________________
मैनपंथ प्रशस्ति संग्रह १९वीं प्रशस्ति 'बाहुबलीचरित' की है, जिसके कर्ता कवि धनपाल हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह संधियां हैं । कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जन का स्मरण करता हुमा कहता है कि 'नीम को यदि दूध से सिंचन किया जाय तो भी वह अपनी कटुकता का परित्याग नहीं करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोड़ती। उसी तरह सज्जन-दर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं
डते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है।' ग्रन्थ में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव थे, चरित्र दिया हुआ है । बाहुबली का शरीर जहां उन्नत और सुन्दर था वहां वह बल पौरुष से भी सम्पन्न था। वे इन्द्रिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमानपूर्वक जीना जानते थे, परंतु पराधीन जीवन को मृत्यु से कम नहीं मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट् से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन अपमान से विक्षुब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होंने अपने भाई पर चक्र चलाया; किन्तु देवोपुनीत अस्त्र 'वंश-घात' नहीं करते । इससे चक बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया-वह उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कंधे पर से नीचे उतारा और विजयी होने पर भी उन्हें संसार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभव हुआ।
वे सोचने लगे कि भाई को परिग्रह की चाहने अंधा कर दिया है और अहंकार ने उनके विवेक को भी दूर भगा दिया है। पर देखो, दुनिया में किसका अभिमान स्थिर रहा है ? अहंकार की चेष्टा का दण्ड ही तो अपमान है । तुम्हें राज्य की इच्छा है तो लो इसे सम्हालो और जो उस गद्दी पर बैठे उसे अपने कदमों में झुकालो, उस राज्य सत्ता को धिक्कार है, जो न्याय अन्याय का विवेक भुला देती है। भाई-भाई के प्रेम को नष्ट कर देती है और इन्सान को हैबान बना देती है। अब मैं इस राज्य का त्याग कर आत्मसाधना का अनुष्ठान करना चाहता हूँ और सबके देखते-देखते ही वे तपोवन को चले गये, जहां दिगम्बर मुद्रा द्वारा एक वर्ष तक कायोत्सर्ग में स्थित रहकर उस कठोर तपश्चर्या द्वारा आत्म-साधना की, पूर्ण ज्ञानी वन स्वात्मोपलब्धि को प्राप्त हुए।
ग्रंथ में अनेक स्थल काव्यमय और अलंकृत मिलते हैं। कवि ने अपने से पूर्ववर्ती अनेक कवियों और उनकी रचनाओं का भी उल्लेख किया है।
कवि ने इस ग्रन्थ का नाम 'कामचरिउ' कामदेवचरित भी प्रकट किया है और उसे गुणों का सागर बतलाया है । ग्रन्थ में यद्यपि छंदों की बहुलता नहीं है। फिर भी ११वीं संधि में दोहों का उल्लेख अवश्य हुआ है । ग्रन्थ रचना उस समय की है जब हिंदी भाषा का विकास हो रहा था। कवि ने इसे वि० सं० १४५४ में वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को स्वाति नक्षत्र में स्थित सिद्धि योग में सोमवार के दिन, जबकि चंद्रमा तुलारासी पर स्थित था, पूर्ण किया है। प्रन्थ निर्माण में प्रेरक.
प्रस्तुत ग्रंथ चंद्रवाड नगर के प्रसिद्ध राज श्रेष्ठी और राजमंत्री, जो जायस या जैसवाल वंश के भूषण थे, साहूवासाधर की प्रेरणा से की है और उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया है । वासाधर के पिता
१. णिबु को वि जइ खीरहिं सिंचा, तो विण सो कुडुवत्तणु मुंचइ ।
उच्छु को वि जह सत्ये खंडइ, तो वि ण सो महरत्तणु छंडइ । दुज्जण सुप्रण सहावें तप्पर, सूरुतवइ ससहरु सीयरकरु ॥
-बाहुवलिचरिउ