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________________ ११६ जन पंच प्रशस्ति संग्रह धत्ता-जं वालि विदीउ करि उज्जोवउ अहिउ जीउ संभवइ परा। भमराइ पयंगई बहुविह भंगई मंडिय दीसइ जित्यु धरा ॥५॥ कवि का वंश अग्रवाल है, उनके पिता का नाम जंडू और माता का नाम वील्हा देवी था। कवि ने ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया, परन्तु रचना पर से वह १५ वीं शताब्दी की जान पड़ती है; क्योकि रचना जिस गुच्छक पर से संगृहीत की गई है, वह ३०० वर्ष से पूर्व का लिखा हुआ है। ७१ वीं प्रशस्ति से लेकर ७३ वीं प्रशस्ति तक तीनों प्रशस्तियां क्रमशः चूनडीरास, निझरपंचमी कहारास और कल्याणक रास की हैं जिनके कर्ता कवि विनयचन्द्र हैं। प्रस्तुत चूनडी रास में ३२ पद्य हैं। जिनमें चूनडी नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है । कोई मुग्धा युवती हंसती हुई अपने पति से कहती है कि हे सुभग! जिनमन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चूनड़ी शीघ्र छपवा दीजिये, जिससे में जिनशासन में विचक्षण हो जाऊँ । वह यह भी कहती है कि यदि आप वैसी चूनड़ी छपवा कर नहीं देंगे, तो वह छीपा मुझे तानाकशी करेगा। पति-पत्नी की बात सुनकर कहता है कि हे मुग्धे ! वह छीपा मुझे जैनसिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है। चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएँ विशेष रूप से प्रोढ़ती थीं। कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चूनड़ी रास का निर्माण किया है, जो वस्तु तत्व के विविध वाग-भूषणों से भूषित है, और जिसके अध्ययन से जैनसिद्धांत के मार्मिक रहस्यों का उद्घाटन होता है। वैसे ही वह शरीर को अलंकृत करती हुई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को अलंकृत करती हुई बालाएँ लोक में प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगी और और अपने कण्ठ को भूपित करने के साथ-साथ भेद-विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगी। रचना सरस और चित्ताकर्षक है इस पर कवि की एक स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है जिसमें चूनड़ी रास में दिये हुए शब्दों के रहस्य को उद्घाटित किया गया है। ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ संस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए। कवि ने इस रचना को 'त्रिभुवनगढ़' में 'अजयनरेन्द्र' के विहार में बैठकर बनाया है। उस समय त्रिभुवनगढ़' या तहनगढ़ जन-धन से समृद्ध था, इसीसे कवि ने उसे 'सग्ग खंड णं धरियल पायउ' वाक्य द्वारा उसे स्वर्गखण्ड के तुल्य बतलाया है। प्रस्तुत 'अजयनरेन्द्र' तहनगढ़ के राजा कुमारपाल का भतीजा था और उसके बाद राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था । संवत् १२५३ में वहां कुमारपाल का राज्य था, उस समय मुहम्मद गौरी ने सन् ११४६ में उस पर अधिकार कर लिया था। तब समस्त व्यापारी जन नगर छोड़कर इधर-उधर भाग गये थे, नगर जन-धन से शून्य हो गया था। वहां अनेक मन्दिर और शिवालय थे। मूर्ति-पूजा का वहां बहुत प्रचार था; किन्तु मुसलमानों का अधिकार होते ही अनेक मन्दिर-मूर्तियां धराशायी करा दी गई थीं, जिससे नगर श्रीहीन और वीरान-सा हो गया था। मुहम्मद गौरी ने वहां का शासक वहरुद्दीन तुगरिक को नियुक्त किया था, उसने दूर-दूर से बसने के लिये व्यापारियों को बुलाया था, १. त्रिभुवनगढ़ या तहनगढ़ राजस्थान के ऐतिहासिक स्थान है । जो 'बहनपाल' के द्वारा बसाया गया था वयाना 'तहनगढ़' पौर करौली ये तीनों स्थान इस वंश के द्वारा शासित रहे हैं। प्रस्तुत प्रजयनरेन्द्र करौली के राजवंश-सूची से कुमारपाल का भतीजा ज्ञात होता है । तहनगढ़ के सम्बन्ध में अन्यत्र पाद टिप्पण में विचार किया गया है, पाठक वहां देखें।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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