण वि बज्झन्ति ताउ, लोएहि केण विण्णाण ताउ । सालाहणेण धवलाई जाई, विरइ माइं भरणे आई बहु विहाई ॥३३ इम एम मसेसव बज्झन्ति, सपल उणा परिन। सुपसिद्धा लोए पंडिग्र, जणेहिं समाप्ररिम ॥३४ संघिहि आइहिं घत्ता, दुवई गाहाडिल्ला। मत्ता पद्धडिपाए, छडूणियां वि पडिल्ला ॥३५ संघियत्ता जहाजिणु पच हुँ रत्तुप्पलहिं, दीवा वे विणुवारि । एक्कमि जम्मण पुणु माणु, छिण्णहु अट्ठ पहा (या) रि ॥३६ अह दुवईपडिहि अमिण कण्ण गंडत्थले विउरणो विट्ठ पुच्छरो। रिणह प्रवलिकर पहर परिसर थिरकणिज्ज सरीरमो ।। छल दलिवलय मधुर झंकार विराजित कुम्भ मंडलं । तव नम नेन नाथ नाकामत्ति परिकू पितोपि केसरी ॥३७ अह गाहा जहातुम्ह पन कमल मूले अम्हं जिण दुःख भावत विप्राइं। . ढरु दुल्लिपाइं जिणवर जं जाणसु तं करेज्जासु ॥३८ अह अडिल्ला जहा प्रक्क पलास विल्लुप्रड रूसउ, धम्मिम एम एम महु प्ररु तूसउ। डुदाइच्च बह्म हरिसंकरु, जे मेराउ देउ हरिसंकर ॥३६ मत्ता जहाजयहि जिणवर सोम प्रकलंक, सुर सण्णम विगम मम । राम-रोस-मन-मोह वज्जिम, ममण णासण भव-रहिम ॥४० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनप्रन्य-प्रशस्तिसंग्रह [१३० पद्धडिया जहा जिण णामे ममग्गल मुमइ दप्पु, केसरि वसहो ण डसइ सप्पु । जिण णामे रण डहइ धन धमन्त, हुम वह जालासप पज्जलन्त ॥४१ जिण णामे जलणिहि देइ थाहु, मारण्णे वण्णु ण वधइ बाहु । जिण णामे भव सवसन संखलाई, टुट्टन्ति होन्ति खण मोक्कलाई ॥4२ जिण णामे पीडइ गहु ण को वि, दुम्मइ पिसाउ मोसरह सो वि । जिण णामे डुग्गम ख हिज्जन्ति, मरणुदिरण वर पुष्णइं उन्भवन्ति ॥४३ जिण णामे छिदे वि मोहजालु, उप्पज्जइ देवल्ल सामि सालु । जिण णामें कम्मइं णिद्दले वि मोक्खग्गो पइसिम सुह लहे वि ॥४४ छडुरिगया जहाजिण णाम पवित्ते, दिवसुव्वन्ते, पाउ असेसु वि छज्जइ। जंजिण मणे भावइ, तं सुह पावइ, दीणु ण कासु वि किज्नइ ॥४५ संगी प्रवज्ज अहिणम संहृत्तं तालमे मनिह सुणसु । सत्तच्छन्दो रूपं सत्तताले हुवे कव्वे ॥४६ पंचच्छन्दो रूमं पंचत्तालं च होइ कन्वम्मि । तेहिं रूएहि रइमं तित्ताल तं मुरिणज्जासुं॥४७ छन्दो रूएहिं विहिं जुमलं चक्कलममेव च चऊहिं । कुलभ सेसेहिं हुवे चक्क समं तेहि तेहितं ॥४॥ पत्ताछडुरिणमाहिं पद्धडिमा (हिं) सुअण्ण रूएहि । रासा बन्धो कव्वे जणमण महिरामनो होइ ।।४६ एक्क बीस मता णिहणउ उद्दाम गिरु । चउदसाइ विस्सामहो भगण विरह थिरु॥ रासाबंषु समिळु एउ अहिराम मरु । लहम तिपल भवसाग विरह प्रमुहर अरु ।।५० पराधीर जिण एव जपरिणहि बरसर णिला । पहप दुरिम संतावहरण गुरु मोह विलय ॥५१ जहा-प्रजइ विण वसुमइ मग्गहं इह को वि संचरइ । पइ किलेसे ससिणि सुद्दे प्रावि जइ फुरइ । तो वि एहु मोरी वाणि विलट्ठ कला गवइ । अहिणव घण पत्र पसरहि अवहंसे हि रसइ ॥५२ पंच संसार हमं बहुलत्थं लक्ज क्खण विसुद्धम । एत्थ सग्रंभुच्छन्दं अवहंसन्तं परिसमत्तम ॥५३ संवत् १७२७ वर्षे आश्विन सुदि पंचम्यां गुरी राम नगरे लिखित मिदं कृष्ण देवेन । Journal of the University of Bombay, Vol. V, November, 1936, Part III. ११० भविसयत्त कहा (कवि धणवाल) आदिभागजिण सासणि सा तु रिण म पाव-कलंक-मलु । सम्मत्त विसेसु निसुणहुं सुय पंचमिहि फलु ।। पण विप्पिणु जिणु तइलोय बंधु, डुत्तरतर भव णिबुढ खंधु।। भन्वयण वयण पंकय पयंगु, कय कसण मोह तिमिरोह भंगु । xxxx इय भविसत्त कहाए पयडिय धम्मत्थ काममोक्खाए बह धणवाल कयाए पंचमि फल वण्णणाए भविसयत्त जम्मवण्णगो नाम पढमो संघी सम्मत्तो।। अन्तिमभाग :पत्ताधक्कडवणिवंसि माएसरहो समुन्भविण। धणसिरि देवि सुएण विरइउ सरसइ संभविण ॥८॥ " दूरयर पणासिय पावरेणु, एह जा सा बुच्चई कामघेणु । फलु देइ जहिच्छिड मत्तलीइ, चिंतामणि बुम्बइ तेणे लोह। एह जा सा बुबा मुवणसंति, मह मुक्ख हो सुह सोवाण यति। सुर वल्लर परंपर मवरण मिमउ चरण कम (१) मानसं महण जलहिग परोस जाम समदम । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] नर नारिहि विग्ध अवहरे, जो जं मग्गइ तहो तंजि देइ । निव्वाह जो निय सिवि भरेण, सुपुन्नवंतु किं वित्थरेण । उववास करइ जो सत्तसट्ठि, उज्जमरिंग तो सुहितुट्ठि पुट्ठि । जइ भज्जइ अंतरि विग्धु होइ, तहु सद्दहाणि फलु तं जि तोइ । पत्ता धत्ता हो कि बहुवाया वित्यरेण, एक्कवि चित्ति महत्तरिण । भरणुमोएं ताहि तिहुं संपन्न गुणं तरि ॥१०॥ वीर सेवामन्दिरन्थमाला भरि उरि प्रइरायइ दीहरच्छि धरणयत्तहो गेहिरिण धणयल च्छि । उज्जमियताएं चिरु संजुष्ण भाविय धरणमित्तं तहिं सुएण । तह कित्ति सेण नामुज्जयाइ, अणुमोइय वज्जोयर सुनाइ | तहो फलिण ताए तिण्णमि जरगाई उ थइ भवि सिवलोयहो गयाइं । पहिलइ घणयत्त हो घणयदित्ति, इयर बिन्नि वि धरणमित्तु कित्ति । विज्rs भवि पंकयसिरि सरू सुउ भविसयत्तु भविसारण रूम । तिय लिंगु हणि वि तिन्निमि सुतेय पहचूल रयरण चूलाइ देव । तर यह भविसत्तु वि करणय तेज हुउ दहमई तई जि विमारिण देउ । चउथ भवि सुव पंचमि फलेण निड्डु कम्मु झारणानलेण । निसुत पढतहं परिचितंतहं प्रप्प हिय । धणवालि तेरा पंचमि पंच पयार किय | ११| इय भविसयत्त कहाए पर्याडय धम्मत्य काम मोक्खनाए गृहषणवाल कयाए पंचमि फल वण्णगाए कमलसिरि भविसदत्त भविसागुरूव मोक्स गमणोणाम बावीसमो संघी परिच्छेमो सम्मत्तो । १११ महापुराण महाकवि पुष्पदन्त प्रादिभाग— सिद्धिबहू मरणरंज परमणिरंजण भुवरण कमल सरणेसर । विवि विग्धविणासर रिगकवमसासरण रिसहणाहु परमेसरु ॥ • सुपरिक्खिय रक्खिय भूय तण, पंचसय घरगुण्य दिव्वतरण । पयडिय सासण पयणयर वहं, परसमय भरिणय दुण्णयर वहं । सुहसीलगुणोह णिवास हरं, देविद थुयं दिव्वास हरं । जुइ गिज्जय मंदर मेहलयं, पवि मुकक हार मणि मेहलयं । सोहंता सोयरमिय विवरं, उब्वासिय बहुणारय विवरं । सुरणाह किरीट पट्टि पर्य, भइ पर पसाय पट्टि पयं । णवतररिण समप्पहभावलयं, रिगर दुस्सह दुम्मण भावलयं । हरि मुक्क कुसुम चित्तलियणहं, प्ररुहंत मरणंत जसं प्रणहं । सीहासरण छत्त राय सहियं, उद्धरिय परं स किवं सहियं । दुदुहि सरपूरिय भुवण हरं, बंधू फुल्लसं हिरणहरं । पुरुए व जिरगं जिय कामरणं, दूरुज्झिय जम्म-जरा-मरणं । विरयं वरयं रिणय मोह रणं, उद्धय भीम णिय मोह-रयं । पणमामि रविं केवल किरणं, मत्ता समयं मरियं किरणं । घत्ता अवर वि पणविवि सम्मई बिरिगहय दुम्महं कोन पान विवस 1 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह [१३९ बासु तित्यिमई लडउ णाणसमिद्धउ रिणम्मलु इय महापुराणे तिसट्ठि महा पुरिस गुणालंकरे महाका सम्मइंसणु ॥१ पुप्फयंत विरइए, महा भब्व भरहाणमणिए महा कन्वे x x x x जिणिद णिव्वाण गमणं णाम दुत्तरसय परिच्छेदाण महापुराणं इय महापुराणे तिसट्टि पुरिसगुणालंकारे महाकइ सम्मत्तं ॥१०२ पुप्फयंत विरइए महाभव्व भरहाणु मण्णिए महाकन्वे ११२ जसहर चरिउ (यशोधर चरित) सम्मइसमागमो णाम पढयो परिच्छेप्रो समत्तो ॥१ महाकवि पुष्पदंत अन्तिमभागः आदि भागःसिद्धि विलासिणि मण हर दूएं, मुद्धएवी तणु मंभूएं। तिहुवणसिरिकंतहो अइसयवंतहो अरहतहो हय ___ वम्मह हो। गिद्धण सधण लोय सम चित्ते, पणविवि परमेट्ठिहि पविमल दिट्ठिहि चरण जुयल णय सव्वजीव णिक्कारण मित्तें। सय महहो। सहसलिल परि वढिय सोते, केसव पुत्ते कासव गोत्तें। कोंडिल्ल गोत्तणह दिणयरासु, विमल सरासय जणिय विलासें, वल्लह परिंद घर महयरासु । सुण्ण भवरण देवलय णिवासें । गण्णहो मंदिरि णिवसंतु संतु, कलि-मल पबल पडल परिचत्तें, अहिमाणु मेरु कइ पुप्फयंतु। णिग्घरेण रिणप्पुत्त कलतें। चितइ य हो घण णारौ कहाए, गइ वा वीतलायकयण्हाणे, पज्जत्त उ कय दुक्किय पहाए। जर चीवर वक्कल परिहाणें। कह धम्म णिबद्धी का वि कहमि, धीरें धूलिय धूसरियंगें, कहियाइ जाइ सिव सोक्खु लहमि । दूरय रुज्झिय दुज्जण संगे। पंचसु पंचसु पंचसु महीसु, महि सय णमलें करि पंगुरणे, उप्पज्जइ धम्मु दया सहीसु । मग्गिय पंडिय पंडिय मरणें। धुउ पंचसु दससु विणासु जाइ, मण्ण खेड पुरवरि णिवसन्ते, कप्पंधिवख इ पुणे पुणु वि होइ । मणि भरहंत धम्बु झायन्ते । काला वेक्खइ पढमिल्लु देह, भरह सण्ण रिणज्जे णय णिलएं, इह धम्मवाइ सिय वसह केउ । कन्व पबंध जणिण जण पुलएं। पुरुएउ सामि रायाहिराउ, पुप्फयंत कइणा चुय पंके, प्रणंदिउ च उसुरवर णिकाउ । जइ अहिमाण मेरु णामके। पत्ताकयउ कव्व भत्ति? परमत्थे, जिण पय पंकय मउलिय हत्थे । वत्ताणदाणे जणधणदाणे पई पोसिउ तुहं खत्तधरु । कोहण संवच्छरि प्रासाढइ, तब चरण विहाणे केवलणाणे तुहं परमप्पउ परम परु। दह मइ दियहि चंद रुइ रुवइ । पत्ता अन्तिमभागः- . चिरु पट्टणे छगे साहु साहु, 'णिरु णिरहहु भरहहु बहु मुणहु कइ कुल तिलएं भरिणयउं। मुपहाण पुगणु तिसट्रिहि मि पुरिसहं चरिउं समाणि'. तहो सुउ खेला गुणवंतु साहु । उ ॥१४ तहो तणरुहु वीसलु णाम साहु, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० : वीरो साहु जियहि सुलद्ध पाहु । सोयारु सुणाण गुण गण सरगाहु, एक्क या चित चित्ति लाहु । पंडिय ठक्कुर कण्हपुत्त, उवयारिय वल्लह परममित्त । कइ पुष्फयंतु जसहर चरितु, किउ सुट्ठ, सद्द लक्खरण विचित्तु । पेसहि तर्हि राजलु कउलु प्रज्जु, जसहर विवाह तह जणिय चोज्जु । सयलहं भव-भ्रमण भवंत राई, महु वंछिय करहि निरंतराई । ता साहु समीहिउ कियउ सव्वु राउलु विवाहु भव-भवण भब्बु । बक्खाणि उ पुरउ हवेइ जाम, संतु वीसल साहु णाम । जोयरिण पुरवरि णिवसंतु सिठ्ठ साहुहि धेर सुत्थियणहु घुट्ठु । पण सट्ठि सहिय तेरह सयाई, णिव विक्कम संवच्छर गयाइं । वसाह पहिल्ल पक्खि बीय, रविवार समित्थिन मिस्सतीय। चिरुवत्थु बंधि कइ कियउ जंजि, पaडिया बधि महं रइउ तं जि गंधव्वें कण्हड गंदणेण, प्रायहं भवाई किय थिर मरणेण । महु दोसु ण दिज्जइ पुब्विं कंइउ, कई बच्छराई तं सुत्तु लइउ । वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला धत्ता जो जीवदयावरु गिप्पहरण करु बंभयारि हय-जर-मरण । सो माण णिसंभरणु धम्मु णिरंजण पुप्फयंतु जिणु मह सरण ॥३० पावरिण सुभणि मुद्धाबंभणि, उरुप्पों सामलवण्णें । कासवगोत्तिं केसवपुत्तिं, जिण पयभत्तिं धम्मासत्तिं । वय संजुत्तिं उत्तम सत्तिं, विमलियसं किं महिमाणं किं । पाहासय तु डि कइरणा खड, रंजिय बुह सह कय जसहर कह जो प्रायष्ण चंगर मण्णइ, लिहा लिहावइ पढइ पढावइ । जो मणि भावइ सो गरु पावर, विहुणिय षणरय सासय संपय । जण वय गीरसि दुरियिमलीमसि, करिणदायरि दुसहे दुहयरि । पडिय कवालइ गर कंकालइ, बहु रंकालइ भइ टुक्कालइ । पवरागारि सरसाहारि, सहिं चेलि वरतंबोलि । महु उवयारिङ पुगिं पेरिउ, गुण भत्ति ल्लउ ण महल्लउ । होउ चिराउसु बरिसउ पाउसु, तिप्पs मेइरिण धरण करण दाइ णि । विलसउ गोमिणि णच्चउ कामिणि, घुम्मउ मंदलु पसरउ मंगलु । संति वियंभउ दुक्खु सुि भउ घमुच्छाह सहुं र गाहि । सुहु दउ पय जय परमप्पय, जय जय जिणवर जय भय भय हर । विमलु सु केवलु गार समुज्जलु, महु उप्पज्जउ एत्तिर दिज्जउ । मदं प्रति कब्बु कति, जं हीणाहिउ काई मि साहिउ । धत्ता तं माय महासइ देवि सरासइ णिहय सयल संदेह-दुह । महु खमउ भडारी तिहुवरणसारी पुप्फयंतु जिण धमण कह ।। ३१ इय जसहर महाराय चरिए महामहलरगण्ण करणा हर महाकइ पुप्फयंत विरइए महाकब्वे चंडमारि देवय मारितराम धम्मलाहो णाम चउत्थो परिक - समतो ॥४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ णाय कुमार चरिउ (नाग कुमार चरित) ( महा कवि पुष्पदन्त ) प्रादिभाग: पण वेष्पिणु भावें पंच गुरु कलिमलवज्जिउ गुणभरिउ । माहासमि सुय पंचमिहे फलु गायकुमार चारुचरिउ ॥ ध्रुवकं 't जंनग्रन्थ- प्रशस्तिसंग्रह दुविहालंकारों विप्रंति, लीला कोमलई पयाई दिति । महकव्वणिहेलणि संचरंति, बहु हाव भाव विभम धरंति । सुपसत्यें प्रत्थे दिहि करंति, सव्बई रिगष्णाण संभरंति । णीसेस देसभा स उ चवंति, लक्खणइं विसिटुदं दक्खवंति । अरुंद छंद मग्गेण जंति, पाणेहि मि दह पाणाई लेंति । वह मि रसेहि संचिज्जमाण, विग्गह तएण णिरु सोहमारण । चउदह पुब्बिल्ल दुवालसंगि, जिरणवयण विणिगय सत्तभंगि । वायरण वित्ति पायडियणाम, परियउ मह देवि मणोहिराम । पत्ता सिर कण्हराय करयलि णिहिय असिजलवाहिणि धवल हरसिहरि हममेह उलि पविउल मण्डखेड मुद्धा सव भट्ट, कासव रिसिगोतें विसाल ऋितु । हो मंदिर णिवसंत संतु, महिमानमेरु गुणगरणमहंतु । पत्थर महियणवियसीसएण, विणएग महोवहि सीसएण । दूरुज्मिय बुक्किण मोहरोण गुणधम् प्रवर वि सोहणे दुगायरि । णयरि ॥१ भोपुप्फयंत पडिवण्णपरणय, मुद्धाई सवभट्ट तणय | तु बाई सरिदेवीरिणकेउ, तु म्हं पुष्ण णिबंध हेउ । तुहुं भव्वजीव पंकरुह भाणु, पई धरणु मणि मण्णिउ तिरण समाणु । गुणवंत भत्तु तुहुं विणयगम्मु, उज्झाय पयासहि परम धम्मु, घत्ता श्रलग्गिड भावें दिणिजि दिरणे नियमरण पंकइथिरु थविउ । कइ कव्वपिसल्लउ जस धवलु सिसु जुयलेण पविण्णविउ ॥२ भरणु भणु सिरिपंचमिफलु गहीरु, प्रायणाहि णायकुमारवीरु । ता वल्लहराय महंतण, कलि विल सिय दुरिय कयंतएण । कोंडिगोत्त ह ससहरेण, दालिद्द कंद कंदल हरेरण । X X [ १४१ X X इय णायकुमार चारुचरिए गण्णामंकिए महाकद्द पुप्फयंत विरइए महाकव्वे जयंधर विवाह कल्लाजवण्णणो रणाम पढमो परिच्छेउ समत्तो ॥ अंतिमभागः गोत्तम गणहर एवें सिट्ठउ, सूरि परंपराए उब इट्ठउ । णायकुमार चरितु पयासिउ, इय सिरि पंचमिफलु मई भासिउ । सो गंदउ जो पढइ पढाव, सो गंदउ जो लिइ लिहावइ । सो गंदउ जो विवरि विदावर, सी गंदउ जो भावें भावइ । रगंदउ सम्मइ सामरण सम्मइ, णंदउ पय सुहु गंदउ गरवइ । चितउचित वरिसउ पाउसु गंदउ गण्णु होउ दीहाउसु । roup संभवंतु सुपवित्तई, णिम्मल दंसरण गारण चरित्तरं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला गण्णहो होंतु पंचकल्लाणह, परमप्पयलीणहो विलय विहीणहो सरमि चरण सि रोय-सोय-खयकरण विहाणई। जिण णण्णहो जसु भुप्रगत्तए विलसउ, जय अणुवम-सिव-सुह करण देव, णण्णहो परिवसुहार पवरिसउ । देविंद फणिंद रिद सेव । सिवभत्ताई मि जिणसण्णासें, जय गाणमहोवहि कलिय पार, बेवि मयाइं दुरिय पिण्णासें । पारा विय सिव पहे भवियसार । बंभणाई कासवारिसि गोत्तई, जय कम्म भुवंगम दमणमंत, गुरुवयणामय पूरिय सोतई। मंताण बीज मण गह कयंत । मुद्धाएवी सवणासई, जय चउ गइ डरिय जणेक्कसरण, महु पियराइं होंतु सुहधामई। रण रहिय सुयण-दुहणिवह-हरण । संपज्जउ जिणभावें लइयहो, जय संयम सरवर रायहंस, रयणत्तय विसुद्धिदंगइ यहो। हंसोवम बुहयण कय पसंस । मझ समाहिबोहि संपज्जउ, जय कोह-हुप्रासण पडर वारि, मझ विमलु केवलु उप्पज्जउ । वारिय-तम केवल णाण धारि । जय सासय संपय हिययवास, पत्ता वासव सय सेविय सुह णिवास । गण्णहो मज्झ वि दयकरउ पुप्फयंत जिणणाह पियारी। जय भविय सरोरुह कमल बंधु, खमउ मसेसु वि दुव्वयणु वसउ वयणे सुयदेवि भडारी ॥१ बंधुर गूण णियरस बहुलसिंधु । भवण वावारभार णिवहण वीर धवलस्स । घत्ताकोंडेल्ल गोत्त णहससहरस्स, पयईए सोमस्स ॥१ जयदेवणिरंजण भव-भय भंजण मंरण भवण महा कुड दब्वा गन्भ समुन्भवस्स, सिरिभरहभट्टतणयस्स । तव चरण णभंत हो मणे सुमरंतहो होइ समिच्छ जस पसरभरियभुमणो यरस्स, जिणचरणकमल भसलस्स ।। फलु ण प्रणवरय रइयवर जिणहरस्स, जिणभवण पूणिरयस्स । मरिण धरि वि सरासह दिव्वदाय, जिण सासणाय मुद्धारणस्स. मुरिण दिण्णदाणस्स ॥३ तह पंडिय मंगल एव पाय। कलिमल कलंकपरिवज्जियस्स, जिय दुविहवइरिणियरसस्स । जण सवण सुहावउ महरुललिउ, कारुणकंदणवजल हरस्स, दीणयण सरणस्स ॥४ कल्लारणय विहिर यणेण कलिड । रिणव लच्छी कीलासरवस्स, वाएसरि णिवासस्स । पुण कहमि पयडु गुण णियर भरिउरिणस्सेसविउस विज्जा विणोय णिरयस्स सुद्ध हिमयस्स ॥५ करकंडणरिदहो तणउ चरिउ । णण्णस्स पप्यणाए कव्वपिसल्लेग पहसिय मुहेण । जइ दुज्जण वंकुड मणि णिरुत्तु, णायकुमार चरितं, रइयं सिरि पुप्फयंतेण ॥६ जइ जरणवउ णीरसु मलिण चित्तु। वायरण ण जाणमि जइ वि छंदु, ११४ करकड चरिउ (करकुड चरित) सुमजलहि तरेश्वई जइ वि मंदु । मुनि कनकामर जइ कह व ण पसरइ ललियवाणि, प्रादिभाग: जइ बुहयण लोयहो तणिय काणि । मण-मारविणासहो सिवपुरिवासहो पाव-तिमिर-हर जह कवियण सेवहु मई ण कीय, दियर हो। जइ जडयण संगई मलिण क्रीय । सहन Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द, जो वजोव्वरणे दिवसहिं चडियउ, प्रकलंकदेव सुमजल समुद्द। अमर विमाणहो णं सुरु पडियउ । जयएव सयंभु बिसालचित्त, करणयवष्णु प्राइमरण हरगत्तउ, वाएसरि धरु सिरि पुप्फयंतु। जसु विजवालु णराहिउ रत्तउ । पत्ता धम्म महातरु सिंचिय अप्पुणु, इस हियए सरंतहो विणउ करत हो महु संजायउ जंजि जो विजवालहो णं मुहदप्पणु । फलु । जो अरि णिहणइ दुस्सह नीलई, गम्हा सुह भरियउ दुह परिहरियउ पयडमि वंछिउ पत्थि जसु मणुरंजिउ कुंजर कीलई । छलु ॥२ बंधव इट्ट मित्त जण रोहणु, xxxxx रिणव भूवालहो जो मणु मोहणु। इय करकंड महाचरिए मुणिकणयामर विरइए भव्वयण दीणाणाहहो जो दुह-मंजण, कणा वयंसे पंच कल्लाणविहारण कप्पतरु फुल संपत्ते कण्णगरिंद हो आसयरंजणु । करकंड जम्मोप्पत्ति वण्णणो णाम पढमो परिच्छेउ जो बोलतउ णिव संखोहइ, समत्तो ॥ संधि १ जो ववहारई गरवइ मोइइ । अंतिमभाग: जो गुरु संगरि अइसय धीरउ, चिरु दियवर वसुप्पण्ण एण, जो जण पयड ण कायर हीरउ । चंदारिसि गोत्तें विमलएण। जो चामीयर कंकरण वरिसणु, वइराइं हुयइं दियंबरेण, जो वंदीयण सहलउ करिसणु । सुपसिद्धणाम कणयामरेण । जो जिण पाय सरोयहूं महुयरु, बुह मंगलएव हो सीसएण, जो सव्वंगु वि णयणहं सुदरु । उप्याइय जण मण तोसएण। जो कामणिहिं मणम्मि ण मुच्चइ, प्रासाइय रणयरि संपत्तएण, जो जण सील तरंगिरिण उच्चइ । जिण चरण सरोरुह भत्तएण । कित्ति भमंतिय कह व ण थक्कइ, प्रच्छं तई तहिं मई चरिउ एहु, जसु गुण लिती सरसइ संकइ । धर पयडिउ भवियरिण विणणेहु । तहो सुय प्राहलु रल्हो राहुल, भई सत्थ विहीणइं भडिउ किपि, मुणि करिणयामर पय उव्वाहुल । सोहेविणु पयडउ विबुह तं पि । पत्तापरकज्ज करण उज्जुय मणाहं. तहो अणुराएं इउ चरिउ मइंजणवई पयडिउ मणहरउ । मप्पाणउ पयडिउ सज्जाणहं। ते बंधव पुत्त कलत्तसहु चिरु णंदहु जा रवि-ससि कर जोडिवि मग्गिउ इउ करंतु, हरई ॥२६ महो दीणहो ते सयलु वि खमंतु । इय करकंड महा राय चरिए मुणि कणयामर विरइए पत्ताजो पढइ सुणइ मण चितवइ जणवाएं पवडउ इउ चरिउ। भव्ययण कण्णा वयंसे पंचकल्लाण कप्पतरु फलसंपत्ते करकंड सो गरु भुवणही मंडणउ बहह सकित्तण गुण भरिउ ॥२८ सव्वत्थ सिद्धिलाहोणाम दहमो परिच्छेउ समत्तो॥१० Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ लिपि प्रशस्तियाँ पुष्पदन्त के प्रादिपुराण, बाराबंकी की लिपि-प्रशस्ति (सं० १५२१) घत्ता तहें पुत्त चयारि हयारिमल्ल, सिरि पउमसिंह जिट्ठउ अतुल्ल । लच्छीहरु माणिकु मरिण समाएँ, घेना रायालय दीवमाणु । घत्ता पणविवि रिसहेसरु विरिणय पणसरु लोयालोय पयासणु। वरमुत्ति रमण यरु जम्म मरणहरु कम्म महारि विरणासणु । मय नयण बाण ससहररामएसु संक्छरेसु पच्छइ गएसु। विक्कमरायहो सुइ सेय पक्ख एवमी बुहवारे सचित्त रिक्खु । गोबग्गरि णयरि पिउ डूंगरिंदु, हुय पय पाडिय सामंत विदु। तहो सुउ सकित्ति धवलिय दियंत, सिरिकित्तिसिंह रिणव लच्छिकंतु । सिरि कट्ठसंघ मंडण मुर्णिदु, गुणकित्ति जईसरु जए अणिदु। जसकित्ति कित्ति मंडिय तिलोउ, तहो सीसु मलयकित्ति जि असोउ। गुण भद्दु तहो पट्टिसूरि, जें जिणवयणामिउ रसिउ भूरे। सिरि जइसवाल-कुलगह-ससंकु, सिरि उल्लासाहु सया प्रसंकु । वहो जाया गयसिरि णामषेय, सहि सुभ हंसराजु दया अमेय। उल्हा चउधरि यह णारि अण्ण, भावसिरि रिणय गुण पसाष्ण । सिरि हंसराय चउपरिय घेर विज (य) सिरि भजा महिया । तहो सुय गुणसायर सुह पउरेसर . परिमिय मय गण रहिया । तहि लल्ला रयणु सुबुद्धि पामु, मयणुजि वीरु मंडेहिह्मणु। सिरि पउमसिंह भज्जा सुपुज्ज, वीरा गामें वरगुण समुन्न । तहें सुउ-सोलिग णामेण धीरु, सूमा घरिणी एसहु जणि प्रभोरु । वीई वल्लह लडहंग बग्ग, वीधो हिहाण सय दल करम्म । अण्ण जि परिणी मीया पहिल सिरि पउमसिंह घरे लीलसिक्स। तहें चारि पुत्त हिय पियर चित्त, सिरि चित्त बालू डालू विचित्त। तीयउ कुल दीवउ सो पपच्छु, तह मयणवालु चउथउ पसत्यु। " १४४ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनान्य-प्रशस्तिसंग्रह माणिक माणिणि णं कामिमल्लि, विबुध श्रीपर के भविष्यवत्त चरिउ लखणसिरि णाम जारी मतल्लिा (को लिपि प्रशस्ति) घेणा धरणिउ रणं काम प्रत्यु, सं० १५३० संगहिउ जांहि जिण धम्म वत्षु । मयरणा भज्जो यति माह भीय, माहुरकुल पहलच्छरण ससंकु, जिण भासिय धम्में विमुक्क संकु । पामेण सया सीलेण सीय । सल्ला पिय मणसिरि पढम अण्ण, . वुह रिणयर दागविहि करणधुत्त, पट्टो मंगा भिक्खो सुवण्ण । णय-मगणि रउ वज्जिय प्रजुत्त। सुम रामचंदु कुल कमलनंदु, तहो माढी णामें घरिणि जाय, णावह लच्छी सयमेव प्राय । णंदउ कि इह णं वीरचंदु ॥१५६ कोइल इव सुहयर ललियवारिण, नंदा पूनावे भज्ज जुत्त, पवि रइय कज जाणे वि जाणि । चिरुजीबउ वीक कमलवन्तु । तहो गन्भे समुप्पण्ण रवष्णु, एयाहि मज्मि सिरि पोमिसिह, साहारणु सुर गय करणयवए। जिण सासण णंदणवण सुसिंह। पठमउ परियाणिय गाय भग्गु, विजुल चंचलु लग्छी सहार, जिण धम्म-कम्मं साहिय सुमग्गु । पालो इवि हुउ जिण धम्मभावु । बीयउ णारायणु णयरिणउत्तु, जिरणगंषु लिहावउ लक्खु एक्कु, मणे परियाणिय जिण माणिय सुत्तु सावय लक्खा हारीति रिक्स। रिणम्मलयर जसलच्छी णिहाण, मुणि भोजण मुंजाविय सहासु, माहुर गयणहयल सेय-भाण। चवीस जिणालउ किउ सुभासु । धेना चाउरियनिमित्त दव, मइवंत संतु पाविय पसंसु, जिणवर कह कय कण्णावतंसु । तेणजिउ लाइव में प्रउब्ध। करूणालउ किरियावंतु साहु, पुरु एव जिणा मदणु जि विचित, सुदासउ मयरहरूव-प्रगाहु । ससिहरु सुपाडि हेर? जुत्तु। तह रुप्पिरिण णामें जाय-भज्ज, णिम्मषिउ भवं बुहि जाणवुत, सिरिहरहो सिरिव जाणिय सकज्ज । रयणत्तय जुय जुय पास जुत । पत्ताकारिय पटु जिण समय दिट्ठ, सज्जण सुहयारिणि पाव-णिवारिणि अवलोय गर्णाव सयल सचित्ति हिदु । पविमल सीला लंकरिया। धत्ता बंधवह पियारी भीयणसारी णंदउ सिरि हंसराउ सूहउ, चंदउ पउमसिह सस। विण पाइय गुणगण भरिया ॥२ दउ परिवार लच्छि कलिउ यंदउ लोउ गुणोह पुर। तहो पढमु सुउ पट गामें,। प्रायासस्स प्रिणस्स य जिह अंत को वितहान गुणस्त । हुउणं प्रप्पड दरसिउ कामें। सिरिपोममिह तिहते को पारह गुण णिहालस्स ॥१ माणवक्तु मएप्पिण लोयहा, सिरिपउहमसिंह पउमं इह लोए वह ए हों तुवा पउमा ।। बम्म पहावें माणिय भोय हो। कोला. सत्य करती सुधाणु पूया पिणोएहि ॥२ बीयउ बासुएउ संजायउ, (जैन साहित्य संशोधक ९क १ पृ.) बासुएउ जिह-निह विक्सायर। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६1 बोरसेवामन्दिर गन्यमाला विज्जउ पुए जसएव पन्ना, जो जीसेसहं बंबहु इन्चह। लोहहु तुरिउ समासहिं पियरहि, भावज्जिय णिम्मल गुण गियरहिं । पंचमु लक्खणु कलिउ सलक्खरण, कमल वयए कज्जेसु वियक्खरण । पंच वि मय मणगण पंचागण, पंच वि पिसुण जणोइ भयाणण । ताहं मग्झे जो सुप्पडु भायर, वरवच्छल्ला एंदिय गहयरू । जिण-पय पुज्जकरण उच्छल्लउ, नीलाग जिय पाडल पिल्लउ । . वाम मागवंहि एह पडिजउ, भविषणु लोउ सयलु बोहिग्जत । सुन्दर पर भायरहं विराइन, काम-कोह-मच्छर प्रवराइउ । णिय जणणीए समाण सुदरु, पुज्जा विहि वि भविय पुरंदरु। पत्तातेणेहु मणोहरु तिमिर तमीहरू णियजणणो णामंकिया । भन्मत्य वि सिरिहरु कहगुण सिरिहरु पंचमिसत्यु कराविउ ॥३ सुप्पट तय जणणि जा सुहमद, तियरण विरिणवारय कुसुमय रह। धम्म पसत्त हे मजा खामहो, गुरुयण भत्तिहें रुप्पिणि णाम हो । होउ समाहि-बोहि रय-हारिणी, अट्ठम महि लच्छी सुह कारिणी। सुप्पट साहुहं वसु-कम्म-खउ, होउ तहय मवरूवि दुक्सक्खर । मज्म एउ गउ पण समीहमि, माजमणिहि णिवरण गिरू वीहमि । णंदउ संधु पउम्बिह सुंदर, णिय-जस-पूरिय गिरिवर कंदर। विलउ जंतु पण पडलुव दुग्धन, चिरु वंदंतु महीयले सजण। एयहो सत्यहो संख पसाहिय, पंचदह जि सय फुड तीसाहिय । जाम जउण अमर सरि सुरालय, कुलगिरि तारा भयण परायल । विजयामल गिरितास रसायर, सिसिर किरण विष्णवरय जायर। सम्मत्ता किउ धम्म प्रसंकिउ दाण विहाण विसत्तर । सुप्पटु महिणंदउ जिण-पय-वंदउ तब सिरिहर मुणि भत्तउ॥ (मामेर भंगर लि भ० श्रुतकीति के हरिवंस पुराण की लिपिप्रशस्ति (सं० १६०७) इय हरिवंस पुराणु, माइ गरिनु कहणा विहिउ । पय डमि तहो भविहाण, जे लेहाविउ पुणु लिहिउ । भू-मरह पसिबउ सुह समिट, कुरु भूमिय दह विहिरिर रितु । सुरसरि जउणा गइ मंतरालि, तरुसीमखेत्त-षण-कण विसालि। तहिं गयर अभयपुरि महि-रवष्ण, सुरणाहु व बहु विवुहहि मणषु । इक्सरस गोरस कंकणाई, तर हलह रसाला वरण-परणाई। पहियण पोसिय पयसाल जत्य, सम-विसम छुहातिस त्यि जत्य। चउवण्ण समिडउ वसइ लोउ, सुर सत्युव मण्णइ विविह भोउ । जहि पूरिउ बहु मयणाइ बासु, मण इंछिय मणहि-रह-विलासु। . . पर-णारि मणोहर गेह-गेह, पावइ सुर सच्छर मह सणेह । धम्माणरत्त जणू वसह बत्व, उदाण पोहर जग पसत्य । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनमन्व-प्रशस्ति संग्रा . चेयालयेवि मह उतंग विसाल ताहि । धवलिय सिहरग्ग मंडिय कंचण कलस हिं॥१ णंदणवणु बसवण बहु मंडिय, धम्मणिलय पावारि विहंडिय । घय-तोरण-उल्लीवय सोहिय, पिच्छ महुच्छउ सुर पर मोहिय । कित्तिमयरिणमउ कित्ति मजेंहिय, जिम कइलासहु दीसहि तेहिय । मंगलीय महुच्छउ किज्जा, दुपुहि सुरु बहु थुइ विर इज्जा । एक्कु कट्ठसंघचेदहरु, बेम्मसंचु णिण्णासिय भवनरु । सत्यं पुराण-पूजिणणाहउ, किम बण्वमि सिवलच्छि सरगाहहु । पत्ता - : ". .. सावय पुरवाउ रिणवाहिय गिह-धम्म भरु । वय चाइ समत्थ तिविह पत उणंतकर ॥२ तहिं बीयउ पसिद्ध जिणमंदिर, भवियण-पण-मण जयणाणंदिर । मूलसंघ जिण सासण सारउ, ... . रवि-बिंदुव-तम-रिपयर-णिवारउ । । गुज्जर गोटि धम्म भरु खंचउ, णिय घणु पुण्ण रिणमितें संचिउ। सोहइ सहबउ संघ समिद्धउ, मुणि तव-तेयव रिदिय रिख । चिरु सामिउ सिरि गोयमु गणहरू, तह संतउ प्रणेय णिज्जय सक। कुदकुद पायरिय गरिदह, अंग पुव्वधरु मायम सिट्ठः । तासु पट्टि पण कमेण कुरुक्कड, धम्मकित्ति मुणिवरु मल-मुक्कउ । तासु सिक्ख-सिक्खणिय भरणेय वि, महवय-प्रणुवय-बुह बहु भेय वि। तहिं पेयाला बिंब सिरोमणि, भवियण-कमल-पबोहण-दिणमणि। पोमावइ पुरवार गुरुक्कड, बस-मय-विसण-पमाय-विमक्कर । सीखम (१) विवसंणंदु मह पंन्ति, रिणम्मल विज चारि-दह-मंडिउ । मागम-वेय-पुराण-पहाणउ, जोइस प्रत्य सत्थ गुण जाणउ । घत्ताचायह सुपहाणु चाइमल्लु सरसइ णिल। पण वासरुणाई सोहइ बुहयण कुल तिलउ ॥३ गुज्जर गोठि गुट्टि सुपहाण वि, सेयंसु व पयडे चउ दाण वि। . धम्म जुत्त सम्मत्तालंकिय, पुण्ण प्रवित्ता णाम चंद किय । रज्ज-कज्ज-सजण सुह-दाइण, विढवि लच्छि चेईहर लाइय । पूय पति? इद् सुह णिमित्ते, णिय उण्णय कर-मुक्कल चितें। मंगल-गीय-सह-णाडय-रस, पिच्च महुन्छव पुण्णहु सरहस । जिण कल्लाण मिलि विणारीगर, तण सिंगार सार सोहं धर।। हाव-भाव-विन्भम मह कुन्छर, चउ-णिकाय सुरणावह सन्छर । घत्ताकि वण्णमि ताहं गुज्जरगुट्ठि समत्य जहिं । जिण धम्मपहाणं पयड पहावण धम्मु तहिवें ॥४ जेण लिहाविउ गंथ गरिदउ : पयडमि तासु वंसु सु विसिटुउ। गुज्जरगुट्टि मासिप पयडियतस, पीरिणय भन्दलोय चाएंरस। हरसो साहु गासु सुगरिदृउ, लहुराइसी वि बस मण इटुउ । हरसी भज्ज लच्छि कमलच्छिय, गिह-धम्म परिपालण दच्छिय । तासु उवरि णंदण उप्पण्णउ, ऊधू णामु जसरासि मएण्ड । तास सरो गेहिरिण गय-गामिणि, धम्मलीण परिवारहु सामिणि । तासु पुत्त चंदू चंदाणण, सुकिय विल्लि लच्छपह मारणण। . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] विउसिरि णाम प्रवर सुपहाणी, बायल भडू मरणाहर गारउ, परमषम्म रहबर घुर धारउ । चंदू भज्ज सयल गुणसारी, ग्राम गयगसिरि प्रणय पियारी ससि मुहई जिम इंदह इंदाली । पताराहू गेहि उवण बेवि पुत्त णं चंदरवि । सिगर पढमिल्लू भय समही हरणाई पनि ॥५ दाण-मारण सम्मत सुरेबइ, रह-सोहग्ग सुजस गं देवइ । प्रतिहि दाणु प्रणु दिणु बहु दिजद्द, चविह संघ विगत विरज्जइ । सासु सरीरि पुत्तु उप्पण्ण मारास सरिह सुबसु मरगुर । मासुकष्णु णामेण मनोहरु, चिर गंव में मांडल शिव । गेहरिण सासुस्व गुण सारी, राम राइसिरि पह-सुपियारी । परियर अब जचि वणिज्यद तर बीबउ पुराणु बिरइन्छ । एवहि मक्कि गरुड पुरिसत्ता, तबणि जासु सुयण गुरण कित्तसु । लहु भीखमु पुग्णालय संमुध, धम्मधरा रुहू सिंचरण प्रभुभ । सिज गरण तिय रूपा रुव हर६, दाण पुष्ण चलणिय महासई 1 भीखम भज्ज पढो गुण जुत्तिय, सीमणिकेय जब ग पुत्तिय । सिद्ध गुण तरणब मे बिकुल मंडल, मी बीउ भाउ मह संल । मी भरज पाल मण मोहम, गृह सिहर सांस किरण गिरोहल । चहू बघु मदु चिक भासित, जासु सुजसु बुह्मण सुपयास्ति । दादू साहू जिसरि मत्सर, पुरिंस सीह मय सीस पवित्तख । 11 बासु भज्य पदमा गुणसारी, स्वरासि बल्लह सुपियारी । धमयाहार सत्य पुरणु पोख, तिविह पत्त पीजिय संतोस । घसा बो मुद्ध कुवार ग्रामकिय, या साहूगा रूव-रह-संकिय । सीला-हरण बिहूसिय देहिय मुणिवर विषय दाण सुसाहिब । लेहाविउ एह गुण शिहाणु कल्लोल निहि ॥ निसुमंत कहंत भवियरण जनमरण होइ दिहे ॥६॥ महु भीखम् पुष्णालय संभ कुबरि उपरि सुत तिग्णि उवण्ण, सुजस पुंज कव्वह वणें कई । गं रयणत्तय धम्मडु कारण, कम्पतरु जरण दुक्स शिवारण । धम्म घर कह सिंचन प्रमुख सउ गण तिय रूपा रूपहरण, दाण- पुण्ण-वेलरिणय महासइ । भीखमु भज्ज पढो गुणतिय, सील णिकेय जरणय खं पुत्तिय । दादु साहु पढम सुउ भासिउ, जे सुय खारणु दाणु सुपयासिउ । जसहरु बीउ भुवरिण जस सायद, रणमरणसीहू तहु लहु बच मायरु । सिउ गुण तरणय देवि कुल मंडल, मी बीउ भाउ मह खंडल । मारण भज्ज पाबुल मण मोहन, मुहससिहर ससि किरणा - गिरोहन । चंदु बंधु मंदु चिद भासिङ, जासु सुजसु बुहबरण सुपवासिठ । तासु भन्ज पदमा गुणसारी, दादु णारि उहयसु-मनोहरि, रह-पी वेदि काम घरि । हम भज्जत साधिय परवण, सच्छि पयक्ति अंग सुह लक्शण । कमराखि बत्लहसुपियारी । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्य-प्रशस्तिसंग्रह [१४९ बीई मुदकुंवरि णामंकित, जा सोहग्ग स्व-रह-संकिया। सीलाहरण विभूसिय देहिय, मुणिवर विणय-दाण सुसणेहिय। कुवरि उपरि सुब तिपिउवगाइ सुजसु पंज कम्यह वष्णे का। रणं रयगत्तय धम्म कारण, कप्पतरुव जण दुक्ख-णिवारण । दादू साहू पडमसुउ मासिक जे सुय गाणु दाए सुपयासिउ । जसहर बीउ भुषणि बस सायक, एयणतीहु तहु मह पर भाया । सदू पारित हा सुममोहरि, शंस पीहवे वि कामह परि । पडम भज्ज रुह सासुय सण, मच्छि पयसिपंग सुह सराण। सिउसिरि णाम मवर सुपहासी, ससिमुह जिम इंदह इंदाणी। दाण मारण सम्मत सुरेखा, रह-सोहग्ग सुजस णं देवा। प्रतिहि वाणु पण दिणु बहु विवाद, पर बिह संघ विउ विरइया। तासु सरीरि पुत्तु उप्पण, माणस सरिह सुवसु मण गुण्णउ । मासकण्णु णामेण मणोहरु, चिर संदउ माडउणिव पर। गेहरिणतासु स्वगुण सारी, शाम राइसिरि पह सुपियारी । परिपणु अवरु जहां वणिज्जा सउ बीयउ पुराण विरइजा, एयहि ममि गाउ पुरिसत्तणु, बणिउ जासु सुयण गुण कित्तण। दादूसाहु जिणेसरि भत्तउ, पुरिस सीहु वय सील पवित्तउ। अभयाहार-सत्य पुणु मोसह, तिविह पत्त पीणिय संतोसहु । पतालेहाविउ एह गुण णिहाण कल्लोल णिहि. णिसुरणंत कहंत भवियण जगमण होइ दिहे ॥७ संवच्छ सोलह सइ उत्तर, उपरि सत्तबरि सह संजुत्तर। मग्गिसिरहं सिय पंचमि हिम्मत, गुरु वासरु गरिद.......। जोगु मुहृत्तु लग्गु णवत्तुषि, सुहृदायक ससिह रुवसु जुत्तवि। चंदवार गढ दुग्ग दुन्गिबह, संघाहिव चेयाले मन्मह। रामपुत्त पंगारव निहिबउ, विम सुइकिति कई से विहिवउ । . सुकरि वि जो भविषण भासइ, बोहि माह तह देऊ सरसइ। एंदउ भवियण धम्म गुलात वंदउ जइण संधु मन-मुक्काउ। गंदर कम्मू पाउडर माण्ड, एंबउ दीपुभुवणि सु पहाण। दउ............गरिदुर, गंदउ चूहरचंदु जणिष्टुत । एंवउ साहु सधारण संदर, वंदउ राम गरुव गिरि मंदा । गंदउ पढमसीह जे साहिउ, पारसंगु सयलु वि प्रवगाहिन । एयह पमुह संघु णंदउ चिरु, सुह संपय समूह णव-णिहि विर। रगंदउ पडइ सुणइबर काणह, गंदउ भावसुद् मणि माइ। पत्तागंदउ गुज्जरगुट्टि परियण पुत्त कलत्तम्जुउ । बबलगि कह हरिवंस जाम ससि रवि पटल भुउ॥ मामेर मंडार प्रति Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३ प्रशस्ति संग्रह में छूटे हुए तीन ग्रन्थों को प्रशस्तियाँ रोहिरिण विहाण कहा (रोहिणि विधान कथा) ता पुणहि मरमु मणोहराई, देवनंदि विण मंतिय णिरूपम रिणय सुहाई। पादिमंगल तं णिसुणेव भासिउ सिरिहरेण बिणवरु वंदेविण भावधरे विण दिन्न वाणि गुरु भत्तिए । काणा बुहयण-माणस हरेण । रोहिणि उववासे दुरिय-विणासह फलु अक्खमि णियसत्तिए पता जंदुतउ तुम्हहि जुत्तउ तं पाइरेण सयाणमि । अन्तिम भाग णिय सत्तिए जिणपयभत्तिए तिहं विह तंपि वियाणमि ।।२ पत्ता X X X X रपणत्तयरिद्रुहं सील विसिट्ठहं जीवहंतिणु सुमिरतहं । इय सिरि बहुमारण तित्वयर देव-चरिए पवर-गुणदेवणंदिमुरिण भासइ दुरिय-पणासइ रोहिणिविहि- .. रयण-णियर-भरिए विवुह सिरि सुकइ सिरिहर-विरइए पालतहं॥ साह सिरि गेमिचंद णामंकिए, दिवाणणरिद-बहराय इति रोहिणि विधान समाप्तम् । वण्णणो णाम पढमो परिच्छेपो ॥१॥ बदमारण चरिउ (वर्षमान चरित) अन्तिम भाग. विवुध श्रीधर मन्त के सात पत्र न मिलने से मन्तिम प्रशस्ति नह मादिभाग दी गई। देखो, "अनेकान्त वर्ष" ४ कि.६। परमेट्टि हो पविमल दिढि हो चलण णवेप्पिणु वीर हो। (दूनी भंडार, जयपुर तमु गासमि परिउ समासमि जिय-दुज्जय-सरवीर हो॥१॥ संतिणाह चरिउ (शांतिनाथ चरित्र) अपना (इसके बाद वर्तमान चौबीस तीर्घकरों की स्तुति है)। शुभकीति देव मादि मंगलइक्कहिं दिपण परवर गंदगण, पणविवि सिरिकतहु उसह पवित्तहु केवल सिरिह सुकंतहु । सोमाजणणी पाणंदणेण । हर मक्खमि वर कह हो पविमल यह दिण्णचारु संजभवह । जिण चरण-कमल इंदिदिरेण, xxxx हिम्मलयर-मुणमणि-मंदिरेण । इय हय भासा (कइ) चक्क वट्टि सिरि सुहकित्ति देव जायस कुल-कमल दिवायरेण, विरइए महाभब्य सिरि रूपचंद मण्णिर महाकव्वे सिरि जिणिभणियागम-विहिणायरेण । विजय बंभमोणाम पढमो संघी समत्तो। णामेण गमिचंदेण वृत्तु, अन्तिम भाग-- भो कह सिरिहर सद्दह जुत्तु । जिह विरइउ चरिउ दुहोहवारि, इदि उहयभासा (कह) चक्क वट्टि सिरि सुहकित्तिदेव संसारुभव संतावहारि। विरइए महाभब्य सिरि रूपचंद मण्णिए महाक सिरि चंद्दपह-संति-जिसणेराह. संतिणाह चक्काउह कुमार रिणव्वाण गमणं णाम इग भब्बयण-ससेज-विणेसराहं। णीसमो संषि समत्तो। तिवाद विरयहि वीरहो जिणासु, लिपि सं० १५५१, नागौर मंगर समणयण विट्ठ कंचण तिणासु। इस पंथ की उक्त प्रशस्ति का भाग पं. कस्तूरचंद अंतिम तित्थयर हो पिरयरासु, जी काशलीवाल एम.ए. जयपुर महावीर शोध संस्थान गंभीरिय-जिय-रयणाय-रासु । से प्राप्त हुमा है, इसके लिए पाभारी हूँ। