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________________ प्रस्तावना ८७ ही दिया गया है। यह ग्रन्थ कवि ने चन्द्रवाड नगर के निवासी माथुरवंशी साहु नारायण की धर्मपत्नी रुप्पिणी (रूपणो) देवी के अनुरोध से बनाया था, अतएव कवि ने उसे उसी के नामांकित किया है और ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के प्रारंभ में कवि ने संस्कृत पद्यों में रूप्पिणी की मंगल कामना की है। जो इन्द्रवज्रा और शार्दूल विक्रीडित आदि छंदों में निबद्ध हैं जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है 'या देव-धर्म-गुरुपाद पयोज-भक्ता, सर्वज्ञदेव सुखदायि-मतानु-रक्ता। संसारकारि कुकथा कथने विरक्ता, सा रूप्पिणी बधजन न कथं प्रशस्या ॥ संधि २-१ कवि ने इस ग्रन्थ की रचना वि० संवत् १२३० (सन् ११७३ ई.) में फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की दशवीं रविवार के दिन समाप्त की है। ग्रन्थ कर्ता कवि श्रीधर ने अपना कोई परिचय देने की की। श्रीधर नाम के अनेक कवि हो गये हैं', उनमें प्रस्तुत श्रीधर कौन हैं यह विचारणीय हैं। यदि वे अपने कूलादि का परिचय प्रस्तुत कर देते तो इस समस्या का सहज ही समाधान हो जाता। पर कवि ने ऐसा कछ भी नहीं किया। अतएव कवि का निवास स्थान, जोवन-परिचय और गुरु परम्परा अभी अज्ञात ही हैं। कवि ने चूकि अपना यह ग्रन्थ वि० सं० १२३० में बनाकर समाप्त किया है, अतः वे विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान् थे। २८वीं, २६वीं और 100वीं ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ क्रमशः 'संभवगाह-चरिउ' वरांग-चरिउ, और पासणाह-चरिउ की हैं। जिनके कर्जा कवि तेजपाल हैं। संभवगाह चरिउ में छह सन्धियाँ और १७० कडवक हैं। जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ की जीवन-गाथा दी हुई है । रचना संक्षिप्त और बाह्याडम्बर से रहित है। यह भी एक खण्ड काव्य है। ग्रन्थ-निर्माण में प्रेरक उक्त ग्रंथ की रचना भादानक देश के श्री प्रभ नगर में दाऊदशाह के राज्यकाल में हुई है। श्री प्रभ नगर के अग्रवाल वंशीय मित्तल गोत्रीय साहु लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थील्हा जिनकी माता का नाम महादेवी था, प्रथम धर्मपत्नी का नाम कोल्हाही, और दूसरी पत्नी का नाम प्रासाही था, जिससे त्रिभुवन पाल और रणमल नामके पुत्र उत्पन्न हुए थे। साहु थील्हा के पांच भाई और भी थे, जिनके नाम खिउसी, होलू, दिवसी, मल्लिदास और कून्थदास हैं । ये सभी भाई धर्मनिष्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे। लखमदेव के पितामह साहु होलू ने जिनबिम्ब प्रतिष्टा कराई थी, उन्हीं के वंशज थील्हा के अनूरोध से कवि तेजपाल ने उक्त संभवनाथ चरित्रकी रचना की थी। इस ग्रन्थ की रचना संभवतः संवत् १५०० के आस-पास करी हुई है। २६वीं प्रशस्ति 'वरंगचरिउ' की है जिसमें कुलचार सन्धियाँ हैं। उनमैं राजा वरांग का जीवनपरिचय दिया गया है। राजा वरांग बाईसवें तीर्थकर यदुवंशी नेमिनाथ के शासन काल में हया है। वरांग राजा का चरित बड़ा ही सुन्दर रहा है । रचना साधारण और संक्षिप्त है, और हिन्दी भाषा के विकास को लिए हुए है। कवि तेजपाल ने इस ग्रंथ की रचना विक्रम सं० १५०७ वैसाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त की थी। और उसे उन्होंने विपुलकीर्ति मुनि के प्रसाद से पूर्ण किया था। १००वीं प्रशस्ति 'पासपुराण'की है। यह भी एक खण्ड काव्य है, जो पद्धड़िया छन्दमें रचा गया है। जिसे कवि ने यदुवंशी साह शिवदास के पुत्र घूघलि साहु की अनुमति से रचा था। ये मुनि पद्मनंदि के शिष्य १. देखो, भने कान्त वर्ष ८, किरण १२ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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