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________________ २६ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह का रचा हुमा कथा-साहित्य अभी उपलब्ध नहीं हुआ। महाकवि चउमुह (चतुर्मुख) और स्वयंभू की रची हुई पंचमी-कथाएँ थीं अवश्य और अन्य कथाग्रन्थ भी रचे गए होंगे। परन्तु वे अप्राप्य हो रहे हैं। अपभ्रंश में दो तरह की कथाएँ उपलब्ध होती हैं-बड़ी और छोटी; पर वे सब पद्य में हैं, गद्य में कोई कथा मेरे देखने में नहीं आई। वे उसमें न रची गई हों, ऐसा तो ज्ञात नहीं होता किन्तु वे रचनाएँ विरल होने से संभवतः विनष्ट हो गई हैं। प्रस्तुत प्रशस्तिसंग्रह में ४० के लगभग अपभ्रंश कथाग्रन्थों की प्रशस्तियां दी गई हैं। उनमें कई कथाग्रन्थों के कर्ता अभी अज्ञात हैं। शास्त्रभण्डारों में अन्वेषण करने पर इस तरह की अन्य कवियों द्वारा रचित कथाएँ और भी मिलेंगी, ऐसी संभावना है। क्योंकि अभीतक समस्त जैन ग्रन्थालय देखे नहीं गए हैं। उनके देखे जाने पर अपभ्रश के कथा-साहित्य पर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा। अपभ्रश की अनेक कथाओं के आधार पर संस्कृत में और हिन्दी में रचा हुआ विपुल कथा-साहित्य उपलब्ध होता है। दोहा साहित्य या मुक्तककाव्य जैसे संस्कृत साहित्य में ही 'अनुष्टुप् छंद' प्रसिद्ध रहा है वैसे ही अपभ्रंश में दोहा छंद है। इस छंद को अपभ्रश की देन कहा जा सकता है। दोहा छंद का लक्षगा प्राकृत पिङ्गल में इस प्रकार है तेरह मत्ता पढम पन पुणु एयारह देह । पुणु तेरह एपारहई दोहा-लक्खणु एह ॥७८।। जिसके प्रथम चरण में तेरह मात्रा, फिर दूसरे चरण में ग्यारह मात्रा, अनन्तर ३-४ चरणों में क्रमशः तेरह मात्रा और ग्यारह मात्रा हों वह दोहा छंद कहलाता है । जब इसी छंद को लय में गाया जाता है, तब चरणों की अंतिम मात्रा पर जोर दिया जाता है, इस अपेक्षा से हेमचन्द्राचार्य ने दोहे में चौदह और बारह मात्राओं का भी उल्लेख किया है सो ठीक है । दोहे को दोधक-दोहक भी कहते हैं । क्वचित् दोहे का नाम 'दुविहा' भी पाया जाता है । 'दुविहा' का संस्कृत रूपांतर 'द्विधा है' । दोहा छंद की प्रत्येक पंक्ति दो भागों में (१३-११ मात्रा रूप में) विभक्त होने से यह छंद मात्रिक अर्धसम जाति का है और इसके लिए 'दुविहा यह रूढ़ अन्वर्थ संज्ञा है । दोहा छंद सरल होने के साथ-साथ व्याकरण के नियमों से भी कम बंधा है, यही कारण है कि दोहा-साहित्य का अपभ्रंश में बाहुल्य है । हेमचंद्र आदि लक्षण-शास्त्रियों ने जो अपने व्याकरण ग्रंथों में अपभ्रंश के उदाहरणों के लिए प्रायः दोहा उद्धत किये हैं यह भी बाहुल्य का परिचायक है । आगे चलकर इस दोहा छंद को उत्तर भारत की प्रायः सभी भाषाओं में अपनाया गया है। दोहा छंद के माध्यम से गुजराती, व्रज, राजस्थानी भाषाओं में ढाल-रासो आदि की रचना खूब ई और होती रहती है। राजस्थानी में लौकिक गीत, ख्यालों के बोल, नोटंकी चोबोलों के बोल, कहावतें और चारणों का साहित्य प्रायः इसी भाषा छंद में कुछ मात्राएँ जोड़कर प्रचुर मात्रा में पाया जाता और सुना जाता है इससे यह छंद सर्वाधिक लोकप्रिय और सरल रहा है। मुक्तक काव्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश के सुलोचनाचरिउ, वाहबलिचरिउ, संदेशरासक, कीतिलता आदि खंडकाव्यों में यशःकीर्ति भट्टारक के पाण्डवपुराण और अन्यान्य पबन्ध काव्यों में भी दोहा छंद का प्रयोग प्रचुरता से उपलब्ध है। हिन्दी भाषा देखो विरहांक का वृत्त जाति समुच्चय 'दो पाया भण्णइ दुविहउ' । -H. D. वेलणकर ने 'विरहांक' का समय ईसा की ६ वीं शताब्दी बतलाया है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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