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________________ ६६ जैनग्रंथ अशक्ति संग्रह विक्रम की १५वीं शताब्दी की ज्ञात होती है। और उसका रचना स्थल राजस्थान है । यह ग्रन्थ देवराय के पुत्र संघाधिप होलिवम्म के अनुरोध से रचा गया है । ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया । १०४ व प्रशस्ति 'मल्लिरगाह काव्य' की है। इसमें जैनियों के १६वें तीर्थंकर मल्लिनाथका जीवनचरित दिया हुआ है । आमेर शास्त्र भण्डार की यह प्रति अपूर्ण है। आदि के तीन पत्र उपलब्ध नहीं है । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने पुहमि (पृथ्वी नामक ) राजा के राज्य में स्थित साहू आल्हा के अनुरोध से की है | आल्हा साहू के ४ पुत्र थे, जिनके नाम बाह्यसाहू, तुम्बर रतरगऊ और गल्हग थे । इन्होंने ही उस मल्लिनाथ चरित को लिखवाकर प्रसिद्ध किया था । गुरु परम्परा और समय कवि ने इस ग्रंथ में भी रचनाकाल नहीं दिया, परंतु कवि ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उससे ग्रन्थ के रचनाकाल पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । ग्रंथकर्ता के गुरु पद्मनन्दि भट्टारक थे, जो मूलसंघ बलात्कार गरण और सरस्वतीगच्छ के विद्वान् और भट्टारक प्रभाचन्द्र के पट्टधर थे । यह उस समय के अत्यंत प्रभावक और प्रतिभा सम्पन्न विद्वान थे । आपकी अनेक कृतियां उपलब्ध हैं । पद्मनन्दि श्रावकाचार, भावना पद्धति, वर्धमान चरित और अनेक स्तवन । आपके अनेक शिष्य थे, उनमें कितने ही शिष्यों ने ग्रन्थ रचना की है । इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध और १५वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है । पार्श्वनाथ चरित के कर्ता कवि अग्रवाल (सं० १४७६) ने अपने ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में सं० १४७१ की एक घटना का डल्लेख करते हुए लिखा है कि- करहल के चौहानवंशी राजा भोजराज ( भोयरा ) थे । उनकी पत्नी का नाम गाइक्कदेवी था । उससे संसारचंद या पृथ्वीराज नाम का एक पुत्र था । उसके राज्य में सं० १४७१ की माघ कृष्णा चतुर्दशी शनिवार के दिन रत्नमयी जिनबिम्ब की स्थापना की गई थी। उस समय यदुवंशी अमरसिंह भोजराज के मंत्री थे। उनके पिता का नाम ब्रह्मदेव और माता का नाम पद्मलक्षरणा था, जो इनकी तृतीय पत्नी थीं। इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह, समरसिंह, नक्षत्रसिंह और लक्ष्मण सिंह थे । अमरसिंह की पत्नी का नाम कमलश्री था, जो पातिवृत्य और शीलादि सद्गुणों से विभूषित थी । उससे तीन पुत्र हुए थे। पंदन, सोरिंग ( सोना साहु ) और लोगिव ( लोणा साहु ) । इनमें लोगिव या लोणासाहू जिन यात्रादि प्रशस्त कार्यों में द्रव्य का विनिमय करते थे, अनेक विधान और उद्यापनादि कार्य कराते थे । उन्होंने कवि 'हल्ल' की प्रशंसा की थी, जिन्होंने 'मल्लि - नाथ' का चरित्र बनाया था। उस समय भ० पद्मनंदि के शिष्य भ० प्रभाचन्द्र पट्टधर थे' । ऊपर के इस कथन पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि हल्ल ( जयमित्रहल ) ने अपना मल्लिनाथ काव्य सं० १४७१ से कुछ समय पूर्व बनाया है । संभवत: वह सं० १४६० के आस-पास की रचना है । इससे कवि १५वीं शताब्दी के मध्य के विद्वान् जान पड़ते हैं । २७वीं प्रशस्ति 'भविसयत्त कहा' की है जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में छह संधियाँ र १४३ कवक दिये हुए हैं, जिनमें ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी ( श्रुत पंचमी) व्रत का फल और महात्म्य वर्णन करते हुए व्रत संपालक भविष्यदत्त के जीवन-परिचय को अङ्कित किया है और वह पूर्व परंपरा के अनुसार १. करहल इटावा से १३ मील की दूरी पर बसा हुआ है। यहां पर चौहान वंशी राजाओं का राज्य रहा है, जो चन्द्रवाड के चौहानों के वंशज थे। यहां चार शिखरबन्द मन्दिर हैं, जैनी लोग रहते हैं। यहां शास्त्र भंडार भी अच्छा है । २. देखो, कवि असवाल के 'पासणहचरिउ' की प्रशस्ति ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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