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________________ जनप्रंप प्रशस्ति संग्रह ___यद्यपि स्वयंभू से पूर्ववर्ती अनेक कवि हो गये हैं किन्तु उनका साहित्य अभी उपलब्ध ही नहीं है। कविवर चउमुह (चतुर्मुख) का भी साहित्य उपलब्ध नहीं है । अतएव वर्तमान में स्वयंभू को ही आद्य कवि माना जाने लगा है। मान्यखेट के सभी राष्ट्रकूट राजागण जैन नहीं थे, किन्तु वैष्णव धर्मानुयायी भी थे, हां, अमोघवर्ष अवश्य जैन हो गया था। उनके राज्य में जैनधर्म को कोई प्रांच नहीं आई थी; क्योंकि उन राजाओं के राजमन्त्री प्रायः जैनधर्मावलम्बी थे। अमोघवर्ष जिनसेनाचार्य का शिष्य था, जैनधर्म पर उसकी बड़ी प्रास्था थी, इतना ही नहीं, वह विवेकपूर्वक अपने राज्य का परित्याग कर तपस्वी बन गया था। उनके राज्यों में जैन मुनियों और विद्वानों को आश्रय मिला हुआ था, इसा से वे ग्रंथ रचनादि कार्य में प्रवृत्त हो सके । राष्ट्रकूट राजा ध्रुव (वि० सं० ८३७-८५१) के अमात्य रयडा धनंजयने महाकवि स्वयंभू को आश्रय दिया था, और उनके पुत्र धवलासिय ने त्रिभुवनस्वयंभू को। पउमचरिउ 'और रिट्टणेमिचरिउकी रचना उन्हीं के अनुरोध से हुई थी। इसी तरह कृष्ण तृतीय (वि० सं० ६९६-१०२५) के मंत्री भरत और उनके पुत्र नन्न ने महाकवि पुष्पदन्त को आश्रय दिया था। मंत्री भरत की प्रेरणा से ही महापुराण की रचना हुई थी। उस समय बरार जैन वैश्यों का केन्द्र था, और बरार गुजरात मालवा आदि प्रदेशों का वाणिज्य भी प्रायः उन्हीं के हाथ में था । यद्यपि जैन लोग भारत के प्रायः सभा देशो में व्यापार के निमित्त आया जाया करते थे। (व्यापार और तीर्थयात्रा का जैनियों में खूब प्रचार रहा) है। उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा देशी भाषा को अधिक प्रश्रय दिया था और उन्हीं के सहयोग से अपभ्रंश राष्ट्रीय भाषा के रूप में पल्लवित हो सकी थी। दशवीं शताब्दी के बाद जब राष्ट्रकूटों का पतन हो गया, तब गुजरात केन्द्र बन गया। ११ वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकी राजाओं ने भी अपभ्रंश साहित्य के विकास में पर्याप्त सहायता की और ग्यारहवीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकी राजानों ने भी अपभ्रंश साहित्य के विकास में पर्याप्त सहायता प्रदान की। वहाँ जैनधर्म का विकास भी हुआ और राजा कुमारपाल ने तो स्वयं प्राचार्य हेमचन्द्र के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर जैनधर्म स्वीकृत किया था। उनके राज्य में ही हेमचन्द्र ने 'अपभ्रंश व्याकरण, और देशीनाममाला की रचना की। सोलंकी राजा कर्णदेव के समय में सं० ११२३ में कवि श्रीचन्द ने रयणकरण्डसाबयायार' और कथाकोश की रचना की थी। चालुक्य वंशी राजा वद्दिगदेव के पुत्र कृष्ण नरेन्द्र के राज्यकाल में गोध्रा में अमरकीर्ति ने नेमिणाह चरिउ (१२४४) और षट कमेपिदेश की रचना सं० (१२४७) में की थी। मालवा में राजा भोज (जयसिंह) के राज्य में नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदंसण चरिउ और सयलविहिविहाणकव्व की रचना की। साथ ही परमारवंशी राजा देवपाल के समय में कवि दामोदर ने 'मिणाहचरिउ' की रचना सं० १२८७ में की। बंगाल में पालवंश के राज्यकाल में अपभ्रंश को उचित सम्मान मिला। बंगाल दीर्घकाल तक बौद्धों का केन्द्र रहा। पालवंश के राजा स्वयं बौद्धधर्मानुयायी थे। अतएव बौद्धतांत्रिकों के अपभ्रंश साहित्य के निर्माण में उनका पूरा सहयोग रहा। पालों के बाद बंगाल में सेनवंश का राज्य रहा, उनसे अपभ्रंश को कोई सहयोग नहीं मिला; क्योंकि वे ब्राह्मण धर्मानुयायी थे। दिल्ली के तोमरवंशीय राजा अनंगपाल तृतीय के राज्यकाल में भी अपभ्रंश ग्रंथों की रचना हुई। अनंगपाल के मंत्री नट्टलसाहुकी प्रेरणा से सं० ११८६ में कवि श्रीधरने 'पासणाहचरिउ' की रचना
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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