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________________ प्रस्तावना खुराशान से भी लोग बसने को आए थे। सम्भव है कुछ दिनों के बाद उसकी समृद्धि पुनः हो गई हो। मुनि विनयचन्द ने अपनी चूनड़ी अजयराजा के विहार में बैठकर बनाई थी। ७२ वी प्रशस्ति 'निर्भरपंचमीकहारास की हैं। जिसमें निर्भर पंचमी के व्रत का फल बतलाया गया है। जो व्यक्ति पंचमी व्रत का निर्दोष रूप से पालन करता है, वह अविकल सिद्ध पद को पाता है। इस व्रत की विधि बतलाते हुए लिखा है कि 'आषाढ़ शुक्ला पंचमी के दिन जागरण करे और उपवास करे तथा कार्तिक के महीने में उसका उद्यापन करे अथवा श्रावण में प्रारम्भ करके अगहन के महीने में उद्यापन करे और उद्यापन में छत्र-चमरादि पांच-पाँच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान करे' । यदि उद्यापन की शक्ति न हो, तो व्रत दूने समय तक करे।' इस रास को कवि ने त्रिभुवन गरि की तलहटी में बनाया था। रचना सुन्दर और सरस है। ७३ वीं प्रशस्ति 'कल्याणक रास' की है, जिसमें जैन तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों की तिथियों का निर्देश किया गया है। कवि परिचय प्रस्तुत कवि विनयचन्द माथुरसंघ के भट्टारक उदयचन्द के प्रशिष्य और बालचन्द मुनि के शिष्य थे। इन्होंने अपनी दोनों रचनाएँ त्रिभुवनगिरि में बनाई थी। किन्तु तीसरी रचना में उसके स्थान का कोई निर्देश नहीं किया, जिससे यह कहना कठिन है कि वह कहां पर बनी है । रचना समय तीनों में ही नहीं दिया हैं। संवत् १४५५ के गुच्छक में लिखी हुई कल्याणकरास की एक प्रति श्री पं० दीपचंद पांड्या केकड़ी के पास है, उससे इतना तो सुनिश्चित हो जाता है कि उक्त ग्रंथ उससे पूर्व ही रचा गया है। चूनडीरास त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल के भतीजे अजयराज के विहार में बैठकर बनाने का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। जिसका नाम करोली के शासकों की सूची में दर्ज है । संवत् १२५३ में त्रिभुवनगिरि का विनाश हुआ था, उसके बाद ही किसी समय 'चूनड़ीरास' रचा गया है। अजयराज के राज्य काल में नहीं इससे जान पड़ता है कि कवि का रचनाकाल वि० की १३वीं शताब्दी का मध्यकाल या १४वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। यहां यह लिखना अप्रासंगिक न होगा कि डा० प्रेमसागर जी ने हाल ही में 'जैन-भक्ति काव्य' नामका निबन्ध, जो भिक्षु अभिनन्दन ग्रंथ के खण्ड दो, पृष्ठ १२३ पर छपा है। उसमें भट्टारक विनयचन्द्र का समय वि० सं ५५७६ बतलाया है। उनके वे वाक्य इस प्रकार हैं "विनयचन्द्र मुनि इसी शती के सामर्थ्यवान् कवि थे। वे माथुर संघीय भट्टारक बालचन्द्रके शिष्य थे। विनयचन्द्र सूरि से स्पष्टतया पृथक् हैं। विनयचन्द्र सूरि चौदहवीं शती के रत्नसिंह सूरि के शिष्य थे। मुनि विनयचन्द्र गिरिपुर के राजा अजय नरेश के राज्यकाल में हुये हैं। उनका समय वि० सं० १५७६ माना जाता है।" १. धवल पक्खि प्रासादहिं पंचमि जागरण, सुह उपवासइ किज्जइ कातिग उज्जवणू। अह सावण प्रारंभिय पुज्जइ प्रागहरणे, इह मइणिज्झर पंचमि प्रक्खिय भय-हरणे ॥ माके १३२० तारणनाम संवत्सर "समये पौषवदि २ भौमवासरे" टंडास्थाने शाखासपुरास्थाने भटारक श्रीललितकीतिदेवा ग्रन्थीलखापित, काशीपुरे वाह विमलसिरि प्रेषित द्रव्य (व्येन कर्मक्षय निमित्तं लेखावतमिति । सुबुद्धि सुपुत्र पद्मसीह लिखितं । शुभमस्तु । -गुच्छक प० १०४
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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