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________________ जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह प्राकृत ) के शुद्ध प्रशुद्ध रूप पदों का मिश्रित रूप पाया जाता है, जो नव वर्षाकालीन मेघों के प्रपात से पूर द्वारा प्लावित गिरि नदी के वेग समान सम और विषम होता हुआ भी प्रणय कोप से युक्त कामिनी के वार्तालाप की तरह मनोहर है। इसी तरह स्वयंभू ने भी अपभ्रंश काव्य-रचना की तुलना एक नदी से की है, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों के तटों का स्पर्श करती हुई घनपद-संघटना की चट्टानों से टकराकर बहती है। उद्योतनसूरि की 'कुवलय माला' में जहां अपभ्रंश का चर्चरीरास' समाविष्ट है। वहां लोकभाषा सूचक अपभ्रंश गद्य के नमूने भी उपलब्ध हैं । यद्यपि वे प्राकृत के प्रभाव से परिलक्षित हैं, फिर भी मायादित्य और ग्राम-महत्तों का परस्पर कथनोपकथन अपभ्रंश भाषा में दिया हुआ है और अवशिष्ट कथन प्राकृत में अङ्कित है। इससे स्पष्ट है कि उस समय अपभ्रंश का प्रयोग लूले-लंगड़े, रोगी और दरिद्री भी करते थे, और वह साहित्यिक विकास में अग्रसर हो रही थी। इसी ग्रंथ के एक दूसरे उद्धरण में कथानायक राजकुमार का शूरसेन देश के केन्द्रस्थल मथुरा के एक अनाथ मण्डप में पहुंचने पर वहां के दीन-हीन, कोढ़ी और लंगड़े आदि रोगी गंवार लोगों से जो बातचीत या संवाद हुआ है वह बड़ा ही सजीव है। यहां यह अवश्य विचारणीय है कि उन लोगों से शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग न कराकर अपभ्रंश का प्रयोग कराना खास विशेषता रखता है। वहाँ उसमें शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव स्पष्ट है और उन शब्दों की ध्वनि में उदार प्रवृत्ति और देशी शब्दों का बाहुल्य आदि अपभ्रंश का स्पष्ट इंगित कराता है। नवमी शताब्दी के विद्वान कवि रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में काव्य का गद्य-पद्य में विभाजन के अनन्तर भाषा के आधार पर उसे छह भागों में विभक्त किया है, और देश भेद से अपभ्रश के बहत भेद होने की सूचना भी की है। इससे स्पष्ट है कि कवि रुद्रट अन्य साहित्यिक प्राकृतों के समान ही अपभ्रंश को गौरव प्रदान करते हैं। रुद्रट के इस कथन पर विक्रम की बारहवीं शताब्दी के विद्वान नमि साधु ने (२०६६ ई०) अपनी टीका में अपभ्रंश को प्राकृत में अन्तर्भुक्त करते हुए लिखा है कि अन्य लेखकों ने उस अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं, उपनागर, आभीर और ग्राम्य" । इसी का निराकरण करने के लिए रुद्रट ने भूरिभेद बतलाते हुए उसके अनेक भेदों की सूचना की है; क्योंकि देश की विशेषता के कारण भाषा में भी विशेषता पाई जाती है । साथ ही प्राकृत को ही अपभ्रंश माना है। १. ता कि अवहंसं होहइ ? हूँ तं पि णो जेण सक्का-पाय उभयसुद्धासुद्ध पयसमतरंगरंगंतवाग्गिरं णव पाउस जलयपवाह पूर पव्वालिय गिरिणइ सरिसंसम विसमं पणयकुविर्यापयाणइणी समुल्लावसरिस मणोहरं ।' -कुवलयमाला २. सक्कय-पायय-पुलिणाल किय देसी भासा उभय तडुज्जल । कवि दुक्कर-घण सह-सिलायल । स्वयम्भू-पउम चरिउ । ३. देलो, कुवलय माला कहा पृ० ५५ । ४. 'भापाभेदनिमित्तः पोढा भेदोऽस्य संभवति । प्राकृतसंस्कृतमागपिशाचभापाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः। -काव्यालंकार २, ११-१२ । ५. "प्राकृतमेवापभ्रंशः, स चान्यरूपनागराभीरनाम्यावभेदेन त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्तं भूरिभेद इति । कुतो देशविशेषात् । तस्य च लक्षणं लोकादेव सम्यगवसेयम् ॥" -काव्यालङ्कारटीका २-१२
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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