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जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह मिलते हैं। तथा लोकशास्त्र में भी कौलिक, चोर, व्याधे आदि की कहानियां सुनने में आती हैं; किन्तु इस सुदर्शनचरित में ऐसा एक भी दोष नहीं है । जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है :
रामो सीय-विप्रोय-सोय-विहुरं संपत्तु रामायणे, जादं पाण्डव-धायरल सददं गोत्तं कली-भारहे । डेडा-कोलिय-चोर-रज्जु-गिरदा आहासिदा सुद्दये,
यो एक्कं पि सुदंसणस्स चरिदे दोसं समुब्भासिदं । कवि ने काव्य के आदर्श को व्यक्त करते हुए लिखा है कि रस और अलंकार से युक्त कवि की कविता में जो रस मिलता है वह न तरुणिजनों के विद्र म समान रक्त अधरों में, न पाम्रफल में, न ईख में, न अमृत में, न हाला (मदिरा) में, न चन्दन में और न चन्द्रमा में ही मिलता है'।
प्रस्तुत ग्रन्थ में सुदर्शन के निष्कलंक चरित की गरिमा ने उसे और भी पावन एवं पठनीय बना दिया है। ग्रन्थ में १२ सन्धियां हैं जिनमें सुदर्शन के जीवन परिचय को अंकित किया गया है। परन्तु इस कहाकाव्य में कवि की कथन शैली, रस और अलंकारों की पुट, सरस कविता, शान्ति और वैराग्य रस तथा प्रसंगवश कला का अभिव्यंजन, नायिका के भेद, ऋतुत्रों का वर्णन और उनके वेष-भूषा आदि का चित्रण, विविध छन्दों की भरमार, लोकोपयोगी सुभाषित और यथास्थान धर्मोपदेशादि का विवेचन इस काव्य-ग्रन्थ की अपनी विशेषता के निर्देशक हैं और कवि की आन्तरिक भद्रता के द्योतक हैं।
प्रस्तुत ग्रंथ में पंचनमस्कार मंत्र का फल प्राप्त करने वाले सेठ सुदर्शन के चरित्र का चित्रण किया गया है। चरितनायक यद्यपि वणिक श्रेष्ठी हैं, तो भी उसका चरित्र अत्यन्त निर्मल तथा मेरुवत् निश्चल है उसका रूप लावण्य इतना चित्ताकर्षक था कि उसके बाहर निकलते ही युवतिजनों का समूह उसे देखने के लिए उत्कंठित होकर मकानों की छतों, द्वारों तथा झरोखों में इकट्ठा हो जाता या; वह कामदेव का कमनीय रूप जो था। साथ ही वह गुणज्ञ और अपनी प्रतिज्ञा के सम्यक्पालन में अत्यन्त दृढ़ था। धर्माचरण करने में तत्पर था, सबसे मिष्टभाषी और मानव जीवन की महत्ता से परिचित था और था विषयविकारों से विहीन ।
ग्रंथ का कथा भाग बड़ा ही सुन्दर और आकर्षक है और वह इस प्रकार है
अंग देश के चम्पापुर नगर में, जहां राजा धाड़ीवाहन राज्य करता था, वहां वैभव सम्पन्न ऋषभदास सेठ का एक गोपालक (ग्वाला) था जो गंगा में गायों को पार करते समय पानी के वेग से डूब कर मर गया था और मरते समय पंच नमस्कार मंत्र की आराधना के फलस्वरूप उसी सेठ के यहां पुत्र हुआ था । उसका नाम सुदर्शन रवखा गया । सुदर्शन को उसके पिता ने सब प्रकार से सुशिक्षित एवं चतुर
१. णो संजादं तरुणिग्रहरे विद्दुमारत्तसोहे ।
णो साहारे भमिय भमरे णेव पुंडिच्छु डंडे ।। णो पीयूसे हले खिहिणे चन्दणे णेव चन्दे । सालंकारे सुकइ भणिदे जं रसं होदि कव्वे ॥ २. करे कंकणु कि प्रारिसे दोसए ? हाथ कंगन को पारसी क्या ?
एके हत्थें ताल कि वज्जइ । ताली क्या एक हाथ से बजती है ? किं मारवि पंचमुगाइज्जइ । ताड़न से क्या पांचवां स्वर गाया जाता है। -सुदंक्षणचरिउ