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________________ जैनग्रन्थ-प्रशस्तिसंग्रह णामें हेमराजु सुपवित्तउ। गोमाषइ-पुरवाइस्स बंसु, तासु पसिद्धा हुय बे भज्जा, उज्जोयउ जेण जि लद्ध-संसु । रूवामल गुण-सील सहिज्जा। सो उदयराज पिउ सुकइ धीरु, थणराजहि य णाम सुगरिहा, हरिसिंघहु णंदरपु पाव-भीरु । परियण-पोसणेण सुगरिट्ठा। सिरि कमलकित्ति गुरु-पायभत्तु, पत्ता णंदउ रइधू परिवार-जुत्तु। बीई पुरण कामिणि मयगय-गामिरिण सामिरिण रिणयपरियण-यणहु सिरि हेमराजु णंदउ बहुत्त, जिणधम्मासत्ती पिय-पय-भत्ती महणसिरीणामें मुगहु ।१७ जसु-भत्ति वसें जसहरचरित्तु । लक्सरण-लखंकिय तिणि पुत्त, विरयउ दय-रस-भर-गुण पवित्त, परिवारहु मंडण विणय-जुत्त । .........................." तहं मज्झिम गुरुउ कुल कमल-माणु, सिरि जोधा साहुहु वर विहारि, जिण-पाय-भत्तु सत्थत्य जाणु । चंदीव घंट कलसंड धारि । परिवारहु मंडण कमल-णेत्तु, तत्थट्टिएण विरइउ जि एहु. गाएण समज्जिय भूरि-वित्तु । जं हीणाहिउ तं बुह खमेहु । ए विहियउ जेणि णिरु विबुह संगु, पत्ता:गामेण य कुमरू भासिउ गुणंगु । बह पाढिजंतउ चरिउ महंतउणंदउ लाहि दिवसयर । बाल्हाही तहु भामिरिण पसिद्ध, सरसइ जि खमहु महुजं प्रविणउ बहु पयडिउ जह तह भासयरु णिम्मल सुसील विहुकुल विसुद्ध । इय सिरि जसहरचरिए दयलक्खरण-भावरणासरिए तहु एइचंद गंदणु गुणालु, सिरि पंडिय रइधू-विरइए भव्वसिरि-हेमराज-णामंकिए जणणी-जणणहु मोहण रवालु । भवांतर-वण्णणं तहेव दायार-बंसरिणद्देस-वण्णणं ण मं सिरि हेमराज सुउ अण्णु बीरु, च उथउ संधी परिच्छेनो समत्तो।। रिणय वंस से रिंग उज्जोय दीउ । (प्रति सचित्र, ७६ पत्रात्मक ऐ०प० सरस्वतो भवन, सग-बसण-विवज्जिउ संति मुत्ति, व्यावर, सं० १७६६) गुरु-देव-सत्थकय णिच्च भत्ति । ४४-प्रणथमी कथा (अनस्तमितसंधि कथा) णामेण रयणपाल हियय सज्जु, कर्ता-कवि रइधू आदिमाग:मोल्हण णामें तीयउ जि पुत्तु, इहु परियशु णंदउ चिरु रिणरुत्तु । णवेप्पिशु सामिय देव जिरिंणद, सरणारण पयासण गणहरविंद । णिरूवम-दव्व-पयत्थहं खाणितहा पूरण वंदमि-जिरणवरवारिण।१ एंदउ जिणसासण दुरिय हारु, पयासमि पुरशु अणथमिउ जणाह,सुएन सु सावय एक्कमणाहं । एंदउ गुरुयण भव-पत्त पारु । सुणेप्पिशु चित्ति धरेउ झटित्ति, पतद्रइ पावह पास तडत्ति ।२ गंदउ गुणियण जे सुकइ कव्वु, ण सोहइ जिम करि दंतविहीए, रण सोहइ दसणुविरणु तव-खीरगु सोहेविवि सुद्धउ करहि सव्वु । गंदउ भव्व जि सम्मत्तवंत, ण सोहइ सुवविराजिम कुलगेह, ण सोहइ जिम-गरणारिप्रसीलु बहु-रोय-सोय-दुह खयह जंत । अन्तिमभागःलाहडपुर-बासिय सावयांइ, जुमावक-धम्महु मूलु पउत्तु, सुकिज्जइ प्रणयमियउ जि निरुत्तु । दुक्खिय-जणाहं हय-प्रावयाई। परिजइदंसणणाणचरिउरिणयवित्ति,सिवालय-पंचगमणहजुत्ति ते गंदहु विरुधरण करण-समिद्ध, जुगारि गरो कुविसुरणइंजिएह, जु पढइ पढावा किय मण-रोह सु पभणइं रइधू सासय सुक्खु, लहेइ सुमण वंछिय उ पयक्नु। ..... ..... ... . . .. .. .........."
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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