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प्रस्तावना
इसमें बतलाया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ एक शिला पर ध्यानस्थ बैठे हुए हैं । वे सन्त महन्त त्रिलोकवर्ती जीवों के द्वारा वन्दनीय हैं, पंच महाव्रतों के धारक हैं, निर्ममत्व हैं, और प्रकृति प्रदेश स्थिति अनुभाग रूप चार प्रकार के बन्ध से रहित हैं, दयालु और संग (परिग्रह) से मुक्त हैं। दशलक्षणधर्म के धारक हैं। जन्म, जरा और मरण के दर्द से रहित हैं । तप के द्वादश भेदों के अनुष्ठाता हैं। मोहरूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य समान हैं । क्षमा रूपी लता के प्रारोहणार्थ वे गिरि के समान उन्नत हैं। जिनका शरीर संयम और शील से विभूषित है, जो कर्म रूप कषाय हुताशन के लिए मेध हैं । कामदेव के उत्कृष्ट बाण को नष्ट करने वाले तथा मोक्ष रूप महासरोवर मे क्रीड़ा करने वाले हंस हैं । इन्द्रिय रूपी विषधर सो को रोकने के लिए मंत्र हैं । आत्म-समाधि में चलने वाले हैं । केवलज्ञान को प्रकाशित करने वाले सूर्य हैं, नासाग्र दृष्टि हैं, श्वास को जीतने वाले हैं, जिनके बाहु लम्वायमान हैं और व्याधियों से रहित जिनका निश्चल शरीर है । जो सुमेरु पर्वत के समान स्थिर चित्त है ।'' यह पार्श्वनाथ की उस ध्यान-समाधि का परिचायक है जो कर्मावरण की नाशक है।
कवि ने अपना यह खण्ड काव्य गुंदिज्ज नगर के पार्श्वनाथ मंदिर में बनाकर समाप्त किया है। गुंदिज्ज नगर दक्षिण में ही कहीं अवस्थित होगा। कवि देवचन्द मूलसंघ देशी गच्छ के विद्वान वासवचन्द के शिष्य थे। ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में गुरुपरम्परा का निम्न प्रकार उल्लेख है-श्रीकीति, देवकीर्ति, मौनीदेव, माधवचन्द्र, अभयनन्दी, वासवचन्द्र और देवचन्द्र ।
ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है, जिससे यह बतलाना कठिन है कि ग्रंथ कब बना है। क्योंकि तद्विषयक सामग्री सामने नहीं है। ग्रंथ की यह प्रति सं० १४६८ के दुर्मति नाम संवत्सर के पूस महीने के कृष्ण पक्ष में अलाउद्दीन के राज्य काल में भट्टारक नरेन्द्रकोति के पदाधिकारी भट्टारक प्रतापकीति के समय में देवगिरि महादुर्ग में अग्रवाल श्रावक पण्डित गांगदेव के पुत्र पासराज के द्वारा लिखाई गई है।
अब तक मुझे वासवचन्द्र नाम के दो विद्वानों का पता चला है, जिनमें एक का उल्लेख खजुराहा के सं० १०११ वैशाखसुदी ७ सोमवार के दिन उत्कीर्ण किये गये जिननाथ मंदिर के शिलालेख में दिया हुआ है जो वहां के राजा धंग के राज्यकाल में खोदा गया था।
दूसरे वासवचन्द्र का उल्लेख श्रवण बेल्गोल के शिल्ललेख नं० ५५ में पाया जाता है जो शक सं० १०२२ (वि० सं० ११५७) का है। उस लेख के २५ वें पद्य में वासवचन्द्र मुनीन्द्र स्याद्वादविद्या के विद्वान थे, कर्कश तर्क करने में उनकी बुद्धि चलती थी। उन्होंने चालुक्य राजा की राजधानी में बालसरस्वति की उपाधि प्राप्त की थी। इनमें द्वितीय वासवचन्द्र देवचन्द्र के गुरु हो सकते हैं। यदि यही वासवचन्द्र देवचन्द्र के गुरु हों तो इनका समय विक्रम की १२ वीं शताब्दी हो सकता है।
१७वीं प्रशस्ति 'सयलविहिविहाणकव्व' की है, जिसके कर्ता कविनयनन्दी है, जिनका परिचय तीसरी प्रशस्ति के साथ दिया गया है।
१८वीं प्रशस्ति 'अणुवय-रयण-पईब' की है जिसका परिवय १३ वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है।
1. See Epigraphica Indica VOLT Page 136. २. वासवचन्द्र मुनीन्द्रो रुन्द्र स्याद्वादतर्क-कर्कश-धिषणः । चालुक्य कटकमध्ये बालसरस्वति रिति प्रसिद्धिः प्राप्तः ॥
-श्रवण बेल्लोल शिलालेख २५