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जन पंच प्रशस्ति संग्रह रचना की थी। उसके बाद किसी समय सकलविधिविधान की रचना की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ ५८ संधियों का था किन्तु उसके मध्य की १६ सन्धियाँ अनुपलब्ध हैं। कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। इन्होंने विविध देशों में भ्रमण कर जैनधर्म का भी प्रचार किया था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख सुदंसण चरिउ में किया है, जिसे उस ग्रंथ का परिचय देते समय दे दिया है।
___चौथी प्रशस्ति 'पार्श्व पुराण'की है, जिसके कर्ता कवि पद्मकीति हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में १८ संधियांहैं। संधियों में कडवकों की संख्या निश्चित नहीं है, उदाहरणार्थ चौथी-पांचवीं संधि में वारह-बारह कडवक हैं । तो चउदहवीं संधि में ३० कडवक दिये हैं। जिनमें जैनियों के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन-परिचय अङ्कित किया गया है । वे अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान (महावीर) से ढाई सौ वर्ष पूर्व हुए हैं। और ऐतिहासिक महापुरुष थे। उनकी ऐतिहासिकता को ऐतिहासिक विद्वानों ने स्वीकार कर लिया है। ग्रन्थ में अन्य सब कथन परम्परा के अनुकूल ही किया गया है।
हां. कवित्व की दृष्टि से छठी, दशवीं और ग्यारहवीं संधियां उल्लेखनीय हैं। छठी संधि में ग्रीष्म काल और उसमें होने वाली जलक्रीड़ा, वर्षा काल और हेमन्त आदि का सुन्दर वर्णन दिया हुआ है । दसवीं संधि में सूर्यास्त, रजनी और चन्द्रोदय आदि का कथन दृष्टव्य है । ग्यारहवीं संधि में युद्धादि का वर्णन भी चित्तार्षक हुआ है। भाषा में अनुरणनात्मक शब्दों का प्रयोग भी यत्र-तत्र हुमा देखने में आता है और जो स्वाभाविक है। मात्रिक छन्दों के अतिरिक्त भुजंगप्रयात, स्रग्विणी आदि वणिक छन्द भी प्रयुक्त हुये हैं। ११वीं संधि के प्रत्येक कडवक के प्रारम्भ में पहले एक दुवई और फिर उसके बाद दोहय या दोहे का प्रयोग भी किया गया है। एक व्यक्ति विशेष के परिचय की मुख्यता इसे खण्ड-काव्य कहा जाता है। पर उसमें महाकाव्यत्व की क्षमता भी दृष्टिगत होती है।
__कवि ने इस ग्रन्थ को वि० सं० EEE में कार्तिक की अमावस्या के दिन बनाकर समस्त किया है।
ग्रंथकर्ता ने अपनी गुरु परम्परा निम्न रूप से व्यक्त की है। भूमण्डल में प्रसिद्ध माथुरगच्छ के विद्वान चन्द्रसेन नाम के ऋषि हुए। उनके शिष्य, महायती कामजयी माधवसेन हुए। उनके शिष्य जिनसेन हुए, और उनके शिष्य उक्त पद्मकीर्ति या पद्यसेन हैं। जिन्होंने इस ग्रन्थ को 'भमिया पुहमी' जिनालय में बैठकर बनाया था । ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है । ग्रन्थ की श्लोक संख्या २३२३ बतलाई गई है।
___५वीं प्रशस्ति 'धर्म परीक्षा' की है जिसके कर्ता कवि हरिषेण हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में ११ संधियां और २३८ कडवक हैं । जिसे कवि ने बुध सिद्धसेन के प्रसाद से बनाया था। ग्रन्थ में मनोवेग और पवनवेग का रोचक सम्वाद दिया हुआ है । ग्रंथ का कथानक मनोरंजक है, और वह पौराणिक कथानकों के अविश्वसनीय असम्बद्ध चरित्र चित्रण से भरा हुआ है और उन पाख्यानों को प्रसंग्रत बतलाते हुए जैनधर्म के प्रति आस्था उत्पन्न की गई है; किन्तु उनमें स्मृत-पुराण-ग्रन्थों के मूल वाक्यों का कोई उल्लेख नहीं है । ग्रन्थ की
१. चडि वि महारहि भउ सहिउ, वहरिपमाण ममंदु ।
पहि मुह चल्लिउ परवलहो सण्णन्झ वि गरेंदु ॥११-१ २. गवसय गउ बा णुइये कत्तियमासे प्रमावसी दिवसे। लिहियं पासपुराणं कहणा इह पउम णामेण ॥