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जंनग्रंथ प्रशस्ति संग्रह
विक्रमसिंह का राज्य उसके भतीजे यशोधवल को दे दिया, जिसने बल्लाल को मारा था, और इस तरह मालवा को गुजरात में मिलाने का प्रयत्न किया गया' ।
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बल्लाल की मृत्यु का उल्लेख अनेक प्रशस्तियों में मिलता है। बड़नगर से प्राप्त कुमारपाल प्रशस्ति १५ श्लोकों में बल्लाल की हार और कुमारपाल की विजय का उल्लेख किया गया है और लिखा है कि कुमारपाल ने बल्लाल का मस्तक महल के द्वार पर लटका दिया था। चूंकि कुमारपाल का राज्यकाल वि सं० १९६६ से वि० सं० १२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्ति का काल सन् १९५१ ( वि० सं० १२०८) है अतः बल्लाल की मृत्यु १९५१ A. D. ( वि० सं० १२०७ ) से पूर्व हुई है" ।
ऊपर के इस कथन से यह स्पष्ट मालूम होता है कि कुमारपाल, यशोधवल, बल्लाल और प्रर्णोराज ये सब राजा समकालीन हैं । अतः ग्रंथ प्रशस्ति गत कथन को दृष्टि में रखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रस्तुत प्रद्युम्नचरित की रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हो चुकी थी । अतः इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १३वीं शताब्दी का पूर्वार्ध होना चाहिये ।
प्रद्युम्नचरित की अधिकांश प्रतियों में अन्तिम प्रशस्ति ही दी हुई नहीं है और जिन प्रतियों में प्राप्त थी उनमें वह त्रुटित एवं खण्डित अवस्था में प्राप्त हुई थी; किंतु यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है। कि भ० महेन्द्रकीर्ति आमेर के शास्त्रभण्डार की कई प्रतियों में यह प्रशस्ति पूर्णरूप से उपलब्ध है । उक्त भण्डार में इस ग्रंथ की छह प्रतियाँ पाई जाती हैं। जो विविध समयों में लिखी गई हैं। उनमें से सं० १५७७ की प्रति पर से उक्त ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति इस संग्रह में दी गई है ।
१६वीं प्रशस्ति 'पासनाह चरिउ' की है। जिसके कर्ता कवि देवचन्द्र हैं । इस ग्रन्थ की अभी तक एक ही खंडित प्रति प्राप्त है, जिसमें ७, ७६ और ८१ वां ये तीन पत्र नहीं हैं । ग्रन्थ में ११ संधियाँ हैं जिनमें २०२ कडवकों में कवि ने पार्श्वनाथ के चरित को बड़ी खूबी के साथ चित्रित किया है। साथ में पूर्व भवांतरों का कथन भी अंकित किया है । कवि ने दोधक छन्द में भगवान पार्श्वनाथ की ध्यान - मुद्रा को निम्न वाक्यों में चित्रित किया है. उससे पाठक ग्रन्थ की भाषा शैली से भी परिचित हो सकेंगे ।
खंति
" तत्थ सिलायले थककु जिरिंगदो, संतु महंतु तिलोय हो वंदो । पंच- महव्वय-उद्दय कंधो, निम्ममु चत्त चउब्विह बंधो । जीव दयावरु संग विमुक्को, गं दहलक्खणु धम्मु गुरुक्को । जम्मजरा मरणुज्भिय दप्पो, बारस भेय तवस्स महप्पो । मोह - तमंध - पयाव - पयंगो, लया रुहणे गिरि तुंगो | संजम -सील - विहूसिय देहो, कम्म- कसाय हुश्रासरण पुप्फंघरणु वर तोमर धंसो, मोक्ख- महासरि - कीलरण हंसी । इन्दिय - सप्पहं विसहर मंतो, अप्पसरूव- समाहि-सरतो । केवलनारण- पयासरण - कंखू, घारण पुरम्मि निवेसिय चक्खू । रिगज्जिय सासु पलंबिय वाहो, णिच्चल देह विसज्जिय-वाहो । कंचरणसेलु जहां थिर चित्तो, दोधक छंद इमो बुह वुत्तो ।”
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१. Epigraphica Indica V. L VIII P. 200.
२. देखो, सन् १९५१ की लिखित बड़नगर प्रशस्ति ।