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________________ मैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह कवि ने इस ग्रंथ में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है उनमें से कुछ छन्दों के नाम मय पत्र नम्बर के निम्न प्रकार हैं १. विलासनी, (३२) २. भुजंगप्रिया, (२९) ३. मंजरी, (३०) ४. वंशस्थल, (४४) ५. चन्द्रलेखा (५२) ६. सिंधुरगति, (५८) ७. दोधक, (७४) ८. मौक्तिकमाला, (७७) ६. सगिणी, (८३) १०. पादाकुला, (६) ११. मदनलीला, (६८) १२. द्विपदी, (६८) १३. विद्युन्माला, (९९) १४. रासाकुलक, (१०२) १५. कुवलयमालिनी, (१०२) १६. तुरंगगति मदन, (१०३) १७. समानिका, (११८) १८. रथोद्धता,(११९) १६. प्रमाणिका, (१७५) २०. नाग कन्या, (१७६) २१, संगीतगंधर्व, (२००) २२. शृंगार, (२००) २३. बालभुजंग ललित, (२०१) २४. अजनिका, (२५०) आदि इनके अतिरिक्त दोहा, घत्ता, गाहा, दुपदी, पद्धडिया, चौपाई, मदनावतार भुजंगप्रयात आदि अनेक छन्दों का एक से अधिक बार प्रयोग हुआ है । अतएव छन्दशास्त्र की दृष्टि से भी ग्रन्थ अध्ययन, मनन और प्रकाशन के योग्य है । ग्रन्थकी भाषा प्रौढ़ और कविके अपभ्रंश भाषाके साधिकारको सूचित करती है। कवि ने ग्रन्थ के सन्धि-वाक्य भी पद्य में निबद्ध किये हैं। यथा-- मुणिवर णयणंदी सण्णिबद्धे पसिद्धे, सयल विहिविहाणे एत्थ कव्वे सुभब्वे । समवसरणसंसि सेणिए संपवेसो, भरिणउ जण मणुज्जो एस संधी तिइज्जो ॥३॥ ग्रंथ की ३२ वीं सन्धि में मद्य-मांस-मधु के दोष उदंबरादि पंचफलों के त्याग का विधान और फल बतलाया है । ३३ वीं सन्धि में पंच अणुव्रतों को विशेषताओं का उल्लेख है और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के आख्यान भी यथा स्थान दिए गए हैं शेष सन्धियों में भी इसी तरह का कथन किया गया है। ५६ वीं संधि के अन्त में सल्लेखना (समाधिमरण) का स्पष्ट उल्लेख है और विधि में प्राचार्य समन्त भद्र के कथन-क्रम को अपनाया गया है । इस तरह ग्रन्थ में गृहस्थोपयोगी व्रतों का सुन्दर विधान किया गया है। ग्रन्थ की दूसरी संधि में अंबाइय और कंचीपुर का उल्लेख किया है। अनन्तर वल्लभराज का भी उल्लेख किया है, जिसने दुर्लभ जिन प्रतिमाओं का निर्माण कराया था और जहां पर रामनन्दी, जयकीर्ति और महाकीति प्रधान थे। आगे कवि ने रामनन्दी को प्राचार्य प्रकट किया है । और रामनन्दी के शिष्य बालचन्द्र ने नयनन्दी से कहा कि सकलविधिविधान काव्य अविशेषित है । कवि ने उसे कुछ दिनों के बाद बनाना प्रारम्भ किया था; क्योंकि किसी कारण विशेष से कवि का चित्त उद्विग्न था, चित्त की अस्थिरता में ऐसे महाकाव्य का निर्माण कैसे सम्भव हो सकता है ? उद्विग्नता दूर होनेपर ही प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया गया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त मूल्यवान् है, कवि ने ग्रन्थ बनाने में प्रेरक मुनि हरिसिंह का उल्लेख करते हुए अपने से पूर्ववर्ती जैन जैनेत्तर और कुछ सम सामयिक विद्वानों का भी नामोल्लेख किया है-वररुचि, वामन, कालिदास, कौतूहल, बाण, मयूर जिनसेन वादरायण, श्रीहर्ष, राजशेखर, जसचन्द्र, जयराम, जयदेव, पादलिप्त पिंगल, वीरसेन, सिंहनन्दी, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, १. अंबाइय कंचीपुर विरत्त, जहि भमइ भव्य भत्तिहि पसत्त । जहिं बल्लभराएं बल्लहेण, कराविउ कित्तण दुल्लहेण । जिणि पडिमा लंकिउ गच्छमाणु, णं केण वियंभिउ सुरविमाणु । जहिं रामगंदि गुणमणि-णिहाणु, जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु। -सयलविहिविहाण काव्य सन्धि २
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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