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________________ ११० जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह (वि० सं० १५२२) में जौनपुर के महमूदशाह के पुत्र हुसैनशाह ने ग्वालियर को विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी, तब से कीर्तिसिंह ने देहली के बादशाह बहलोल लोदी का' पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुर वालों का सहायक बन गया था। सन् १४७८ में हुसैनशाह दिल्ली के बादशाह बहलोल लोदी से पराजित होकर अपनी पत्नी और सम्पत्ति वगैरह को छोड़कर तथा भागकर ग्वालियर में राजा कीर्तिसिंह की शरणमें गया था तब कीर्तिसिंह ने धनादि से उसकी सहायता की थी और कालपी तक उसे सकुशल पहुँचाया भी था। इसके सहायक दो लेख सन् १४६८ (वि० सं० १५२५) और सन् १४७३ (वि० सं० १५३०) के मिले हैं। कीर्तिसिंह की मृत्यु सन् १४७६ (वि० सं० १५३६) में हुई थी। अतः इसका राज्य काल संवत् १५१० के बाद से सं० १५३६ तक पाया जाता है। इन दोनों के राज्यकाल में ग्वालियर में जैनधर्म खूब पल्लवित हुआ। रचनाकाल कवि रइधू के जिन ग्रन्थों का परिचय दिया गया है, यहां उनके रचनाकाल के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। रइधू के सम्मत्तगुणनिधान और सुकोसलचरिउ इन दो ग्रन्थों में ही रचना समय उपलब्ध हुआ है । सम्मत्तगुणनिधान नाम का ग्रंथ वि० सं० १४६२ की भाद्रप्रद शुक्ला पूर्णिमा मंगलवार के दिन बनाया गया है और जो तीन महीने में पूर्ण हुआ था और सुकोशलचरिउ उससे चार वर्ष बाद विक्रम सं० १४९६ में माघ कृष्णा दशमी को अनुराधा नक्षत्र में पूर्ण हुआ है'। सम्मत्तगुणनिधान में किसी ग्रन्थ के रचे जाने का कोई उल्लेख नहीं है, हां सुकोशलचरिउ में पार्श्वनाथ पुराण, हरिवंश पुराण और बलभद्रचरिउ इन तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जिससे स्पष्ट है कि ये तीनों ग्रन्थ भी संवत १४९६ से पूर्व रचे गये हैं और हरिवंश पुराण में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (महापुराण) मेघेश्वरचरित, यशोधरचरित, वृत्तसार, जीवंधरचरित और पार्श्वचरित इन छह ग्रन्थों के रचे जाने का उल्लेख है, जिससे जान पड़ता है कि ये ग्रंथ भी हरिवंश की रचना से पूर्व रचे जा चुके थे। सम्मइ जिनचरिउ में, पार्श्वपुराण, मेघेश्वरचरित, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित रत्नाकर (महापुराण) बलभद्रचरित (पउमचरिउ) सिद्धचक्र विधि, सुदर्शनचरित और धन्यकुमारचरित इन सात ग्रन्थों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे यह ग्रन्थ भी उक्त संवत् से पूर्व रचे जा चुके थे। १. बहलोल लोदी देहली का बादशाह था उसका राज्य काल सन् १४५१ (वि० सं० १५०८) से लेकर सन् १४८६ (वि० सं० १५४६) तक ३८ वर्ष पाया जाता है । २. देखो, प्रोझा जी द्वारा सम्मादित टाड राजस्थान हिन्दी पृष्ठ २५४ ३. "चउदहसय वाणव उत्तरालि, वरिसइगय विकामरायकालि । वक्खेयत्तु जि जिणवय-समक्खि, भद्दव मासम्मि स-सेय पक्खि । पुण्णमिदिणि कुजवारे समोई, मुहयारें सुहणामें जणेई । तिहु मास रयहि पुण्णहूउ, सम्मत्तगुणाहिणिहाणधूउ ॥" ४. "सिरि विक्कम समयंतरालि, वट्टतइ इंदु सम विसम कालि । चउदहसय संवच्छ रइ अण्ण छण्णउ महिपुणु जाय पुण्ण । माह दुजि किण्हदहमी दिणम्मि, प्रणुराहुरिक्ख पयडिय सम्मि ॥"
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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