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह १५१ ऐमिणाह परिउ (नेमिनाथ चरित्र) तिपयाहि देह जिणेसरहो, कवि दामोदर जय जय भणंतु परमेसर हो। मादिभाग रिणविण्ण भव-भीसण रउद्दि, इस ग्रंथ का मादि का एक पत्र उपलब्ध नहीं हुमा । संसार-गहिर-तारहि समुद्दि । xxx छह दिट्ठउ तुह मुह कमलु प्रज्जु, जिण हरई मसंखइंणिरुपमाई, हियइंछिउ सिद्धई सयल कज्जु । वण्णण को सक्कइ तहं गुणाई। मण्णाण मोह तिमिर-हर-सूर, कंदप्प-दप्प-हय पलय पूर। ... . सासूर मोहर धय-धुवेद, जग्गोय कित्ति णं दिवि जिवेइ । कलि-मलिरिणण्णासण सुजस धम्म, लक्सरण पणेय बहु विहय रम्मु । घता ते पण णयण जे पइं णियंति, तहि वीर जिणेसरु हय वम्मीसरु दुक्किय काय-विणासया । णिग्गंथ महामुणि सत्थत्यहमणि अणुअण्णु ण झायहि परमप ते षण्ण सवणु नुम थुइ सुणंति । तहि कमलभदु संघाहि वई, ते धण्ण पाणि तुव पूज्ज रहिं, कुसुम-सर-वियारण तउ-तवई। कलि-मलु असेसु णिव सद्दवहिं । मम-मट्ठ दुइ गिट्ठवण वीरु, सत्तरखर पंच प्पयहं लीण, . बावीस परीसह सहण धीर । जिणु थुगइ भव्वु-पह-पंथ खीणु । परि-कम्म किरहिछि ग्णण विवाणु, राईव भव्य, संबोह-माणु । पतासकसाय तिसल्ल तिवेउ हणण, जिण सामिउ वंदिउ मणिमाणंदिउइक्छा कारकरे वि पुण, जमु तिम्णि काल सुमसाण हरण । उज्जंतहं सामिउ सिव-सुहगामिउ बंदहु भषियहरणेमि जिरण हय गारव मोह मयंदु जित्तु, मासीस देइ पयडई णिमित्त, जिण धम्मु देस णं णिरु पवित्त । भउ गग्ग एउ साणंद चित्तु । भव्वयण विदंवा वय सुजाण तब वयणहं उवरणि बदगाहु, धीमंत संत संजम णिहाण । सजाउन चित्तउ धम्मलाहु । सह मंडण मल्हहं तणउ सुण्ण, कि किज्जद रज्जइ परियरेण, णग्गेर गिरतरु कर पुण्णु । कि किज्जा हय-गय-मरण हरेण । तहिं रामयंदु गुणगण महंतु, माया मउ पुत्त-कलित्त-मित्त, संजम सु-सील गुरु चरण भन्छ । सुरचाउं जम सयलई पणिन्छ । घत्ता मन्मत्थ वि षमणइं अमलपित्त, गुज्जरघर देसहो गरुवय वेसहो संपत्त उ मालवविसहं।। णग्गोउ परम भव्य मरणहि मित्तु । सलखणुपुरु दिट्ठउ मणि संतुट्ठउ, दामोपर कह प्रक्सहि वियाणि, भव्य वीर जिण-पय-एवउ। जिस होइए धम्महं तरिणय तारिण। खंडिल्ल वाल कुल-कमल अमलु, सवियारुस्स विन्भमु सरस मरिउ, विसयहं विरत्तु संसार सहलु । महु प्रक्खिउ गेमिकुमारचरिउ । केसवहं ताउ भन्बयण बंधु, जिमु गहिर-भवोवहि तरमि मजु, इंदुउ जिणधम्महो घरइ खंधु । संभलउ धम्म होइ णि यय कज्जु । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवा मन्दिर प्रन्यमाला घत्ता जिण एकहुं णंदरण कइ करिण, तहो धम्मणिमित्त हो दिढ सम्मत हो सासयसुह तह कारण हो, दामोयरु सुजस णिहाण दिछु। वण्णामि मगहाहिउ भव्वयाहं पिउभध कब्ब रयणायरहो।। तिण विरपउ णेमीसरचरित्त, अन्तिम भाग समलह कवि साणंद चित्त। इय णेमिणाहचरिए महामुणि कमल भद्द पचक्से जो पठह पठावर लिहइवि देश, महाकइ कणि दामोयर विरइए पंडिय रामयंदमाएसिए सो मोक्ख महा पुरिपड सूरेछ । महाकन्वे मल्ह सभ गग्गएव प्रायण्णिए मिणिब्वाण पत्ताममणं पंचमो परिच्छेमो सम्मतो ॥१४॥ पगि सन्ति समिच्छमों पण सुबह छमो मनुसम्म पयडड बारह सयाई सत्तासिया, विक्कम रायहो कालहं। पयारह पट्ट समुबरण गरबा देवपालहं॥ तहं तणइ मंति सुर गुरु सवाण, समलगपुरि पिठुमो चित्तिगविठुमो वीरणाह विजण धम्मेउ धम्मु गुण गण णिहाए । तिम ॥१४॥ गुणहदहं पट्ट समुदरण, देसहं रायहं पुरवरहं सति सपलदि भन्मयण। । मुणि सूरिसेण काल-मल हरण । पढ़ा सुणइं जो एक्कमण तहो होउ संति सम्बपरिण ॥ तहं सण उ सीस मणि कमलभद्द, पउविहि संवहं सुह-संति करण, भन्वयणपिए जस मण मणंदु। ऐमीसरचरिउ बहु दुख-हरण । तहिं बरिणवर एक पसम्पचित्त, दुज्जीह जि किरिण बय गुण ईलेहि, गग्गेउ णाम भव्वयण-मित्तु । भविभाव सिद्धि संभवउ तेहि । मेडत्तय वंस उज्वाण करण, विसहर जिम जे पर छिद्दरिणयहि, जे हीण दीण-दुह-रोय-हरणु । ते कम्म कलंकिय दु-भवहिं । मल्हह दणु गुण गण पवित्त, जे सुवण सुण हि धरि साहिलासु, तेणि भणि उ दल्ह विरयहिचरितु । ते लहहिं सग्गि सुहमइ णिवासु । मई सलखएपरि णि वसतएण, पोसियह सप्पुषिय दुटुएण, किउ भन्यु कव्व गुरु प्रायरेण । परिणबह होइ वि सुतखणेण । पिहिमी घर एंदरण गयरिणचंदु, दुज्जण जं किज्जह विणय संति, उवएस करइ महु. रामयंदु । तं तहं गुणस्स तह होउ संति । जस एवहं णंदण जस णिहाणु, सं०१५८२, जयपुर शास्त्र भण्डार वच्छल्ल उपइ मह एउ जाण । और टोडारायसिंह राजस्थान इस अन्य की प्रति क्षुल्लक सिद्धिसागरजी मोर पं० कस्तूरचन्द जी शास्त्री एम. ए. के सौजन्य से प्राप्त । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४ १०॥ १०. १२१ १२१ १०४ १०३ १२० ११० 20 जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के ग्रन्थ और ग्रन्थकार १ प्रजिय पुराण _ विजय सिंह ११७ ३३ णिज्मर पंचमी कहारासु विनयचंद मुनि '२ मणंतवय कहा ____x १०५ ३४ णिदुह सत्तमी कहा बाल चन्द मुनि ३ प्रणंतवय कहा म० गुणभद्र १०४ ३५ णिद्दह सत्तमी कहा म. मुगभद्र ४ मणत्यमिय कहा हरिवन्द कवि १०७ ३६ णिदूसि सत्तमि वय कहा साधारण ५ अणथमी कथा रइधू कवि ६५ ३७ मिणाह चरिउ कवि लक्ष्मण ६ अणुवेक्खा अल्हू कवि १११ ३८ मिणाह चरिउ अमर कीर्ति ७ अणुवेक्खा व साधारण १२ ३६ तियाल चउवीसी कहा व० साधाररण ८ अणुबेक्खा दोहा लक्ष्मीचंद १११ ४० दहलकवरण वय कहा ९ अनुवेक्खारासो जह्निग कवि ४१ दुद्धारस कहा (दुग्धारस कथा) भ० मुणभद्र १० अप्पसंबोहकव्व रइधू कवि ६ ४२ दुद्वारसिकहा ब. साधारण ११ अमरसेन चरिउ माणिक्कराज ५७ ४३ दुद्धारसिका बालचन्द मुनि १२ मायास (प्राक श) पंचमी कहा १०३ ४४ धाणकुमार चरिउ रइधू कवि १३ भाराहणासार वीर कवि १.५ ४५ धम्म परिक्खा बुध हरिषेण १४ कल्याणकरासु विनयचंद मुनि १०६ ४६ पउम चरिउ स्वयंभूदेव १५ कहाकोसु श्रीचंद ७ ४७ पउम चरिउ रयधू कवि १६ कुसुमंजलि कहा ब्रह्म साधारण १२१ ४८ पक्खवइ कहा गुणभद्र १७ कोइल पंचमी कहा ब्रह्म साधारण ११६ पंडव पुराण यशः कीर्ति १८ चंदणछट्ठी कहा लाख या लक्ष्मण १०९ ५. पज्जुण्ण चरिउ सिद्धवा सिंह कवि १६ चंदणछट्ठी कहा भ० गुणभद्र १०३ ५१ परमेट्टि पयास सारो श्रुतकीर्ति २०चंदायणवय कहा भ० गुणभद्र १०३ ५२ पासचरिउ प्रसवाल कवि २१ चंदप्पह चरिउ भ० यशःकोति ३७ ५३ पासणाह चरिउ श्रीधर कवि २२ चूनडी रास विनयचंद मुनि १०८ ५४ पासणाह चरिउ रइधू कवि २३ छक्समोवएस अमरकीर्ति १३ ५५ पासणाह चरिउ देवबंद (देवचंद) २४ जंबूमामि. परिउ वीर कवि ५६ पास पुराण पद्मकीर्ति (पद्मसेन) २५ जसहार चरिउ रइधू कवि ६३ ५७ पास पुराण तेजपाल कवि २६ जिणदत्त चरिउ (५०) लक्ष्मण ५८ पुण्णासव कहा रइधू कवि २७ जिणरत्ति कहा भ० यशःकीति ४ ५६ पुण्फंजली कहा गुणभद्र २८ जिणरत्ति विहारण कहा नरसेन १२३ ६० पुरन्दर विहाण कहा अमरकीति २६ जीवंधर चरिउ १०१ ६१ बारह अणुवेक्खा रासो योगदेव ३. जोगसार १३३ ६२ बाह बलिदेव चरिउ धनशल ३१ नागकुमार परिउ मारिणक्यराज ६१ ६३ भविसयत्त कहा श्रीधर कवि ३२ णिज्झर पंचमी कहा बु. साधारण १२१ ६४ मउर सत्तमी कहा गणभद्र ११२ "१२८ . ४५ 49., ७२ '१२४ १०४ र इधू कवि श्रुतकीति Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] १०४ मउढ सत्तमि (मी) कहा १०५ मउड सप्तमी कहा १०६ मयण पराजय १०७ मल्लिनणाहकव्व १०८ मियंक हा चरिउ १०९ मुक्तावली कहा ११० मेहेसर चरि ११६ वढ्ढ माणकच १२० वरंग चरिउ १२१ संतिरगाह चरिउ -१२२ संभवणाह चरिउ २२३ सम्मइजिण चरिउ १२४ सम्मत उमदी १२५ सम्मत गुणणिहाण ब्रह्म साधारण हरिदेव जयमित्र हल १११ रयणराव कहा गुणभद्र १ २ रयणकरंडु सावयायार श्रीचंद ११३ रविबउ कहा यशः कीर्ति ११४ रविवय कहा ब्रह्म साधारण नेमचन्द ११५ र विवय कहा ११६ रिट्ठमि चरिउ ११७ रिट्ठेोमि चरिउ ११८ लद्धिविहारण कहा १३१ सिद्धस्थ सार १३२ सिरिपाल चरिउ १३३ सिरिपाल चरिउ १३४ सुकुमाल र भगवतीदास भगवतीदास X रद्दधू स्वयंभूदेव र कवि गुणभद्र हरिद कवि तेजपात्र महाचन्द्र कवि तेजपाल रइधू कवि इषू रघु १२६ सयलविहिविहाण कब्व नयनन्दी मुनि १२७ सवणवारिसिविहाण कहा गुणभद्र -१२८ सांति गाह चरिउ १३० सिद्ध चक्क कहा ठाकुर नरसेन रइथू दामोदर रद्दधू विबुध श्रीधर वीर सेवामन्दिर ग्रन्थमाला १३५ १२० १०६ १३१ ११६ ११० १३८ सुगंध दहमी कहा १३ सुगंध दहमी कहा १४० सुदंसण चरिउ ७६ १४१ सुलोयणा चरिउ १०४ ४२ सोखवइ विहाण कहा ८ ४५ १२० ११० २ GS १०४ ४८ ५४ ११३ ५० ६२ १३२ ८३ २४ १०२ १२६ १७६ ६६ १२६ १२२ १३५ सुकुमाल चरिउ १३६ सुकोसल चरिउ १३७ सुगंध दहमी वय कहा & ४३ सोलह कारण बय कहा ४४ हरिवंश पुराणु ४५ हरिवंश पुराण ४६ हरिवंस पुराण ४७ हरिसेणु चरि १ करकंड चरिउ जसहर चरिउ ३ गायकुमार चरिउ ४ भविसयत्त कहा ५ महापुराण ६ सयंभू छन्द मुनि पूर्णभद्र रइध भगवतीदास गुणभद्र X नयनन्दी मिनाह चरिउ रोहिणी विधान कहा बहुमाण चरित्र शांतिरगाह चरिउ देवसेन गणी विमलकीर्ति X परिशिष्ट नं० १ गुणभद्र धवल कवि यशःकीर्ति श्रुतकीर्ति कनकार मुनि पुष्पदन्त "1 धनपाल पुष्प दन्त स्वयंभू कवि ५५ ७० १३५ २०५ ܐܕ १८ १०६ १०५ ११ ४१ * १०६ १४२ १३६ १४१ १३७ १३८ १३६ परिशिष्ट नं० २ पुप्पदस के आदि पुराण की लिपि प्रशस्ति १४४ विबुध श्रीधर के भविष्यदत्त चरिउ ( लिपि प्रशस्ति ) १४५ भ० श्रुतकीर्ति के हरिवंस पुराण की लिपि प्रशस्ति १४६ परिशिष्ट नं० ३ कवि लक्ष्मण देवनंदि fagu श्रीधर शुभकीर्ति Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W १२० ११४ जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह परिशिष्ट ५ उम्मत्त ग्राम संघ, गण, गच्छ कंचीपुर कट्ट संघ (काष्ठा संघ) ११४ करहलु (करहल) ग्राम १२८ काट्ठा (काष्ठा) संघ ११६ काविट्ठ कापित्य देस (कापल्यं देवा) काष्ठा संघ ४१, ४३ कालिन्दी (यमुना नदी) १२८ एंदि संघ कुभएयर (नगर) देसी गण (देशी गण) ८ कुमर गयरि (कुतार नगरी) देसिय गच्छ २३ कुरु खेत्त (कुरुक्षेत्र) पुरवाड संघ (पउरवाल) ५६ कुसट्ट, देस (कुशातं देश) . १२८ पुष्करगण ४१, ४३, ११४, ११६ खंभात पट्टण (खंभात नगर) बलयारगण (बलात्कारगज) गमपुरि (हस्तिनापुर) बलात्कारगण गिरणयरहु (गिरनार) बालगण गिरनार माथुर गच्छ ४१, ४३, ११६ गिरणारहु (गिरनार) १. १,१०० ३२, ३० माथुर संघ गुज्जर (गुर्जर) देश १४, ५६, १०८, १०६, ११० माहुर (माधुर) गच्छ गुज्जर विसय (गुर्जर देश) मूल संघ गुज्जरत्त (गुजरात) देश ५४,९०, १२१, १२८, १३० गुडखेड देश लालवग्ग (लालबागड गण) वागेसरि (सरस्वति) गच्छ गुंदिज्ज नगर सुरसइ गच्छ (सरस्वतिगच्छ). गोदहय (गोध्रा) नगर १३० गोपाचन (ग्वालियर) परिशिष्ट ६ गोपायलि-गोपाचन देश, नगर, पुर, ग्राम मादि गोपायलु (गोपाचलु) ग्वालियर ८०,८४,८७ मंग देस गोपाचल (ग्वालियर) १३३ पवन उरहो (अचलपुर) गोवगिरि (गोपाचल) प्रणहिल्लपुर गोवग्गिरि (ग्वालियर) ६३, ७२, ७७,७६, १०३, १३२ पाराम (बाम) ३ गोवग्गिरि गरि (गोपाचल नगरी) १०३ प्रवन्ती (देश) .३ गोवग्गिरि दुग्ग (ग्वालियर दुर्ग) . ६७ पवंती (विषय) पारउपपुर (मारोन) गोवागिरि मांवेरि (पामेर, जयपुर) नगर :: . . १३. चंद्रवार उदयहि गिरि (उपयाद्रि गिरि) .. १२. द्रवार (नगर) ४." mmx ...२ .. ३०, ३३, ३६ . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेरहद ५६, ११२, १ १३. १५४ ] वोरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला चंद्रवाड पट्टण ९८,१०१ मॅडवचल गढ़ चित्तउडु (चित्तोड़) (मारवाड) ५ महासेन (उद्यान) जउंणा गइ (जमुना नदी) __२७ महीयड (प्रदेश) जेरहड एयर (जेरट नगर) ११२ मग्गह (मागध-मगध देश) १३४ मालव देश (मालवा) जोइणिपुर (योगिनीपुर-दिल्ली) २३, ३६, ४३, ७६, मालव (नगरी) ८६, ८६, ११४ मेघवन पट्टणे जोइणि पुरि ९ मेरुह पुरे जोयणि पुराउ (योगिनीपुर) ६४,६४,९८ मेवाड (देश) झणझुणु . ९ रायवद्दिय नगर (रपड़ी-ताय भा०) ढिल्ली ४५ रुहियासु (रोहतासु नगर) रोहतक ढढाहड देश रुहियास पुर (रोहतक नगर) तिहप्रणगिरि (त्रिघुवनगढ़) १७, १०६ लाहडपुर तिहुयणि गिरि पुरु १०८ लुवापणिपुर तिहुवणगिरि (तहनगढ़) वणिप्पुर (वणिकपुर) दिल्ली मंडलु १३० वराडदेश (वैराट या वराड देश) देवगिरि (दौलताबाद) ३३ विडलमहागिरि (विपुलाचल) धारणमरी (धारानगरी) ३ विदेह (देश) धाराउर (धारापुर) २६ विपुलगिरि धारा नगर ३३ बिलराम पल्हणपुर (प्रहलादनपुर) ३२, ३३ वैशाली (विशाला नगरी) पाटलिपुत्र (पटना नगर) १७२, १७३ सम्मेय (सम्मेद शिखर) पोमावती (पावती) ६ सूरस्थ (शूर देश में स्थित) बम्हण बाट २१ रिपुर बलडइ (ग्राम) १ . सूरिपुरु बालंपुर (चालपुर . . . सेतृ'जय (शत्रुजय) तीर्थ क्षेत्र बिलराम नगर (जि. एटा में मौजूद है) १६ सोरट्टि (सोरठ देश) . .. - ४ हिसार (नगर) भरह खेत (भरत क्षेत्र) ५५ ' हिंसार कोट (हिसार किना) मंडवगढ़ (माई या मांडवगढ़) भमियापुर ३९, ४३, .. हिंसीर पट्टण Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह १५७ ८, २५ परिशिष्ट नं. ७ धक्कड-कुलि (धकंट कुल) धक्कड वंस (पकंट वंश) वंश, गोत्र, अन्वय मावि नंग्राम्नाय १३० पउहद्द वंस नायर (नागर) कुल अग्गोय वंस (पग्रवाल वंश) ८६,९०, ९४, ९७ परमार वंस (परमार वंश) प्रयरवाल (मग्रवाल वंश) ३६, ४१, ४३, ५२, ५८, ५६ पुरवाड वंस (पोरवाड वंश) १०,१६, ३३ भयरवाल वंश (कुल) ६३, ६४, ६५, ६८, ७२, ७४, पोमावइ कुल ७५, ७६, ७८, ८०, ८२, ८७, १३, १०८, १२३ पोमावइ पुरवाल वंस (पद्मावतीपुरवाल वंश) ७६, ६५ ____१८, १.