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________________ जन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह 'भारह-रण-भूमिव स-रहभीस', हरिप्रज्जुरण' उलसिहंडिदीस । गुरु' अासस्थाम कलिंगचार, गयगज्जिर' ससर महीससार ॥ लंकायरी व स-रावणीय", चंदणपहि' चार कलहावरणीय ।' सपलास" सकंचण अक्खघट्ट, स विहीसण' कइकुल फल रसट्ट ॥ इन पद्यों में विध्याटवी का वर्णन करते हुए श्लेष प्रयोग से दो अर्थ ध्वनित होते हैं-स रह-रथ सहित और एक भयानक-जीव हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, नहुल और नकुल जीव, शिखंडि और मयूर आदि। स्वाभाविक विवेचन के लिए पांचवीं संधि से शृंगार मूलक वीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार है-केरलनरेश सगांक की पुत्री विलासवती को रत्नशेखर विद्याधर से संरक्षित करने के लिए जंबू कुमार अकेले ही युद्ध करने जाते हैं। युद्ध वर्णन में कवि ने वीर के स्थायीभाव 'उत्साह' का अच्छा चित्रण किया है। पीछे मगध के शासक श्रेणिक या बिम्बसार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुँच जाती है, किन्तु जम्बू कुमार अपनी निर्भय प्रकृति और असाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियां भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्नियां भी युद्ध में जाने के लिए उन्हें प्रेरित करती हैं । युद्ध का वर्णन कवि के शब्दों में यों पढ़िए। 'अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु । दलियदप्प दप्पिय मइमोहणु, कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जोहणु। तुझ रण दोसु वइव किउ धावइ, अरणउ करंतु महावइ पावइ। जिह जिह दंड करंविउ जंपइ, तिह तिह खेयरु रोसहि कंपइ । घट्ट कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगड पासेय पसित्तउ । दट्ठाहरु गुंजज्जलुलोयणु, पुरुदुरंतरणासउड भयावणु। पेक्खेवि पहु सरोसु सण्णामहि, वुत्तु वोहरू मंतिहिं तामहि । अहो अहा हूयहूय सासस गिर, जंपइ चावि उद्दण्ड गम्भिउ किर। अण्णहो जीहएह कहो वग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अग्गए । १. रथसमन्विता भीसा भयानका, विध्याटवीपक्षे सरभैरष्टापदंर्भयानका । २. वासुदेवादयः दृश्याः, विध्याटव्यां हरिः सिंहः, अर्जुनो वृक्षविशेषः वकुलः प्रसिद्धः शिखंडी मयूरः । ३. भारतरण-भूमो गुरुः द्रोणाचार्यः तत्पुत्रः अश्वत्थामा, कलिंगा कलिंग देशाधिपतिः राजा एतेषां चारा श्रेष्टाः विघ्याटव्यां गुरुः महान्, प्रस्वत्यः पिप्पलः मामः पादः कलिंगवल्यचार: वृक्ष विशेषाः । ४. भारतरणभूमौ गजगजित ससरबाण समन्विताः महीसाः राजानः तः साराः भवंति, विंध्याटव्यां तु गज गजितः ससरा सरोवरसमन्विता: महीससारा महिषा सारा यस्यां । ५. रावण सहिता पक्षे रयणवृक्ष सहिता। . ६. लकानगरी चन्द्रनखा चारेण चेष्टा विशेषेण कलहकारिणी पक्षे चन्दनवृक्षविशेषः मनोज्ञलघुहस्तिभिर्युक्ता। ७. पलासः राक्षसः युक्ता सकांचन प्रक्षयकुमारो रावणपुत्र तेन युक्ता, पक्षे पलासवृक्ष सकांचन मदनवृक्ष भक्ष विभीतिक वृक्षा ते तक्का यत्र ।। ८. लंकानगरी विभीषणेन कपीनां बानराणां कुलः समन्विता, फलानि रसाढ्यानि यत्र-नानाभयानकाना बान राणां संघातैः फलरसढ्या च ।
SR No.010237
Book TitleJain Granth Prashasti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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