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________________ प्रस्तावना सक्कय वागी बहुअ [न] भावइ, पाइन रस को मम्म न पावइ । देसिल बयना सब जन मिट्ठा, तं ते सन जंपिउ अवहट्टा ।। अर्थात संस्कृत वागणी बहुतों को अच्छी नहीं लगती, प्राकृत रस का मर्म नहीं प्राप्त करती। देशी वचन सबसे मीठे होते हैं। इसीलिए मैं अपभ्रंश में कथा कहता हूं। पादलिप्त ने अपनी तरंगवती कथा देशी भाषा में बनाई थी' । ग्रन्थ कारों ने अपभ्रंश भाषा में जो ग्रंथ बनाये, उन्होंने उन ग्रंथों की भाषा देशी वतलाई है। वही देशी भाषा अपभ्रंश है। वैयाकरण जिस भाषा को अपभ्रंश प्रकट करते हैं उसमें ग्रंथ रचना करने वाले ग्रंथकार उसे देशी भाषा कहते हैं। ___वास्तव में अपभ्रंश या देशी भाषा में स्वभावत: माधुर्य तो है ही, पद लालित्य की भी कमी नहीं, पद सरल सग्स तथा सुबोध हैं इसी से उस काल में देशी भाषा जनसाधारण के गौरव को प्राप्त कर सकी। पर संस्कृत में वैसी क्षमता नहीं, क्योंकि वह साम्प्रदायिकता से ऊंचे नहीं उठ सकी । यद्यपि जैन और बौद्धों का विशाल साहित्य भी संस्कृत में रचा गया; परन्तु उसकी विशेष महत्ता ब्राह्मण साहित्य में ही रही, वह साम्प्रदायिक संकीर्ण दृष्टिकोण से निकलकर जन साधारण का गौरव प्राप्त नहीं कर सकी।। पर अपभ्रंश दृष्टिकोण के चक्रव्यूह से अलग रहती हुई अपनी निंदा और बुराई को सुनती हुई भी जनसाधारण के कण्ठ को विभूषित करती रही, राज्य सभाओं में भी आदर पा सकी और विद्वानों के कण्ठ का भूषण बनी रही। इसी से उसका लोकव्यापी महत्व रहा है । जब वह अपने मध्यान्ह काल में बहमूल्य प्रबन्धकाव्यों में गुम्फित हो रही थी, तब उसकी तेजस्विता, वाक्य विन्यास और पद गाम्भीर्य अर्थ के प्रतिपादक थे, उनमें महानता और सरसता आदि सद्गुण स्वभावतः अङ्कित हो रहे थे। धर्म भाषा और साहित्य के विकास में राज्याश्रय का मिलना अपना खास महत्व रखता है। इनके विकास और समृद्ध होने में राज्याश्रय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। बिना राज्याश्रय के उक्त भाषा अथवा धर्म पनप नहीं सके। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिन धर्मों और भाषाओं को उचित राज्याश्रय मिला वे लोक में समन्नत और विकास पाते गये। लोक में वे आगे बढ़ने में समर्थ हो सके। अपभ्रंश भाषा के विकास में भी राज्याश्रय की आवश्यकता हुई। राज्याश्रय अपभ्रंश भाषा का उपलब्ध साहित्य विभिन्न देशों और विभिन्न समयों में रचा गया है। अपभ्रश के विकास में अनेक राजवंशों और देशों के राजाओं का सहयोग मिला है । इसी से वह अपना विकास । कर सकी । मान्यखेट (बरार), गुजरात, मालवा, मारवाड़, राजस्थान, बंगाल, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में अपभ्रंश साहित्य रचा गया। (ङ) देस भास लक्खण ण तक्कयो, मुणमि णेव पायमहि गुरुक्कयो। पय समित्ति किरिया विसेसया, संधि छंदु वायरण भासया । -लाखू जिनदत्तचरित संधि १ पालित्तएण रइया बित्थरो तहव देसिवयणेहि । णामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य॥ -पादलिप्त, तरंवगती २. देखो डा० कोवी कृत सणक्कुमारचरिउ की भूमिका, पृ० नं० १८ ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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