१, ११, १२४ अयरवालु ११४ पोमावइ वंस (पद्मावतीपुरवालवंश) ७, ७६, १०० इक्खाकु वंस (इक्ष्वाकु कुल) ६१, ९२ प्राग्वाट वंश ऐंडिल गोत्र ७६ मीतरण (मित्तल गोत्र) अग्रवालों का एक गोत्र कुंदकुन्दाचार्यान्वय ७ वरसावडह वंस कूरम वंस १३० विणय वंस संडिल्लवाल (कुन) ५४ लंबकंचुक कुल (लमेचू) ३०, ३१ संडेलवाल कुल ११८, १३० लंब कंचु (लमेचू) गग्ग गोत (गर्ग गोत्र) ११४ सिंघल (संगल) गोत्र गगंगोत्र ४३ सेट्टि वंश (वेष्ठि वंश) गुज्जर कुल २२ सोम वंस (चन्द्र बंश) गुज्जर पुरवाड वंस ३७ हरिवंस गुलराड वंस (गोलालारे) १२६ हुंबड कुल गोयल गोत (पनवालों का एक गोत्र) ६८,९० परिशिष्ट नं. गोलाराडिय राजा, मंत्री आदि गोलालाडयउ वंस (गोलालारे) १३३ अंध वृद्धि (मंधक वृष्टि) चालुक्य वंश १३, २० अकबर जलालदी (जलालुद्दीन) चाहुवाण कुल (चौहान वंस) प्रखयराज १३० चौहाण बंस (वंश) २८, ३. अजयरिंद १२४ अभय वालु (अभयपाल राजा) जदुवंस १२८ महमल्ल (माहवमल्ल राजा) जयसवान ६१, १०४ पाहवसल्ल (राजा) बसुवाल २ ईसरदे (पट्टरानी) पायव वंस (यादव वंस) ३३, ३६ कण्णदेव (चौहान वंशी राजा) जायस बंस ३१ कण्हडु, सोड्साहु द्वितीय पुत्र तुंबर (तोमरवंश) ११. कण्हडु (कृष्णादित्य मंत्री) माहवमल्ल तोमर (क्षत्रिय जाति) ७३ कर्ण नरिन्द्र (राजा) ९, १३, ५६ तोमर कुन ७४, २४,९२, १२३, १३२ करमसीह (राणा) १३२ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला कुसुराज ८० ३४ कित्तिचंद (इंगर राजा का पुत्र) २५ मम्मल नृप कित्ति सिंधु ॥ ६०, १३२, १३३ महमूद साहि (बादशाह) कितिसिंह ७४, ७७,८७ मानसाहि राजा किनुपाल (कीतिपाल) १२३ मुमारख सुलतान (मुबारकशाह) कुमर सिंह ३७ मूलराज (राजा) १३३ वीसलणिव (वीसलदेव राजा) गणेसरिणव (राजा गणपति) ७४ वीसलदेव (राजा) गयासु साहि (गयासुद्दीन) ११२, १३४ रणधोरिय (राजा) चदार ,ण्डरानी राजा इंगर सिंह) ७४, ७७ राम इंदु (रामचन्द्र राजा) चंदाएवी (चन्दा देवी) ॥ रामचन्द्र (पुत्र अभयचन्द) चेल्लणाहि १०७ रुद्रकोटि (शिवकोटि) जलाल खान (बादशाह) वंदिग्गदेव (राजा) जयश्री वासाहर (घर) मंत्री जय सिंध विक्रमादित्य (गजा) जाहर नरिंद श्रीपाल राजा गरिन्दु (तोमर वशी ग्वालियर का राजा) ७४, ७७, श्रीपाल नरेश ८०,६४,९२, १२३ श्रीप्रभ (राजा) डूंगररिणव (इंगरसिंह राजा) ७२, ८०, १३२ श्रेणिक राजा २१, ४२, १३॥ हूंगरराय (राजा) ८५,८७ णसीरु साहि ११२, १३४ श्रेणिक नरेन्द्र दाऊद साहि संभरी राय पवणंजय ६. संभरीनरिन्द्र पुंजराज (मंत्री) १३४ समुद विजय पयावरुद्द (प्रतापद्ध) सारंग नरेन्द्र ३४, ३६ पेरोज साह (दिल्ली का बादशाह) सिकंदर साहि ५५ पेरोज साहि (फीरोजशाह) प्रतापरुद्ध १. सूरसेन (राजा) प्रद्युम्न कुमार २१ सेनिउ (श्रेणिक) फारू (फीरोजशाह तुगलक) ३६,४३ सेणिक १०२, १०४,१०५,१०,१२. बम्बक (बाबर वारशाह) ११४ सेणियराय (वेणिक राब) बल्लाल (रणधोरिय पुष राजा) २१, ३०, ५४ सोणिग्र (गिक) भरहवाल (भरतपाल राजा) भरहेसर (पादिनाव पुत्र भरत पक्रवर्ती) भोजदेव हरिषेण (चक्रवर्ती) भोवति १२६ हेमराज (मंत्री मुबारिकशाह) हम्मीर वीर Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह ११६ २५ ११८ परिशिष्ट नं. ६ कामह कामराय बुह ११७ प्रशस्ति संग्रह में उल्लिखित प्राचार्य, कामराय पंडित विद्वान और भट्टारक कालिदास (कवि) ८, १७, १६, २५ कित्तिहर (कीर्तिधर) अंधसेन १२६ अंबदेव ५६ कुन्दकुन्दाचार्य ८, १३० मम्बसेन गणी ३५ कुन्दकुन्द गणि ३७, ११६, १२० अम्बसेन (मुनि) १५ कुन्दकुन्द गणिणा प्रम्बसेन (गुरु धवल कवि) १२ कुमारसेन अम्बाइय २६ कुमुयचन्द्र (कुमुदचन्द्र) २३, १३३ प्रम्बादेवी ३८ कुलभूषण १०६ प्रकलंक ८, १७, २५, ११३ कुलभूषण मुनि अनंतवीर्य ८ कुसुमभद्र (मुनि) अपराजित २, १२, ४२ कोतुहल (कौतुहल) मभयचंद २१ खेता (पंडित) ११७, ११८ मभयनंदी २३ खेमकित्ति (क्षेमकीर्ति) ५७,७१ अमरकीति १३, १४, १५, ५५, ५६ गंगाराम अमरसेन १४ गंड विमुक्त पमितगति (महामुनि) १४ गुणकित्ति (गुणकीति मुनि) ३, ४५, ६७, ७३, ७७, प्रमियचंब (अमृतचंद मलधारिदेव) ८०,९८, ६१, ६२, १२९ मल्हू कवि १११ गुणकीर्ति . ८,४१, ४३, ५० मसग कवि १२, ३५ गुणभद्द (गुणभद्र) १०४, १०५ पसवाल १२० गुणभद्र ८, २५, ४१, ६८ मसवाल (बुह) १२६ गुणभद्र प्राचार्य १०४ २ गुणभद्र मुनि (मलयकीति शिष्य) इंद्रादि महाकवि ११३ गुणभद्र मुनीश्वर ईसरदास १३४ गुणभद्र सूरि ५१, ११३, ११४ उदयकीति ८ गुणाकरकीति उदयचन्द १०९, ११. गोविन्द कवि उदय मुणीतर १०. गोविन्द कवि (श्वे.) । १२ कंसाचार्य कउति (पंडित) २१८. घउमुह (चतुर्मुख) १, २, ४, ८, ११, १२, १७, १९, कनकानिति (मुनि) २५, ३५, ६६, ८२, ११॥ कमलकित्ति (कमलकिति) ८८,६१, ६३, १५, ६७ चंदकित्ति कमलकित्ति (कंजकित्ति) ८९ पनातीनि (चनकीति) - . २२ १०॥ १३. १४ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] चन्द्रकीर्ति (संघाचार्य) चन्द्रसेन छीतु (पंडित) जगकीति बड (टिल मनि मुनि (जटासिंह नन्दी ) जयकित्ति ( जयकीर्ति) जयदेव जयपाल जयमित्रहल (हल्ल कवि) जयसेन किवि बसइंषु जसकिति (यशः कीर्ति) जिनचन्द (भट्टारक) जोईदास (जोगीदास ब्रह्मचारी) जोगदेव पंडित ठाकुर कवि ठाकुरसी वोर सेवा मन्दिर ग्रन्थमाला डूंगर पंडित नरदेव नरसिप ५६ Y, 55 ११८ १३० ११ ३५ २७ २५ १२ जसबि.सि ( मुनीन्द्र ) जसकित्ति रिसि (ऋषि यशः कीर्ति) जसमुनि (यश: कीर्ति मुनि) जिनसेन (पुत्राट संघीय) जिनसेन जिनसेन (प्रादिपुराणकर्ता) ८, १६, २५, २७, ३८,८८ जिनचंद गरिए ११२ १२६, १२७, १३० १३१ १२ ११०, १११ २५ ३, ४०, ४५, ५१, ६३, ६७, ६८, ७०, ७३, ७७, ६०, ६४, ८६ ११३, ११४ ११६ ४३ ११, १२, १३, १५, ४१ ४ तिहुम्रण सयंभु ( कवि स्वयंभूपुत्र) तेजपाल कवि त्रैलोक्यनन्दी ( गुरु माणिक्यनंदी) दंडी (कवि) ६० सारसे (नरहेब) १०७ गौरव किति (नरेन्द्र कीर्ति) ११९, १२० १२१, १२२ मिचंद मिषु (चन्द्र) तिहअन किसि (freचनकीति) दरगहमल्स दामोदर कवि दामोवर (दामोदर) दिनकर सेन दिनकर सैन (अनंगचरित कर्ता) देवद (देवचंद) देवकीर्ति मुनि देवचन्द देवद (कवि) देवनंदि देवनंदिगणि (जैनेन्द्र व्याकरण कर्ता) देवसेन गरणी देवसेन देवसेन मुनि देविद कित्ति (देवेन्द्र कौति) दोण (द्रोण) द्रोण कवि धनदत (कवि) धनंजय कवि धनपाल कवि धणवाल (धनपाल) धम्मसेणु (धर्मसेन) १११ १२९ १२० धर्मकीर्ति चर्मचंद ४३ ३५ धर्मसेन धरणंद (मुनि) धीरतेन धीरसे (कवि पवर्ती . बलेन ११३ नंदिमित्र ११० नयनन्दी मुनि १, २, ५०, ५४, १२४, १ ११२, ११४ भवपान २, ܐ 1 १२ ११, ३ ६ २ २ ८, १३ 1 ११, ३५, ३८, ५६, ८ ५६ १० ४१, ४३,६७,७७ २० ११२, ११४ ३५ १२, १७ ११ २७ ३२, ३७ ૪ १० ५ १४ १२८ १२, ४१, ४३ ११, ३५ ८२ १२ २, १२ १, ४, २३, २६ १० Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [१६१ - - जैनग्रन्थ-प्रशास्त-संग्रह नरदेव नरसेन कवि ११ प्रमाचन्द्राचार्य १३२ प्रवरसेन निवडिदेव २० प्रोष्ठिल्ल नेमचन्द १२८, १३० बाण (भट्ट कवि) नरेन्द्र कीति १५, १६, २५ १२०, १२१ बालइंद (चंद) पंकयणदि (पपनन्दि) २७ ११६, १२२ पंड (पांडवसेन) बालइंदु (मुनि) १०८, १.६, ११. १२ पउमणदि बाल्मीकि १२४, १३१ १७ पपकीर्ति (पग्रसेन) भगवादास ११७ पयनन्दि (भट्टारक) ४६, १२८, १३० भगवतीदास पग्रनन्दी भगोवीदास पपसेन (पप्रकीति) भद्रमुनि ११, ३५ पविषेण (वसेन-पट्दर्षन प्रमाण ग्रन्यकर्ता) २ भद्रबाहु पहनन्द (प्रभाषन्द्र मुनि) भद्रबाहु श्रुतकेवली पहचन्द (प्रभाचन्द्र भट्टारक) १२०, १२६ भन्मह (भामह) पहचन्द गुरु (प्रमाचन्द्र) १२८ भरत कवि (नाट्यशास्त्र के कर्ता) पहससि (प्रभाचन्द्र) ११६, १२२ भामह (कवि) पहाचंद गरिमा ११२ भारवि (कवि) पहुकित्ति १२१ भारह पातंजलि (पतञ्जलि) २५ भावसेन ४१, ४३, ६७, ७७ पादपुज्ज (पूज्यपाद-देवनंदि) ८ भीमसेणु (पंडित) १०४ पाय पूज्य (पूज्यपाद) ११६ भवनकित्ति (भुवनकीति) पालित पाल्हवंम (म) (श्री पालब्रह्म) ६७,७५ मयूर कवि पुष्फवंत (पुष्पदन्त) ४, ८२, ११३ मलयकिति (मलयकीति) ६८,१०३, १०४, १५ पुष्पदंत कवि ६६ मलयकीर्ति (मलबारी) पुष्पदन्त (कवि) ८, १७, १९, २५, ३५, ३७ मलयकीति (महामुनि) पूर्णभद्र (मुनि) ५५ महाकीति पोम (-पाचार्य, पमनन्द्याचार्य) ६. महासेनमुनि (सुलोचना चरित्रकर्ता) पोमपंथि (पपनन्दि) ५७, ५६, ११२, १२५, १२६, १३४ महासेन पोमगदी (पपनन्दी) ३, १२० महिवसेण (दिल्ली मट्टारक) पोमायरिउ (पयनन्दि पाचार्य) १२८ महिन्दु (महाचन्द्र कवि) पोमसेण (मुनि) १. माएिक पंडित पोम (पपनंदि) ६. माणिक दुष प्रभाषन्न २५, ३७, १३० माणिक्कु (माणिकबन्द) २५ भूपाल कवि १६, २५ महाकाति Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] वीरसेवा मन्दिर ग्रन्थमाला ११८ माणिक्करणंदि ३ लोहाइज्ज (लोहार्य) माणिक्यनन्दा २६ वजसूरिगणि माणिक्यराज ५७, ५६, ६१ वजसूरि मुनि (नय-प्रमाण-ग्रन्थकर्ता) मारुवचन्द २३ वम्मीय (वामीय) मारुतदेव (पिता-स्वयंभूदेव) १. वररुचि माहव (माधव) चंद (मलधारि) २१ वामण माहवषेण (माधवषेण) ४ वामीय-वास माहुर (माथुर) (संधायरियहो-संघाचार्य) ५६ वारायण (वादरायण) माहिंद सेण (भट्टारक) ११७, १३५ वासव मुनि मुनिदेव वासवचन्द्र मेरुकित्ति विज्जाणंदि (विद्यानंदि) ११२, ११६, १२०, १२२ मौनिदेव ४३ विजयसिंह (बुध) ११७, ११६, १२३ यशःकीर्ति (भट्टारक) ३७, ३८,४१, ४२, ४ विजयसींह (पंडित) ११८ रइधू (महाकवि) ६४, ६६, ६७, ७१, ७७, ७६.८३. विजय (सेन) ___१, १५, १७, १०१, १०२, १२४ विजयसेन रइधू पंडित ७०, ७५, ७६, ७८, ८८, ६३, ६६, ११३, विणय मयंकु (विनयचन्द्र) १०८ विष्णहेण ११६ रइधूबुह विनयचंदु १०६, ११० विपुलकीति (मुनिवर) रत्नकीति विबुष श्रीधर रयणकित्ति (रत्नकोति भट्टारक) ३३, १३० विमलकिति रयण (पंडित) १०६ विमलसे) रविषेण (प्राचार्य) पद्म-चरित्रकर्ता . ६६, ७७ १, ११, १८ विमलसेन ४१, ४३ राजशेखर २५ विमलसेन (मलधारी देव) रामनन्दी विशाल रामभद्र २० बिसालकित्ति (विशालकीर्ति) राहव (पंडित) ११८ विशालकीर्ति लक्षण (लक्ष्मण कवि) १६, २७, २६, १०१.६ विश्वनंदी लक्सण पंडित १२९ बरुणकुमार लक्सरणीह १०४ विष्णुमंदि ३,४२ लक्खण (लक्ष्मण कवि) १. विष्णसेन (ऋषि) ११, ३५ लक्ष्मण (कवि) ६, ३१, ५६ विसयसेणु (विषयसेन मुनिवर) ८८, १०६, १११ लक्ष्मीचन्द १३. वीर कवि लखनदेव (लक्ष्मणदेव) ११ बीरिंतु (वीरचन्द) लालू (लक्ष्मण) १० बीर कवि (बार) ३५,५६ ५४ १८, २० . . