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प्रस्तावना
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दे दिया और कहा कि जब मेरा रोग ठीक हो जाएगा, मैं अपना राज्य वापिस ले लूंगा । श्रीपाल अपने साथियों के साथ नगर छोड़कर चले गए, और अनेक कष्ट भोगते हुए उज्जैन नगर के बाहर जंगल में ठहर गए। वहां का राजा अपने को ही सब कुछ मानता था, कर्मों के फल पर उसका विश्वास नहीं था । उसकी पुत्री मैना सुन्दरी ने जैन साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था, और कर्म सिद्धान्त का उसे अच्छा परिज्ञान हो गया था, उसकी जैनधर्म पर बड़ी श्रद्धा और भक्ति थी साथ ही साध्वी और शीलवती थी । राजा ने उससे अपना पति चुनने के लिए कहा, परन्तु उसने कहा कि यह कार्य शीलवती पुत्रियों के योग्य नहीं है । इस सम्बन्ध में श्राप ही स्वयं निर्णय करें । राजा ने उसके उत्तर से असंतुष्ट हो उसका विवाह कुष्ठ रोगी श्रीपाल के साथ कर दिया। मंत्रियों ने बहुत समझाया, परन्तु उस पर राजा ने कोई ध्यान न दिया । निदान कुछ ही समय में मैनासुन्दरी ने सिद्धचक्र का पाठ भक्ति भाव से सम्पन्न किया, और जिनेन्द्र के अभिषेक जल से उन सबका कुष्ठ रोग दूर हो गया । और वे सुखपूर्वक रहने लगे । पश्चात् श्रीपाल बारह वर्ष के लिए विदेश चला गया, वहां भी उसने अनेक कर्म के शुभाशुभ परिणाम देखे, और बाह्य विभूति के साथ बारह वर्ष बाद मैना सुन्दरी से मिला, उसे पटरानी बनाया, और चंपापुर जाकर चाचा से राज्य लेकर शासन किया । और ग्रन्त में तप द्वारा आत्म लाभ किया। इस कथानक से सिद्धचक्रव्रत की महत्ता का आभास मिलता है। रचना सुन्दर और संक्षिप्त है ।
दूसरी कृति 'जिन रात्रि कथा' है, जिसे वर्द्धमान कथा भी कहा जाता है। जिस रात्रि में भगवान महावीर ने अविनाशी पद प्राप्त किया, उसी व्रत की कथा शिवरात्रि के ढंग पर रची गई है। उस रात्रि में जनता को इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हुये आत्म-शोधन का प्रयत्न करना चाहिए। रचना सरस है, कवि ने रचना में अपना कोई परिचय, गुरु परम्परा तथा समयादि का कोई उल्लेख नहीं किया । इससे कवि के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। 'सिद्धचक्क कथा' की प्रति सं० १५१२ की लिखी हुई मिली है । जिससे स्पष्ट है कि उक्त ग्रंथ उससे पूर्व बन चुका था । कितने पूर्व यह अभी विचारणीय है । फिर भी यह रचना १४वीं शताब्दी या उसके ग्रास-पास की जान पड़ती है ।
७० वीं प्रशस्ति ‘अरणत्थमिय कहा की है, जिसके कर्ता कवि हरिचन्द हैं । प्रस्तुत कथा में १६ कडवक दिये हुए हैं जिनमें रात्रिभोजन से होने वाली हानियों को दिखलाते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा की गई हैं और बतलाया गया है कि जिस तरह अन्धा मनुष्य ग्रास की शुद्धि शुद्धि सुन्दरता आदि का अवलोकन नहीं कर सकता । उसी प्रकार सूर्य के अस्त हो जाने पर रात्रि में भोजन करने वाले लोगों से कीड़ी, पतंगा, झींगुर, चिउंटी, डांस, मच्छर आदि सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षा नहीं हो सकती । बिजली का प्रकाश भी उन्हें रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। रात्रि में भोजन करने से भोजन में उन विषैले जीवों के पेट में चले जाने से अनेक तरह के रोग हो जाते हैं, उनसे शारीरिक स्वास्थ्य को बड़ी हानि उठानी पड़ती है । अतः धार्मिकदृष्टि और स्वास्थ्य की दृष्टि से रात्रि में भोजन का परित्याग करना ही श्रेयस्कर है जैसा कि कवि के निम्न पद्य से स्पष्ट है
जिहि दिट्ठि ग य सरइ अंधुजेम, नहिं गास-सुद्धि भरगु होय केम । for-as-पयंग भिंगुराई, पिप्पीलाई डंसई मच्छिराई । खज्जूरइ कण्ण सलाइया इं, अवरइ जीवइ जे बहुसयाई । अन्नाणी रिसि भुंजंतरण, पसुसरि सुधरिउ अप्पाणु तेरा ।