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५३ भाषा अपभ्रंश हैं। कवि ने संसार को प्रसारता का सुन्दर वर्णन किया है' और बतलाया है कि संसार प्रसार है, कोई कभी दुख नहीं चाहता, सभी सुख चाहते हैं। संसार में धन धान्यादि कोई भी वस्तु इस जीवन के साथ नहीं जाती, कुटुम्बीजन स्मशान भूमि तक अवश्य जाते हैं, किन्तु धर्म अधर्म जीव के साथ परलोक में भी जाते हैं, दुःख सुख भी साथ जाते हैं। ऐसा विचारकर मानसिक संताप को दूर कर, जिससे शुभ गति मिले ऐसा, प्रयत्न करना चाहिए।
ग्रन्थ की प्राद्य प्रशस्ति में कवि ने अपने से पूर्वर्ती ३ कवियों-चतुर्मुख, स्वयंभू और पुष्पदन्त का नामोल्लेख किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ काष्ठासंघ के प्राचार्य अमितगति की धर्मपरीक्षा से, जो वि० सं० १०७० में संस्कृत में रची गई है, उससे यह ग्रन्थ २६ वर्ष पूर्व बना है। डा० एन० उपाध्याय ने इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला है।
कवि परिचय कविवर हरिषेण मेवाड़ देश में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे। इनका वंश धक्कड़ या या धर्कट था, जो उस समय प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित था। इस वंश में अनेक कवि हुए हैं। इनके पिता का नाम गोवर्द्धन और माता का नाम गुणवती था, यह किसी कारणवश चित्रकूट को छोड़कर (अचलपुर) में रहने लगे थे । और वहां उन्होंने अपने से पूर्व बनी हुई जयराम की प्राकृत गाथा बद्ध धर्म परीक्षा को देख कर वि० सं० १०४४ में पद्धडिया छन्द में धर्मपरीक्षा नाम का ग्रन्थ बनाया था।
छठवीं प्रशस्ति 'जंबू स्वामी चरित' की है। जिसके कर्ता कवि वीर हैं । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'शृङ्गार वीर महाकाव्य' है । कवि ने इस नाम को ग्रन्थ की प्रत्येक संधि पुष्पिकानों में व्यक्त किया है और ग्रंथ को महाकाव्य भी सूचित किया है । ग्रन्थ में ११ संधियां अथवा अध्याय हैं। जिनमें 'जंबूस्वामी के चरित का चित्रण किया है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में विहित रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथा पात्र भी उत्तम हैं, जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ की उपयोगगिता की अभिवृद्धि हुई है । शृंगार रस, वीर रस और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं कहीं शृंगारमूलक वीर रस है । ग्रंथ में अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है एक चमत्कारिक, दूतरा स्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है।
१. भणिउ ताम संसार प्रसारए, कोवि ण कासु वि दुह-गरु पारए । मुय मणुएं सह प्रत्यु ण गच्छइ, समणु मसाणु जार मणु मच्छड् । धम्माहम्मु णवरु मणुलग्गड, गच्छा जीवहु सुह-दुह-संगउ । इय जाणे वि ताय दाणुल्लउ, चितिउ नह सुपत्ते पर भल्लउ । इट्ठकेउ णिय-मणि झाइज्जह । सुह-गइ-गमणु जेण पाविज्जह । २. देखो हरिषेण की धम्मपरिक्खा, एनल्स माफ भंडारकर मोरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना
___ भा० २३ पृ. ५७२.६०८ ३. विक्कम णिय परिवत्तिय कालए, गणए वरिस सहस चउतालए । इस उप्पण्णु भवियजण सुहयरु भरहिय धम्मासय सायर ॥
-धर्मपरीक्षा पूना वाली प्रति । ४. इस जंबूसामिपरिए सिंगारवीरे महाकव्वे महाकह देवयत्त सुय 'वीर' विरइये सामि उप्पत्ती कुमार-विजय नाम चउत्थी संधी समतों।