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसूरि वीरसेन वृषभनन्दी शुभचन्द्र शुभचन्द्र देव शुभचन्द्र भट्टारक शान्ति कवि श्रीकित्ति (श्रीकीर्ति) श्रीकीर्ति (मुनि) श्रीकुमार श्रीचन्द्र श्रीचन्दु श्रीधर श्रीवर कवि श्रीपाल (ब्रह्म) (ब्रह्म श्रीपाल ) श्रीषेणसूरि श्रीहर्ष श्रुतकीर्ति संतिदास (शान्तिदास) संतसेण (शान्तिषण) समन्तभद्र (प्राचार्य) यंभू (स्वयंभू) भू (कवि) यंभू महाक जैनग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह ५५ ८, १६, २५, २७ ३ ८ १३० ६० सिंहक वि ६ सन्दी ८ सिंहनन्दी मुनि ७, २३ मुव माल स्वामि २५ ७, ८, ६, २५ १२६ ८, १०, १६, १७ ४., ४७, ४८, ४६ ७८ १४ १६, २५ ७, ८, १११, ११२, १३३ ५६ १४ ८२५, ३८ १, ४, ८, २५, २७ ३५, ६६ ८२ ܘܕ सलक्खण सहसिित (सहस्रकीर्ति) ८, ६७, ७३, ७७, ६१, १३० सहस्रकीति ४१, ४३ ४० सहलकीर्ति (मुनि) साधारण ब्रह्म (ब्रह्म साधारण ) साहारण (साधारण कवि) साहारण ( मुनि प्रथकीत शिष्य ) | ११६, १२०, १२२ ११४,६११५, ११६ साहित्य (भद्र) कह सामिह (शालिभद्र ) सिद्ध कवि सिद्धसेन १२१ ३५ १२ सिद्धसेन मुनि सिद्धार्थसेन सिरिचंद (श्रीचन्द ) सिरिहरस्स (श्रीहर्ष) विदि २१ ५, ११, ३५, ३८ सुदकित्ति ( श्रुतकीर्ति) सुदकित्ति ( श्रुतकीर्ति) सुयंभू सुचन्द (शुभचन्द) सुहचन्ददेव (शुभचन्द्रदेव ) सुरसेण ( देवसेन) (मेधेश्वर चरित्र - कर्ता) सूग (बुह - पंडित सूरदास) सेढ़ कवि सेढुमहाकवि सोमएव (सोमदेव ) स्वयंभू हरदेव कवि हलिय हल्लकड़ हल्लइकइ हरिहंद (हरिचंद ) हरिचन्द कवि हरिदि (मुनि) हरिभूषण हरियंद (हरिचन्द अग्रवाल कवि ) हरिसागर मुनि हरिषेण हरिसेणु हेम (हेमचन्द प्राचार्य) हेमकिति (हेमकीर्ति) हेमचन्द [ १६३ ૬૪ १२ ११५ २ ११४, १२५ २०, २२ ११, २५ ३५ १० ११२, १३४ १३५ ११३ ८८, ६०, ६१, १२६ ११२ ८२ ५६, ६१ ३५ १२ ३३, ३४ १७, १६ १०६ १६ १२८ १३१ ४८ Ye ८ ११६, १२०, १२२ १०८ २५ ५ १६ ६० ५७, ७१ ५७ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] वीरसेवा मन्दिर अन्यमाला । १०३ गणधर प्रशस्ति संग्रह में उल्लिखित जिन-जिनालय धुबरीण (घ्र वसेन) नक्षत्र अंगपाठी मुनि मादि माग (नागसेन) पजिय जिणेस (पजित जिनेश) ११८ नेमि जिन (नेमिनाथ बाबीसवें तीर्थकर) मज्जियाहं (पायिकाएँ) १०७ नेमिरणाहु (नेमिनाथ) परहंत देव पंडु (पांडवसेन) प्रह-गेह (परिहंत मन्दिर) ५८ परिणयार (चंत्यालय परिणयार) मरुहदेव (भरहंत देव) पासणाहु (पाश्वनाथ तेवीसवें तीर्थकर) प्रवरज्जिय (अपराजित) २, १२ पोठिल्ल (प्रोष्ठिल्ल) भाइ जिणिद (मादिनाथ जिन) १०७ बुद्धिल्ल प्राइनाह तित्थंकर पशिमा (मादिनाथ तीर्थकर प्रतिमा)८६ भद्दबाह (भद्रबाह श्रुतकेवली) इन्दभूइ (इन्द्रभूति) महावीर (चौबीसवें तीर्थकर) इन्दभूति (गणधर महावीर) ३६ रिसह (ऋषभ) कसाचार्य रिसह जिणंद (ऋषभ जिनेन्द्र) खत्तिय (क्षत्रिय) रिसहेसरु (ऋषभेश्वर) खुल्लय (क्षुल्लक) लोहाइज्ज (लोहार्य) गगदेव बडमाण (वर्षमान तीर्थकर) ३७, १०७ वड्डमाण जिणु १०७ गौतम (इन्द्रभूति) १२ बर्माण तित्यकर (वर्धमान तीर्थकर) गोत्तमेण (गौतमेन) १२ वड्डमाण (जिणहरि) (वर्षमान चैत्यालय गोयम (गौतम) ...६३, ११, १०२, ११०, १३५ . बहुमाण भवन (वर्धमान मन्दिर) गोयमसामि (गौतमस्वामि) १०५ विजयदेव गोवद्धण मुनि ६३ विजयसेण गोवडणासु (गोवर्द्धन) ५ विण्ड (विष्णु) कुमार गोवर्द्धन (श्रुतकेवली) ४२ विण्ह (विष्ण) मुनि गौतम (गोयम) ४२ विष्णनंदि चंदप्पर जिन मन्दिर (चन्द्रप्रभ) विसाह (विशाख) चेईहरु (चैत्यालय) वीर जिन चेयाल (चैत्यालय) जंबुसामी (मंतिम केवली) वीर जिणिद्र (वीर जिनेन्द्र) २१, ११०,१३५ जंबूस्वामी (केवली) यिष्णु सेन (ऋषि) ११, ३५ जयपाल वीरहो १०७ जयभद्र श्रुत केवली जसभद्र जिरणचेईहर (जिन चैत्यालय) संनिहुतित्थणाह (शांतिनाथ तीर्थकर) जिणवर संभवजिन जिविहार (जिनमन्दिर) सम्मति जिणहर (जिनमंदिर) जिनालय (उद्धरण संघवह का) ससिपह (चन्द्रप्रभ) जिनेन्द्र नंदिमित्त (मित्र) सिद्धार्थ (सेन) गाहेयहो णिकेत (मादिनाथ मंदिर) सुषम्म सुधर्म . (जिसको नट्टल साहू ने बनाया) सुधर्म (सोहम्म) गणधर महावीर २,४२, ७७ गमीसर जिणहर धम्मसेण (धर्मसेन) १२ सुभद्द (सुभद्र) वियसेण (तिषण) १५ समवशरण (तीपंकर सभा) १३० ५६, ६४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति संग्रह में उल्लिखित ग्रन्थ २७ १.२ ११, ३५ २२,७७ अंबादेविरासत अपंगचरिउ पशुपेहा अणुवयरयणपईव (अणुव्रतरत्नप्रदीप पशुवेहा (अनुप्रेक्षा) प्रमियाराहणु (अमृताराधना) परिदृणेमिचरित कंदप्पचरिउ (कंदपंचरित) चंदप्पहपरिउ (चन्द्रप्रभचरित) छक्कम्मुवएस छइंसापमाण जहणेंदु (वायरण-व्याकरण) जंबूसामिचरित (जंबूस्वामिचरित) जयषवलु जसहरचरिउ (यशोधरचरित) जिणपूयपुरंदरविहि जीवंधरचरिउ जोयमाणु माणपईव (ध्यानप्रदीप) रावकार लेमिचरित (हरिवंशपुराण) गमिचरियं लेमिजिरिंणदचरिउ लेमिणाहहो चरिउ, मिह परिउ तेसट्ठिपुराण (महापुराण) तेसद्विपुरिसरयणायरु (महापुराणु) घणकुमार (चरिउ) पणकुमारचरित धनयत्तचरित धम्मपरिक्स (क्सा) धम्मपरिक्खा धम्मोवएस धर्मचरितटिप्पण ६ धवल (अन्य) ११ पंचमिचरियं ३५ पंडवहिचरिउ ३१ पउम चरित ११ पज्जुण्ण चरित ११ पज्जुष्णहो चरित ८९ परमिट्ठिपयासु ३५ पासचरिउ (पाश्वचरित) ११, ३५ पासजिणेदह चरित १४ पासहो (पासणाह) चरिउ ३५ पासपुराण (पार्श्वपुराण) ३५ पिंगल (पिंगलाचार्य) . ६ पोमचरियं १२, १७, २७, ३५ बलहद्दचरिउ १४, ८६ बलहद्दपुराण १५ बहुकहाणा (विविधकथाएं) ___ भरहहु सेणावइचरित १३४ भारह (भारत) पुराण १४ महाघवलु ११, ३५ महापुराण २ महाबन्ध (सि० ग्रन्थ) २ मेहेसर चमुवइचरिउ ७१ रयणकरंडु णाम १४ रिटुणेमिचरिउ ४३ वड्डमाणजिणचरिउ (वर्षमानजिनचरित) ४ वरंगचरिउ ६५ वित्तसार ६१ वीरकह (वीरकथा) ६५ वीरहोचरिउ ३५ वीरजिरिणदचरिउ (वीर जिनेन्द्रचरित) ५ सिद्धचक्ककह (सिद्धचक्रकथा) ११२ सिद्धचक्कविहि १४ सुदंसपचरिउ १४ सुलोयणचरित ८८, १०२ ६, ११ ३, ६५ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीरसेवामन्दिर ग्रन्थमाला :: .. ११२ ४३ . १२४ ८२ सुलोयणाचरिउ प्रा० गाथा २ पासलु १२,९३ सुलोयणाचरिउ अपभ्रंश २० इंदराउ ११५ हरिपुराण (हरिवंश पुराण) :हग्विंस (पुराण) हरिवंसकव्व ईसप्फ हरिवंस . १३४ ईसरदास हरिवंसु ईसरु उत्तम प्रशस्ति संग्रह में उल्लिखित । उदयचंद (वीरदोस पुत्र) उदयचन्द श्रावक-श्राविका उदयराट अडलिय साहु ७४ उदयराज ८२,६१,६५,६७ प्रक्षोद दूसरा पुत्र अंधकवृष्टि उदयश्री (पत्नी वासावर) ३६ प्रचलु (छठा पुत्र अंधकवृष्टि) उदयसिरि १२५ मन्जुरण (अर्जुन) ६०, १०० उधरण (पुत्र सहसराज) ७६, ८६, १३३ अणंतमती (बहिन पोणाही) उधरण संघवह १०५ मणूड उधरण (२रा पत्र बी प्रभणी भार्या साहुवीधा उधरणा अभयचंद (पुत्र सारंगरिंद उधरण अभयचंद (पुत्र मेल्हाही) ६. उद्धरण अभयचंद ११५ ऊवा अमरसीह १२८ एइचन्द माहदत्त १६ मोदा (साहू) महदास (चौधरी) ५८ मोल्हा चाहरण ४७ पोल्ही (गोइंदभार्या) मल्हा १७ कउरपालही असपालही १२३ कण्हड (कृष्णादित्य सोद् द्वितीय पुत्र) असराज ८७ कण्ड (कर्ण) पहिचंद ( वां पुत्र अंधकवृष्टि) ३६ कमलसिरि पाजाहिय ६३ कमलसीह ८५,८६, ८७, ८८, ६३, ६४, १०० पाजाही (धर्मपत्नी तोसउ साहू) कमलसीह (संधाषिप) पाणंदु १२४, १२५, १२६ कमला (पत्नी कामराज) माणाहिहाण ७२ कमलापह (संधाषिप) भादूसाहू ६७ करमचन्द चौधरी भाभाहिय (बम पत्ना गला) ६६ करमचन्द पाल्हा साह ४६, १३१ करमसिंह (पुत्र मासदत्त) बासरा (अ) . ४३ करमसिंह १२२, १२८ --/ सणी ११५ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ६७,७३, ७७, ११५ . . . . . . ६६ कामराज कुमरसीह खोल्हा गटिहु जैनमन्य प्रशस्ति-संग्रह करमसीह (सुपुत्र हरिसीसाह) - --- ... ७८,७६. खेत्ता (खेमंकर) करमू पटवारी . . . . . . ९२ खेमचन्द कल्याणसिरि ..... .६३ खेमद (तृतीय पुत्र सहजपाल) कल्ही ९ खेमवंत कल्हो .१०० खेमसिंह (पुत्र भोपासाह) ६२.६३ खेमसीह (पुत्र पहणुसाहु काल्हाही (धर्मपत्नी साहुधील्हा) .. ६.. खेमसीह (वरिणकनाथ) कुंथुदास ५२, ५३, १०२ खेमसीहु (खेंऊसाहु) कुंवरपाल. .. ६० खेमकर (क्षेमंकर) कुमरपाल (पुत्र सहदेव) : ६८ खेमाही कुमरसाहु १०, ११ खेल्हण कुमरसिंह (कनिष्ठ भ्राता बहुदेव) ८ खेल्हा खेल्हा (ब्रह्मचारी) कुमरसेगु कुमरू गंगदेवही कुलचन्दही (मार्या पृथ्वीमल्ल) गइसिरि कुसुमसिरि गजभक्षसाहू कुसुवा (भार्या) १२८ केसाहि (धर्मपत्नी थोल्हा) केसुल्ल (माता षषल कवि) गरूवउ साहु कोडी (भार्या) ७६ गल्हा (धर्मपत्नी जग्गु साहू) कोडी (भार्या रइपति) कोलाही ११ गाहलु कोल्हाही ५३ गुणवाल (पाल) कोल्ही देवी ११३ गुणसेन कृष्णा (सुपुत्र मूलराज) खत्तिय (क्षत्रिय) १२ गेल्ह (द्वितीय पुष) बाड ६३ गोकणु (सुपुत्र जसहरु) सिउसी (पुत्र लखमदेव) ५१ गोल्हण (पुत्र पल्हण) खिउसी गोविन्द खोमचन्द (संधाधिप) ११५ गोविन्ददास सीमसीह ६ घणमलु खीमी (पुत्री तेजा साह) ७० घिरराज सूतू (पुत्र दिवचन्द) .४३ घीकाही खेऊसाहु . ७१,७५,७६, ८२,८३ घोल्हाही खेतागर ६० पूर्घाल (साहु) बेतासिंह ६० चंदणही खेताही -६६ चन्द (लाल) गरवउ ८३ गल्हू गुरुदास Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] कपास (४ वा पुत्र सावर) यहा हासु (सयविशेष) चंद्र (जासं) वादे (पट्टरानी) राजा इंबर्ससह चंदो चन्द्रपाल महया चचिलि चो (भार्या भानू तृतीय पुत्र ) चाचा (२ रा पुत्र खेमंकर) कायमल्लु चाड (धर्म पत्नी पुण्यपाल ) चित् चीमा (चिमन लाल- पउचरिव ) मनाचीवरी वही ही (भार्या नागराजु) हरिण (बेलनी रानी राजा, श्रेणिक) चोचा (पुत्र भासराज ) चोचाही (भार्या उदवचन्द) चोबाही (भार्या काकू लाहु चौदे (वरिकवर) खड्डा (साहू) छांगेसा छाबा छाल्हाही छीतम (सहजपालपुत्र) छीवा छुटमल्ल छुट्टा चोधरी जता ( माता कवि लक्ष्मण ) जठलाही जगमलही (भायां घणमलु) जगमलु जनसी (२ रा पुत्र) जगसीह जग्गु साहू जटमलु वीरखेवामन्दिर ग्रन्थमाता जनार्दन जयचन्द (पुत्र प्रभयचन्द) जयपाल ( प्रथम पुत्र वासाचर) जयभद्र ३६ ११६ ११५ १३३ ७४, ७७ १०० ८३ ५८ १४, १५ ६० ६९ ६० ७६, ८३ १२४ ५८ १८ ११६ १] ७४ जयराम जयादेवी बल्हण जसद्द जसचन्द (यशचन्द ) जसपाल (दूसरा पुत्र वासाचर ) वसभद्र जसमलु जसवाल (पुत्र श्रावण) जसवाल (जसाघर) जसहरु श्रेष्ठी जाटा जालपहि ( धर्म प० तेजासाह) जालपही जालपु साहू जाला (छठवां पुत्र) ४३ ६० ६० ६४ ३८ जासा १२२ ८३ ५३ ६८ ११५ ६० ५८ ३१ १२३ ६० ६० ५३ जाल्हा साहू जाल्ही जाल्हे (साहू) जिनदास (पुत्र गोद) जिनदास (पुत्र सहदेव) जिनदास जितसल्ल जिनमति (माता कविसिंह) जिनरक्षित जीदाही जीवो (ज्येष्ठपत्नी) जेजा (साहू) जोजा [दूसरा पुत्र ] जोणाही [ भार्या करमसीह ] जोषा साहू ६६ १० जोल्हाही ११६ झंड १६ ३६ ३६ १२ ५, २५ ६ १० ६ ६० ३६ १२ ५६ १७ ६२ ३३ ६०, १२३ T ७२ ३६ K ૫૪ ७० ६८ १६९ ४३ ६८ ११७, ११८, १२४, १२६ ११५ २२ १२ ६० * ७० ४६, ४८ ६० ७८ ६५ १२३ ७० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२, ५ ॥ तेजासाहु १८, ६९ जनपन्य-प्रसास्त-माह ६८, ७६,६२ तिलक झामू चौधरी ५८ तिमोकाही झाभूदिवाराज २ रा पुत्र] ६. तिहणपाल माझेही [धर्म प. सहजपान ६८ तिहुबलसिरि टोडरमलु ६२ तिहणा मकुरु (३ रापुत्र मंकर) ६६ तिहणाही गमा (४था पुत्र सहवपाल) ६६ तेजपाल डूंगर [पहना पुत्र साहवोल्हा ४. तेजपाल वरिणक] डुंगरही [मार्या शुगणा] तेजपालु डूंगरही [भार्या कोल्हूसाह] एमासदत्त [४ था पुत्र दिउठा] दूमाही [पुत्र दिवचन्द] . ४३ तेजू पुत्र २ रा बाल्हेसाह] डाकह ६९ ते श्रिावक पंदण १२६ तेजसाहु एक्सत्ता साह १२७ तोसउ [सहषपानपुत्र छठा] एक्खत्त सीह १२८ तोसउसाहु रायणसिंह १२३ तोसउसाह [हरिसिंह पुत्र] रायणा [भार्या बाटूसाह] १० तोस [लघुवान्धव सहदेव] माइक्कुदेवि (रानी) १२८ तोउ [पुत्र दिवराज]] गाग तोमही [भार्या] गागराजु थोल्हासाहु पाणचन्द [शानचन्द] ११५ थील्हा [सहजपालपुत्र पंचम गाणा [शाना-ज्ञानचन्द] दगाई पाए दरगहमस्तु [वाक्क] पाल्हाही धर्म प० भोपासाह दरवेमु णिउषी [भा० जालपसाह] दसरह [दशर गिउराडे [पत्नी सेमसीह रिणउरादे दालाही [५० ५० लोणासाह पार्टी दिउढा (पुत्र साहु दिवचन्द) दिवचन्द गेम नाम का ठाकुर दिउचन्दहिदिवचन्द ही (मा० करमचन्द) गेमिचन्द [सुपुत्र बोर कवि] दिउपाल (पंडित) गेमिदास १०१, ११२, ११५, १२६, १३३, १३४ दिउपास मिदासु १०० दिउराजु तक्खड़ [श्रेष्ठी] ६ दिउराषही (भार्या वील्हा साह) ताल्हए ११५ दिउसी [दिउही पात्र] ताल्हय [रणमलणंदण ५४ दिउहीदेवी ताल्हू [तीसरा पुत्र] ६. दिल्हणश्रेष्ठी तिपरदास १. दिवचन्द साह ६१ दामाडाली ९२, ६३ ४१,४३ ५८, ५६ ५८, ६. ४०,६१ ५१ ११८ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] दिवचन्दही (पत्नी हरसी साह) दिवदासु दिवराउ [दिवराज ] दिवराज चौधरी दिवराज [पुत्र बाबूसाहु] दिवराज साहु दिवराजही दिव्यराजही [भा० लाहुसाहू ] दीवा दीवा [ देवी ] माता माणिक हृद दे [ द्वितीय भार्या ] देदासा हु दाहि [देदाभिधान ] देहा देवs [ भार्या भोजराज ] देव [पितासिद्ध कवि ] देवदातु देवदासु देवपाल [ कामराय पुत्र | देवपालु [रा [] देवराज देवराय देवराय संघाधिप देवसिरि देवसह caret [ भार्या लक्खूसाहु] देवाही दोश [माहु] दाही [पत्नी जोजा ] दोदाही [ भार्या साहू हरिसी ] चन्दही [ भार्या साहू हरिसी ] द्रोण [पुत्र खड्ढा ] धरण कुमार याही [भोज्जूमाता ] घज़राउ [ज] चणराज वीरसेवासविर ग्रन्थमाला १२२ घणसिरि ६० घणसी YE ६४ १२७ .