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प्रस्तावना
११६ कीति १२वीं के अन्तिम चरण और १३वीं के प्रारम्भिक विद्वान ज्ञात होते हैं और विमलकीति का समय भी १३वीं शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है । यहां यह विचार अप्रासंगिक न होगा कि विद्याधर जोहरापुरकर ने 'भट्टारक सम्प्रदाय' के पृष्ठ २६३ में जगत्सून्दरी प्रयोगमाला के कर्ता यशःकीति का समय 'अनुमानतः १५ वीं सदी है' ऐसा लिखा है जो किसी भूल का परिणाम है। ऊपर जो विचार किया गया है उससे स्पष्ट है कि ये यश:कीर्ति विक्रम की १३ वीं शताब्दी के विद्वान थे। उनकी दृष्टि धनेश्वर गुरु के उल्लेख पर नहीं गई जान पड़ती, इसीसे ऐसा लिखा है ।
७५वीं प्रशस्ति 'चन्दरण उट्ठी कहा' की है जिसके कर्ता रवि लक्ष्मण या लाग्य है। इस कथा में 'चन्दन छठ' के व्रत का परिणाम बतलाया गया है, और व्रत विधि के साथ उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है।
कथाकार ने अपना कोई परिचय नहीं दिया और न अपनी गुरु परम्परा ही दी, जिससे यह कहना अत्यन्त कठिन है कि पं० लक्ष्मण की या लाखू की गुरु परम्परा क्या है और वे किस वंश के थे ? अपभ्रंश भाषा के दो कवि लक्ष्मण नाम के हैं। उनमें प्रथम लक्ष्मरण कवि वे हैं, जो जैसवाल वंश में उत्पन्न हुए थे, इन के पिता का नाम 'साहुल' था, यह 'त्रिभुवनगिरि' या तहनगढ़ के निवासी थे, उसके विनष्ट होने पर विलराम पुर आये थे, वहां पुरवाड वंशीय सेठ श्रीधर की प्रेरणा से लक्ष्मण ने जिनदत्तचरित्र की रचना सं० १२७५ में पौष कृष्णा षष्ठी रविवार के दिन की थी. । इनका परिचय अन्यत्र दिया हुआ है।
दूसरे कवि लक्ष्मण वे हैं, जो रतनदेव वणिक के पुत्र थे और जो मालव देश के 'गोणंदनगर' के निवासी थे। इन्होंने ८२ कडवकों और चार संधियों में 'रोमिरणाह चरिउ' की रचना की थी। इन दोनों लक्ष्मणों में से यह कथा किस की बनाई हुई है या लक्ष्मण नाम के कोई तीसरे ही कवि इस कथाके कर्ता हैं। यह सव अनुसन्धान करने की जरूरत है।
७६वीं और ७७वीं प्रशस्तियां क्रमश: निर्दुःख सप्तमी कथा' और 'दुद्धारस कथा' की है, जिनके कर्ता मुनि बालचन्द्र हैं।
प्रस्तुत कथाओं में व्रतों के फल का विधान किया गया है और व्रतों के अनुष्ठान की विधि बतलाते हुए उनके आचरण की प्रेरणा की गई है।
मुनि बालचन्द्र माथुरसंघ के विद्वान उदयचन्द मुनि के शिष्य और विनयचन्द मुनि के गुरु थे। विनयचन्द्र का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १४ वीं शताब्दी का प्रथम चरण है । अतएव इनके गुरु मुनि बालचन्द का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का मध्य चरण हो सकता है पर निश्चित समय के लिए अभी और भी अन्वेषण की जरूरत है।
७८वीं प्रशस्ति भी 'रविवय कहा' को है, जिसके कर्ता उक्त माथुर संघी मुनि नेमचन्द्र हैं।
प्रस्तुत कथा में रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। ग्रन्थ प्रशस्ति में रचना काल दिया हुया नहीं है । अतएव यह भी कहना कठिन है कि उनका निश्चित समय क्या है ? कथा के भाषा साहित्यादि पर से यह रचना १५ वीं शताब्दी को जान पड़ती है। हो सकता है कि वह इससे भी पूर्व रची गई हो। अन्य साधन सामग्री का अन्वेषण कर कवि का यथार्थ समय निश्चित करना आवश्यक है।
१. बारहसय सत्तरयं पंचोत्तरयं विक्कमकाल वियत्तउ । पढमपक्खि रविवारइ छट्ठि सहारइ पूसमास सम्मत्तउ ॥
-जिनदत्त चरित प्रशस्ति