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प्रस्तावना
'ल' की और मध्य देशीया में 'र' 'ल' दोनों का प्रयोग होता था। बाद में इस में भी परिर्वतन और विशेषताएं होती गईं।
पूर्वकाल में यद्यपि यात्रा करने के साधन सुलभ नहीं थे। किन्तु व्यापारीजन पूर्व-पश्चिमी-देशों में अपने व्यापार के निमित्त जिस-तिस प्रकार पाया जाया करते थे। उससे उन देशों से भाषा सम्बन्धी व्यवहार का आदान-प्रदान वराबर होता रहता था। इसी से अनेक शब्दों का प्रयोग दूसरे देशों की भाषाओं में भी व्यवहृत होने लगा था।
डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने सन् १५०० ई० पूर्व से लेकर सन् ६०० ईस्वी पूर्व तक प्रथम प्राकृतों अथवा विभाषाओं के अनेक परिवर्तनों के परिणाम स्वरूप बुद्ध और महावीर के समय भारत में भापा के निम्न रूपों का संकेत किया है।
उदीच्या, मध्यदेशीया और प्राच्या रूपमें तीन विभाषाएँ विकाम पा गईं थीं। वैदिक सूक्तों की प्राचीन भाषा छान्दस थी जिमका व्यवहार ब्राह्मण वर्ग में चल रहा था।
तीसरी वह जो छान्दस भाषा के नूतन संस्करण और उदीच्या के प्राचीन रूप से विकसित हुई थी, जिसमें प्राच्या और मध्यदेशीया के तत्त्वों का संमिश्रण था। इसी भाषा में संभवतः वैदिक ग्रन्थों के भाष्यादिक भी उस समय लिखे गए थे।
भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने अपनी-अपनी देशना और उपदेश का माध्यम उस समय की बोलचाल की जन साधारगा की भाषा को बनाया । इस कारण तत्कालीन प्रान्तीय भाषाओं के विकास में क्रान्ति आ गई और परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न प्रांतीय भाषाओं के साहित्यिक विकास का सूत्र-पात प्रारम्भ हो गया।
___ उस काल में संस्कृत का विकास लिक्षितोंमें अपनी चरम सीमा को पहुंच चुका था, परन्तु उसमें साम्प्रदायिक संकीरगं मनोवृत्ति के कारण उसका पूर्णविकास जैसा चाहिए था वैसा न हो सका । यद्यपि वह भारत से बाहर भी गई और वह वहां भी फैली, पर उसे सार्वभौमता का पद प्राप्त नहीं हो सका।
ईसा की छठी शताब्दी से ईसा की १० वीं शताब्दी तक की प्रचलित विभाषाओं को प्रियर्सन ने दूसरो श्रेणी की प्राकृत (Secondary Prakrits) बतलाया हैं ।
किन्तु डा० सुनीतिकुमार चटर्जी ने उस काल की भाषा को मध्यकालीन आर्य भाषा (Middlc Indo Aryan Speech) कहा है और उसे तीन भागों में विभक्त किया है। इस काल को मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषा काल कहा जा सकता है।
(१) मध्य कालीन प्रार्यभाषा को प्रारम्भिक अवस्था (४०० ई० पूर्व से लेकर १०० ईस्वी तक) प्रारम्भिक प्राकृत भाषाओं का काल माना जाता है।
(२) भारतीय आर्य भाषा की मध्यकालीन अवस्था (१०० ई० से ५०० ई० तक) साहित्यिक प्राकृतों का काल माना जाता है । किन्तु वर्तमान में प्राकृत भाषा का साहित्य ५०० ईस्वी के बाद का रचा हुअा भी उपलब्ध होता हैं। कौतूहल की 'लीलावती' निस्सन्देह उत्तर काल की रचना है और 'गोउडवहो' का रचना काल भी ७ वी ८ वीं शताब्दी माना जाता है । इसके अतिरिक्त हरिभद्र, कुमारस्वामी, देवसेन, पद्मनन्दि, नेमिचन्द्र, पद्मसिंह (१०८६) और हेमचन्द्र आदि अनेक जैनाचायों ने प्राकृत भाषा में (६६०) अनेक ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं। जिससे उक्त सीमा का निर्धारण विचारणीय है।
२. देखो, लिग्विस्टिक सर्वे अाफ़ इण्डिया पृ० १२१ (१९२७ ई० पू०)