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________________ प्रस्तावना २५ प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रन्थ लिखे गये हैं । उनमें वसुदेवहिण्डी गद्य और कुवलयमालाकथा तो -पद्य रूप में प्रसिद्ध ही हैं। कुवलयमाला में कहीं-कहीं अपभ्रंशभाषा के गद्य के भी दर्शन होते हैं पर बहुत कम । हाँ अपभ्रंशभाषा का पद्यात्मक कथासाहित्य प्रचुरता से उपलब्ध होता है; परन्तु कोई गद्यात्मक न्त्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं हुआ । ग्रन्थों के निर्मारण का उद्देश्य जैनाचार्यों अथवा जैन विद्वानों द्वारा कथा ग्रंथों के बनाए जाने का उद्देश्य केवल यह प्रतीत है कि जनता संयम से वचे श्रौर व्रतादि के अनुष्ठान द्वारा शरीर और आत्मा की शुद्धि की ओर अग्र हो । कथाओं में दुर्व्यसनों और अन्याय, अत्याचारों के बुरे परिणामों को दिखाने का अभिप्राय केवल से अपनी रक्षा करना, और जीवन को उच्च बनाना है । व्रताचरण - जन्य पुण्य फल को दिखाने का जिन यह है कि जनता अपना जीवन अधिक से अधिक संवत और पवित्र बनावे। त्रसघात, प्रमादकारक, नष्ट, अनुपसेव्य, तथा अल्पफल बहु-विघातरूप प्रभक्ष्य वस्तुयों के व्यवहार से अपने को निरन्तर दूर रखे । करने से ही मानव अपने जीवन को सफल बना सकता है। जैन विद्वानों का यह दृष्टिकोण कितना च और लोकोपयोगी है । अपभ्रंश के जैन कथा ग्रन्थों मे अनेक कवियों ने व्रतों का अनुष्ठान अथवा ग्राचरण करने वाले य श्रावकों के जीवन-परिचय के साथ व्रत का स्वरूप, विधान और फल प्राप्ति का रोचक वर्गान या है, साथ ही व्रत का पूरा अनुष्ठान करने के पश्चात् व्रत के उद्यापन करने की विधि, तथा उद्यापन की मर्थ्य न होने पर दुगुना व्रत करने की ग्रावश्यकता और उसके महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है। उद्यापन ते समय उस भव्य श्रावक की कर्तव्यनिष्ठा, धार्मिक श्रद्धा, साधर्म-वत्सलता, निर्दोष व्रताचरण की क्षमता र उदारता का अच्छा चित्ररण किया गया है और उससे जैनियों की उन समयों में होने वाली प्रवृयों, लोकसेवा, आहार, औषध, ज्ञान और अभय रूप चार दानों की प्रवृत्ति, तपस्वी-संयमी जनों की वृत्त्य तथा दीन दुखियों की समय समय पर की जाने वाली सहायता का उल्लेख पाया जाता हैं। इस ह यह कथा-साहित्य और पौराणिक चरितग्रन्थ ऐतिहासिक व्यक्तियों के पुरातन आख्यानों, व्रताचरणों थवा ऊँच-नीच व्यवहारों की एक कसौटी है । यद्यपि उनमें वस्तुस्थिति को आलंकारिक रूप से बहुत बढ़ा चढ़ाकर भी लिखा गया है; तो भी उनमें केवल कवि की कल्पना ही नहीं; कितनी ही ऐतिहासिक ख्यायिकायें ( सच्ची घटनायें ) भी मौजूद हैं जो समय समय पर वास्तविक रूप से घटित हुई हैं । अतः ऐतिहासिक तथ्यों को यों ही नहीं भुलाया जा सकता। जो ऐतिहासिक विद्वान इन कथाग्रन्थों और रों को कोरी गप्प या असत्य कल्पनाओं का गढ़ कहते हैं वे वस्तुस्थिति का मूल्य प्राँकने में असमर्थ ते हैं । अतः उनकी यह मान्यता समुचित नहीं कही जा सकती । प्राकृत भाषा में अनेक कथाग्रन्थ लिखे गये हैं । वसुदेव हिण्डी प्राकृत गद्य कथा - ग्रन्थ हैं । कुवलयला गद्य-पद्य कथा - ग्रन्थ हैं । समराइच्चकहा हरिभद्र की सुन्दर कृति है । कथारयरणकोष में अनेक थाएँ दी हुई हैं। इस तरह प्राकृत का कथा-साहित्य भी विपुल सामग्री को लिए हुए है, जिनमें अनेक कथाएँ 'किक हैं तथा लोकगीतों से निर्मित हुई हैं । अपभ्रंश भाषा में कथा - साहित्य कब शुरू हुआ, यह निश्चित नही हैं किन्तु विक्रम की ८वींवीं शताब्दी में रचे हुए अपभ्रंश कथा - साहित्य के उल्लेख जरूर उपलब्ध होते हैं, यद्यपि उस समय
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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