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________________ १० जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भाषा अनेक रूपों में विभक्त हो गई। प्राकृत के अर्धमागधी, मागधी, शौरसनी महाराष्ट्री और पैशाची भेद आज भी मिलते हैं । श्वेताम्बर जैनागमों की भाषा 'अर्धमागधी प्राकृत' और दिगम्बर जैनों के प्राचीन पागम साहित्य की भाषा 'शौरसेनी प्राकृत' कही जाती है। भरत ने अपने नाट्यशास्त्र (१७-४८) में मागधी अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, वाह्लीका और दाक्षिणात्या नाम की सात प्रकार की प्राकृत भाषाएँ बतलाई हैं। प्राकृत भाषा में विशाल साहित्य रचा गया है। वर्तमान में उपलब्ध साहित्य से उसकी समृद्धि का यथेष्ट ज्ञान हो जाता है। यहां प्राकृत भाषा के उक्त भेदों पर कुछ विचार किया जाता है। जैन प्राकृत और साहित्यिक प्राकृतों का उल्लेख मध्य काल के वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रन्थों में मिलता ही है। उनमें शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्धमागधी पैशाची, और अपभ्रश के नाम पाये जाते हैं। शौरसेनी भाषा शूरसेन देश में स्थित मथुरा नगर के आस-पास की भाषा गौरसेनी कहलाती है। इसका प्रयोग संस्कृत के नाटकों में स्त्री-पात्रों और मध्यकोटि के पुरुषपात्रों में पाया जाता है। दो स्वरों के मध्य में संस्कृत के त, थ, का क्रमशः द और ध हो जाना इसकी विशेषता है। इस भाषा में र का ल क्वचित् ही होता है । तीनों सकारों के स्थान में 'स' ही होता है । कर्ता कारक पुल्लिग के एक वचन में 'यो' होता है । 'थ' के स्थान में क्वचित् 'ध' भी होता है और पूर्वकालिक कृदन्त के रूप में संस्कृत प्रत्यय 'त्वा' के स्थान पर 'ता'-ट्य, या 'दूगा' होता है । जैसे सुत-सुदो, कथम्-कधं, कृत्वा-करित्ता, कग्नि, कग्गिा होता है। इस भाषा के ग्रन्थ दिगम्बर जैन साहित्य में पाये जाते हैं। प्राचार्यप्रवर कुन्दकुन्द का प्रवचनसार, पंचास्ति काय इसी भाषा के ग्रन्थ हैं, परन्तु पंचास्तिकाय में अर्धमागधी का प्रभाव भी परिलक्षित है। शिवकोटि की भगवती आराधना इस भापा का मौलिक ग्रन्थ है, वट्टकेरका मूलाचार भी इसी भाषा की देन है । इस में जैन साहित्य की बहुलता होने से इसे जैन शौरसेनी भी कहा जाता है। महाराष्ट्री ___ यह काव्य की पद्यात्मक भाषा है । काव्य-ग्रन्थों में इसी का प्रयोग किया जाता था। गाथा सप्तसती, सेतुबन्ध, गउडवहो और रावणवध जैसे उच्चकोटि के काव्य-ग्रन्थ इसी में रचे गए हैं। पहले महाराष्ट्री महाराष्ट्र देश की भाषा मानी जाती थी, किन्तु अब वह शौरसेनी के विकास का उत्तर रूप है। ऐसा डाकार मोहन घोष का कहना है । दो स्वरों के मध्य के अल्पप्रागण स्पर्श-वर्ण का लोप और महाप्राण का 'ह' रूप में परिणत हो जाना इसकी विशेषता है। महाराष्ट्री के विशेष लक्षण जो इसे शौरसेनी से विभक्त करते हैं इस प्रकार हैं-यहाँ मध्यवर्ती 'त' का लोप होकर केवल स्वर रह जाता है, किन्तु 'द' में परिवर्तित नहीं होता। उसी तरह यहाँ 'थ' ध में परिवर्तित न होकर 'ह' में परिवर्तित हो जाता है और क्रिया का रूप पूर्वकालिक 'ऊग' लगाकर बनाया जाता है, इनके सिवाय जैन महाराष्ट्री में कहीं-कहीं 'र' का 'ल' तथा प्रथमान्त 'ए' हो जाता है। जैसे जानाति-जागाइ, कथं-कहं, और भूत्वा होऊरण आदि। इस भाषा में भी जैन साहित्य ही विशेष उपलब्ध होता है। विमलसूरिका 'पउम चरिउ' इसी भाषा का पद्य-बद्ध काव्य है । पर इसमें 'य' श्रुतिका अत्यधिक प्रयोग पाया जाता है। श्वेताम्बर जैन (१) 'मागहद्ध विसयभासाणिबद्धं अद्वमागहं अट्ठारस देसी भासा भासणिययं वा अद्धमागहं ।'--निशीथचणि (२) मागवभाषा लक्षणं किंचित् किचिञ्च प्राकृत भापा लक्षणं यस्यामस्ति सा अर्धमाग याः ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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