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जंन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
कहा जाता रहा है । अतः अर्धमागधी आर्ष और ऋषिभाषिता ये तीनों एक ही भाषा के पर्यायवाची नाम हैं ।
पैशाची
यह एक बहुत प्राचीन प्राकृत बोली है। इस भाषा का साहित्य नहीं के बराबर है, गुणाढ्य की 'वृहत्कथा' इस भाषा में रची गई थी, परन्तु दुर्भाग्य से यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ । पर उसके आधार से रचित ग्रन्थ अवश्य उपलब्ध है। दो स्वरों के मध्य में वर्गों का तीसरा चौथा वर्ण पहला और दूसरा वर्ण हो जाता है। जैसे वारिद - वारितो आादि । चीनी तुकिस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में पैशाची की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं । वररुचि के प्राकृतप्रकाश में ( पृ० १० ) पैशाची को शौरसेनी की प्राधार भूत भाषा स्वीकृत की है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व में कांची देश, पाण्ड्य, पांचाल, गौड, मगध, ब्राचड, दाक्षिणात्य शौरसेन, कैकय, शावर और द्राविड़ देशों को पिशाच देश बतलाया है । अपभ्रंश भाषा और उसका विकास
वैदिक कालीन विभाषाग्रों- बोलियों का धीरे-धीरे विकास होता गया, और वे आर्यों की भाषा के उत्तर-पश्चिम प्रदेश से धीरे-धीरे पूर्व की ओर फैलती गईं। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध के जन्म समय तक यह भाषा विदेह ( उत्तर बिहार ) और मगध ( दक्षिणी बिहार ) तक फैल गई थी। इस ग्रार्य भाषा का रूप उत्तर भारत, वज़ीरिस्तान, मध्यप्रदेश और पूर्वी भारत में उस समय पर्याप्त परिवर्तन हो गया था। इसी से उन प्रदेशों की भाषा को उदीच्या, प्राच्या और मध्यदेशीया के नाम से उल्लेखित किया गया है ।
उदीच्या-पेशावर और उत्तरीय पंजाब की भाषा कहलाती थी, इसमें अधिक परिवर्तन तो नहीं हुग्रा; किन्तु प्राच्या का प्रयोग करने वाले वैदिक मर्यादाओं का पालन नहीं करते थे, और वे वेदों को नहीं मानते थे, और न ब्राह्मणों के सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों का ग्राचरण ही करते थे; क्योंकि वे व्रात्य थे, अर्हन्तों के उपासक थे और चैत्यों के पूजक थे। किन्तु मध्यदेशीया भाषा उदीच्या और प्राच्या के मध्य मार्ग का अनुसरण करती थी । उदीच्या और प्राच्या में व्यंजन समीकरण के अतिरिक्त 'र' और 'ल' के प्रयोग में भी भिन्नता थी । उदीच्या में जहाँ 'र' के प्रयोग की प्रचुरता थी वहाँ प्राच्या में 'र' के स्थान पर
(५) सक्कता पागता चैव दृहा भणितीय ग्रहिया । सरमंडलम्मि गिज्जेते पसत्या इनिभासिता । सक्कया पायया चैव भणिईश्री होंति दोण्णि वा ।
सरमंडलम्मि गिज्जेते पसत्था इसिभासिघ्रा । — अनुयोगद्वार पत्र १३१
१. देखो, इण्डो प्रार्थन एण्ड हिन्दी पृ. ५६
अथर्ववेद के १५ वें काण्ड में एक व्रात्य मूक्त है, व्रात्य व्रती का पर्यायवाची है । अथर्वदेद के काण्ड ४ सू० ११ मंत्र ११ में व्रत का पर्यायवाची 'व्रत्य' शब्द श्राया है। जिसका अर्थ व्रत धारण करने वाला होता है । उक्त वेद के ८ थे काण्ड में व्रात्य को मागध विज्ञान भी बतलाया है। जिससे स्पष्ट है कि व्रात्य लोग मगध देश के रहने वाले थे । अतएव इनकी संस्कृति 'मगध' कहलाती थी । सामवेदी ताण्ड ब्राह्मण में एक 'व्रात्य स्तोम' है, जिसमें व्रात्यों का उल्लेख है । उसमें लिखा है कि 'व्रात्य लोग वैदिक यज्ञादि से घृणा करते थे, तथा अहिंसा को अपना मुख्य धर्म मानते थे । ' ( ताण्ड ब्राह्मण १७-१-५) "अर्हन्तों के अनुयायी व्रात्य कहलाते थे, जिन का उल्लेख अथर्ववेद में है । लिच्छविलोग प्राचीन भारत की एक प्रसिद्ध व्रात्य जाति के थे ।" ( भारतीय इतिहास की रूपरेखा पृ० ३४९ )
स्थानांग ७ पत्र २९४ ।