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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा की उत्तर कालीन अवस्था का समय ५०० ई० से १००० ई० तक भाषा विज्ञानी प्रकट करते हैं और उसे अपभ्रंश का नाम दिया गया है। किन्तु यह भी चिन्तनीय है; क्योंकि वर्तमान में अपभ्रंश भाषा का साहित्य ८ वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी तक का रचा हुआ उप-लब्ध होता है । अतएव अपभ्रंश का रचना काल ५०० ई० से १३०० ई० तक मानना ही चाहिये । कारण कि उत्तरवर्ती साहित्य में हिन्दी का विकसित रूप भी देखने में आता है और १३ वीं शताब्दी तक की रचनाओं में उतनी प्रौढ़ता तो नहीं है । किन्तु रचना शैथिल्य भी नहीं पाया जाता आठवीं शताब्दी से १३ वीं, १४ वीं तक अपभ्रंश के साहित्य की प्रचुरता रही है। १४ प्रान्तीय भाषाओं का विकास द्वितीयश्रेणी की प्राकृत भाषाओं से भिन्न-भिन्न प्रादेशिक अपभ्रंश भाषात्रों की उत्पत्ति मानी जाती है और वर्तमान प्रान्तीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश से हुआ है । शौरसेनी अपभ्रंश से व्रज भाषा, खड़ी बोली राजस्थानी, पंजाबी और गुजराती भाषाओं का सम्बन्ध है । किन्तु इनमें से शौरसेनी के 'नागर अपभ्रंश' से राजस्थानी और गुजराती का सम्बन्ध विशेषरूपसे स्वीकृत किया जाता है । 'मागध 'अपभ्रंश' से भोजपुरी, उड़िया, बंगाली, आसामी, मैथिली और मगही का विकास हुआ माना जाता है । सिन्धी भाषा का विकास वाचड़ अपभ्रंश से हुआ कहा जाता है महाराष्ट्री से मराठी के विकास का सम्बन्ध अब विद्वान नहीं मानते । इन प्रान्तीय भाषाओं के विकास के पूर्वकाल में ये सब भाषाएं अपनी अपनी भिन्न-भिन्न अपभ्रंशों से प्रभावित हुई दिखलाई देती हैं और उत्तरकालीन अपभ्रंश का साहित्य भी प्रान्तीय भाषाओं से प्रभावित हुआ जान पड़ता है। उसमें प्रचुरता से तत्सम देशी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग दिखाई पड़ता है। आज जिसे हम पुरानी हिन्दी कह कर पुकारते हैं वही वर्तमान हिन्दी का पूर्व रूप है । इससे यह स्पष्ट है कि वे पुरातन रचनाएं हिन्दी की जनक हैं । अथवा हिन्दी के विकास में उन का योग दान महत्वपूर्ण है । देशी भाषा की महत्ता अपभ्रंश देशी भाषा कहलाती थी । संस्कृत भाषा को शुद्ध मानने वाले वैयाकररण भी देशी भाषा को भ्रष्ट-भ्रष्ट या बिगड़ी हुई भाषा कहते थे। स्वयंभू, पुष्पदन्त, पद्मकीर्ति, लक्ष्मण, लाखू, वाग्भट्ट, पादलिप्त आदि कवियों ने भी अपभ्रंश को देशी भाषा बतलाया है ।" और विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता में देशी वचनों को मिष्ट प्रकट किया है १ (क) देशी भासा उभय तडुज्जल, कवि दुक्कर घण सद्द सिलायल (ख) देस देसि भाषा लिवि ठाणई, कइ वायालंकार विहाणई । वायरण देसि सदस्य गाड, छंदालंकार विलास पोढ । स-समय पर समय वियार सहिय, अवसद्द वाय दूरेण रहिय ॥ (ग) (घ) - स्वयंभू पउम चरिउ । -- पुष्पदन्त महापुराण ५, ६-१० - पद्मकीर्तिपासणाह चरिउ ण समाणमि छंदु ण बंधभेउ ण उ हीणाहिउ मत्ता समेउ । ण उ सक्कन पाउन देसभास, णउ सदु वण्णु जाणमि समास ॥ लक्ष्मण णेमिणाहचरिउ पीठिका
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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