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________________ ११८ जैन ग्रंप प्रशस्ति संग्रह डा० साहब का समय-सम्बन्धी निष्कर्ष ठीक नहीं है। श्वेताम्बरीय विनयचन्द्र सूरि से तो वे पृ.क हैं हो । वि० सं० १५७६ विनयचन्द्र का समय नहीं है किन्तु उस गुच्छक के लिपि होने का समय है जो सुनपत (वर्तमान सोनीपत) में उक्त संवत् में लिखा गया था। श्वेताम्बरीय विनयचन्द्र सूरि से भट्टारक विनयचन्द्र पूर्ववर्ती हैं। कवि ने कुमारपाल के भतीजे अजयनरेश के विहार में बैठकर तहनगढ़ में चूनड़ी रास बनाया है। सं० १४५५ की तो कल्याणक रास की लिखित प्रति उपलब्ध है। विनयचन्द्र मुनि का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का मध्य भाग या चौदहवीं का प्रारम्भिक भाग हो सकता है । उससे बाद का नहीं। ७४वीं प्रशस्ति 'सोखवइविहाणकहा' की है कि जिसके कर्ता कवि विमलकीति हैं। प्रस्तुत कथा में व्रत की विधि और उसके फल का विधान किया गया है । कवि ने अपनी कोई गुरु परम्परा और रचना काल नहीं दिया। पर-सूत्रों से यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत कवि माथुर गच्छ बागडसंघ के मुनि रामकीर्ति के शिष्य थे। जिनका समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का है'। राजस्थान शास्त्र भन्डार की ग्रन्थ सूची नं० ४ के पृष्ठ ६३२ पर 'सुगन्धदशमी कथा' का उल्लेख है, जिसकी अन्तिम प्रशस्ति में विमलकीर्ति को रामकीर्ति का शिष्य बतलाया गया है । इससे यह रचना उन्हीं की जान पड़ती है। उनकी अन्य क्या रचनाये हैं। यह अभी ज्ञात नहीं हो सका। प्रस्तत बागडसंघ के रामकीर्ति कब हुए, यहां यह विचारणीय है। रामकीति नाम के दो विद्वानों का नाम मेरे ऐतिहासिक रजिस्टर में उल्लिखित है । उनमें से प्रथम रामकीर्ति ही विमलकीर्ति के गुरु हो सकते हैं। ये रामकीति वही जान पड़ते हैं, जो जयकीति के शिष्य थे, और जिनकी लिखी हुई प्रशस्ति चित्तौड़ में सं० १२०७ में उत्कीर्ण की गई उपलब्ध है ४ । इससे रामकीर्ति का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी है। क्योंकि जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यश कीर्ति ने जो विमलकीर्ति के शिष्य थे। अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्वेताम्बरीय विद्वान् धनेश्वरसूरि का उल्लेख किया है जो अभयदेवसरि के शिष्य थे और जिनका समय सं० ११७१ है। इससे भी प्रस्तुत राम १. प्रासि पुरा वित्थिपणे वायडसंघे ससंघ-संकासो। मुणिराम इत्तिधीरो गिरिव्व गइमुव्व गंभीरो ॥१८॥ संजाउ तस्स सीसो विबुहो सिरि 'विमल इत्ति' विक्खायो। विमलयइकित्ति खडिया धवलिय धरणियल गयणयलो ॥१६॥ -जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला प्रशस्ति २. रामकित्ति गुरु विणउ करेविणु विमलकित्ति महियलि पडेविण । पच्छइ पुणु तवयरण करेविणु सइ अणुकमेण सो मोक्ख लहेसइ ॥ -सुगन्ध दशमी कथा प्रशस्ति ३. प्रथम रामकीर्ति जयकीति के शिष्य थे, देखो एपि ग्राफिका इंडिका जि० २, पृ० ४२१ दूसरे रामकीर्ति जो मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ के विद्वान थे। इनके शिष्य प्रभाचन्द्र ने सं० १४१३ में वैशाख सुदि ५३ बुधवार के दिन अमरावती के चौहान राजा अजयराज के राज्य में लंबकंचुकान्वयी श्रावक ने एक जिन मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई थी, जो भूगर्भ से प्राप्त होकर भोगांव के मंदिर में खंडितावस्था में मौजूद (देखो, जैन सि. भा. भा० २२ अंक २। ४. एपिग्राफिका इंडिका जि० २ पृ० ४२१ ५. सुवणाणं मज्झण्णो ताण पसाएण इट्ठसंपत्तं । णमिऊण तस्स चलणे भावेण धणेसर गुरुस्स ॥४॥ -जगत्सुंदरी प्रयोगमाला प्रशस्ति
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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