६०, १२७ ५६०६४ ५६ घण ' ५७ ६० ६१ ६६ ४३ ८७ २१ ५३ १०३, १०५ [धर्म प० खेऊसाहु ] घणीर धोवइ [धणवतो ] धारण [ ७वां पुत्र] ७६ बील्हा [ पत्नी पाल्हासाहु ] ८२ घे नाही [ पत्नी बील्हासाहु] : १०० .७५ ८६ श्री [ भार्या ऊसाहु] मंग [धर्मा पुत्र ५ व] ६० ६०, ११३ ६० ११५ धम्मदास [ धर्मदास ] घरही [ पत्नी छीतमु ] धामाही [ धर्मप० सहदेव ] नट्टल [गट्टलुसाहु] ३रा. पुत्र साहु जेजा [लघुपुत्री ] ११८ नागराज [ नागराज ] ५३ नागराज ५६ ८२ १२५ नयरू नरपति [ ३रा पुत्र ] नरपति श्रावक ૪૨ नारायण ६७ नाल्हाही [ पत्नी भोपासाह] .१०० प्रिदास [संघाधिप ] पंचायगु ( ५वां पुत्र) पाय ( माता सिद्ध कवि ) पउमा (पद्मा) पउमिणि (पद्मिनी) माता स्वयंभूवेव नाथू साहु नानिगही पजरण साहु पदमसीह पदमासाहु परसा हिमान ७८ ३८ ६१ ५३ ११५ ६.५ पहराज (पु० खेऊसाह पल्हरणु (१ पुत्र हेमराज ) पल्हाउ (तृतीय पुत्र सोमदेव) पहराज १२५ १२३ १२६ ७६ ८१ ७४ ६६. १३१ ६८ ६८ ३६ ६० ३६ ૪૭, ૪૬ لو ५५ ५३ ૬૪ ६०. ५३ ७६, ८३ ११५, १२३ Ye 50 £5 ५३ २१ १२८ १ ७१,७६, ८०, ८३ ८६ १० १२८ .Yo ३३ ६६, ७५ ७६ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ - ११२ पुण्य जनप्रन्य-प्रशस्ति-संग्रह १ बालुही (मार्या साहु दिवचन्द) 'पहराज (२रा पुत्र सहसराज) ८३ बाहम साहु . : .. . 'पहुणु साहु ७४ बाहाल (भ्राता रइधू कवि) पाणिरणी वैयाकरण २५ बाहही (धर्म प० दिवन्दसाहु) ::. पालु ६. बीषा पाल्हण साहु ६. बीषा संघवी पाल्हण (श्रावक) १० बीबोकंता पाल्हा (साह) ८७,९०,९४ बील्हा (पुत्र जालपुसाहु) पाहा . . .. १० बील्हा (पुत्र नरपति) पिरथीचन्दु बील्हा पिरथीमल्लु बीव्हा पोषा ७२ बोल्हाही (द्वितीय भा० साहु हरिसी) पीये (साह) १०, ११ बीमहाही (धर्म प० पजणसाह) पुज्जराज बोल्हाही बोल्ही (लघुपत्नी पजणसाहु) पुरणपाल ७६, ८१, ८३, ८८, १२ बुद्धिल्ल पुष्णपाल (छठा पुत्र वासाघर) ३६ बुडणहीं पुरुपाल पुहइमल्लु [पथ्वीमल्लु] ६० बोधू (साहु) पूनउ साहु १२ बोहिय पूरण [८वां पुत्र] बोहियही पूल्हाही [भार्या दिउढा] भदासही पेमराजा भरहविपाल धी पेमाही [पत्नी करमचन्द भल्लक पोमाही भामराज (पंचमुपुष सोमदेव) पोभिणी [पल्ली वासापर ३६ भामराज पोल्हणु ५४ भवरणही पेमसिरि [भार्या सोमदेव ३३ भिखो फेराही भीखणही बंदइय २ भोलमु (साहु) बच्छराज (तृतीय पुत्र सहदेव) भीखही (धर्म प० खेमद) ... बधो (भार्या पोमराज) भीमाहिय बहुदेव (सिद्धपुत्र) ३८ मुल्लग बाटू साहु ७८, ६०, १२२, १२३ भुल्लणु बाल्हाही ६०, ६०, ६५ भूदेव बाबू साहु (पुत्र बोल्हासाहु) ६४ भोजा बालाही भोजराज ६०, ६५ भोया नामक साह .. . ३३,९० १०० ११५ १२४, १२५ ६९ ९२, ९३ १७, ११५ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] पीरसेवामन्दिर बन्यमाना ११४ मेडिव भार्या जेजा साह ८०,८८ मेरु भार्या रत्नसीह १११, १२८ मेल्हाही भार्या करमचन्द भोयराउ भोयराज (बामाता कमलसीह) भोयह (भोवराण) भोवड (राजभेष्ठी) मणसिरि मणिको मदन मदनपालही (गा पहराज) मदनसिहरथ मदो (मदन) मयणु मयण (मदनपालही... मयषु सुन्दरि मरसेण मल्लिदास मल्लिदासु मल्लु (दास) मल्हा [सोढ़ तृतीय पुत्र] मल्हाही (पत्नी लखमए) मल्हाही (पत्नी साह चीमा) मल्हि (ल्लि) क्षस महणचन्द महणा (सुत जुगणा) महणसिरि महणसीह महरूसाहु महसूदण (बेष्ठि) महदासु १. मोल्हण मोल्हण ८३ यशःकीति भट्टारक ३७,३८,४१, ४२ रहधू महाकइ ६४,७१,७७, ७६, ६३, ६१, ६५ १२४ E९, १३२ १७ रबधूकह ९७, १०१,१०२, १२४ ७६ रघु कवि ६६, ६७ १२२ रइधू पंडित ७०, ७२, ७५, ७६, ७, ८८, ९३, ११३ ७२ रइष बुह ५२, ५३, ८७ रहपति (३रा पुत्र सहसराज) ८७ रइ (ह) पति ११५ रहपति ३० रउपाल (३ रा पुत्र वासापर) रण ५८ रतणउ रतनू रणमल रणमलसाहु रणमलु ५३,७२ रणमलु रणमल्लह रत्नकीर्ति (रयरगकित्ति) रत्नपाल प्रथम पुत्र सोढु रत्नपाल रत्नपाल (देवराज पुत्र) ५३ रत्नपालही (धर्म प० सहसराज) ६३ रत्नसिंह (भाई वासापर) ८७ रत्नाकर (रयणायर छठा पुत्र सोमदेव). रयणकित्ति रत्नकीर्ति भट्टारक १३३ रयणकित्ति रत्नकीति प्राचार्य ११५ रयणपाल रयणसाह १२७ रयणा (भार्या वादू साह) ११६, १२५ महादे महादेवही महाराज (चतुर्ष पुत्र सोमदेव) महाराजु (कनिष्टनाता खेमसिंह) महासिरि (महाश्री) माणिक्कसाहु मानासिंधु माहणसिंह भ्रातारइबू कवि मुबंग(मृदंब) मेवाण मेदिनी] मल्लु Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ १२८ ६ राणू ५२०५३ १४५ वीरसेवा मंदिर प्रन्यवाला रयणु (छठा पुत्र करमू पटवारी) ६३ रोहिणेउ रयणु परि० नं०१ १४ लक्खण (लक्ष्मण) रयणुवाल (पुत्र सोढुसाहु) ३० लक्खरण पंडित रल्हणासु २२ लक्खणसिरि (लक्ष्मणश्री) रल्हो परि० नं०१ १४३ लक्खरणेह राउलु १४० लक्खणंका राजेंहि (राजकुमार या राजसिंह) ९० लक्खणीह (लखणसीह चौधरी) ७ लक्खणु राम ५८ लक्खणु परि०२ राम गरुव परि०२ १४६ लक्खू (अग्रवाल संघाधिप) रामचंदु (चन्द्र) परि०२ १४५ लखमएउ पुत्र लक्ष्मण रामचन्द (पुत्र अभयचन्द) ३६ लखमएव (लखमदेव) रामणंदि २६ लखणसिरि परि०२ रामपुत्त परि०२ १४६ लखमदेउ • रामभद्द २० लखमणु (लक्ष्मण) रामयंदु (रामचन्द्र) परि० ३ १५१,१५२ लखमण रामहु ७४ लच्छीहरू (लक्ष्मीधर) १०२ रामाही ६. लडहंग (द्वि० पत्नी) प०२ रामवल्लह १२६ लल्ला (लालचंद्र सुपुत्र हंसराज) प०२ रायम १८८ लहुराइ प०२ रायमल्लु (राजमल्ल) ६० लाखू रायवहु ११८ लाडणु रायसिरि (राजश्री गेहणी प्रासकण्णु) लाडो पृ०२, १४८,१४६ लाहा साहु (सुपुत्र लक्खू साहु) रामसेट्टि (राजश्रेष्ठी) लीलावइ (लीलावती) रावण लूणाही रावरणधी ११६ लोणासाहु रावणु २० लोणासिंह राहव (राघव) ४६,७६ लोहगु (सोणपाल पुत्र) राहव साहु ४८ लोहडु प०२ राहुल परि० १ १४३ लोहव रिसराम (ज्येष्ठपुत्र नेमिदास) १०० लोहाडिउ रुप्पिणि परि०२ १४५ - लोहिड्डु प०२ रूपचन्द परि०३ १५. बच्छराज रूपा (घ० प० साहु कमलसीह) ६४ बच्छराजही रूले (साह) पुत्र श्रीधर साहु १२ वल्लहराय (बल्लभराज) १४ १४५ ८८,८६ ८६,९. १२९ ७६ १४६ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ वल्लहराय ( बल्लभराज ) १० १ वल्लालु वसुएव (वसुदेव) वहोरु ( पुत्र वाहा साहु) वाटू साहु वाटू (साहू) वाडगामि वामदेव वाल्लाही भार्या वासद्धरु ( वासाघर) वासावरु वासाहर वासाहरु (वासाघर) वासुव (वासुदेव) वासुव (वासुदेव) प० २ वाहोल (लघु भ्राता रघू कवि ) विक्कमाच्च (विक्रमादित्य ) विजयपालही विजयसिरि ( भार्या हंसराज चौधरी) प० २ विजयसिरि (विजयश्री - माता रइधू कवि ) विजवालु प० १ विननो विसयसे बिहराज बीघा साहु वीघू वीघो १० २ वीरचंदु प० २ वीरदास वीरदेउ वीरा (भार्या सिंह) प० २ वीरा are (कवि) वीरो वीरोसाहु प० १ वीबो जैनग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह १४१ ५४ ३६ ६० ७८ १२६ २७ १०० ५१ ३४ ३७ ८७ १४३ १२३ ३७ ३३, ३६ श्रीधर ( सेठ) श्रीधर श्रीपाल वीसल साहु प० १ वील्हा वील्हा ( पुत्र नरपति) ૪૨ १४५ ७६ श्रीहलु २६ शृङ्गारदेवी १२३ सउराजही १४४ वील्हा वील्हाही (द्वितीय पत्नी वाटू साहू) वील्हाही ( द्वितीय भार्या साहू हरिसी ) वील्हाही ( ध० प० पजरग साहु ) वील्हा वोहिथही ( घ० प० पाहा साहु ) शुभंकर (भ्राता सिंह कवि) श्रीचंदु श्रीधर संतुश्रा ( माता वीर कवि ) संतोसु १०६ संपुण्ण ३७ सज्जरण १४४ १३३ १०५ ७२ ७२ सतनु १०३ समदो १४० संतरपु संतिदास १४४ समरासह ( भा० ) १४५ समुदविजय ६० ४४ समुदपाल ६८ सरसुती ( पुत्री होलिवम्मु ) सरासर ( ध० प० कमलसीहु) सरो (गेहिरणी ऊक्षू साहु) T सलवखरण सलक्खरण सलवखरणा (पत्नी कृष्णादित्य) सलक्सगु १४० ૬૪ १०८ ७८ ७८ ८३ ७६ ६० २२ ११५. १६ १८ ४६ २ ५२ ७ ११५ ३३ ५६ ६ ३७ १० १३१ १७ ११५ १२८ ३६ १० ७६ GS १४७ १० ११७ ३१ १३३ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है. ४५,६२ १५० १८,४७,४६ ३०,३१ १२४ ० वीरसेवा मंदिर ग्रन्थमाला ससिलेहा (शशिलेखा) ११७ सिंघो सहजपाल ६८,६९ सिद्धपाल सहज़ा ६६ सिरिचंद (श्रीचंद) सहरणपाल ७,१०३ सिरिपहु (श्रीप्रभ) सहपाल कवि ११३ सिनियपाल (श्रीपाल) सहदेउ (सहदेव) सिरिपालु सहदेवी सिरिवल्लभ सहसराज ७४,७६,८१,५३,६० सिरिहर (श्रीधर) सागरविजय ३५ सिरिहर (श्रीधर) प०३ सादल साहु ६१ सिरिहरु (श्रीधर) साधारण ६३ सिरिहलु साधारण ब्रह्म १२०,१२१,१२२ सिवएव सिवदेउ (व) साधारण साहु परि०२ १४६ सिवदासु साधारणही ६० सुहडपउ (सुहृद्प्रभ) साधारण ६६ सुहडसेठ्ठि साधारणु (पुत्र करमूपटवारी) ६३ सुहडादेवी साधाहिय ७० सीय (सीता) साधाही (भार्या वीरदास) ४३ सीवही साधाही ४४ सीहमल्ल सारंग (साहु) दूसरा पुत्र हेमराज ४. सीहल्ल सारंगसाहु सीहु (सिंह) सारंग साहु १०३,१०५ सुअव्व (माता त्रिभुवन स्वयंभू) सारंगु ४० सुभकरम (मा, भा०) साल्हरण सुकलालउ साल्हणु १० सुतणु साल्हार (साहु) १३० सुदंसणुसिट्ठि (सुदर्शन श्रेष्ठी) साल्हाही सुपटु साल्हे * १०० सुपटु (सुपट साधु) प०२ सासुत्ती साहा (शाखाचंद) ६. सुप्पडु प०२ साहारण (साधारण कवि) ११३,११४,११५,११६ सुभद्द (सुभद्र) साहारणु प०२ १४५ सुभद्दादेवी (सुभद्रादेवी) साहारणु २२ सुमह साहलु १७ सुरजन (पंडित) साहुल (पिता लक्ष्मण कवि) सुरजन साहु सिउगणु (शिवमण) प०२ १४८ सुलोचना 0 सुपट्ट १२५,१२६ २० Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सुहंकरु सुहगा साहु सुहगा सुहडउ (पुत्र भोवइ श्रेष्ठी) देव सूत्रा (गृहिणी सोलिंग) प०२ सूजउ ( जाल्हा पुत्र) सूदा सूदाही (घ० प० जाटा साहु) सूर (बिप्र ) ( पिता धवल कवि ) सूरदासु सूरसेणु सूरहो ( विप्र ) सूरा वुह सूरा ( वुह ) सूलेसु सूवरही (भार्या नागराउ ) सेऊ साहू सेलू सेल्ही (लघु पत्नी साहु तोसउ ) सेवदासु सेवासाहू देव (दु) साहु सोढल साहु सोढल (२ रापुत्र) सोढु साहु (सुपुत्र हल्लरणसेठ) सोरिणगु सोरणपाल (पहराज पुत्र ) सोता (संघाधिप) सोमउ (देव) सोमएव (सोमदेव) सोमदेउ (देव) सोमराय सोमजननी प० ३ सोलिंग प० २ नवम् प्रशस्ति-संग्रह २२ सोहण ३२ सोहिल्ल १३२ सोहिल ३३ हंसराज ३७ हंसराज १४४ हंसराजु ५४ हंसराजु प० २ ६० हम्मीर हम्मीर वीरु ९० १२ ११६ ३५ १२ हरसी साहु हरराजही हरपति ५६ हरसी साहु प०२ ६१ हरिइंद (हरिचंद ) ६० १३२, १३३ ६६ हरसिरि (हरश्री) ६३ हरियास (हरिदास) हरिराज ३३, ३४ 5 हरिराय ( पुत्र सोमदेव ) हरिराय ७० हरिवंसु १२४ हरिसिंघु ( कवि रइधू के पिता) ६१ ७ हरिसुप्पायगु ३१ ४६, ४८, ७८ हरिसेरण हल्ल (कवि ) हल्लाइ कइ हल्लपु (श्रेष्ठी) ४६ ३० १२६ हालसाहु ७६ हिउराही (घ० प० पृथ्वी मल्ल) ५२ हिमवंतु (४ था पुत्र अंधकवृष्टि) हिमारउ हिंसपिल्लु ३६ हेमराज अग्रवाल - ( मन्त्री मुबारकसाह, ) ११९ वील्हा पुत्र) १५० १४४ ११५ १०० ६२, १२५ ६५,७८,७६, १२२, १२३ १४७ हेमराज साहु हेमाहे १७ १०० ११५ .४० १०० ५३ ૪૪ २८ ४५ ४६, १०८ ११६ ६६ ३२,३४, ३७ ६० ६७,७१,७६, ८१ ८२,६५,६७,१००, १३३ १३३ १०६ १२६ १३१ ३० ૨૭ ११५ ३५ ११६ ११६ ३६, ४०, ६५ ६३ ६८,६६ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ वीरसेवा-मंदिर-ग्रन्थमाला २० होलू (२ रा पुत्र लखमदेव) ४८ होलू (भ्राता खिउसी) ७५,७६ होलू साहू १०० होट्टलु होलिवम्मु होलिवम्मु (चतुर्थ पुत्र सहसराज) होलिवम्मु ५३ ८१,८३ १०२ वीं पासणाह चरिउ को प्रशस्ति का अंतिम अंश पृ० १२६ (यह अंश प्रेस से खो गया पुनः प्रन्य से लेकर दिया जा रहा है।) अन्तिम भाग : इगवीरहो णिव्वुई कुच्छराई, सत्तरिसहुँचउसयवत्थराई। पच्छई सिरिणिवविक्कमगयाइं, एउणसीदीसहुं चउदहसयाई॥ भादवतमएयारसिमुणेहु, वरिसिक्के पूरिउ गंथु एहु । पंचाहियवीससयाई सुत्तु, सहसइं चयारि मंडणिहिंजुत्तु ।। बहुलक्खणमूगासुउ वरिठ्ठ, पाणंदमहेसर भाइ जेछ । जसु पंचगुत्तसीहतियाई, हुआ करम-रयण महमयणराई ।। सो करम उलेविणु सज्जणांह, माहासइ गुणियण गुणमणाहं । जो दुविहालंकारइ मुणेइ, जो जिणसासणि दंसणु जणेइ ॥ जो सम्मत्तायरुगुणप्रगव्वु, जो प्रायम-सत्थई मुणइं भव्यु । जो जीवदव्व तच्चत्थभासि, जो सद्दासद्दहं कुणइं रासि ।। गुणयास भाउ संवग्गु भेइ, जो वग्गु वमा मूल जि मुणेइ । जो संख असंख अणंत जाणि, जो भव्वाभव्वहं कय पमाणि ।। जो घण घण मूलहं मुणइं भेड़, सो सोहिवि पयडउ गंथुएउ । अह णमुणइं तो मझुत्थ होउ, अमुणंतह दोसु म मज्झ देउ । पत्ता:-जिण समय पहुत्तणु गुणगणकित्तणावसविमहिवित्थारइ। हउं तसु पयवंदमि अप्पउ गिदमि जो सम्मत्तुद्धारइ ॥९॥ सो णंदउ जिणु सिरिपासणाहु, उवसग्गविणासणु परमसाहुं । णंदउ परमागमु णंदिसंघु, णंदउ पुहवीसरु परिदुलंधु ॥ दउ पउरमणु अहिंसभाउ, बुहयणु सज्जणु अमुरिणयकुभाव । णंदउ सिरि वाम्ह हो तरणउवंसु, कीलउ रिणयकुलिजिमसेरहिं हंसु ॥ णंदउ जिणधम्म पिबद्धराउ, लोणायरु सुम हरिबम्ह ताउ । वंदउ एंदणु सहुं भायरेहि, घाटम्मता उपहसिय मरणेहिं ।। णंदउ लहुभायरु सहुं सुएण, परमत्यु जेण बुज्झिउ मणेण ॥ यंदउ अवरुवि जिरणसमयलीणु, खउजाउ दु? मिच्छत्तु हीण । वंदउ जो पयडइ पास चित्तु, मातम सारंकिउ गुण विचित्तु ॥ जो सुरगिरि रविससि महिपमोहि, ता चउविह संघहं जणंहिं बोहि । प्रसुवालु भणइ मई कयउ राउ, जिणु केवललोयणु मज्झदेउ ।। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन ग्रन्थ- प्रशस्ति-संग्रह किंचोज्ज जासुघरिजं हवइ । भो कि सेवय रहो तं ग देह ? पत्ता - जा जिरणमुहरिगग्गय सग्ग सुभंगम गिरनइ लोगहो सारी । जं किउ हीरगाहिउ काइमि साहिउ तमहु खमउ भंडारी ॥६॥ इय पासरगाह चरिए प्रायमसारे सुवग्ग चहुंभरिए बुह असवाल विरइए संघाहिप सोणिगस्स कष्णाहरण सिरिपासरगाह गिव्वारण गमरणोरणाम तेरहमो परिच्छेनो सम्मत्तो ॥ १३॥ तृतीय परिशिष्ट ( पृ० १५०) का वड्ढमारणचरिउ प्रशस्ति का अन्तिम भाग (तृतीय परिशिष्ट के छप जाने पर भाद्रपद में व्यावर के ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन में प्राप्त ग्रंथ से नोट की हुई वड्ढमारणचरिउ प्रशस्ति का अंतिम भाग यहाँ दिया जा रहा है) । इह वोदाउ रगयरे मरणोहरे, विप्फुरंत गारगाविह सुरवरे । जायसवंस सरोय दिणेसहो, श्रणुदिणु चित्त रिगहित जिरणेस हो । गरवर सोमई तणु संभूवहो, साहु रोमिचंदहो गुणभूवहो । वयणें विरइउ सिरिहररणामें, तियरण रक्खिय असुहर गामें । ..' बोल्हा' गब्भ समुब्भव देहें, सव्वयरहिं सहुँ पर्याडयणेहें । एउ विरज्जिय पावखयंकरु, वडमाराजिरणचरिउ सुहंकरु । रिवsविक्कमाइच्च हो कालए' रिगव्वुच्छव वर तूर खालए । एयारह सएहि परिविगर्याह, संवच्छर सय रणवह समेयहि । जे पढम पक्खई पंचमिदिणे, सूरुवारे गयगंगारिण ठिइयणे । होउ संति संघ हो चउभेयहो, वड्ढउ बुद्धि सुयरग संधाय हो । रामयंदु रियकुल हरिदीवउ, प्रमुरिणय वरिस सहासई जीवउ । सिरिचंदु व चंदु व परियट्टउ, सम्मत्तामलसिरिश्रायट्टउ । विमलचंदु चंदु व जरणवल्लहु, होउ भ्रमुक्कउ लच्छिए दुल्लहु । यहि यिहि तिहिप रियारियर, जिरणवर धम्मानंदे भरियउ । मिचंदु महियले चिरु दिउ, जिरण पायारविंद महिवंदउ । यो गंथ हो संख मुरिगज्ज हो, वे सहास सय पंच भरिगज्ज हो । घसा - इयचरिउ वीरगाहहो तर उ साहु गेमिचंदहो मलु । श्रवहरउ देउ गिव्वाणसिरि, वुहसिरिहर हो वि गिम्मलु । इयसिरि वड्ढमारणतित्थयरदेव चरिए पवर गुण रयरण गिय भरिए विबुहसिरि सुकइ सिरिहर विरइए साहु सिरि गेमचंद प्रणुमणिए वीरगाह रिगव्वारणगमरणो णाम दहमो परिच्छेश्रो सम्मत्तो । - ऐ० पलालाल सरस्वती भवन व्यावर प्रति । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवा मंदिर ग्रंथमाला सुगन्ध बसमीकहा (सुगन्ध दसमी कथा) भ० बिमलकोति मावि मंगल पणवेप्पिणु सम्मइ जिणेसर हो जा पुन्वसूरि प्रागम भणिया । रिणसुणिज्जहु भवियहु इक्कमना कह कहमि सुगंधदसमी हित भणिया ।। अन्तिमभाग दसमिहि सुमंध विहाणु करेविणु तइय कप्प उपण्ण मरेविणु । चउदह पाहरयेहि पसाहिय सागी सुहुइ भुंजइ अविरोहिय ।। पुहवी मण्डणु पुरु सुरुदुल्लहु, राउ पयाउ दयाजण वल्लहु । मानस सुंदरि गत्ति उपण्णी मयणावलि नाम संपुण्णी ।। दिणि दिणि कुमरि वि पावह भत्ती भव्वलोय माणस मोहंती। सामवण्ण मण्णवि सुरहि तणु, जिणवरु सामिउ पज्जइ अणुदिणु । दाणु चउविह दिति ण थक्कइ, तह वच्छल्ल का वण्ण ण सक्कइ । धम्मवंत पेखि परणारहिं पोमाइयइ धम्मह असगहि । रायं सा परिणाविय जामहि पुत्तकलत्तहिं वट्टियतामहि । रामकित्ति गुरुविणउ करेविणु विमलकित्ति महियलि पडेविणु। पच्छइ पुणु तवयरणु करेविणु सइ अणुक्कमेण सो मोक्खु लहेसइ ।। पत्ता-जो करइ करावइ एह विहि वक्खारिणय विभवियह दावेइ । सो जिणणाह भासियहु सग्गु-मोक्खु फल पावइ ।।८।। इति सुगंध दसमी कथा समाप्ता पुप्फंजलिकथा (अनन्तकीति गुरु) मादि मंगल जय जय मरुह जिणेसर हयवम्मीसर मुत्तिसिरी वरंगण धरण। प्रयसय गण भासुर सहय महीसर जुत्ति गिराधर समकरण । अन्तिम भाग बलवत्तरिगणि रयणकित्ति मुणि सिस्स बूहिवं दिज्जइ । भावकित्ति जुउ अनंतकित्ति गुरु पुप्फंजलि विहि किज्जइ ॥११॥ • पुष्पांजलि कथा समाप्ता -राजस्थान ग्रंथ भंडार सूची भा० ४ पृ० ६३२ मेघमालवयकहा (कवि ठकुरती) रचना काल सं० १५८० प्राविभाग ण्य परिम जिरिंगदु वि दय कंदु वि सुव सिद्धत्व वि सियरो। कह कहमि रसाला वयघणमाला पर णिसुणहु करिकण्णविरो॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पैनप्रन्य-प्रशस्ति-संग्रह दिण्णेक ढुंढाहड देस मज्झि, एयरी चंपावह परिम सत्यि। तहिं अत्थि पास जिरणवरणिकेउ, जो भव कणिहि तारणहसेउ । तसु मझि पहाससि वर मुणीसु, सह संठिउ णं गोयमु मुणीसु । तहु पुरउ णिविट्टिय लोय भव्व, णिसुणंत धम्मु मरिण गलिय-गब्व । तहं मल्लिदास वणि तणु रहेण, सेवइ सुवुत्तु विणयं सहेण । भो घेल्हणंद ! सुणि ठकुरसीह, कइ कुलह मज्झि तुहु लहणु लीह । महु मेहमालवय कह पयासि, इण कियइ केण फलु लदु प्रासि । इह कह किय चिरु किण सहसकित्त, तुह करि पद्धडिया बंध मित्त । ता विहसि वि जंपइ घेल्हणंदु, जो धम्म कहा कहरिण प्रमंदु। भो मित्त ! पइमि बुज्झिउ हियत्यु, कह कहमि केम बुज्झउ ण अत्यु । वायरणु न मई गुणियउं गुणालु, कोवद्दम दीठउ रसु रसालु ।। जो हरइ जड तण तणउ दोसु, सो सवणि सुरिणयउ तिय सकोसु । कह कहरिण बुहयण हसहि मझ, किहकरि रंजावमि चित्त तुज्झ ।। अन्तिम भाग: सुप्रभंयडी चिरू लेवि सुत्तयं, करी कहा एह महा पवित्तयं । उरणग्गलं जंपय मत्त जंपिया, खमेउ तं देवी भारही मया ॥ ता माल्हा कुल-कमलु दिवायरु, अजमेराह वंसि मय सायरु । विरणयं सज्जण जगमरण रंजणु, दारिंग दुहियह उल-भंजणु ॥ रूवें मयरद्ध य सम सरिसु वि, परयण पुरह मज्झि मह पुरि सु वि । जिण गुण णिग्गंथह पयमत्तुवि, तोसण पंडिय कवियण चित्तु वि। वुच्छिय वयण सयल परिपालण, बंधव तिय सहयर सुयलालणु । एलीतिय भरण रुहइल सोहण, मल्लिदास यातहु मणु मोहण । तिणि सेवइ सुन्दरि यह कह सुरिण, सरिसु वउलीमउ सु दिदु मणि । पुणु तोल्हा तणेण परमत्थे, कह सुरिण वउली योसिर हत्यें? पुणुवि पहाडियाह वरवंसवि, लखीसयल णयरि सुपसंसवि । जीणा नंदणेण जिणभत्ते, ताल्हू वउली यो विहसंतें। पुणु पारस तणेण दुहुवीरें, गहिउ सुवउ जइ तइजस धीरें। पुणु वाकुलीयवाल सुविसालुवि, वालू वउली यो घणमालुवि । पुणु कह मुरिणवि ठकुरसी दरिण, रोमिदास भावरण भाईय मरिण । पुण गाथूसी बग्गरि भुल्लणि, लीयउ बउ जिउ रिय भय डुल्लणि । पुणु कह सुरिणवि मणोहर गारिहि, प्रवरहि भव्वण यर गर-णारहि । मेघमालावउ चंगउ महियउ, इंछिउ फलु लहि सहि कवि करियउ । चंपावतीव णयरि णिवसंते, रामचन्दपहु रज्जु करते। हाधुवसाहु महत्ति महत्ते, पहाचन्द गुरु उवएसते। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनग्रन्थप्रशस्ति संग्रह १८१ पणवह साइजिपस बेग्गल सावण मासि घट सिय मंगल । कहिये। पपउ पहाडिएससिरोमणि, बेल्हा गर तमु तिय वर धर बस्तुबंध-कोण सुबरि विणवह बयण काराविय एह कह। मिणि। मेहमालय विहि रवणिय पुण पुषि यह लिहावि करि । तह तणइ कवि ठापुरि सुदरि, यह कहि किय संभव जिन पयउ कणि पंज्यिह दिग्णिय मल्लाणंदु सु महिमलह . .मंदिरि। सेवर सेवर गुणह गहीर। पत्ता- ओ पढह पढाबह णियमणि भावद लेहाइ विसई नंबउ तब लगु-जउला, बहा गंगनादि नीर ॥११॥ करि लिहिये। इति मेघमाला कहा समाप्त मिति। - तसु वय की यह फल होह विणिम्मलु राम सुगणि गोय. ..: . पाठ-भेद . . : प्रशस्तिसंग्रह के छप जाने पर कुछ शुद्ध प्रति देखने को मिलीं जिन का पाठ शुद्ध प्रतीत हमा, उसे नीचे दिया जाता है, पाठक उमका अवलोकन कर यथास्थान दूसरा पाठ भी बनालें। १०वीं प्रशस्ति के ब्यावर की प्राचीन प्रति के पाठ-भेद :६० १५० ५ में जेण प्रणक्कमु हउ दायारु गुरण करिउ के स्थान पर 'जेण अणुक्कमि हुउ दायारु गुणकरिउ'। ६.१५० १६ में लक्खणू चउत्थो लक्खणू पसत्थु के स्थान पर 'लखमणु चउत्यो लक्खण पसत्यु'। ९० १२५ तह पिय गयणं वइदेहं जायदणं के स्थान पर 'तह पियमणं वइ देह जाय' । पृष्ठ ८६ की पंक्ति १० के बाद का पत्ता निम्न प्रकार है : पत्ता इय खुल्लयवयणे पोसिय गयण प्रवहारि पंडिउ चवइ। खीरण्णव पाणिउ सुरयण माणित को जडु घड उल्लें मवइ ॥३॥ शुध्दि-पत्र पृष्ठ कालम पंक्ति अशुद्ध कालम पंक्ति अशुद्ध ३ २ १९ गंधम्मि गंथाणं १ २४ आणावस प्राणासब ५ १ २४ गयउ गउ १ २८ णिहभउ णिहियउ ___८ १ ३३ बंध घर ३३ २ १५ जसहरु । ११ २ २०. मंधसेणु अंबसेणु २ २१ वय यम पिय यम १२ १ २६ -- विण्ह मुणि सुय- ३४ १ ७ बाहुवाण चाहवाण सागर पारएण ३६ १ १२ अणु मण्यु १५ २ २५ जिणदत्त चरिउ,१३ जिनदत्त चरिउ ३६ १ २५ सहोयरु मणोहरु १६ १ १७ तें सिरिणामें तेंसिरिहरणामें ३६ १ २६ णिव-सागर णिव सांरग २३ १९ कविदेवदं कवि देवचंद ३८ २९ पंडवपुराणु २१ पंडवपुराण २३ २ ३६ कब कय ५० १ ३० -- दुगणिय पणरह ३२. २ १६ गहीर-गाहि गहीरणाहि वच्छर जु एहि ३२ २ २७ ललियरकरई ललियक्खरइं ५ ० १ ३१ कागुण फागुण १ २१ प्रणणिय प्रगणिय ५१ २ १२ णतोय णिहिन्व-णं प्रभोणिहिब्व ३३ १ . परमप्पय परमप्पय पय ५१ १ १२. प्रवविणिहिम्ब भवरवि मुनिंद.. शुद्ध Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ शशु कालम पंक्ति ५२ २३ ५३ १२ 55 ८६ ८६ १० ६० et ६१ २ १ १ २ No a १ २० १५ १ १ ३२ २ ३६ १ ६ २ २८ २ ३६ २ ३५ १२ २ २५ १६ ?E ६१ ६८ ६८ १ UN २ १ शुद्ध संभव हो देवदासु ६ दो ३८ रिट्ठमि चरिउ रिट्ठमिचरिउ खिड़े xxx १०१ Por १०५ १०७ १ १०८ २ १०८ १ १०६ २ १०६ २ ११० १ ११० २ ११० २ ११० २ ११२ १ ११४ २ १७ ११४ २ २१ ११५ १ १२ ११५ १ २७ ११५ २ माणिउ ११ ११५ २१ ११० २ २३ ११६ १ २३ १९९ २ pr 120 अशुद्ध संभव हो देवदातु दो निवडु तसणि विमिय धम्मभेण वा भणि वियंभिय धम्मभेय सरवाया मिच्छमय वट्टमाण घुड वणसरु कईया सिरोमणि सिरोमणि सहाया मिच्छामय वड्ढमाण बुउ वणिवरु कईयण मण ४ ६४ गोयमु गायमु २७ तिहुमरिण तिहुयरिण ३४ पाविड पावित १३ यम प्राराहइ बुद्धारसी कविदेवदत्त नयनानन्द देवदहं देवसहं सम १६ भारहद्द दुपारसी ८ ५ ७ २१. मलु फलु ८ मंडलामरिय मंडलारिय जागि जगि भोमराज भोयराड नामा नाम भोयहु पुणु मोबराय मानें जितसल्ली जितमस्लो बीर-सेवा-मंदिर प्रथमानी एपारस एयारस नेपाल बेमाल समरण समरह पृष्ठ कालम पंक्ति १२० १ १२२ १२३ १२४ १२६ २ १२८ १ १२८ २ १२८ २ १२६ १ १२६ १२६ १३० १३१ १३२ १३२ १३३ १३३ १३५ १३५ १३५ १३६ १३६ १४१ १४२ rr pro २ १५० १५० १५१ १३ १६ देखो, पृ० १७७ १०२ १०३ सुरसइ सरसइ १०३ for १०४ १०५ १०५ १०६ कुमुमचंदु कुमुयचंदु १०६ १०७ १० १०७ १०८ १ foc १०६ २६ बुक्ख ३ दुपख १०१ सय भुद ११० सयंभुव १३७-२-१४ ११० भविसयत कहा १११ भविसयत्तकहा प० १ ११० १११ महापुराण १३८ २ २ २ २ १ २१ १७ १ २ २ १ २ १ १ २५ १ ११ २ १६ १ १ १ ८ १०१ पास पुराण १०२ पासचरित २६ संतियड संठियउ ३७ ३० २१ ३२ १ १ २ ५ १ १ ३० ५ २९ अशुद्ध शुद्ध रमणकिस रयाकित्ति ६६ दिवबंदी दिवचंदही ६८ ६६ पास पुराणं १०० पास पुराणं १०० १०१ २ १ २ २६ २ ३० - सुध कुमर सुघलक्खरण सयत्त रयणा सम्मत रयण —— महापुराण प० १-११२ ११३ प० १-११३ ११३ १० १-११४ ११५ प० २-१ ११६ साहुणामु चारग्रन्थों साहु णासु तीनग्रन्थों प० ३ जिसजिणेराहं ऐसराहं दामोपर वामोयर Page #371 -------------------------------------------------------------------------- _