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________________ ११४ जंन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि-परिचय यद्यपि कवि ने अपना कोई विशेष परिचय ग्रन्थ में नहीं दिया, फिर भी प्रथम संधि के दूसरे - तीसरे कवक से ज्ञात होता है कि कवि का नाम हरि या हरिदेव था । इनके पिता का नाम चङ्गदेव श्रौर माता का नाम चित्रा (देवी) था । इनके दो ज्येष्ठ और दो कनिष्ठ भाई भी थे । उनमें जेठे भाइयों का नाम किंकर और कृष्ण था । इनमें किंकर गुणवान और कृष्ण स्वभावतः निपुण था, कनिष्ठ भाइयों के नाम क्रमशः द्विजवर और राघव थे, ये दोनों ही धर्मात्मा थे । संस्कृत 'मदन पराजय' इसी रूपक - ग्रन्थ का संबद्धित अनुवादित रूप है । और जिसके कर्ता कवि नागदेव उन्हीं के वंगज तथा ५वीं पीढ़ी में हुए थे । उन्होंने ग्रंथ प्रशस्ति में जो परिचय दिया है उससे कवि के वंश का परिचय निम्न प्रकार मिलता है- पृथ्वी पर शुद्ध सोमकुलरूपी कमल को विकसित करने के लिए सूर्य तथा याचकों के लिए कल्पवृक्ष रूप चङ्गदेव हुए । उनके पुत्र हरि या हरदेव, जो असत्कवि रूपी हस्तियों के लिए सिंह थे । उनके पुत्र वैद्यराज नागदेव, नागदेव के 'हेम' और 'राम' नाम के दो पुत्र थे। जो दोनों ही वैद्य-विद्या में निपुण थे। राम के पुत्र 'प्रियंकर' हुए, जो दानी थे। प्रियंकर के पुत्र 'मल्लुगि' थे, जो चिकित्सा महोदधि के परिगामी विद्वान् और जिनेन्द्र के चरण कमलों के मत्त भ्रमर थे । उनका पुत्र मैं अल्पज्ञानी नागदेव हूँ। जो काव्य, अलंकार, और शब्द कोष के ज्ञान से विहीन हूँ । हरिदेव ने जिस कथा को प्राकृत बन्ध में रचा था उसे मैं धर्मवृद्धि के लिए संस्कृत में रचता हूँ' । कवि ने ग्रन्थ में कोई रचना काल नहीं दिया । ग्रन्थ की यह प्रति सं० १५७६ की लिखी हुई ग्रामर भंडार में सुरक्षित है। उससे यह ग्रन्थ पूर्व बना है । इस ग्रन्थ की दूसरी प्रति सं० १५५१ मगशिर सुदि अष्टमी गुरुवार की लिखी हुई जयपुर के तेरापंथी बड़े मंदिर के शास्त्र भंडार में मौजूद है, जिससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि उक्त ग्रन्थ सं० १५५१ से पूर्ववर्ती है । ग्रन्थ के भाषा साहित्यादि पर से वह १४वीं शताब्दी के उपान्त समय की और १५वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की कृति जान पड़ती है । ६वीं और १०५वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः 'सिद्धचक्क कहा' और 'जिरणरत्तिविहारण कहा की हैं, जिन के कर्ता कवि नरसेन हैं । सिद्धचक्र कथा में चंपा नगरी के राजा श्रीपाल और उनकी धर्मपत्नी मैनासुन्दरी का चरित्र-चित्रण किया गया है । अशुभोदय वस राजा श्रीपाल और उनके सात सौ साथियों को भयंकर कुष्ठ रोग हो जाता है । रोग की वृद्धि हो जाने पर उनका नगर में रहना असह्य हो गया, उनके शरीर की दुर्गन्ध से जनता का वहाँ रहना भी दूभर हो गया, तब जनता के अनुरोध से उन्होंने अपना राज्य अपने चाचा अरिदमन को २. य. शुद्धः सोमकुलपद्मविकासनार्को, जातोर्थिनां सुरतरुर्भुवि चङ्गदेवः । तन्नन्दनो हरिस्सत्कविनागसिंहः, तस्मात् भिषग्जनपतिर्भुवि नागदेवः ॥२॥ तन्नावुभौ सुभिषजाविह हेम-राम, रामत्प्रिङ्करइति प्रियदोऽथिनां यः । तञ्जश्चिकित्सितमहाम्बुधि पारमाप्तः श्रीमल्लुगि जिनपदाम्बुज मत्तभृङ्गः ॥३॥ तज्जोऽहं नागदेवाख्यः स्तोकज्ञानेन संयुतः । छन्दोऽलङ्कारकाव्यानि नाभिधानानि वेदम्यहम् ||४ ॥ कथा प्राकृतबन्धेन हरिदेवेन या कृता । वक्ष्ये संस्कृत बंधेन भव्यानां धर्मवृद्धये ॥५॥ -मदन पराजय
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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