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________________ पत्ता १६ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला ४५-अप्पसंबोहकव्वं (प्रात्मसंबोध काव्य) बुज्झइ परमागमु पुणुवि सोइ, कवि रइधू जसु तच्चत्थइ सद्दहणु होइ मादिमाग: तच्चत्थई पुणु सम्मत्तु जाणु, जय मंगल-गारउ वीर भडारउ भुवरण-सरशु केवल-गया । विगु सम्मत्तें ण वि होइ णाणु । लोगोत्तमु गोत्तमु संजण सोत्तम पाराहमि तहं जिण-वयरगु विरण गाणे चारित्तु वि अलक्खु, चउवीसमु जिणु हय-पंच-वाण, विण चारित्तें लन्भइ न मोक्खु । तिहुवण-सिरि-सेहरु वडमाणु । विणु मोक्खें सुह लेस विण होइ, चउगइ-गमणागमण- चुक्कु, तेण जि सम्मत्तु महंतु लोइ । कम्मट्ट-निविड-बंधण-विमुक्कु । दिनु करि सम्मत्तु लहेविणारा, गव-भावजोणि-उप्पत्ति-हीशु, चउ चिज्जइ कय रिणव्वुइ विहाणु । परमप्पय-सुद सहाव-लीणु। णिय सत्तहों अणुसारेण लोइ, परिसेसिय-पंच-सरीर-भारु, पालिज्जइ दिढ वउ गुरु-णिमोड । पाविय संसार-समुद्द-पारु। मावरणु-हीणु गय-वेयणीउ, सम्मत्तबलेण पाणु लहेवि चरेवि चरणु । माउसु-विमुक्क हय-मोहणीउ । साहिज्जइ मोवखु भविहि भव-दुहु अवशु ॥११॥ घुवनाम-गोत्तु विगयंतराउ, इय अप्पसंबोहकन्वे सयल-जरण-मरण-सवण्णा-सुहयरे परिगलिय सुहासुह-पुण्णु-पाउ । सबला-बाल - सुहबुज्भ-पयडत्थे तइयो संधि - परिच्छे ग्रो समत्तो॥ प्रवहस्थिय पंच-पयार-दुक्खु, संपत्तु सहोत्थाणंत-सुक्खु । ४६-सिद्ध तत्थ-मार (सिद्धान्तार्थसार) चुव जोणि-लक्खु चुलसीदि जम्मु, कवि रइधू आदि भागःसंसार मसेसावइ अगम्मु । मुत्ति-रमणि-कताएं अरिहंताएं एवेवि संनाएं । पासिय तिलिंगु पज्जत्तिछक्कु, खीणाडयाल-सय-पयडि चक्कु । णिरुवमगुण जुत्ताएं पायंबुरुहं पवित्ताणं ॥१॥ सिद्धत-अत्थसारं भव-भय-हारं गुणट्ठ-साहारं । मा-खंघ-दब्व-संबंध-चत्तु, वण्णातीद-महप्पं सिद्धयणं यापि पायडं वुच्छं ।। २ ॥ सय केवल-अप्प-सरुव-पत्तु । फेडिय अट्ठारह-दोस भाउ, सुद्धप्पभावणाभवसुहेण तित्तस्स भव-विरत्तस्स । घोविय-प्रणाइ-दुव्वार-राउ पत्तस्स धम्मलाहं जिण-सुय-मुरिण-पायभत्तस्स ॥३॥ बत्तस्स तोमराए वणिवरणास्स खेमसीहस्स। छद्दव्य-सरूव फुरंत पाणु, तस्स णिमित्तं किज्जइ रइधूणामा बुहेणेदं ॥४॥ सहजाणंदाचल-सुह-णिहारषु । दंसए-जीवसरूवं गुणठाण। पि भेय किरियाय । पत्तासोवीस जिणेसरु भुवरण-दिणेसरु हियह घरेविगु भव-हरणु । कम्मं सुयंग लद्धी अणुवेहा धम्म-झाएं च ॥५॥ एयाएं हि सरूवं पयर्डताणं छलं ए गाहिव्वं । जह बुद्धि पयासें करमि समासे रिणय-संबोह-पवित्परा ॥१॥ जइ चुक्कमि ता भव्वा कायव्वं [सुद्ध] भब्वेहि ॥६॥ अन्तिममाग: इति श्रीसिद्धांतार्थसारे शुद्धात्मतत्त्व संवित्याधारे श्री इय संखेवें हय-गब्बयाई पंचवि भासियई अणुब्वयाई। पं० रंधू [रइधू] कृती [कृते] संसार-सरए -भयजो पालइ सो तिहु गई न जाइ, उप्पज्जइ सुरगइ विमल ठाइ भीतेन क्षेमसीसाधुनानुमोदितो सम्यग्दर्शन-कथनमुख्यत्वेर वउ हवह तासु इय पंच भेउ, प्रथमोऽन्हः ॥१॥ जो पहागमि बुज्झवि प्रणेउ । नोट:-प्रति में मन्तिम भाग उपलब्ध नहीं है।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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