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________________ ८८ जनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह शिवनंदि भट्टारक को पाम्नायके थे। जिनधर्मरत, श्रावकधर्म प्रतिपालक, दयावंत और चतुर्विधि संघके संपोषक थे। मुनि पद्मनंदि ने शिवनंदी को दीक्षा दी थी। दीक्षा से पूर्व इनका नाम सुरजन साहु था, जो संसार से विरक्त और निरंतर बारह भावनाओं का चिन्तन करते थे। उन्होंने दीक्षित होने के बाद कठोर तपश्चरण किया, मासोपवास किये, और निरन्तर धर्मध्यान में लीन रहते थे। प्रशस्ति में साह सुरजन के परिवार का भी परिचय दिया हुआ है । कवि तेजपाल ने इस ग्रन्थ को वि० सं० १५१५ में कार्तिक कृष्णापंचमी के दिन समाप्त किया था। कवि-परिचय कवि मूलसंध के भट्टारक रत्नकीति, भुवनकीति, धर्मकीर्ति और विशालकोति की आम्नाय का था। वासवपुर नामक गांव में वरसाबडह वंश में जाल्हउ नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम सूजउ साहू था, वे दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहते थे। उनके चार पुत्र थे, रणमल, बल्लाल, ईसरू और पोल्हणु ये चारों ही भाई खंडेलवाल कुल के भूषण थे। प्रस्तुत रणमल साहु के पुत्र ताल्हुय साहु हुए । उनका पुत्र कवि तेजपाल था, जिसने उक्त तीनों खण्ड काव्य-ग्रन्थों की रचनाएं की हैं । ये तीन ही ग्रंथ अप्रकाशित हैं, उन्हें प्रकाश में लाना चाहिए। ३०वीं प्रशस्ति 'सुकमाल चरिउ' की है। जिसके कर्ता मुनि पूर्णभद्र हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में छह परिच्छेद या सन्धियाँ हैं जिनमें अवन्ती नगरी के सुकमाल श्रेष्ठी का जीवन-परिचय अंकित है। जिससे मालूम होता है कि उनका शरीर कितना सुकोमल था; परन्तु वे परिषहों और निस्पृह थे। उनकी उपसर्ग जन्य पीड़ा का ध्यान आते ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। परन्तु परीषह जयी उस साधु की सहिष्णुता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा शरीर के खाये जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीषह जयी योगी के चरणों में मस्तक अनायास झुक ही जाता है । कवि ने इस ग्रंथ की रचना कब की यह ग्रंथ-प्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता। कवि-परिचय कवि ने अपनी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार बतलाई है । वे गुजरात देश के नागर मण्डल नामक नगर के निवासी थे। वहाँ वीरसूरि नाम के एक महामुनि थे। उनके शिष्य मुनिभद्र, मुनिभद्र के शिष्य कुमुमभद्र कुसुमभद्र के शिष्य गुणभद्र, और गुणभद्र के शिष्य पूर्णभद्र । परन्तु प्रशस्ति में कर्ता ने अपने संध गण गच्छादिक का कहीं कोई उल्लेख ही नहीं किया, जिससे उनकी गुरु परम्परा और समय पर प्रकाश डाला जाता । आमेर शास्त्र भंडार की प्रति में लिपि प्रशस्ति नहीं है। किन्तु दिल्ली के पंचायती मंदिर की यह प्रति सं० १६३२ की लिखी हुई है। जिसकी पत्र संख्या ४३ है । इससे ग्रंथ रचना बहुत पहले हुई है । कितने पूर्व हुई यह अभी विचारणीय है। नेमिणाह चरिउ के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम पूर्णभद्र लिखा है, वह ग्रन्थ सं० १२८७ में रचा गया है । यदि ये पूर्णभद्र गुणभद्र के ही शिष्य हों; तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत ग्रंथ का रचना काल विक्रम की १३वीं शताब्दी का मध्यभाग हो सकता है । और यदि वे पूर्णभद्र, गुणभद्र के शिष्य नहीं हैं तब, उनका समय अन्वेषणीय है। __ ३१वीं प्रशस्ति ‘णेमिणाह चरिउ' की है, जिसका परिचय ग्यारहवीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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