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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह नामक ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में ग्वालियर का वर्णन करते हुए वहां के तत्कालीन श्रावकों की चर्या का जो उल्लेख दिया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है :
तहु रज्जि महायण बहुधणट्ठ, गुरु-देव-सत्थ विरणयं वियट्ठ । जहिं वियक्खरण मणुव सव्व, धम्माणुरत्त-वर गलिय-गव्व ॥ जहिं सत्त-वसण-चुय सावयाई, रिणवसहिं पालिय दो-दह-वयाई । सम्मइंसण-मणि-भूसियंग, रिगच्चोभासिय पवयण सुयंग ॥ दारापेखरण-विहि णिच्चलीण, जिण महिम महुच्छव णिरु पवीण । चेयणगुण अप्पारुह पवित्त, जिण सुत्त रसायण सवण तित्त । पंचम दुस्समु अइ-विसमु-कालु, गिद्दलि वि तुरिउ पविहिउ रसालु । धम्मज्झाणे जे कालु लिति, गवयारमंतु अह-णिसु गुणंति ।। संसार-महण्णव-वडण-भीय, रिगस्संक पमुह गुण वण्णणीय।। जहिं रणारीयण दिढ सीलजुत्त, दाणे पोसिय गिरु तिविह पत्त ।। तिय मिसेण लच्छि अवयरिय एत्थु, गयरूव ण दीसइ का वि तेत्थ । वर अंवर कणयाहरण एहि, मंडिय तणु सोहहिं मणि जडेहिं ॥ जिरण-णह्वण-पूय-उच्छाह चित्त, भव-तणु-भोयहिं णिच्च जि विरत्त । गुरु-देव पाप-पंकयाहि लीण, सम्मइंसरणपालण पवीण ॥ पर पूरिस स-बंधव सरिस जांहि, अह-रिगसु पडिवणिय रिणय मरणाहिं । किं वण्णमि तहि हउं पुरिस णारि, जहिं डिंभ वि सग वसणावहारि ।। पव्वहिं पवहिं पोसहु कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिरण गुण थुणंति । साहम्मि य वत्थु णिरु वहंति, पर अवगुण झपहि गुण कहति ॥ परिसु सावहिं विहियमाणु, णेमीसुरजिरण-हरि वड्ढमाणु ।
शिवसइ जा रइधू कवि गुणालु, सुक्ति-रसायण-रिणहिं रसालु ॥५॥ इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समय के ग्वालियर की स्थिति का सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और अपने कर्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने तथा अनुकरण करने की वस्तु है।
ग्वालियर में उस समय तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह का राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और जैनधर्म में आस्था रखने वाला शासक था। उसने अपने जीवन काल में अनेक जैन मूर्तियों का निर्माण कराया, वह इस पुनीत कार्य को अपनी जीवित अवस्था में पूर्ण नहीं करा सका था, जिसे उसके प्रिय पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह ने पूरा किया था। राजा डूंगरसिंह के पिता का नाम गणेश या गणपतिसिंह था। जो वीरमदेव का पुत्र था । डूंगरसिंह राजनीति में दक्ष, शत्रुओं के मान मर्दन करने में समर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेज से अलंकृत था। गुण समूह से विभूषित, अन्याय रूपी नागों के विनाश करने में प्रवीण, पंचांग मंत्रशास्त्र में कुशल, तथा असि रूप अग्नि से मिथ्यात्व-रूपी वंश का दाहक था, जिसका यश सब दिशाओं में व्याप्त था, राज्य-पट्ट से अलंकृत विपुल, भाल और बल से सम्पन्न था। डूंगरसिंह की पट्टरानी का नाम चंदादे था जो अतिशय रूपवती और पतिव्रता थी । इनके पुत्रका नाम कीर्तिपाल या कीर्तिपाल था, जो अपने पिता के समान ही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर था । डूंगरसिंह ने नरवर के किले पर