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मैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह रामचन्द्र, गुणचन्द्र और अमरचन्द्र आदि ने अपभ्रंश को संस्कृत प्राकृतादि के समान ही साहित्यिक भाषा माना । ८वीं से ११ वीं शताब्दी में साहित्यकों ने महाकाव्यों और खण्डकाव्यों को गुंफित किया । उसे रस और अलंकारों से केवल पुष्ट ही नहीं किया; किन्तु पल्लवित, पुष्पित भी किया तथा उसके माधुर्य की सरस सरिता में जन साधारगण को निमज्जन उन्मज्जन करने की सुविधा भी प्रदान की।
___इस विवेचन पर से अपभ्रश के इतिहास पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ता है। साथ ही आगे होने वाले साहित्यिक परिचय से उसके विकास और ह्रास का भी पता चल जाता है। प्रत्येक भाषा अपने प्रारम्भिक काल के वाद विकास पाती है। अपभ्रंश ने भी इसी तरह विकास पाया, और बाद में वह पतन को प्राप्त हुई।
भारतीय साहित्यिक भाषायें यात्म-अनात्म भावनाओं की अभिव्यक्ति साहित्य है। साहित्य के सृष्टिकर्ता विद्वानों ने अपनी चिरसाधना और अन्तर्मानस की अनुभूति द्वारा सुख, दुःख, जीवन, मरण, आशा, निराशा, भय निर्भयता, हास्य, गोक और विलाप तथा प्राकृतिक रहस्यों से विस्मित करने वाले दृश्यों एवं सौन्दर्य को अनुपम छटा को वाणी द्वारा प्रकट किया है उसे साहित्य कहते हैं। साहित्य की महत्ता उसमें चचित वस्तु तत्त्व से होती है। इसी से साहित्य सार्वकालिक और सार्वदेशिकता से ओत-प्रोत रहता है. वह किसी सम्प्रदाय, देश या व्यक्ति विशेष का समर्थक नहीं होता; किन्तु उसमें सार्वभौमता होती है। वह किसी एक अङ्ग का सम्पोषक नहीं होता। उसमें देश, काल, ऋतु, क्षेत्र, पर्वत और तद्देशीय युवति-जनों के वेष-भूषा के साथ धर्म के सिद्धान्तों का भी यथा स्थान संक्षिप्त या विशद रूप में निर्देश किया गया है।
साहित्य की सृष्टि अनेक भाषाओं में की गई है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और गुजराती, मराठी ग्रादि। संस्कृत
संस्कार की गई भाषा का नाम संस्कृत है। वैदिक कालोन संस्कृत प्राचीन है और अवैदिक कालोन अर्वाचीन। पाणिनीय ने संस्कृत को व्याकरण से परिष्कृत कर उसके रूप को स्थिर किया। पश्चात् व्याकरण के विकास के साथ-साथ संस्कृत के प्रयोग और नियम भी सुस्थिर होते गये। व्याकरण के प्रयोग से शिक्षित समुदाय की भाषा शुद्ध और परिमार्जित होती गई। किन्तु व्याकरण विहीन जन साधारण की भाषा अपरिमाजित और स्खलित हो रह गई । संस्कृतभाषा में प्रबन्ध काव्य चरित, पुराण, कथा, सिद्धान्त, व्याकरण, दर्शन, वैद्यक ज्योतिष कोप, छन्द, नाटक, चम्पू और अलंकार आदि विषयों पर विविध एवं विशाल अन्य लिखे गये। जैन जैनेतर अन्थकारों ने संस्कृत के भण्डार को खूब ही समृद्ध बनाने का प्रयत्न किया है। उसमें विपुल साहित्य की सृष्टि ही उसकी महत्ता की संद्योतक है। संस्कृत का साहित्य प्रौढ़ और उच्चकोटि का है । परन्तु संस्कृत भाषा साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण जन साधारण की भाषा नहीं कहला सकी। वह शिक्षित और शिष्ट लोगों की ही भाषा बनी रही। परन्तु प्राकृत और अपभ्रंश जन साधारण की भाषा बनी, और साहित्यिक महत्ता को भी प्राप्त हुई। संस्कृत की अपेक्षा ये दोनों भाषाएं सरल और सुकोमल हैं । जन साधारण उनके अर्थ को शीघ्र ही अवगत कर लेता है। यहां प्राकृतादि भाषाओं का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराते हुए अपभ्रश के विकास-सम्बन्ध में विचार किया जायगा।