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________________ प्रस्तावना 5& ३२ वीं प्रशस्ति 'मिरगाह चरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि लक्ष्मरण है । ग्रन्थ में ४ संधियां या परिच्छेद और ८३ कडवक हैं जिनकी अनुमानिक श्लोक संख्या १३५० के लगभग है । ग्रन्थ में चरित श्रीर धार्मिक उपदेश की प्रधानता होते हुए वह अनेक सुन्दर स्थलों से अलंकृत हैं । ग्रन्थ की प्रथम सन्धि में जिन और सरस्वती के स्तवन के साथ मानव जन्म की दुर्लभता का निर्देश करते हुए सज्जन- दुर्जन का स्मरण किया है और फिर कवि ने अपनी अल्पज्ञता को प्रदर्शित किया है। मगध देश और राजगृह नगर के कथन के पश्चात् राजा श्रेणिक अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए गणधर से नेमिनाथ का चरित वर्णन करने के लिए कहता है । वराडक देश में स्थित वारावती या द्वारावती नगरी में जनार्दन नाम का राजा राज्य करता था, वहीं शौरीपुर नरेश समुदविजय अपनी शिवदेवी के साथ रहते थे । जरासन्ध के भय से यादव गण शौरीपुर छोड़कर द्वारिका में रहने लगे। वहीं उनके तीर्थंकर नेमिनाथ का जन्म हुआ था । यह कृष्ण के चचेरे भाई थे । बालक का जन्मादि संस्कार इन्द्रादि देवों ने किया था। दूसरी संधि में नेमिनाथ की युवावस्था, वसंत वर्णन और जलक्रीड़ा आदि के प्रसंगों का कथन दिया हुआ है । कृष्ण को नेमिनाथ के पराक्रम से ईर्षा होने लगती है और वह उन्हें विरक्त करना चाहते हैं। भूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से नेमिनाथ का विवाह निश्चित होता है। बारात सज-धज कर भूनागढ़ के सन्निकट पहुंचती है, नेमिनाथ बहुत से राजपुत्रों साथ रथ में बैठे हुए आस-पास की प्राकृतिक सुषमा का निरीक्षण करते हुए जा रहे थे । उस समय उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा बहुत से पशु एक बाड़े में बन्द हैं वे वहां से निकलना चाहते हैं किन्तु वहां से निकलने का कोई मार्ग नहीं है । नेमिनाथ ने सारथी से रथ रोकने को कहा और पूछा कि ये पशु यहां क्यों रोके गए हैं । नेमिनाथ को सारथि यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि बरात में आने वाले राजाओं के प्रातिथ्य के लिए इन पशुओं का वध किया जायगा, इससे उनके दयालु हृदय को बड़ी ठेस लगी, वे बोले- यदि मेरे विवाह के निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकट में है, तो धिवकार है मेरे उस विवाह को, अब मैं विवाह नहीं करूंगा । पशुत्रों को छुड़वाकर तुरन्त ही रथ से उतर कर मुकट और कंकरण को फेंक वन की ओर चल दिए। इस समाचार बरात में कोहराम मच गया । उधर भूनागढ़ के अन्तःपुर में जब राजकुमारी को यह ज्ञात हुआ, तो वह मूर्छा खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोगों ने नेमिनाथ को लौटाने का प्रयत्न किया, किन्तु सब व्यर्थ । वे पास में स्थित ऊर्जयन्त गिरि पर चढ़ गए और सहसा म्रवन में वस्त्रालंकार आदि परिधान का परित्याग कर दिगम्बर मुद्रार श्रात्मध्यान में लीन हो गए। तीसरी संधिमें वियोग का वर्णन है । राजमती ने भी तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना की । अन्तिम संधि में नेमिनाथ का पूर्ण ज्ञानी हो धर्मोपदेश और निर्वारण प्राप्ति का कथन दिया हुआ है। इस तरह ग्रंथ का चरित विभाग बड़ा ही सुन्दर तथा संक्षिप्त है और कवि ने उक्त घटना को सजीव रूप में चित्रित करने का उपक्रम किया है । कवि ने संसार की विवशता का सुन्दर अंकन करते हुए कहा है - जिस मनुष्य के घर में अन्न भरा हुआ है उसे भोजन के प्रति अरुचि है । जिसमें भोजन करने की शक्ति है, उसके पास शस्य (धान्य) नहीं । जिसमें दान का उत्साह है उसके पास धन नहीं, जिसके पास धन है, उसे प्रति लोभ है । जिसमें काम का प्रभुत्व है उसके भार्या नहीं, जिसके पास स्त्री है उसका काम शान्त है । जैसा कि ग्रन्थ की निम्न पंक्तियों से प्रकट है जसु गेहि अणु तसु रुइ होइ, जसु भोजसत्ति तसु ससुरा होइ । जसु दारण छाहु तसु दविणु गत्थि, जसु दविणु तासु उइ लोहु श्रत्थि । जसु मय राउतसि गत्थि भाम, जसु भाम तासु उच्छवरण काम । - रोमिमिरगाह चरिउ ३-२
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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