SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ मैन पंप प्रशस्ति संग्रह २५वीं प्रशस्ति 'पासणाहचरिउ' की है, जिसके कर्ता कवि श्रीधर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ एक खण्ड काव्य है । ग्रन्थ में १२ सन्धियाँ हैं जिनकी श्लोक संख्या ढाई हजार से ऊपर है । ग्रन्थ में जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। कथानक वही है जो अन्य प्राकृतसंस्कृत के ग्रंथों में उपलब्ध होता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि ने दिल्ली नगर का अच्छा परिचय दिया है। उस समय दिल्ली जोयणिपुर, योगिनीपुर के नाम से विख्यात थी, जन-धन से सम्पन्न, उत्तुंग साल (कोट) गोपुर, विशालपरिखा, रणमंडपों, सुन्दर मन्दिरों, समद गज-घटाओं, गतिशील तुरंगों, ध्वजारों से अलंकृत थी, तथा स्त्रियों की नूपुर ध्वनि को सुन्दर नाचते हुए मयूरों और विशालहट्ट मार्गों से विभूषित थी। और वह हरियाना देश में थी। कवि ने ग्रंथ की समाप्ति-सूचक सन्धि-पुष्पिका गद्य में न देकर स्वयंभू और नयनन्दी कवि के समान पद्य में दी है। __श्रीधर ने इस ग्रन्थ की रचना दिल्ली में उस समय की, जब वहां तोमरवंशी क्षत्रिय अनंगपाल तृतीय का राज्य शासन चल रहा था । यह अनंगपाल अपने दो पूर्वजों से भिन्न था। बड़ा प्रतापी एवं वीर था। इसने हम्मीर वीर की सहायता की थी। ये हम्मीर वीर अन्य कोई नहीं, ग्वालियर के परिहार वंश की द्वितीय शाखा के हम्मीरदेव जान पड़ते हैं, जिन्होंने सं० १२१२ से १२२४ तक ग्वालियर में राज्य किया है। पर अनंगपाल से इनका क्या सम्बन्ध था, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका । उस समय दिल्ली वैभव सम्पन्न थी, उसमें विविध जाति और धर्म वाले लोग बसते थे। ग्रंथ रचना में प्रेरक साहु नट्टल के पिता का नाम 'पाल्हण' था। इनका वंश अग्रवाल था, और वह सदा धर्म-कर्म में सावधान रहते थे। इनकी माता का नाम 'मेमडिय' था, जो शीलरूपी सत् आभूषणों से अलंकृत थी, और बांधवजनों को सुख प्रदान करती थी। साहू नट्टल के दो ज्येष्ठ भाई और भी थे, राघव और सोढल । इनमें राघव बडा ही सन्दर एवं रूपवान था। उसे देखकर कामिनियों का चित्त द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानों को आनन्ददायक, गुरु भक्त तया अरहंतदेव की स्तुति करने वाला था, जिसका शरीर विनय रूपी आभूषणों से अलंकृत था, तथा बड़ा बुद्धिमान और धीर-वीर था। नट्टलसाहु इन सबमें लघु पुण्यात्मा सुन्दर और जनवल्लभ था। कूलरूपी कमलों का आकार और पापरूपी पांश (रज) का नाशक. तीर्थकर का प्रतिष्ठापक, बन्दीजनों को दान देने वाला, परदोषों के प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूषित, और चतुर्विध संघ को दान देने में सदा तत्पर रहता था। उस समय दिल्ली के जैनियों में वह प्रमुख था, व्यसनादि-रहित हो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान करता था। साहु नट्टल केवल धर्मात्मा ही नहीं थे, किन्तु उच्चकोटि के कुशल व्यापारी भी थे। उस समय उनका व्यापार अंग-बंग, कलिङ्ग, कर्नाटक, नेपाल, भोट, पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क, (पंजाब), केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ और हरियाना आदि देशों और नगरों में चल रहा था। यह व्यापारी ही नहीं थे; किन्तु राजनीति के चतुर पंडित भी थे। कुटुम्बीजन तो नगर सेठ थे, और आप स्वयं तोमरवंशी अनंगपाल (तृतीय) के आमात्य थे। आपने १. इस सिरि पासचरितं, रइये बुहसिरिहरेण गुण भरियं । अणुमण्णियं मणोज्जं, णट्टल नामेण भव्वेण ॥१॥ विजयंत विमाणामो वामादेवीइ णंदणो जामो । कणयप्पह चविऊणं पढमो संधी परिसमत्तो ॥२॥
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy