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________________ प्रस्तावना रुद्र गोविन्द, दण्डी, भामह, माघ, भरत, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र प्रभाचन्द्र, ओर श्रीकुमार जिन्हें सरस्वतीकुमार भी कहते थे। इन कवियों में जिनसेन, जयराम, वीरसेन, सिंहनन्दी, सिंहभद्र, गुणभद्र, समन्तभद्र, अकलंक, गोविंद, चउमुह, स्वयंभू, पुष्पदन्त, श्रीचन्द्र, प्रभाचन्द्र और श्रीकुमार ये १५ कवि जैन हैं । वे जिनसेन से पुष्पदन्त तक सभी कवि ग्रंथ कर्ता से पूर्ववर्ती हैं और शेष सम सामयिक । इनमें जयराम वही प्रतीत होते हैं जो प्राकृत धर्मपरीक्षा के कर्ता थे और जिनका उल्लेख बुधहरिषेण ने सं० १०४४ में रचीजाने वाली धर्म परीक्षा में किया । श्रीचन्द्र प्रभाचंद्र श्रीकुमार और हरिसिंह मूनि सम समयवर्ती हैं। इस तरह कवि ने ग्रंथ में बहुमूल्य सामग्री संकलित की है, कथनशैली चित्ताकर्षक है । संसार की असारता और मनुष्य की उन्नति अवनति का हृदयग्राही वर्णन किया है और बतलाया है कि जब एक ही दिन में सूर्य जैसे पराक्रमी को भी उदय, उपरिगमन और पतन इन तीन अवस्थाओं का अनुभव करना पड़ता है, तब अन्य का क्या कहना । यौवन, धनादि सब अस्थिर हैं। यथा-उययं चडणं पडणं तिणि वि ठागाइं इक्क दिणहमि । __ सूरस्स य एसगई अण्णस्स य केत्तियं थाम । कवि नयनन्दी अपने समय के उच्चकोटि के कवि थे, और अपभ्रंश के छन्दों के मर्मज्ञ के । ग्रंप की महत्ता का अन्दाज उसके अध्ययन से लगता है। कवि ने ग्रंथ-प्रशस्ति में लिखा है कि वराड या वराट देश में प्रसिद्ध कोति, लक्ष्मी और सरस्वती से मनोहर वाट ग्राम के महान महल शिखर में जिणिंद विराजमान हैं जिनकी कांति से चन्द्र-सूर्य भी लज्जित हो गए हैं । जहां पर जिनागम का उत्सव सम्पन्न होता था और वहीं पर वीरसेन जिनसेन ने धवला और जयधवला टीकाओं का निर्माण किया था, वहां ही पुंडरीक कवि धनंजय हुए थे। कवि-परिचय प्रस्तुत कवि नयनन्दी कुन्दकुन्दान्वय की परम्परा के विद्वान थे। त्रैलोक्यनन्दि के प्रशिष्य और माणिक्यनंदि के प्रथम विद्या शिष्य थे, माणिक्यनंदि दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। उन्हीं से नयनंदि ने अध्ययन किया था। इनके दीक्षा गुरु कौन थे और वह कहां के निवासी थे, इनका जीवन-परिचय क्या है ? इसे कवि ने ही नहीं दिया है। परंतु कवि काव्य-शास्त्र में निष्णात थे, साथ ही संस्कृत प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के विशिष्ट विद्वान् थे। छन्द शास्त्र के भी परिज्ञानी थे। कवि ने धारा नगरी में ही अध्ययन किया था और वहीं रहते हुए परमारवंशी राजा जयसिंह के राज्य में वि० सं० ११०० में सुदर्शन चरित की १. वर वराडदेसे पसिद्धए, कित्ति लच्छि सरसइ-मणोहरे । वाडगामि महि महिल सेहरे, जहिं जिणिद-हर पह-पराजिया। चंद-सूर णेह जंत लज्जिया, तहिं जिणागमुच्छव अलेवहि । वीरसेण-जिणसेण देवहि, णामधवल जयववल सय । महाबंध तिणि सिद्धंत सिव-पहा, विरइऊण भवियहं सुहाविया । सिद्ध-रमणि-हाराच दाविया पुंडरीउ जहिं कवि धणंजर । -सकल विधि विधान प्रशस्ति
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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