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________________ जन पंच प्रशस्ति संग्रह ग्रंथकर्ता ने स्थान-स्थान पर अनेक सुन्दर सुभाषितों और सूक्तियों को उद्धृत किया है वे निम्म प्रकार हैं कि जीयई धम्म विवज्जिएण-धर्म रहित जीने से क्या प्रयोजन है। किं सुडई संगरि कायरेण-युद्ध में कायर सुभटों से क्या ? किं वयण असच्चा भासणेण, झूठ बचन बोलने से क्या प्रयोजन है ? किं पुत्तइं गोत्त विरणासरणेण, कुल का नाश करने वाले पुत्र से क्या ? कि फुल्लई गंध विवज्जिएण, गन्ध रहित फूल से क्या ? ग्रन्थ में कड़वकों के प्रारम्भ में हेला, दुवई, वस्तु वंध आदि छंदों का प्रयोग किया है। किन्तु ग्रंश में छन्दों की बहुलता नहीं हैं। कवि ने इस ग्रंथ को १० महीने में समाप्त किया है। ग्रंथ की सबसे पुरानी प्रति सं० १५१० के लिखी हुई प्राप्त हुई है । इससे इसका रचना काल सं० १५१० के बाद का नहीं हो सकता, किन्तु पूर्ववर्ती यह अन्वेषणीय है । सम्भवतः यह कृति १२ वीं या १३ वीं शताब्दी की होनी चाहिए। कवि परिचय लक्ष्मणदेव का वंश पुरवाड़ था और पिता का नाम था रयणदेव या रत्नदेब । इनकी जन्म मालव देशान्तर्गत गोनन्द नामक नगर में थी। यह नगर उस समय जैनधर्म और विद्या का केन्द्र था वह अनेक उत्तुंग जिन मन्दिर तथा मेरु जिनालय भी था। कवि अत्यन्त धार्मिक, धन सम्पन्न और रूपवान थ वहां पहले कवि ने किसी व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी, जो विद्वानों के कण्ठ का पाभरण रूप था परन्तु कौन सा व्याकरण ग्रन्थ था, और उसका क्या नाम था, यह प्रयत्न करने पर भी ज्ञात नहीं हो सका हो सकता है कि वह अपभ्रंश का व्याकरण हो या संस्कृतका हो । गोनन्द नगरके अस्तित्वका भी मुझे पत नहीं चला। पर इतना जरूर मालूम होता है कि यह नगरी मालव देश में थी, और उज्जैन तथा भेलसा मध्यवर्ती किसी स्थान पर होनी चाहिए । संभव है वर्तमान में उसके नाम पर कोई अन्य नगर बस गया हो कवि वहां रहकर जिन-वाणी के रस का पान किया करते थे । इनके भाई का नाम 'अम्बदेव' था, जो र्का थे, उन्होंने भी किसी ग्रन्थ की रचना की थी, पर वह भी अनुपलब्ध है । मालव प्रांत के किसी शास्त्र-भंडा में इसकी तलाश होनी चाहिए। ____३३ वी ३४ वीं प्रशस्तियां क्रमशः अमरसेनचरित और नागकुमार चरित की हैं, जिनके कर कवि माणिक्यराज हैं। प्रथम ग्रन्थ अमरसेनचरित में ७ परिच्छेद या सन्धियां हैं जिनमें अमरसेन की जीवन गाथा में हुई है राजा अमरसेन ने प्रजा का पुत्रवत् पालन किया था । वह धर्मनिष्ठ और संयमी था, वह दे भोगों से उदास हो आत्म-साधना के लिए उद्यत हुआ, उसने वस्त्राभूषण का परित्याग कर दिगम्बर दीक्षा ली, और शरीर से भी निष्पह हो अत्यन्त भीषण तपश्चरण किया। प्रात्म-शोधन की दृष्टि से अनेक यात नाओं को साम्यभाव से सहा । उनकी कठोर साधना का स्मरण आते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । यह १६६ शताब्दी का अच्छा खण्ड-काव्य है । आमेर शास्त्र भंडार की इस प्रति का प्रथम पत्र त्रुटित है। इसके अपभ्रंश भाषा होते हुए भी हिन्दी भाषा के विकास के अत्यधिक नजदीक है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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