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प्रस्तावना
बना दिया और उसका विवाह सागरदत्त सेठ की पुत्री मनोरमा से कर दिया। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह अपने कार्य का विधिवत् संचालन करने लगा । सुदर्शन के रूप को चारों ओर चर्चा थी, उसके रूपवान शरीर को देखकर उस नगर के राजा धाड़ीवाहन की रानी अभया उस पर आसक्त हो जाती है और उसे प्राप्त करने की अभिलाषा से अपनी चतुर पंडिता दासी को सेठ सुदर्शन के यहां भेजती है पंडिता दासी रानी की प्रतिज्ञा सुनकर रानो को पातिव्रत धर्म का अच्छा उपदेश करती है और सुदर्शन की चरित्र-निष्ठा की अोर भी संकेत करती है, किन्तु अभया अपने विचारों से निश्चल रहती है और पण्डिता को उक्त कार्य की पूर्ति के लिए खासतौर से प्रेरित करती है। पंडिता सुदर्शन के पास कई बार जाती है और निराश होकर लौट आती है, पर एक बार वह दासी किसी कपट-कला द्वारा सुदर्शन को राजमहल में पहुंचा देती है। सुदर्शन के राजमहल में पहुँच जाने पर भी अभया अपने कार्य में असफल रह जाती है-उसकी मनोकामना पूरी नहीं हो पाती । इससे उसके चित्त में असह्य वेदना होती है और वह उससे अपने अपमान का बदला लेने पर उतारू हो जाती है, वह अपनी कुटिलता का माया-जाल फैलाकर अपना सुकोमल शरीर अपने ही नखों से रुधिर-प्लावित कर डालती है और चिल्लाने लगती है कि दोड़ो लोगो मुझे बचायो, सुदर्शन ने मेरे सतीत्व का अपहरण किया है, राजकर्मचारी सुदर्शन को पकड़ लेते हैं और राजा अज्ञानतावश क्रोधित हो रानी के कहे अनुसार सुदर्शन को सूली पर चढ़ाने का आदेश दे देता है, पर सुदर्शन अपने शीलव्रत की निष्ठा से विजयी होता है-एक देव प्रकट होकर उसकी रक्षा करता है। राजा धाडोवाहन का उस व्यन्तर से युद्ध होता है और राजा पराजित होकर तथा सुदर्शन की शरण में पहुँचता है। राजा घटना के रहस्य का ठीक हाल जानकर अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करता है और सुदर्शन को राज्य देकर विरक्त होना चाहता है, परन्तु सुदर्शन संसार-भोगों से स्वयं ही विरक्त है, वह दिगम्बर दीक्षा लेकर तपश्चर्या द्वारा कर्मसमूह का विनाशकर मुक्त हो जाता है। सुदर्शन का तपस्वी जीवन बड़ा ही सुन्दर रहा है उसे कवि व्यक्त करने में सफल हुआ है । अभयारानी और पंडिता दासी भी आत्मघात कर मर जाती हैं और वे अपने कर्मानुसार कुगति में जाती हैं। इस तरह इस ग्रंथ में पंच नमस्कार मंत्र के फल की महत्ता अङ्कित की गई है।
कवि ने इस ग्रंथ की रचना अवन्ति देश स्थित धारा नगरी के जिनवर विहार में राजा मोज के राज्यकाल में सं० ११०० में की है।
ग्रंथकर्ता ने ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए जो परम्परा दी है वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व की वस्तु है। कुन्दकुन्दाचार्य के वंश में पद्मनंदी, विष्णुनन्दी, विश्वनन्दी, वृषभनन्दी, रामनन्दी, त्रैलोक्यनन्दी, माणिक्यनन्दी का नामोल्लेख किया है, इन्हीं माणिक्यनन्दी के प्रथम विद्या शिष्य नयनन्दी हैं।
दूसरी कृति 'सयल-विही-विहाण' नाम का महाकाव्य है, जो ५८ संधियों में समाप्त हुआ है। परंतु खेद है कि वह अपूर्ण उपलब्ध हुआ है; क्योंकि उसमें १६ संधियां नहीं हैं, वे ग्रन्थ से कैसे त्रुटित हई इसके जानने का भी कोई साधन नहीं है । प्रारंभ की दो तीन सन्धियों में ग्रंथ के अवतरण प्रादि पर प्रकाश डालते हुए १२ वीं से १५ वीं संधि तक मिथ्यात्व के काल मिथ्यात्व और लोक-मिथ्यात्व आदि अनेक मिथ्यात्वों का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए क्रियावादि और प्रक्रियावादि भेदों का विवेचन किया है। परन्तु खेद है कि १५वीं सन्धि के पश्चात् ३२ वीं सन्धि तक १६ सन्धियाँ आमेर भण्डार प्रति में नहीं हैं। हो सकता है कि वे लिपिकर्ता को न मिली हों।