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________________ ११२ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह इन व्रतकथाओं में, व्रतका स्वरूप, उनके आचरण की विधि, और फलका प्रतिपादन करते हए व्रतकी महत्ता पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। प्रात्म-शोधन के लिए व्रतों की नितांत आवश्यकता है। क्योंकि आत्म-शुद्धि के बिना हित-साधन सम्भव नहीं है। इन कथाओं में से पक्खवइ कथा और अनन्तव्रत कथा ये दो कथायें तो ग्वालियर निवासी संघपति साहू उद्धरण के जिनमन्दिर में निवास करते हुए साह सारंगदेव के पुत्र देवदास की प्रेरणा से रची गई हैं और अणंतवयकहा, पुप्फंजलिवयकहा और दहलक्खरणवयकहा ये तीनों कथाएं ग्वालियर निवासी जैसवालवंशी चौधरी लक्ष्मणसिंह के पुत्र पण्डित भीमसेन के अनुरोध से बनाई गई हैं । सातवीं णिदुहसप्तमीकथा गोपाचलवासी साहू बीधा के पुत्र सहजपाल के अनुरोध से लिखी गई है। शेष ६ कथाएँ किनकी प्रेरणा से रची गई हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। सम्भव है वे धार्मिक भावना से प्रेरित होकर लिखी गई हों। भट्टारक गुणभद्र काष्ठासंघ माथुरान्वय के भट्टारक मलयकीर्ति के शिष्य और भट्टारक यशःकीर्ति के प्रशिष्य थे और मलयकीति के बाद उनके पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। उनकी ये १५ कथाएं पंचायती मंदिर खजूर मस्जिद दिल्ली के शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक में संगृहीत हैं। इनकी अन्य क्या रचनाएँ हैं यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। यह भी प्रतिष्ठाचार्य थे और अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा इनके द्वारा सम्पन्न हुई है। __ गुणभद्र नाम के अनेक विद्वान् हो गए हैं । उनसे प्रस्तुत भट्टारक गुणभद्र भिन्न हैं। इन्होंने अपने विहार द्वारा जिनधर्म का उपदेश देकर जनताको धर्म में स्थिर किया है और जैनधर्म के प्रचार या प्रसार में सहयोग दिया है। इनके उपदेश से अनेक ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। यद्यपि इन्होंने अपनी रचनाओं में किसी राजा का उल्लेख नहीं किया। किन्तु अन्य सूत्रों से यह स्पष्ट जाना जाता है कि इनकी यह रचनाएँ ग्वालियर के तोमर वंशी राजा डूंगरसिंह के पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्यकाल में बनाई गई हैं। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १६वीं शताब्दी के मध्य काल तक जान पड़ता है। कांरजा के सेनगढ़ भंडार की समयसार की लिपि प्रशस्ति वि० संवत् १५१० वैशाख शुक्ला तीज की लिखी हुई है, जो गोपाचल में डूंगरसिंह के राज्यकाल में भट्टारक गुणभद्र की आम्नाय के अग्रवाल वंशी गर्ग गोत्रीय साहु जिनदास ने लिखवाई थी' । इससे भी गुणभद्र का समय १६वीं शताब्दी जान पड़ता है। ५१वीं, ५२वीं, ५३वीं, ५४वीं, ५५वीं, ५६वीं, ५७वीं, ५८वीं, ५९वीं, ६०वीं, ६१वीं, ६२वीं, ६३वीं, और ६४वीं प्रशस्तियों का परिचय ५०वीं प्रशस्ति के साथ दिया गया है। ६५वीं प्रशस्ति 'अनंतव्रतकथा' की है, जिसमें कर्ता का नाम अभी अज्ञात है। प्रस्तुत रचनो पंचायती मन्दिर दिल्ली के शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक पर से दी गई हैं। रचनाकाल भी अज्ञात है। फिर भी यह रचना १५वीं शताब्दी की जान पड़ती है। ६६वीं प्रशस्ति 'पाराहरणासार' की है जिसके कर्ता कवि वीर हैं। प्रस्तुत रचना में सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान और सम्यकचारित्र और सम्यक्तपरूप चार आराधनाओं का स्वरूप संक्षेप में दिया गया है। वीर कवि कब हए और उनका समय तथा गुरु परम्परा क्या है ? यह रचना पर से कुछ ज्ञात नहीं होता। यह रचना अामेर शास्त्र भण्डार के एक गुच्छक पर से संगृहीत की गई है । वीर नाम के एक कवि वि० सं० १०७६ में हुए हैं जिन्होंने उक्त संवत् में जंबू स्वामिचरित्र की रचना की थी। ये दोनों एक ही हैं या भिन्न हैं । यह अभी विचारणीय है। १. देखो अनेकान्त वर्ष १४ किरण १० पृ० २९६
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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