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________________ प्रस्तावना कवि श्रीधर से, जो हरियाना देश से यमुना नदी को पार कर उस समय दिल्ली में आये थे, ग्रन्थ बनाने की प्रेरणा की थी, तब कवि ने इस सरस खण्ड-काव्य की रचना वि० सं० ११८६ अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त की थी। नट्टलसाहु ने उस समय दिल्ली में आदिनाथ का' एक प्रसिद्ध जिन मन्दिर भी बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर था । जैसा कि ग्रंथ के निम्न वाक्यों से प्रकट है : "कारावेवि णाहेयहो णिकेउ, पविइण्णु पंचवण्णं सुकेउ । पइं पुणु पइट्ट पविरइयजेम, पासहो चरित्तु जइ पुणवि तेम ॥" आदिनाथ के इस मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख उक्त ग्रंथ की पांचवीं सन्धि के बाद दिये हुए निम्न पद्य से प्रकट है : येनाराध्य विशुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं, सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः । जैनं चैत्यमकारि सुन्दर तरं जैनी प्रतिष्ठां तथा, स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ।। इस तरह कवि ने साहु नट्टल की मंगल कामना की है। कवि परिचय प्रस्तुत कवि श्रीधर हरियाना देश के निवासी थे, और अग्रवाल कुल में उत्पन्न हुए थे। आपके पिता का नाम 'गोल्ह' था और माता का नाम 'बील्हादेवी' था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और जीवनादि घटना का कोई उल्लेख नहीं किया। ग्रंथ की प्राद्य प्रशस्ति में अपनी एक अन्य रचना 'चंदप्पहचरिउ' (चन्द्रप्रभचरित) का उल्लेख किया है, परन्तु वह अभी तक अनुपलब्ध है। कवि की अन्य क्या-क्या कृतियाँ हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । परंतु कवि की तीसरी रचना 'वर्धमानचरित' है। जो संवत् ११६० में रचा गया था, जिसकी अपूर्ण प्रशस्ति परिशिष्ट नं० ३ में दी गई है। देखिये परिचय परिशिष्ट नं. ३ । कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। कवि की उक्त कृति अभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाने का प्रयत्न होना चाहिये। २६वीं और १०४वीं प्रशस्ति 'सेरिणयचरिउ 'या 'वडूढमाणकव्व' और 'मल्लिगाह कव्व' नामक ग्रन्थों की है, जिनके कर्ता कविहल्ल या हरिइंद अथवा हरिचन्द हैं। प्रथम ग्रन्थ में ११ संधियां हैं, जिनमें जैनियों के अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान भगवान का जीवनपरिचय अङ्कित किया गया है । साथ ही, उनके समय में होने वाले मगध के शिशुनाग वंशी सम्राट् बिम्बसार या श्रेणिक की जीवन गाथा भी दी हुई है । यह राजा बड़ा प्रतापी था और राजनीति में कुशल था। इसके सेनापति श्रेष्ठि पुत्र जंबूकुमार ने केरल के राजा मृगांक पर विजय कर उसकी पुत्री विलासवती से श्रेणिक का विवाह सम्बन्ध कराया था। इसकी पट्टमहिषी चेलना वैशाली गणतंत्र के अध्यक्ष राजा चेटक की सपुत्री थी। जो जिनधर्म पालिका और पतिव्रता थी। उक्त राजा श्रेणिक पहले बुद्ध धर्म का अनुयायी था किन्तु वह चेलना के सहयोग से दिगम्बर जैनधर्म का भक्त और महावीर का प्रमुख श्रोता हो गया था। ग्रन्थ की भाषा १. पहले मेरे लेख में इसे पार्श्वनाथ का मन्दिर लिखा गया था, पर वह पार्श्वनाथ का मन्दिर नहीं था किन्तु आदिनाथ का मन्दिर था, जिसे ऋषदेव का मन्दिर भी कहते थे। उस समय वहां जैनियों के और मन्दिर भी बने हुए थे।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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