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प्रस्तावना
साहित्य की इसमें अधिकता है । प्रागम ग्रन्थों पर लिखी हुई चूणिकाएँ, कथा और चरित साहित्य, जैसे समराइच्चकहा, सुरसुन्दरीचरिश्र, पासणाहचरिअं और प्रागमिक ग्रन्थ हैं । हाल की सत्तसई और जयवल्लभ का वज्जालग्ग महाराष्ट्री प्राकृत के श्रेष्ठ मुक्तक काव्य हैं। संघदास गणी की वसुदेवहिण्डी गद्य काव्य है। इनका समय विक्रम की छठवीं शताब्दी माना जाता है। इनके अध्ययन से यह अवश्य जाना जाता है कि इनसे पूर्व भी कोई साहित्य अवश्य रहा है । मागधी
यह मगध देश की भाषा कही जाती है । नाटकों में निम्न वर्ग के पात्रों द्वारा इसका प्रयोग करना पाया जाता है। अन्य प्राकृत भापायों में 'य' के स्थान में जहां 'ज' का प्रयोग होता है वहां इसमें 'य' ही रहता है । हां 'र' के स्थान पर 'ल' का प्रयोग अवश्य पाया जाता है जैसे राजा-लामा । हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अनुसार इस भाषा में वर्ग के तीसरे, चौथे अक्षरों के स्थान में वर्ग के पहले और दूसरे अक्षर हो जाते हैं । जैसे गिरि-किरि धूली-थूली ग्रादि । इसी तरह अन्य वर्गों में भी विशेषता है। इस भाषा का प्राकृत साहित्य उपलब्ध नहीं है किन्तु व्याकरण ग्रन्थों और नाटकों में इसका प्रयोग अवश्य हुअा मिलता है। अर्धमागधी
शौरसेनी और मागधी भापाओं प्रदेशों के मध्य के कुछ भाग में दोनों भाषाओं का मिश्रित रूप अवश्य पाया जाता है, इसी को अर्धमागधी कहते हैं । ७वीं शताब्दी के प्राचार्य जिनदास गणी, (६३५) महत्तर ने अपनी निशीथ चूर्णी में प्राधे मगध देश की भाषा को अर्धमागधी बतलाया है। जो अष्टादश देशी भाषाओं से युक्त थी।' टीकाकार अभयदेव ने इसमें कुछ लक्षण मागधी और प्राकृत के बतलाये हैं। जैनियों के प्रागम साहित्य में और अन्य धार्मिक साहित्य में इसका प्रयोग खुलकर पाया जाता है। मागधी के समान इसमें भी अकारान्त संज्ञा के मुख्य रूप से इसका प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं र के स्थान पर ल का भी प्रयोग पाया जाता है; और कर्ता कारक एक वचन में प्रो का ए हो जाता है किन्तु इसमें 'श' का प्रयोग न होकर 'स' का ही प्रयोग पाया जाता है। भगवान महावीर ने अपना धर्मोपदेश इसी भाषा में दिया था।' परन्तु महावीर के निर्वाण से ८० वर्ष के बाद बलभी में संकलित कर लिपिबद्ध होने वाले श्वेताम्बरीय सूत्रग्रन्थों की भाषा में अवश्य परिवर्तन पाया जाता है। इस परिवर्तन के साथ-साथ ईस्वी सन् ३१० से पूर्व मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के राज्य काल में मगध देश में पड़ने वाले द्वादशवर्षीय दुभिक्ष का प्रभाव भी उस पर पड़े बिना नहीं रह सका। दूसरे साधु संघ का विविध देशों में भ्रमण तथा उन-उन देशी भाषाओं के प्रादान प्रदान से भी उसमें परिवर्तन होना संभव है, आगम साहित्य का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो उसमें वह परिवर्तन अवश्य ज्ञात हो जायगा। इसी को लक्ष्य में रखकर प्राचार्य हरिभद्र ने जैनागमों की भाषा को अर्धमागधी न कहकर प्राकृत नाम से उल्लिखित किया है । डा. जैकोबी ने जैन वर्तमान सूत्रों की भाषा को अर्धमागधी न बतलाकर जैन महाराष्ट्री बतलाया है । इसी को आर्ष और ऋषिभाषिता भी
(२) 'भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ' । -समवायांग सूत्र पत्र ६० (३) दश वैकालिक वृत्ति पृ० २०३। (४) Kalpa Sutra : Sacred Book of the East Vol. XII.