________________
प्रस्तावना
प्राकृत भाषा
जो प्रकृति से सिद्ध हो अर्थात् स्वभाव से निष्पन्न हो, उसे प्राकृत कहते हैं। जो लोग प्राकृत भाषा को संस्कृत से निष्पन्न बतलाते हैं । उनका वह कथन संगत नहीं जान पड़ता; क्योंकि प्राकृत जन साधारण का भापा थी, अथवा जिस कथ्य भापा को जनसाधारण अपने व्यवहार में लाते हों, वही प्रकृति निष्पन्न भाषा है। प्राकृत भाषा की महत्ता जनसाधारण से छिपी हुई नहीं है। उसका सरल और मधुर साहित्य आज भी लोगों के हृदयों में अपने गौरव को अंकित किये हुए है। भगवान महावीर ने अपना उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिया था वह आधी मगध देश की भाषा थी और आधी भाषा शूरसेन देश की । पर उसमें अन्य भापात्रों के हृदयस्थ करने की क्षमता थी। बुद्ध ने भी तात्कालिक देश भाषा को अपनाया था, बाद में वही भापा पालि के नाम से प्रसिद्ध हुई। प्राकृत की महत्ता उसके हृदयंगम करने से सहज ही ज्ञात हो जाती है । प्राकृत बड़ी सरल और सहज बोधगम्य भाषा है जबकि संस्कृत दुरूह और कठिन है । इसी कारण वह जनसाधारण की भापा नहीं बन सकी है। यद्यपि प्राकृत को गिराने का बहुत कुछ प्रयत्न किया गया: परन्तु फिर भी उसका अस्तित्व बना ही रहा। काव्यालंकार के टीकाकार नमि साधु ने लिखा है कि "सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृति, स्तत्र भवं, सैव वा प्राकृतं । 'आरिसं वयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागही वाणी' इत्यादि वचनात् वा प्राक पूर्व कृतं प्राक्कृतं-बाल-महिलादिसुवोधं सकल-भापा-निवन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैक स्वरूपं तदेव च देहाविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितं सत् संस्कृताधुत्तर विभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि ।”
(काव्यालंकारटीका २,१२) इसमें बतलाया गया है कि लोगों के व्याकरण आदि के संस्कार से रहित स्वाभाविक वचन व्यापार को प्रकृति कहते हैं उसे ही प्राकृत कहा है। आर्ष वचन में (हादशांग में) ग्रन्थों की भाषा अर्धमागधी थी, इससे प्रकट हैं कि जो बालक तथा महिलाओं आदि के लिए सहजबोधगम्य है, वही भाषा सकल भाषाओं की मूल कही गई है और वह मेघ वर्षा के जल की तरह पहले एक रूप होने पर भी देश भेद से और संस्कार करने से वह अनेक भेदों में परिणत हो जाती है। अतएव शास्त्रकारों ने पहले प्राकृत को कहा है। बाद में (व्याकरणादि द्वारा संस्कारित हुई भाषा) संस्कृत आदि को कहा है।
इस प्राकृत भाषा का भी क्रमशः परिष्कार हुआ और उसने अपने को साहित्यिक वेश-भूषा से अलंकृत किया। शिलालेखों की भाषा और व्याकरण सम्बन्धी प्राकृत साहित्य का अध्ययन करने से इस बात का सहज ही आभास हो जाता है। बौद्धों के हीयमान सम्प्रदाय के मान्य त्रिपिटकों की पालि और जैनागमों की अर्धमागधी प्राकृत बोलियों के ही साहित्यिक रूप हैं । प्राकृत भाषा के साहित्य को संस्कृत की तरह समृद्ध एवं संगठित बनाने के लिए वैयाकरणों ने व्याकरण के अनेक नियम भी बनाये । परन्तु प्राकृत की बोलियां अपने भिन्न-भिन्न अनेक रूपों में प्रचलित रहीं और उसमें संस्कृत के समान एक रूपता न आ सकी। क्योंकि एक भाषा के लक्षण दूसरी भाषा के लक्षणों से जुदा थे। इसी कारण त्रिविक्रम और प्राचार्य हेमचन्द्र आदि व्याकरणकर्ताओं ने नियमों में प्रायः''क्वचित्' में 'बहुल' आदि शब्दों का प्रयोग किया है। जिनसे स्पष्ट जान पड़ता है कि ये नियम किसी भाषा के लिए शाश्वत रूप में लागू नहीं हो सकते । यद्यपि व्याकरणों से भाषा में थोड़ा बहुत सुधार भी हुआ है । फिर भी देशभेद और विभिन्न बोलियों के कारण प्राकृत
१. प्रकृतेः संस्कृतादागतम् प्राकृतम्-वाग्भट्टालंकारटीका २,५ अथवा प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत् प्रागतं वा प्राकृतम् ।
-हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण