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________________ प्रस्तावना १०६ घेरा डाल कर अपना अधिकार कर लिया था। शत्रु लोग इसके प्रताप एवं पराक्रम से भयभीत रहते थे। जैनधर्म पर केवल उसका अनुराग ही न था किन्तु उस पर वह अपनी पूरी प्रास्था भी रखता था, फलस्वरूप उसने जैन मूर्तियों की खुदवाई में सहस्रों रुपये व्यय किए थे। इससे ही उसकी आस्था का अनुमान किया जा सकता है। ___ डूंगरसिंह सन् १४२४ (वि० सं० १४८१) में ग्वालियर की गद्दी पर बैठा था। राज्य समय के दो मूर्ति लेख सम्वत् १४६७ और १५१० के प्राप्त हैं । सम्वत् १४८६ की दो लेखक प्रशस्तियां-पं० विबुध श्रीधर के संस्कृत भविष्यदत्त चरित्र और अपभ्रंश-भाषा के सुकमालचरित्र की प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय' भविष्य दत्त पंचमी कथा' की एक अपूर्ण लेखक प्रशस्ति कारंजा के ज्ञान भण्डार की प्रति से प्राप्त हुई है। डूंगरसिंह ने वि० सं० १४८१ से सं० १५१० या इसके कुछ बाद तक शासन किया है। उसके बाद राज्य सत्ता उसके पुत्र कीर्तिसिंह के हाथ में आई थी। कविवर र इधू ने राजा डूंगरसिंह के राज्य काल में तो अनेक ग्रन्थ रचे ही हैं किन्तु उनके पुत्र कीर्तिसिंह के राज्य काल में भी सम्यक्त्व कौमुदी की रचना की है। ग्रंथकर्ता ने उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में कीर्तिसिंह का परिचय कराते हुए लिखा है कि वह तोमर कुल रूपी कमलों को विकसित करने वाला सूर्य था और दुर्वार शत्रुनों के संग्राम से अतृप्त था और अपने पिता डूंगरसिंह के समान ही राज्यभार को धारण करने में समर्थ और बंदी-जनों ने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था और जिसकी निर्मल यश रूपी लता लोक में व्याप्त हो रही थी, उस समय यह कलिचक्रवर्ती था जैसा कि उक्त ग्रंथ प्रशस्ति के निम्न वाक्यों से प्रकट है तोमरकुलकमलवियास मित्त, दुव्वारवैरिसंगर अतित्तु । डूंगरणिवरज्जधरा समत्थु, वंदीयण समप्पिय भूरि-अत्थु ।। चउराय विज्जपालण अतंदु, रिणम्मल जसवल्ली भुवरणकंदु। कलिचक्कवट्टि पायडणिहाणु, सिरिकित्तिसिंधु महिवइपहाणु ॥ -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र २ नागौर भण्डार कीतिसिंह वीर और पराक्रमी था उसने अपना राज्य अपने पिता से भी अधिक विस्तृत किया था। वह दयालु एवं सहृदय था जैनधर्म के ऊपर उसकी विशेष आस्था थी। वह अपने पिता का आज्ञाकारी था उसने अपने पिता के जैनमूर्तियों के खुदाई के अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीपाल नाम का एक भाई और भी था जो लड़ाई में मारा गया था। कीर्तिसिंह ने अपने राज्य को यहां तक पल्लवित कर लिया था कि उस समय उसका राज्य मालवे के सम-कक्षका हो गया था। और दिल्ली का बादशाह भी कीर्तिसिंह की कृपा का अभिलाषी बना रहना चाहता था। सन् १४६५ १. सन् १४५२ (वि० सं० १५०६) में जौनपुर के सुलतान महमूदशाह शर्की और देहली के बादशाह बहलोल लोदी के बीच होने वाले संग्राम में कीर्तिसिंह का दूसरा भाई पृथ्वीराज महमूदशाह के सेनापति फतहखां हार्वी के हाथ से मारा गया था। परन्तु कविवर रहधू के ग्रंथों में कोर्तिसिंह के दूसरे भाई पृथ्वीराज का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। -देखो टाड राजस्थान १०२५० स्वर्गीय महामना गोरीशंकर हीराचन्द जी मोझा कृत गवालियर के तंवर वाली टिप्पणी।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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