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________________ प्रस्तावना कवि राजशेखर ने (८८० से १२० ई०) अपनी काव्यमीमांसा में अनेक स्थलों पर अपभ्रंश का निर्देश किया है। साथ ही अपने से पूर्ववर्ती कवियों की तरह स्वयं भी संस्कृत प्राकृतादि भापाओं के समान अपभ्रंश को भी पृथक् साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है तथा काव्य-पुरुष के गरीर का कथन करते हुए संस्कृत को मुख, प्राकृत को बाहु, अपभ्रंश को जघन-मध्यभाग, पैशाची को पैर, और मिश्र को उरस्थल बतलाया है' और तदनुसार राजा की काव्य-सभा में संस्कृतकवि उत्तर, प्राकृतकवि पूर्व, अपभ्रंशकवि पश्चिम, और पैशाची कवि दक्षिणा में बैठे ऐसी व्यवस्था का उल्लेख किया है। कवि ने दूसरे स्थल पर सौराष्ट्र और त्रवण देश को अपभ्रंश भाषा भाषी प्रकट किया है। संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं के क्षेत्र का निर्देश करते हुए मरु (मारवाड) टवक (ठक्क) पंजाब का एक भाग भादानक-पंजाब के झेलम जिले के भद्रावती देशों में अपभ्रश के प्रयोग होने का संकेत भी किया है। महाकवि पुष्पदन्त ( वि० सं० १०१६ ) ने अपने 'महापुराण' में संस्कृत और प्राकृत भाषा के साथ अपभ्रंश का भा समुल्लेख किया है। उस काल में संस्कृत प्राकृतादि के साथ अपभ्रश का भी ज्ञान राजकुमारियों को कराया जाता था। अमरचन्द ने तो अपभ्रंश की गणना षड्भाषाओं में की है संस्कृतं प्राकृतं चैव शौरसेनी च मागधी। पैशाचिकी चापभ्रंशं षड् भाषाः परिकीर्तिताः ॥ - काव्य कल्पलता वृत्ति पृ०८ अपभ्रंश भाषा के उल्लिखित ये भिन्न भिन्न निर्देश उसके विकास में निम्न बातें फलित करते हैं और उसकी ऐतिहासिक कड़ी जोड़ने में सक्षम हैं प्रारम्भ में अपभ्रश का अर्थ बिगड़ा हुअा रूप था। उस समय भारत में 'विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग होने लगा था और नाट्यकार के समय अपभ्रंश वीजरूप से विद्यमान थी और उसका प्रयोग आभीर एवं शबर आदि वनवासी जातियों में प्रयुक्त किया जाता था, पर उस समय तक उसका कोई साहित्यिक रूप पल्लवित नहीं हुया था। किन्तु छठी शताब्दी में 'अपभ्रश का प्रयोग वैयाकरणों और आलंकारिकों के ग्रन्थों में भी उल्लिखित होने लगा और वह साहित्यिक भाषा का सूचक भी माना जाने लगा इतना ही नहीं, किन्तु उसका स्वतन्त्र रूप भी विकसित होने लगा था और जो दण्डी तथा भामह जैसे आलंकारिक साहित्यकों की स्वीकृति भी पा चुका था, इस तरह वह ८ वीं शताब्दी में सर्वसाधारण के बोल-चाल की भाषा मानी जाने लगी और उसका विस्तार सौराष्ट्र से लेकर मगध तक हो गया था। हां देशभेद के कारण उसमें कुछ भिन्नता अवश्य आ गई थी, किन्तु काव्यादि रचना में प्राभीरादि की अपभ्रंश का ही प्रयोग होता था। ११ वीं से लेकर १३ वीं शताब्दी तक के कवियों-मम्मट, वाग्भट्ट, हेमचन्द्र, ____१. “अहो श्लाघनीयोऽसि । शब्दार्थो ते शरीरं, संस्कृतं मुखं, प्राकृतं बाहुः, जघनमपभ्रंशः, पैशाचं पादौ उरो मिश्रम् ।" काव्यमीमांसा अ०३। २. मध्येसभं राजासनम् । तस्य चोत्तरतः संस्कृतकवयो निविशेरन् ।...पूर्वेण प्राकृताः कवयः ।...पश्चिमेनाप कवयः...दक्षिणतो भूतभाषाकवयः ।" -काव्यमीमांसा प्र० १० ३. सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कभादानकाश्च । काव्यमीमांसा, अ० १० ४. सौराष्ट्र त्रवणाद्या ये पठन्त्यर्पित सौष्ठवम् । -काव्यमीमांसा अ०७ ५. सक्कउ प्रायउ पुण अवहंसउ, वित्तउ उप्पाइउ सपसंसउ । -महापुराण ५-१८-६ ६. आभीरी भाषापभ्रंशस्था कथिता क्वचिन्मागध्यामपि दृश्यते । - काव्यालंकारटीका पृष्ठ १५
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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