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________________ २८ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह 'कुमारपाल-प्रतिबोध' प्राकृत-प्रधान रचना है और जिसका रचनाकाल संवत् १२४१ है। परन्तु उसमें कुछ अंश अपभ्रंश भाषा के भी उपलब्ध होते हैं। उसका एक अंश 'जीव मनःकरण संलाप कथा' नाम का भी है। जो उक्त ग्रंथ में पृ० ४२२ से ४३७ तक पाया जाता है। यह एक धार्मिक कथा-बद्ध रूपक खण्ड-काव्य है। इसमें जीव, मन और इन्द्रियों के संलाप की कथा दी गई है। इतना ही नहीं इसमें एक रूपक के अन्तर्गत दसरे रूपक को भी जोड़ दिया गया है। ऐसा होने पर भी उक्त अंश की रोचकता में कोई अन्तर नहीं पड़ा । इस रूपक-काव्य में मन और इन्द्रियों के वार्तालाप में जगह-जगह कुछ सुभाषित भी दिए हुए है, जिनसे उक्त काव्य-ग्रंथ की सरसता और भी अधिक बढ़ गई है। जं पुणु तुहु जंपेसि जड़ तं असरिसु पडिहाइ। मरण निल्लक्खरण कि सहइ, नेवरु उट्टह पाइ ।। अर्थात् हे मूर्ख ! तुम तो कहते हो कि वह तुम्हारे योग्य नहीं प्रतीत होता, हे निर्लक्षण मन । क्या ऊँट के पैर में नुपूर शोभा देते हैं। काया नगरी में लावण्य रूप लक्ष्मी का निवास है । उस नगरी के चारों ओर आयुकर्म का भारी प्राकार है, उसमें सुख-दुःख क्षुधा-तृषा हर्ष-शोकादि रूप अनेक प्रकार की नदियाँ एवं मार्ग हैं । उस काया नगरी में जीवात्मा नामक राजा अपनी बुद्धि नाम की पत्नी के साथ राज्य करता है। उसका प्रधान मंत्री मन है और स्पर्शनादि पाँचों इंन्द्रियां प्रधान राजपुरुष हैं। एक दिन सभा में परस्पर उनमें विवाद उत्पन्न हो गया, तब मन ने जीवों के दुःखों का मूल कारण अज्ञान को बतलाया; किन्तु राजा ने उसी मन को दुःखों का मूल कारण बतलाते हुए उसकी तीव्र भर्त्सना की। विवाद बढ़ता ही चला गया। उन पांचों प्रधान राज पुरुषों की निरंकुशता और अहं मन्यता की भो आलोचना हुई। प्रधान मंत्री मन ने इन्द्रियों को दोषी बतलाते हुए कहा कि जब एक-एक इन्द्रिय की निरंकुशता से व्यक्ति का विनाश हो जाता हैं तब जिसकी पाँचों ही इन्द्रियाँ निरंकुश हों, फिर उसकी क्षेम-कुशल कैसे हो सकती है। जिन्हें जन्म कुलादि का विचार किये बिना ही भृत्य वना लिया जाता है तो वे दुःख ही देते हैं। उनके कुलादि का विचार होने पर इन्द्रियों ने कहा-हे प्रभु ! चित्त-वृत्ति नामकी अटवी में महामोह नामका एक राजा है, उसकी महामूढ़ा नामक पत्नी के दो पुत्र है, उनमें एक का नाम रागकेशरी है, जो राजस-चित्तपुर का स्वामी है और दूसरा द्वेष-गजेंद्र नामका है, जो तामस-चित्तपुर का अधिपति है, उसका मिथ्यादर्शन नामका प्रधान मंत्री है, क्रोध लोभ, मत्सर, काम मद आदि उसके सुभट हैं। एक बार उसके प्रधान मंत्री मिथ्यादर्शन ने आकर कहा कि हे राजन् ! बड़ा आश्चर्य है कि आपके प्रजाजनों को चारित्र-धर्म नामक राजा का सन्तोष नामक चर, विवेकगिरि पर स्थित जैनपुर में ले जाता है । तब मोह राजा ने सहायता के लिए इन्द्रियों को नियुक्त किया । इस तरह कवि ने एक रूपक के अन्तर्गत दूसरे रूपक का कथन जोड़ते हुए उसे और भी अधिक सरस बनाने की चेष्टा की है। ___ इस प्रकार मन द्वारा इन्द्रियों को दोषी बतलाने पर इन्द्रियों ने भी अपने दोष का परिहार करते हुए मन को दोषी बतलाया और कहा कि जीव में जो राग द्वेष प्रकट होते हैं वह सब मोह का ही माहात्म्य १. इय विषय पल्लको, इहु एक्केक्कुंइंदिउ जगहइ जगु सयलु । जसु पंचवि एयई कयबहुखेयई, खिल्लहि पहु तसु कउ कुसलु ।। २६।।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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